०५ विक्रमाङ्कदेवचरित

ऐतिहासिक महाकाव्यों के द्वितीय क्रम में कश्मीरी कवि बिल्हण विरचित ‘विक्रमाकदेव चरित’ को लिया जा सकता है। इसकी उपलब्धि का श्रेय जर्मन विद्वान् डॉ. व्यूल्हर को है। राजस्थान के जैसलमेर नगर स्थित जैन मन्दिर में जैन ज्ञानकोष भण्डार से प्राकृत काव्य ‘गउडवहो’ के साथ सन् १९७४ ई. में उन्हें यह प्राप्त हुआ था। १. यच्चापलं किमपि मन्दथिया मयैवमासूत्रितं नरपते नवसाहसाइक। आजैव हेतुरिह ते शयनीकृतोगराजन्यमौलिकुसुमा न कवित्वदर्पः।। (काव्यसमाप्ति के अनन्तर ग्रन्थप्रशस्ति का चतुर्थ पद्य) २. एशेंट हिस्टोरियंस आफ इंडिया, पृ. १५०-५२ ऐतिहासिक महाकाव्य तथा चरितकाव्य २५५ 16 इस काव्य में १८ सर्ग हैं तथा यह दक्षिण की कल्याणनगरी के चालुक्य राजा विक्रमादित्य षष्ठ’ (१०७८-१६२७ ई.) का (उनके पूर्वजों की ऐतिहासिक भूमिका के साथ) अलंकृत जीवनवृत्त है।

महाकवि बिल्हण

‘विक्रमांकदेवचरित’ के अन्तिम अट्ठारहवें सर्ग में बिल्हण ने स्वयं अपना जीवनवृत्त अंकित किया है। इसके साथ ही इनके पश्चाद्वर्ती राजतरंगिणीकार सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक कवि ‘कल्हण’ ने भी इनके विषय में कुछ ऐतिहासिक तथ्य उल्लिखित किए हैं। इन सबके आधार पर ये कश्मीर के प्रधान नगर ‘प्रवरपुर’ के समीपी ‘रवोनमुष’ नामक ग्राम में कौशिकगोत्रीय ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए थे। इनके पूर्वजों को कश्मीरनरेश गोपादित्य ने मध्यदेश से लाकर वहां बसाया था। इनके प्रपितामह का नाम ‘मुक्तिकलश’, पितामह का नाम ‘राजकलश’ तथा पिता का नाम ‘ज्येष्ठकलश" था। इनकी माता नागादेवी थीं, जिनके ये मध्यम पुत्र थे। बिल्हण के अनुसार इनके अग्रज इष्टराम तथा अनुज आनन्द भी उस समय के अच्छे पण्डित तथा कवि थे. किन्त उन दोनों की कोई रचनाएँ आदि प्राप्त नहीं होती। इन्होंने विधिवत् विद्याध्ययन तथा समस्त भारतवर्ष का भ्रमण भी किया था। कश्मीर के राजा ‘कलश’ के शासनकाल (लगभग १०५० ई.) में ये कश्मीर से पर्यटन हेतु निकल पड़े थे। डा. व्यूल्हर ने बिल्हण के कश्मीरत्याग का समय १०६० से १०६५ ई. के बीच निश्चित किया है। कश्मीर छोड़ने के समय यदि इनको युवा माना जाए तो ग्यारहवीं शताब्दी के द्वितीय अथवा तृतीय भाग में इनका जन्म माना जा सकता है । कश्मीर से मथुरा, वृन्दावन, कन्नौज तथा प्रयाग की यात्रा करते हुए ये वाराणसी पहुंचे। वहां उस समय इनका परिचय डाहल या चेदिदेश (वर्तमान त्रिपुरी जिसकी राजधानी थी) के राजा कलचुरि हैहयवंशीय लक्ष्मीकर्ण या कर्ण (१०४१ से १०७५ ई.) से हुआ। डाहल के नरेशों ने काशी को भी अपनी लघु-राजधानी बनाया था, वहीं इनका कर्ण के सभापण्डित और कवि गंगाधर से शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें विजयश्रीः बिल्हण को प्राप्त हुई। इसके बाद ये भोजराज की राजधानी थारा भी गए, किन्तु तब तक विद्वप्रिय महाराज भोज का देहावसान हो गया। इसके पश्चात् इन्होंने गुजरात पहुंचकर श्री सोमनाथ जी के दर्शन १. इस समय के विषय में विभिन्न विद्वानों में थोड़ा अन्तर देखा जाता है। डा. कीथ इसका शासनकाल -१०७८ से ११२७ ई. लिखते हैं जबकि मुरालीलाल नागर के अनुसार यह समय १०७६ से ११२७ है. होना चाहिए। पं. विश्वनाथ भारद्वाज अपनी भूमिका में इस समय को १०२६ से ११२७ ई. स्वीकार करते हैं। दिखिए, डा. कीथ का संस्कृत साहित्य का इतिहास, अनुवाद - मंगलदेव शास्त्री) (पृष्ठ ११) श्री मुरारीलाल नागर के संस्करण का परिशिष्ट ‘व’ तथा पं.भारद्वाज के संस्करण प्रथम भाग (१E५६) की संस्कृत भूमिका, पृष्ठ १ डा. विश्वम्भरसहाय पाठक के अनुसार विक्रमाकदेवचरित की रचना १०८३ से १०८ ई. के मध्य हुई (Ancient Historilelane of India, P.61) माली २. राजतरंगिणी प्रथम तथा सप्तम तरंग ३. कश्मीरेभ्यो विनिर्यातं राज्ये कलशभूपतेः। (राजतरंगिणी, सप्तमतरंग, ६३५) माननीयों पर ४. डॉ. व्यूल्हर, विक्रमांकदेवचरित की भूमिका, पृष्ठ २३।। २५६ स्मारकाव्य-खण्डका किए और बहुत समय तक दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए ‘कल्याणनगरी’ में विक्रमादित्य षष्ठ के यहां पहुंचे। वहां विद्यापतिपदवी से सम्मानित होकर यावज्जीवन उन्हीं के सभापण्डित और राज्यकवि के रूप में निवास करते रहे। जहाच र PE राजतंरगिणी (७ ।।३८) तथा स्वयं कविकृत विक्रमांकदेवचरित (१८ /१०३) के अनुसार आयु के अन्तिम दिनों में कवि ने कश्मीरदेश लौटने की इच्छा प्रकट की थी, किन्तु उनकी यह इच्छा पूर्ण हुई या नहीं, इसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता। सम्भव है, उन्होंने अपनी यह इच्छा स्थगित कर दी हो, क्योंकि अगले ही पद्य (विक्रमा. १८ १०४) में उन्होंने गंगासेबन की भी अभिलाषा प्रकट की है। कदाचित इसी इच्छा ने उनके परिणत वयःकाल को भगवती भागीरथी के किसी मनोरम तटप्रदेश में व्यतीत करने का अवसर प्रदान किया हो। रचनायें-विक्रमाङ्कदेवचरित के अतिरिक्त बिल्हण की दो अन्य रचनायें और भी प्राप्त होती हैं-(१) कर्णसुन्दरी नाटिका तथा (२) चौर-पंचाशिका या चौरीसुरत-पंचाशिका