०१ सन्देशकाव्य की प्राचीन साहित्य में परम्परा

सन्देशकाव्य की परम्परा के बीज ऋग्वेद में मिलते हैं। ऋग्वेद के सरमा-पणि-संवादसूक्त (१०।१०६) में सरमा नामक देवशुनी देवराज इन्द्र की दूती बनकर पणियों के पास जाती है। पणियों ने देवों की गायें चुरा ली हैं, सरमा पणियों के प्रति देवों की ओर से सन्देश भी देती है और उनके कथनों का तीखा प्रत्युत्तर भी देती है। जा इसी प्रकार ऋग्वेद के एक अन्य सूक्त (५।६१) में श्यावाश्व ऋषि राजा रथपति के पास उसकी पुत्री के प्रति अपना प्रणयनिवेदन तथा उससे विवाह के लिये सन्देश भेजते हैं। वैदिक साहित्य के इन प्रसंगों में सन्देहकाव्य की पीठिका मानी जा सकती है, पर सन्देश काव्य-परम्परा के प्रेरक रामायण तथा महाभारत के कतिपय प्रसंग हैं। विशेष रूप से रामायण में सीता के प्रति हनुमान का राम का दूत बनकर जाना सन्देशकाव्य-परम्परा का उपजीव्य रहा है। मेघदूत की रचना के समय कालिदास के मानस में रामायण का यह सन्दर्भ था, यह स्वयं कवि के उल्लेखों से ही सिद्ध है।

  • सन्देशकाव्य-परम्परा का एक अन्य प्रेरणासूत्र महाभारत का नलोपाख्यान के अनतर्गत हंस और दमयन्ती का संवाद है। वेदान्तदेशिक ने तो अपने ‘हंससन्देश’ में इस संवाद की प्रेरणा कण्ठतः स्वीकार की ही है। Parभा IFSPIRBE इसके साथ ही बौद्धसाहित्य में कतिपय जातक कथाओं ने भी सन्देशकाव्य की आधारभित्ति निर्मित करने में सहयोग दिया होगा। कामविलापजातक (संख्या २६७) में फाँसी का दण्ड पाया हुआ एक व्यक्ति आकाश में उड़ते हुए कौवे को देखकर अपनी भार्या के पास उसे दूत बनाकर भेजता है। कुन्तनिजातक (संख्या ३४३) में भी एक पक्षी को दूत बनाकर भेजने का वृत्तान्त है, जबकि महाउम्मग नामक जातक में (संख्या-५४६) पांचाल का राजा विदेश के राजा के पास पक्षियों के द्वारा सूचना भेजे जाने की कथा है। अनेक सन्देश काव्यों के पीछे श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की प्रेरणा भी प्रतीत होती है। रुक्मिणी का एक ब्राह्मण को दूत बनाकर श्रीकृष्ण के प्रति भेजना, गोपियों का उद्धव से संवाद या भ्रमरगीत-ये ऐसे प्रसंग हैं, जिनकी भावना वैष्णव परम्परा के सन्देशकाव्यों में