+०६ प्राकृत महाकाव्य

एवं संस्कृत साहित्य की एक बड़ी विशेषता प्राकृत साहित्य के साथ उसका संवाद तथा अन्तः क्रिया है। काव्यशास्त्र के आचार्यों ने प्राकृत काव्य को अपने लक्ष्य ग्रंथों में जहाँ लक्षण के रूप में सादर उद्धृत किया तथा उसके आधार पर काव्यकोटियों या लक्षणों का परिष्कार भी किया, वहीं संस्कृत के महाकवियों ने प्राकृत-काव्य-रचना को स्फूर्ति और प्रेरणा दी। संस्कृत और प्राकृत काव्य की धाराएं एक दूसरे की सहगामिनी और सहयोगिनी बन कर शताब्दियों तक अजस्र रूप में प्रवाहित होती रहीं। संस्कृत और प्राकृत साहित्य के बीच आदान-प्रदान महाकाव्य, मुक्तक या गाथा, नाटक, पुराण आदि विविध विधाओं में हुआ। प्राकृत महाकाव्य अधिकांशतः लक्षणों का अनुगमन करते हैं, जो आचार्यों ने संस्कृत महाकाव्य के लिये निर्धारित किये हैं। हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में सर्ग के स्थान पर आश्वासों में विभाजन प्राकृत महाकाव्य का एक लक्षण बताया है। पर वाक्पतिराज के गउडवहो का विभाजन आश्वासों में नहीं हुआ है। दूसरी ओर कुछ संस्कृत महाकाव्य भी ऐसे हैं, जिनका विभाजन सों में न होकर आश्वासों में हैं, जैसे- वासुदेव का युधिष्ठिरविजय। हेमचन्द्र के द्वयाश्रयकाव्य के बीस सर्ग संस्कृत में तथा शेष आठ सर्ग प्राकृत में हैं, इसका विभाजन सों में ही हुआ है। सर्गसंख्या की दृष्टि से सामान्यतः आचार्यों के निर्देश (अष्टाधिक सर्ग होना) की पूर्ति प्राकृत महाकाव्य करते हैं, पर कंसवही तथा उसानिरुद्ध में चार-चार ही सर्ग हैं। पर सर्गसंख्याविषयक लक्षण का अपवादस्वरूप अतिक्रमण संस्कृत महाकाव्य की परंपरा में भी है, लोलिम्बराज की हरिविलासमहाकाव्य में पांच ही सर्ग हैं। माना जाता है। मिला संस्कृत महाकाव्यों की भाँति प्राकृत महाकाव्यों में भी लोकप्रसिद्ध कथा को विषयवस्तु बनाया गया है, अधिकांश महाकाव्यों में पौराणिक आख्यान की वस्तु है, कुछ महाकाव्य ऐतिहासिक विषयवस्तु पर भी लिखे गये हैं। पंचसन्धिसमन्वित होना प्राकृत महाकाव्य के लिये अनिवार्य नहीं रहा। गउडवहो में पांचों संन्थ्यिों का समावेश नहीं है, न कुमारपालचरित या द्याश्रयकाव्य में है। अन्य सभी दृष्टियों से प्राकृत महाकाव्य संस्कृत महाकाव्य का अनुगामी है।