विष्णुत्रात ने १६वीं शताब्दी में ‘कोकसन्देश’ नामक सन्देश-काव्य की रचना की है। कथासार : इसमें एक राजपुत्र श्रीविहारपुर से कामाराम नामक नगरी में अपनी प्रेयसी को कोक द्वारा सन्देश भेजता है। राजपुत्र अपने नगर में अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहता है। एक बार एक यांत्रिक ने उसे उपहार में ऐसा यन्त्र दिया जिसके सिर में स्पर्श करते ही मनुष्य अपने देश से दूर पहुँच जाता है। कुतूहलवश एक दिन राजपुत्र उस यन्त्र को सिर में लगाता है और तत्काल अपने प्रासाद से दूरस्थ किसी स्थान में पहुँच जाता है। विरह में व्याकुल होकर वह एक चक्रवाक पक्षी को देखकर उसे विरह-वृत्तान्त सुनाता है और चक्रवाक को प्रेयसी के पास अपना सन्देश ले जाने के लिये निवेदन करता है। इस स्थल में नायक ने विहारपुर से कामाराम नगरी तक के मार्ग का वर्णन किया है। प्रभात होते ही विष्णुजी के दर्शन करने के पश्चात् चक्रवाक को ‘वारणाख्यस्थली’ में गणेश १. त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज, ग्रन्थसंख्या १२५ के रूप में सन् १८३७ में प्रकाशित। ३२८ काव्य-खण्ड पूजन करके सचन्द्रा नामक नगरी में पहुँचने को कहा है। फिर पूर्णानन्द नामक भूतनाथ के क्षेत्र में शिव की पूजा करके उ.प. दिशा में कामाराम नामक नगरी में उसके पहुंचने का वर्णन है। सूर्योदय से पूर्व उत्तर की ओर चलने पर नायक ने अपने घर का मनोरम वर्णन किया है। फिर प्रेयसी की विविध वियोगावस्था सम्भावित की जाती हैं तथा अन्त में नायिका द्वारा शुभसूचक चक्रवाक के देख लिये जाने की सम्भावना करके चक्रवाक को नायक ने अपना सन्देश कहने का परामर्श दिया है। अन्त में नायिका की अनुमति लेकर प्रेयसी के साथ देशान्तरों का भ्रमण करने की अनुमति देकर शुभकामना प्रकट की गई है। साहित्यिक समीक्षा : इस काव्य में दो भाग हैं। पूर्वभाग में नायक का विरही के रूप में वर्णन, चक्रवाक से सन्देश-प्रस्ताव और फिर मार्ग-वर्णन है। द्वितीय भाग में नायिका की नगरी और गृह के सुरम्य दृश्य, नायिका की विरहावस्था और नायक का सन्देश है। यह काव्य श्लोक-संख्या की दृष्टि से मेघदूत से तिगुना है। मन्दाक्रान्ता छन्द्र में निबद्ध यह काव्य विप्रलम्भ शृङ्गारपूर्ण सरस है। काव्य में प्रवाह है। चक्रवाक को दूत बनाने में कवि ने अपनी सूक्ष्मदर्शिता का परिचय दिया है। कहीं-कहीं इस काव्य में मेघदूत के प्रसंगों और भावों में साम्य है। नायक, नायिका की विरहावस्थाओं का वर्णन मार्मिक है। उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, श्लेष अलंकारों का सौन्दर्य स्पृहणीय है। निम्नांकित श्लोक में श्लिष्ट विशेषणों से कवि ने नगरी का समृद्धिशाली वर्णन किया है। रथ्या यस्यां गगनसदृशश्रीः सदालोककान्ता पृथ्वीपालः सुरपतिसमश्चामरश्लिष्टपार्श्वः। सर्वे लोकास्त्रिदिवसमिताश्चारुसन्तानरम्याः स्त्रीणां वक्त्रं रघुपतिनिभं ध्वस्ततारेशगर्वम् ।। २। ३६ ।।