कुमारसम्भव सत्रह सर्गों का महाकाव्य है। परम्परागत मान्यता है कि कालिदास ने आठ सर्गों तक ही इस महाकाव्य की रचना की थी। अवशिष्ट : सर्ग किसी परवर्ती कवि के द्वारा रचे हुए हैं। वल्लभदेव, मल्लिनाथ आदि प्राचीन विश्रुत टीकाकारों ने आठ सर्गों तक ही इस महाकाव्य पर अपनी टीकाएं लिखी हैं तथा काव्यशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में भी कुमारसम्भव से जितने उद्धरण मिलते हैं, वे आठवें सर्ग तक के ही हैं। कुमारसम्भव का अर्थ है कुमार (कार्तिकेय) का जन्म। पार्वती के जन्म से लेकर शिव से उसके विवाह तक का कथानक ही आठवें सर्ग तक वर्णित है और कुमार के जन्म की कथा इसमें समाविष्ट नहीं है, अतः इसे अपूर्ण मानकर परवर्ती किसी कवि ने पूरा किया होगा- यह सम्भव है। एक परम्परागत मान्यता यह भी है कि आठवें सर्ग में उमा-महेश्वर के सम्भोगसुख का चित्रण करने के कारण कालिदास को शापग्रस्त होना पड़ा और फिर इस काव्य को वे पूर्ण न कर सके। आधुनिक विद्वानों में से कुछ का यह भी मत है कि कालिदास की दृष्टि में आठवें सर्ग में ही काव्य पूरा हो जाता है; शिव और पार्वती के अटूट प्रेम और मांगलिक दाम्पत्य में कुमार के जन्म की सम्भावना निदर्शित है।
विषयवस्तु
कुमारसम्भव का आरम्भ हिमालय के वर्णन के साथ होता है। पूर्व और पश्चिम के सागरों का अवगाहन कर यह हिमालय सारी धरती को नापने के लिये मानदण्ड की भाँति खड़ा हुआ है। अप्सराएं उसकी उस धातुराशि से शृङ्गार करती हैं, जो बादलों के टुकड़ों पर लाल रंग अर्पित करने वाली अकाल सन्ध्या सी उसके शिखरों पर फैली हुई है। किरात इस हिमालय पर मृगया में मारे गये हाथियों के मार्ग को तुषार से धुल जाने पर भी उनके नखरन्ध्र से गिरे मुक्ताफलों से पहचान लेते हैं। विद्याधर सुन्दरियाँ उसके भोजपत्रों पर प्रेमपत्र लिखा करती हैं। हाथी उस हिमालय के सरल वृक्षों पर खुजली मिटाने को जब अपने कपोल रगड़ते हैं, तो उन वृक्षों से निकले क्षीर (दूध) से हिमालय के शिखर दूर दूर तक सुरभित हो जाते हैं। काव्य-खण्ड 26 भागीरथी के निर्झरों की फुहारें लेकर बहने वाला पवन देवदारुओं को कंपाता जाता है और मयूरों के पिच्छों को बिखरा देता है। मृगों को खोजते किरात उस वायु का सेवन करते हैं। देवताओं ने उस हिमालय को देवतुल्य मान कर यज्ञभाग का अधिकारी घोषित किया है, वह सारी धरती को धारण किये हुए है, इसलिये प्रजापति ने उसे सारे पर्वतों का राजा भी बना दिया है। ऐसे उस पर्वतराज हिमालय ने मुनियों के लिये भी माननीय पितरों की मानसी कन्या मैना से विवाह किया था और उससे मैनाक नामक पुत्र हिमालय को प्राप्त हुआ था। फिर दक्ष के यज्ञ में पति के अपमान से खिन्न होकर देह का त्याग करने वाली सती ने भी मैना की कुक्षि से पार्वती के रूप में अवतार लिया। बाल्यकाल से पार्वती हिमालय की विशेष लाड़ली थी। धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी, तो उदित होने पर चन्द्रज्योत्स्ना की कलाएं जैसे बढ़ती हैं, वैसे ही उसमें अभिवृद्धि हुई। हिमालय उस कन्या से ऐसे ही विभूषित हुए जैसे दीपशिखा से दीपक, त्रिपथगा से स्वर्ग का पथ या संस्कारवती वाणी से मनीषी व्यक्ति। फिर नवयौवन ने पार्वती के देह में पदार्पण किया, तो उसका देह तूलिका से उन्मीलित चित्र की भाँति या सूर्य की किरणों से खिला दिये गये कमल की भाँति चतुरस्रशोभा से युक्त हो उठा। एक दिन नारद विचरण करते-करते हिमालय के पास पहुंचे। पिता के पास बैठी पार्वती को देख कर उन्होंने यह भविष्यवाणी कर दी कि उनकी प्रिय पुत्री शिव की अर्धाङ्गिनी बन कर रहेगी। इस कथन से विश्वस्त हिमालय ने पार्वती को हिमालय के ही एक शिखर पर तपोलीन शंकर की पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित किया। उन्हीं दिनों तारक नामक असुर से त्रस्त देवों ने ब्रह्मा से परित्राण की प्रार्थना की। ब्रह्मा ने कहा- महादेव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र तारकासुर के नाश में समर्थ होगा अतः आयासपूर्वक शंकर का मन पार्वती की ओर आकृष्ट करें, क्योंकि शिव के वीर्य को धारण करने की सामर्थ्य केवल पार्वती में है। इन्द्र ने इन्द्रलोक पहुँच कर कामदेव का स्मरण किया, वह पुष्पधन्वा तत्काल, आम्रमञ्जरी रूपी बाण ग्रहण किए हए मित्र वसन्त के साथ उपस्थित हो गया। इन्द्र ने उसे अपना अभिप्राय बताया। ना. शिव के समाधिस्थल पर पहुँच कर वसन्त ने अपनी रूपश्री का जो प्रदर्शन किया, उससे कवि को प्रकृति के मञ्जुल रूप के वर्णन-कौशल का अवसर मिल गया है। पत्नी रति के साथ कामदेव के उपस्थित होने पर जड़-चेतन सभी कामातुर हो सम्भोग के लिए लालायित हो उठे-का काष्ठागतस्नेहरसानुविद्धं द्वन्द्वानि भावं क्रियया विवब्रुः ।।३.३५ शंकर की समाधि भङ्ग हुई, पार्वती ने कमल के बीजों की माला गले में डाल दी, किन्तु कामविकार के प्रभाव के पूर्व ही संयमी महादेव ने ‘सम्मोहन’ बाण चढ़ाए कामदेव को नेत्राग्नि से भस्म कर दिया और अन्तर्धान हुए। पार्वती पिता के मनोरथ और रूपश्री की अवहेलना से तथा पतिहीना रति नववैधव्य की ज्वाला से दग्ध हुई। पति की राख को कालिदास के काव्य देखकर रति ने विलाप की, जो करुण निष्यन्दिनी प्रवाहित की, वह केवल अजविलाप की मार्मिकता से ही तुलनीय हो सकती है। पार्वती ने अपने रूप के गर्व से मुक्त हो तपस्या का संकल्प किया, क्योंकि जो प्रिय को न रिझा सके उस रूप से क्या लाभ- “प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता’। ५।१ कास्की पर्णभोजन का भी परित्याग कर अपर्णा पार्वती ने अपने कोमलांगों को कठोरतपस्साधना से कठोरतम कर लिया। तदनन्तर एक तेजस्वी ब्रह्मचारी ने उपस्थित होकर शंकर के अमाङ्गलिक वेश और श्मशान रूप अशुभ वासस्थान का उल्लेख कर उन्हें उनके लक्ष्य से विमुख करने का प्रयास किया। प्रिय के दोष-श्रवण में असमर्थ पार्वती ने ब्रह्मचारी के समक्ष खड़ा रहना उचित न समझा, किन्तु वे हटतीं इसके पूर्व ही ब्रह्मचारी रूप शंकर अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए। आराध्य प्रिय को सन्निकट देख पार्वती पुलकित-चकित हुई और शिलाखण्ड द्वारा बाधित नदी के प्रवाह की भाँति रुक गई - मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ। ५.८५ प्रणयोत्सुक शंकर से उन्होंने सखी को माध्यम बना पिता के पास विवाहसन्देश भेजने का आग्रह किया। शंकर ने सप्तर्षियों से हिमराज को विवाह प्रस्ताव पहुँचाने का निवेदन किया। सप्तर्षियों के चर्चा करते समय लज्जानम्रमुखी पार्वती लीलाकमल की पंखुड़ियाँ गिन रही थी एवं वादिनि देवर्षों पार्श्वे पितुरधोमुखी। लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती।। ६.८४ विवाहोल्लास प्रारम्भ हुआ, पार्वती ने नववधू का शृङ्गार किया, वरमण्डली ने प्रस्थान किया। भूतनाथ शंकर की अपूर्व बारात हिमालय पहुंची, राजधानी की समग्र नागरिकायें आकुलता पूर्वक वर-दर्शन को उमड़ पड़ीं, विवाह सम्पन्न हुआ। अब कामदेव का आविर्भाव आवश्यक था, शंकर ने उसे पुनर्जन्म की अनुमति दी। अलौकिक दिव्य कोटि के दम्पती सामान्य प्रणयी की भाँति काम-केलियों में चिरकाल के लिए मग्न हुए। इतनी कथा आठवें सर्ग तक वर्णित है। नामा एक दिन सम्भोगकाल में शिव ने देखा कि शयनकक्ष में एक शुभवर्ण कबूतर बैठा है। उस अग्निरूप कबूतर को देवदूत जानकर उन्होंने अपना क्रोध शान्त किया एवं सुरत क्रीडा के पश्चात अपना वीर्य उसे दिया। शिववीर्य के प्रचण्ड ताप को सहने में असमर्थ अग्नि ने शीतलता हेतु गंगा में स्नान किया, वीर्य गंगा में प्रवाहित हुआ, गंगा ने उसे सादर स्वीकार किया, किन्तु गंगा भी वीर्यताप से उबल उठी। वह वीर्य गंगा में स्नान करती छ: कृत्तिकाओं में समाहित हो गर्भरूप हो गया। ताप और लाज से व्याकुल कृत्तिकाओं ने उसे वेतस के वन में छोड़ दिया। तेजस्वी भ्रूण गंगामृत पान कर कृत्तिकाओं के संरक्षण में वर्द्धित ३२ काव्य-खण्ड होने लगा। तभी विमान से जाते समय शिव-पार्वती की दृष्टि शिशु पर पड़ी और वे उस अनुपम षण्मुख बालक को स्वसन्तान जानकर साथ ले आए। केवल छः दिनों में कुमार शरीर आर बुद्धि से परिपक्व हो युवा हो गया। इन्द्रादि देवों के अनुरोध पर शंकर ने कुमार कार्तिकेय को देवसेना का सेनापति नियुक्त किया। कुमार ने अपने अद्भुत शौर्य से भयंकर युद्ध करते हुए तारकासुर का वध कर तीनों लोकों को सुख पहुँचाया। मणि कुमारसम्भव की सर्वातिशायिनी विलक्षणता है- प्रणय की गम्भीर गहनता जिसमें रूप पर्यवसित हो जाता है, जिसमें वासना दग्ध हो जाती है तब जो नवनीत बचता है वह सामान्य होकर भी सामान्य नहीं होता, अपितु युग-युग तक विशुद्ध, पवित्रता और मङ्गल के प्रतीक रूप में स्थायी रहता है। विश्ववन्द्य कवि रवीन्द्र के शब्दों में कालिदास ने अनाहूत प्रेम के उस उन्मत्त सौन्दर्य की उपेक्षा नहीं की है, उसे तरुण लावण्य के समुज्ज्वल रंगों से चित्रित किया है। किन्तु इसी उज्ज्वलता में उन्होंने अपना काव्य समाप्त नहीं किया। महाभारत के सारे कर्मों का अन्त जैसे महाप्रस्थान में हुआ, वैसे ही ‘कुमारसम्भव’ के सारे प्रेम का वेग मंगल-मिलन में समाप्त हुआ है।