+०७ शास्त्रकाव्य, सन्धानकाव्य, चित्रकाव्य तथा यमककाव्य

कालिदास के पश्चात् राजसभा में विद्वानों के संपर्क में रहने वाले अनेक कवियों ने जो महाकाव्य लिखे, वे जनसामान्य के लिये सुबोध न थे। इसके साथ ही शास्त्रीय चिन्तन और दर्शन-प्रस्थानों के विकास ने भी काव्य में पाण्डित्य और शास्त्र-ज्ञान के प्रदर्शन की अपेक्षाजी को बढ़ावा दिया था। ऐसे वातावरण में कुछ काव्य ऐसे भी लिखे गये, जिन्हें ‘व्याख्यागम्य’ कहा जा सकता है, बिना टीका के सामान्य पाठक जिन्हें नहीं समझ सकता। भट्टि ने सबसे पहले अपने महाकाव्य के लिये व्याख्यागम्य विशेषण का प्रयोग करते हुए कहा था कि उनके महाकाव्य का आनन्द प्रबुद्ध जन ही ले सकते हैं, अल्पबुद्धि वालों के लिये वह नहीं है’। कदाचित मट्टि की इस उक्ति की प्रतिक्रिया में ही आचार्य भामह ने अपने काव्यालङकार में उपहासपूर्वक भट्टि के ही शब्दों को दोहराते हुए कहा - पटकथा नाय काव्यान्यपि यदिमानि व्याख्यागम्यानि शास्त्रवत्। उत्सवः सुधियामेव हन्त दुर्मेधसो हताः ।। (काव्या. २।२०) यदि कविता भी शास्त्र के समान व्याख्यागम्य होने लग जायेगी, तो वह संधीजनों का ही उत्सव बन कर रह जायेगी, अल्पबुद्धि वाले तो मारे जायेंगे। ।। काव्यशास्त्र के आचार्यों ने भले ही उत्तम काव्य में शास्त्र को बलादारोपित करने का विरोध किया हो तथा ध्वनिवादियों ने यमक या चित्रकाव्य के विन्यास को कवि में शक्ति होते हुए भी प्रमाद या प्रतिभा का दुरुपयोग कहा हो, वह युग ऐसा था कि ध्वनिकाव्य में चित्रकाव्य के प्रयोग का मुखर विरोध करने वाले ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन ने स्वयं भी चित्रकाव्य की रचना की।