कश्मीर के शैव तथा शाक्त स्तोत्रों की परम्परा में आनन्दवर्धन का नाम सर्वप्रथम लिया गया है। इस शतक की प्रान्तप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अर्जुनचरित काव्य तथा विषमबाणलीला प्राकृत काव्य की रचना करने वाले सुप्रसिद्ध आलंकारिक ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन इसके रचयिता हैं जिनका समय नवीं शताब्दी है। देवीशतक पर कैय्यट की टीका मिलती है, जो १०३५ वि.सं. (६७.ई.) में लिखी गयी। देवीशतक चित्रकाव्यबहुल रचना है, मुरजबन्ध, गोमूत्रिकाबन्ध, सर्वतोभद्र आदि के साथ यमक के नाना प्रकारों का प्रयोग इसमें आचार्य आनन्दवर्धन ने किया है। कतिपय पद्य पूर्णतया प्रसादगुणसम्पन्न तथा जटिलता से मुक्त है। यथा ऋषीणां सादयामास या तमांसि त्रयीमयी। पायाद् वः सा दयामाधिच्छिदं जगति बिभ्रती।। (६) प्रायः सभी पद्य दुरूह हैं तथा कैय्यट की विवृति के बिना अर्थबोध दुष्कर है। पर कहीं-कहीं यमक या मुरजबन्ध आदि का निर्वाह करते हुए भी कवि ने प्रसादरम्यता की क्षति नहीं होने दी है। उदाहरणार्थ मुरजबन्ध का यह प्रयोग द्रष्टव्य है १. काव्यमाला नवम गच्छक प. 4-398 HAINDA HAIR R PRETS दिला २. येनानन्दकथायां त्रिदशानन्द च लालिता वाणी। शाद शाकि जाता पातेन सुदुष्करमेतत् स्तोत्रं देव्याः कृतं भक्त्या ।। १०४ की कैप्पट की विवृति के अनुसार आनन्दकचा का अर्थ विषमबाणलीला तथा विदशानन्द का अर्थ ही अर्जुनचरित है (काव्यमाला गु.-६, पृ. ३०) ३. देवीशतक -विवृतिकार कैथ्यट वैयाकरण कैय्यट से भिन्न हैं। ये वल्लभदेव के पौत्र तथा चन्दादित्य के पुत्र थे तथा आनन्दवर्धन के समकालीन थे। (द. वही, पृ.१ पादटिप्पणी । हामी मुक्तक-काव्य-परम्परा : शतककाव्य संयतं याचमानेन यस्याः प्रापि द्विषा वधः। गणक संयतं या च मानेन युनक्ति प्रणतं जनम् ।। या दमानवमानन्दपदमाननमानदा। दानमानमाक्षमानित्यधनमानवमानिता।।१४,१५ एक ही पद्य का प्रतिलोमपाठ अन्य पद्य में बदल जाता है- इसप्रकार की चमत्कारपूर्ण रचना का भी आनन्दवर्धन ने प्रदर्शन यहां किया है। देवीशतक चित्रकाव्य का विलक्षण उदाहरण है। एक ही पद्य में संस्कृत, महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी, शौरसेनी तथा अपभ्रंश इन छ: भाषाओं का एकत्र सन्निवेश द्रष्टव्य है 1 मिनरल व अलोल कमले चित्तललाम कमलालये। का पाहि चण्डि महामोहभङ्गभीमबलामले।। (दे.श. ७४) F कार मा HESE TERZIHEN ME DEP