‘राजतरंगिणी’ एक ऐसी रचना है, जिसे संस्कृत के ऐतिहासिक महाकाव्यों का ‘मुकुटमणि’ कहा जा सकता है। इसके रचयिता कश्मीरी कवि ‘कल्हण हैं। संस्कृत साहित्य में इतिहास को इतिहास मानकर लिखने वाले तथ्यों को तिथि आदि के प्रामाणिक-साक्ष्य और क्रम के साथ प्रस्तुत करने वाले ये अब तक ज्ञात पहले कवि हैं। यही कारण है कि इनकी कृति ‘राजतरङ्गिणी’ का देश-विदेश में सर्वत्र आदर हुआ है। यह कश्मीर के राजाओं का विस्तृत इतिहास है, जिसका रचना-शिल्प बहुत कुछ महाभारत जैसा और अनेक काव्य-गुणों से समृद्ध है। इसमें महाभारत-काल से आरम्भ कर ११५० ईसवी तक के कश्मीरी नरेशों का इतिवृत्त तथा चरित्रांकन अत्यन्त हृद्य तथा प्रासादिक शैली में किया गया है। राजतरङ्गिणी आठ तरंगों में विभक्त है, जिनमें कुल ७६२६ श्लोक हैं। प्रारम्भ में छह तरंग छोटे तथा अन्तिम दो तरंग बहुत बड़े हैं, जिनमें आठवा तरंग, समस्त ग्रन्थ के आधे परिमाण से भी अधिक है। अपने लेखन के समय से ही ‘राजतरङ्गिणी’ अत्यन्त लोकप्रिय रही है।
महाकवि कल्हण
राजतरंगिणी के इतिहास से कल्हण के पिता का नाम ‘महामात्य चम्पक प्रभु’ या चण्पक होना सिद्ध होता है। स्वयं राजतरङ्गिणी से भी इस बात की पुष्टि होती है । चम्पक कश्मीरनरेश हर्ष (१०६६-११०१) के महामात्य अथवा राजमन्त्री थे। समाज में उनको उच्चस्थान प्राप्त था। कल्हण का जन्म कश्मीर के परिहासपुर में हुआ था। यद्यपि कल्हण ने अपनी जाति कहीं १. विकमाङ्कदेवचरित १२१ तथा १८१६ । २. (क) इति श्रीकाश्मीरकमहामात्यचम्पका सूनोः कल्हणस्य कृती राजतरहिगण्या प्रथमस्तरङ्गः। (ख)" शी" चण्पकाम सूनो । म नितीयस्तरङ्गः। मामला ३. राजतरंगिणी - ७५४, १११७, १११८, २३६५। ऐतिहासिक महाकाव्य तथा चरितकाव्य नहीं लिखी फिर भी अन्तःसाक्ष्य और द्वितीय तरंगिणी के लेखक जोनराज’ के अनुसार इनके द्विजन्मा-विशेषतः कुलीन ब्राह्मण होने का अनुमान किया जा सकता है। समीक्षकों ने अन्तःसाक्ष्य के अनुसर कल्हण का जन्म १०६८ ई. के लगभग माना है । राजतरंगिणी के अनुसार कल्हण का यद्यपि ‘शैव’ होना ही प्रमाणित होता है तथापि उनमें अन्य उपासनाओं तथा धर्मों के प्रति पर्याप्त सहिष्णुता और सहानुभूति थी। कल्हण ने बौद्ध-धर्म सम्बन्धी अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, जिससे पता चलता है कि उन्होंने त्रिपिटकों का भी अवलोकन किया था। उनका अध्ययन पारम्परिक तथा अत्यन्त व्यापक है। कल्हण ने वेद, रामायण, महाभारत, पुराण, काव्य, ज्योतिष, अर्थशास्त्र आदि का गहन अनुशीलन तथा समग्र भारतवर्ष का पर्याप्त भ्रमण किया था। उनके व्यक्तित्व में एक निष्पक्ष खोजी ऐतिहासिक तथा तर्कप्रवण वैज्ञानिक का अद्भुत सम्मिश्रण दिखलाई पड़ता है। राजतरंगिणी में सूर्यज्योति’ और जल का वर्णन उन्होंने एक वैज्ञानिक की भांति किया है। उनका भौगोलिक एवं सामुद्रिक ज्ञान भी अत्यन्त प्रौढ़ था। किन्तु अपने आस्थामय-वर्णनों से वे मन्त्रशक्ति, देवी-देवताओं, शकुन तथा अप्राकृतिक चमत्कारों में भी विश्वास करते दिखालाई पड़ते हैं। - कल्हण का देश-प्रेम और कवित्व दोनों उच्चकोटि के हैं, राजतरंगिणी लिखकर उन्होंने दोनों ही क्षेत्रों को एक महान् अवदान दिया है। पाली निकाली
राजतरंगिणी-ऐतिहासिक दृष्टि एवं काव्यसुषमा
‘राजतरंगिणी’ विशुद्ध ऐतिहासिक गरिमा से मण्डित होने पर भी सरस काव्यात्मकता से सम्पृक्त एक अपूर्व कृति है। कवि कल्हण स्वयं इसे ‘कथा’ ’ एवं ‘सन्दर्भ’ कहकर उल्लिखित करते हैं। कल्हण पारम्परिक अनुश्रुतियों के आधार पर, पौराणिक शैली में जलोद्भव नामक असुर के वध और प्रजापति । कश्यप द्वारा कश्मीरमण्डल की स्थापना से इस इतिहास का सूत्रपात करते हैं। विक्रमपूर्व अ-बारहवीं शताब्दी के किसी गोनन्द नामक राजा की कथा से राजचरित का क्रम आरम्भ होता है। उनके इस वर्णन का बहुत कुछ आधार ‘नीलमतपुराण’ है, इसके अतिरिक्त इस विषय में उन्होंने अपने से पूर्व लिखे गए ग्यारह ग्रन्थों और पहले के राजाओं के अभिलेख, प्रशस्तिपत्र एवं वंशावलियों के देखे जाने का भी उल्लेख किया है " । कवि, इस वर्णन में ज्यों-ज्यों अपने समय की ओर अभिमुख होते जाते हैं, यह पौराणिकता एवं कल्पना-प्रवणता सि. द्वितीय राजतरंगिणी ५वां पद्य। २. डा. रघुनाथ सिंह - राजतरंगिणी की भूमिका, पृष्ठ ३ ३. राज, २८६ (डा. कीथ भी इस समय को ११०० ई. के लगभग मानते हैं। ४. राज, ३४४० दे. सं. सा. इ. (हिन्दी अनुवाद) पृष्ठ १६८ ५. इयं नृपाणामुल्लासे हासे वा देशकालयोः। JTS भैषज्यभूतसंबादिकथा युक्तोपयुज्यते ।। राज. १२१ मा कानात काठ शरि ६. संक्रान्तप्राक्तनानन्तव्यवहारः सुचेतसः । हा विकार केला तर कस्येदृशो न सन्दर्भो यदि बा हृदयङ्गमः । वही १२२ ७. राजतरंगिणी १।१४ तथा १५ पद्य । १. २६२ काव्य-खण्ड धीरे-धीरे कम होती जाती है और यथार्थ का ठोस धरातल उभरता दिखलाई पड़ता है। F१२ ईसवी तक के राजाओं का वर्णन बिना तिथि के ही चलता है, किन्तु ८१३-१४ गाई. से इस वर्णन में तिथिक्रम का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। अष्टम तरंग तो कवि की स्वयं आंखों देखी और अनुभूत घटनाओं का प्रामाणिक लेखा-जोखा है। संक्षेप में इसके प्रत्येक तरंग में राजाओं का विवरण इस प्रकार है - प्रथम-तरंग - गौनन्द प्रथम से लेकर अन्य युधिष्ठिर तक ७५ राजाओं का विवरण द्वितीय-तरंग - ६ राजाओं के १६२ वर्षों के शासनकाल का अंकन किया गया है। तृतीय-तरंग - गोनन्दवंश के अन्तिम राजा बालादित्य तक दश राजाओं के ५३६ वर्षों का जा के राज्यकाल का विवरण है। पाली का चतुर्थ-तरंग - २६० वर्षों तक राज्य करने वाले १७ नृपों का इतिहास निरूपित है। पंचम-तरंग - अवन्तिवर्मा के राज्यारोहण के साथ उत्पथवंश के सूत्रपात का वर्णन तथा कल्यपालवंशज संकटवर्मा, सुगन्धादेवी और शंकरवर्धन के राज्यकाल का निरूपण है। षष्ठ-तरंग - १० राजाओं के, ६३६ से १००३ ई. तक के शासनकाल का विवरण दिया गया है। सप्तम-तरंग - ६ राजाओं के सन् १००३ से ११०१ ई. तक के समय का चित्रण है। अष्टम-तरंग - सातवाहन वंश के, उच्चल, सुस्सल, भिक्षाचर और जयसिंह आदि राजाओं की जीवनगाथा तथा कृत्यों का प्रत्यक्षीकरण कराया गया है। प्रथम चार तरंगों में ऐतिहासिक तथ्यपरकता की दृष्टि से कई स्थल कल्हण में संदिग्ध - हैं। वे पुराणों और आख्यानों से प्राप्त अतिप्राकृत और अविश्वसनीय घटना-प्रसंगों का भी विवरण विश्वासपूर्वक दे देते हैं। पर पांचवें तरंग से जैसे-जैसे वे अपने समय के निकट आते हैं, वे एक खरे इतिहासकार की भांति तथ्यों को जांच परख कर प्रस्तुत करते हैं, वे तथ्यों की जांच के लिये उपलब्ध सामग्री का हवाला भी देते हैं। र सन् ७१२ ई० में सिंध पर पहला मुस्लिम आक्रमण हुआ और १००० ई० के आस-पास महमूद गजनी ने भारत को रौंदना शुरू किया। कल्हण ने षष्ठ और अष्टम तरंगों में देश की राजनीतिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों पर दूरगामी प्रभाव छोड़ने वाले इन आक्रमणों का उल्लेख किया है। कश्मीर में मुस्लिम संस्कृति के प्रवेश का भी वे संकेत देते हैं। कल्हण ने राजा हर्ष के उत्थान और पतन का जो विशद विवरण दिया है, वह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। किशोरावस्था में हर्ष बड़ा गुणानुरागी और काव्यात्मक प्रवृत्ति वाला था। उसका लोभी पिता कलश विद्वानों से द्रोह रखता था, पर हर्ष स्वयं भूखा रहकर अपना खर्च पंडितों और कवियों को दे डालता था (राज०६।६०६-१३)। २६३ ऐतिहासिक महाकाव्य तथा चरितकाव्य उसने राज्यारूढ होने पर अपने विद्वत्प्रेम को चरितार्थ किया। प्रजा की प्रार्थना सुनने के लिए तो उसने अपने प्रासाद के चारों ओर बड़े-बड़े घंटे लगवा दिये थे, जिनके बजते ही वह प्रार्थियों से स्वयं मिलने पहुंच जाता। यहां तक कि कर्णाटक के राजा से विद्यापति की उपाधि पाने वाले बिल्हण भी हर्ष के काव्य और कला के प्रति अनुराग की कथा सुनकर उसके लिये स्पृहा करता था (वही, ७।८८०६३७)। पर इसी हर्ष को धीरे-धीरे चाटुकारों ने घेर लिया। उसका अन्तःपुर सुंदरियों से भर गया। वह विलासी बन गया और अविवेकी अमात्यों के परामर्श पर जनता को लूटने लगा। उसने योग्य मंत्री कंदर्प को बंदी बनाने का प्रयास किया, अपने ही भतीजों की हत्या करवायी, यहां तक कि देवालयों से स्वर्ण और रत्न भी उसने लूटे। कर्नाटक के राजा पर्माडि (विक्रमादित्य षष्ठ) की पत्नी चन्दा (चन्द्रावती) का चित्र देखकर वह इतना कामातुर हो उठा कि कर्णाटक के राजा से युद्ध कर उसकी रानी को प्राप्त करने की उसने ठान ली (वही, ७/१११E-२१)। वह कर्णाटक तक आक्रमण करने न पहुंच सका, पर धूर्त लोग रानी चन्द्रा के नाम पर उससे रुपया लूटते रहे। अन्त में बड़ी कारुणिक और विडंबनामय स्थितियों में हर्ष की जीवनलीला समाप्त हुई। कल्हण ने राजा हर्ष के उत्थान और मर्मान्तक पतन का रोमांचक इतिहास १४०० पद्यों में लिखा है, और यह पूरा अंश अपने आप में उनके समय का न केवल कच्चा चिट्ठा है, वह एक विराट् महाकाव्य भी है। इसी प्रकार अवन्तिवर्मा, कलश, रानी दिद्दा आदि के शासनकाल के प्रसंग भी अपने आप में अलग-अलग महाकाव्यों का आस्वाद देते हैं तथा कश्मीर के कुछ शताब्दियों के इतिहास को भी प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करते हैं। समग्र अष्टम तरङ्ग कवि का भोगा हुआ अपना वर्तमान ही है। यह समय कश्मीर के इतिहास में, वंशानुगत संघर्षों, षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा रक्तरञ्जित क्रान्तियों का काल था, उस समय काश्मीर का जनजीवन तथा प्रशासन दोनों ही अस्थिर तथा भयग्रस्त थे। कल्हण ने हर्ष (सन् १०८६-११०१ ई.) के जीवन, नैतिक पतन, विश्वासघात तथा दुःखद अंत का ऐसा प्रभावी चित्रण किया है, जिसे पढ़कर रोमांच हो जाता है। कश्मीर के कुलीन अमीरों के रक्तरञ्जित अत्याचार, उनके आपसी संघर्ष, तत्कालीन अकाल, जल-प्लावन, अग्निदाह आदि प्राकृतिक विपत्तियों का जो वर्णन कवि ने किया है उसमें उनकी अपनी भोगी हुई पीड़ा के दंश भी विद्यमान हैं। अपने देश और काल की यह दुःखद स्थिति कवि को मर्मान्तक वेदना दे रही थी, किन्तु वह विवश था-परिस्थितियों ने उसे एकाकी बना दिया था। कदाचित् इन्हीं परिस्थितियों से प्रेरित होकर अपने ढंग से उनका प्रतिकार करने की भावना से ही कवि ने लेखनी का यह शस्त्र उठाया था। ‘राजतरङ्गिणी’ की रचना उसी का परिणत फल है। ‘राजतरंगिणी’ एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक की कृति है। ग्रन्थकार के मतानुसार एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वैष-विनिर्मुक्त होना चाहिए-तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है- या असा- HTTEE का काव्य-झण्ड माण्ट श्लाध्यः स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता। भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्यैव सरस्वती।। (राज. १७) अपनी कृति में उन्होंने इस कसौटी का पूर्णरूप से पालन किया है। राजतरंगिणी में राजाओं के चारित्रिक पतन एवं कश्मीरी लोगों के प्रवंचनामय चरित्र का वे खुलकर उद्घाटन करते हैं। मन्त्रियों के पारस्पिरिक विरोध, सेनाध्यक्षों में मतभेद, सैनिकों में अनुशासनहीनता, पुराहितों में दम्भ तथा षड्यन्त्रकारिता, जनसामान्य के गृह-कलह और छल-प्रपंच का स्पष्ट अंकन करने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता। यह सब होते हुए भी तरङ्गिणीकार की कश्मीरभूमि के प्रति आत्मीय-आस्था और प्रीति अक्षुण्ण और * अडिग है। अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग से भी अधिक निरूपित करते हुए वे कहते हैं कि ऊँचे-ऊँचे विद्याभवन, केसर, शीतल जल और द्राक्षा - ये सब स्वर्ग में भी दुर्लभ वस्तुएं जिस कश्मीर में सामान्यतः प्राप्य हैं उसकी तुलना भला और किससे की जा सकती है - किमाना विद्यावेश्मानि तुङ्गानि कुङ्कुमं साहिमं पयः ।। द्राक्षेति यत्र सामान्यमस्ति त्रिदिवदुर्लभम् ।। (१।४२) फिर भी राजतरङ्गिणी कोरा इतिहास ग्रन्थ ही नहीं है। काव्यात्मक चारुता का सन्निवेश भी उसमें पदे-पदे देखा जा सकता है। लक्षणग्रन्थों की प्रचलित परिभाषा के अनुसार इसका महाकाव्यत्व भले ही उपपन्न न होता हो, किन्तु है वह चित्तावर्जक काव्य ही, और अपने आकारगत तथा विषयगत महत्त्व के कारण इसे एक पृथक् शैली का ऐतिहासिक महाकाव्य कहने में किसी को भी कोई अनुपपत्ति नहीं हो सकती । महाकवि कल्हण अमृतस्यन्दी सुकवि के गुणों की वन्दना करते हुए उन्हें कवि और वर्णनीय विषय दोनों को अमर कर देने वाला रसायन स्वीकार करते हैं ’ सिद्ध करते है। उनके अनुसार, जिनकी भुजाओं की छत्रछाया में समुद्र सहित यह धरती सुरक्षित रहती है, वे बड़े-बड़े बलशाली राजागण जिसकी कृपा के बिना स्मरण भी नहीं किये जाते वह प्रकृति का सर्वोत्कृष्ट कविकर्म ही नमस्कार योग्य है भुजवनतरुच्छाया येषां निषेव्य महौजसां जलधिरशनामेदिन्यासीदसावकुतोभया॥ स्मृतिमपि न ते यान्ति मापा विना यदनुग्रह प्रकृतिमहते कुर्मस्तस्मै नमः कविकर्मणे।। (राज. १४६) १. वन्यः कोऽपि सुधास्यन्दास्कन्दी स सुकवेर्गुणः । येन याति पशःकायः स्थैर्य स्वस्य परस्य च ।।(राज. १३) २. कोऽन्यः कालमतिकान्त नेतु प्रत्यक्षता क्षमः। कविप्रजापतीस्त्यक्त्वा रम्यनिर्माणशालिनः।। (राज. १४) सभा ऐतिहासिक महाकाव्य तथा चरितकाव्य २६५ हमारे आद्य इतिहास महाभारत की भांति राजतरङ्गिणी का अंगी रस भी ‘शान्त’ है। कल्हण, एक दार्शनिक की भांति संसार की क्षणभंगुरता पर विचार करते हुए काव्यशास्त्रीय दृढ़ता से ‘शान्त’ रस की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध करते हैं - क्षणभङ्गिनि जन्तूनां स्फुरिते परिचिन्तिते। मूर्धाभिषेकः शास्तस्य रसस्यात्र विचार्यताम्।। (वही १२३) भिल सहस्रों वर्षों की कालावधि में उत्पन्न, भिन्न-भिन्न शील, स्वभाव तथा इतिवृत्त वाले विविध नरेशों का वर्णन होने के कारण इसकी शैली में सतत गत्वरता और एक प्रकार की सामासिकता है, अतः अन्य महाकाव्यों की भांति शृंगार, वीर, हास आदि रसों का तथा आलम्बन-उद्दीपन के रूप में सोद्देश्य किये गये प्राकृतिक वर्णनों का वैसा चमत्कार तो नहीं मिलता। फिर भी प्रसंगानुसार, सभी रसों का उचित सन्निवेश तथा इतिवृत्त की पीठिका के रूप में प्रकृति के चित्रमय वर्णनों की उपलब्धि यहां अनेकत्र देखी जा सकती है। तरंगिणी की शैली सामान्यतः सरल-तरल है। कवि ने अपनी रचना में वैदर्भी-रीति तथा अनुष्टुप छन्द का ही आश्रय लिया है, किन्तु कहीं-कहीं पांचाली और गौड़ीरीति तथा बीच-बीच में वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित, हरिणी आदि बड़े छन्दों का भी प्रयोग दिखलाई पड़ता है। अलंकारों का प्रयोग भी सहज और अकृत्रिम रूप से हुआ है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, दीपक, अतिशयोक्ति, दृष्टान्त आदि अर्थालंकार तथा अनुप्रास आदि शब्दालंकार स्वाभाविक रूप से उपस्थित हुए हैं। कश्मीरवर्णन में यह उत्प्रेक्षा कितनी रमणीय है असन्तापाहतां जानन यत्र पित्रा विनिर्मिते। यानि गौरवादिव तिग्मांशुर्धत्ते ग्रीष्मेऽप्यतीव्रताम्।। (१४१) पिता कश्यपजी के द्वारा स्थापित किए गए कश्मीर-मण्डल को ताप देना उचित नहीं है मानो यह सोचकर वहां ग्रीष्म में भी सूर्य अपनी किरणों में तीखापन नहीं लाते। ब्राह्मणों के अपकाररूप दुष्ट-कर्म से तारापीड नामक राजा नष्ट हो गया इस वर्णन में कवि ने अग्नि और मेघ का यह सुन्दर दृष्टान्त प्रस्तुत किया है - का नाममा योऽयंजनोपकरणाय श्रयत्युपायं पर मान ते नैव तस्य नियमेन भवेद विनाशःR APERIME धूर्म प्रसौति नयनान्ध्यकरं यमग्नि- EPREFER भूत्वाम्बुदः स शमयेत् सलिलैस्तमेव ।। (४ १२५) राजतरंगिणी में स्थान-स्थान पर सूक्तिमुक्ताप्रसविनी पद्य-शुक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं जिनमें कवि के संघर्षमय, प्रौढ़ जीवन का अनुभव, आभा बनकर झांकता प्रतीत होता है। यदि शीलरूपी चिन्तामणि का विगलन हो गया तो फिर जीवन में सारे दुर्गुण क्रमशः किस प्रकार आते-जाते हैं इसका वर्णन देखिए काव्य-खाण्ड प्रागुन्मीलति दुर्यशः सुविषमं गर्योऽभिलाषस्ततो. पास की काका के धर्मः पूर्वमुपैति संक्षयमथो श्लाध्योऽभिमानक्रमः। सन्देहं प्रथम प्रयात्यभिजनं पश्चात्पुनर्जीवितं किं नाभ्येति विपर्ययं विगलने शीलस्य चिन्तामणेः ।।(७।३१६) कवि ने तत्कालीन राजाओं की विलासिता, नृशंसता और मूर्खता का खुलकर चित्रण किया है। इस समय के नरेश, दुर्लभ मृगनयनियों को प्राप्त करने में, घोड़ों की खरीद-फरोक्त में, विट और वैतालिकों के द्वारा अपनी प्रशंसा करवाने में ही अपने धन का अपव्यय कर डालते हैं (७।११०E)। प्रजारक्षण में विनियुक्त उनका सम्पूर्ण समय, रूठी कामिनियों को मनाने में, घोड़े-हाथी आदि की खरीददारी में और नौकरों के साथ शिकार करने में ही बीत जाता है। (७/१११०) PF परत के अपनी सूक्तियों में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों से उद्भूत अनेक मार्मिक चित्र कवि ने उपस्थित किए हैं, जिनमें अनुभूति और संवेदना की निश्छल अभिव्यक्ति हुई