महाकवि कालिदास प्रकृति के उपासक हैं। वे प्रकृति के अनन्य प्रेमी हैं, उन्होंने अन्तः प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति दोनों का चित्रण किया है। उनका यह चित्रण आत्मानुभूति एवं सूक्ष्म निरीक्षण पर आधारित है। यद्यपि महाकवि ने कहीं-कहीं प्रकृति का भयावह रूप भी चित्रित किया है, किन्तु प्रकृति का सुकुमार रूप उन्हें अधिक प्रिय है। कालिदास ने अपने समस्त काव्यों एवं नाटकों में प्रकृति का निरूपण तो किया ही है, किन्तु स्वतन्त्र रूप से प्रकृति के चित्रण के लिए ऋतुसंहार की रचना की। यद्यपि जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, ऋतुसंहार में कवि ने बाह्य प्राकृतिक सौन्दर्य के निरूपण कालिदास के काव्य की अपेक्षा मानव-मन पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन अधिक किया है, फिर भी ऋतुओं का स्वतन्त्र चित्रण उनके प्रकृति-प्रेम का द्योतक है। ऋतुसंहार के प्रथम पद्य में ग्रीष्म ऋतु का बड़ा ही सजीव चित्रण है - कामगार कार्ड की प्रचण्डसूर्यः स्पहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसञ्चयः। दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये।। १.१ . किया, प्रिये! ग्रीष्म ऋतु आ गयी है। सूर्य की किरणे प्रचण्ड हो गयी हैं। चन्द्रमा सुहावना लगने लगा है। निरन्तर स्नान के कारण कुँओं-तालाबों का जल प्रायः समाप्त हो चला है। सायंकाल मनोरम लगने लगा है तथा काम का वेग स्वयं शान्त हो गया है। इसी प्रकार कवि का वर्षा तथा अन्य ऋतुओं का वर्णन भी सजीवता एवं कमनीयता से परिपूर्ण है। मेघदूत में तो कवि ने प्रकृति एवं मानव में तादात्म्य स्थापित कर दिया है। पूर्वमेघ में प्रधानतया प्रकृति के बाह्य रूप का चित्रण है, किन्तु उसमें मानवीय भावनाओं का संस्पर्श है, जबकि उत्तरमेघ में मानव हृदय का निरूपण है और वह प्राकृतिक सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। मेघदूत तो वर्षा ऋतु की ही उपज है। वहाँ वर्षा से प्रभावित होने वाले समस्त जड़-चेतन पदार्थों का निरूपण है। मेघ जिस-जिस मार्ग से होकर आगे निकल जाता है उस-उस मार्ग में अपनी छाप छोड़ जाता है - नीपं दष्टवा हरितकपिशं केसरैरर्द्धरूलै- APRIMeli RRE राविर्भूतप्रथममुकुलाः कन्दलीश्चानुकच्छम् । जग्थ्वारण्येष्वधिकसुरभिं गन्धमाघ्राय चोर्व्याः। सारङ्गास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम्।। १.२२ ।। जल बरसने के कारण पुष्पित कदम्ब को भ्रमर मस्त होकर देख रहे होंगे, प्रथम जल पाकर मुकुलित कन्दली को हरिण खा रहे होंगे और गज प्रथम वर्षाजल के कारण पृथिवी से निकलने वाली गन्ध सँघ रहे होंगे इस प्रकार भित्र-भिन्न क्रियाओं को देखकर मेघ के गमनमार्ग का स्वतः अनुमान हो जाता है। प्रकृति से मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। यही कारण है कि वह मनुष्य के अन्तःकरण को प्रभावित करती है। मेघदूत में कवि ने इसी तथ्य को उजागर किया है - मेघालोके भवति सखिनोऽप्यन्यथावत्ति चेतः। SMS कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।। १.३ ।। मेघ को देख लेने पर तो सुखी अर्थात् संयोगी जनों का चित्त कुछ का कुछ हो जाता है फिर वियोगी लोगों का क्या कहना। कालिदास ने प्रकृति को मनुष्य के सुख-दुःख में सहभागिनी निरूपित किया है। विरही राम को लताएँ अपने पत्ते झुका-झुका कर सीता के काव्य-खण्ड अपहरण का मार्ग बताती हैं, मृगियाँ दर्भाकुर चरना छोड़कर बड़ी-बड़ी आँखें दक्षिण दिशा की ओर लगाये टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं (रघु. १३ ।२४, २५) __कालियास प्रकृति को चेतन एवं भावनायुक्त पाते हैं। पशु-पक्षी आदि तो चेतनवत् व्यवहार करते ही है, सम्पूर्ण चराचर प्रकृति भी मानव की भांति व्यवहार करती दिखायी देती हैं। महाकवि ने मेघ को दूत बनाकर धूम, अग्नि, जल, पवन के सम्मिश्रण रूप जड़ पदार्थ को मानव बना दिया है। वे प्रकृति में न केवल मानव की बाह्य आकृति का आरोप करते हैं अपितु उसमें सुख-दुःखादि भावों की भी सम्भावना करते हैं। वे प्रकृति को प्रायः प्रेमी अथवा प्रेमिका के रूप में देखते हैं। मेघदूत में उज्जयिनी की ओर जाते हुए मेघ को मार्ग में पड़ने वाली निर्विन्ध्या नदी विभिन्न हाव-भाव से आकृष्ट करेगी - वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणि काञ्चीगुणायाः लदिरा निकाल सस संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभेः। निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः संनिपत्य स्त्रीणामाचं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु।। १.२६ वा हे मेघ! तरङ्गों के हलचल के कारण शब्दायमान पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी को धारण करने वाली, स्खलित प्रवाह के कारण सुन्दरतापूर्वक बहने वाली अर्थात् मस्त होकर चलने वाली और भंवर रूप नाभि को दिखाने वाली निर्विन्ध्या नदी रूपी नायिका से मिलकर तुम रस अवश्य प्राप्त करना, क्योंकि कामिनियों का हाव-भाव प्रदर्शन ही रतिप्रार्थना बचन होता है। महाकवि कालिदास ने प्रकृति के श्रेष्ठ तत्वों को ग्रहण कर उनकी अप्रस्तुत रूप में योजना की है। वे पात्रों को उपस्थित करने के लिए प्रकृति के सुन्दर तत्त्वों से सादृश्य स्थापित करते हैं। रघुवंश में राजा रघु के मुख-सौन्दर्य के वर्णन के लिये वे प्रकृति के सुन्दरतम एवं प्रसिद्ध उपमान चन्द्र का आश्रय लेते हैं। प्रसादसुमुखे तस्मिश्चन्द्रे च विशदप्रभे। . विमा तदा चक्षुष्मतां प्रीतिरासीत्समरसा द्वयोः।। ४.१८ शरद् ऋतु में रघु के खिले हुए मुख और उज्ज्वल चन्द्रमा को देखकर दर्शकों को एक-सा आनन्द मिलता था। कवियों ने नारी के शरीर की तुलना प्रायः लता से की है, किन्तु कुमारसम्भव में कालिदास पार्वती को चलती-फिरती एवं फूलों से लदी लता के रूप में देखते हैं - आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम्। पर्याप्तपुष्पस्तबकावनम्रा सञ्चारिणी पल्लविनी लतेव ।। ३.५४ ।। कालिदास के काव्य । र महाकवि कालिदास प्रकृति को उपदेशिका के स्वप में भी पाते हैं। वे प्रकृति से प्राप्त होने वाले सत्य का स्थान-स्थान पर उल्लेख करते हैं जो मानव जीवन का मार्ग-निर्देश करती है एवं आदर्श उपस्थापित करती है। मेघ बिना कुछ कहे चातकों को वर्षाजल प्रदान कर उनका उपकार करता है - निःशब्दोऽपि प्रदिशसि जलं याचितश्चातकेभ्यः। प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव।। २.५७ पपीहे के जल माँगने पर मेघ बिना उत्तर दिये उन्हें सीधे जल दे देता है। सज्जनों का यह स्वभाव होता है कि जब उनसे कुछ माँगा जाय तो वे मुँह से कुछ कहे बिना, काम पूरा करके ही उत्तर दे देते हैं। रघुवंश में कालिदास को जल के स्वभाव से शिक्षा मिलती है। जल तो प्रकृत्या शीतल है, उष्ण वस्तु के सम्पर्क से भले ही कुछ क्षण के लिये जल में उष्णता उत्पन्न हो जाय। इसी प्रकार महात्मा भी प्रकृति से क्षमाशील होते हैं, अपराध करने पर वे कुछ क्षण के लिए ही उद्विग्न होते हैं - स चानुनीतः प्रणतेन पश्चान्मया महर्षिर्मुदतामगच्छत्। उष्णत्वमग्न्यातपसम्प्रयोगाच्छैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य ।। ५.५४ प्रकृति के सहज सौन्दर्य, मानवीय राग, कोमल भावनाओं तथा कल्पना के नवनवोन्मेष का जो रूप कुमारसम्भव के अष्टम सर्ग में मिलता है, वह भारतीय साहित्य का शिखर कहा जा सकता है। कवि ने सन्ध्या और रात्रि का वर्णन हिमालय के पावन प्रदेश में शिव के गरिमामय वचनों के द्वारा पार्वती को सम्बोधित करते हुए कराया है, और प्रसंग, पात्र, देशकाल के अनुरूप प्रकृति का इतना उदात्त और कमनीय वर्णन विश्व साहित्य में दुर्लभ कहा जा सकता है। पश्चिम में डूबते सूर्य की रश्मियां सरोवर के जल में लम्बी-लम्बी होकर प्रतिबिम्बित हो रही है, तो लगता है कि अपनी सुदीर्घ परछाइयों के द्वारा विवस्वान् भगवान ने जल में सोने के सेतुबन्ध रच डाले हों। वृक्ष के शिखर पर बैठा मयूर ढलते सूर्य के घटते चले जाते सोने के रस जैसे गौरमण्डलयुक्त आतप को बैठा पी रहा है। पूर्व में अंधेरा बढ़ रहा है, आकाश के सरोवर से सूर्य ने जैसे आतपरूपी जल को सोख लिया, तो इस सरोवर के एक कोने में जैसे कीचड़ ऊपर आ गया हो। सूर्य ने किरणों का जाल १. पश्य पश्चिमदिगन्तलम्बिना निर्मितं मितकथे विवस्वता। दीर्घया प्रतिमया सरोम्मसां तापनीयमिव सेतुबन्धनम् ।। - कुमार ६३४ २. एष वृक्षशिखरे कृतास्पदो जातरूपरसगौरमण्डलम् । हीयमानमहरत्ययातपं पीबरोस पिबतीब बर्हिणः ।। - वहीं, २६ ३. पूर्वभागतिमिरप्रवृत्तिभियंक्तपकमिव जातमेकतः।। खं हृतातपजलं विवस्वता भाति किञ्चिदिव शेषवत्सरः ।। - ८३७ ५० -काव्य-खण्ड समेट लिया है, तो हिमालय के निर्झरों पर अंकित इन्द्रधनुष धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं।’ कमल का कोश बन्द हो रहा है, पर भीतर प्रवेश करते भ्रमर को स्थान देने के लिये कमल जैसे मुंदते-मुंदते ठहर गया है। अस्त होते सूर्य की किरणें बादलों पर पड़ रही हैं, उनकी नोंके रक्त, पीत और कपिश हो गयी हैं, जैसे सन्ध्या ने पार्वती को दिखाने के लिये तूलिका उठा कर उन पर रंग-बिरंगी छबियाँ उकेर दी हों। अस्त होते सूर्य ने अपना आतप सिंहों के केसर और वृक्षों के किसलयों को जैसे बाँट दिया है। सूर्यास्त होने पर तमालपंक्ति सन्ध्यारूपी नदी का तट बन जाती है और धातुओं का रस उसका जलप्रवाह (५३)। ऊपर, नीचे, आगे, पीछे जहाँ देखो अंधेरा ही आँखों में भरता है, तिमिर के उल्ब में लिपटा संसार जैसे गर्भस्थ हो गया हो (८1५४)। मन सही कालिदास की कल्पना खेतों और खलिहानों में रमती है, प्रकृति के सहज सौन्दर्य का मानव-सौन्दर्य से और कृत्रिम साज-सज्जा से उत्कृष्ट पाती है। कुमारसम्भव में चन्द्रमा की किरणों के लिये जौ के ताजा अंकुर का उपमान देकर उन्होंने मानों स्वर्ग को धरती से मिला दिया है - शक्यमोषधिपतेर्नवोदयाः कर्णपूररचनाकृते तव। अप्रगल्भयवसूचिकोमलाश्छेत्तुमग्रनखसम्पुटैः कराः।। - ८.६२ के कहीं पर शिव को वृक्षों की टहनियों से बिछल (फिसल) कर छन-छन कर धरती पर गिरती चाँदनी के थक्के वृक्षों से टपक पड़े फूलों से लगते हैं, जिन्हें उठा-उठा कर पार्वती के केशों में सजाने का उनका मन होने लगता है - हा शक्यमङ्गुलिभिरुत्थितैरधः शाखिना पतितपुष्पपेशलैः । पत्रजर्जरशशिप्रभालवैरेभिरुत्कचयितुं तवालकान् ।। - ८७२ कुना प्रकृति में मानवीय राग, करुणा और हृदय की कोमलता के दर्शन कालिदास अपनी विश्वदृष्टि के द्वारा ही कर सके हैं। अंधेरा रात्रिरमणी का जूड़ा है, जिसे चन्द्रमा अपने करों से बिखेर देता है, और फिर उस रमणी के सरोजलोचन वाले मुख को उठा कर वह चूम लेता है - अङ्गुलीभिरिव केशसञ्चयं सनिगृह्य तिमिरं मरीचिभिः। 75 कुड्मलीकृतसरोजलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी।। - ८.६३ १. शीकरव्यतिकर मरीचिभिर्दूत्यत्यवनते विवस्वति। इन्दचापपरिवेषशून्यता निर्झरास्तब पितुर्वजन्त्यमी ।। - ८३१ २. वहीं, ८३ ३. वहीं, ४५ ४. वहीं, ८४६ कालिदास के काव्य उत्प्रेक्षा और स्वभावोक्ति की उत्कृष्ट संसृष्टि कवि ने इस प्रकार के प्रकृति-चित्रणों में की है। उक्त पद्य में ‘कुड्मलीकृतसरोजलोचनं’ कामिनी का लज्जा से नेत्र मूंदने का चित्र होने से वल्लभदेव के अनुसार स्वभावोक्ति है, जबकि ‘चुम्बतीव’ में समासोक्ति तथा उत्प्रेक्षा दोनों अलङ्कार आ गये हैं। का महाकवि कालिदास ने यद्यपि प्रायः प्रकृति के कोमल रूप का चित्रण किया है, किन्तु कुमारसम्भव के वर्षाचित्रण में भयावहता दर्शनीय है - घोरान्धकारनिकरप्रतिमो युगान्त- तीन कालानलप्रबलधूमनिभो नभोऽन्ते। गाई कि गर्जारवैर्विघटयन्नवनीधराणां शृङ्गाणि मेघनिवहो घनमुज्जगाम।। १७.४१ कार्तिकेय के वारुणास्त्र चलाते ही भयंकर अंधेरा करती हुई प्रलय की आग से उठे हुए धुंए के समान ऐसी काली-काली घटायें आकाश में छा गयीं जिनके गर्जन से पहाड़ की चोटियों तक में दरारें पड़ गयीं।