श्रीरूपगोस्वामी श्रीचैतन्यमहाप्रभु के प्रधान अनुयायियों में से थे। इसकी रचना षोडश शतक में मानते हैं। रूपगोस्वामी का कविता तथा साहित्य-शास्त्र के क्षेत्र में उत्कृष्ट स्थान है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनके सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हरिभक्ति-रसामृतसिन्धु तथा उज्ज्वलनीलमणि हैं। नाट्यशास्त्र पर लिखा हुआ एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है ‘नाटकचन्द्रिका’ । कृष्ण के जीवन पर आधारित २ नाटक और एक भाण भी इनका लिखा हुआ है। र मिार फिलिम १. श्री जीवानन्द विद्यासागर द्वारा उनके काव्यसंग्रह में तृतीय भाग के तृतीय संस्करण में सन् १८८८ में कलकत्ता से प्रकाशित। सन्देशकाव्यपरम्परा
कथा-सार
इसकी कथा श्रीमद्भागवत पर ही आश्रित है। मथुरा में रहते-रहते श्रीकृष्ण को अकस्मात् गोकुल की याद आती है। गोपियों की प्रणय-लीलाओं का स्मरण करके वे स्तब्ध हो जाते हैं। अपने विरह के दुःख की सारी कथा उद्धवजी को सुनाते हैं। गोपियों की विरह-व्यथा सुनाकर राधा की मनोव्यथा का उल्लेख करने लगते हैं और उन्हें सान्त्वना देने के लिये उद्धव से गोकुल जाने का निवेदन करते हैं। मथुरा से गोकुल तक के मार्ग का कथन यहाँ मनोहारी शैली में किया गया है। सर्वप्रथम उद्धव को मथुरा के गोकर्ण नामक मन्दिर में जाने का परामर्श दिया है। तदनन्तर क्रमशः यमुना-सरस्वतीसंगम, अम्बिकाकानन, अक्रूरतीर्थ, कालियहूद, साहारग्राम, गोकुल का विद्युत्कारी नामक दक्षिण भाग आता है। गोकुल भूमि के वर्णन के प्रसंग में वहाँ की गोपियों के प्रेमपूर्ण लीलालाप, कर्मठ नर्मगोष्ठी तथा कृष्णजी की यात्रा के समय उनके करुण विलाप का भी वर्णन है। पहले कृष्ण की ओर से उद्धव को वृन्दावन के वृक्षों को शुभाशीषु देकर तथा गायों का कुशल पूछ कर नन्द-यशोदा को प्रणाम करने का परामर्श दिया है। प्रथम गोपियों को सामूहिक रूप से सन्देश देकर राधिका को अपना सन्देश कहने को कहा है तथा पुनर्मिलन का आश्वासन भी दिया है। इसके पश्चात् व्रज-भूमि की यात्रा का परामर्श देते हुए कृष्ण की प्रार्थना के साथ काव्य समाप्त होता है। जाति काव्य-सौन्दर्य : श्रीमद्भागवत से कथावस्तु लेकर कवि ने इस सरस काव्य की रचना की है। भाव, भाषा तथा छन्द की दृष्टि से यह काव्य मेघदूत का अनुकरण करता है। काव्य का मुख्य रस विप्रलम्भ शृगार ही है। कवि ने गोकुल का, गोशिशुओं का, गोपियों की मानसिक भावनाओं का सरसता से वर्णन किया है। गोपियों की प्रेमोल्लास से पूर्ण नर्मगोष्ठी का भावपूर्ण वर्णन है। गोपियों के प्रति कृष्ण के प्रेम की तीव्रता का स्पष्ट परिचय मिलता है। अपने सन्देश में कृष्ण ने उद्धव से कहा - ध्यायं ध्यायं नवनवमहं सौहृदं वः सुकण्ठ्यः । बम गाढोत्कण्ठाक्लमपरवशं वासराणि क्षिपामि ।। १०५।। विरहिणी राधा के लिये कपोतिका की सुन्दर उपमा कवि ने दी है। इस प्रसंग में कृष्ण उद्धव से कहते हैं त्वं मच्चेतोभवनवलभीप्रौढपारावती ताम्। उन राधामन्तः क्लमकवलिता सम्भ्रमेणाजिहीथाः।। ११६ ।। कवि की शैली आद्योपान्त रमणीय है। धार्मिक दृष्टि से भी इस काव्य का महत्त्व काव्य-खण्ड