सौन्दर्य-चित्रण प्रायः प्रत्येक कवि का अभीष्ट होता है। प्रकृति-सौन्दर्य एवं मानवीय सौन्दर्य का वर्णन काव्य का अभिन्न अङ्ग है। महाकवि कालिदास सौन्दर्य के उपासक हैं। कालिदास नैसर्गिक सौन्दर्य के प्रेमी हैं। कृत्रिम और दिखावटी शृङ्गार उन्हें नहीं रुचता। वे प्रकृति के द्वारा दिये गये सहज उपादानों से अपनी परिकल्पना की नायिकाओं में अनिन्द्य सौंदर्य का आविष्कार करते हैं। कुमारसम्भव में पार्वती ने वसन्त के फूलों से अपने आप को अलंकृत किया है। उसके अशोक ने पद्मराग मणि को धता बता दी है, कर्णिकार ने स्वर्ण की द्युति को खींच लिया है तथा सिंधुवार के पुष्प ही मुक्तामाला बन गये हैं अशोकनिर्भर्त्सतपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम्। मुक्ताकलापीकृतसिन्दुवारं वसन्तपुष्पाभरणं वहन्ती।। (३५३) मेघदूत में अलका नगरी में मणि-माणिक्य, सोने-चांदी और धन-समृद्धि की कोई कमी नहीं। फिर भी वहां की सुन्दरियां फूलों से ही अपना अंग-प्रत्यंग सजाती हैं। हाथ में लीलाकमल, केश में बालकुन्द का अनुवेघ, तो कपोलों पर लोन के पराग से शुभ्र वर्ण का आधान, जूड़े में नये कुरवक के पुष्प, कानों में सुन्दर शिरीष और सीमंत (मांग) में कदम्ब - इस तरह सारे देह में फूल सज उठते हैं हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं नीता लोघ्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीष सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम् ।। (उत्तरमेघ - २) वस्तुतः कवि ने अपने सौन्दर्यबोध के द्वारा मनुष्य को प्रकृति के निकट आने तथा सहज जीवन अपनाने का संदेश दिया है। इस सौन्दर्य की सर्वोच्च प्रतिमूर्ति तो स्वयं शिव ही हैं, जहां शिव हैं, वहीं सौन्दर्य है। यदि शिव हैं तो संसार की सारी बीभत्सता भी कालिदास के काव्य अलौकिक रम्यता में परिणत हो जाती है। विवाह के समय शिव के शृङ्गार का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं स एव वेषः परिणेतुरिष्टं भावान्तरं तस्य विभोः प्रपेदे। बभूव भस्मैव सिताङ्गरागः कपालमेवामलशेखरश्रीः।। उपान्तभागेषु च रोचनाको गजाजिनस्यैव दुकूलभावः।। शखान्तरद्योतिविलोचनं यदन्तर्निविष्टामलपिङ्गतारम् । । सान्निध्यपक्षे हरितालमय्यास्तदेव जातं तिलकक्रियायाः।। यथाप्रदेशं भुजगेश्वराणां करिष्यतामाभरणान्तरत्वम् । शरीरमात्रं विकृतिं प्रपेदे तथैव तस्थुः फणिरत्नशोभाः।। (कुमारसम्भव ७।३१-३४) (शिव का वेष वही रहा, पर उनकी विभुता से वह अन्य भाव को प्राप्त हो गया। उनके देह पर लिपटी चिताभस्म ही अंगराग हो गयी, कपाल ही शेखर बन गया, गजाजिन दुकूल और तृतीय नेत्र ही तिलक बन गया। शरीर पर लिपटे सपों का विनिवेश ही बदलना था कि वे आभूषण की भांति सज गये।) कुमारसम्भव में कवि पार्वती की मुस्कुराहट का वर्णन करता हुआ कहता है कि यदि लाल कोपल पर कोई उज्ज्चल फूल रखा जाय अथवा स्वच्छ मुंगे के बीच में मोती जडा जाय तभी ये पुष्प एवं मोती पार्वती की मुस्कुराहट की समानता कर सकते हैं - पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यात् मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम् । ततोऽनुकुर्याद् विशदस्य तस्यास्ताम्रौष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य ।। १.४४ 10 कालिदास के सभी पात्र सौन्दर्य से युक्त हैं। पुरुष पात्रों में पुरुषोचित सौन्दर्य है तो स्त्रीपात्रों में स्त्रियोचित सौन्दर्य। यहाँ तक कि उन्होंने पशु-पक्षियों के सौन्दर्य का भी निरूपण किया है। उनकी दृष्टि में सौन्दर्य की सार्थकता तब है जब वह प्रिय को आकृष्ट करने और उसे जीतने में समर्थ हो। पार्वती जब अपने रूप-सौन्दर्य से महादेव को जीतने में असमर्थ हो जाती हैं और कामदेव को महादेव की क्रोधाग्नि में जलते हुए देखती हैं तो उनका सौन्दर्य-गर्व चूर हो जाता है और वे अपने रूप की निन्दा करने लगती हैं - निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता ।। ५.१ INE कालिदास की मान्यता है कि प्रेम विरह में बढ़ता है। मेघदूत में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि प्रेम वियोग में भोग के अभाव के कारण संचित रस वाला होकर बढ़ता ही है, न कम होता है और न ही नष्ट होता है - काव्य-खण्ड स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ।। २.५२ वस्तुतः प्रेम, वियोग में और अधिक तीव्र हो जाता है। प्रेमियों की परीक्षा वियोग में ही होती है। संयोगावस्था में भोग के कारण प्रेम भले ही शिथिल हो जाय, वियोग में प्रेम तपस्या का रूप धारण कर लेता है। यही कारण है कि वियोग के पश्चात संयोग होने पर यह द्विगुणित आनन्दप्रद होता है। कालिदास के सभी पात्र वियोगावस्था के जीवन को तप, त्याग, सदाचार, संयम और सामाजिक मर्यादा में बँध कर व्यतीत करते हैं। कालिदास के काव्यों में ऋतुसंहार को छोड़कर सर्वत्र प्रेम का उदात्त रूप चित्रित है। ऋतुसंहार में केवल रूपसौन्दर्य का निरूपण है। मेघदूत, कुमारसम्भव एवं रघुवंश में कवि ने प्रेम के आध्यात्मिक रूप का चित्रण किया है। आध्यात्मिक प्रेम ही स्थायी होता है।