०२ ऋतुसंहार

ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम रचना है। निश्चित रूप से जो औदात्य तथा सौन्दर्य महाकवि के अन्य काव्यों में प्राप्त होता है, उसका यहाँ अभाव है। सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ऋतुसंहार ही पहली ऐसी रचना है, जिसमें भारतवर्ष में प्राप्य समस्त छः ऋतुओं का स्वतन्त्र रूप से तथा क्रमशः निरूपण किया गया है। आलोचकों का कहना है कि कवि ने विक्रमादित्य का राज्याश्रय प्राप्त होने के पूर्व ही इसकी रचना की होगी और यह नवयौवन की अवस्था में रचा गया होगा। कुछ विद्वान् ऋतुसंहार को कालिदास की कृति नहीं मानते। इस पक्ष में प्रायः तीन तर्क दिये जाते हैं - १. ऋतुसंहार में कालिदास की कमनीय शैली नहीं है। २. काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में इसके उद्धरण प्राप्त नहीं होते और ३. मल्लिनाथ ने इस पर टीका नहीं लिखी है। जहाँ तक प्रथम तर्क का प्रश्न है, ऋतुसंहार को कालिदास की प्रथम रचना स्वीकार किया गया है। अतः प्रथम सोपान होने के कारण रघुवंश अथवा शाकुन्तल जैसी परिपक्वता का अभाव स्वाभाविक है। काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में ऋतुसंहार के उद्धरण आलङ्कारिकों ने इसलिये नहीं दिये कि महाकवि कालिदास के ही अधिक प्रौढ़ उदाहरण विद्यमान थे। मल्लिनाथ ने भी सरल ग्रन्थ होने के कारण इस पर टीका नहीं लिखी होगी। इस प्रकार ये तर्क कमजोर हैं। वस्तुतः ऋतुसंहार के पर्यालोचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें कालिदासीय प्रतिभा बीज-रूप में विद्यमान है। ऋतुसंहार में छः सर्ग है। इन सर्गों में क्रमशः छः ऋतुओं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त का चित्रण किया गया है।

यथार्थ दृष्टि

ऋतुसंहार में कविकल्पना की मनोहारिता भी आकर्षित करती है तथा कवि का यथार्थबोध भी। पहला ही पद्य ग्रीष्म की प्रखरता तथा सन्ताप के वर्णन से आरम्भ १. स्त्रीपुंसाबात्मभागौ ते भित्रमूर्तेः सिसूक्षया। - वहीं, २।७। काव्य-खण्ड । होता है। इसके आगे कवि कहता है कि धूल के बवंडर उठ रहे हैं, कड़ी धूप से धरती दरक रही है. प्रिया के वियोगानल से दग्ध मानस वाले प्रवासी तो इस दश्य को देख तक नहीं पा रहे है (91१०)। प्यास से चटकते कण्ट वाले मृग एक जंगल से दूसरे जंगल की ओर भाग रहे हैं। (9199)। ग्रीष्म ने वन के प्राणियों को ऐसा आकुल कर दिया है कि सांप मयूर के पिच्छ के नीचे धूप से बचने को आ बैठा है और मयूर को उसकी खबर नहीं। प्यास से सिंह का मृगया का उद्यम ठंडा पड़ गया है, जीभ लटकाये हांफता हुआ वह पास से निकलते हिरणों पर भी आक्रमण नहीं कर रहा। तृषा से व्याकुल हाथियों ने भी सिंह से भय खाना छोड़ दिया है। शुकर भद्रमुस्ता से युक्त सूखते कीचड़ मात्र बचे सरोवर की धरती में घसे से जा रहे हैं (१।१३-१५)। ग्रीष्मवर्णन के इस पहले सर्ग में वनप्रान्त की भीषणता का वास्तविक चित्र कवि ने अत्यन्त विशद रूप में अंकित कर दिया है। दावाग्नि से जल कर काष्ठ मात्र बचे वृक्ष, सूखते पत्तों का जहाँ-तहाँ ढेर और सूखे हुए सरोवर- इन सबका विस्तार देखने पर चित्त को भयभीत कर डालता है (१२२)। दावाग्नि का वर्णन भी कालिदास ने इसी यथार्थ दृष्टि से किया है। कि

ऋतुसंहार का भौगोलिक परिवेश

ऋतुसंहार की रचना के समय कवि विन्थ्य के आसपास के क्षेत्र में रम रहा था, ऐसा इस रचना के वर्णनों से स्पष्ट होता है। पहले सर्ग में भीषण और दुर्गम कान्तारों का उल्लेख बाणभट्ट के विन्ध्याटवीवर्णन का स्मारक है। जिन पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों का वर्णन किया गया है, वे भी विन्ध्यक्षेत्र में बहुतायत से पाये जाते हैं। यदि ग्रीष्मवर्णन में कवि विन्ध्य के वनों की भयावहता का यथार्थ चित्र अंकित करता है, तो वर्षावर्णन में वह इन वनों की मनोहारिता से आकर्षित है वनानि वैन्थ्यानि हरन्ति मानसं विभूषितान्युद्गतपल्लवैर्दुमैः।। (२८) बादलों ने विन्ध्य का अभिषेक कर डाला है, जो अभी तक दावाग्नि से झुलस रहा था। अब वह आह्लादित हो उठा है - अतिशयपरुषाभिर्दाववस्नेः शिखाभिः समुपजनिततापं हलादयन्तीव विन्ध्यम्।। (२.२७)

विषयवस्तु

ऋतुसंहार कालिदास की काव्ययात्रा का पहला पड़ाव लगता है। किशोरावस्था में होने वाले सौन्दर्य के प्रति आकर्षण की यहाँ प्रधानता है। कवि ने ऋतुओं के वर्णन में प्रकृति चित्रण करने के साथ-साथ कामिजनों की विलासिता का भी निरूपण किया है। यह कहना उपयुक्त होगा कि ऋतुसंहार में प्रकृति-सौन्दर्य का चित्रण गौण है और श्रृङ्गारित वर्णन प्रधान । प्रायः प्रत्येक सर्ग में कुछ पद्यों में कवि ने अपनी प्रिया को सम्बोधित किया कालिदास के काव्य २७ है। ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर और वसन्त ऋतुओं का वर्णन तो प्रिया के सम्बोधन से ही प्रारम्भ होता है। कहीं-कहीं रसिक सहदयों को भी सम्बोधित किया गया है। कवि प्रत्येक सर्ग में ऋतुओं का चित्रण करने के साथ-साथ ऋतुओं का स्त्री-पुरुषों पर क्या प्रभाव होता है, इसका भी वर्णन किया है। ऋतुसंहार में कथानक का अभाव है। ग्रीष्म, वर्षा तथा शरद् का वर्णन प्रस्तुत करने वाले प्रथम तीन सर्गों में नैसर्गिक सुषमा के अनुरूप अतिशय मनोहर कल्पनाओं के साथ नयनाभिराम चित्र हैं। जाता हेमन्त के वर्णन में कवि ने प्राकृतिक दृश्यों का निरूपण कम और भोग-विलास का वर्णन अधिक किया है। यहाँ सम्भोग शृङ्गार का चित्रण अधिक है, प्रकृति का वर्णन कम। वस्तुतः अन्तिम तीन सर्गों में कवि ने उद्दीपन सामग्री का सम्भार प्रस्तुत कर दिया है। रह षष्ठ सर्ग सबसे बड़ा है। इस सर्ग में कालिदास ने अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर चित्रण किया है। कुछेक पद्यों में तो प्रकृति का वर्णन है, किन्तु अधिकांश पद्यों में वासन्तिक वातावरण से प्रभावित मानव-मन का चित्रण है। इस प्रकार वसन्त का चित्रण प्रायः कामोद्दीपक रूप में किया गया है। प्रस्तुत पद्यों में वासन्तिक सुषमा का बहुत ही सुन्दर निरूपण है - द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्म स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः।। सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः सर्व प्रिये! चारुतरं वसन्ते।। ६.२ वापीजलानां मणिमेखलानां शशाकभासां प्रमदाजनानाम् । चूत[माणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसन्तः ।। ६.४ वृक्ष फूलों से लद गये हैं। जल में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियों के मन में काम जाग उठा है। पवन सुगन्ध से भर गया है। सन्ध्यायें सुखद होने लगी हैं और दिन अच्छे लगने लगे हैं। प्रिये! वसन्त ऋतु में प्रत्येक वस्तु पहले से अधिक सुन्दर हो गयी है। वसन्त ने बावलियों के जलों को, मणियों से निर्मित मेखलाओं को, चन्द्रमा की चाँदनी को, प्रमदाओं को, आम के वृक्षों को सौभाग्य प्रदान कर दिया है। इस प्रकार वह कौन सी वस्तु है जो वसन्त में रमणीय नहीं हो जाती।

ऋतुसंहार का काव्यसौन्दर्य

ऋतुसंहार एक महान कवि की प्रतिभा के प्रथम परिस्पन्द की श्रेष्ठ और सरस अभिव्यक्ति है। टीकाकार मणिराम का यह कथन सत्य है कि इस काव्य की उपेक्षा होती रही है। इस उपेक्षा का कारण यही प्रतीत होता है कि ऋतुसंहार के पश्चात् रची गयी काव्यकृतियों में कवि की जीवनदृष्टि विकसित हुई है, संवेदना और मनोविज्ञान के ज्ञान में १. अप्रचारतमोमग्ना कालिदासकृतिर्थतः । आतुसंहार, मणिरामकृतटीका, निर्णयसागर, १८३१ ई., पृ. १ २८ काव्य-खण्ड प्रौढ़ता आयी है तथा इन कृतियों में परिष्कृत सौन्दर्य चेतना के साथ उदात्त जीवनमूल्यों तथा सांस्कृतिक बोध को भी अभिव्यक्ति मिली है। स्वभावतः ही कवि की परवर्ती श्रेष्ट कृतियों की तुलना में ऋतुसंहार जैसी लघुकाय और आरम्भिक कृति उपेक्षित होती चली आयी है, तथापि कल्पनाओं की कमनीयता, भाषा की प्रौढि और सरसता की दृष्टि से यह कृति महत्त्वपूर्ण है। मेघदूत, कुमारसम्भव तथा रघुवंश के परिणतिप्रज्ञ तथा परिपक्वप्रतिभासम्पन्न कवि का कमनीय किशोर रूप यहाँ मिलता है। ग्रीष्म और वर्षा के वर्णनों में ओजोगुण की दुर्लभ अभिव्यक्ति ऋतुसंहार के कवि ने की है। राजा के समान धनागम (वर्षा) के आगमन का रूपक तदनुरूप ओजस्वी बन्ध में बाँधा गया है - ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरस्तडित्पताकाशनिशब्दमर्दलः। समागतो राजवदुद्धतद्युतिर्धनागमः कामिजनप्रियः प्रिये ।। (२.१) मेघ ही इस राजा के मतवाले हाथी हैं, बिजलियाँ उसकी पताकाएँ है, मेघ का गर्जन उसका मर्दल (वाद्यविशेष) है। परवर्ती काव्यों में प्राप्त कालिदास की अनेक अभिव्यक्तियों का पूर्वाभास भी ऋतुसंहार में है। मेघ के लिये गर्भवती प्रमदा के उरोज का उपमान (२१) मेघदूत तथा रघुवंश में प्रकारान्तर से पुनरावृत्त हुआ है। इसी प्रकार बिजली की कौंध में अभिसारिकाओं का मार्ग देख पाने के दृश्य को भी (२।१०) कवि ने मेघदूत में फिर से बाँधा है। शरद् वर्णन में कोविदार वृक्ष के चित्रण में यमक का यह बन्ध रघुवंश के नवम सर्ग के यमक-बन्धों की स्मृति करा देता है- मानक काममा मत्तद्विरेफपरिपीतमधुप्रसेकश्चित्तं विदारयति कस्य न कोविदारः ।।३.६ शरद् ऋतु के वर्णन में तो कविकल्पनाओं की उज्ज्वलता देखते ही बनती है। । शरद् ऋतु का पदार्पण रमणीय नववधु के समान होता है। पके हुए धान से सुन्दर एवं झुके हुए शरीर वाली तथा खिले हुए कमलों के मुखवाली शरद् ऋतु काश-पुष्प का उज्ज्वल वस्त्र धारण किये हुए, मतवाले हंसों के कलरवों का नूपुर पहने हुए अवतरित होती काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरवनूपुरनादरम्या। आपक्वशालिरुचिरानतगात्रयष्टिः प्राप्ता शरनववधूरिव रूपरम्या।। ३.१।। कवि ने यहाँ रूपक, (काशांशुका आदि प्रथम तीन विशेषण) उत्प्रेक्षा तथा उपमा की उत्कृष्ट संसृष्टि प्रस्तुत की है। इसी प्रकार नैसर्गिक सौन्दर्य को कृत्रिम या मानवीय सौन्दर्य से अधिक मनोहर बताते हुए व्यतिरेक के प्रयोग के साथ वह कहता है कि रमणियों की मनोरम चाल को हंसों ने, उनके चन्द्रमा जैसे मुख की शोभा को खिले हुए कमलों ने, कालिदास के काव्य मदभरी मधुर चितवन को नील कमलों ने और भौंहों के विलास को सूक्ष्म लहरियों ने जीत लिया है - हो हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनानामम्भोरुहैविकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः। शिकालिन नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोकितानि भूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभिस्तरङ्गः।। आगानि मायामशाह तानाशायी कमिद काहि तरिकाली मोनो निवाला शक्तक ३.१७॥