०१ शास्त्रकाव्य

यद्यपि ‘सद्यः परनिवृत्ति को समस्त आचार्यों ने काव्य का परम प्रयोजन स्वीकार किया है, तथापि संस्कृत-वाङ्मय में काव्य-रचयिताओं की एक अन्य परम्परा भी उपलब्ध होती है, जो व्याकरणादि क्लिष्ट शास्त्रों की व्युत्पत्ति कराना ही अपने काव्य का परम १. व्याख्यागम्यमिदं काव्यमुत्सवः सुधियामलम् । हता दुर्मेधसश्चास्मिन् ………………..।। (महिकाव्य, २२६) २१६ काव्य-खण्ड प्रयोजन मानती रही है। इस कवि-परम्परा की चर्चा हमें सर्वप्रथम आचार्य राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में उपलब्ध होती है-शास्त्र कवियों का भेद एवं उनका लक्षण करते हुए आचार्य राजशेखर इनके एक भेद का लक्षण इस प्रकार करते हैं - “योऽपि काव्ये शास्त्रार्थ निधत्ते-स शास्त्रकविः" FISE (पंचमाध्याय) आगे चलकर आचार्य क्षेमेन्द्र के सुवृत्ततिलक में इन शास्त्र-कवियों द्वारा विरचित काव्यों को ‘काव्यशास्त्र’ इस अभिधान से अभिहित किया गया है - शास्त्र काव्यं शास्त्रकाव्यं काव्यशास्त्रं च भेदतः।। चतुष्प्रकारः प्रसरः सतां सारस्वतो मतः।। शास्त्र काव्यविदः प्राहुः सर्वकाव्याङ्गलक्षणम्। अना जनम काव्यं विशिष्ट-शब्दार्थ-साहित्यसदलकृति।। सानिया मिला शास्त्रकाव्यं चतुर्वर्गप्राय सर्वोपदेशकृत। भट्टि-भौमक काव्यादि काव्यशास्त्रं प्रचक्षते।। (३१२-४) १० इसके अनुसार वाङ्मय चार प्रकार का है- शास्त्र, काव्य, शास्त्रकाव्य तथा काव्यशास्त्र। शास्त्रकाव्य में चार पुरुषार्थों का उपदेश होता है, तथा शास्त्र का ज्ञान कराने वाली काव्य-रचना काव्यशास्त्र है। विधि: कालान्तर में ‘काव्यशास्त्र’ पद के साहित्यशास्त्रीय लक्षण-ग्रन्थों के वाचक के रूप में रूढ़ हो जाने पर विद्वानों ने शास्त्रप्रधान काव्यों के लिए ‘शास्त्रकाव्य’ इस अभिधान का प्रयोग स्वीकार कर लिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव के कारण शास्त्रकाव्यों की रचनापरम्परा का आरम्भ काल इदमित्थंतया निर्धारित करना तो संभव नहीं है। फिर भी विभिन्न अन्तः प्रमाणों एवं उल्लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शास्त्रकाव्यों के प्रणयन की परम्परा भी अन्य काव्यविधाओं के समान ही अति-प्राचीन है। पातञ्जल महाभाष्य में आचार्य पतञ्जलि ने अनेक स्थलों पर पद्य एवं पद्यांश उदाहरण-प्रत्युदाहरण के रूप में उद्धृत किये हैं। यथा- ‘उपान्मन्त्रकरणे’ सूत्र (१-३-२५) के भाष्य में विशिष्ट अर्थ के वाचक ‘उपतिष्ठते’ पद का प्रयोग निम्न श्लोक द्वारा उपस्थापित किया है - क “बहूनामप्यचित्तानामेको भवति चित्तवान्। तस्य वानर सैन्येऽस्मिन् यदर्कमुपतिष्ठते”।। ५. काव्यमाला गुच्छक २, पृष्ठ-४ | मरा …. भागि गाऊ शास्त्रकाव्य, सन्धानकाव्य, चित्रकाव्य तथा यमककाव्य to इसी प्रकार प्रत्युदाहरण के रूप में भी किया। “मैवं मंस्थ सचित्तोऽयमेषोऽपि हि यथा वयम्। एतदप्यस्य कापेयं यदर्कमुपतिष्ठति” ।। (म.भा. १-३-२५) ही इन उदाहरण-श्लोकों के पर्यालोचन से इतना संकेत तो प्राप्त हो ही जाता है कि यह शास्त्रकाव्यप्रणयनपरम्परा महाभाष्य के रचनाकाल से भी प्राचीन है। ताकि 04 इसी प्रकार यह अनुमान करना भी सरल है कि ‘पाणिनि’, ‘कात्यायन’, ‘पतञ्जलि’ एवं ‘व्याडि’ आदि वैयाकरणों द्वारा प्रणीत जिन ‘जाम्बवतीजय’ ‘बालचरित’ ‘स्वर्गारोहण’ आदि काव्यों की चर्चा उपलब्ध होती है-संभवतः वे काव्य भी ‘शास्त्रकाव्य’ कोटि के रहे हों।