ब्यूहलर को संस्कृत पाण्डुलिपियों का अन्वेषण करते समय कश्मीर में सन् १८७५ ई० में ‘पृथ्वीराजविजय’ नामक ऐतिहासिक महाकाव्य की एक खण्डित प्रति प्राप्त हुई थी। पाण्डुलिपि, भोजपत्र पर शारदा-लिपि में अंकित है, इस काव्य की यही एकमात्र पाण्डुलिपि विश्व में उपलब्ध है। इसी के आधार पर बंगाल की रॉयल-एशियाटिक सोसायटी ने इसे प्रथम बार मुद्रित कर प्रकाशित किया। ग्रन्थ के आरम्भ या पुष्पिका में प्रणेता का नाम नहीं मिलता। केवल सर्ग-समाप्ति की सूचना मात्र मिलती है, इसलिए इसके कर्तृत्व के विषय में विद्वानों ने अनेक अनुमान किये हैं। शिमग आप इस खण्डित काव्य पर, द्वितीय राजतरंगिणी के रचयिता कश्मीरी कवि, राजानक जोनराज (जिनकी चर्चा पीछे विस्तार से कर चुके हैं) की लिखी हुई टीका प्राप्त होती है। काव्य के सदृश टीका भी अनेकत्र त्रुटित है। सप्तम सर्ग के अन्त में टीकाकारकृत एक उपसंहार पद्य में इसको काव्यराज कहकर सम्बोधित किया गया है। किन्तु वहां भी इसके रचनाकार का उल्लेख नहीं मिलता। डा. कीथ इसके रचयिता के कश्मीरी होने का अनुमान करते हैं। इस अनुमान का हेतु है बारहवीं शताब्दी में होने वाले कश्मीरी पण्डित जयरथ द्वारा इसका उल्लेख प्राप्त होना। उसने भी रचनाकार का नाम नहीं दिया। काव्यकार ने अपना केवल इतना ही परिचय दिया है कि वह उपमन्युगोत्र में उत्पन्न हुआ था और शारदा ने मातृवत् उसका संवर्धन किया था। ‘शारदा’ कश्मीर का भी प्राचीन नाम है। पृथ्वीराजविजय में कश्मीरी कवि ‘जयानक’ की उपस्थिति दिखलाई गई है। श्री बी. टिगि नियम शोर श्रीलोलराजसुतपण्डितभट्टनोनराजात्मजो विवरणेन स जोनराजः। सर्ग सुखं व्याधित सप्तममत्रपृथ्वीराजाख्यराजविजयाभिषकाव्यराजे।। (सप्तम टीका सर्ग की टीका का उपसंहार पद्य २) २. सं. सा. इ. (हिन्दी अनु.) पृष्ठ २१७ काजल 50 विदा शाला ऐतिहासिक महाकाव्य तथा चरितकाव्य २७५ एस. पाठक’, आचार्य बलदेव उपाध्याय, पं० चन्द्रशेखर पाण्डेय आदि विद्वानों ने कदाचित् इसी आधार पर इसके रचयिता को ‘जयानक’ मान लिया है। जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है इस काव्य का वर्ण्य विषय पृथ्वीराज चौहान की विजय है। उसने गजनी के मुहम्मद गोरी को पराजित किया था। यह विजय अवश्य ही सन् ११६१ ईस्वी में तिरौरी बाला विजय है। सन् ११६३ ई० में पुनः गोरी से युद्ध करते समय पृथ्वीराज की मृत्यु हो गयी थी, फलतः इसकी रचना इन्हीं दोनों वर्षों के अन्तराल में अर्थात् सन् ११६२ में हुई ऐसा अनुमान किया जा सकता है। इस काव्य से यह भी पता चलता है कि पूर्व-मध्यकालमें इतिहास लिखने की परम्परा प्रचलित थी। इसमें पृथ्वीभट्ट का उल्लेख मिलता है और कहा गया है कि उसने सैकड़ों इतिहासों की रचना की थी। जोनराज ने “आज्ञामवाप्य विदुषाम्” अर्थात् विद्वानों की आज्ञा प्राप्त कर इस पर टीका लिखने की बात कही है, इससे पता चलता है कि उनके समय में यह ग्रन्थ पर्याप्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय था। पृथ्वीराज के समकालिक लेखक द्वारा विरचित होने के कारण पूर्ण प्राप्त न होने पर भी इसका ऐतिहासिक महत्त्व अन्यून बना रहता है। भारतवर्ष के अन्तिम और स्वतन्त्र हिन्दू सम्राट् का वर्णन करने वाले इस काव्य के केवल बारह सर्ग ही उपलब्ध हुए हैं। इनमें से चार सर्गों में चाहमान (चौहान) वंश की प्रशस्ति है। इसके पश्चात् पृथ्वीराज का वृत्त आरम्भ होता है किन्तु उपलब्ध अंश में चरितनायक के विवाह की भी कथा पूरी नहीं हो पाती, जबकि ग्रन्थ के नाम के अनुसार इसमें उसके युद्धों और गोरी पर प्रथम विजय तक का वृत्तान्त अवश्य होना चाहिए था।
साहित्यिक महत्त्व
ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ इसका साहित्यिक-वैशिष्ट्य भी उतना ही विवेचनीय है। रचनाकार ने रामायण की शैली में यह चरित लिखने का प्रयास किया है। वर्णन-पद्धति के अनुसार निस्सन्देह विजय-शैली का महाकाव्य स्वीकारा जा सकता है। भाषा स्फीत, परिनिष्ठित और प्रौढ़ है। शैली प्रसाद-गुणमयी और पद-शय्या चित्तावर्जक है। अनुष्टुप्-वृत्त की रचना अत्यन्त स्पृहणीय तथा स्वाभाविक बन पड़ी है, स्थान-स्थान पर सुन्दर सूक्तियां बिखरी पड़ी हैं। कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं - माया मायामा DIY लालनाताडनविदामनुरज्यन्ति योषितः। शिकार अतो यशः प्रतापाभ्यां भूमिस्तेन वशीकृता।। (स्त्रियां उन्हीं पर अनुरक्त होती हैं, जो लालन करना भी जानें और ताडन करना भी। इसलिये उस राजा ने यश और प्रताप दोनों से लक्ष्मी को वश में कर लिया था।) म कवि की रसिकता भी अनेक स्थलों पर मुखर हुई है, जैसे ये पद्य- मान १. एशिएण्ट हिस्टोरियंस ऑफ इण्डिया पृ. २. सं.सा.का इति, पृष्ठ २७६ ૨૭૬ मग या काव्य-खण्ड फाति चिक हठेन पादपतनं यत्र रामासु सागसाम्। नियमावली कोपाग्निं दीपयति च प्रसादाम्बु च वर्षति ।। अपराधी प्रियतम के मनाने के लिये चरण पर गिरने से सुंदरियों की कोपाग्नि पहले तो भड़कती है, फिर आंसू निकलने के साथ उनका क्रोध भी घुल जाता है।