सेतुबन्ध महाकाव्य को प्राकृत काव्य की उपलब्धियों का चूडान्त निदर्शन कहा जा सकता है। इसकी कथावस्तु का आधार वाल्मीकि रामायण का युद्धकाण्ड है। सेतुबन्ध तथा रावणवथ इसके कथानक की प्रमुख घटनाएं हैं, जिनके आधार पर इसे ‘सेतुबन्ध’ भी कहा जाता है और ‘रावणवध’ भी। टीकाकार रामदासभूपति ने इस काव्य को रामसेतु तथा अपनी टीका को तदनुसार ‘रामसेतुप्रदीप’ की संज्ञा दी है। इस महाकाव्य में सेतुरचना का संरम्भ और सेतुनिर्माण का वर्णन बड़ा विशद और अद्भुत है, अत एव इसका सेतुबन्ध यह नाम ही अधिक प्रचलित तथा सार्थक है। इसका गोल्डश्मिथ द्वारा १८८० ई. में स्ट्रासवर्ग से जर्मन भाषा में अनुवाद प्रकाशित कराया गया तथा हिन्दी में डा० रघुवंश का अनुवाद भी १६६४ ई. में प्रकाशित हो चुका है। अंग्रेजी में भी इसका अनुवाद उपलब्ध प्राकृत महाकाव्य २०७
प्रवरसेन
सेतुबन्ध के कर्ता के रूप में प्रवरसेन का स्मरण बाण और क्षेमेन्द्र ने किया है और इसी रूप में प्रवरसेन की सराहना करते हुए कम्बोज के एक शिलालेख में कहा गया है- नाशिक गणना सेनप्रवरसेनेन धर्मसेतुं विवृण्वता। जिया। विनर TEE परः प्रवरसेनोऽपि जितः प्राकृतसेतुकृत् ।। हा- पाण्डुलिपियों में ‘प्रवरसेनविरइए’ के साथ-साथ ‘कालिदासकए’ भी लिखा होने से प्रवरसेन के साथ-साथ सेतुबन्ध महाकाव्य के कर्ता के रूप में कालिदास का नाम भी जुड़ गया है। सेतुबन्ध के कर्तव्य की समस्या को टीकाकार रामदास भूपति ने और उलझा दिया है। वे कहते हैं- जाEिE ‘यं चक्रे कालिदासः कविकुमुदविधुः सेतु नाम प्रबन्धम् । डा. रामजी उपाध्याय ने सेतुबन्ध के कालिदासकृत होने की प्रान्ति का निराकरण करते हुए निष्कर्ष दिया है कि किसी लिपिकार कालिदास के उल्लेख को भ्रमवश महाकवि कालिदास का उल्लेख समझ लेने से सेतुबन्ध महाकाव्य के कालिदासकृत होने का प्रवाद प्रचलित हो गया।
रचनाकाल
भारतीय इतिहास में प्रवरसेन नाम के चार राजा हुए हैं। दो प्रवरसेन कश्मीर के हैं, जो क्रमशः ईसा की प्रथम और द्वितीय श्ताब्दी में हुए हैं। इन दोनों का संबंध सेतुबन्ध की रचना के साथ नहीं है। वाकाटक वंश में भी दो प्रवरसेन हुए हैं। प्रवरसेन प्रथम का समय २७५ ई. से ३२५ ई. तक है। ये भी निश्चय ही सेतुबन्धकार नहीं हो सकते। इसी वंश में ४१० ई. से ४४० ई. के मध्य प्रभावती के द्वितीय पुत्र प्रवरसेन ने राज्य किया। ये राजा प्रवरसेन स्वयं काव्यरसिक तथा कवि थे। इन्होने ही सेतुबन्ध महाकाव्य की रचना की। कालिदास की रचनाशैली तथा भाषा से सेतुबन्ध की भाषाशैली भिन्न है। कालिदास का प्रभाव अवश्य ही सेतुबन्ध महाकाव्य पर परिलक्षित होता है।
कथावस्तु
सेतुबन्ध महाकाव्य में १५ आश्वासों तथा १२६१ गाथाओं में रामकथा के अंतर्गत सेतुबन्ध की घटना को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। आरम्भ में शरवर्णन के प्रसंग में राम का विरह और सीतास्मृति का करुण निरूपण है। तदनन्तर हनुमान् सीता का समाचार ले कर आते हैं और सैन्यप्रयाण आरम्भ हो जाता है। सेना विन्ध्य और सह्य पर्वतों को पार कर सागरतट तक पहुँचती है (प्रथम आश्वास)। द्वितीय से चतर्थ आश्वास तक सागर का अलग-अलग पात्रों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव. सग्रीव का ओजस्वी भाषण, वानरसैन्य का उत्साह, विभीषण का आगमन तथा अभिषेक वर्णित है। ति, पंचम आश्वास में राम का क्रोध और सागर पर अस्त्र चलाना, षष्ठ में सेतुनिर्माण का उपक्रम तथा दसवें आश्वास तक सेतुनिर्माण की प्रगति और अंत में निशाचारियों के संभोग का विचित्र वर्णन है। शेष आश्वासों में रावण की कामपीडा और युद्ध का उपक्रम तथा युद्ध का चमत्कारपूर्ण वर्णन है, जिसका पर्यवसान रावणवध में होता है। जमीनी १. इंस्क्रिप्शंस आफ कम्बोज, लेख सं. ३३, पृ. EE २०८ काव्य-खण्ड
काव्यकला
प्रवरसेन ने सेतुबन्ध की घटना को अपनी कल्पना से अभिनव विन्यास दिया है। उनके निशाचारियों की संभोगक्रीडा का वर्णन का परवर्ती कवियों ने पर्याप्त अनुकरण दिया। कथानक के संघटन और अन्चिति की दृष्टि से यह बड़ा सफल महाकाव्य माना जाता है। प्रवरसेन द्वारा राम,लक्ष्मण, सुग्रीव आदि चरित्रों के प्रस्तुतीकरण में मानवीय भावों का सन्निवेश प्रभावकारी है। रामकथा के अनेक पात्र यहाँ बड़े सजीव रूप में सामने आते हैं। कवि की संवादयोजना कालिदास के निकट है। प्रवरसेन अपने पात्रों पर एक-एक घटना, कालखंड और संवाद की पदावली के प्रभाव को मनोवैज्ञानिक गहराई में उतर कर अंकित करते हैं। हनुमान् जब आकर राम से कहते हैं कि मैंने सीता को देखा है, तो राम विश्वास नहीं कर पाते। फिर वे बताते हैं कि सीता क्षीणकाय हो गयी हैं, तब राम गहरी सांस लेते हैं। - वे आपकी चिंता करती रहती हैं–यह सुनकर राम को रोना आ जाता है और सीता सकुशल हैं-यह सुन कर वे मारुति को गले लगा लेते हैं दिठं तिण सदहिलं झीण त्ति सबाहमंथरं णीससि। सोअइ तुमं त्ति रुण्णं पहुणा जिअइ त्ति मारुई अवऊढो। १३८ प्रवरसेन ने प्रकृति का यथार्थपरक वर्णन किया है। इस महाकाव्य में वीररस अंगी है, अंग रूप में कहीं-कहीं ही विप्रलम्भ श्रृंगार का भी समावेश है। अद्भुत और करुण रसों की व्यंजना में अवश्य प्रवरसेन अपनी सानी नहीं रखते। न अलंकारों में कवि ने अनुप्रास, यमक और श्लेष का प्रचुर प्रयोग किया है, अर्थालंकारों में उपमा, रूपक उत्प्रेक्षा आदि की छटा उनके महाकाव्य में मनोहर है। उपमा के साथ अन्य अलंकारों की संसृष्टि या सांकर्य में प्रवरसेन ने प्रवीणता प्रकट की है। ‘राम की दृष्टि सुग्रीव के वक्ष पर वनमाला सी, हनुमान् परकीर्ति सी, वानरसेना पर आज्ञा सी, और लक्ष्मण के आनन पर शोभा की तरह पड़ी’-इस कथन में मालोपमा सुंदर है “सोह व लक्खमुहं वणमालव्व विअई हरिवइस्स उरं। कित्तिव्व पवणतणवं आणव्व बलाई से विलगगइ दिट्ठी।। १।४६ ऐति उपमा की ही भाँति उत्प्रेक्षा भी कवि को विशेष प्रिय है तथा अनेक प्रसंगों में तो उसने उत्प्रेक्षाओं की श्रृंखलाएं बना डाली हैं। सेतु की १२६१ गाथाओं में १२४६ आर्यागीति में हैं और शेष विभिन्न गलितक छन्द त सांस्कृतिक आदर्शों के चित्रण की दृष्टि से भी सेतुबन्ध एक महनीय महाकाव्य है। इसमें शौर्य, औदार्य, आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम, पुरुषार्थ और मैत्रीनिर्वाह की प्रेरणाप्रद अभिव्यक्ति है। प्राकृत महाकाव्य २०६