संस्कृत महाकाव्यों की ही ‘भाँति अनेक प्राकृत महाकाव्य लुप्त हो चुके हैं, विभिन्न ग्रन्थों में प्रासंगिकतया इनका उल्लेख मात्र मिलता है। वाक्पतिराज के गौडबहो महाकाव्य की ऊपर चर्चा की गयी है। गौडवहो की रचना के पूर्व उन्होंने प्राकत में मधुमथविजय नामक महाकाव्य लिखा था। गौडवहो में वे कहते हैं कि मधुमथविजय की रचना के पश्चात् मेरी वाणी इस दूसरे महाकाव्य में उसी प्रकार प्रवृत्त हुई, जिस प्रकार लताओं में पहली बार पुष्पोद्भेद हो जाने पर फिर फूल आते रहते हैं। इसी प्रकार आचार्य आनन्दवर्धन तथा हेमचन्द्र ने अपने अलंकारशास्त्रविषयक ग्रन्थों में सर्वसेन के हरविजय नामक प्राकृतमहाकाव्य का उल्लेख किया है तथा आनन्दवर्धन ने इस काव्य से एक पद्य भी उद्धृत किया है। हेमचन्द्र ने ही रावणविजय नामक प्राकृत महाकाव्य की चर्चा की है। इस काव्य से उद्धरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने बताया है कि इस महाकाव्य का आरम्भ कवि-काव्य-प्रशंसा से हुआ है, तथा इसमें नगर, सूर्यास्त, गज, १. संस्कृत एण्ड प्राकृत महाकाव्याजः डा० रामजी उपाध्याय, पृ०४१-५४ २. मामहविजयपवत्ता वाया कहणा ममउला इमम्मि । पढमकुसुमाहितलिण० पच्छा कुसुमं वणलआणं। गौडवहो-६६ ३. ध्वन्यालोक ४. काव्यानुशासन२१४ काब-खण्ड अश्व, विमान (पुष्पक) युद्ध आदि के वर्णन है। इसी प्रकार साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने कुवलयाश्वचरित नामक प्राकृत महाकाव्य का उल्लेख किया है। यह महाकाव्य भी महाकाव्योचित समस्त लक्षणों से अन्वित प्रतीत होता है। सौरिचरित महाकाव्य की एक अपूर्ण हस्तलिखित प्रति शासकीय प्राच्यविद्या पाण्डुलिपिभण्डार, मद्रास में है। इसके चार आश्वास ही पाण्डुलिपि में हैं। कृष्णमाचारियर के अनुसार सौरिचरित की रचना मलाबार में १७०० ई० लगभग हुई। इस काव्य के कर्ता का नाम भी विदित नहीं हो सका है। सम्पूर्ण काव्य में यमक का बाहुल्य है तथा कृष्ण के जीवन का आख्यान है। आचार्य आनन्दवर्धन ने विसमबाणलीला नामक प्राकृत काव्य लिखा था, जिसका अनेकत्र उल्लेख उद्धरणसहित उन्होंने अपने ध्वन्यालोक में किया है। हमेचन्द्र ने भी इस काव्य की चर्चा की है। यह काव्य कामदेवचरित पर आधारित था।