रामकृष्ण-विलोमकाव्य
रामकृष्णविलोमकाव्य के कर्ता सूर्यकवि या सूर्यदास दैवज्ञ पण्डित की उपाधि से भी जाने जाते हैं। वे भरद्वाज गोत्र के पंडित ज्ञानवीराज के पुत्र थे तथा पार्थपुर में निवास करते थे। उनके सप्तम पूर्वपुरुष देवगिरि के राजा राम के आश्रय में रहे। सूर्यकवि ने १५३६ ई. में सूर्यप्रकाश नामक ज्योतिष ग्रन्थ का प्रणयन किया। १५४२ ई. में उन्होंने लीलावती पर टीका लिखी। इनके अतिरिक्त नृसिंहचम्पूः तथा देवेश्वर की कविकल्पलता पर टीका ये दो उनकी रचनाएँ और मिलती हैं।’ मा आशारामकृष्णविलोमकाव्य में कुल ३८ पद्य हैं। प्रत्येक पद्य के पूर्वार्ध को विलोम रूप से (उल्टी तरफ से) पढ़ने से उत्तरार्ध बन जाता है। पूर्वार्ध में राम की कथा है, उत्तरार्ध में कृष्ण की। जिस सन्धानकाव्य-परम्परा में निश्चय ही सबसे दुर्गम मार्ग सूर्यकवि ने अपनाया है। उनकी काव्यपद्धति अपने आप में इतनी दुरूह है कि स्वोपज्ञ टीका के बिना उस पर एक पद भी चलना दुष्कर ही है। कवि स्वयं अपने प्रयास की विकटता से सुपरिचित है। उसका कहना है कि उत्क्रम और क्रम दोनों विधियों से छन्दःपुरण भी हो, पदों में साकांक्षता भी रहे और प्रत्येक पद्य में दो-दो अर्थ भी निरन्तर दो अलग-अलग कथा-प्रसंगों के अनुसार समाविष्ट रहें- यह आयाससाथ्य कार्य है। सागर तैर कर पार कर देना आसान है, विलोम-काव्य का रचनापथ तय कर लेना उससे कठिन - कदाचिदपि सन्तरेत् कृतिपरो नरो नीरधिं कथञ्चिदपि धावति प्रचुरधाम धाराध्वनिः। ऋतेऽप्यतिविशारदा प्रचुरशारदानुग्रहं विलोमकविताकृती सुकविधीरधारा भवेत्।। छन्दःपूरणमुत्क्रमक्रमविधौ साकाङ्क्षता तत्पदे वारम्भात्त्वरिते क्रमोपि सुतरामेतत् त्रयं दुर्गमम् । एवं सत्यपि मन्मतिः कियदपि प्रागल्भ्यमालम्बते तत्सर्वं गुणिनः क्षमन्तु यदहो यूयं श्रमज्ञाः स्वयम्।। न (स्वोपज्ञटीका-प्रास्ताविकपद्य) इसमें सन्देह नहीं कि सूर्यकवि ने इस दुष्कर कविकर्म का निर्वाह सफलतापूर्वक किया है। चित्रकाव्य के उनके बंध आकर्षक हैं। यथा - मिलता या चिरं विरञ्चिन चिरं विरञ्चिः साकारता सत्यसतारका सा मला साकारतासत्यसतारका सा चिरंविरञ्चिर्न चिरं विरञ्चिः ।। २।। १. हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, कृष्णमाचारियर पृ. १६५ शास्त्रकाव्य, सन्धानकाव्य, चित्रकाव्य तथा यमककाव्य २४३ प्रथम पाद में राम का ब्रह्म के रूप में स्तवन है, द्वितीय में कृष्ण का। ‘चिरं विरंञ्चिन चिरं विरञ्चिः’ कह कर ब्रह्मा के दो रूपों का संकेत किया गया है, एक चिर है, दूसरा अचिर। पूर्वार्ध में राम के पक्ष में तारक का अर्थ ब्रह्म है, उत्तरार्ध में कृष्ण के पक्ष में सतारक का अर्थ आकाश है।’ __ स्वोपज्ञटीका के अन्त में कवि ने सत्य ही इस रचना को ‘चित्रकवित्वसीमा’ कहा है (काव्यमाला-११, पृ. १६१)।
रामचन्द्र कवि : रसिकरञ्जन
रामचन्द्र कवि के रसिकरञ्जन काव्य में सन्धानकाव्य और मुक्तककाव्य दोनों का समागम है। इसकी रचना कवि ने १५२४ ई. में की-यह इसी काव्य की पुष्पिका से विदित होता है। काव्यमाला-संपादक की सूचना के अनुसार रामचन्द्र कवि का लिखा एक रोमावलीशतक भी मिलता है। रसिकरजन पर कवि की स्वोपज्ञटीका भी मिलती है। इस काव्य के भी सभी पद्यों का वैराग्य तथा शृंगार-दोनों के पक्ष में समान रूप से अर्थ निकलता है। रसिकरञ्जन में तीन मंगल श्लोक, १२५ द्यर्थक श्लोक तथा अंत में दो श्लोक पुष्पिका के हैं। इस काव्य की रचना अयोध्या में हुई-यह भी कवि की सूचना से विदित होता है। कवि ने चुनौती स्वीकार करके ऐसा निराला काव्य रचने का बीड़ा उठाया- यह आरम्भ में वह बताता है एकश्लोककृती पुरः स्फुरितया सतत्त्वगोष्ठ्यासमं साधूनां सदसि स्फुटां विटकथां को वाच्यवृत्त्या नयेत्। इत्याकर्ण्य जनश्रुतिं वितनुते श्रीरामचन्द्रः कविः शिशिर श्लोकानां सह पञ्चविंशतिशतं शृङ्गारवैराग्ययोः।। ३।। it इस काव्य में वसन्ततिलका, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित आदि विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है। रामचन्द्र ने अपनी शब्दसाधना का इसमें अच्छा परिचय दिया है। अंतिम पद्य में गर्वोक्ति करते हुए उन्होंने कहा है कि अमृत और ऐरावत की लक्ष्मी से भरे श्लोकों की रचना कर सकने वाले मेरे काव्य में अच्छे से अच्छे वैयाकरण भी भरमा जाते, यदि मैं इसका दोनों पक्षों में पृथक्-पृथक् व्याख्यान स्वयं न लिख देता। दो अर्थों में प्रत्येक पद्य को घटित करा सकने के लिये कवि ने श्लेष का बड़ी चतुराई से प्रयोग किया है तथा सभंग और अभंग दोनों ही प्रकार के श्लेष साधने में वह निपुण है। वैराग्यपरक अर्थ राम की भक्ति-भावना से ओतप्रोत है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है - अकलियुगमखर्वमत्र हृद्यं व्यचरदतापघनो यतः कुटुम्बी। मम रुचिरिह लक्ष्मणाग्रजेन प्रभवति शर्म दशास्यमर्दनेन।। -५ १. इस महाकाव्य का विस्तृत विवरण जैन संस्कृत महाकाव्य शीर्षक अध्याय में दिया गया है।२४४ काव्य-खण्ड वैराग्यपक्ष में अत्र (इस संसार में) अकलियुग, त्रेता आदि युग महत् हृद्य हैं। इन युगों में कुटुम्बी निस्संताप होकर विचरण करता था। इसीलिये उस त्रेतायुग में हुई लक्ष्मणाग्रज राम में मेरी रुचि या भक्ति है, उन्हीं दशास्यमर्दन राम से मुझे शर्म सुख) और शम (शांति मिलती है। शृंगार के पक्ष में- अखर्व (पुष्ट) हृद्य (हृदय से निकला) युग (युगल-वक्षोजयुगल) देखा, जिससे निस्संताप होकर कुटुंबी अनंग विचरण करता रहा। मेरी प्रीति इसी युग्म में है, जो अग्रज (अग्रभाग में उत्पन्न) लक्ष्म (चिह्न-काला चुचुक या नखक्षत) से युक्त है, जिसके मर्दन से शर्म या शांति मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैराग्य या भक्तिपरक अर्थ कवि के मन में पहले है, उसी के अनुरूप पदावली का प्रयोग करते हुए रचना की है, उसे आयासपूर्वक शृंगारपरक अर्थ में घटाया गया है। अधिकांश पद्यों में भक्तिपरक अर्थ स्वतः खुल जाता है। कुछ पद्य कृष्ण भक्ति के भी हैं। कवि ने अपनी टीका में भी वैराग्यपरक अर्थ का खुलासा पहले किया है, शृंगारपरक अर्थ का बाद में। अनेक पद्यों में व्यर्थकता के रहते हुए भी प्रसादगुण का निर्वाह कर गया है- यह बड़ी विलक्षणता है। उदाहरण के लिये - सर्वत्र साक्षिभावं कलयन्ती सपदि शर्म सन्दधती। सम्मोहयति मनो मे मूर्तिर्गोपालवंशजन्मापि।। - ११२ यहाँ गोपालवंश में जन्मे श्रीकृष्ण के लिये अर्थ सुस्पष्ट है। शंगारपरक अर्थ) में ‘साक्षिमावं कलयन्ती’ की व्याख्या सा (वह स्त्री) अक्षिभावं (दर्शन या साक्षात्कार) कलयन्ती (प्रदान करती हुई) - इस प्रकार की गयी है तथा “गोपालवंशजन्मा मूर्ति’ का इस पक्ष में अर्थ ग्वालिन होते हुए भी वह स्त्री मेरा मन हरती है-इस प्रकार लग जायेगा। स्पष्ट ही आराध्य के प्रति भाव रख कर पद्य की रचना की गयी है, नायिकाविशेष के प्रति कवि का इतना अभिनिवेश नहीं है।