०४ मेघदूत

मान या मेघदूत महाकवि कालिदास की अप्रतिम रचना है। अकेली यह रचना ही उन्हें ‘कविकुलगुरु’ उपाधि से मण्डित करने में समर्थ है। भाषा, भावप्रवणता, रस, छन्द और चरित्र-चित्रण-समस्त दृष्टियों से मेघदूत अनुपम खण्डकाव्य है। सहृदय रसिकों ने मुक्त कण्ठ से इसकी सराहना की है। समीक्षकों ने इसे न केवल संस्कृत जगत् में अपितु विश्व साहित्य में श्रेष्ठ काव्य के रूप में आंकलित किया है। मेघदूत में कथानक का अभाव सा है। वस्तुतः यह प्रणयकातर हृदय की अभिव्यक्ति है। मेघदूत के दो भाग हैं - पूर्वमेघ एवं उत्तरमेघ। म

विषयवस्तु

अलका नगरी के अधिपति धनराज कुबेर अपने सेवक यक्ष को कर्तव्य-प्रमाद के कारण एक वर्ष के लिये नगर-निष्कासन का शाप दे देते हैं। वह यक्ष अलका नगरी से सुदूर दक्षिण दिशा में रामगिरि के आश्रमों में निवास करने लगता है। सद्योविवाहित यक्ष जैसे-तैसे आठ माह व्यतीत कर लेता है, किन्तु जब वह आषाढ मास के पहले दिन रामगिरि पर एक मेघखण्ड को देखता है, तो पत्नी यक्षी की स्मृति से व्याकुल हो उठता है। वह यह सोचकर कि जब मेघ अलकापुरी पहुँचेगा तो प्रेयसी यक्षी की क्या दशा होगी, अधीर हो जाता है और प्रिया के जीवन की रक्षा के लिये सन्देश भेजने का निर्णय करता है। मेघ को ही सर्वोत्तम पात्र के रूप में पाकर यथोचित सत्कार के अनन्तर उससे दूतकार्य के लिये निवेदन करता है। रामगिरि से विदा लेने का अनुरोध करने के पश्चात् यक्ष मेघ को रामगिरि से अलका तक का मार्ग सविस्तर बताता है। मार्ग में कौन-कौन से पर्वत पड़ेंगे जिन पर कुछ क्षण के लिये मेघ को विश्राम करना है, कौन-कौन कालिदास के काव्य सी नदियाँ पड़ेंगी जिनसे मेघ को थोड़ा जल ग्रहण करना है और कौन-कौन से ग्राम अथवा नगर पड़ेंगे जहाँ जल बरसा कर उसे शीतलता प्रदान करना है या नगरों का अवलोकन करना है, इन सबका उल्लेख करता है। उज्जयिनी, विदिशा, दशपुर आदि नगरों, ब्रह्मावर्त, कनखल आदि तीर्थों तथा वेत्रवती, गम्भीरा आदि नदियों को पार कर मेघ हिमालय और उस पर बसी अलका नगरी तक पहुँचने की कल्पना यक्ष करता है। उत्तरमेघ में अलकानगरी, यक्ष का घर, उसकी प्रिया और प्रिया के लिये उसका सन्देश- यह विषयवस्तु

मेघदूत की टीकायें

__डॉ. एन.पी. उनि ने मेघूदत पर लिखी ६३ टीकाओं का विवरण दिया है। इनमें सुप्रसिद्ध टीकाकार दिनकर मिश्र, पूर्ण सरस्वती (१४वीं-१५वीं शताब्दी), मालतीमाधव आदि प्रबन्धों पर विश्रुत टीका लिखने वाले जगद्धर (१४वीं शताब्दी), परमेश्वर (१५वीं शताब्दी), सारोद्धारिणी का अज्ञात नामा लेखक (१६१८ वि.सं.), महिमसंघगणि (१६६३ वि.सं.), सुमतिविजय (१७वीं शताब्दी), विजयसूरिगणि (१७०६ वि.सं.), भरतल्लिक (१७०० वि.सं), कृष्णपति (१७७७ वि.सं.) आदि की टीकायें उल्लेखनीय हैं।

टीकाकारों द्वारा मेघदूत का समीक्षण

नायक-विचार-टीकाकारों ने मेघदूत के विषय में सूक्ष्म उद्भावनाओं तथा तात्त्विक विश्लेषण के साथ कृति का गहन अनुशीलन प्रस्तुत किया है। कालिदास ने अपने इस काव्य में नायक यक्ष का कहीं भी नाम निर्दिष्ट नहीं किया और न उसकी प्रिया यक्षिणी का ही। काव्य का पहला ही पद ‘कश्चित’ है - ‘कोई अनाम यक्ष इसका नायक है। इस ‘कश्चित्’ पद के पीछे निहित कवि के तात्पर्य पर अनेक टीकाकारों ने विचार किया है। टीकाकार सुमतिविजय ने तो ‘कश्चित्’ पद के पीछे यक्ष के अपराध के प्रति भर्त्सना का भाव पाया है और प्रमाण के लिये निम्नलिखित प्राचीन पद्य उद्धृत किया है - भर्तुराज्ञां न कुर्वन्ति ये च विश्वासघातकाः। तस्य विकास का तेषां नामापि न ग्राह्यं काव्यारम्भे विशेषतः।। टीकाकार कृष्णपति का भी यही मत है कि अपना स्वयं का, गुरुजन का तथा अभिशप्त व्यक्ति का नाम नहीं लिया जाना चाहिये- इस विधान का पालन करने के लिये कवि ने यक्ष का नाम नहीं लिया। टीकाकार हरगोविन्द ने भी इसी मत को दोहराते हुए भरतमुनि की यह कारिका भी उद्धृत की है, जिसका स्रोत अनुसन्धेय है - 9. मेघदूत : सं. नन्दरगीकर, पृ. १०१ पर उड़त। २. मेघदूत : कृष्णपतिकृत टीका, सं. गोपिकामोहन भट्टाचार्य, प्र.। यः समिति काकाव्य-खण्ड | PAL, हार खण्डकाव्यमुखं कुर्यात् कश्चिदित्यादिभिः पदैः । मोजामि विसर्गबन्धेऽवश्यं तु नाम कार्य सुशोभनम् ।। शिम तदनुसार खण्डकाव्य में नायक का नाम निर्देश न करके ‘कश्चित’ आदि पदों का प्रयोग करना चाहिये। हरगोविन्द ने वैकल्पिक रूप से यह समाधान भी दिया है कि अभिशप्त या दुःखित पात्र का नामग्रहण नहीं करना चाहिये । टीकाकार भरतमल्लिक ने ‘कश्चित’ पद की व्याख्या में छ: मत प्रस्तुत किये हैं, जिनमें तीन मत तो उक्त टीकाकारों के ही हैं। चौथे मत के अनुसार ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष.’ विद्योत्तमा की इस उक्ति का अनुरोध ही कश्चित् पद के प्रयोग का कारण है। पाँचवें मत के अनुसार मेघदूत की कथावस्तु का प्रख्यात न होकर कल्पित होना इस सर्वनाम के प्रयोग का हेतु है।

मेघदूत के स्रोत

मेघदूत के स्रोत के विषय में इन टीकाकारों ने विशद विचार किया है। दक्षिणावर्तनाथ का कथन है कि रामायण से सीता के प्रति हनुमान के मुख से राम के द्वारा प्रेषित सन्देश को मन में रख कर उसके पात्रों का मेघदूत के पात्रों के रूप में उपस्थापित करते हुए कवि कालिदास ने इस काव्य की रचना की - इह खलु कविः सीता प्रति हनूमता हारितं सन्देशं हृदयेन, समुद्वहन् तत्स्थानीयनायकाद्युत्पादनेन सन्देश करोति। मल्लिनाथ ने दक्षिणावर्तनाथ की व्याख्या का आधार स्वीकार करते हुए रामायण की प्रेरणा मेघदूत की रचना में पृष्ठभूमि माना है, पर रामायण के पात्रों और मेघदूत के पात्रों के अध्यवसान का उन्होंने न समर्थन किया है, न विरोध; जबकि पूर्णसरस्वती ने रामायण से कालिदास को प्रेरित मानते हुए दक्षिणावर्तनाथ की इस मान्यता का कड़ा विरोध किया " है कि यक्ष-यक्षिणी-वृत्तान्त में राम-सीता-वृत्तान्त की समाधि है। उनका तर्क है कि यदि मेघदूत में सीता-राघववृत्त का अध्यवसान होता तो कवि उसका उपमान के रूप में या अन्यथा पृथक् उल्लेख क्यों करता?" पर इसके साथ ही पूर्णसरस्वती ने कालिदास को ‘रामायणरसायनपरायणमहाकवि’ कह कर उनके कई पद्यों में रामायण की छाया निदर्शित की है। _पूर्णसरस्वती ने मेघदूत पर महाभारत का भी प्रभाव माना है। स्थूणाकर्ण नामक यक्ष को कुबेर द्वारा शाप दिये जाने की महाभारतोक्त कथा को उन्होंने विस्तार से साक्ष्य के रूप UE H IFI १. मेघदूत : सं. नन्दरगीकर, पृ. १०१ तचा जतीन्द्रबिमल चौधरी का सं., पृ.२५। २. मेधुदत : सुबोधा टीका, सं. जतीन्द्रविमल चौधरी, कलकत्ता, १६५०, पृ. २ ।। ३. वही, पृ. ४. कवेर्यक्षवृत्तान्ते सीताराघववृत्तान्तसमाधिरस्तीति केचित् । तत्र सहदयहृदयसंबादाय। कविनव ‘जनकतानयास्नान’ इति, “रघुपतिपदेः’ इति चात्यन्ततटस्थतया प्रतिपादितत्वात् उपरि च ‘इत्याख्याते. पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा इत्यत्रोपमानतया प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । (विद्युल्लता, पृ. ७) । कालिदास के काव्य २५ में प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव नामक यक्षों के शापग्रस्त होने का वृत्तान्त भी मेघदूत की रचना में प्रेरक हो सकता है। यानविली है तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेघदूत की रचनाप्रक्रिया में आदि कवि वाल्मीकि की सर्वातिशायी प्रतिभा और सीताराघववृत्तान्त तथा हनुमत्सन्देशप्रकरण की प्रेरणा आद्यन्त बनी रही है। दक्षिणावर्तनाथ तथा पूर्णसरस्वती आदि टीकाकरों ने तो अनुसन्धानपूर्वक रामायण के ऐसे अनेक स्थल मेघदूत के तत्तत् पद्य की व्याख्या में उद्धृत किये हैं, जिनका अप्रस्तुतविधान, कल्पना या भाव लेकर कवि ने अन्यच्छायायोनि काव्य का अत्यन्त उत्कृष्ट उदाहरण मेघदूत में प्रस्तुत किया है। मेघदूत की यक्षिणी के लिये कवि ने उपमा दी है - ‘जातां मन्ये शिशिरमथितां पदमिनी वान्यरूपाम्। यक्ष को लगता है कि उसकी प्रिया शिशिर में मुरझाई पद्मिनी जैसी हो गयी होगी। पूर्णसरस्वती के अनुसार यह उत्प्रेक्षा रामायण में सीतावर्णन के निम्नलिखित पद्य पर आधारित है - हिमहतनलिनीव नष्टशोभा व्यसनपरम्परया निपीड्यमाना। सहचररहितेव चक्रवाकी जनकसुता कृपणां दशां प्रपन्ना।। इसी प्रकार यक्षिणी के वर्णन में कवि ने प्रेम की अनन्यनिष्ठ भावोत्तानता की जो कारुणिक छवि अंकित की है, उसका भी आधार रामायण में हनुमान के द्वारा सीता के दर्शन के समय की गयी इस अभिव्यक्ति में पूर्णसरस्वती ने पाया है - नैषा पश्यति राक्षस्यो नेमान् पुष्पफलट्ठमान्। एकस्थहृदया नूनं राममेवानुपश्यति। नैव दंशांश्च मशकान् न कीटान् न सरीसृपान मह शिव शिर ति राघवापनयेद् गात्रात् त्वद्गतेनान्तरात्मना।। - इसी प्रकार यक्ष जब कहता है - ‘जाने सख्यास्तव मयि मनः सम्भृतस्नेहम’ - हे मेघ तुम्हारी सखी यक्षिणी का मन मेरे लिये स्नेह से लबालब भरा है, तो पूर्णसरस्वती इसमें सीता की प्रेममयता प्रतिबिम्बित पाते हैं - योनी खास ‘अन्योन्या राघवेणाहं भास्करेण प्रभा यथा। इसी प्रकार दक्षिणावर्तनाथ तथा पूर्णसरस्वती ने मेघदूत के अनेक पद्यों में रामायण से भावसाम्य तथा रामायण की प्रेरणा का दिग्दर्शन कराया है। उदाहरणार्थ-कामना अपारी र छालाजीत काला जाना प्रकाशीम सिनियर तक पहाड़ १. मेघसन्देश, विद्युल्लता टीका, सं. कृष्णमाचारियर, पृ. ५-६ २. वही, पृ. १२५-२६ काव्य-खण्डी त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शके मृगाक्ष्या की कार दि. मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति।। न कि कमा लिन मछली के उछलने से हिलते नीलकमल का नेत्र के लिये यह उपमान वाल्मीकि ने विरह-विधुरा सीता के लिये सदृश प्रसंग में प्रयुक्त किया है - ‘प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या मीनाहतं पद्ममिवातितानम्। जंगले छन्द में कालिदास ने यक्ष के मुख से पुनः उठोक्षा करायी है- यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम्। यहाँ भी वाल्मीकि की इस अभिव्यक्ति की छाया इन टीकाकारों ने देखी है- ‘प्रस्पन्दमानः पुनरूरुरस्था रामः पुरस्तात् स्थितमाचचक्षे।’ वस्तुतः दूतकाव्य की परम्परा का मूल वैदिक संहिताओं में है, जिस पर ‘सन्देशकाव्य’ विषयक अध्याय में विचार किया गया है।

मेघदूत-कथा की पृष्ठभूमि

मेघदत में महाकाव्य-खण्डकाव्यादि के समान कथा कहना कवि का लक्ष्य नहीं है। कथा का संकेत पहले पञ्च में बहुत सूक्ष्म रूप से करके वह यक्ष की मनोदशाओं की गहन मीमांसा तथा तज्जन्य रससिद्धि में तल्लीन हो जाता है। कुछ टीकाकारों ने योगवासिष्ठ में एक यक्ष के शापग्रस्त होने की कथा को मेघदूत के कथानक की इस भूमिका का आधार माना है, तो जैन टीकाकारों ने अलग-अलग रूप में इस कथा का प्रतिपादन किया है। एक कथा में कुबेर को पूजा के लिये सद्योविकसित कमलपुष्प देने के स्थान पर एक दिन पूर्व तोड़े गये बासी पुष्प देने पर यक्ष शापग्रस्त होता है अन्य कथा में कुबेर के उद्यान का द्वार असावधानी से खुला छोड़ देने पर ऐरावत के द्वारा घुस कर उद्यान तहस-नहस कर दिये जाने के कारण। अन्य कथा में कुबेर के लिये यक्ष ने जो पुष्पशय्या बनायी थी, उस पर स्वयं सो जाने के अपराध के कारण उसे दण्ड विधान दिलाया गया है। एक अन्य कथा में वह पूजा के लिये निर्मित माला पहले अपनी प्रिया को पहना देता है। वस्तुतः मेघदूत में यक्ष की भावाकुलता और यक्ष-यक्षिणी के प्रगाढ अनुराग के चित्रण के आधार पर टीकाकारों ने अपने-अपने ढंग से इस प्रकार की कथाओं की कल्पना कर डाली है।’

बौद्ध साहित्य में मेघदूत का कथा-स्रोत

कतिपय आधुनिक विद्वानों ने मेघदूत की कथाभूमि का आधार प्राचीन बौद्ध वाङ्मय में माना है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि त्रिपिटक साहित्य में कुछ ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिनमें दौत्य तथा प्रणयिनी के प्रति करुण सन्देश का निरूपण है। कालिदास के लिये ये प्रसंग प्रेरक १. विवरण के लिये द्र.- संस्कृत के सन्देश काव्यः रामकुमार आचार्य, पृ. ८५-८६ कालिदास के काव्य थे अथवा नहीं यह विचारणीय है। दीघनिकाय के सक्कपन्हसुत्त (दीघनिकाय २१।२) में सक्क नामक व्यक्ति बुद्ध के पास स्वयं न जाकर पंचशिख नामक गन्धर्व के द्वारा सन्देश भेजता है, और पंचशिख सन्देश में जो गाथाएं प्रस्तुत करता है, उनका विषय शृङ्गार तथा प्रेम है और भावधारा मेघदूत के सदृश है। बौद्धों की मान्यता है कि श्रृङ्गारित होते हुए भी इन गाथाओं में दार्शनिक अर्थ अन्तर्निहित है। किन्तु इन गाथाओं में पंचशिख तथा मद्दा सूरियवच्चसा के प्रणयानुराग का उद्घात भी हुआ है और पंचशिख के कथनों में यक्ष की अभिव्यक्ति से साम्य भी है।’ - रायज डेविड्स (RHYS DAVIDS) तथा चाइल्डर्स (CHILDERS) की कह भी मान्यता है कि कालिदास को अलकानगरी की परिकल्पना बौद्ध साहित्य में महापरिनिज्वानसुत्त में वर्णित देवों की राजधानी अलकमन्दा से मिली है।

मेघदूत की आत्मकथात्मकता

कतिपय टीकाकारों ने मेघदूत में स्वयं कवि के द्वारा अपने स्वयं के सम्बन्ध में परोक्ष रूप से संकेत या सन्दर्भ दिये जाने की सम्भावना पर भी विचार किया है। अनुश्रुति है कि कालिदास ने विक्रमादित्य राजा की भगिनी और अपनी प्रणयिनी के विरह में यह काव्य लिखा था तथा इसके नायक वे स्वयं हैं। चौदहवीं शताब्दी में केरल में मणिप्रवालम् शैली में लिखित काकदूत नामक काव्य में कहा गया है कालागि स्वस्ने पूर्व महितनपतेर्विक्रमादित्यनाम्नः दि माEिE. पोक्काञ्चक्रे तरुणजलदं कालिदासः कवीन्द्रः ।। 125 1 महाकवि क्षेमेन्द्र ने भी राजा विक्रमादित्य द्वारा कालिदास को प्रवरसेन के पास भेजे जाने तथा कवि द्वारा इस प्रवासावधि में कुन्तलेश्वरदौत्य की रचना करने का संकेत दिया ऐसी स्थिति में टीकाकारों का मेघदूत के विविध वर्णनों तथा उल्लेखों में कवि के आत्मानुभव की छाया खोजने का प्रयास करना स्वाभाविक ही है। मेघदूत के एक पद्य में ‘निचुल’ तथा ‘दिङ्नाग’ इन दो शब्दों के प्रयोग के आधार पर टीकाकारों का अनुमान है कि कवि कालिदास ने यहाँ अपने समय के निचुल कवि तथा दिङ्नाग नामक पण्डित का उल्लेख किया है। दक्षिणावर्तनाथ का कथन है कि निचुल कवि कालिदास के मित्र थे, यहाँ तक कि निचुल कवि का बनाया एक पद्य भी दक्षिणावर्तनाथ ने उद्धत किया है। दिङ्नाग १. कालिदास : हिज आर्ट एण्ड चाट, टी.जी. मईणकरण, १E६२, पृ. १२१-२४ २. वही, १२६-२७॥ ३. MEGHASANDESHA : AN ASSESSMENT FROM THE SOUTH (मेघसन्देश : एन एसेसमेण्ट फ्राम दि साउथ) एन.पी. उत्रि, दिल्ली, १९८७ ई. में पृ. १२ पर उद्धृत। काव्य-खण्ड पण्डित अपने ‘स्थूलहस्तावलेप’ के साथ कालिदास की कटु आलोचना करते थे’ कवि ने इस पद्य में उन पर कटाक्ष किया है २ । दक्षिणावर्तनाथ का अनगमन करते हुए मल्लिनाथ ने भी इस किंवदन्ती को मान्यता दी है। माता HE - जिना शारी माता जी की

रससृष्टि

‘मेघदूत विप्रलम्भ शृङ्गार का संस्कृत साहित्य में सर्वोत्कृष्ट काव्य कहा जा सकता है। विरहवेदना की तीव्रता, प्रेम की अनन्यता तथा भावकतानता का ऐसा अनूठा चित्रण, वह भी गम्भीर जीवनदृष्टि तथा सांस्कृतिक मूल्यबोध के साथ, अन्यत्र नहीं मिलता। कवि ने अपना काव्य उस यक्ष की उस मनोदशा के चित्रण के साथ आरम्भ किया है, जब रामगिरि पर अभिशप्त जीवन व्यतीत करते-करते उसने किसी तरह आठ महीने तो बिता दिये हैं। मिलन का समय निकट आता जा रहा है, उसकी प्रिया के लिये चिन्ता और उससे मिलने की आतुरता बढ़ती जा रही है। यक्ष बावला और अर्धविक्षिप्त सा हो गया है। ऐसे में वह स्वप्न, कल्पना और अभिव्यक्ति के द्वारा अपने आप को जिलाये रखना चाहता है। उत्कट जिजीविषा, भावसान्द्रता और मनुष्य के कल्पनालोक की रम्यता का बेजोड़ समवाय मेघदूत में हम अनुभव करते हैं। हृदय की सुकुमारता और प्रेम के प्रसार का भी जो बोध मेघदूत देता है, वह भारतीय साहित्य में सुदुर्लभ है। यक्ष का चित्त कामातुर है, पर प्रेम और विरह की आंच उसके कलुष को धोती चली गयी है। इस प्रकार मेघदूत की रससृष्टि में मनोविज्ञान और चित्त के संस्कार की प्रक्रिया को कविप्रतिभा ने बड़ी कुशलता से मेघदूत में पिरो दिया है। मामलोत जातो तोल्यानेगा।

छन्दोविधान तथा भाषाशैली

R मेघदूत में आद्यन्त केवल मन्दाक्रान्ता छन्द का ही प्रयोग है। इस छन्द की विशिष्ट लय तथा यति से यह समग्र काव्य वेदना, उच्छ्वास-निःश्वास तथा मेघ की द्रुतविलम्बित गति का अनुभव देता है। वस्तुतः कालिदास के द्वारा इस छन्द के इतने सटीक प्रयोग के कारण ही आचार्य-परम्परा में यह मान्यता स्थापित हुई कि वर्षा, प्रवास तथा व्यसन के वर्णन के लिये मन्दाक्रान्ता छन्द विशेष उपयुक्त है। क्षेमेन्द्र कालिदास के मन्दाक्रान्ता-प्रयोग की सराहना करते हुए कहते हैं - - प्रावृटप्रवास-व्यसने मन्दाक्रान्ता विराजते। मागास (सुवृत्ततिलक, ३२१, काव्यमाला गुच्छक-२, पृ. १२) कित १. मेघदूत, पूर्वमेय पद्य १४ २. मेघसन्देशः सं. एन.पी. उनि प.3 पर प्रदीप टीका।AKALIGABARODIAE ३E कालिदास के काव्य - इस छन्द की विशिष्ट संरचना गति, लय, त्वरा और मन्थरता का एक साथ बोध कराती है और कालिदास ने तदनुरूप ही सारे काव्य में भाषा और पदावली का भी अनुकूल प्रयोग किया है, जिससे यक्ष के अन्तर्जगत् तथा बाह्य जगत, उसके मन की आतुरता और गम्भीरता, व्यथा और विवेक तथा मेघ को शीघ्र भेजने और त्वरित गति के लिये उसका निर्देश, फिर भी सारे देश में प्रत्येक सुरम्य या पवित्र स्थल पर अटक-अटक कर उसे आगे ले जाने की चाह-इन सबका पर्यावरण इस विशिष्ट भाषा-शैली के द्वारा रचता चला गया है। त्वरा और मन्थरता दोनों का भाव समेकित करती हुई शब्दावली भी सजग होकर कवि ने यहाँ गूंथी है- जो लघुगतिः (१६), गन्तुमाशु व्यवस्येत् (२३), वाहयेदवशेषम्, - मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः (४१), उत्पतोदङ्मुखः खम्-आदि में पदावली की गत्यात्मकता और त्वरा की अभिव्यक्ति तथा ‘खिन्नः खित्रः शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र, क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः श्रोतसां चौपभुज्य-(१३), स्थित्वा तस्मिन् वनचरवधूमुक्तकुजे मुहूर्तम् (१E), कालक्षेपं ककुभसुरभी पर्वते पर्वते ते (२३), नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतोः (२६), स्थातव्यं ते नयनविषयं यावदत्येति भानुः (३७), नीत्वा रात्रि चिरविलसनात् खिन्नविद्युत्कलत्रः (४१), प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि (४४), नानाचेष्टैर्जलद ललितैर्निविशेस्तं नगेन्द्रम् - (६५) - ठहर-ठहर कर अटक-अटक कर आगे बढ़ने का भाव प्रकट करती चलती है। व वस्तुतः मेघदूत छन्दोविधान और भाषा-शैली की दृष्टि से संस्कृत साहित्य की अनुपम निधि है।