२३ हयग्रीववधमहाकाव्य

कथावस्तु

हयग्रीव नामक दैत्य की कथा महाभारत तथा कतिपय पुराणों (अग्निक अ०-१, पद्मपुराण अ० २५८, भागवतपुराण ।२४) में आयी है। एक कथा के अनुसार विष्णु ने मत्स्यावतार के समय इस हयग्रीव दैत्य का वध किया था। भर्तृमेण्ट ने अपने महाकाव्य में इसी कथा को विषय बनाया है। महाकाव्य के अप्राप्य होने के कारण सर्गसंख्या तथा सर्गानुसार कथावस्तु नहीं दी जा सकती।

भाषाशैली तथा काव्यात्मक उपलब्धि

हयग्रीववध महाकाव्य के जो पद्य सुभाषितसंग्रहों या काव्यशास्त्रीय ग्रथों में उद्धृत हैं, उनसे स्पष्ट है कि भर्तृमेण्ठ कलम के धनी हैं। उनके १. घासनासं गृहाण त्यज गजकलभ प्रेमबन्ध करिण्याः पाशगन्धिवणानामभिमतमधुना देहि पकानुलेपम्। दूरीभूलास्तवैते शबरवरवधू विनमोनान्तरम्या रेवाकूलोपकण्ठदुमकुसुमरजोधूसरा विन्ध्यपादाः।। त्यतो विन्म्यगिरिः पिता भगवती मातेव रेवा नदी ते ते स्नेहनिबन्धबन्धुरधियस्तुल्योदया दन्तिनः। त्वल्लोभान्ननु हस्तिनि स्वयमिदं बन्धाय दत्तं वयु स्ते दूरे नियसे लुटन्ति च शिर-पीठे कठोराकुशाः।। (हस्तिपकस्य) १६३ कालिदासोत्तर महाकाव्य : पहली शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक पास संपन्न भाषा और अभिव्यक्ति की प्रौढता है। वे विषयवस्तु के अनुरूप सरल और प्रासादिक भाषा का भी प्रयोग करते है, तो दीर्ध समस्त पदावली से मंडित गौडीय शैली की भाषा की छटा भी वे दे सकते हैं। क्षेमेन्द्र ने अपने सुवृत्ततिलक में हयग्रीववध का निम्नलिखित पद्य प्रस्तुत किया है, जो भर्तृमण्ठ की सरल प्राजंल शैली का नमूना है आसीद् दैत्यो हयग्रीवः सुहृद्वेश्मसु यस्य ताः। प्रथयन्ति बलं बाह्वोः सितच्छत्रस्मिताः श्रियः ।। यह पद्य महाकाव्य के पहले ही सर्ग का- और पहले सर्ग में भी आरंभिक पद्य प्रतीत होता है, जिसमें वस्तुनिर्देशात्मक मंगल भी संभवतः कवि ने कर दिया है। इसी क्रम का एक पद्य शाकुन्तल की टीका में राघवभट्ट ने हयग्रीववध से उद्धृत किया है स्ति कवियं प्रेक्ष्य चिररूढापि निवासप्रीतिरुज्झिता। तो । मदेनैरावणमुखे मानेन हृदये हरेः।। (जिस हयग्रीव दैत्य को देखकर ऐरावण हाथी के मुख से मद के और हरि के हृदय से मान के चिरनिवास की प्रीति छूट गयी) उद्भट के काव्यालङ्कारसारसङ्ग्रह की तिलक टीका में इसी पद्य को पर्यायोक्त अलंकार के उदाहरण स्वरूप उद्धृत किया गया है। एक ओर भर्तृमेण्ठ वाल्मीकि और अश्वघोष के काव्य की सहज प्रासादिक शैली के सफल प्रयोक्ता हैं, तो दूसरी ओर वे संस्कृत महाकाव्य की अलंकृत शैली के भी पुरोधा लगते हैं। मम्मट द्वारा उद्धृत उनका यह पद्य चित्रकाव्य में अर्थालंकार तथा कल्पना के वैचित्र्य का रमणीय उदाहरण है विर्निगतं मानदमाममन्दिराद् भवत्युपश्रुत्य यदृच्छयापि यम्। नो ससम्भ्रमेन्द्रद्रुतपातितार्गला निमीलिताक्षीव भियाऽमरावती।। (जिस मानद हयग्रीव के यदृच्छया या योंही बिना प्रयोजन के घर से निकल पड़ने पर जब यह समाचार स्वर्ग तक पहुँचा, तो इन्द्र घबड़ाकर स्वर्गपुरी की अर्गला गिराकर दोनों फाटक बंद करवा देते है, जैसे अमरावती रूपी नायिका ने डर से पलकें बंद की हों।) भोज ने सरस्वतीण्ढाभरण में समुच्चयमुद्रा नामक शब्दालंकार के उदाहरण में हयग्रीववध महाकाव्य का यह पद्य उद्धृत किया है १. भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण में इसी पद्य को हयग्रीववध का वस्तु निर्देशात्मक मंगल बताकर उद्धृत किया है, अतः यह हयग्रीववध के पहले सर्ग का पहला पद्य हो सकता है। (भौजज शृगारप्रकाशः व्ही. राघवन, पृ० ७.६)काव्य-खण्ड अधिक व जातश्चायं मुखेन्दुस्ते भृकुटीप्रणयः पुरः। तिन ला सॉर गतं च वसुदेवस्य कुलं नामावशेषताम्।। निजीनिय भोज ने इसके साथ ही शृङ्गारप्रकाश में हयग्रीववध महाकाव्य की वस्तुयोजना का भी संकेत दिया है, जिसके अनुसार इस महाकाव्य में रात्रिवर्णन तथा देवताओं की मंत्रणा के प्रसंग थे। हामि विक

काव्यशास्त्रीय परपंरा में हयग्रीववध की समीक्षा

संस्कृत काव्यशास्त्र की आचार्य परपंरा में भर्तृमेण्ठ का महाकाव्य एक बहुचर्चित कृति रही है। आचार्यों ने महाकवि को इस बात के लिये आड़े हाथों लिया है कि इसमें नायक (विष्णु) की अपेक्षा प्रतिनायक (हयग्रीव) का चरित्र अधिक प्रधान हो गया है। हेमचन्द्र ने रसदोषप्रसंग में अंगविस्तृतिदोष का उदाहरण इस महाकाव्य को माना है। रामचन्द्रगुणचन्द्र ने हेमचन्द्र के मत से असहमति प्रकट करते हुए कहा है ‘तत्र हि वीरो रसः सविशेषतः वध्यस्य शौर्यविभूत्यतिशयेन भूष्यते’ - अर्थात् वध्य प्रतिनायक के शौर्यातिशय का वर्णन इस महाकाव्य में वीररस की पुष्टि ही करता है। अतः रसदोष नहीं हैं, नायक का अल्प वर्णन होने से वृत्तदोष कहा जा सकता ऐसा लगता है कि आचार्य दण्डी की दृष्टि में हयग्रीववध की यह आलोचना थी और इस दृष्टि से प्रतिनायक के वंश, वीर्य आदि के वर्णन से नायक का ही उत्कर्ष-कथन होने की बात वे कहने लगते हैं। (काव्यादर्श १।२२) भोज ने तो अपेशल इतिहासवृत्त को पेशल बनाने वाले महाकाव्य का आदर्श उदाहरण ही हयग्रीववध को माना है। वस्तुतः भर्तृमेण्ठ आलंकारिकों की दृष्टि में एक महान् कवि हैं, भले ही लक्षणों की दृष्टि से कालिदासादि की तरह उनकी कड़ी समीक्षा की गयी हो।