०४ वाक्पतिराजकृत गउडवहो

गउडवहो महाकाव्य के कर्ता वाक्पतिराज का समय (आठवीं शताब्दी) भारतीय साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णयुग कहा जा सकता है। संस्कृत में इस काल में भवभूति जैसे श्रेष्ठ कवि अपने रूपक प्रस्तुत कर रहे थे, तो अपभ्रंश में महाकवि स्वयम्भू की काव्यप्रतिमा को इसी काल में विकास मिल रहा था। प्राकृत की सुप्रसिद्ध कथाकृति ‘कुवलयमालाकहा’ के रचयिता उद्योतन सूरि का भी समय यही है, और पुराणकार जिनसेन भी इसी काल में हुए। काव्यसमृद्धि के इस अपूर्व उन्मेष में कन्नौज के राजा यशोवर्मा के आश्रय में रहकर वाक्यपतिराज ने गौड देश पर उसकी विजय को विषयवस्तु बना कर ऐतिहासिक महत्त्व का काव्य ‘गउडवहो’ लिखा।

कथावस्तु

गउडवहो में महाकाव्य के लक्षण के अनुसार नायक का समग्र चरित नहीं है। इस महाकाव्य में कुल १२०६ गाथाएं हैं तथा महाकाव्य की प्रचलित परपंरा का अनुवर्तन न कर उन्हें कवि ने आश्वासों या सर्गों में विभाजित नहीं किया है। वर्ण्य विषयों की दृष्टि से यह महाकाव्य आकर्षक बन पड़ा है और विभिन्न वर्णनों के कुलक इसमें स्थल-स्थल पर सन्निविष्ट हैं। कुलकों का भी आकार अनिश्चित है। सबसे बड़ा कुलक १५० गाथाओं का है, तो सबसे छोटा ५ गाथाओं का।

रचनाकाल

राजतरङ्गिणी के उल्लेख के अनसार कन्नौज के राजा यशोवर्मा को कश्मीरनरेश जयापीड ने सन् ७३६ ई. के लगभग पराजित किया था। (राजतं ०४१३४)। ललितादित्य जयापीड का समय ७२४ ई. से ७६० ई. तक माना गया है। संभवतः यशोवर्मा ने गौडदेश पर विजय ७३६ ई. के पूर्व प्राप्त की होगी, जिसका वाक्पतिराज ने वर्णन किया है। वाक्पतिराज ने ही अपने महाकाव्य की ७वी गाथा में अज्ञपिके उल्लेख के साथ भवभूति का स्मरण किया है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भवभूति उनके समय में विद्यमान थे। इसके साथ ही गउडवहो की ८२५वीं गाथा में उल्लिखित सूर्यग्रहण का काल याकोबी ने ७३३ ई, निश्चित किया है। इन उल्लेखों से वाक्पतिराज का समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया जा सकता है। श्री ताक गउडवहो में आरम्भिक ६१ गाथाओं में देवस्तुति, बाद की ३७ गाथाओं में कविप्रशस्ति और प्राकृत काव्यवैशिष्ट्य, उसके बाद ६३ गाथाओं में यशोवर्मा के शौर्य, सौन्दर्य आदि का वर्णन है। युद्धार्थ प्रयाण के प्रसंग में शरद् ऋतु तथा विन्ध्यवासिनी देवी का भी मनोहारी वर्णन कवि ने किया है। गौडनरेश यशोवर्मा के भय से भाग जाता है, फिर अंत में मारा जाता है। यही इस काव्य की मुख्य वस्तु है। युद्ध के पश्चात् नायक की वापसी की यात्रा में कवि ने भारतवर्ष के विविध स्थानों का वर्णन किया है। प्रधान

काव्यकला

वाक्पतिराज की वर्णनकला विशेष रूप से प्रशस्य है और उनकी दृष्टि को भारत के ग्राम जीवन और नैसर्गिक शोभा ने अधिक आकृष्ट किया है। वनग्नाम का वर्णन करते हुए वे कहते हैं–पेड़ों के फल पाकर गाँव के लड़के प्रसन्न हो रहे हैं। काष्ठ २१० काव्य-खण्ड के बने घरों से गाँव बड़ा सुहावरा लगता है। यहाँ अधिक भीड़-भाड़ नहीं है, शान्ति है फललम्भमुइयडिम्मा सुदारुघरसंणिवेस रमणिज्जा। / एए हरन्ति हिअअं अजणाइण्ण वणग्गामा । (६०७) वाक्पतिराज वस्तुवर्णन तधा मनःस्थितियों के चित्रण-दोनों में दक्ष हैं तथा उभयविघ निरूपण को उन्होने अलंकारों के संभार से अतिशयित भी किया है। कहीं-कहीं वे सामान्य तथ्य को अत्यन्त सरल निदर्शन द्वारा हृदयंगम बना देते हैं। जैसे-ऊंचे व्यक्ति को देखकर विस्मय तथा नीच को देखकर शंका होती है, जैसे उन्नत पर्वत को देख कर अचरज और कुएं को देखकर आशंका होती है तुंगावलोअणे होई विम्हओ णीअसणे संका। जह पेच्छताणा गिरिं जहेय अवडं णियंताण।। (८६७) मा वाक्पतिराज लौकिक जीवन के अनुभवों को भूतार्थकथन की शैली में सहज भाव से कहते हैं। ऐसे प्रसंगों में उनमें अनुभव की गहराई, निर्भीकता और व्यंग्य तथा विडंबना का अच्छा पुट मिलता है। लोगों के स्वभाव और प्रवृत्तियों की उन्हें अच्छी पकड़ है।