१२ अलङ्कार-योजना

कालिदास के काव्यों में शब्दालड्कारों का प्रयोग अपेक्षाकृत कम मिलता है। यद्यपि यत्र-तत्र सानुमासिक पदावली दिखायी देती है, किन्तु उतनी ही मात्रा में जितनी कि काव्यप्रवाह में अत्यन्त स्वाभाविक रूप से उपनिबद्ध हो गयी है। यथा जागाधा ही जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि (रघु. २.४८) अन्य शब्दालङ्कारों में बुद्धिविलास होने के कारण महाकवि की रुचि नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि उनके काव्यों में यमक, श्लेष आदि के प्रयोग नगण्य हैं। कवि ने अर्थालड्कारों का पर्याप्त प्रयोग किया है। अर्थालङ्कारों में भी उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि अलङ्कारों का बाहुल्य है। इनमें भी समीक्षकों ने कवि कीकाव्य-खण्ड उपमा को सर्वश्रेष्ठ कहा है- ‘उपमा कालिदासस्य’ । कुछ लोग उपमा से उपमालकार का तो कुछ लोग सादृश्यमूलक अलङ्कार का अर्थ ग्रहण करते हैं। वस्तुतः कवि की उपमा का विन्यास जितना सुन्दर होता है, रूपक, उत्प्रेक्षा दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि का उससे कम नहीं। अतः ‘उपमा’ से सादृश्यमूलक अर्थालकार अर्थ ग्रहण करना ही उचित है। कवि के अनेक अर्थान्तरन्यास सूक्ति के रूप में प्रसिद्ध हैं। अर्थान्तरन्यासों की इसी लोकप्रियता से प्रभावित किसी समीक्षक का कथन है - उपमा कालिदासस्य नोत्कृष्टेति मतं मम। अर्थान्तरन्यासविन्यासे कालिदासो विशिष्यते ।। चाहे उपमा का प्रयोग हो या अर्थान्तरन्यास का अथवा किसी अन्य अलकार का, सभी काव्य में विशेष चमत्कार उत्पन्न करते हैं। विशेषरूप से उपमा का प्रयोग तो अद्वितीय है। उनकी उपमायें कहीं-कहीं यथार्थ हैं तो कहीं शास्त्रीय और कहीं आध्यात्मिक। वे उपमाओं के कुशल शिल्पी हैं। रघुवंश के प्रथम पद्य में कवि ने शिव और पार्वती के सम्बन्ध की उपमा शब्द और अर्थ के सम्बन्ध से दी है - वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।। सम्भव है, ‘शब्दार्थों सहितौ काव्यम्’ इस काव्यलक्षण की प्रेरणा आचार्यों को इसी उपमा से मिली हो । महाराज दिलीप नन्दिनी के साथ सायंकाल जब लौटते हैं तो स्वागतार्थ सुदक्षिणा आगे आती है तब सुदक्षिणा एवं दिलीप के मध्य नन्दिनी ऐसे शोभित होती है जैसे दिन और रात्रि के बीच सन्च्या सुशोभित होती है - दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या ।। (रघु. २.२०) तेजस्वी राजा दिलीप की दिन से, नन्दिनी की लालिमायुक्त सन्ध्या से तथा श्यामवर्णा सुदक्षिणा की रात्रि से उपमा सटीक तथा मनोहर है। रघुवंश के इन्दुमती स्वयंवर में इन्दुमती की दीपशिखा से दी गयी उपमा इतनी प्रसिद्ध हो गयी कि कवि का नाम ही ‘दीपशिखा-कालिदास’ पड़ गया। इन्दुमती जिन-जिन राजाओं को छोड़कर आगे बढ़ती जाती थी, उनका मुँह उदास पड़ता जाता था जैसे राजमार्ग के वे वे भवन जो दीपक के आगे बढ़ जाने पर धुंधले पड़ते जाते हैं - सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्री यं यं व्यतीताय पतिंवरा सा। नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे, विवर्णभावं स स भूमिपालः ।। ६.६७ मेघदूत में उपमा का प्रयोग तो श्लाध्य है ही, किन्तु वहाँ उत्प्रेक्षा का बाहुल्येन प्रयोग १५ कालिदास के काव्य है। मेघ के रामगिरि से अलकानगरी की ओर प्रस्थान करने पर मार्ग में पड़ने वाले नगरों, पर्वतों एवं नदियों में मेघ के सम्पर्क से कैसी अपूर्व शोभावृद्धि होती है, कवि ने उत्प्रेक्षा के माध्यम से चित्रित किया है। कृष्णवर्ण मेघ जब विश्राम करने के लिये पके आम्रवृक्षों से घिरे हुए आम्रकूट पर्वत पर बैठेगा तो पृथिवी के स्तन जैसी दिखायी देने वाली यह शोभा देवताओं के द्वारा देखने योग्य होगी - छन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननादै स्त्वय्यारूढे शिखरमचलः स्निग्धवेणी सवर्णे। नूनं यास्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्था मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः ।। १.१८ इसी प्रकार मेघ जब चर्मण्वती नदी से जलग्रहण करने के लिये झुकेगा तो आकाशस्थ देवताओं को दूर से ऐसा प्रतीत होगा मानों पृथिवी के मुक्ताहार के मध्य में इन्द्रनीलमणि पिरो दिया गया हो - प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्ण्य दृष्टी रेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् ।। १.५० उक्त दोनों ही उपमाओं में कवि ने ऊँचाई से पृथ्वी के किसी दृश्य को देखने पर उसकी जो छवि प्रतिभासित होती है, उसे अद्भुत कल्पनाशीलता से प्रस्तुत किया है। कुमारसम्भव में कवि ने कामदेव के प्रभाव से शंकर के मन में उठे विकार की बड़ी ही सटीक उपमा दी है। जिस तरह चन्द्रमा के उदित होने पर समुद्र में ज्वार आ जाता है, उसी प्रकार पार्वती को देख लेने पर शकर के मन में हलचल होने लगी और उन्होंने अपने नेत्र पार्वती के बिम्बाफल सदृश अधरोष्ठों पर गड़ा दिये- पाक हरस्तु किञ्चित परिलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः। नाक उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि।। ३.६७ उपमा के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि कालिदास की उपमा बाणभट्ट प्रभृति कवियों की भाँति श्लेषानुप्राणित नहीं है फलतः पाठकों को अर्थावबोध में क्लिष्टता का सामना नहीं करना पड़ता। महाकवि के काव्यों में अर्थान्तरन्यास का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है। ऐसे स्थल सूक्तियों के निदर्शन हैं, जहाँ कवि ने साररूप में अपना लौकिक अनुभव व्यक्त किया है। मेघ तो धूम, अग्नि, जल और वायु का सम्मिश्रण है, अचेतन है और सन्देश तो कुशल इन्द्रियों वाले लोग ही ले जा सकते हैं फिर भी उत्सुकतावश यक्ष ने मेघ से प्रार्थना की, क्योंकि कामपीड़ित लोगों को चेतन-अचेतन का ध्यान नहीं रहता - काव्य-खण्ड इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे। कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ।। १.५ छिी यहाँ विशेष का एक लोकसामान्य तथ्य से समर्थन किया गया है। इसी प्रकार कुमारसम्भव का प्रसिद्ध श्लोक - अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम्। एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाकः।। १.३ असंख्य रत्न उत्पन्न करने वाले हिमालय की शोभा हिम के कारण कम नहीं हुई, क्योंकि जहाँ बहुत से गुण हों वहाँ एक दोष उसी तरह से नहीं दिखाई देता जैसे चन्द्रमा के किरणों में कलङ्क। पर महाकवि ने उपर्युक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त अतिशयोक्ति, सहोक्ति, सन्देह, विभावना, अर्थापत्ति, परिणाम, समासोक्ति, परिकर, उदात्त, काव्यलिङ्ग, निदर्शना, विशेषोक्ति आदि का भी सुन्दर प्रयोग किया है। कहीं-कहीं एक पद्य में अनेक अलङ्कारों का सकर अथवा संसृष्टि भी दिखायी देती है। कालिदास ने अपनी विराट्र कल्पना और सौन्दर्यदृष्टि के द्वारा सारे भारत की अपार सुषमा तथा इस देश की वसुन्धरा के प्रतिक्षण परिवर्तमान अपूर्व रूप से पूरी गत्यात्मकता के साथ साक्षात्कार कराया है। उनके अप्रस्तुत विधान में रंगों की परख के साथ रंगों के मिश्रण से उत्पन्न छटाओं को शब्दचित्रों में साकार कर दिया गया है। रघुवंश के तेरहवें सर्ग में पुष्पक विमान से लौटते हुए राम के द्वारा लंका से अयोध्या तक के तीर्थस्थलों, नदियों, पर्वतों और रमणीय प्रदेशों का वर्णन इस दृष्टि से बड़ा मनोरम है। प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम का चित्र है - क्वचित् प्रभालेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविधा। 03. जो अन्यत्र माला सितपङ्कजानामिन्दीवरैरुत्खचितान्तरेव ।। क्वचित् खगानां प्रियमानसानां कादम्बसंसर्गवतीव पङ्क्तिः। अन्यत्र कालागुरुदत्तपत्रा भक्तिर्भुवश्चन्दनकल्पितेव ।। क्वचित् प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छायाविलीनैः शबलीकृतेव। अन्यत्र शुभ्रो शरदभ्रलेखा रन्धेष्विालक्ष्यनभः प्रदेशा।। हाल क्वचच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माङ्गरागा तनुरीश्वरस्य। - जाति का मा पनि पश्यानवद्याङ्गि विभाति गङ्गा भिन्नप्रवाहा यमुनातरङ्गैः ।। नियति पनि ना नि सा मी (रघु. १३.५४-५७) जी कालिदास के काव्य कहीं तो प्रभाओं में लिपटे इन्द्रनीलमणियों में गुंथी सफेद मोतियों की लड़ी सी, कहीं सफेद कमलों की उस माला के जैसी जिसमें बीच-बीच में नीलकमल गुंथे हों, कहीं कादम्ब पक्षी के साथ उड़ते राजहंसों की कतार के समान, तो कहीं धरती पर चन्दन से बनी भक्ति-रेखा के समान जिसमें काले अगरु की थाप दी गयी हो, कहीं चन्द्रमा की प्रभा के समान, जिसमें छाया में दुबका अंधेरा मिला हुआ हो, तो कहीं शरद् के स्वच्छ मेघों की कतार जैसी, जिनके बीच से आकाश झाँक रहा हो, कहीं भस्म के अंगराग से लिपटी और काले सर्प के आभूषण से युक्त शिव की देह के समान- इस प्रकार यमुना के तरंगों से भिन्न प्रवाह वाली यह गंगा सुशोभित हो रही है। यहाँ कवि ने गंगा की शुभ्रता और यमुना के नील वर्ण के सम्मिश्रण के लिये उपमानों की जो माला गूंथी है, वह संगम के दृश्य के सर्वथा अनुरूप है। इसी प्रकार कालिदास अपने वर्ण्यविषय की अपूर्वता का अनुभव देने के लिये कहीं उपमानों को एक दूसरे से जोड़ देते हैं, तो कहीं किसी प्रचलित उपमान में अपनी ओर से कोई विशेषता जोड़ कर उसे प्रस्तुत करते हैं। पार्वती के ओठों पर थिरकती मुस्कान की तुलना किस वस्तु से हो सकती है? यदि फूल को प्रवाल (मूंगे) पर रखा जाय, या सफेद मोती को विद्रुम मणि पर तो उसमें शुभ्र स्मित का वे अनुकरण कर सकते हैं - पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम् । ततोऽनुकुर्याद् विशदस्य तस्यास्ताम्रौष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य ।। (कु. १.४४) कहीं कालिदास नैसर्गिक पदार्थों को मनुष्य जगत् के उपादानों या अलङ्करणों से उपमित करते हैं, तो कहीं मनुष्य के लिये वे नैसर्गिक उपमान लाते हैं। यक्ष के भवन के बाहर पक्षियों के बैठने के लिये सोने की वासयष्टि है, जो नीलम मणियों से जड़ी हुई है। कवि ने यहाँ मणि के लिये उपमान दिया है- ‘अनतिप्रौढवंशप्रकाशैः’ - हरे बाँस की कान्ति वाले। कहीं कालिदास वर्ण्य की चेष्टा, गति और आकृति को साकार करते हुए उपमान में भी तदनुरूप चेष्टा, गति आदि का अपनी कल्पना से आधान कर देते हैं। पार्वती लता मात्र न होकर ‘सञ्चारिणी पल्लविनी लता’ है। इन्दुमती भी संचारिणी दीपशिखा है। यौवन के आगमन पर पार्वती का देह चतुरस्र शोभा से युक्त हो जाता है, जैसे चित्र के खाके में तूलिका से रंग भर दिये गये हों, या कमल सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर खिल उठा हो- ऐसे नवयौवन ने उनके देह में बांकापन ला दिया - उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिभिन्नमिवारविन्दम्। बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवनेन।। (कुमार. १.३२) काव्य-खण्ड सार कालिदास काव्यरचना में समाधिगुण की अभिव्यक्ति के साथ प्रायः अछूते उपमान उठा कर लाते हैं। ये उपमान उनकी मौलिकता और प्रतिभा के नवोन्मेष का अनुभव कराते हैं। इन्दुमती के दिवंगत होने पर अज का हृदय शोक से ऐसे ही विदीर्ण हो गया, जैसे छत पर फूट आये प्लक्ष के पेड़ से छत दरक जाती है (रघुवंश ८९३)। कैकेयी के मुख से दो वरदानों की बात ऐसे ही निकली, जैसे वर्षा होने पर धरती में बिल से दो साँप बाहर आये हों (१२५)। । कालिदास के अप्रस्तुत विधान में मानव स्वभाव तथा प्रकृति का सूक्ष्म पर्यवेक्षण, नवीन परिकल्पनाएं, सौन्दर्य-दृष्टि तथा गहन संवेदनशीलता ने उनकी कविता को अतिशय सम्पन्न बना दिया है - इसमें कोई सन्देह नहीं।