+०५ कालिदासोत्तर महाकाव्य : पहली शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक

कालिदास तथा अश्वघोष जैसे महाकवियों ने जिस काव्य-परम्परा को सुदृढ़ आधार दिया, उसका ईसा के बाद की शताब्दियों में कई धाराओं में विकास होता रहा। कालिदासोत्तर महाकाव्यों की एक विशिष्ट प्रवृत्ति अलंकृत शैली का उदय मानी गयी है तथा इस युग के प्रतिनिधि महाकाव्यों को ‘अलङ्कृत शैली के महाकाव्य’ की संज्ञा दी जाती रही है। कालिदास और अश्वघोष के महाकाव्यों की तुलना में इन महाकाव्यों की निम्नलिखित विशेषताएँ मानी गयीं (१) सर्गसंख्या का आधिक्य तथा वर्णनों का विस्तार,कनिकायो (२) किसी एक या एकाधिक सर्ग में चित्रबन्धों का विन्यास, काफी (३) कथावस्तु या घटनाचक्र की न्यूनता, (४) आलंकारिकता, भाषा-शैली के चमत्कार तथा वक्रता पर अधिक आग्रह, (५) पाण्डित्य। भारवि, माघ तथा श्रीहर्ष के महाकाव्य इस प्रकार की विशिष्ट शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। अलंकृत शैली का अतिरेक रत्नाकर और शिवस्वामी के महाकाव्यों में हम देखते हैं। किन्तु इन महाकवियों के समानान्तर इस युग में कालिदास की प्रसादगुणसम्पन्न वैदर्भी रीति का अनुवर्तन करने वाले महाकवि भी बड़ी संख्या में हुए। कुमारदास का जानकीहरण, उद्भट का कुमारसम्भव, अभिनन्द और क्षेमेन्द्र के महाकाव्य, श्रीकण्ठचरित, हरिविलास, चक्रपाणिविजय, धर्मशर्माभ्युदय, सहृदयानन्द आदि ऐसे बहुसंख्य महाकाव्य हैं, जो अलङ्कृत शैली के महाकाव्यों की उपरिलिखित प्रवृत्तियों की सीमा से बंधे नहीं हैं। 1- कालिदासोत्तर काल में इस देश में ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं, शास्त्रों और कलाओं तथा दर्शन और चिन्तन का अभूतपूर्व विकास हुआ, जिसका प्रतिफलन काव्य रचनाओं में होना अवश्यम्भावी था। इसके साथ ही, उक्त महाकाव्यों में अधिकांश राजसभा से सम्बद्ध कवियों के द्वारा रचे गये। राजसभा में विद्वानों तथा कलाकारों का साहचर्य, पाण्डित्यप्रदर्शन, शास्त्रार्थ और पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता- इन सबका प्रभाव महाकवियों की रचना पर स्वभावतः होना ही था। पाण्डित्य और शास्त्रज्ञान के प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक अतिरेक के साथ शास्त्रकाव्यों, सन्धानकाव्यों और यमककाव्यों में परिलक्षित हुई, जिनका परिचय यहाँ पृथक् अध्याय में दिया जा रहा है। काव्य-खण्ड