०९ विष्णुदास का मनोदूत

माफ कोर पञ्चदश शताब्दी में विष्णुदास ने ‘मनोदूत’ नामक शान्त-रस-प्रधान सन्देश-काव्य की रचना की। ये विष्णुदास श्रीचैतन्यप्रभु के मातुल थे। जैसा कि काव्य के आदि में लिखा मशीन का श्रीचैतन्यदेव-मातुल-विष्णुदास विरचितम् मनोदूतम्। चिया काव्य-कथा : विष्णुदास इस काव्य में एक भक्त के रूप में आते हैं। ‘मनोदत’ में कवि मन को दूत बनाकर और अपने नम्न निवेदन को सन्देश का रूप देकर भगवान् के चरण-कमलों में भेजता है। साथ में शम, दम, दया, क्षमा आदि सद्गुणों को ले जाने तथा दंभ, मद, मान, मोह, लोभ, क्रोधादि का परित्याग कर जाने का निर्देश दिया गया है। कृष्ण को वृन्दावन में ही कहीं पाकर उचित अवसर देखकर सन्देश देने की प्रार्थना भी मन से की गई है। यहाँ यमुना, वृन्दावन की शोभा और कृष्ण के जीवन के चरित्र का वर्णन है। विविध चिन्ताओं में पड़े हुए सांसारिक जीवों की शोचनीय दशा तथा भगवान् की महिमा का वर्णन भी सन्देश में निहित है तथा भगवान् के ही गुणगान में विमुग्ध रहने की बलवती इच्छा प्रकट करते हुए मन को भगवान् के ही चरणों में निवास करने की अनुमति देते हुए मन के प्रति शुभकामना के साथ काव्य का उपसंहार हुआ है। १. संस्कृत साहित्य परिषद् कलकत्ता द्वारा सन् १६३७ में प्रकाशित। काम कि सन्देशकाव्यपरम्परा ३२७ काव्य-समीक्षा : कवि ने मेघदूत से प्रेरणा से लेकर भी विषय, भाव और छन्द की दृष्टि से उसका अनुकरण नहीं किया है। १०१ श्लोकों से युक्त यह काव्य ‘वसन्ततिलका’ छन्द में निबद्ध है। इस काव्य में शृङ्गार रस का अभाव है, शान्त-रस प्रधान है। मन तो सर्वव्यापक है, अतः मार्गवर्णन भी नहीं है। कवि ने भगवान् कृष्ण के ऐहिक जीवन से सम्बद्ध स्थानों का वर्णन किया है। गोकुल की प्रातःकालीन चहल-पहल का स्वाभाविक वर्णन है। वृन्दावन का सरस वर्णन करते हुए कवि कहता है - EPIE TRIED FAIगा चेतः कलिन्द-दुहितुः पुलिनं नवीनम् मा साना ती पण वृन्दावन रसमय समयों वसन्तः । का प्राय गोपाङ्गनास्तरुणिमामृतपूरपूर्णाः कारक न स कृष्णः कलाकुलगृह किमहं ब्रवीमि।। ६७ का ही शान्तरसप्रधान इस भक्तिकाव्य में माधुर्यव्यञ्जक वैदर्भी रीति का अनुसरण किया गया है। मधुर कोमल पदों का विन्यास अनुप्रास अलंकार में दर्शनीय है। यथा দিন। हिन्ताल-ताल-वट-शाल-रसाल जाल ताली-तमाल-कृतमाल-प्रियाल-कोलेः। गारमा मानिसमा कि काका जम्बीर-वीरतरु-बिष्व-कदम्ब-जम्बू खूर्जर-निम्ब-हरिचन्दन-सिन्धुवारैः।। ५६ ।।