०३ शृङ्गारपरक सन्देशकाव्य

घटकर्पर कवि का सन्देश काव्य

‘घटकर्पर’ काव्य के रचयिता घटकर्पर का वास्तविक नाम कुछ और ही होगा। यह नाम तो इनकी इस गर्वोक्ति के कारण प्रचलित हुआ कि मेरी रचना से उच्चतर यमक की रचना यदि कोई करे तो मैं उसके घर घट के कर्पर से पानी भरूँगा। अपने काव्य के अन्त में इसने प्रतिज्ञा की है - भावानुरक्तवनितासुरतैः शपेयमालम्ब्य चाम्बुतृषितः करकोशपेयम् । कुनै प्रकार जीयेय येन कविना यमकैः परेण तस्मै वहेयमुदकं घटकपरण ।। २२।। घटकर्पर के जन्म और जीवन के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। अनुश्रुति के अनुसार वे कालिदास के समकालीन थे और विक्रमादित्य के नवरत्नों में से थे। इस प्रकार घटकर्पर को ई.पू. शतक अथवा विक्रम प्रथम शतक में मानना चाहिये। न

नामकरण

इस काव्य का वास्तविक नाम क्या था - यह भी अपने आप में एक पहेली है। इसके चार नामों का उल्लेख मिलता है- घटकपरकुलक, घटकपरकलापकाव्य, घटकर्पर तथा घटकप्रकाव्य। पहले नाम का उपयोग आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी टीका २१२ काव्य-खण्ड घटकर्परकुलकविवृति में किया है। दूसरा नाम इसी काव्य के टीकाकार दिवाकर द्वारा अपनी टीका के आरम्भिक पद्य में व्यवहृत है। गोविन्द ज्योतिर्विद ने अपनी टीका में इस काव्य के लिये केवल घटकर्पर नाम का ही व्यवहार किया है, जबकि सोलहवीं शती के कमलाकर भट्ट ने इसे घटकर्परकाव्य बताया है।’ ही रमापति मिश्र तथा ताराचन्द्र आदि टीकाकार भी इस काव्य को केवल घटकर्पर के नाम से जानते हैं, जबकि शंकर ने इसका नाम तो घटकर्परकाव्य बताया है, पर इसका रचयिता घटकर्पर को नहीं, कालिदास को माना है। टीकाकारों में अभिनवगुप्त तथा कमलाकर भट्ट भी इस काव्य को कालिदास विरचित मानते हैं। मामा अभिनवगुप्त के द्वारा इस काव्य के नाम में संयोजित कुलक तथा दिवाकर द्वारा स्वीकृत कलापक शब्द परवर्ती परम्परा में इस काव्य के नाम के साथ प्रचलित नहीं रहे। डा. कान्तिचन्द्र पाण्डेय के मतानुसार कुलक एक प्रकार का अभिनेय गीत होता है और अभिनवगुप्त को इस काव्य के मंच पर गायन व अभिनय की परम्परा का ज्ञान था, अतः उन्होंने इसे कुलक कहा है।

टीकाएँ

घटकर्परकाव्य पर सबसे प्राचीन टीका अभिनवगुप्त की है। इसके अतिरिक्त लगभग बारह अन्य टीकाओं का भी पता चलता है, जो इस काव्य पर लिखी गयीं। इन टीकाकारों के नाम विद्यानाथ, विन्ध्येश्वरीप्रसाद, गोवर्धन, कुशलकवि, दिवाकर, गोविन्द ज्योतिर्विद, कमलाकर भट्ट, रामा-रमापति मिश्र, ताराचन्द्र, शंकर तथा रामचरित शर्मा आदि मिलते हैं। ये टीकाएं प्रायः ग्यारहवीं शती से अठारहवीं शती के मध्य लिखी गयीं।

उपजीव्यता

घटकर्पर यमक काव्य की परम्परा का प्रेरणास्रोत रहा है। यहाँ तक कि जिस प्रकार कालिदास के मेघदूत के एक-एक श्लोक के प्रत्येक चरण को लेकर समस्यापूर्ति में कई काव्य लिखे गये, उसी प्रकार घटकर्पर के श्लोकों के भी प्रत्येक चरण को लेकर मदन कवि ने वि.सं. १६८० (१६२३ ई.) में समस्यापूर्ति काव्य लिखा, जिसका नाम कृष्णलीला काव्य है।

सन्दिग्ध कर्तृत्व

घटकर्पर काव्य का रचयिता कौन था - इसके सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न परम्पराएँ मिलती हैं। आचार्य अभिनवगुप्त (ग्यारहवीं शताब्दी) ने इस काव्य पर घटकर्परकुलकविवृति नामक टीका लिखी है, जिसमें वे इस काव्य का प्रणेता कालिदास को १. अभिनवगुप्त : हिस्टारिकल एण्ड फिलासफिकल स्टडी, डा. कान्तिचन्द्र पाण्डेय, पृ.६५-६६) २. वही, पृ. १०६-२२ मत माहवासा जि का रणनमा ३. वही, पृष्ठ ६४। -STER हि शिगक किराए । ४. वही, पृष्ठ ६४। गीर मिजार सिमानावकाईकोका ३३ सन्देशकाव्यपरम्परा ही मानते हैं। एक अन्य परम्परा का उल्लेख कृष्णमाचारियर ने किया है। इस परम्परा के अनुसार सुप्रसिद्ध नाटककार भास ही घटकर्पर हैं। इस परम्परा का उल्लेख कृष्णमभाचारियर के अनुसार हेमचन्द्र ने सर्वप्रथम किया है। इस परम्परा के अनुसार भास आरम्भ में अत्यन्त दरिद्र थे तथा फूटे घट में पानी भरते थे, अतएव उनका नाम घटकर्पर पड़ा। __घटकर्परकाव्य के अन्तिम श्लोक से संकेत मिलता है कि इस काव्य के निर्माता ने अपनी रचना से श्रेष्ठ रचना लिखने वाले के यहाँ घटकपर (फूटे घट) से पानी भरने की प्रतिज्ञा की थी। ही घटकपरकाव्य के अतिरिक्त नीतिसार नामक एक नीतिकाव्य भी घटकर्पर का लिखा हुआ माना जाता है। “काव्यसार : ‘घटकर्पर’ में केवल २२ पद्य हैं। यह काव्य वर्षा-ऋतु के वर्णन से प्रारम्भ होता है। इसमें कोई प्रोषितभर्तृका नायिका ही मेघ को दूत बनाकर नायक के पास सन्देश भेजती है। पत्नी के सन्देश में कवि ने उसकी विभिन्न विरहावस्थाओं का चित्रण किया है। विरहावस्था में मेघों की गर्जना तथा मयूरों का कलरव सुनकर प्रोषितभर्तृका का हृदय । अवसन्न हो जाता है, फिर भी प्रिय के गुणों का स्मरण कर वह किसी तरह अपने जीवन । की रक्षा करती रहती है। कवि ने विरहिणी की चिन्ता और स्मृति का निम्नांकित पद्यों में सिम UPTFER FREE ELEPHANPREE शित की गिर कि पीपलाल धाम मल्छ जीत का जाति किं कृपाऽपि तव नास्ति कान्तया पांडुगंडपतितालकान्तया। 1 शोकसागरजले निपतितां त्वद्गुणस्मरणमेव पात्ति ताम् ।। १२ ।।। भी प्रकृति की सौम्य रचनाएँ भी विरहावस्था में विरहिणी को दुःख पहुँचाती हैं। कदम्ब और कुटज के कुसुमों को देखकर नायिका का हृदय और भी व्यथित हो जाता है और वह वृक्षों से प्रार्थना करती है - नवकदम्ब शिरोऽवनताऽस्मिते वसति ते मदनः कुसुमस्मिते। कुटज किं कुसुमैरुपहस्यते प्रतिपितामि च दुष्प्रसहस्य ते।। १७ ।। यानीपनि मालिका ति महिलाको शवला की मिति १. हिष्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर : कृष्णमाचारियर, पृ. ५५३-५४ ।साकोला । 5. २. आलम्ब्य बाम्बु तृषितः करकोशपेयजा सिमा फलान शासक कि IF INDI भावानुरक्तवनितासुरतेः शपेयन्। इलाजीय सैन विना या PIPE HO श्री आना | हि ITES तसौ वयमुदकं घटकपरण। गिी या न विच्छ कुलकर का ‘क ’ ३. हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर : कृष्णमाचारियर, पृष्ठ ३५६ तथा छिE BArary इण्डियन काव्य लिटरेचर : ए.के. वार्डर, भाग-२, पृ. ३३३ ।३१४ काव्य-खण्ड

  • भावों के अनुरूप भाषा तथा छन्दों का प्रयोग कवि की प्रतिभा का परिचायक है। इस लघुकाव्य में २२ छन्दों का प्रयोग यमक अलंकार के साथ काव्य-सौन्दर्य की अपूर्व छटा दिखाता है। यमक अलंकार के साथ वर्षावर्णन में भावसौष्ठव भी द्रष्टव्य है। यथा - SP I RITFITTE निचितं खमुपेत्य नीरदैः प्रियहीनाऽहृदयावनी-रदैः।। म न सलिलैर्निहितं रजः क्षिती रविचन्द्रावपि नोपलक्षिती ।। हंसा नदन्मेघभयाद्भवन्ति निशामुखानि न चन्द्रवन्ति। पानी तक गिरा नवाम्बुमत्ताः शिखिनो नदन्ति मेघागमे कुन्दसमानदन्ति।। संस्कृत के सन्देश-काव्यों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। मेघदूत और इस काव्य की कथा-वस्तु एक सी है। केवल इतना अन्तर है कि घटकर्पर के काव्य में पत्नी पति के पास मेघ को दूत बनाकर भेजती है, जबकि कालिदास के मेघदूत में पति अपनी पत्नी के पास मेघ को दूत बनाकर भेजता है। दोनों काव्यों में वर्षा-ऋतु के प्रारम्भ में ही दूत भेजा गया है। घटकर्परकाव्य में वियोग का समय थोड़ा है-वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ परन्तु ‘मेघदूत’ में वर्षभर का वियोग है। ‘मेघदूत’ में मार्ग-वर्णन का सौन्दर्य विद्यमान है, इस काव्य में उसका अभाव है। इस लघु-काव्य में कवि ने वियोगिनी, उपजाति, वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, पुष्पिताग्रा, मालभारिणी छन्दों का प्रयोग किया है। भावों के अनुरूप भाषा तथा छन्द का सौन्दर्य कवि-प्रतिभा का परिचायक है। इस काव्य पर मुग्ध होकर मदन कवि ने १६२३ ई. में ‘कृष्णलीला’ नामक ८४ श्लोकों से युक्त लघुकाव्य की रचना की है। अन इस प्रकार यह सन्देश-काव्य एक लोकप्रिय काव्य रहा है। इसकी सैंतीस टीकायें हैं। १०वीं शताब्दी में अभिनवगुप्त जैसे महान् पण्डित ने इस पर टीका लिखी। गोवर्धन नामक अन्धे कवि ने १८वीं शताब्दी में और चतुर्भुज के पुत्र कमलाकर ने १६वीं शती में इस पर टीका लिखी है।