कवि और रचनाकाल : इस काव्य के रचयिता महाकवि धनञ्जय हैं। कवि ने अपने वंश या गुरुवंश अथवा अपने पूर्ववर्ती किसी भी कवि या आचार्य का उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार नेमिचन्द्र ने इस काव्य के अन्तिम श्लोक की व्याख्या में कवि के पिता का नाम वसुदेव, माता का नाम श्रीदेवी और गुरु का नाम दशरथ सूचित किया है। संभावना की जाती है कि कवि गृहस्थ था। कवि धनञ्जय की यह कृति अपने ही युग में बड़ी उत्कृष्ट समझी जाने लगी थी। बाद के कवियों ने इसकी बहुत प्रशंसा की है। वस्तुतः महाकवि दण्डी के पश्चात धनञ्जय ने ही इस प्रकार के काव्य का प्रणयन किया था। धारानरेश भोज ने अपने ‘श्रृगारप्रकाश’ (११वीं शती का मध्य) में “दण्डिनो धनञ्जयस्य वा द्विसंधानप्रबंधो रामायणमहाभारतार्थावनुबध्नाति’’ द्वारा कवि का स्मरण किया है। वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित (सन् १०२५) में इस काव्य की प्रशंसा की है। द्विसन्धानकाव्य पर कुछ टीकाएँ भी प्राप्त होती हैं। धनञ्जय का समय आठवीं शती के मध्य और सन् ८१६ के बीच माना जा सकता है। वस्तुतः इनका समय नवीं शती के पश्चात नहीं हो सकता है। पं. बलदेव उपाध्याय ने इस कवि का समय ११८० वि.सं. से ११९७ वि.सं. (११२३ ई. से ११४० ई.) माना है। मा TFIFE राघवपाण्डवीयम् : महाकवि धनञ्जय के प्रस्तुत काव्य ‘राघवपाण्डवीयम्’ को प्रथम उपलब्ध द्विसन्धानकाव्य कहा जा सकता है। इस काव्य में रामायण एवं महाभारत दोनों कथाओं का युगपत् समुपस्थापन कर एक नवीन सन्धानकाव्यपरम्परा का आरम्भ किया गया-जिस परम्परा का आगे-प्रायः चार सौ वर्षों तक पल्लवन करने में अनेक कवि सप्रयत्न परिलक्षित होते हैं। इस रचना के पूर्व भी महाकवि दण्डी ने किसी सन्धानकाव्य की रचना की थी, ऐसा संकेत सरस्वतीकण्ठाभरण में प्राप्त होता है, परन्तु अद्यावधि दण्डी की कोई सन्धानरचना उपलब्ध नहीं हो सकी है। विषयवस्तु : यह महाकाव्य १८ सर्गों में विभक्त है और इसमें कुल ११०५ श्लोक हैं। इसमें रामायण और महाभारत की कथा एक साथ कुशलतापूर्वक उपनिबद्ध की गयी है। इसका प्रत्येक श्लोक व्यर्थक है। एक अर्थ से रामचरित निकलता है और दूसरे अर्थ । से कृष्णचरित। मित १. संस्कृत साहित्य का इतिहास (१९५६), पृ.२६७। वाली गायिक २३२ काव्य के आरम्भ में मुनिवसुव्रत और नेमिनाथ के स्तवन के पश्चात् सरस्वती की वन्दना की गयी है। श्लेषालंकार की सहायता से राम और पाण्डवों की कथा का वर्णन किया गया है। इसके प्रथम सर्ग में अयोध्या और हस्तिनापुर का वर्णन है। दूसरे सर्ग में दशरथ और पाण्डुराज तथा उनकी रानियों का वर्णन किया गया है। तीसरे सर्ग में राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म, उनका विवाह, पराक्रम तथा दूसरी ओर पाण्डवों का जन्म, युधिष्ठिर का विवाह, घृतराष्ट्र के पुत्रों का जन्म आदि घटनाओं का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग में राघव-पाण्डवारण्यगमन के पश्चात् पञ्चम सर्ग में तुमुल-युद्ध और छठे सर्ग में खरदूषण-वध और गोग्रहनिवर्तन वर्णित है। सातवें सर्ग में सीताहरण और धर्मराज का कृष्ण से सहायता के लिये द्वारवती जाने का वर्णन है। आठवें सर्ग में लड़का-द्वारवती-प्रस्थान, नवम सर्ग में माया-सुग्रीव-विग्रह तथा जरासन्ध-बल-विद्रावण और दशवें सर्ग में लक्ष्मण-सुग्रीव-विवाद तथा जरासन्ध के दूत व कृष्ण के मध्य विवाद वर्णित है। ग्यारहवें सर्ग में सुग्रीव-जाम्ब-हनुमान के बीच परामर्श एवं नारायण-पाण्डवादि परामर्श, बारहवें सर्ग में लक्ष्मण द्वारा तथा कृष्ण द्वारा कोटिशिला का उद्धरण तथा तेरहवें सर्ग में हनुमान एवं कृष्ण का दूत बनकर जाना वर्णित है। चौदहवें सर्ग में सैन्य-प्रयाण, पन्द्रहवें सर्ग में पुष्पावचय एवं जलकेलि, सोलहवें सर्ग में युद्ध और सत्रहवें सर्ग में वर्षा, रात्रि व सुरत-क्रीडा का वर्णन है। अठारहवें सर्ग में रावण एवं जरासन्ध का वध वर्णित है। सीता को लेकर राम अयोध्या वापस आते हैं और निष्कण्टक राज्य करने लगते हैं। इधर श्रीकृष्ण भी जरासन्ध को परास्त कर पाण्डवों की मित्रता का निर्वाह करते हुए निष्कण्टक राज्य सञ्चालित करते ANTE धनञ्जय ने काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में ‘धनञ्जय’ शब्द का प्रयोग किया है इसीलिए इस काव्य को ‘धनञ्जयाङ्क’ नाम से भी जाना जाता है। अपराए । ‘राघवपाण्डवीयम्’ काव्य कवि धनञ्जय के अद्भुत वैदुष्य, संस्कृत भाषा पर अद्वितीय अधिकार एवं विलक्षण कवित्वशक्ति का अद्वितीय निकष है। कवि राजशेखर द्वारा कवि धनञ्जय की स्तुति में निबद्ध एक पद्य ‘सूक्तिमुक्तावली’ में प्राप्त होता है - आज द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः। - जि पाजायया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनं जयः।।