प्राकृत काव्य के प्रथम समर्थ महाकवि विमलसूरि कहे जा सकते हैं। उन्होंने रामकथा का आधार बना कर महाराष्ट्री प्राकृत में ‘पउमचरिय’ की रचना की। इस महाकाव्य में ११८ सर्ग हैं। यह एक पौराणिक प्रबन्ध भी है, और शास्त्रीय दृष्टि से महाकाव्य के लक्षणों की पूर्ति भी करता है। का परम्परा में विमलसूरि का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है, किन्तु विद्वानों ने इस प्रबन्ध के अन्तःपरीक्षण से इसे तीसरी-चौथी शताब्दी ई. की रचना माना है। विमलसूरि जैन धर्म और दर्शन के अधिकारी विद्वान् हैं, साथ ही वे प्रतिभा सम्पन्न कवि भी है। इस महाकाव्य में उन्होंने कई मौलिक उद्भावनाएं की हैं। उनके काव्य में राम और रावण दोनों का चरित्र स्वाभाविक रूप से विकसित किया गया है। भाषा प्रार्जल और प्रवाह युक्त है तथा समुद्र, वन, नदी, पर्वत, ऋतुओं, युद्ध और सौन्दर्य का महाकाव्योचित गरिमा के साथ वर्णन है। विभिन्न अलंकारों के प्रयोग से यह काव्य रसमय और आकर्षण बन पड़ा है। सन्ध्याकालिक अंधकार का वर्णन करते हुए कवि उत्प्रेक्षा करता है कि दिशाओं के मार्ग में कृष्णवर्ण वाला अन्धकार गगन को मैला करता हुआ फैल रहा है, मानों सज्जन का चरित्र दुर्जन के स्वभाव से मलिन किया जा रहा हो उच्छरह तमो गगणो मदूलन्तो दिसिवहे कसिणवण्णो। सज्जनचरिउज्जोयं नज्जह ता दुज्जणसहायो।। 1 - पउमचरिउ २।१०० जीवन की विभीषिका, आदर्श और मानव स्वभाव के सजीव चित्रण के कारण पउमचरिउ एक उल्लेखनीय रचना है।