सिरिचिंघ महाकाव्य के पूर्व हेमचन्द्र का द्वयाश्रयमहाकाव्य लिखा जा चुका था, जिसके आठ सर्ग प्राकृत में हैं तथा व्याकरण के नियमों का संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं की दृष्टि से निदर्शन किया गया है। हेमचन्द्र के आदर्श का अनुकरण करते हुए १. प्राकृत-संस्कृत का समानान्तर अध्ययनः रंजन सूरिदेव, पृ०-२४ या माता की utta कृष्णलीलाशुक’ ने बारह सर्गों में वररुचि के गकृतप्रकाश तथा त्रिविक्रम के प्राकृतव्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने के लिये सिरिचिंधकव्य (श्रीचिह्नकाव्य) लिखा, जिसका दूसरा नाम ‘गोविन्दाभिषेक’ भी है। प्रत्येक सर्ग के अंत में ‘श्री’ शब्द का प्रयोग होने से इसे श्रीचिह्नकाव्य कहा गया है। इसके अंतिम चार सर्ग टीकाकार दुर्गाप्रसाद यति ने लिखे। इस काव्य का रचनाकाल तेरहवीं शताब्दी है। इस काव्य में श्रीकृष्णभक्ति तथा अंगार का समन्वय है। ह जार
उसानिरुद्ध तथा कंसवहो
उसानिरुद्ध तथा कंसबहो- इन दोनों प्राकृत महाकाव्यों के रचयिता अठारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामपाणिवाद हैं। रामपाणिवाद का जन्म केरल के दक्षिण मलाबार में १७०७ ई के लगभग हुआ। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी महाकवि तथा बहुभाषाविद् थे। (9) महाकाव्य, नाटक, खण्डकाव्य, शास्त्रीयग्रन्थ, प्राकृत व्याकरण आदि विविध क्षेत्रों में उन्होंने लेखनी व्यापारित की। __रामपाणिवाद के दोनों प्राकृत महाकाव्य पौराणिक विषयवस्तु पर आधारित हैं, जिनका स्रोत हरिवंशपुराण कहा जा सकता है। ये प्राकृत महाकाव्यों की जैन-परम्परा से विषयवस्तु तथा कविदृष्टि में भिन्न हैं। उसानिरुद्ध महाकाव्य में चित्रलेखा के प्रयास के कारण उषा और अनिरुद्ध का मिलन, बाणासुर के द्वारा बलपूर्वक अनिरुद्ध को बन्दी बनाना, कृष्ण और बाणासुर का संग्राम तथा अन्त में उषा और अनिरुद्ध के विवाह का वृत्त है। विवाह के अनन्तर कवि ने नायक-नायिका के समागम का वर्णन भी किया है। बता र मि कंसवहो महाकाव्य में अक्रूर द्वारा कृष्ण को मथुरा के लिये कंस की ओर से निमन्त्रित करना और मथुरा में कंसवध की घटना वर्णित है। रामपाणिवाद की शैली प्रासादिक है। महाकाव्योचित वर्ण्यविषय ऋतु, अंगार, युद्ध आदि उनके दोनों ही प्राकृत काव्यों में मिलते हैं। अलंकारों का प्रचुर प्रयोग रामपाणिवाद ने किया है, पर मौलिक और नवीन कल्पनाओं के स्थान पर प्रचलित अप्रस्तुतविधान का ही उपयोग उनके काव्य में अधिक है। रसाभिव्यक्ति के लिये सटीक उपमान उन्होंने चुने हैं। उषा के विप्रलम्भ के वर्णन में अनुभावों का चित्रण करते हुए वे कहते है कदम्बसाहा विअ कोरकोएहि करविअंगी फुलकांकुरेहि। पोरत्थवादेण व देणलिद्धा खणे-खणे वेवइ सा वराई। यहाँ रोमांचित होने के लिये कोरक से कदम्बशाखा का उपमान दिया गया है। नैसर्गिक दृश्यों का स्वाभाविक चित्रण दोनों ही महाकाव्यों में कवि ने किया है तथा प्रकृति का मानवीकरण भी अनेक स्थलों पर कालिदास का अनुकरण करते हुए उसने किया है। कसवहो में बालवृक्षों के द्वारा अतिथियों के स्वागत का उत्प्रेक्षात्मक वर्णन करते हुए रामपाणिवाद कहते हैं १. परिचय के लिये रागकाव्य-परम्परा शीर्षक अध्याय द्वारा प्राकृत महाकाव्य २१३ अहिहीण कुणंति पच्चकज पअलंतप्पसवासवोदएहि। न गलात इह णिक्खडबाडबालरुक्खा सहपण्णिं च रहिकोइलाहिं।। २।५० बालवृक्ष कोकिला के कलरव के द्वारा अतिथियों से सुखप्रश्न पूछ रहे हैं तथा उन्हें अर्घ्य प्रदान कर रहे हैं, अपने पुष्पों, मधुरस तथा जल के द्वारा।