०१ प्राकृत महाकाव्यों का विभाजन

प्राकृत महााव्यों को शैली तथा विषयवस्तु की दृष्टि से निम्नलिखित कोटियों में विभाजित किया जा सकता है२०४ काव्य-खण्ड (१) पौराणिक महाकाव्य, (२) शास्त्रीय या अलंकृत शैली के महाकाव्य, लामा (३) ऐतिहासिक महाकाव्य, (४) प्रेमाख्यानमूलक महाकाव्य। पौराणिक शैली के प्राकृत महाकाव्यों का, संख्या तथा विषयवस्तु के वैविध्य और गौरव की दृष्टि से इन कोटियों में सर्वोपरि स्थान माना जा सकता है। प्राकृत महाकाव्यों में सर्वप्राचीन विमलसूरि का पउमचरिउ इसी कोटि का महाकाव्य है। यद्यपि स्वयं कवि ने इसे पुराण कहा है, पर आधुनिक समीक्षकों ने इसे एक श्रेष्ठ महाकाव्य के रूप में मान्यता दी है। विण्टरनित्स ने इसे प्रथम शती, जैकोबी ने तीसरी शती तो मुनि जिनविजय, के. ध्रुव आदि विद्वानों ने षष्ठ शती की रचना माना है। जैकोबी का यह भी अनुमान है कि विमलसूरि की इस रचना के पहले प्राकृत में पौराणिक शैली के अनेक महाकाव्य लिखे जा चुके थे। पउमचरिउ में ६००० श्लोकों में वाल्मीकि रामायण के सात काण्डों के समान सात अधिकारों में रामकथा का जैन परम्पराप्राप्त रूपान्तर प्रस्तुत किया गया है। शैली की उदात्तता के कारण यह महाकाव्य भारतीय साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण निधि है। आठवीं शती के पश्चात् प्राकृत में रचित पौराणिक शैली के अनेक महाकाव्य अप्रकाशित तथा हस्तलिखित रूप में प्राप्त हैं। महानि फिर यह ज्ञातव्य है कि प्राकत में पौराणिक शैली के काव्यों की रचना प्रायः जैन कवियों ने ही की है, जबकि शास्त्रीय या अलंकृत शैली के महाकाव्य जैनेतर कवियों ने लिखे, जिनके श्रेष्ठ उदाहरण प्रवरसेन का सेतुबंध तथा वाक्यपतिराज का गउडवहो है। गउडवहो ऐतिहासिक महाकाव्य भी है। या के इनके अतिरिक्त प्राकृत ‘कथा’ के नाम से अनेक प्रेमाख्यानमूलक काव्य मिलते हैं, जिन्हें आधुनिक विद्वानों ने ‘रोमांटिक महाकाव्य’ कहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र में आचार्यों ने जिस गद्यबद्ध कथा का लक्षण किया है और कादम्बरी को उसका उदाहरण बताया है, उससे इन काव्यों का सम्बन्ध नहीं है, ये पूर्णतः पद्यबद्ध हैं। रहस्यमय कल्पना, जिसे आधुनिक समीक्षा में ‘फैंटेसी’ कहा जाता है, और चमत्कारपूर्ण घटनाओं का बड़ा आकर्षक विन्यास इन काव्यों में मिलता है। पादलिप्त की तरंगवतीकहा ‘उद्योतन की कुवलयमालाकहा कोतूहल की लीलावईकहा, जिनेश्वर की निब्बाणलीलावई साधारणकवि की विलासवईकहा (रचनाकाल संवत् ११२३), हरिमद की समराइच्चकहा (दसवीं शती), महेश्वरसूरि की पुष्पवईकहा (बारहवीं शती) घनेश्वर की सुरसुन्दरीकहा (बारहवरीं शती), वर्धमानकृत १. तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ. ५६ २. वहीं-पृष्ठ ५० ३. वहीं-पृ. ५० ४. वही-पृ. ५० प्राकृत महाकाव्य २०५ मनोरमाचरिय (वि. सं. ११४४) महेश्वरसूरि की नम्मयासुन्दरीकहा (सं. ११७८) इत्यादि ऐसी कथाएं हैं। इनमें वस्तुतः महाकाव्य के सारे लक्षण अन्वित नहीं है।

अपभ्रंश महाकाव्य

प्राकृत महाकाव्यों की एक परवर्ती धारा अपभ्रंश महाकाव्य के रूप में विकसित हुई। आचार्यों द्वारा दिये गये लक्षण के अनुसार अपभ्रंश महाकाव्यों का विभाजन सन्धियों में होना चाहिये। अपभ्रंश महाकाव्य अपने समय के लोकप्रिय कथानकों पर लिखे गये हैं। ये कथाएं घर-घर में सुनी या कही जाती होगी या कथागायकों द्वारा जन समाज के सम्मुख गा-गा कर प्रस्तुत की जाती होगी। इन कथाओं में पुरुषार्थचतुष्टय की परिव्याप्ति है, और मोक्ष में परिणित भी। जनसमाज के सामने प्रस्तुत करने का ध्येय होने से अपभंश महाकाव्य आख्यानप्रधान है और कालिदासोत्तर महाकाव्यों की अलंकृत शैली तथा वर्णनों के विपुल संभार को उनमें उतना स्थान नहीं मिला है। नायक के समग्र जीवन की गाथा प्रस्तुत करना इन महाकाव्यों की रचना में अभीष्ट है। पञ्चसन्धियों का भी पूरी तरह इनमें निर्वाह नहीं है। वस्तुतः इनकी तुलना संस्कृत महाकाव्यों की अपेक्षा चरितकाव्यों से की जा सकती है, जिन पर इस ग्रंथ में अन्यत्र चर्चा की गयी है। भविष्यदत्तकथा, यशोधरचरित, नागकुमारचरित आदि अपभ्रंश महाकाव्यों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

पालिमहाकाव्य

पालिमहाकाव्यों के जिनालंकर तथा जिनचरित-ये दो उदाहरण सुविदित हैं। इनका विभाजन सर्ग, आश्वास आदि में नहीं किया गया है, पर भगवान् बुद्ध का जीवन चरित प्रस्तुत करना इनका ध्येय है। जिनालंकार में - २५० श्लोक हैं और जिनचरित में ४६६ श्लोक हैं। इस प्रकार इन महाकाव्यों का आकार संस्कृत और प्राकृत महाकाव्यों की तुलना में बहुत सीमित है।

प्राकृत काव्यपरंपरा

प्राकृत काव्यों पर मूलतः वाल्मीकि और व्यास के आर्ष महाकाव्यों का प्रभाव पड़ा है। विमलसूरि ने ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में पउमचरिउ लिख कर रामायण कथा का जैन सम्प्रदयगत रूप प्रस्तुत किया। प्राकृत के आगमग्रथों, आचार्य कुन्दकुन्द आदि के सिद्धान्त ग्रंथों, तरंगवतीकथा (पादलिप्त सूरिकृत) आदि में काव्यात्मकता का उत्कृष्ट निदर्शन है। प्राकृत की ही भाँति अपभ्रंश वाङ्मय का भी समारम्भ रामकथा के आख्यान से ही हुआ। आठवीं शताब्दी में महाकवि स्वयम्भू ने पउमचरिउ और रिठ्ठनेमिचरिउ जैसे विशाल काव्यात्मक प्रबन्ध अपभ्रंश में लिखे। इन चरितकाव्यों का स्वरूप महाकाव्यात्मक है। इसी प्रकार दसवीं शताब्दी के महाकवि पुष्पदन्त का महापुराण नाम से अवश्य पुराण है, पर कथा की संघटना और काव्यात्मकता के निर्वाह के कारण वह एक उत्कृष्ट महाकाव्य भी कहा जा सकता है। स्वयं कवि ने ही अपनी इस रचना को महाकाव्य कहा है। इस कोटि की अन्य रचनाओं में धवल का हरिवंशपुराण, वीरकवि का जंबुस सामिचरिउ पद्मकीर्ति का’ पासचरिउ तथा घनाल की भविस्सदत्त कहा आदि अपभ्रंश प्रबन्धों का उल्लेख किया जा सकता है। २०६ काव्य-खण्ड