लीलावईकहा एक कौतूहलप्रधान रोमांटिक महाकाव्य कहा जा सकता है, जिसमें कथातत्त्व की प्रमुखता है। इसमें प्रणयकथा को महाकाव्योचित विन्यास दिया गया है। अलंकृति, वस्तुव्यापारवर्णन, प्रेम की गंभीरता और विजय की महत्ता स्थापित करने का महान् उद्देश्य, रसों और भाव सौन्दर्य की अभिव्यक्ति, उदात्तशैली तथा महाकाव्योचित गरिमा ऐसे तत्त्व हैं, जिनके कारण इसे महाकाव्य मानना तर्कसंगत है। हिन्दी के प्रेमाख्यानक महाकाव्यों की शैली का विकास प्राकृत के इसी कोटि के काव्यों से हुआ है।' लीलावईकहा में प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और सिंहलदेश की राजकुमारी लीलावती की प्रेमकथा निरूपित है। इस काव्य में कुल १८०० गाथाएं हैं, जो अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध हैं। इस पर किसी अज्ञात टीकाकार की लीलावतीकथावृत्ति नामक संस्कृत टीका की भी प्राप्ति होती है। टीकाकार बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच गुजरात में हुआ।
कविपरिचय
लीलावईकहा के कर्ता का नाम कौतूहल (कोऊहल) इसी काव्य की २४,६३१ और १३१०वी गाथाओं में उल्लिखित है। परवर्ती कवियों में पुष्पदन्त, नयनन्दि तथा सोमवेद सूरि ने ‘कोहल’ के नाम विलासवईकहा के कवि का स्मरण किया है। कोऊहल ने स्वपरिचय में अपने पितामह का नाम बहुलादित्य ता पिता का नाम भूषणभट्ट बताया है। १. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहासः डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ०-२६० २. प्राकृत साहित्य का इतिहासः जगदीशचन्द्र जैन, पृ०-५०२२ प्राकृत महाकाव्य २११ व पाण्डुलिपियों के प्रमाण के आधार पर तथा उक्त उल्लेखों के साक्ष्य से कौतूहल का समय ७५० ई. से ८४० ई. के बीच स्वीकार किया जाता है।
वस्तुयोजना
कवि ने आरम्भ में मंगलाचरण, शरद्वर्णन, सज्जन-दुर्जनचर्चा तथा अपने वंशपरिचय के अनन्तर कथा के भेदों का निरूपण किया है। अपनी पत्नी के आग्रह पर वह उसे सातवाहन राजा और राजकुमारी लीलावती की प्रेमकथा सुनाना आरम्भ करता है, जिसमें बीच-बीच में अवान्तर कथाओं का समोवश भी है। आरम्भ में ही अप्सरा रम्भा की पुत्री कुवलयावली के गन्धर्वकुमार चित्राङ्गद से गान्धर्वविवाह की अवान्तर कथा है, जिसमें नलकूबर की पुत्री महानुमति का कथानक भी आ जुड़ता है। कार जी सिंहलराज की पुत्री लीलावती सातवाहननरेश का चित्र देखकर उन पर मोहित हो जाती है, और उन्हें खोजती हुई गोदावरी के तट पर जा पहुँचती है, जहाँ उसकी भेंट उक्त दोनों गन्धर्वपुत्रियों से होती है। महानुमति उसकी मौसेरी बहन निकलती है और तीनों साथ-साथ रहने लगती हैं। अंत में तीनों के मनोवांछित विवाह संपन्न होते हैं।। पदमा कवि ने उस समय के राजाओं की दिनचर्या, जीवनपद्धति तथा गुणों का विशद निरूपण किया है और देश के सांस्कृतिक वैभव का भी चित्रण किया है। जो
काव्यकला
कौतूहल की भाषा सरल और प्रभावशाली है। अलंकारों का दक्षता से उन्होंने प्रयोग किया है, जिनमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक, समासोक्ति, अपह्नुति आदि अलंकार उल्लेख्य हैं। भ्रान्तिमान् अलंकार का उनका एक प्रयोग द्रष्टव्य है। कवि नगर में सोती हुई कामिनियों का वर्णन करते हुए कहता है–जहाँ भवनों की छतों पर सोयी कामिनियों के कपोलों में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा की कलाओं को हंस मृणाल समझकर अभिलाषा करते हैं घर-सिर-पसुत्त-कामिनि-कवोल-संकंत-ससिकलावल। हंसेहि अहिलसिज्जई मुणाल-सद्धालुएहि जहिं ।। (६३) दृश्यात्मक संयोजन, रूपबिम्ब और क्रिया-व्यापार के गत्यात्मक चित्र तो इस काव्य को शैल्पिक विशेषता प्रदान करते हैं। वीर और श्रृंगार का विनियोग इस काव्य की महत्ता को व्यापक प्रतिमान प्रदान करता है।