कालिदास के सभी पात्र जीवन्त हैं। उन्होंने दिव्य तथा अदिव्य दोनों प्रकार के पात्रों का चित्रण किया है। मेघदूत के यक्ष को धीरललित नायक की कोटि में रखा जा सकता है। वह युवा है और उसे अपनी पत्नी से प्रगाढ़ प्रेम है। देवयोनिज होने के कारण सर्वत्र विचरण सामर्थ्य से युक्त है, अतएव उसका भौगोलिक ज्ञान यथार्थ है। वह संगीत एवं चित्रकला का प्रेमी है। रघुवंश में चाहे दिलीप हों अथवा रघु, गुरु के आज्ञापालक एवं धर्मपरायण है। महाराज दिलीप सर्वगुणसम्पन्न आदर्श राजा हैं। रामचन्द्र का चित्रण कवि ने बड़ी सावधानी से किया है। उनके अन्दर दिलीप, रघु और अज के गुणों का समन्वय है। कालिदास रमणीरूप के चित्रण में ही समर्थ नहीं है, अपितु नारी के स्वाभिमान तथा उदात्त रूप के प्रदर्शन में भी कृतकार्य हैं। रघुवंश के चतुर्दश सर्ग (६१-६७ श्लोक) में चित्रित, राजाराम के द्वारा परित्यक्ता जानकी का चित्र तथा उनका राम को भेजा गया सन्देश अत्यन्त भावपूर्ण, गम्भीर तथा मर्मस्पर्शी है। राम के लिए ‘राजा’ शब्द का प्रयोग विशुद्ध तथा पवित्र चरित्र धर्मपत्नी के परित्याग के अनौचित्य का मार्मिक अभिव्यञ्जक है वाच्यस्त्वया मद्वचनात् स राजा वझौ विशुद्धामपि यत् समक्षम्। मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं तत् सदृशं कुलस्य ।। (रघु. १४.२१) सीता की चारित्रिक उदात्तता का परिचय इसी घटना से स्पष्टतः मिलता है कि इतनी विषम परिस्थिति में पड़ने पर भी वह राम के लिए एक भी अपशब्द का प्रयोग नहीं करती, काव्य-खण्ड प्रत्युत अपने ही भाग्य को कोसती है तथा बारम्बार अपनी ही निन्दा करती है - न चावदद्वर्तुवर्णमार्या निराकरिष्णोवृजिनादृतेऽपि। आत्मानमेव स्थिरदुःखभाजं पुनः पुनर्दुष्कृतिनं निनिन्द।। (रघु. १४.५७) सीता पातिव्रत धर्म की अप्रतिम मूर्ति हैं जो राम के द्वारा अकारण परित्याग किये जाने पर भी अगले जन्म में भी उन्हीं को पति के रूप में पाने की कामना करती हैं साहं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टिरूवं प्रसूतेश्चरितं यतिष्ये। भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः।। (रघु. १४.६६) सीता की सहिष्णुता का वर्णन करते हुए कालिदास ने कहा है सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां अप तस्या एव प्रतिकृतसखो यत्नतूनाजहार। वृत्तान्तेन अवणविषयप्रापिणा तेन भर्तुः सा दुर्वारं कथमपि परित्यागदुःखं विघेहे।। (रघु. १४.६७) राजा राम ने सीता की स्वर्णनिर्मित प्रतिमूर्ति बनवाकर समस्त यज्ञकार्य सम्पन्न किया, इस बात को जानकर सीता ने पतिकृत परित्याग के असह्य दुःख को भी सहन कर लिया। रामचन्द्र का चरित्र कालिदास ने कोमल तूलिका से चित्रित किया है। रघुवंश के एक तिहाई भाग (१० से १५ सर्ग तक) में राम के उदात्त चरित्र का वर्णन किया गया है। महाकवि ने राम को हरि या विष्णु का ही पर्यायवाची माना है। कोयता रत्नाकर वीक्ष्य मिथः स जायां रामाभिधानो हरिरित्युवाच (रघु. १३.१) । उपर्युक्त श्लोक के ‘रामाभिधानो हरिरित्युवाच’ इस अंश से स्पष्ट है कि ‘हरि’ और ‘राम’ में कोई अन्तर नहीं है। वे दोनों एक ही हैं। कालिदास की दृष्टि में देवों का आर्तिनाश ही रामावतार का मुख्य प्रयोजन है। राजा दशरथ द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ की सूचना पाकर राक्षसराज रावण से उत्पीड़ित देवगण की स्तुति से प्रसन्न विष्णु ने उन्हें आश्वस्त किया - 5600 सोऽहं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम् । करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरः कमलोच्चयम् ।। (रघु. १०.४४) ‘मैं दशरथपुत्र राम के रूप में अवतार लेकर राक्षसराज रावण का वध करूँगा’। राम प्रजारक्षक राजा हैं। लोकाराधन के लिए तथा अपने कुल को निष्कलंक रखने के लिए उनके द्वारा अपनी प्राणोपमा धर्मपत्नी सीता का निर्वासन कालिदास की आदर्श कालिदास के काव्य पात्र-सृष्टि का सुन्दर दृष्टान्त है। सीता की निन्दा सुनकर राम के हृदय-विदरण की समता आग में तपे हुए अयोधन द्वारा आहत लोहे के साथ देकर महाकवि ने राम के हृदय की कठोरता तथा कोमलता दोनों की मार्मिक अभिव्यक्ति एक साथ की है - कलत्रनिन्दागुरुणा किलैवमभ्याहतं कीर्तिविपर्ययेण। अयोधनेनाय इवाभितप्तं वैदेहिबन्धोर्हृदयं विदद्रे ।। (रघु. १४.३३) सीतापरित्याग के समय राम की मानसिक व्यथा कितनी मार्मिक है - राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम् । मत्तः सदाचारशचेः कलङ्कः पयोदवातादिव दर्पणस्य ।। । शाचा (रघु. १४.३७) राम का स्वाभिमानी हृदय कहीं व्यक्त होता है (१४.४१) तो कहीं उनकी मानवता राजभाव के ऊपर झलकती है। लक्ष्मण के लौट कर सीता का सन्देश सुनाने पर राम की आँखों में आँसू छलकने लगते हैं, यह राजभाव के ऊपर मानवता की विजय है - बभूव रामः सहसा सवाष्पस्तुषारवर्षीव सहस्य चन्द्रः। कौलीनभीतेन गृहानिरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्तः।। गित (रघु. १४.८४) राम ने लोकनिन्दा के भय से भले ही सीता को राजभवन से निकाल दिया था, परन्तु मन से नहीं निकाला था। सीता के प्रति राम के अनन्य अनुराग का यह उत्कृष्ट उदाहरण