हिसार कालिदास के दोनों महाकाव्यों में परिपक्व दार्शनिक चेतना अन्तर्निहित है और शिव-तत्त्व के स्वरूप को उन्होंने गहन शास्त्रावबोध तथा स्वानुभूति के साथ व्यक्त किया है। अनेक स्थलों पर प्रत्यक्ष रूप से भी महाकवि ने अपने दार्शनिक मन्तव्यों को प्रकट किया है। वेदान्त के समान वे एक सर्वात्मक सत्ता को स्वीकार करते हैं, जिसे उन्होंने पुरुष, आदिपुरुष, अव्यक्त, पुराण’, अजर’, आत्मभूष, केवलात्मा’ आदि संज्ञाओं से निरूपित किया है। यह पुरुष अनादि है, वही सृष्टि का स्रष्टा, धारणकर्ता और संहर्ता है। जगत् के प्रलय, स्थिति तथा सृष्टि का कारण यही एक पुरुष है। सृष्टि गुणों के विचलन से होती है, पर विक्रिया गुणों में होती है, पुरुष अविक्रिय रहता है। यह पुरुष परमतत्त्व है, सर्वज्ञ और सर्वयोनि है, सर्वव्याप्त और सर्वरूपधारणकर्ता है। 10 कामा परमतत्त्व के स्वरूप निर्वचन में जहाँ कालिदास की दृष्टि शैवाद्वैत या वेदान्त की अनुगामिनी है, वहीं सृष्टिप्रक्रिया के निरूपण में प्राचीन सांख्य की झलक वे देते हैं। प्रकृति तथा (सांख्य का) पुरुष- ये दोनों उनकी दृष्टि से उसी एक परम पुरुष के दो रूप हैं।" जस्त्रीतत्त्व की महनीयता और अनिवार्यता को कालिदास स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में उमा के बिना शिव भी अपूर्ण हैं, इसलिये ‘स्वयं विधाता तपसः फलानां केनापि कामेन तपश्चचार- (कुमारसम्भव, ११५७)- वे स्वयं भी उसे पाने के लिये सचेष्ट हैं। तपस्विनी उमा को तो कवि ने वयोवृद्ध ऋषियों के लिये भी वन्दनीय बताया है। १. कुमारसम्भव २३ २. रघुवंश, १०।६ ३. वही, २०१८ ४. वहीं, ५०१ ५. यही १०१ ६. वही 90 THE ७. कुमारसम्भव २।४ ८. नमो विश्वसृजे पूर्व विश्वं तदनु बिनते। अथ विश्वस्य संहत्रे तुभ्यं था स्थितात्मने ।। - रघुवंश, १०१६ तिसृभिस्त्वमवस्थाभिः स्वमहिमानमुदीरयन् । प्रलयस्थितिसर्गाणामेकः कारणतां गतः।। - कुमारसम्भव, २६ रसान्तराण्येकरसं यथा दिव्यं पयो अनुते।। देशे देशे गुणे वेबमवस्थास्त्वमबिक्रियः।। रघुवंश, १०१७ १०. गुणत्रयविभागाय पश्चाद् भेदमुपेयुषे। - कुमारसम्भव, २४ ११. त्वामानन्ति प्रकृति पुरुषार्थप्रवर्तिनीम्। तद्दर्शिनमुदासीनं त्वामेव पुरुषं विदुः।। कुमारसम्भव २१३ १२. कुमारसम्भव, ५११६ FOTO कालिदास के काव्य लीला तिनी जाय निम