[[विद्यामाधवीयम् (तृतीयसम्पुटम्) Source: EB]]
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[TABLE]
विद्यामाधवीयस्य सव्याख्यस्य तृतीयसंपुट
वि ष य सू च नी
| विषयः |
| ** एकादशो देवप्रतिष्ठाध्यायः** |
| देवप्रतिष्ठाकालः |
| सप्रमाणं मूलविवरणं चशब्दसूचिता अन्येऽप्यर्थाः |
| देवप्रसिष्टायां लग्नस्थसूर्यादिफलम् |
| मूलार्थःगुरुनारदश्रीपत्याद्युक्तानेकार्थसमुच्चयश्च |
| प्रतिष्ठायां ग्राह्या भावराशयः |
| मूलार्थःमूलानुक्तग्रहबलादिग्राह्यता च सप्रमाणं |
| प्रतिदेवतं प्रतिष्ठानक्षत्राणि |
| गुरुनारदश्रीपतिवचनैर्मूलार्थे प्रामाण्य मूलानुक्तार्थश्च |
| शुभपोषकाः प्रतिष्ठायोगाः |
| मूलार्थे गुर्वादिवचनोदाहरणं |
| भूपानामभिषेककालः |
| मूलार्थे विधिरत्नादिग्रन्थसम्मतिः विशेषार्थश्च |
| नृपाभिषेके शुभवारोदयांशाः |
| मूलार्थे मतभेदास्तत्तत्प्रमाणानि च |
| नृपाभिषेके गोचारफलानि |
| मूलोक्तार्थे निबन्ध्नन्तरसंमतिः |
| नृपाभिषेके ऐन्द्रसंज्ञा योगाः |
| मूलाभिहिते ऐन्द्रयोगे मतान्तरं तदभिप्रायश्च |
| जातकोक्तदीर्घायुर्योगा अप्यभिषेकार्हा |
| मूलविवरणं राजाभिषेकस्य दैवज्ञपूजापूर्वकमेव कार्यत्वम् |
| विषयः |
| अभिषेकार्हता |
| राजाभिषेककाले महिषीयुवराजसचिवादेरप्यभिषेकः |
| राज्ञा कृताभिषेकेण हयशिक्षादिविधानकालः |
| मूलोक्तार्थे प्रमाणं मूलानुक्कानेकार्थाश्च |
| खड्गादि शस्त्रकरणकालः |
| शस्त्रकरणे गुरूक्तं योगान्तरम् |
| गजाश्वादिरक्षाविधिः |
| अश्वादेरुपद्रवपरिहारिणी शान्तिः खड्गधारणयोगा खड्गलक्षणमित्यादयो मूलानुक्ता अनेकार्थाः |
| गजाश्वादिविलोकनसंग्रहसन्नाहादिकालः |
| युद्धारम्भकालः |
| युद्धारम्भयोगान्तराणि |
| मूलार्थः मूलानुक्ता विशेषाश्च |
| कनकसंग्रहार्हकाल |
| मृद्वादिनक्षत्रेषु योविशेषे च धनस्यान्यस्मा अदेयत्वम् |
| त्रिहाराद्यर्थमारामगमनादौ कालान्तरातिदेशः |
| अध्यायोपसंहार |
| ** द्वादशो यात्राध्यायः** |
| यात्रार्हःकालः |
| मूलस्य यात्रार्हकालविधिपरतया योजना |
| मूलस्य योजनान्तरम् |
| जातकापरिज्ञाने प्रश्नलग्नवशात्तत्कालक्ऌप्तिक्रमादिः |
| दिग्वशात् यात्रार्हनक्षत्राणि |
| मूलार्थःप्रमाणानि च |
| यात्रायां परिघातिक्रमदोषस्य संकोचविशेषः |
| मूलार्थेगुरुवचनोदाहरणं च समुच्चितार्थश्च |
| दिक्शूलभानि |
| मूलार्थे प्रमाणोपन्यासः तत्तद्विशेषार्थश्च |
| प्रतिशुक्रोदयदोषः |
| विषयः |
| मूलविवरणं विशेषार्थाश्च |
| प्रागादिदिक्षु प्रयाणे प्रशस्तास्तिथयः |
| तत्तत्तिथिषु प्रयाणफलानि, तत्तन्मतानि, विशेषाश्च |
| प्रागादिदिक्षु शुभा वागः |
| मूलार्थे गुरुवचः प्रमाणं |
| दिक्शूलवारातत्र श्रीपतिमतं च |
| मूलार्थः मूलानुक्ता विशेषाश्च |
| योगिन्य |
| मूलानुक्तानेर्थाभिधानेन सह मूलविवरणम् |
| गुलिकविषघट्यादिषु यात्रानिषेधः |
| मूलार्थःमूलानुक्ताश्च बहवोऽर्थाः |
| शुनप्रदयात्राविशेषकालः |
| सप्रमाणं मूलविवरणं विशेषांशाश्च |
| यात्रालग्नदोषाः |
| सप्रमाणं सविशेषं च मूलविवरणम् |
| यात्रायां ताराबलविशेषः |
| मूलार्थे तत्सन्निबन्धृसंमतिप्रदर्शनम् |
| यात्रोचिता राशयः |
| मूलार्थेप्रमाणानि विशेषांशाश्च |
| जलयात्रार्हा राश्यादयः |
| मूलार्थःप्रमाणानि मूलानुक्ता विशेषांशाश्च |
| यात्रायां शुभवाराणां सर्वजन्तुशुभप्रदत्वम् |
| मूलार्थेनिबन्धृसंमति मतान्तरं च |
| सग्रहदोषस्य यात्रायामनिष्टफलता |
| मूलार्थे प्रमाणानि |
| यात्रोपक्रमे विशेषाः |
| सप्रमाणं मूलविवरणम् |
| हस्त्यादिभिर्यियासतोऽपि द्वात्रिंशत्पदान्यादौ पद्भ्यामव गन्तव्यानि |
| विषयः |
| मूलार्थे प्रमाणं विशेषाश्च |
| प्रयाणे प्रथममविच्छेदेन गन्तव्यमार्गमानम् |
| मूलविवरणं प्रसङ्गात् शुभाशुभशकुननिरूपणं च |
| प्रस्थितस्य नृपादेःमध्ये वासदिनपरिगणना |
| मूलार्थःमतान्तरं च |
| प्रस्थाननक्षत्रवशात् यात्रायां स्थितिगतिनियमाः |
| मूलार्थःमतान्तरं च |
| यात्रालग्नादि द्वादशभावानां नामान्तराणि |
| मूलार्थेवराहमिहिरसंमतिः |
| यात्रालग्ने तन्वादिभावेषु ग्रहवशात् फलानि |
| मूलार्थेवराहमिहिरसंमतिः |
| यात्रायां गुरुमतेन लग्नादिस्थसूर्यादिफलम् |
| मूलार्थे गुरुवचनोदाहरणं विशेषार्थश्च |
| यात्रायां आवश्यकत्वे प्रशस्तकालालाभे दोषशान्त्युपायः |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| भक्ष्यविशेष तत्तद्वारदोषशान्तिः |
| मूलोक्तेऽर्थे गुरुवचनोपन्यासः, श्रीपतिमतं च |
| नक्षत्रदोषपरिहारकं यात्रिकभक्ष्यं |
| मूलार्थ प्रमाणानि च |
| दिग्वशात् यात्रायां कालःदोषशान्तिश्च |
| मूलोक्तेऽर्थे प्रमाणोपन्यासः |
| गुरुणोक्ता यात्रायोगाः |
| मूलोक्तेऽर्थेप्रमाणोपन्यासः |
| यात्राया योगाधियोगाः |
| मूलार्थे प्रमाणोपन्यासः योगाविषये व्यवस्था च |
| अध्यायोपसंहारः |
| विषयः |
| ** अथ त्रयोदशः प्रकीर्णकाध्यायः** |
| नववस्त्रधारण कालः |
| वराहमिहिरसंमतिः विशेषार्थश्च |
| क्वचित् त्याज्यगणे वस्त्रधारणमिष्टम् |
| मूलविवरणं विशेषांशाश्च |
| नव्यसौवर्णाभरणधारणकालः |
| मूलार्थःविशेषार्थश्च |
| दन्तधावने कालः |
| मूलार्थे स्मृतिःप्रमाणं प्रतिवारं दन्तभावनफलं च |
| तैलाभ्यङ्गकाल |
| मूलार्थः प्रमाणोपन्यासः विशेषांशश्च |
| द्रव्यसग्रंहकालः |
| मूलविवरणं श्रीपतिवचनोपन्यासश्च |
| हेमसंग्रहे योगः |
| मूलार्थः गुरुवचनोपन्यासश्च |
| रजतादिसंग्रहयोगः |
| मूलार्थे प्रमाणं विशेषांशाश्च |
| वृद्ध्यर्थं संगृहीताना ब्रीह्यादीनां बन्धनकालः |
| मूलार्थःगुरुवचनोपन्यासश्च |
| स्वामिमुखावलोकनकालः |
| मूलविवरणं मतान्तरं च |
| स्वामिदर्शने श्रेष्ठाराशिः |
| मूलार्थविवरणं गुरुवचनोपन्यासश्च |
| स्वामिदर्शनयोगाः |
| मूलविवरणं गुरुवचनोपन्यासश्च |
| योगान्तराणि |
| मूलार्थःविशेषाश्च |
| विप्रवश्ययोगाः |
| मूलविवरणं प्रमाणं च |
| विषयः |
| योगान्तराणि |
| मूलार्थं प्रमाणं च |
| वैश्यवश्ययोगाः |
| मूलार्थः विशेषार्थश्च |
| शूद्रवश्ययोगाः |
| मूलार्थः प्रमाणं च |
| स्त्रीवश्ययोगाः |
| शत्रूणामपि मैत्रीकारकौयोगौ |
| मूलविवरणं मतान्तरं च |
| भृत्यसंग्रहकालः |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| कृष्यादिकर्मारम्भकालः |
| मूलार्थे गुरुवचनोपन्यासः |
| विवादग्रस्तभूमे स्वायत्तकिरणयोगः |
| मूलार्थः मतान्तरं च |
| योगान्तराणि |
| योगान्तराणि |
| योगान्तराणि |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| क्षेत्रादिसंग्रहयोगाः |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| भूस्वत्वापादकयोगान्तराणि |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| गृहादिषु मूषिकादिबाधापनयनोपायः |
| अनुक्तकालस्य गृहकर्मणः कालः |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| गवां संग्रहकालः |
| मूलार्थः मतान्तरञ्च |
| गवां संग्रहणेयोगः |
| विषयाः |
| गोकार्ये सर्वत्र प्रशस्तवारकरणर्क्षाणि |
| पूर्तादिकर्मकालः |
| अनुक्तकालशुभकर्मकालः |
| मूलार्थः प्रमाणानि च |
| पौत्रिकर्मकालः |
| मूलविवरणं विशेषाश्च |
| विद्वेषणादिकालः |
| मूलविवरणं विशेषांशाश्च |
| उच्चाटनादियोगः |
| मूलार्थःविशेषाश्च |
| विद्वेषणादिकर्मसु दोषाणामवर्ज्यत्वादि |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| धातुवादादिकर्मसु वारः |
| मूलार्थे गुरुवचनं मानम् |
| कलहाभिवर्धनयोगः |
| मूलानुक्ता विशेषाः |
| गोपरिग्रहादिषु कालान्तरम् |
| मूलार्थे प्रमाणम् |
| ज्ञानग्रहणकालः |
| मूलविवरणं विशेषाश्च |
| सर्पदंशचिकित्सायाःसाध्यासाध्यत्वे |
| मूलविवरणं विशेषः प्रमाणं च |
| असाध्यरोगारम्भकालः |
| मूलार्थःप्रमाणं |
| रोगारम्भनक्षत्रवशात् तद्बाधावहदिनगणना |
| मूलविवरणं तदनुक्ता विशेषाश्च |
| औषधक्रियारम्भकालः |
| मूलविवरणं मतान्तराणि तत्तत्प्रमाणानि च |
| योगवशात् भैषज्यगुणभेदाः |
| विषयाः |
| मूलार्थः प्रमाणं विशेषाश्च |
| रसायनादिसेवनकालः |
| मूलार्थःमतान्तरं च |
| रोगान्तस्नानकालः |
| मूलार्थःप्रमाणं मतान्तरं च |
| योगान्तराणि |
| मूलार्थःप्रमाणं मतान्तरं च |
| स्थिरादिनक्षत्रकृत्यानि |
| मूलविवरणम् |
| अन्तरङ्गबहिरङ्गनक्षत्रकृत्यानि |
| श्राद्धकालः |
| मूलविवरणं प्रमाणं विशेषांशश्च |
| श्राद्धतिथयः |
| मूलार्थःप्रमाणं विशेषाश्च |
| वर्ज्यनक्षत्राणि |
| मूलविवरणं प्रमाणं च |
| अन्यत्र वर्ज्यानामपि नक्षत्राणमत्र ग्राह्यता |
| मूलार्थःप्रमाणं मतान्तरं च |
| योगविशेषे श्राद्धकर्मानिष्टावहम् |
| प्रेतश्राद्धे विशेषः |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| त्रैपक्षिकादिश्राद्धविधानकालः |
| मूलविवरणं प्रमाणानि विशेषांशाश्च |
| अत्रानुक्तेषु कालः ऊहनीय कर्मविशेषेषु |
| अध्यायोपसंहारः |
| ** अथ चतुर्दशः तारादिलक्षणाध्यायः(१४)** |
| तत्तत्तारासंख्या |
| मूलविवरणं प्रमाणं च |
| ताराणां सन्निवेशप्रकारः |
| विषयाः |
| विशद मूलविवरणं प्रमाणंच |
| अश्विन्यादिनक्षत्रोदये मेषादिराशौ गतभागाः |
| मूलार्थ प्रमाणं मतान्तरं च |
| श्रवणादिनक्षत्रे नभोमध्यगे मेषादिराशिगतभागाः |
| मूलविवरणं प्रयाणं च |
| वारप्रमाणं |
| श्वासनाडीभेदेन कर्माचरणं |
| नित्यमुहूर्तयोगः |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| अध्यायोपसंहारः |
| ** अथ पञ्चदशः पुष्पग्रहगोचाराध्यायः (१५)** |
| कन्यानां प्रथमार्तवे शुभनक्षत्राणि |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| मतान्तरेण नक्षत्रफलम् |
| मूलविवरणं प्रमाणं च |
| राशिफलम् |
| मूलार्थःप्रमाणं च |
| गण्डान्तांशेष्वार्तवमशुभम् |
| मूलविवरणं प्रमाणं च |
| ग्रहणां शुभाशुभगोचारफलसंक्षेप्रतिज्ञा |
| सूर्यभौमयोः गोचारफलम् |
| चन्द्रस्य सामान्यं गोचारफलम् |
| बुधस्य " " |
| जीवस्य " " |
| शुक्रस्य " " |
| मन्दस्य " " |
| मूलविवरणं विशेषाश्च |
| रविगुरुमन्दकुजानां स्थानविशेषात्फलविशेषः |
| विषयाः |
| मूलार्थःप्रमाणानि च |
| गोचरार्निष्टफलप्रदातुरपि ग्रहस्यपूजादिभिरिष्टफलप्रदता |
| विशदं मूलविवरणं सप्रपश्चं सप्रमाणं च ग्रहयज्ञप्रयोगः |
| मूलकर्तुः स्वाभिजनादिवर्णनम् |
सव्याख्यस्य विद्यामाधवीयस्याशुद्धपाठशोधनम्
| अशुद्धं. | शुद्धं. |
| शषस्य | शेषस्य |
| ङ्करा | ङ्कुरा |
| " | " |
| शीलःस्स्यात् | शीलस्स्यात् |
| स्यु | स्युः |
| क्रमै | क्रमैः |
| कालेऽपि | कालेऽथ |
| तमग्रत | तमग्रतः |
| दिक्षु | र्दिक्षु |
| ययात् | यायात् |
| त्संथिनथौ | त्सन्धिगतौ |
| अत्र गार्ग्यः - कद | अत्र गार्ग्यः - …….कद |
| ज्ञेलग्राम्बुरिपु | लग्नायत्रिरिपु |
| दिनादिष्वपि | दिनादिषु |
| बुतद्धक्षेत्रे | बुधक्षेत्रे |
| मित्रस्य | भृत्यस्य |
| गुतौ | गुरौ |
| रवौ | विधौ |
| वपुपि | वपुषि |
| वृद्ध्ये | वृद्ध्यै |
| शुको | शुक्रो |
| वृष्वे | विष्वे |
| स्वीमा | सीमा |
| वरो | वारे |
| अशुद्धं. | शुद्धं. |
| मित्रै | मैत्र |
| विध्यात् | विदध्यात् |
| स्युा | स्या |
| कूर्यात् | कुर्यात् |
| " | " |
| पौष्टिकं | पौष्टिकम् |
| स्यु | स्युः |
| संङ्ग | संग्र |
| रज्ज्व दि | रज्ज्वादि |
| स्वनुकूल | स्वानुकूल |
| ह्ण | ह्न |
| काष्णी | काष्णीं |
| कर्मविद्वे | कर्मवद्विद्धे |
| थिद्वे | विद्वे |
| एषा | एष |
| स्स्युः | स्युः |
| अरण्यादि | अरण्यादिषु |
| कर्म | चापा |
| शम | श्म |
| योगात् | योगात् |
| कमर्णौ | कर्मणोऽ |
| श्यष्ठमी | श्यष्टमी |
| सकूरैः क्रूर | सक्रूरैः क्रूर |
| केतुनां | केतूनां |
| विाष्ट | विष्टि |
| त्तदङ्गु | त्तदङ्ग |
| निक्षिष्य | निक्षिप्य |
| भोक्ष्य | मोक्ष्य |
| शीतागौ | शीतगौ |
| अशुद्धं | शुद्धं |
| कार्याणी | कार्याणि |
| षुण्यस्य | पुण्यस्य |
| वर्जियित्वा चतुर्दर्शोम् | वर्जयित्वा चतुर्दशीम् |
| जर्याणवे | जयार्णवे |
| मिश्र | मिश्रं |
| लक्ष्मी | लक्ष्मी |
| माधाः | माधमाः |
| त्तस्व | स्वस्व |
| दवतै | दैवत |
| स्वोच्छ्रय | स्वोच्छ्राय |
| कुङ्कुभा | कुङ्कुमा |
| गृह्म | गृह्य |
व्याख्यानस्य त्रुटिततया मातृकायामनुपलब्धाः
मूलपुस्तकेषूपलब्धाः इमे मूलश्लोकाः
यथायथमनुसन्धेयाः
१५२ तमे पृष्ठे अन्ते योजनीयौ
यद्वस्तु येषु कथितं तिथिवारर्क्षेषु तेषु तद्भक्ष्यम्।
भुक्त्वायोग्यमयोग्यं पृष्ट्वा संस्मृत्य वा प्रयातु नृपः॥
आवश्यके प्रयाणे भुक्त्वातिथ्यादिकथितभक्ष्याणि।
यात्रायोगे व्रजतां न भवति पञ्चाङ्गसंभवो दोषः॥
९५४ तमे पृष्ठे चन्द्रेऽनष्टमगे इत्यतः (९ पङ्क्तेः) परं योजनीयाः
योगैस्सिद्धिर्धरणिपतीनां
विप्रादीनामुडुतिथिवीर्यैः।
चोरादीनां शुभफलशकुनैः
यानेऽन्येषां भवति मुहूर्तेः॥
यथोक्तलक्षणः कालो न चिराल्लभ्यते नृभिः।
यतस्ततोऽहं यात्रायां योगान् वक्ष्यामि सिद्धिदान्॥
षष्ठे मन्दारौं विक्रमेऽर्को विलग्ने
जीवश्शुक्रज्ञौ वित्तबन्ध्वोश्शशी च।
लग्नायभ्रातृद्वेषिगा जीवभास्व-
न्मन्दक्ष्मापुत्रा भार्गवश्चानुकूलः॥
तनुरिपुकर्मगताः क्रमशो दिनकरमन्दनिशापतयः।
वपुषि रविर्गुरुशुक्रबुधा द्रविणगता मदने चशशी॥
भातृद्रविणोदयसंस्थाः तीक्ष्णद्युतिचन्द्रशुक्राश्च।
भ्रातर्यशुभा विदुरस्ते लग्ने गुरुरम्बुनि सौम्यः॥
तनु विक्रमकामसुखारिगताः
भार्गवमन्दगुरुज्ञमहीजाः।
असुहृद्भवविक्रमेष्वशुभाः
केन्द्रगताश्च शुभा बलवन्तः॥
एकं नक्षत्रं प्राप्ताभ्यां
भूपुत्राचार्याभ्यामेकः।
सौम्याख्याभ्यां द्वाभ्यां लग्ने
संयुक्ताभ्यामन्यो योगः॥
अवदद्वराहमिहिरो यान् योगान् योगयात्रायाम्।
तेषां दशेह कथिताः कथयाम्यथ विबुधमन्त्रिणा कथितान्॥
योगान् सिद्धिकरान् बुधा विदुरिमान् श्लोकैकपादोदितान्
यात्रायां सुनफाऽनफाथुरधुरायोगाधियोगानपि।
आधत्ते धरणीपतेरभिमतं पुष्टिं विशेषात्फलं
अत्रोक्तो निखिलो जनस्य समयः सर्वस्य साधारणः॥
१५८ तमे पृष्ठे अन्ते योजनीय
गमनमुपगतं यदावश्यकं
तदितरदुभयं विभज्यैतत्।
विदधति विधिनाऽमुत्राये नृपाः
वसति हि भुवि तेषु यात्राफलम्॥
अथ सम्पन्नैगृहस्थैर्देवा अर्चनीया इति तत्र द्वादशाङ्गुलप्रमाणमूर्तयः सिंहासने पूज्याः तदधिकप्रमाणमार्तयः प्रतिष्ठाप्यार्चनीयाः। अस्थापितानां तेषां पूजाया अनिष्टत्वात्। तच्च स्थापनं शुभकाले कृतं चेच्छुभं स्यात्। दुष्काले कृतमशुभं स्यात्। तथा च गुरुः —
अस्थापितस्य देवस्य पूजैवानिष्टदा भवेत्।
स्थापनं च शुभे काले कृतं शोभनदं भवेत्॥
इति। देवप्रतिष्ठाकालमाह —
** त्याज्यं दक्षिणमन्यविष्टमयनं देवप्रतिष्ठापने कुम्भे भानुरनिष्टकृत् स च शुभो जीवेन दृष्टोऽथवा। पुष्यान्त्यादि1तिरोहिणीदिनकरस्वात्युत्तराः कीर्तिताः श्रेष्ठाश्च स्थिरराशयो द्वितनवो मध्याश्चरा निन्दिताः ॥१॥**
** **देवानां सर्वेषां प्रतिष्ठायां दक्षिणमयनं त्याज्यम्। अन्यदुत्तरमयनमिष्टम्।
तथाचाऽहुः —
दक्षिणायनगे सूर्येप्रतिष्ठा प्राणहारिणी।
उत्तरायणगे सा च सर्वकार्यार्थसिद्धये॥
इति। नारदोऽपि—
श्रीप्रदं सर्वगीर्वाणस्थापनं चोत्तरायणे।
गीर्वाणपूर्वगीर्वाणमन्त्रिणोदृश्यमानयोः।
चैत्रादिष्वेव मासेषु मघादिषु च पञ्चसु॥
इति। उत्तरायणेऽपि कुम्भे सूर्योऽनिष्टकृत्। तत्र सूर्यो जीवदृष्टश्चेत् शुभो भवति।
प्रतिष्ठा कुम्भमासेऽपि वर्ज्या गुरुदृगुज्झिता।
इति वचनात्। चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन दक्षिणायनेऽपि विष्णुप्रतिष्ठायां श्रावणः शस्त इति।
विष्णोश्च श्रावणं मासं विशेषेण शुभं विदुः।
इति वचनात्। अथशब्दो मतान्तरद्योतनार्थः। तेनोत्तरायणे चान्द्राः पुष्यादयः षण्मासाश्श्रेष्ठाः इति। तथा च गुरुः —
पौषे राज्यविवृद्धिः स्यात् माघमासे तु सम्पदः।
फाल्गुने द्रव्यलाभाय चैत्रे मासि श्रियावहम्॥
अतीव सौख्यं वैशाखे ज्येष्ठे मासि श्रियावहम्।
आषाढे स्थापितो देवो यजमान विनाशनः॥
सौरमानेन विज्ञेयः श्रावणे राज्यराष्ट्रहा।
भाद्रपादे जनक्षोभमश्वयुज्य(थ)पि राजा॥
कार्तिके शत्रुवृद्धिः स्यात् मार्गशीर्षे धनक्षयः।
इति। कैश्चिद्वर्णक्रमान्मासा उक्ताः। यथा —
फाल्गुनादि चतुर्मासाःचतुर्वर्णक्रमाच्छुभाः।
सर्वेषां पौषमाघौद्वौ विबुधस्थापने शुभौ॥
सर्वासामेव जातीनां वसन्तः शोभनो भवेत्।
विशेषादभिषिक्तस्य भूपस्य शुभदः सदा॥
तिथयश्च वर्णक्रमादुक्ताः। यथा -
पूर्वपक्षःशुभः प्रोक्तः कृष्णश्चान्त्यत्रिकं विना।
ब्राह्मणानां द्वितीया च तृतीया चातिशोभना॥
क्षत्रियणां तु पञ्चम्यां सप्तमी शोभनप्रदा।
वैश्यानां दशमी प्रोक्ता शूद्राणां च त्रयोदशी॥
कदाचित् प्रथमा शस्ता द्वादश्येकादशी तथा।
षष्ठी च ब्राह्मणादीनां क्रमेण यदि सङ्कटे॥
बलवद्गुरुणा दृष्टे चन्द्रे शोभनकर्माणि।
इति। स्वतिथिवारादयः शस्ता इत्यन्ये॥तथा च श्रीपतिः -
अथामरस्थापनमुत्तरायणे
स्वदेववारर्क्षतिथिक्षणादिषु।
सिते च पक्षे शशितारयोर्बले
विधौ बिलग्नेच शुभावलोकिते॥
इति। देवतानां तिथ्यादयः संज्ञाया मुक्तं (?) प्रतिवारफलं च तेनैवोक्तम्॥
तेजस्विनी क्षेमकृदग्निदाह
विधायिनी स्याद्वरदा दृढा च।
आनन्दकृत् कल्पनिवासिनी च
सूर्यादिवारेषु सुरप्रतिष्ठा॥
इति। अन्ये वर्णक्रमाद्वारानाहुः -
विप्राणां शुभदौ वारौ स्थापने गुरुशुक्रयोः।
वारौ दिवाकरेन्द्वोस्तु क्षत्रियाणां शुभावहौ॥
वैश्यानां बुधवारस्स्यात् शूद्राणां मन्दवासरः।
जीवशुक्रबुधानां वा सर्वेषां शोभनाः स्मृताः॥
पापग्रहाणां वाराश्च बलिनां तु शुभावहाः।
ब्राह्मणानां शुभौ प्रोक्तौ करणौ बवबालवौ॥
ततो द्वौ क्षत्रियाणां तु ततो द्वौ वैश्यशूद्रयोः।
इति। सर्वदेवताप्रतिष्ठानां सामान्येन पुष्यादीनि नव भानि शुभानि प्रोक्तानि। तथा च ज्योतिषार्णवे —
उत्तरात्रितयं चैव पुष्यादित्यदिवाकराः।
शर्वपौष्णानिलाश्चैव शुभाः स्युर्देवतालये॥
इति। एतैस्सह सौम्याश्विपितृभित्रहरिवमुवारुणर्क्षण्यपि शस्तानीति नारदः —
त्त्युत्तरादिति सौम्यान्त्यहस्तत्रयगुरूडुपु।
साश्विधातृजलाधीश हरिमित्रवसुष्वपि॥
इति। गुरुणा वर्णक्रमादुक्तम्—
उत्तरात्रिकपुष्याश्वि (?) ब्राह्मणानां शुभावहा।
श्रवणं हस्तमूले च क्षत्रियाणां शुभाः स्मृताः॥
वैश्यानां स्वातिमैत्रं च पौष्णं चैव शुभावहम्।
शूद्राणामश्विनी श्रेष्ठा तैतिलस्थापने मता॥
सर्वेषां रोहिणीपौष्णपुनर्वस्विन्दवश्च ते।
सुश्रेष्ठा इति निर्दिष्टाः रौद्रं लिङ्गस्य शोभनम्॥
ऐन्दवै च पुनर्वस्वोर्वासवे त्वाष्ट्रभेतथा।
कदाचित् सम्प्रशंसन्ति चन्द्रे गुरुदृशा युते॥
इति। राशयश्च स्थिराः श्रेष्ठाः। उभयराशयो नेष्टाः।
एतदुक्तं गुरुणा प्रतिराशिफलकथनेन —
वंशनाशाय मेषः स्स्यात् वृषे स्युः सर्वसम्पदः।
मिथुने स्युः शुभाः सर्वे कर्कटे वाऽर्थनाशनम्।
इष्टार्थसिद्धयः सिंहे कन्यकायां शुभायतिः।
तुलायां मरणं शग्निंवृश्चिके सर्वसम्पदः॥
चापे वित्तसुखाप्तिश्च मृगे स्यादर्थनाशनम्।
कुम्भे शुभसमृद्धिः स्यात् मीने स्यात् सर्वशोभनम्॥
राशिस्वभावतः प्रोक्तं फलं कर्तृनरेन्द्रयोः॥
नगरामराष्ट्राणां प्रतिष्ठायां विशेषतः।
इति। राशयःशुभयुतेक्षिताः सर्वेऽपि शुभाः इति नारदः —
राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतेक्षिताः॥
इति। गुरुणा विशेष उक्तः —
ब्राह्मणक्षत्रियाणां तु शोभनाः स्थिरराशयः।
उभया राशयो वैश्यशूद्राणां शुभदास्मृताः॥
चराश्च गुरुणा दृष्टाः शुभयुक्तास्तु शोभनाः।
ऊर्ध्वास्या श्च दिवा श्रेष्ठाः सर्वे सम्पत्प्रदाश्च ते॥
इति। श्रीपतिना प्रतिदेवतं केचिद्राशय उक्ताः —
सिहोदये दिनकरो, मिथुने महेशो,
नारायणश्च युवतौ, घटभेऽब्जजन्मा।
देव्यो द्विमूर्तिभवनेषु, निवेशनीयाः
क्षुद्राश्चरे स्थिरगृहे निखिलाश्च देवाः॥
इति। अपि च —
शुभांशः शोभनो लग्ने पापांशोऽपि शुभैर्युतः।
शुभग्रहांशकान् पापलग्नराशिषु वर्जयेत्॥
शुभांशस्थःशुभश्चन्द्रः पापांशस्थो न शोभनः।
स्थिरराशौ शुभं विद्यादुभयोःशोभनं भवेत्॥
विनाशश्चरराशौ तु जीवशुक्रयुतेऽपि च।
केचित् शुभमिति प्राहुः देवतानां गृहे तथा॥
स्थिरांशे चोभयांशे च सर्वत्र शुभदो भवेत्।
इति ज्योतिषार्णवे। गोचरफलमाह —
** लग्ने दिवाकरविधुन्तुदमन्दभौमाः कुर्वन्ति राज्ययजमाननरेन्द्रनाशम्। स्वेष्टास्पदेषु शुभदा निधनेन सर्वे शुक्रो व्यये च सलिलव्यययोश्च चन्द्रः॥२॥**
** **लग्नस्थाःसूर्यादयः पापा राज्यादिनाशं कुर्वन्ति। अष्टमे सर्वे अशुभाः, शुभा नेष्टाः, सर्वेऽपि2 स्वष्टस्थानेषु शुभाः केन्द्र त्रिकोणेषु, पापस्त्रिषष्ठयोः, सर्वेऽपि लाभे शुभास्स्युः।शुक्रो द्वादशे न शुभः।चन्द्रो द्वादशे चतुर्थे च न शुभः। चकारात् लग्नेऽपि। तथा च गुरुः —
चन्द्रलग्ने दरिद्रस्स्यात् यजमानश्च भूमिपः।
आदौ राष्ट्रविनाशस्स्यात् मध्ये ग्रामविनाशनः॥
आरार्कराहु3सौराणामेको लग्नगतो यदि।
ग्रामं जनपदं भूपं यजमानं च नाशयेत्।
प्रकाशकालात् षण्मासं फलदस्सिंहिकासुतः॥
अन्यदा सर्वगो नैव सकेतुस्स्वफलप्रदः।
शुभग्रहा विलग्नस्थाः सर्वे सम्पत्प्रदाः सदा॥
विशेषात् स्वगृहस्वोच्चस्वांशगाश्चाऽऽधिराज्यदाः॥
नारदस्तु —लग्ने चन्द्रो वर्ज्यःपूर्णेन्दुर्ग्राह्य इत्याह—
लग्नस्थास्सूर्यचन्द्रारराहुकेत्वर्क4सूनवः।
कर्तुर्मृत्युप्रदाश्चान्ये धनधान्यशुभप्रदाः॥
पूर्णःक्षीणःशशी लग्नेपुत्रदः पुत्रन्मशनः।
इति —
सचन्द्राः शुभदास्सौम्याः धने पापा धनापहाः।
तृतीये शुभदास्सर्वे चतुर्थेऽपीन्दवश्शुभाः॥
शुभा न शुभदाः षष्ठे पापाःशुभफलप्रदाः।
स्थानभ्रंशं सितेन्दुज्ञाः षष्ठे जीवोऽरिवृद्धिदः॥
नारदेन षष्ठे चन्द्रः शुभ उक्तः —
षष्ठे शुभा शत्रुदास्स्युः पापा श्शत्रुक्षयप्रदाः।
पूर्णःक्षीणोऽपि वा चन्द्रः षष्ठेऽखिलरिपुक्षयम्॥
करोति कर्तुरचिरादायुःपुत्रधनोदयम्।
व्याधिदास्सप्तमे पापाः सौम्याश्च श्रीप्रदास्सदा॥
गुरुणा सप्तमे बुधशुक्रौ5 न शुभावुक्तौ —
सप्तमे गुरुचन्द्रौ तु धनवृद्धिकरौ तथा।
पिशाचभवनं शुक्रो बुधः पुत्रमृतिं भयम्॥
भास्करो मरणं कर्तुः भौमो वह्निभयप्रदः।
सौख्यनाशकरो मन्दः सप्तमे ग्रामराष्ट्रयोः॥
सर्वे ग्रहा मृतिस्थाने नृपस्य कुलनाशनाः।
शुभाशुभास्तु धर्मस्था धर्मस्यैव शुभाशुभाः॥
व्योम्नि स्थानहराः पापाः शुभाः कीर्तिसुखार्थदाः।
एकादशगतास्सर्वे नृपकर्त्रोःशुभेष्टदाः॥
सेन्दुशुक्रा व्यये क्रूरा दारिद्र्यं कर्तृराष्ट्रयोः।
बुधजीवौ व्ययस्थौ तु नृपराष्ट्रविवर्धनौ।
द्वादशे सर्वेऽपि न शुभा इति नारदः—
व्ययस्थानगतास्सर्वे बहुव्ययकरा ग्रहाः।
इति। श्रीपतिश्च —
सौम्या लग्नाद्याश्रिता मूर्तिपूर्वान्
भावान् वीर्यैरुत्कटा वर्धयन्ति।
षष्ठं हित्वा भावमेते हि यत्र
शत्रुध्वंसं कर्तुरुत्पादयन्ति॥
सर्वत्र स्वोच्चमित्रभेषु स्थितश्चन्द्रोऽन्यो वा शुभः। अन्यभेषु न शुभकृत्। तथा च गुरुः —
चन्द्रे गवि शुभैर्दृष्टे यजमानस्य शोभनम्।
मित्रभे मित्रवृद्ध्यै च रिपुभेऽरातिदो विधुः॥
अनिष्टस्थानसंस्थोऽपि प्रशस्तफलदश्शशी।
सौम्यभागाधिमित्रेण गुरुणा वा विलोकितः॥
वक्ष्यमाणराजादीनां जन्मत्रयमपि त्याज्यमित्यन्ये। तथा च, ज्योतिषार्णवे—
त्रिजन्मर्क्षादि (क्षत्र) पर्याये न कुर्याद्देवतागृहम्।
आयुरारोग्यवृद्धिस्स्याद्दग्धदेवगृहं विना॥
इति। दग्धदेवगृहस्य सद्यो निर्माणमिष्टमिति तत्र साधारणस्यापि कालस्येष्टत्वाद्दग्धदेवगृहं विनेत्युक्तम्॥
** महीपतेश्च कर्तुश्च तत्तद्ग्रामाधिपस्य च। अष्टमद्वादशौ राशी त्याज्यौ शेषाश्शुभावहाः॥**
तद्राज्याधिपस्य राज्ञः कर्तुः पुरुषस्य तद्ग्रामाधिपतेः प्रभोश्च
त्रयाणामेषां ;चकारात् तद्देवतायाश्च एतेषां चतुर्णां अष्टमद्वादशराशी त्यजेत्॥शेषा राशयश्शुभाः। अत्र गुरुः —
देवप्रतिष्ठा लग्ने स्यात् जन्मन्यायुर्विवृद्धिदा।
धनवृद्धिर्द्वितीये स्यात्तृतीये विक्रमर्द्धिदा॥
गृहबन्धुसुखादीनां वृद्धिदा स्याच्चतुर्थभे।
बुद्धिपुत्रश्रियां वृद्धिः पञ्चमर्क्षे प्रतिष्ठया॥
षष्ठे शत्रुक्षयाय स्यात् सप्तमे चिन्तितार्थदा।
अष्टमे मृत्युदा राज्ञो नवमे धर्मवृद्धिदा॥
दशमे कर्मणां वृद्ध्यै भवेत् सर्वशुभाय च।
द्वादशे सर्वनाशाय जन्मभात् कर्तृभूपयोः॥
इति। अत्र चकाराणामनुक्तसमुच्चयार्थत्वात् राजादीनां जीवादिबलमपि ग्राह्यमित्युक्तम्। तथा च गुरुः —
भूपस्य यजमानस्य शुभगोचरगे गुरौ।
ग्रामस्य शुभगे जीवे मन्दे सर्वशुभप्रदे॥
नारदोऽपि –
कुजवर्जितवारेषु कर्तुस्सूर्ये बलप्रदे।
चन्द्रताराबलोपेते पूर्वाह्णे शोभने दिने॥
इति। अपि च गुरुः —
दोषाणि यानि दृष्टानि दोषाध्याये मया पुरा।
तानि सर्वाणि वर्ज्यानि प्रतिष्ठायां शुभार्थिभिः॥
गुणानि यानि चोक्तानि गुणाध्याये मया पुरा।
तानि सर्वाणि योज्यानि यथालाभं शुभार्थिभिः॥
दोषाणामपवादेषु सत्सु दोषा न सन्ति हि।
अपवादापविद्धा ये दोषास्तान्नात्र चिन्तयेत्॥
रात्रौ न स्थापयेद्देवान् दिने राशिसमन्विते।
रात्रौ दिनांशके केचित् प्रशंसन्ति शुभान्विते॥
इति। रात्रिचरा रात्रौ स्थाप्याः। दिनचरा दिवैवेत्येतत्तत्तद्देवतानां प्रकृत्या सिद्धम्॥ तथा चोक्तम्—
रात्रौ रात्रिचराणां तद्दिनैवदिनचारिणाम्।
इति। विद्याधरादीनामहर्निशाचरणामपि दिवैव यत उक्तं —
दिवा विद्याधरा रुद्रगणेशस्कन्द मन्मथाः।
धनेशस्तत्प्रविष्टा ये अयनं चोत्तरं शुभम्॥
इति। प्रतिदेवतं नक्षत्राण्याह—
** चित्राज्येष्ठाचतुर्थीदिनकरदिवसा विघ्नराजस्य शस्ता दुर्गायास्स्थापनायां शनिदिननवमीवह्निचित्राः प्रदिष्टाः। श्रीभर्तुः पौर्णमासी मुररिपुवरुणौ भौमवारस्तु कैश्चित् शैवानां शूलपाणेरपि च गिरिशभंविष्णुवच्चेतरेषाम् ॥३॥**
विघ्नेशस्य प्रतिष्ठायां चित्राज्येष्ठे द्वे तारे श्रेष्ठे चतुर्थीतिथिश्च सूर्यवारश्च शस्तः चतुर्दशी च। तथा च गुरुः —
चतुर्दशी चतुर्थी च चित्रा ज्येष्ठा च शोभना।
गणेशस्य प्रतिष्ठायां सूर्यवारांशकादयः॥
इति। तथा च दुर्गायाः प्रतिष्ठायां शनिवारो नवमीतिथिः कृत्तिका चित्रे च तारे शुभे उक्ते। तथाच गुरुः —
नवमी कृत्तिका चित्रा दुर्गायास्तु विशेषतः।
प्रतिष्ठायां समुद्दिष्ठाः मन्दवारांशकादयः॥
इति। चाण्डकायाःस्थापनायां च कृत्तिकादनि शुभानि।
तथाच गुरुः—
कृत्तिका च विशेषेण चण्डिकायां प्रशस्यते।
इति। तस्या अपि दुर्गांशजत्वात्। श्रीभर्तुः विष्णोः पौर्णमासीश्रवणवारुणगानि शुभानि। कैश्चित् भौमवारश्च शुभ उक्तः। पूर्वं सामान्योक्ततारादीनि चकारादनुक्तानि च तारादीनि शास्त्रान्तरोक्तानि च ग्राह्याणि। अत्र श्रीपतिः —
रोहिण्युत्तरपौष्णवैष्णवकरादित्याऽश्विनीवासवा-
नूराधैन्दवजीवभेषु गदितं विष्णुप्रतिष्ठापनम्।
पुष्यस्वात्याभिजित् सुरेश्वरकयोर्वित्ताधिपस्कन्दयो-
मैत्रे तिग्मरुचेः करे हिमकरे दुर्गादिकानां शुभम्॥
गणपतिवृषरक्षोयक्षभूतासुराणाम्
प्रमथ फणिसरस्वत्यादिकानां च पौष्णे।
श्रवसि(?)सुतानां वासवेड्ये कुपाति
निगदितमखिलानां स्थापनं च स्थिरेषु॥
सप्तर्पयो यत्र चरन्ति धिण्ये
कार्या प्रतिष्ठा निखिलार्थसिद्ध्यै।
श्री व्यासवाल्मीकि घटोद्भवानां
तथा स्मृता वा प्रतिभा ग्रहाणाम्॥
इति। नारदः —
श्रवणे श्रावणे चैव वारुणे पौर्णमास्यपि।
विशेषाद्विष्णुसंस्थाने कुजवारांशकादयः॥
इति। तत्र राशयश्चान्यत्रोक्ताः—
कुम्भवर्ज्याः स्थिरास्सर्वे कुलीरमृगकन्यकाः।
चाण्डकायाः प्रतिष्ठायां विशेशेण शुभावहाः॥
इति। नारदः —
क्रमाद्द्वितीयादि द्वयोः पञ्चम्यादि तिसृष्वपि।
दशम्यादि चतसृषु पौर्णमास्यां विशेषतः॥
इति। शूलपाणेरीश्वरस्यशैवानां वीरभद्रादीनां च प्रतिष्ठायां गिरिशभमार्द्रा शस्यते। अपि शब्दः सामान्यतारादिसमुच्चयार्थः। तेन सामान्योक्ततारादिर्ग्राह्यः। चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन अनुक्तानि मघामूलानि गृह्यन्ते। उक्तं च प्रयोगमञ्जर्याम्—
हस्तोत्तरात्रयपुनर्वसुपुष्यपौष्ण-
मैत्रेन्दुवैष्णवमघा प्रमथप्रजेशाः।
चित्राजलेशवसवः पवनस्समूलः
शस्ताश्शिवाध्वरविधावितरेऽत्र वर्ज्याः॥
शुभदाः कीर्तिता रिक्ताः विष्टिं मुक्त्वाविशेषतः।
तिथयः पूर्वपक्षे स्युः लिङ्गसंस्थापने शुभाः॥
इति। आर्द्राऽष्टमीचतुर्दशीसूर्यवाराश्चात्र शुभाः ईश्वरदैवत्वात्। इतरेषां ब्रह्मेन्द्रादीनां प्रतिष्ठायां विष्णुवत् — विष्णुप्रतिष्ठावत् – काल इत्यर्थः। शास्त्रान्तरोक्तस्तत्तद्विशेषोऽपि द्रष्टव्य इत्यर्थः। तथाच गुरुः—
एवं लिङ्गप्रतिष्ठायां शङ्करोक्तविभेदकैः।
वैरभेदेषु सर्वेषु समानं सुरसत्तम॥
कलिप्रतिष्ठा चेन्द्राग्नेः श्रीप्रतिष्ठोत्तरासु च।
प्रोक्तशुभकालस्य अल्पैर्दिनैदुर्लभत्वात् अशेषदोषनिश्शेषकान् विशेषशुभपोषकान् प्रतिष्ठायोगानाह —
सौम्योऽधिश्रितकण्टकोऽतिबलावानिन्दुश्शुभांशेसुकृत् चन्द्रे चोपचये त्रिषड्भवगतः पापः स्व-
तुङ्गस्थितः। लग्नाद्युग्मगृहे शशी यदि शुभाः केन्द्रत्रिकोणेऽपि वा मेषेऽर्के भृगुजे तनौ सुरगुरुः केन्द्रेऽनुकूलो विधुः ॥४॥
** शुक्रेन्दूवृषभे शुभांशकगतौ लग्नाधिपेलाभगे लाभेऽर्के यमगे भृगुस्तनुगतस्तौम्ये च कर्मस्थिते। मीनेऽर्के भृगुजे तनौ शशिगुरूकेन्द्रत्रिकोणाश्रितौ योगास्सप्त शुभप्रदा निगदिताश्श्रेष्ठाः प्रतिष्ठाविधौ ॥५॥**
लग्नात् त्रिकोणे केन्द्रे वा बलवान् स्वतुङ्गवर्गगः शुभः कश्चित् स्थितः चन्द्रः सुकर्मा शुभांशके यदि स्यात् एको योगः।चन्द्रदृष्टस्थानगः स्वोच्चगः पापः त्रिषडायगश्चेदन्यः।लग्नाद्युग्मराशौ सुकर्मा सौम्यांशगो बली चन्द्रो यद्यपरः।तादृक्चन्द्रः शुभांशकेन्द्रे त्रिकोणे स्थितो वा अपरः। मेषस्थेऽर्केऽनुकूले लग्ने शुक्रे गुरौ लग्नकेन्द्रे स्थिते चन्द्रोऽनुकूल उपचयगतो यद्यन्यः।लग्नाधिपे लाभगे शुक्रचन्द्रौ शुभांशगौ वृषभे अनुकूलौ यद्यपरः। लाभेऽर्क इत्यादिकोऽन्यः।यमगे— मिथुनराशिग इत्यर्थः मीनेऽर्कः इत्यादिकोऽपरः। एतेऽष्टौ योगाःदेवतानां प्रतिष्ठाकर्मणि सुखारोग्यधनसम्पद्देवतासन्निध्यादिशुभप्रदा भवन्ति। अत्र गुरुः—
स्थानादिबलवान् सौम्यः त्रिकोणे कण्टके गतः।
शुभकर्मगते चन्द्रे शुभांशे स्थापना शुभा॥
निजतुङ्गगते पापे भवारित्रितये बले।
लग्नादुपचये चन्द्रे स्थापना शोभना भवेत्॥
लग्नर्क्षाद्युग्मभे चन्द्रः शुभकर्मा यदि स्थितः।
बलवान् शोभनांशे च प्रतिष्ठायां शुभावहः।
वृषभे चन्द्रशुक्रौ द्वौ बलिनौशुभवर्गगौ।
गुरुः —
त्रिकोणे कण्टके वाऽपि शुभा यदि बलान्विताः।
लग्नेशो वा भवेद्योगः प्रतिष्ठायां सुशोभनः॥
इति। अपि च श्रीपतिः —
केन्द्रत्रिकोणभवमूर्तिषु सद्गृहेषु
चन्द्रार्कभौमशनिषु त्रिषडायगेषु॥
सान्निध्यमेति नितरां प्रतिमासु देवः
कर्तुःशुभार्थसुखसम्पदरोगिता च॥
गुरुः —
लग्नचन्द्रांशकेन्द्रेषु शुभे बलसमन्विते।
स्वोच्चस्ववर्गे वा योगः प्रतिष्ठायां शुभप्रदः॥
मन्दे (नवांशगे?) नीचांशगे लग्ने नीचारातिग्रहैर्विना।
कार्याणि स्थावराण्याहुः स्थाप्याश्च विबुधास्तथा॥
लग्ननाथाष्टवर्गेषु लग्नकण्टकसंहतिः।
यदि स्यात् भूयसी राज्ञा स्थापना शोभना भवेत्॥
जलसम्प्रोक्षणादौ तु कथितं सकलं शुभम्।
यथालाभमलाभे तु जलसम्प्रोक्षणादिषु॥
दक्षिणायनमासेऽपि कन्याकर्कटकं विना।
शेषा मासाश्शुभाः प्रोक्ताः पुनस्संस्कारपूर्वकम्॥
इति। अथ —
वेदोक्तकर्मसंसिद्ध्यै ब्राह्मणान् गाश्च निर्ममे।
तेषां संरक्षणार्थाय क्षत्रियानसृजत् प्रभुः॥
इति। गो विप्रदेवतारक्षणार्थं लब्धजन्मनां राज्ञामभिषेकाख्यसंस्कारविशषस्य कालमाह—
** भूपानामभिषेचने गुरुरपि श्रीनाथमित्रोत्तरारोहिण्याश्विनशक्रपौष्णशशिनः श्रेष्ठाः प्रतिष्ठाविधौ। भानुर्भद्रकृदुत्तरायणगतः कुम्भाङ्गनाकर्किगः त्याज्योऽन्यत्र तु मध्यमोऽत्र करणं श्रेष्ठं स्मृतं कौलवम् ॥६॥**
वीर्यान्वितेषु नृपजन्मदशाविलग्नवर्णाधिपेषु नृपतेरभिषेकमाहुः।साम्राज्यसम्पदतिवीर्यगुणैश्च युक्तश्चान्यत्र वेरिभिरतीव निपीडितोऽसौ ॥७॥
** **राज्ञामभिषेके पुष्यादिद्वादश ताराः शस्ताः त्वाष्ट्रं च शस्तमिति। विधिरत्ने —
उत्तरायणस्थसूर्यः शुभकृत्। उत्तरायणे कुम्भराशिगतो दक्षिणायने कन्याकर्किगतो वर्ज्यः। यथोक्तं ज्योतिषार्णवे —
कन्याकुम्भकुलीरस्थे भानौ वर्ज्यं विशेषतः।
इति। अन्यत्र —सिंहतुलाकीटराशिषु गतो मध्यमः। गुरुः —
शुक्लपक्षेऽतिशस्तस्स्यात् कृष्णे चान्त्यत्रिकं विना।
ओजास्सर्वे शुभाः प्रोक्तास्तिथयो नवमीं विना॥
अथाऽतः संप्रवक्ष्यामि मङ्गलाङ्कुरवापनम्।
सर्वमङ्गलकार्येषु सर्वसंस्कारकर्मसु॥
पुष्ट्यादिवृद्धिहेतुत्वात् कर्तव्यं मङ्गलाङ्कुरम्।
गर्भवर्ज्योत्सवात् पूर्वमयुग्मेऽप्यङ्कुरार्पणम्॥
प्रदोषे वाऽथ सायाह्ने गुणाधिक्येऽह्नि वेष्यते।
नवमे सप्तमे वाऽह्नि पञ्चमे वा तृतीयके॥
सद्योऽङ्कुरान् वा कुर्वीत कर्मणां पूर्वमेव तु।
अङ्कुरं चान्यमासे तु सौरे चान्द्रे विनाशनम्॥
दिवा कार्ये दिवा कुर्यात् निशि कार्ये निशाङ्कुरम्।
प्रदोषान्तेऽथ वा कुर्यात् रात्रौ केचित् प्रचक्षते॥
सायाह्ने वाऽङ्कुरं कुर्यात् शुभचन्द्रनिरीक्षणे।
गुणयुक्ते मुहूर्ते तु स्वामिदृष्टे शुभेक्षिते॥
ओषधीशे बलैराढ्येशुभकर्मरतेऽपि च।
पुष्करे वोत्तमे स्वोच्चे शुभभागे निशापतौ॥
अङ्कुरात् पुष्टिहेतुस्स्यात् यथा दानं द्विजोत्तमे।
गुरुशुक्रनिशानाथसौम्यानां बलचक्षुषाम्।
जुष्टे चान्यतमे लग्ने वापयेन्मङ्गलाङ्कुरम्।
सम्पूर्णमार्जवं शुक्लवर्ण स्निग्धं शुभाङ्कुरम्॥
पिपीलिकाद्यैर्दष्टं च विवर्णादिशुभेतरत्।
दोषदुष्टाङ्कुरं कृक्त्वा हुत्वा होमं द्विजार्चनम्॥
कृत्वा ततोऽङ्कुरं कृत्वा पश्चात् कार्यं समाचरेत्।
यद्यपि सर्वकार्येष्वपि विशेषेणाङ्कुरार्पणमुक्तम्। तथाऽपि यात्रादिपु केषुचिन्न कार्यम्। तथा च ज्योतिषार्णवे -
श्राद्धे केवलयात्रायां क्षुरकर्माभिचारके।
पुंसवे चैव सीमन्ते निषेके जातकर्मणि॥
क्षुद्राद्यशुभकार्येषु वापयेन्नैव चाङ्कुरान्।
इति। अत्र “कुम्भे भानुरनिष्टकृत्” इति कुम्भमासस्यानिष्टकृत्त्वाभिधानात् सर्वेऽपि मासास्सौरा एव ग्राह्या इत्युक्तं भवति। तथाच गुरुः — “सौरमानेन विज्ञेयः” इति। अथवेति विकल्पशब्दःसिंहावलो (कितं) कनन्यायेन दक्षिणायनं त्याज्यामित्यत्र संबध्यते। तेन दक्षिणायनमपि क्वचिद्देवयोनीनां विबुधेतरेषां च प्रतिष्ठायां विबुधानां च पुनःस्थापनायां ग्राह्यमिति। तथा च ज्योतिषार्णवेऽभिहितम् —
किन्नरा यक्षमारीचाःपिशाचा भूतचारिणः।
विष्णोःपारिषदाश्चैव शिवपारिषदाश्च ये॥
असुराः पूतना ज्येष्ठाः सिद्धगन्धर्वगुह्यकाः।
राक्षसाश्चोग्रदेवाश्च क्षुद्रमातृगणास्तथा॥
निशाचराश्चविज्ञेयास्त्वन्येऽपि विबुधेतराः।
याम्यायने प्रतिष्ठायां शस्ता मध्या तथोत्तरे॥
सिंहालिकार्तिके मासि शुभलग्ने शुभे तिथौ।
पुण्यं (पुनः) स्थापनकर्म स्यादिति काश्यपशासनम्॥
इति।
** शुभा बुधाचार्यसितोष्णभासामनस्तगानामुदयांशवाराः।स्वोच्चेऽखिलानामुदयोऽत्र पूज्यः स्थिराः प्रशस्तास्सयमा विकुम्भाः ॥८॥**
अनस्तगानामुदितानां शुभानामर्कस्य च वारोदयांऽशाः नृपाभिषेके शुभाः स्युः। तथा च गुरुः —
बुधार्कजीवशुक्राणां वारवर्गोदयाश्शुभाः।
तेषां वाऽस्तगतानां तु तत्र (तन्त्र) वन्न (क्षेत्रवर्गाः) शुभावहाः॥
इति। अन्ये सूर्यवारे शस्त्रमयमाहुः। तथा च विधिरत्ने —
सूर्यस्य वारे यदि शस्त्रबाधां संप्राप्य पश्चादपि बा (ध्य) ते तत्।
सोमस्य भोगी सततं कुजस्य स्त्रीभिस्सपत्नैश्च सुतैश्च पीड्य॥
बौधे सुतान् विन्दति जीववारे पुत्रांश्च वित्तं लभतेऽभिषेके।
शुक्रस्य वारे यदि दीर्घजीवी नीलस्य वारे म्रियते विषेण॥
इति। तेषां अंशोदयफलं च तत्रैवोक्तम् —
प्रभान्वितस्स्यादथ सोमभागी पराजितो दानरतोऽतिबुद्धिः।
नृपाभिषेके यदि नीतिशौण्डो रुगागमोऽर्कादिनवांशलग्नैः॥
इति। स्वोच्चस्थितानां सर्वेषामुदयोऽत्र—नृपाभिषके पूज्यःमिथुनसहिताः स्थिरराशयः कुम्भेन विना वृषासिंहवृश्चिकमिथुनराशयश्चत्वारः प्रशस्तास्स्युः। तथा च गुरुः —
श्रेष्ठाः स्थिरगृहास्सर्वे विघटाः सयमा परे।
वर्ज्यास्तु राशयस्सर्वे सौरदृष्टयुता अपि॥
प्रतिराशि फलमुक्तं ज्योतिषार्णवे—
प्रजानां बाधको मेषे वृषे प्रीतिभयो भवेत्।
मिथुने धर्मशीलस्स्यात् दयावान् कर्कटोदये॥
दृढः शूरश्च सिंहे स्यात् स्त्रीसक्तः कन्यकोदये।
जूके वाणिज्यशीलः स्स्यात् वृश्चिके रोषशीलवान्॥
चापे सर्वसुखं विद्यात् प्रवासं मकरे तथा।
कुम्भेऽतियशसा युक्तः प……………झषोदये॥
कन्यालियुग्मगोसिंहा वसिष्ठेनोदिताश्शुभाः।
………..च ये तथा स्थिरे लग्नवर्तिनि च मस्तकोदये।
सद्ग्रहैश्च सहिते विलोकिते क्रूरदृष्टिसमुपास्तिवर्जिते॥
तारकाशशभृतो बले दिने सद्गृहस्य च तथा विरिक्तके।
सद्युते व्ययत्रिकोणकण्टके स्वाष्टमेषु रहितेष्वसाधुभिः॥
इति। वासवादिपञ्चमुहूर्ताः श्रेष्ठाः। तथा च गुरुः—
मुहूर्तो वासवश्श्रेष्ठः तत्परेष्वपि पञ्चसु।
विषनाडिविवर्ज्येषु गुलिकोदयतो विना॥
इति। अष्टमादन्यत्र सर्वत्र शुभाः शुभदा इत्यन्ये। अर्णवे -
शुभग्रहास्तु सर्वत्र शुभदा मृत्युदं विना।
गोचरफलमाह—
** वित्तान्त्यस्थैरपगतधनो बन्धुजामित्रसंस्थैः स्थानभ्रष्टस्सुतनवमगैः सौख्यधीधर्महीनः। हीनोत्साहो भवति खगतैर्मृत्युसंस्थैर्निरायुः रोगी पापैरिह तनुगतैस्स्वोच्चगैर्विक्रमी वा ॥९॥**
** वैरिरन्ध्रनिरतैरतिपापैरीक्षिते शशिनि मृत्युमुपैति। सद्ग्रहेष्वरिपुरिष्फमृतिस्थेष्वायुरादिफलमेति नरेन्द्रः ॥१०॥**
पापैर्द्वितीयद्वादशस्थैश्चोराद्यपहृतधनो भवति। चतुर्थसप्तमस्थैः स्थानच्युतः। पञ्चमस्थैः सौख्यधीहीनः। दशमस्थैरुत्साहहीनः। अष्टमस्थैरायुहीनः। लग्नस्थै रोगी स्यात्। इह नृपाभिषेके स्वोच्चगैः पापैः लग्नस्थैः पराक्रमी भवति। अर्थादेव त्रिषडेकादशेषु शुभमिति सिद्धम्। तथा चोक्तम्—
त्रिषडायगताः पापाःशुभा राजाभिषेचने।
अन्यत्र न शुभाः पापा विशेषान्नाष्टमे शुभाः॥
इति। वाशब्दात् स्वोच्चादिस्थाः पापा अपि शुभवत् फलं दद्युः।
तथा च विधिरत्ने —
नीचारिसंस्था अशुभा ग्रहाश्च स्वभोच्चमित्रर्क्षगताश्शुभा स्यु।
इति। ततः स्वोच्चादिस्थानगताः सर्वत्र शुभं कुर्वन्ति। नीचादिस्था अशुभमेव। तथा च श्रीपतिः —
सुहत्त्रिकोणस्वगृहोच्चसंस्थाः
श्रियं च कीर्तिं चादिशन्ति खेटा।
अस्तं गताश्शत्रुभनीचयाताः
भयाय शोकाय भवन्ति राज्ञाम्॥
इति। शुभग्रहेषु षष्ठद्वादशाष्टमेभ्योऽन्यरांशिषु स्थितेष्वायुर्धनसुखविजयफलं प्राप्नोति। शुभेष्वपि चन्द्रे षष्ठाष्टमस्थे पापदृष्टे सत्यभिषिक्तो राजा मृत्युमेति त (य)थाऽऽहुः—
सर्वत्रगाःशुभखगाः शुभदा भवन्ति
नेष्टं फलं विदधति व्ययषण्मृतिस्थाः।
निधनरिपुगृहस्थे शीतगौ पापदृष्टे
यमसदनमुपैति द्राङ्नरस्सद्ग्रहे च॥
अन्यत् गोचरफलादिकं सर्वं प्रतिष्ठावत्। तथा च नारदः —
इति। अभिषेकयोगानाह —
** तिकोणे लग्ने वा सति सुरगुरौ व्योम्नि भृगुजेक्षते भौमस्सोमो वपुषि बलवानत्रशुभदः। पयस्याज्ञायां वा विबुधगुरुरर्के भवगते सहोत्थस्थो मन्दो दिशति चिरमायुस्सुखगुणान् ॥११॥**
लग्नत्रिकोणेषु गुरुः दशमे शुक्रः षष्ठे भौमः लग्नेचन्द्रश्च यदि स्यादेको योगः। चतुर्थे दशमे वा गुरुः एकादशेऽर्कः तृतीये मन्दश्च यदि
स्यादन्यः। अनयोरभिषेकश्चिरायुस्सुखगुणान् करोति —
त्रिलाभसंस्थौ शशितिग्मरश्मी मेषूरणे चाम्बुगृहे गुरुश्च।
यस्यात्र योगे क्रियतेऽभिषेकः सम्पत्सुखं तस्य चिरायुषं स्यात्॥
** घिषणे तनौ गुरुनवांशके रवेःदिवसोसकौलवसुरेन्द्रतारके। कलयन्ति योगवरमैन्द्रसंज्ञितं स महीपतेरभिमतोऽभिषेचने ॥१२॥**
भानुवारे दिवा ज्येष्ठानक्षत्रे कौलवकरणे लग्ने गुर्वंशके गुरूदयश्चेत् एैन्द्रसंज्ञं योगमाहुः। स च राजाभिषेके शुभदोऽभिमत। उक्तं च —
कौलवे करणे ज्येष्ठायोगे जीवनवांशके।
सूर्यवारे गुरोर्लग्ने ऐन्द्रयोगोऽभिषेचने॥
इति। यत् पुनरुक्तं —
अतिपातिषु कार्येषु अभिषेके नृपस्य तु।
कृत्वाऽभिषेकं योगैन्द्रे पश्चात्कालेऽभिषेचयेत्॥
इति। तत् दुष्टयोगग्रहस्थित्यादिसम्भवे द्रष्टव्यम्। जातकोक्तशुभयोगाश्चाभिषेके ग्राह्या इत्याह —
** अतिचिरपरमामितायुराख्याः सुधुरधुरासुनभाऽनभाधियोगाः।मुनिभिरभिहिताश्च राजयोगाः धरणिपतेरभिषेचने प्रशस्ताः ॥१३॥**
जातकशास्त्रेषूक्ताः ये दीर्घायुर्योगाः परमायुर्योगाःअमितायुर्योगाः धुरधुरायोगा सुनमायोगा सुनभायोगा अधियोगाश्च अन्ये च राजयोगाः चशब्दादन्ये च नाभसा आकृतिसङ्ख्याख्यामुख्या योगाश्च सन्ति। ते सर्वे राज्ञोऽभिषेके प्रशस्ता भवन्ति। एवमुक्तशुभकाले तद्योगे वा दैवज्ञपूजापूर्वकमभिषेकः कार्यः।
तथा च गुरुः—
आदौ सम्पूज्य दैवज्ञं गोभूवस्त्रसुवर्णकैः।
ब्राह्मणैः स्वस्तिवाच्याथ राजानमभिषेचयेत्॥
इति। अत्राऽऽहुः —
सत्यधर्मरतं युक्तं कुलशीलपराक्रमै।
प्रजापालनसंशक्तं राजानमभिषेचयेत्॥
इति। ईदृशगुणयुक्तस्यैव सुमुहूर्तगुणफलयोगसद्भावाद्याह वराहमिहिरो यात्रायाम्—
गुणान्वितस्यैव गुणान् करोति
यात्रा शुभा सद्गृहलग्नयोगात्।
व्यर्था सदोषस्य गुणान्विताऽपि
वीणेव शब्दाश्रयवर्जितस्य॥
इति। तस्मादुक्तगुणयुक्तस्य राज्ञः प्रोक्तकालेऽभिषेकः शुभफलप्रदो भवति। सत्यधर्मनिरतत्वादिगुणहीनस्य अभिषेकः शुभकाले विहितोऽपि दुष्टफलप्रदो भवति। अत्र राज्ञः स्वकृतस्य दुष्कृतकर्मणःप्राबल्याच्छुभफलशंसिनश्शास्त्रस्य न वैय्यर्थ्यमिति मन्तव्यम्। एवं अभिषेकोक्तकाले युवराजादीनामप्यभिषेकः कार्यः। अर्णवे—
अभिषेकोक्तकाले तु यौवराज्याभिषेचनम्।
महिषी मन्त्रिसामन्तगजानां पट्टबन्धनम्॥
अश्वादीनां तथैवोक्तमभिषेकविधिस्स्मृतः।
इति। एवमेव चान्द्रमाससहस्रजीविनोऽन्यस्याप्यायुरादिवृद्ध्यर्थमभिषेकः कार्यः। अर्णवे —
अष्टमासाधिकाशीतिहायने सौरमासतः।
गते चन्द्रसहस्राणां दर्शनं पूर्णमेव च॥
रवि चन्द्रमसोर्गत्योर्योगाद्येऽधिकमासकाः।
मासद्वयं तथा प्रोक्तं पञ्चमे सौरहायने॥
शताभिषेककालस्स्यात् तस्मिन् ऋक्षदिनोदये।
सहस्रविधुसम्पूर्णहायने शतपूरके॥
शताभिषेकं कुर्याद्वा तस्मिन् जन्मदिनेऽथ वा।
तदभावे दिने मासि शुभे काले समाचरेत्॥
नृपाभिषेकवत्काल ……………………… ।
इति। राज्ञा स्वाभिषेकानन्तरं स्वाङ्गभूतगजाश्वादिसङ्ग्रहशिक्षारोहणादिकालमाह —
ऋक्षे क्षिप्रचरे हयादिदमनं स्थास्नौतदारोहणं
नागस्याङ्कायोजनं शनिदिने लग्ने शनौ कारयेत्॥
सद्वारे शुभतारके शुभतिथौ लग्रे ससौम्ये शुभे
सेनाकोशपरिग्रहादि निखिलं कार्यंविदध्यान्नृपः॥
क्षिप्रचरभेषु हयगजादीनां दमनं—शिक्षां कुर्यात्। स्थास्त्नौ—स्थिरनक्षत्रे तेषामश्वादीनामरोहणं कुर्यात्। मृदुभान्यपि ग्राह्याणीति। हस्तत्रितयं श्रवणत्रितयं च पौष्णपुनर्वस्वोर्द्वितयं च सौम्यं मैत्रं च तथा हयकुञ्जरकर्मसु श्रेष्ठमिति॥ नारदेऽपि -
विष्णौ च चरभे क्षिप्रे मृदुभे स्थिरभेषु च।
बाजिकर्माखिलं कार्यं सूर्यवारे विशेषतः॥
दस्रेन्द्वदितिपुष्येषु करादित्रितयेषु च।
गजकर्माखिलं यत्तत् विधेयं स्थिरभेऽपि च॥
इति। सामान्येनाभिहितत्वात्। आचार्यस्तु क्षिप्रचरर्क्षेषु दमनं स्थिरर्क्षेष्वारोहणामिति विशेषेणोक्तवान्। सामान्यस्य विशेषनिष्ठत्वात्। स विशेषश्च
क्षिप्रचरस्थिराख्यनक्षत्रगुणैः सिद्ध्यति। स्थास्नौ तदारोहणमिति पुनरुक्ता मिदं—आरोहणे तयोर्ध्रुवभमिति प्रागुक्तात्वादिति चेन्न, प्राक् नृपादीनां गजाश्वारोहणविद्याविषयं; साम्प्रतं नवानां गजाश्वानामारोहणविषयमुक्तं। अन्यैस्तद्योगाश्चोक्ता—
कृत्तिकाद्यंशके चन्द्रे गजाश्वदमनं शुभम्।
नैर्ऋते शीतगौ लग्ने द्विरदारोहणं शुभम्॥
कुर्याद्वैश्येन्दुलग्नेतु तुरगारोहणं बुधः।
नूतनत्वे द्वयोरश्वसादिनोश्च शुभावहम्॥
इति। शनिवारे शन्युदये शुभवारे शुभोदये वा शुभर्क्षे वा शुभतिथौ गजानां शिरसि प्रथममङ्कुशयोजनं कार्यम्। तथा च गुरुः —
शुभतारासु सल्लग्ने शुभांशे शोभने तिथौ।
अङ्कुशाः करिणां योज्याः शनिलने शनेर्दिने॥
तथा शुभवारे शुभर्क्षे सत्तिथौ सल्लग्ने शुभग्रहोदये सेनाया— बलस्य सम्बन्धिनां गजाश्वभृत्यादीनां सङ्ग्रहं; कोशस्य (धनसङ्ग्रहस्य) धनसञ्चयस्य सङ्ग्रहं आदिशब्देन राजचिह्नानां छत्रचामरान्दालिकाकरङ्कध्वजयानानां परिग्रहं च कुर्यात्॥ तथा च गुरुः—
शुभतारासु सर्वासु शुभवारे शुभांशके।
शुभलग्ने शुभैर्दुष्टे शुभाख्यैस्तिथिभिर्युते॥
एषु योगेषु कृत्यानि शुभान्याखण्डल शृणु।
गजाश्वपशुभृत्यानां सङ्ग्रहं ग्रहवेशनम्॥
एषामारोहणं चैव कर्मकर्तोर्द्वयोर्नवैः।
राज्ञामास्थानपूर्वाणां मण्टपानां प्रवेशनम्॥
……………….. नराणां बन्धुदर्शनम्।
निर्गत्यानुप्रवेशश्च नृपानुग्रहसम्भवाः।
चिह्नवाहनपूर्वश्च प्रतिपद्युदितास्तथा॥
अन्ये त्वाहुः —
गुरुपवनविशाखापौष्णमैत्रोत्तराणि
श्रवणपितृनिर्ऋत्यादित्यसौम्यांशकेषु।
गुरुसितबुधवारे विष्टिरिक्ताविवर्ज्ये-
ष्वखिलतिथिषु लग्ने शोभने दन्तिकर्म॥
दन्तिकर्म – दर्शनसङ्ग्रहादि। तत्र हस्तधनिष्ठारोहिण्यः सोमवारश्च शस्ताः। तथा चोक्तम्—
श्रवणसवितृपुष्यस्वातिपौष्णोत्तराणां
पितृवसुशकटानां मैत्रसौम्यांशकेषु।
सितगुरुशशिवारे सौम्यवारे च तिथ्याम्
यदि दशमीतृतीया सप्तमी पञ्चमी च॥
भवति शुभमुदारं दर्शनं सङ्ग्रहं वा
द्विरदवनकरीणां तैतिलानां नराणाम् ?॥
अत्र विशेषोऽर्णवेऽभिहितः—
शुभदृष्टियुते काले चन्द्रवृद्धिसमन्विते।
उर्ध्वाननयुते रा(हौ)शौ शीर्षे … गृहे॥
गजस्वीकरणादीनि गजशिक्षादयस्तथा।
आरोहणादयस्तस्य गजकर्माखिलं शुभम्॥
गजानां स्थानारम्भकालोऽपि गुरुणोक्तः —
स्थानारम्भे द्विपानामदितिवसुहरिस्वातिमैत्रोत्तराणि
त्वाष्ट्रं पौष्णं च तिष्यं पितृवरुणयुतं पूज्यमुक्तं शशाङ्के।
रिक्तावर्ज्येषु सर्वेप्वपि तिथिषु तथा विष्टिवर्ज्येषु वारे
शुक्रज्ञार्केन्दुजीवे स्थिरगृह उदये सौम्यलग्ने शुभं स्यात्॥
स्वोच्चे स्वर्क्षेऽथवा जीवे शुक्रे वा लग्नगे विधौ।
शुभतारांशके भूपो द्विरदागारमारभेत्॥
गुरौ शुभगृहे लग्ने स्वर्क्षेवा स्वोच्चगे सिते।
चन्द्रे केन्द्रे त्रिकोणे वा द्विरदागारमारभेत्॥
शुभनक्षत्रगे चन्द्रे शुभांशे शुभकर्मणि।
शुभे केन्द्रे स्थिरे लग्ने द्विरदागारमारभेत्।
शुभकेन्द्रे त्रिकोणे वा शुभर्क्षेषु शुभांशके॥
त्रिषडेकादशे पापे गजागारं प्रवेशयेत्।
आर्यम्णर्क्षे च तल्लग्ने गजाश्वनिलयं शुभम्॥
हस्तस्थेन्दुविलग्नेवा तथाऽऽस्थानप्रवेशनम्।
नैर्ऋते शीतगौ लग्ने द्विरदानां प्रवेशनम्॥
शुभेषु वारयोगेषु तुरगागारमारभेत्।
तेषां स्थानप्रवेशं च स्थिरराशौ शुभेक्षिते।
केन्द्रत्रिकोणगे जीवे भवारिभ्रातृगे यमे॥
शुभनक्षत्रगे चन्द्रे हयकर्माखिलं शुभम्।
गुरुस्थानगते शुक्रे यमस्थानगते कुजे॥
विधौ कथितनक्षत्रे हयकर्माखिलं शुभम्।
सुनभादिषु योगेषु शुभनक्षत्रगे विधौ।
गुरुकेन्द्रगते भानौ हयकर्माखिलं शुभम्।
राहौ मन्दांशगे लग्ने गजाश्वागारमारभेत्॥
आदानं च प्रवेशं च कुर्यात्तपां प्रवृद्धये।
सौम्ये मन्दांशगे लग्नेनीचारातिग्रहैर्विना॥
गजाश्वोष्ट्रखरादीनां शालाकर्मप्रवेशनम्।
इत्यादयो गजाश्वशालानिर्माणतत्प्रवेशयोगा द्रष्टव्याः।
हयकर्मसूक्तं —
उत्तमं स्थिरराशौ तु मध्यमं चोभये भवेत्।
होरा चोर्ध्वमुखी मुख्या तथैव च शिरोदयः॥
केन्द्रत्रिकोणगास्सौम्यास्त्रिषडायेषु पापकाः।
शुभप्रदा ग्रहास्सर्वे रन्ध्रगास्तु न शोभनाः॥
चन्द्रे सद्गुणसंयुक्ते हयगे वा विशेषतः।
सुरेश्वरगते वाऽपि वेलावृद्धियुते तथा।
खोच्चमित्रखगेहस्थे शुभोदयनिरीक्षणे।
सुदिने निर्गमे त्वर्के हयकर्माखिलं शुभम्।
अश्वसंग्रहणादीनि तस्य शिक्षादयस्तथा॥
आरोहणादिकं कुर्यात् तस्य सर्वसुखावहम्।
इति। केचित् गजाश्वशालादिकर्मसु लवनवत्कालमाहुः। अर्णवे -
अश्वहस्त्युष्ट्रशालासु रथपत्राङ्गुलादिना।
सभावृक्षेक्षणादीनां कालो लवनवत् स्मृतः॥
इति। स्वरक्षार्थं खड्रदिशस्त्रकरणकालमाह—
** वृषाद्यन्तपादस्थिते सोमपुत्रे कृपाणादिकं कारयेत् साधुशस्त्रम्।स्वहस्तस्थिते संयुगे तत्र शस्त्रे न श्रीतिर्भवेज्जातुचित् शत्रुशस्त्रात्॥१६॥**
बुधे वृषभराशिगे प्रथमान्त्यपादयोः प्रथमे चतुर्थांशे वा सति लग्नगे कृपाणक्षुरिकादीनि शस्त्राणि कारयेत्। शस्त्रमिति जातावेकवचनं। तेषु शस्त्रेषु स्वहस्तस्थितेषु सत्सु धारयितुर्नृपादेर्युद्धेऽपि कदाचित् शत्रुहस्तगतशस्त्रात् भीतिर्नोपपद्यते। शस्त्रकरणे अन्ये योगाश्च गुरुणोक्ताः —
शुक्रमन्दरवयो यदि याताःएकमंशमुदयं च गतास्ते।
नौतटाकपरिखादिविशेषानायुधानि मुसलानि च कुर्यात्॥
एकांशगेषु रविचन्द्रकुजेषु लग्ने
सच्छस्त्रवाहनपरिग्रहरक्षणाद्यम्।
कुर्यात् पुरस्य परिखावृतितोरणादि-
यन्त्राणिशत्रुमरणाय च कर्म तत्र॥
एकांशस्थेष्वारचन्द्रैन्दवेषु
सद्वारर्क्षे सत्तिथौ कर्म कुर्यात्।
बाहास्त्राणां पूर्गृहारामरक्षां
सौधारम्भं मन्दिरारम्भणं च॥
गजाश्वादिरक्षामाह -
** खादिरमायतमश्वद्विपशालाद्वारभुवि खनेत्कीलम्। भौमे मन्दांशगते गजतुरगाणामियं महारक्षा ॥१७॥**
** **मन्दांशगते कुजे लग्नगे सति गजाश्वशालाद्वारभूमौ खादिरं हस्तायतं शङ्कुं खनेत्। गजाश्वानां महती रक्षा स्यात्। अत्र गुरुः -
भौमे मन्दांशगे लग्ने खादिरं कीलमायतम्।
गजाश्वशालाद्वारेषु रक्षार्थं निखनेद्भुधः॥
इति। अपिच -
मन्दार्कशशिनो लग्न एकमंशमुपागताः।
वाहनायुधराज्ञां च रक्षां कुर्यात्तदा बुधः॥
केतौ मन्दांशगे लग्ने मुखपुच्छविवर्जिते।
गोगजाश्वगृहे मध्ये पञ्चगव्यं विनिक्षिपेत्॥
बुधे मन्दांशगे लग्ने कीलं कारस्करं बुधः।
निखनेदश्वशालायां यमाद्यग्न्यन्तादक्षु च॥
व्याघ्रचोरादिरोगैश्च नास्त्यश्वोपद्रवः सदा।
जीवे मन्दांशगे लग्ने वेणुकीलान् सपर्णकान्॥
निखनेद्वारुणास्त्रेण क्षेत्राश्वगजगोशुभम्।
चोरादिमृगबाधाश्च न सन्त्य(भि)तिभयं तथा॥
चन्द्रे मन्दांशगे लग्नेब्रह्मवृक्षस्य कीलकान्।
द्वारि द्वारि दिशि स्थाप्य भयरक्षा भविष्यति॥
स्वात्यारूढे रवौ काले व्याधिसम्पात एव वा।
द्विजैः शान्ति नृपः कुर्यात् गजाश्वानां विवृद्धये॥
अश्वादीनां रोगाद्युपद्रवागमे तच्छान्त्यै मातृशान्तिं कुर्यात्। तथा चाऽर्णवे—
कर्तव्या वाजिकार्येषु मातृशन्तिः शुभावहा।
त्रिषूत्तरेषु मैत्रे च पवने हस्तभे तथा॥
उत्तमं कृष्णपक्षं स्यात् मध्यमं शुक्लपक्षकम्।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां अमावास्यां तथैव च॥
द्वितीयाद्यष्टमान्तं वा क्षयपक्षे सुखावहम्।
भौमवारं प्रशंसन्ति मातृशान्तिविधौ बुधाः॥
इति। उक्तं च खड्गलक्षणे—
खड्गऋक्षग्रहान् गृह्य स्वात्म ऋक्षग्रहानपि।
ज्ञात्वाऽरिमित्रतां तेषां ततः खड्गं तु धारयेत्॥
इति। तत् खड्गादिकं मध्यमाङ्गुलिपर्वणा विमाय ऋ (वृ) क्षाणि (?) ग्राह्यम्। तथा च गुरुः —
नरस्य मध्यमं पर्व मध्यमाङ्गुलिसम्भवम्।
मानाङ्गुलामति ख्यातं द्वितीयं पर्व मध्यमम्॥
मानाङ्गुलमितं शस्त्रमस्त्रं च (वा) स्वा सिमेव वा।
तन्मानं त्रिगुणीकृत्य ध्वजाद्या वसुखाण्डिताः॥
तत्फलम् —
ध्वजे राज्यविवृद्धिस्स्यात् शत्रुपडा विनाशनम्।
आयुर्वृद्धिश्च भूपस्य कोशवृद्धिश्च जायते॥
धूमे तु प्राणनाशस्स्यात् शत्रुवृद्धिश्च जायते।
राज्ञा दण्ड्योऽसिधारी यः सर्वशास्त्रेष्वयं विधिः॥
सिंहे सिंहपराक्रमो बहुधनी दीर्घायुरग्रयो नृणां
अल्पायु शुनके शुचो बहुरिपुः स्यादर्थहानी रणे ।
दीर्घायुर्बहुविक्रमी बहुधनी रुद्रोपमो गोवृषे
नाशश्शत्रुगणैस्समस्तसमरे वित्तादिनां?स्यात्खरे॥
गजे मान्यस्सर्वैर्नृपतिभिरपि स्याद्रिपुपतिः
खगे रोगी नित्यं समरकृतभीत्या रिपुवशः।
भवेदेवं सर्वायुधगणमिते यो (र्यो)ज्य नृपतेः
फलं वाच्यं वज्रिन् गजतुरसङ्ख्यादिरचितम्॥
ऋक्षसङ्ख्यासमं न्यस्य मुनिभिस्ताडयेत्ततः।
सप्तविंशतिभिश्शष्टं नक्षत्रं तुरगादिकम्॥
मेषसिंहहयाःक्ष (त्रा)त्रं वृषकन्यामृगान्त्यजाः।
युग्मतौलिघटा वैश्याः कर्कटाक्षिझषा द्विजाः॥
तत्फलम् —
विप्र आहाररहितः क्षत्रियो विजयी भवेत्।
वैश्यो वणिक् प्रवृत्त्यर्थी शूद्रः श्शुभकरः स्मृतः।
इति। अन्ये त्वाऽऽहुः —
अधमौ क्षत्रविप्रौ तु मध्यमो वैश्यसज्ञितः।
उत्तमः शूद्र इत्युक्तः एवं शस्त्रस्य लक्षणम्॥
इति। केचिदङ्गुष्ठपर्वणा खड्गादिकं प्रमाय ग्रहान् प्रकल्प्य फलं वदन्ति।
खड्गमङ्गुष्ठविमितं विश्वघ्नं मुनिभिर्हरेत्।
शिष्टाङ्गुलैर्ग्रहा ज्ञेया विद्यात्तैस्तु शुभाशुभम्॥
दुःखं सूर्ये शुभं चन्द्रे तेनैवात्मक्षति कुजे।
बुधे बुद्धिर्गुरौ वित्तं शुक्रे शक्तिश्शनौ मृतिः॥
इति। अन्ये त्वाहुः —
तृतीयपर्वपर्यन्तं मानं यत् स्यादनामिकम्।
ज्ञात्वा तत्तेन मानेन क्षुरिकां मुष्टिवर्जिताम्॥
प्रमाय या भवेत् सङ्ख्या तां दिग्भिर्नवभिस्त्रिभिः।
नवभिस्सप्तभिश्चापि चतुर्भिश्च क्रमेण तु॥
निर्हृत्य रविभिश्शक्रैरष्टाभिस्तिथिभिस्तथा।
त्रिधनैर्मुनिभिश्चापि हृत्वा त्वायादिलभ्यते॥
आयो व्ययश्च योनिश्च तिथिर्दस्रादितारकाः।
अर्कादिवाराश्चायुश्च षण्णामेषां समुच्चयः॥
इति। खड्गादीनामृक्षं च ज्ञात्वा तेन भर्तुर्नामर्क्षस्य विवाहवत् योगा विचार्याः। अपि च गृहवदायादि द्रष्टव्यम्। तेषामानुकूल्ये तच्छस्त्रं शस्तम्।
वितस्तिमात्रकामूनां मध्यमां द्विवितस्तिकाम्।
त्रिवितस्त्युत्तमं शस्त्रमङ्गुष्ठेन तु मानयेत्॥
अयुर्लक्ष्मी मृतिं चेति समुच्चार्य पुनःपुनः।
आयुर्लक्ष्मीमृतिश्चेति गणयेद्देशिकोत्तमः॥
आयुर्लक्ष्मीप्रदे शस्त्रे दृष्यं मृत्युप्रदं भवेत्।
इत्यादिगणानां चानुकूल्यमस्ति चेत् तच्छस्त्रं धारयेत्। अन्यथा निकषैस्तदर्हप्रमाणमुक्तं युक्तं कार्यं। तथाच वराहमिहिरः—
निष्पन्नं न च्छेद्यं निकषैः कार्यं प्रमाणयुक्तं तत्।
मूले म्रियते स्वामी पत्नी तस्याग्रतश्छिन्ने॥
इति। तस्मान्न च्छेद्यमित्यर्थः। येषु दोषेषु सत्सु खड्गादय आयाद्यनुकूलतायामपि वर्ज्याः ते यथा —
खड्गपुत्रयोर्मानं गणयेत् स्वाङ्गुलेन तु।
मानाङ्गुलेषु पर्यायानेकादशमितांस्त्यजेत्॥
शेषाणामङ्गुलानां च फलानि स्युर्यथाक्रमम्।
मृत्युर्हानिः पुत्रनाशः स्त्रीलाभो गमनं शुभम्॥
अर्थहानिश्चार्थवृद्धिः प्रीतिस्सद्भिर्जनस्तुतिः।
विद्धं भग्नं स्फुटितपिटकं वारिमार्गं गतत्व-
ग्रेखायुक्तं सुतजल(लवं)जडसीधुलं6 वक्रारम्।
व्याधिं दुखं मरणमथनं कीर्तिनाशं दरिद्रं
कुष्ठं वीर्यच्युतिमथ तथा बन्धुपुत्रक्षयं च॥
गतत्वग्रेखायुक्तमिति कर्कशत्वं ।
(?) जलजडत्वं श्वेतवर्णकम् एकाङ्गनमितं।
हीनप्रसरं रूपकृष्णकं कठिनं सक्षतं खड्गमीदृशं वर्जयेन्नरः।
स्फुटितं ह्रस्वं कुण्ठं वंशच्छिन्नं न दृङ्मनोऽनुगतम्।
अस्वनमिति चानिष्टमिति प्रोक्तविपर्यस्तु फलम्॥
इति। दुष्टाकृतिव्रणयुक्ताश्च वर्ज्याः। अथ —
कुकलासकाककङ्कक्रव्यादकबन्धवृश्चिकाकृतयः।
खड्गत्रणा न शुभदा वंशानुगतासमुन्नताश्च स्युः॥
शुभाकृतिव्रणा ग्राह्या एव। यत उक्तम् —
व्रणयुक्तोऽपि निस्त्रिंशोबि(ल्ल)ल्वपङ्कजकुण्डलैः।
वर्धमानध्वजच्छत्रस्वस्तिकाद्यैर्व्रणैश्शुभः॥
शिवलिङ्गधनुश्शस्त्रदेवताप्रतिमादिभिः।
व्रणै र(स्थै)थैश्शुभाकारैर्व्रणैर्वा परिपूजिताः॥
भृङ्गारासनवाजिकुञ्जर (कुण्डल) रथश्रीवत्सयूपेषुभिः
मालामण्डलचामराङ्कुशयवैर्वज्रैर्यवैस्तोरणैः।
मत्स्यस्वस्तिकवेदिकाभिरमलैश्शङ्खातपत्रादिभिः
खड्गे पाणितले नरा नृपतयो यान्ति स्त्रियो राज्ञिताम्॥
इति। खड्गगुणाश्चोक्ताः—
सुस्निग्धं कूर्मपृष्ठाभं कृष्णत्वं लाघवं दृढम्।
सोकम्पन(परं)वरं(?) प्रोक्तमीदृशं खड्गमुत्तमम्॥
करवीरोत्पलगजमदघृतकुङ्कुमकुमुदचन्दनसुगन्धि।
शुभदमनिष्टं गोमूत्रमेदपङ्कामिषसगन्धि॥
कूर्मवसासृक्क्षारोपमश्च भयदुःखदो भवति।
गन्धो (दग्धो) (?) वैडूर्यकनकविद्युत् प्रभोजयारोग्यवृद्धिकरः॥
गोजिह्वासंस्थानं नीलोत्पलवंशपत्रसदृशं च।
करवीरपत्रशूलाग्रमण्डलाग्राणि शस्त्राणि॥
खड्गे व्रणे सति सत्रणविषमाङ्गुलस्थाश्चेत् शुभफलप्रदः। एतदुक्तं भवति। वराहमिहिरेण —
पुत्रमरणं धनाप्तिःधनहानिस्सम्पदश्च बन्धश्च
एकाद्यङ्गुलसंस्थैः व्रणैः फलं निर्दिशेत् क्रमशः॥
सुतलाभकलहहस्तिलब्धयः पुत्रमरणधनलाभाः
क्रमशो विनाशवनिताप्तिचित्तदुःखानि(?)॥
षट्प्रभृतिलब्धहानिस्त्रिलब्धयो वधो वृद्धिमरणपरितोषाः (?)।
ज्ञेयाश्चतुर्दशादिषु धनहानिश्चैकविंशे स्यात्॥
वित्ताप्तिर्निर्याणं धनागमो मृत्युसम्पदो (न्व? ) सत्वम्।
ऐश्वर्यमृत्युराज्यानि च क्रमात् त्रिंशदिति यावत्॥
परतो न विशेषफलं विषमस्थास्तु पापशुभफलदाः।
कैश्चिदफलदाः प्रदिष्टाः त्रिंशत्परतोगमिति (?) यावत्॥
इति। एवमादिगुणयुक्तं खड्गं स्वीकुर्यात्। यथाऽऽहुः —
बहुलक्षणसंयुक्तं स्वल्पदोषं तु यद्भवेत्।
तत्खड्गं धारयेत् प्राज्ञः तत्र दोषो न विद्यते॥
इति। समदोषगुणे सदोषे वा खड्गे यत्र मनोऽभिरतिः स्स्यात् खड्गपूजां कृत्वा तं धारयेत्। यथाऽऽहुः —
बहुदोषयुतं खड्गं रम्यमुष्टिमनोहरम्।
बलिपूजादिकं कृत्वा तं खड्गं धारयेत् सुधीः॥
इति। पूजाक्रमश्च तच्छास्त्रोक्तो यथा —
शुभलक्षणसंयुक्तं शुभग्रहयुतं तथा।
खड्गं सिद्धदिने पूज्यं सर्वदोषप्रशान्तये॥
इत्युपक्रम्योक्तं — गोमयेन चतुरश्रं समं स्थण्डिलमालिख्य तन्मध्ये साष्ट(पत्रा)कर्णिकं पद्म विलिख्य तत्र खढ्गंनिधाय क्रोधमुद्रां प्रदर्श्य “ओन्नमो भगवति खड्गरूपिणि मण्डले अवतर” अनेन मन्त्रेण कलां तत्राऽऽवाह्य ध्यायेत्।
नीलाम्बुरुहसङ्काशां नीलेन्दीवरलोचनाम्।
त्रिशूलाभयसंयुक्तां ध्यात्वा खड्गे प्रपूजयेत्॥
मूलमन्त्रेणावाहनमुद्रां प्रदर्श्य पाद्यादीनुपचारांश्च प्रकल्प्य खड्गं नमस्कृत्य धारयेदिति। एवमनुकूलं सकललक्षणं वीरेण धृतमपि शस्त्रं
क्वणिताद्यौत्पत्तिकदोषयुक्तं चेत् ताज्यं अनिष्टत्वात्। तथा च वराहमिहिरः —
क्वणितं रमणायोक्तं पराजयायाप्रवर्तनं कोशात्।
स्वयमुद्गीर्णे युद्धं स्खलिते विजयो भवति खड्गे॥
इति।
इदमौशनसं शस्त्रपान (?)
रुधिरेण प्रियमिच्छतः ? प्रदीप्ताम्।
हविषा गुणवान् सुखाभिलिष्सोः
सलिलेनाक्षयमिच्छतश्च वित्तम्॥
बडबोष्ट्रकरेण दुग्धपानं
यदिपापं न समीहतेऽर्थऽसिद्धिः।
झषवित्तमृगाश्वबस्तदुग्धैः
करिहस्तच्छिदये सुतालगर्भैः॥
आर्कं पयो(?) भु(सु)डुविषाणमषीसमेतं
पारावताखुशकृता च युतः प्रलेपः।
शस्त्रस्य तैलमथितस्य ततोऽस्य पानं
पश्चाच्छितस्य न शिलासु भवेत् विघातः॥
क्षारे कदल्या मथितेन युक्ते
दिनोषिते पायितमायसं तत्।
सम्यक् शितं चाश्मनि नैति भङ्गं
न चान्यलोहेष्वपि तस्य कौष्ठ्यम्॥
एवं पानादिकमन्तरेणाकारणं शाणनिकषणघट्टनादि वर्जयेत्। यथाऽऽहुः —
नाकारणं विहृणुयात् न विघट्टयेच्च
पश्येत् न तत्र वदनं न वदेच्च मूल्यम्।
देशं न चास्य कथयेत् प्रतिमानयेच्च
नैव स्पृशेन्नृपतिरप्रयतोऽसियष्टिम्॥
इति। प्रश्नलग्नवशादपि शुभाशुभं वदेत्। यथा —
आरूढव्ययगः पापो द्रव्यनाशस्य सूचकः।
लग्नास्तव्ययरन्ध्रारिगतो धरणिनन्दनः॥
स्वयमेव स्वशस्त्रेण क्षतं? विध्वर्कयुक् स्फुटम्।
लाभ उच्चादिगो भूजः शत्रुं हत्वा स्वहस्ततः॥
शस्त्रस्य लब्धिदौ श्रेष्ठबलौ तरणिभूमिजौ।
षष्ठस्थौ कर्मगौ वाऽपि ब्रुवते शत्रुघातनम्॥
अर्कस्यक्षेत्रदृष्टिभ्यां भयं स्यादौष्ण्यतो नृपात्।
जलात् भीतिं चन्द्रमसो वस्त्रसिद्धिं च भार्गवे॥
द्रव्यसिद्धिर्बुधे जीवे वसना(स)शनलब्धयः।
मुषितत्वं शनेस्ताभ्यां बलादपहृतं कुजे॥
राहोर्दृष्टे च लग्ने च मलिनत्वं विनिर्देिशत्।
अपिच। प्रष्टुः शुभयुतिदृष्ट्युपेतराश्यारोहः शुभकृत्। प्रागादिदिक्चतुष्टयारोहश्च। अन्यथा— अशुभकृत्। अङ्गस्पर्शेनापि राशिवशात् फलमुक्तम् —
शीर्षं ललाटं वदनं च कण्ठं
बाहू च हृत्क्रोडकटीद्वयं च।
ऊरुद्वयं जानुयुगं च जङ्घे
पादद्वयं मेषमुखाः क्रमेण।
मरणमथ धनागमं विनाशं
शुभफलमात्मजसम्भवः स्वहानिः।
सुलभधनमथो बहुप्रचिन्ता
रिपुगणनाशविनाशमन्दिराप्तिः॥
इति। अपिच— शीर्षाद्यङ्गेषु स्पर्शनात् खड्गस्यैकाङ्गुलिद्व्यङ्गुलीषु मालिन्यं कण्डूयनात् छेदं ताडनात् भेदं वदेत् राशिवशात् यदि भवति। पापग्रहसमग्रदर्शने उपरिभागे च्छेदः। अर्धेनार्धे पादेन पादे। इति। पादेति पादः व्रणादिकं युग्माङ्गुले शुभं इतरत्राशुभामिति ब्रूयात्। प्रश्नारूढाङ्गेस्पर्शांशकेषु त्रिष्वपि चरेष्वायुधमस्यास्थिरं स्थिरेषु स्थिरं द्वन्द्वेषु कतिपयकालं स्थिरं स्यात्। अङ्गसन्धिषु दृढस्पर्शे शस्त्रसन्धानं यदङ्गस्पर्शे रक्तोद्गमः तत्समस्थानछिद्रं वदेत्। पादसन्धिकण्डूयने नवद्वारस्पर्शे सरन्धं प्रश्नकालर्क्षेऽन्धे तच्छस्त्रं परशस्त्रं वारयितुं न क्षमम्। काणे कथंचन वारयति। विलोचने शत्रुशस्त्रेण न वार्यते। जन्मर्क्षेऽपि तद्वत्। प्रष्टा नैकत्र तिष्ठति। प्रहृतमन्यकरात् सङ्गृह्य ददाति च शस्त्रव्यत्यासो भवति। मलिनजीर्णवासाश्चेत् वसनस्यापि दुर्लभत्वं स्यात्। व्यतिषज्य मिथो बद्धयोर्हस्तयोरुरसि स्थित्यां मध्ये शस्त्रसन्धानं (स्यात् ) ब्रूयात्। ऊर्ध्वबाहुश्चेत् शस्त्रं दीर्घं। न्यग्बाहुश्चेत् शस्त्रं ह्रस्वमिति।
अथ शस्त्रलब्धिर्देशकालदा वर्णादि मूल्यादीनि वाच्यानि।
यथा – प्रष्टा नीचस्थश्चेत् उच्चः। उच्चस्थश्चेत् नीचो देश इति।
ध्वजादिषु दिनं रात्रिः वर्षादौ तेन नाडिकाः।
एकैकस्मिन् सप्त सार्धा ज्ञातव्याः लाभकालजाः॥
अपिच— पूर्वाह्णेऽपराह्णमपराह्ने पूर्वाह्नमिति वदेत्। बलिनः सूर्यादेरुपचयाद्यवस्थाने तद्वर्णनृपादितस्तल्लाभः। स्वप्रष्टृविपरीतवर्णवेषादियुतो वाच्यः। यथा – केशवति खलतिः खलतौ केशवान् कृष्णे श्वेतः श्वेते कृष्ण इत्यादि यावन्तः पुरुषास्तत्र सन्ति स्वाभिमुखस्थिताः तावत्सङ्ख्यैर्वर्णैः लब्धिः। शिशवः शेषसूचकाः। अतीतरात्रावादे-
ष्टुर्यादृशं स्वस्य भोजनं शस्त्रिणोऽपि तथा वाच्यम्।गजाश्वालोकनसङ्ग्रहसन्नाहादिकर्माण्याह —
** विश्वर्क्षे हिमगूदये गजशिरस्यावेशयेदङ्कुशं विष्णौ पट्टनिबन्धमश्चगजयोरालोकनं संग्रहम्। आदध्याद्वसुभे जयध्वजधनुः खड्गादिकस्वीकृतिं भाद्रर्क्षे धनसञ्चयं रिपुमहा सेनाप्रवेशं नृपः॥१६॥**
विश्वर्क्षे चन्द्रोदये शिक्षार्थं गजस्य मस्तके प्रथममङ्कुशं न्यसेत्। श्रवणे चन्द्रोदये अश्वगजयोः प्राधान्यार्थमलङ्कारार्थं वा प(द)ट्टबन्धम्।
एकांशस्थितयोश्शशाङ्ककुजयोर्लग्ने स्ववर्गस्थयोः युद्धं प्रारभते तदा यदि नृपो युद्धे जयं विन्दते।
राशिद्रेक्काणादावेकांशगतयोश्चन्द्रकुजयोरुदये युद्धं प्रारभेत जयो भविष्यति। गुरुः —
यदैकमंशकं यातौ चन्द्रभौमौ स्ववर्गगौ।
तदा युद्धं प्रगृह्णीयात् संग्रामे विजयोः भवेत्॥
युद्धारम्भे योगान्तराण्याह —
** भौमस्याह्नि कुजोदये विषघटीकालेऽपि वा सायकं तोयं वाऽग्निमयं विचिन्त्य विसृजेत् भ्रातृव्यसेनां प्रति।विष्टेरभ्युदये तदीयदिशि च स्थित्वा विमुञ्चन शरान् विद्राव्यारिवरूथिनीं जयमथ प्राप्नोति पृथ्वीपतिः ॥१७॥**
कुजवारे कुजोदये अथ सर्वतारासु विषघटीकाले वा विजिगीषुः शत्रुसेनां प्रति शरमग्निमयं ध्यात्वा तदभावे जलं वा अग्निमयं विचिन्त्य विसृजेत्। अथवा तत्कालविष्ट्युदये तद्विष्टिदिशि स्थित्वा शत्रुसेनां प्रति शरान् विमुश्चेत्। शत्रुसेनां विद्राव्य स्वयं जयं लभते। अत्र गुरुः —
**यस्यां दिशि यथालाभं गुलिकार्कजविष्टयः। **
स्थितास्तद्दिक्स्थितो मुञ्चेदभिवैरि शरान् नृपः॥
तद्भिया कण्टके वृक्षे वाऽपि शत्रुर्विनश्यति।
दिने दिने विषाख्यासु घटीष्वरिबलं प्रति॥
विकिरेद्रिपुनाशाय वालुकाम्बुशरानपि।
स्वनामपक्षिणोऽतिवृद्धत्वकाले युद्धं कार्यमित्यन्ये। ज्योतिषार्णवे —
पञ्चमांशेन पूर्वार्धे चरन्ति च खगाः क्रमात्।
अपरार्धे तथा केचित् तदारभ्य तृतीयगः॥ **
मरणेऽप्यतिवृद्धत्वे शत्रोर्नामाक्षराधिपे।
तत्काले समरं कार्यमात्मनो जयमिच्छता॥
तत्तदग्रे तिथौ तत्तन्मुहर्तं याति सङ्करम्।
कैश्चित्तदूर्ध्वभागेषु मुहूर्तद्वयमिष्यते॥
त्रिषडन्त्यांशगे जीवे षट्सप्तदशमे भृगौ।
बलहीने वासरान्ते समरं च समारभेत्॥
बृहस्पत्यंशगे चन्द्रे जीववारेऽस्य चोदये।
रिक्तायां तस्य भुक्तौ वा समरे विजयावहम्॥
मन्दांशकगते चन्द्रे मन्दवारे मृदूदये।
रिक्तायां मन्दभुक्तौ वा समरे विजयावहम्॥
वारक्षयोगे तिथिवारयोगे
** तिथ्यर्धराशिग्रहलाभयोगे।
सर्वेषु योगेषु शुभेषु नित्यं
** बाणप्रयोगे विजयो रणे स्यात्॥**
इति। रणारम्भयोगान्तराण्युक्तानि गुर्वादिभिः —
यदैकांशोदितौ चंन्द्रदेवाचार्यो विलग्नगौ।
वैद्य विवादं ? कर्तव्यं नीरोगित्वं जयो भवेत्॥
पुष्पाद्यांशे द्वितीयांशे जीवचन्द्रौ विलग्नगौ।
पुष्ययोगे गुरोर्वारे समरे विजयावहम्॥
** एकांशाभ्युदितौ यदा स्वभवने स्वोञ्चत्रिकोणेऽथवा जीवार्कौ कनकं तदा सुमतिना ग्राह्यं न न देयं क्वचित्॥१८॥**
गुरुसूर्यौद्वौ द्वयोरेकतरस्य स्वर्क्षतुङ्गत्रिकोणराशिषु एकांशगतावुदये यदा म्तस्तदा सुधिया – कनकवृद्धिमिच्छता नरेण कनकं ग्राह्यं स्यात्। तदा क्वचिदन्यस्मै स्वर्णं न देयं भवति। तदा स्वर्णं यदि दद्यात् हानिः स्यादित्यर्थ। गुरुः —
यदैकांशकमायातौ स्वर्क्षे तुङ्गात्रकोणयोः।
जीवार्कौ हाटकं ग्राह्यं न देयं यस्य कस्यचित्॥
मृदूग्रध्रुवतीक्ष्णभेषु धनं कस्मैचिन्न दद्यादिति श्रीपतिः—
साधारणोग्रध्रुवदारुणाख्यै
धिष्ण्यैर्यदत्र द्रविणं प्रयुक्तम्।
दत्तं च विन्यस्त (मथ)मुत प्रणष्टं
न लभ्यते तन्नियतं कदाचित्॥
इति। त्रिपुष्करयोगेऽपि न देयम्। तत्र व्ययितस्य त्रैगुण्यसम्भवात्। यथोक्तं रत्नकोशे —
………वारे भद्रायां…….. विषमपादमृक्षं चेत्।
योगः त्रिपुष्करोऽयं त्रिगुणफलो द्विगुणकृच्चयमलर्क्षः॥
इति। शुक्रादि वारांशे एकोदयदृष्टियोगे च न देयम्। यथोक्तमर्णवे—
भृग्वङ्गारकसूर्याणां अंशके दिवसोदये।
लग्नेद्रेक्काणभागेषु शुक्रेण च निरीक्षिते॥
न दद्यात् सञ्चितं कोशं यदीच्छेद्वृद्धिमात्मनः॥
इति।
आरामोपगतौ सुचामरसितच्छत्रादिसल्लक्षण
स्वीकारे गजवाजिदर्शनविधौ तत्सङ्ग्रहारोहयोः।
सद्वर्मायुधकार्मुकादिभरणे स्वर्णाद्यमत्राशने शंस-
न्त्येषु नवेषु भुक्तिसदृशं कालं सदा सर्वशः॥१९॥
इति। राज्ञो अन्यस्य वा विहाराद्यर्थमारामस्योपवनस्य उपगतावभिगमे तथा चामरश्वेतच्छत्रादिराजाचिह्नस्यस्वीकारे आदिशब्दादान्दोलिकाकरङ्कादिस्वीकारे च अन्यस्य वा देशसिद्धस्य प्रभुसामन्तादिस्थानोचितस्य लक्षणस्य स्वीकारे गजवाजिनां दर्शनविधौ तेषां सङ्ग्रहे तदारोहे च सद्वर्मणः कवचस्य अयुधानामसिक्षुरिकादीनां कार्मुकस्य आदिशब्दाच्च सद्वर्मगोधादीनां भरणे स्वर्णरजतका7।
** देवप्रतिष्ठापनभूमिपाल राज्याभिषेकादिविधानशंसी। सैकैः कृतो विंशतिभिः सुपद्यैः एकादशाध्याय इहैष पूर्णः॥२०॥**
इति विद्यामाधवीये एकादशाध्यायः
अथ राज्ञोऽभिषेकादिगुणयुक्तस्य पृथिवीं जिगषिमाणस्य राज्यो द्यमसाधककालकथनपूर्वकं तदङ्गविषय-तत्तन्मुहूर्तं वक्तुं यात्राध्याय उपक्रम्यते —
** अभीष्टवारे निजवर्णनाथे बलाधिके लग्नपतौ नरेन्द्रः। प्रयाणमत्याज्यगणे विदध्यान्मूर्धोदयो-र्ध्वास्यचरेषु भेषु ॥१॥**
नरेन्द्रो — राजा स्वकीयवर्णाधिपे ग्रहे स्वतुङ्गादौ शुभगोचरश्चेत्; तथा जन्मपतौ — स्वस्य जन्मराश्यधिपे जन्मलग्नाधिपे च स्थानादिबलसंपन्ने शुभगोचरस्थे च यात्रां विदध्यात्। पूर्वोक्तं त्याज्यगणं परित्यज्य (हृत्य) तदन्यगणे तत्रापि भेष — राशिषु मूर्धोदयेषु ऊर्ध्वास्येषु वा। परेषु राशिषु त्याज्यगणेष्वपि यायात्। तथाच वराहमिहिरः —
जन्मोदयपौ बलान्वितौ उपचयकण्टकगौ शुभप्रदौ।
क्रूरावपि नित्यमेव तौ सौम्यैरेव समावुदाहृतौ॥
इति। अथवा यात्रा नृपादिना स्वेनोदिता वर्णाः — प्रश्नाक्षरवर्णा इत्यर्थः। तैर्नाथ्यते समर्थ्यते साध्यत इति निजवर्णनाथः — प्रश्नलग्नं। तस्मिन्नभीष्टफलगोचरे; तथा जन्मशब्देन जन्मकालग्रहैः दत्तमायुर्गृह्यते। तस्य दातृत्वेन पतिः जन्मपतिः दशापतिरिति यावत्। तस्मिन् बलाधिके यात्रां कुर्यात्। उक्तं च वराहमिहिरेण —
आरोहिशुभैष्यदशां पाणिपतौ बलयुते च भूपालः।
यायात्तद्विपरीतं द्वैधीभावं तु मित्रदशा॥
इति। आश्रयादिकाला अप्युक्ताः। तथा च तेनैवोक्तम्—
रिक्तोपहतदशायां जन्मोदयनाथशत्रुपाके च।
स्वदशे (शकारसदृश) शतरे (?) कदशासंश्रयणीयो नरेन्द्रपतिः॥
रिक्तारिष्टदशानिर्णयमद्विजिगीषुणा समुच्छेद्यः।
अवरोहि दश पीड्यःकर्शयितव्यस्तथाऽऽरोही।
न सदृशदशो (हि)भियोज्यो सन्धानं तेन भूपतेर्न्याय्यम्॥
अशुभैष्यासन्नदश शुभैष्यपाकेन सन्दध्यात्।
श्रे(यान्)यांसि प(र्याये)र्ययेऽपि ग्रहैस्तथाऽऽरोहिशुभैष्यदशः(१)।
आसीत् यदा शत्रो शुभैष्यपाकेऽपि दूरस्थः।
इति। अत्र जन्मपतेर्बलाधिक्यं तत्फलदातृत्वं। एष उत्तमो यात्राकालः अथाज्ञातजातकस्य प्रश्नोदयनिमित्ताद्यैर्जातकवत् सदसत्फलानि निरूपयेत्। तथाच श्रीपतिः—
अज्ञातजन्मनोऽप्यन्यैर्यानं योज्यमिति स्मृतम्।
प्रश्नोदयनिमित्ताद्यैर्विज्ञाते सदसत्फले॥
इति। स्यादेतत् — जन्मकाल प्राणिनां पुराकृतस्वकर्मरूपेण दैवेन प्रयुक्तः। प्रश्नफालस्तु नॄणां स्वप्रयत्नरूपेण दैवेन साध्यः कथं फलसाम्यमिति, उच्यते — यथा प्राणिनां जन्मकालः स्वकर्मरूपेण दैवेन प्रयुज्यते तथा प्रश्नकालोऽपि स्वकर्मानुसृतमनोरूपेण दैवेनैव साध्यते। उक्तं च —
दैवज्ञस्य हि दैवेन सदसत्फलवाञ्छतः।
अवशो गोचरान्मर्त्यःसर्वान् समुपनीयते॥
इति। अतः न कश्चिद्दोषः। प्रश्नविधिस्तु प्रागुक्तः। तत्फलं शास्त्रान्तरोक्तमत्राभिधीयते। तत्र श्रीपतिः —
मनोरमा भूर्यदि पुच्छतः स्यात्
सुमङ्गलस्य श्रुतिदर्शने स्तः।
यद्यादारात् पृच्छति च ग्रहज्ञं
तदादिशेदस्तिजयस्तवेति॥
अङ्गस्पर्शे विशेषफलमुक्तं भृगुणा —
चिबुकस्तननासाग्रस्पर्श वैरकरं परम्।
पलायनं वदत्येव पादस्पर्शेऽपि भीषणम्॥
शिरोभिर्धावनं यातुः सिन्ति ? प्रश्न विनिन्दितम्।
गुह्यपादकरस्शों विदधाति पराजयम्॥
ऊरुमध्यस्य संस्पर्शः कार्यस्थितिकरः परः।
स्पर्शे दक्षिणहस्तस्य क्लेशपूर्वं फलं भवेत्॥
वामाङ्घिस्पर्शे निगलं दक्षिणे गमनं भवेत्।
उदरस्पर्शःशुभःसिद्ध्यैजानुस्पर्शो मृतिप्रद।
आसनं शयनं प्रश्ने त्याज्यमुत्थानमुत्तमम्॥
अङ्गुलीनां गतिः पार्खे भेदकहलवद्गतिः।
वैरागतिःप्रधानं स्यात् गमनं सर्वसम्पद॥
मूर्धोदयं शुभसुहृद्युतिवीक्षितं च
लग्नं शुभाश्च बलिनः शुभवर्गलग्नम्।
सिद्धिप्रदं भवति नेष्टमतोऽन्यथा यत्
जन्मप्रयाणफलयुक्तिरतोऽन्यदूह्यम्॥
नारदः—
जन्मोदये जन्मभेवा तयोरीशस्थभेऽपि वा।
ताभ्यां त्र्न्यायारिकेन्द्रेषु यातुः शत्रुक्षयो भवेत्॥
वराहमिहिरः —
उदयमुदयपं वा जन्मभं जन्मपं वा
तदुपचयगृहं वा वीक्ष्य लग्नेयियासोः।
विनिहतमरिपक्षं विद्धि शत्रोरिदं वा
यदि हिबुकसमेतं पृच्छतः सुस्थितं वा॥
अन्यत्र—
यदि (?) जन्मराशिहिबुके वास्तगृहेऽरिपापदृष्टौ।
विबलावधिकौ तयोर्यदा तौ यदि यायादसंशयं (?) स यायात्॥
तयोरष्टमे षष्ठभे वा विलग्ने
तदष्टारिभेशौ यदा वा तनुस्थौ।
यदा तत्पती दुर्बलौ तौ तथा हि
प्रयाणं विषग्रासतुल्यं करोति॥
करोति राशिर्गमनं शुभं च परो विलग्नेशुभदृष्टियुक्तः।
स्थिरोदये स्याद्गमनं न जातु शुभं शुभैर्दृष्टियुतेऽत्र वाच्यम्॥
द्विमूर्तिराशावुदयं प्रपन्ने क्रूरग्रहैर्युक्तनिरीक्षिते च।
प्रयाति यद्यप्यबुधस्तदानीं निवर्तते शत्रुजनाभिभूतः॥
केन्द्रत्रिकोणेषु शुभस्थितेषु पापेषु केन्द्राष्टमवर्जितेषु।
सर्वार्थसिद्धिं प्रवदेन्नराणां विपर्ययत्वे तु विपर्ययस्स्यात्॥
जीवज्ञार्कि(सि)सुतापरैःसुतसुहृद्दश्चित्कलग्नायगैः
सिद्धार्थोऽरिगणा(न्विजित्य)न्निहत्य नचिरात् प्राप्तस्समेत्यालयम्।
लगे वा कुजमन्दयोः सुतगते जीवे रवौ कर्मगे
लाभे कर्मणि वा सितेन्दुतनयौ प्रश्ने जयो निश्चितः॥
बादरायणः—
लग्ने यमारौ खे सूर्यः शुक्रो मूर्तौसुते गुरु।
लाभे कर्मणि वा सौम्ये योगेऽस्मिन् निश्चितो जयः॥
गुर्वर्कशनिभिः सिद्धिर्लग्नारिदशमस्थितैः।
तद्वल्लग्नारिबन्धुस्थैर्जीवशुक्रदिवाकरैः॥
सुखे वाऽपि गुरोर्वारे कर्मण्यसितशक्रयोः।
चतुर्थे ज्ञेऽष्टमे चन्द्रे जयस्थे वा सितेज्ययोः॥
कर्मण्याये रवावाये तृतीयस्थेऽर्कनन्दने।
षष्ठे चन्द्रे विलग्नस्थैः शेषैः प्रष्टुर्जयो ध्रुवम्॥
षट्पञ्चाशिकायां—
झषालिकुम्भकर्कटा रसातले यदि स्थिताः।
रिपोःपराजयस्तदा चतुष्पदैःपलायनम्॥
अशुभयोगाश्च वराहमिहिरेणोक्ता—
युद्धे भङ्गो यमेन्द्वारैः नवमात्मजलग्नगैः।
शशाङ्कयमयोर्लग्नेमृत्युर्भुपुत्रदृष्टयो॥
सवक्रे निधने मन्दे मृत्युर्लग्ने दिवाकरे।
सचन्द्रे त्र्यायमृत्युस्थे ससूर्ये वा वदेद्बुधः॥
शुक्रज्ञशशितद्द्यूने प्रष्टुर्नाशोऽपि गच्छतः।
क्षुन्मारशत्रुवृद्धिश्च लग्ने माहेयशुक्रयोः॥
चन्द्रावनीजयोर्मूर्तौषष्ठे शशिजशुक्रयोः।
निधनस्थे सहस्रांशौ विज्ञेयो मन्त्रिणो वधः॥
द्यूननैधनयोश्चन्द्रलग्नेयाते दिवाकरे।
विपर्यये वा तस्यैव त्रासभङ्गवधागमः॥
द्वित्रिकेन्द्रस्थितैः पापैः सौम्यैः केन्द्राष्टवर्जितैः
अष्टमस्थे निशानाथे प्रष्टुर्बन्धवधात्ययाः॥
कुजचन्द्रमसौ छूने स्वभेदोऽर्कबुधोदये।
तद्वन्मन्दारयोर्युद्धे भङ्गस्सौम्यार्कयोस्तथा॥
सर्वेऽ(च)पि नवमे राजन् घ्नन्ति मन्त्रिपुरोहितान्।
योगेऽस्मिन्नुदये चन्द्रे सुतस्थपतिदेशिकान्॥
अर्कार्कसुतयोलग्ने दृष्टयो क्षितिसूनुना।
चन्द्रेऽस्ते विबलैस्सौम्यै प्रष्टुस्सनृपतेर्वधः॥
निधने वक्रयमयोः चन्द्रेऽस्ते लग्नगे रवौ।
ज्ञे तृतीयेऽपि वाऽऽक्रम्य समन्त्री हन्यते नृपः॥
निधनहिबुकहोरासप्तमर्क्षेषु पापा
न शुभफलकराः स्युः पृच्छतां मानवानाम्।
दशमभवनयुक्तेष्वेषु सौम्या प्रशस्ताः
सदसदिदमशेषं यानकाले विचिन्त्यम्॥
इति। प्रश्नकाले ये शुभाशुभयोगा उक्ताः ते यात्राकालेऽपि भवन्तीत्यर्थः। भट्टपादेन यात्राप्रतिबन्धकृद्योग उक्तः —
अस्तंगते च लग्ने चन्द्रार्किसितेन्दुपुत्रसन्दृष्टे।
यात्रा नास्तीति वदेन्नियमात्तैरेव संयुक्ते॥
इति। अथ स्वप्रसङ्गप्राप्तायां शत्र्वागमनपृच्छायां षट्ञ्चाशिकाद्युक्तमभिधीयते —
स्थिरे शशी चरोदये न चागमो रिपोर्यदा
तदाऽऽगमं रिपोर्वदेत् विपर्यये विपर्ययम्।
स्थिरे तु लग्नमागते द्विदेहगोऽथ चन्द्रमाः
निवर्तते रिपुस्तदा सुदूरमागतोऽपि सन्॥
चरे शशी लग्नगते द्विदेहे
पथोऽर्धमागत्य निवर्तते रिपु।
विपर्यये चागमनं द्विधा स्या-
त्पराजयस्स्यादशुभेक्षिते तु ॥
प्रष्टुः पराजय इत्यर्थ।
अर्कार्किज्ञसितानामेकोऽपि चरोदये यदा भवति।
प्रवदेत्तदाशु गमनं वक्रगतैर्नेति वक्तव्यम्॥
सुतशत्रुगतैः पापैः शत्रुर्मार्गान्निवर्तते।
चतुर्थगैरपि प्राप्तःशत्रुर्भङ्गान्निवर्तते॥
स्थिरोदये जीवशनैश्चरेक्षिते
गमागमौ नेति वदेत्तु पृच्छतः।
त्रिपञ्चषट्स्था रिपुसङ्गमाय
पापाश्चतुर्थे विनिवर्तनाय॥
नागच्छति परचक्रं यदाऽर्कचन्द्रौ चतुर्थभवनस्थौ।
बुधगुरुशुक्रा हिबुके यदा तदा शीघ्रमायाति॥
अजधन्विसिंहवृषभा यद्युदयस्था भवन्ति हिबुके वा।
शत्रोरपसरणं स्यात् ग्रहयुक्ता वा वियुक्ता वा॥
द्विर्द्वादशगैश्चन्द्राल्लग्नाद्वा चन्द्रपुत्रगुरुभृगुजै।
गमनं वाऽप्यागमनं नास्तीति विनिर्दिशेत् प्रष्टुः॥
जामित्रे त्वथवा षष्ठे ग्रहाःकेन्द्रेऽथ वाक्पतिः।
प्रोषितागमनं विद्यात् त्रिकोणे ज्ञे सितेऽपि वा॥
अन्ये त्वाहुः—
निर्यातस्य निवृत्तिः स्स्याल्लग्नाधिपमयूखगैः।
समानदिवसैःपश्चात् पुनर्निर्गमनं भवेत्॥
स्थिरराशौ यद्युदये शनिर्गुरुर्वा समागमो न स्यात्।
उदये रविर्गुरुर्वा चरे रिपोरागमो भवति॥
विपक्षादीनामागमनदिनप्रमाणं च तेनैवोक्तं—
उदयर्क्षाच्चन्द्रर्क्षं भवति च यावद्दिनानि तावद्भिः।
आगमनं स्याच्छत्रोर्यदि मध्ये न ग्रहः कश्चित्॥
तन्मध्ये ग्रहे स्थिते सति तत्संख्यैर्दिनैरागमनं वाच्यम्। यातुर्निवृत्तिकालप्रमाणं च तत्रैवोक्तम्—
ग्रहस्सर्वोत्तमबलो लग्नाद्यस्मिन् गृहे स्थितः।
मासैस्तत्तुल्यसंख्याकैर्निवृत्तिं यातुरादिशेत्॥
चरांशस्थे ग्रहे तस्मिन् कालमेतद्विनिर्दिशेत्।
द्विगुणं स्थिरभागस्थे त्रिगुणं द्व्यात्मकं गते॥
प्रष्टुर्विलग्नाज्जामित्रभवनाधिपतिर्यदा।
करोति वक्रमावृत्तेः कालं तं ब्रुवते परे॥
कृष्णः—
गत(ग्रह)भवना(त्मा)वि(?)यधिपादिशान्तराले कियन्ति ऋक्षाणि।
तावद्भिरेव दिवसःपुनरागमनं प्रयातस्य॥
तानि च द्रेक्काणसङ्घ्यया गुणयेदित्युपदिशन्ति।
ग्रहो विलग्नाद्यतमे गृहे तु तेनाहता द्वादश राशयस्तु।
तावद्दिनान्यागमनस्य विन्द्यान्निवर्तनं वक्रगतैर्ग्रहेन्द्रैः॥
इति। प्रोषितागमनप्रश्नेष्वयं विधिः। तत्र कृष्णः—
मेषूरणोदयौ द्वौ सौम्यग्रहवीक्षितौ यदि स्याताम्।
भवति तदाऽभ्यागमनं प्रोषितनृृणां कृतार्थानाम्॥
षाष्ठत्रि कोणयोर्वा जामित्रे वा निरीक्षिते करे।
षष्ठोदये विलग्नेभङ्गोऽस्तीत्यादिशेन्मतिमान्॥
षट्पञ्चाशिकायाम्—
पृष्ठोदये पापनिरीक्षिते वा
पापास्त्रिकोणे रिपुकेन्द्रगे वा।
सौम्यैरदृष्टा बधबन्धदास्स्युः
नष्टा विनष्टा मुषितास्तु वा स्युः॥
अष्टमस्थे निशानाथे कण्टकैःपापवर्जितैः।
प्रवासी सुखमायाति ससौम्यैः लाभसंयुतैः॥
द्वितीये वा तृतीये वा गुरुशुकौ यदा स्थितौ।
आश्वेवागच्छति चमूः प्रवासी वा न संशयः ॥
दुश्चित्कधनसमेतौ बुधभृगुपुत्रौ यथेप्सितावाप्तिः।
बन्धूपगतावेतौ गृहप्रवेशं हि तत्क्षणात्कुरुतः॥
हिबुकं ग्रहे प्रविष्टे गृहप्रविष्टं प्रवासिनं विन्द्यात्।
हिबुकास्तमयान्तरगैर्ग्रहैस्तु पाथि वर्तते पुरुषः॥
इति। अत्र ग्रहारूढराशिर्यादृशस्तादृशेन यानेनाऽऽयातीत्याहुः। तथा च कृष्णः—
द्विपदचतुष्पदविहगास्थलाम्बुविचराश्च राशयः कथिताः।
तेषां यादृक्ष(?)णगृहे गतस्तादृशेनाऽऽयाति॥
इति। अस्मिन् प्राप्तानां रिपूणां पौराणां च कथमिति प्रश्ने तत्फलमुक्तं षट्पञ्चाशिकायां—
दशमोदयसप्तमगाः सौम्या नगराधिपस्य विजयकराः।
आरार्किज्ञगरुसिताः प्रभङ्गदा विजयदा नवमे॥
पौरास्तृतीयभवनाद्धर्माद्वा यायिनश्शुभैश्शुभदाः।
व्ययदशमाये पापाः पुरस्य नेष्टाः शुभा यातुः॥
धर्माद्यैश्चक्रदलैः यायिजना नागरास्तृतीयादौ।
येषां भागे सौस्यास्तेषां विजयोऽपरे भग्नाः॥
नृराशिसंस्था ह्युदये शुभाः स्युः
व्ययायसंस्थाश्च यदा भवन्ति।
तदा सुसिद्धिं प्रवदेन्नराणाम्
पापैर्द्विदेहोपगतैर्विरोधम्॥
रत्नकोशे—
नरभवने शुभयुक्ते सन्धानं भूमिपालानाम्।
दशमोपगतैस्सौम्यैर्वित्तं दत्वा परो याति॥
विषयी ददाति वित्तं यदि सप्तमराशिगो भवेत् क्रूरः।
क्रूरे लग्नोपगते न कृतो विश्लयते सन्धिः॥
क्रूरे लग्नोपगते बुधे तृतीये चतुर्थगे सूर्ये।
युद्धं भवति नृपाणां विषयी च विनश्यते तत्र॥
केशवीये—
ल(ग्ने)ग्नात्तृतीये चार्क्यारौ छत्रे शत्रुर्न (जा) जीयते।
गुरुणा स च मित्रं स्यादिति प्राह स्म केशवः॥
कार्यसिद्धिलाभप्रश्ने षट्पञ्चाशिकायां —
केन्द्रोपगताः स्सौम्याः सौम्यैर्दृष्टाः नृलग्नगाः प्रीतिम्।
कुर्वन्ति पापदृष्टाः पापास्तेष्वेव विपरीतम्॥
त्रिपञ्चलाभास्तमयेषु सौम्याः
लाभप्रदा नेष्टफलाश्च पापाः।
तुला (थ) च कन्या मितुनं घटश्च
नृराशयस्तेषु शुभं वदन्ति॥
स्थानप्रदा दशमसप्तमगाश्च सौम्याः
मानार्थदाश्च (स्स्व) सुतलग्नगता भवन्ति।
पापव्ययायसहिता न शुभप्रदाः स्युः
लग्नेशशी न शुभदो दशमे शुभश्च॥
इन्दुर्द्विसप्तदशमायरिपुत्रिसंस्थः
पश्येद्गुरुं शुभफलं प्रमदाकृतं स्यात्।
लग्नत्रिधर्मसुतनैधनगास्तु पापाः
कार्यार्थनाशभयदाःशुभदाःश्शुभाः स्युः॥
केशवः—
लग्नात्तृतीये चाये च ग्रहैर्ब्रूयाच्छुभाशुभम्।
पञ्चमे नवमे छत्रे लाभस्स्यात् प्रोषितागमः॥
आरूढादुदयं यावल्लग्नंतावच्छत्रमिति। षट्पञ्चाशिकायां—
यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा
सौम्यैर्वा स्यात्तस्यतस्याभिवृद्धिः।
पापैरेवं तस्य भावस्य हानिः
निर्देष्टव्या पृच्छतां जन्मतो वा॥
कृष्णः—
यस्मिन्यस्मिन् भावे द्विर्द्वादशसप्तमस्थिता सर्वे।
सौम्याः तस्मिंस्तस्मिन् (?) वृद्धिस्थितैस्तद्वत्॥
द्विपदे चतुष्पदे वा भवने लग्नोपगो ग्रहः पापः।
तिष्ठति तन्नाशकरं ज्ञेयं सौम्यैश्च वृद्धिकरम्॥
लग्नाधिपतिः केन्द्रे तन्मित्रं वा व्ययाष्टकेन्द्रेभ्यः
अन्यत्र गताः पापाः तत्रापि शुभं वदेत् प्रश्ने॥
इति। एवं विचारित प्रश्ने शुभे लग्ने “प्रयाणमत्याज्यगणे विदध्यात्” इति सामान्येनोक्ते विशेषेणात्याज्यर्क्षे सर्वदा दिशःप्रयायादिति प्राप्ते विशेषमाह—
** अग्न्यादीनि हि सप्तसप्त निवसन्त्यृक्षाणि दिक्षु क्रमात् तत्तद्दिङ्निहितैः प्रयातु ककुभं तांतां शुभैस्तारकैः। माहेन्द्य्रुत्तरयोर्यमाम्बुपदिशोस्तवद्व्यत्ययो वा शुभो वायव्यानलकोणगोऽस्ति परिघो याता न तं लङ्घयेत् ॥२॥**
कृत्तिकादीनि सप्तसप्तर्क्षाणि साभिजिन्ति प्रागादिदिक्षु क्रमान्निवसन्ति। तेषु तत्तद्दिग्गतैस्तैस्तै शुभैस्तारकैरत्याज्यनक्षत्रैस्तांतां दिशं प्रयातु।माहेन्द्र्युत्तरयोः — प्रागुदीच्योः यमाम्बुपादशोः दक्षिणाप्रतीच्योश्च द्वयोः दिशोस्तद्व्यत्यस्तद्दिङ्नक्षत्रवैपरीत्यं वा शस्यते। तद्यथा — प्राचीदिग्गतैर्भैरुदीचीं उदीचीं गतैः प्राची दक्षिणां गतैः प्रतीचीं प्रतीची गतैर्दक्षिणां दिशं यायादित्यर्थः। एतदुक्तं भवति — कृत्तिकादीनि सप्तर्क्षाणि प्राच्यां स्थितानि मघादानि सप्त याम्यायां। अनुराधादीनि साभिजिन्ति सप्त वारुण्यां। धनिष्ठादीनि सप्त उदीच्यां भवंति। तत्र प्राग्गतैर्नक्षत्रैः पूर्वांदिशमुत्तरां वा गच्छेत्। उदग्गतैरुत्तरां प्राचीं वा गच्छेत्। दक्षिणागतैर्दक्षिणां प्रतीची वा गच्छेत्। प्रत्यगतैः प्रतीची दक्षिणां वा गच्छेत्। प्रागुदग्गतैःयाम्यवारुण्यौ न यायात्। दक्षिणावारुणीस्थैः प्रागुत्तरे दिशौ न यायात्। यतस्तन्मध्ये वायव्यानलकोणगवायव्याग्नेयी संस्पृश्य तिर्यक्स्थितः परिघो नाम दण्डोऽस्ति याता तं दण्डं न लङ्घयेत्। लङ्घयत्वा न व्रजेदित्यर्थः। उक्तं च वराहमिहिरेण—
दिशि च हुतभुगाद्याः सप्त ताराःप्रवृत्ताः
पवनदहनदिक्स्थं तिर्यगुद्यम्य दण्डम्।
सुरपतिरपि कृच्छ्रं याति तं लङ्कयित्वा
ननु भवति विरोधो दिक्षु दण्डैकगासु॥
इति। यवनेश्वरोऽपि —
आग्नेयपूर्वाणि च सप्तसप्त
क्रमेण पूर्वादिषु भानि दिक्षु।
द्वारेषु मुख्यान्यनुकल्पितानि
तेषु प्रयाणेषु दिशां जयस्स्यात्॥
प्राची मुदग्द्वारिभिरभ्युपेयात् प्राग्द्वारिभिश्चोडुभिरप्युदीचीम्।
तथैव याम्यामपराश्रितैश्च याभ्याश्रितैरप्यपरां प्रयायात्॥
अथाऽन्यथाऽयं परिघापभेदं कुर्वन् जयैर्षानृपतिर्न यायात्।
स भूरिनागाश्वबलोत्कटोऽपि समदुर्गाम्भसिनाशमेति॥
अल्पयात्रायां कार्यातुराणां स्त्रीणां गवां च परिघलङ्घनदोषो नेत्याह—
** आत्ययिकं यत्कार्यंप्रयाणमपि यच्च योजनादर्वाक्।परिघातिक्रमदोषो न तत्र न च गोस्त्रियोर्जातु॥३॥**
कार्यं — स्वोदयार्थमनिष्टप्रतीकारार्थं वा यदात्ययिकमवश्यकार्यं तत्र यातुः कार्यातुरतया गच्छतः परिघातिक्रमदोषः नास्ति। यत् प्रयाणेऽपि योजनादर्वाक् स्वपरग्रामादेकदेश एव स्यात् तत्रापि च परिघातिक्रमदोषो नास्ति। तथाच गुरुः —
एकद्वारिगतैस्तारैः ग्रामात् ग्रामान्तरं विना।
यात्रा चैवं विशेषेण योजनाद्देशमन्तरा॥
दण्डलङ्घनदोषोऽपि गवां स्त्रीणां विशेषतः।
इति। चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन दिक्शूलानि विहाय लग्नानुकूलतया गच्छेदित्युक्तम्। तथा च श्रीपतिः —
प्राग्योजनेप्वात्ययिकेषु भूपतिः
विलङ्घ्यरेखामपि पारिघीव्रजेत्।
विहाय दिक्शूलसमाह्वयामुडुं
यदि खदिग्लग्नविशेषमाप्यते॥
इति। दिग्लग्नानि — ‘प्रागादीशाः क्रियवृषनृयुक्कर्कटाःसत्रिकोणाः’ इति तेषां ग्रहसंस्थित्या यातुरानुकूल्यं च। गौश्च स्त्री च
गोस्त्रियौ। जातावेकवचनं। गोस्त्रीणामित्यर्थः जातु — कदाचिदपि। तासां स्वभर्तृभिर्नीयमानानां अखातन्त्र्यात्परिघलङ्घनदोषो नास्तीत्यर्थः। ये तु स्वातन्त्र्येण गच्छन्ति तेषामेवेत्यर्थः। उक्तंच सर्वसिद्धौ—
परिघो नाम दण्डोऽस्ति वायव्योग्नयकोणगः।
तदतिक्रमणं कष्टं नराणां न तु गोस्त्रियोः॥
इति। अथ दिक्शूलानि दिक्शुभानि सार्वदिग्द्वारकाणि भान्याह—
** दिक्शूलानि विपत्प्रदानि बलभिद्भद्राजताराभगाः पुष्यस्तीक्ष्णकरोऽच्युतोऽश्वयुगपि श्रेष्ठानि दिक्षु क्रमात्। सर्वास्वेव रवीन्दुमित्रमुरजिद्वस्वन्त्यमित्रान् शुभान् जीवो वक्ति वरं वराहमिहिरः पुष्यार्कमित्राश्विनः ॥४**
** **बलभिदिन्द्रः तस्य तारा – ज्येष्ठा। भद्रतारा — पूर्वाप्रोष्ठपदा। अजतारा रोहिणी। भग उत्तराफाल्गुनी एतानि चत्वारि नक्षत्राणि प्राच्यादिदिक्षु शूलानि। यातॄणां विपत्प्रदानि शत्रुभिः पराभवादिविपत्कारीणि भवन्ति। तस्मादात्ययिके कार्येऽपि प्रागादिदिग्गमने भान्येतानि वर्जयेत् उक्तं च—
ज्येष्ठा प्राक् प्रोष्ठपदा रोहिण्यथ चोत्तरा च फल्गुन्यः।
शूलानि प्राच्यादिषु भेषु गतोऽभ्येति यदि चित्रम्॥
शूलर्क्षगमनफलं च दर्शितं वराहमिहिरेण—
ज्येष्ठायां पुरुहूतदिङ्मुखगतः प्राप्तो बलिबन्धनम्
याम्यामाजपदे मुरश्च गतवान् यातो मुरारेर्वशम्।
रोहिण्यां नमुचिः प्रतीच्यामिगतः पूर्ति गतो वज्रिणा
सौम्यामुत्तरफाल्गुनीषु गतवान् मृत्योर्वशं शम्बरः॥
इति। आत्ययिकेषु दिक्शूलभानि वर्जयेदेव। यस्माद्यवनेश्वरः —
ऋक्षेष्वथैतेषु यथोक्तकाष्ठां **
** न भूतिकामो मनसाऽपि यायात्।
मोहाद्य उल्लङ्घ्य यदि प्रयायात् **
** सराष्ट्रभृत्यो न चिराद्विनश्येत्॥
पुष्यहस्तश्रवणाश्विन्यश्चतस्रस्तारा प्राच्यादिदिक्षु गमने श्रेष्ठाः स्युः।तथा च गुरुः—
उत्तमं पुष्यभं प्राच्यां मध्यमं सोमदेवतं।
उत्तमं मध्यमं याम्यां हस्तत्वाष्ट्रे क्रमादुभे॥
चशब्दोऽत्रानुक्त समुच्चयार्थः। तेन मृगशिरश्चित्रानुराधाधनिष्ठाश्चतस्त्रस्ताराःप्रात्यादिदिक्षु मध्या इत्युक्तं। तथा च गुरुः—
उत्तमं मध्यमं (मध्यमे यामे) याने वारुण्या विष्णुमित्रभे।
वैष्णवं मध्यमं चोदक् उत्तमे वासवाश्विमे॥
इति। केचिद्धनिष्ठामुदीच्यामुत्तमामाहुः। तत्र रेवती मध्यमामाहुः। तथा च वराहमिहिरः —
**पुष्योऽथ हस्तः श्रवणं धनिष्ठा।
प्राच्यादि मुख्यान्युदगाश्वयुक्च। **
नैशाकरं त्वाष्ट्रमखानुराधाः **
** पौष्णं च मध्यानि तथाऽऽहुरेके॥
इति। रवीन्दुमित्रमुरजिद्वस्वन्त्यपुष्याश्विभमिति समाहारे द्वन्द्वैकवद्भावः। हस्तमृगशिरोऽनुराधाश्रवणश्रविष्ठारेवती-पुष्याश्विनीनक्षत्राष्टकोज्योतिषार्णवे विशेषउक्तः—
रोहिण्यादित्यतिष्येन्दुभेषु प्राच्यां शुभावहम्।
उत्तरास्वातिहस्तेषु याम्याशायां शुभावहाः॥
प्रतीच्यां मित्रमूलाख्यविश्वभेषु च सौख्यदाः।
कौबेर्यां दिश्यहिर्बुध्न्यं श्रविष्ठापौष्णवारुणम्॥
इति। ज्योतिषार्णवेऽपि—
ऐन्द्रोपेन्द्रश्रविष्टासु न गच्छेदिन्द्रदिक्प्रति।
ब्राह्मेन्द्रभाजपात्पैत्रदस्रेयाम्यां दिशं तथा॥
ब्रह्मादित्यगुरुष्वेव प्रतीच्यां न बजेद्बुधः।
स्वात्युत्तरेषु हस्ते च उदीच्यां न बजेद्दिशि॥
इति। सर्वास्वेव दिक्षु वरं श्रेष्ठं जीवो — बृहस्पतिर्वक्ति — वदति। हस्तादीनीमान्यष्टौ नक्षत्राणि सार्वद्वारिकाणीति गुरुणोक्तमित्यर्थ। तथा च तद्वाक्यं—
पुष्याश्विहस्तमैत्राणि पोष्णवैष्णवसौम्यभम्।
देवेन्द्रादिक्षु सर्वासु यात्रायां शोभनान्यमी॥
एतन्नक्षत्राणां सार्वद्वारिकत्वमवश्यप्रयाणेषूक्तं। ज्योतिषार्णवे यथोक्तं —
सर्वशास्त्रप्रशस्तास्स्युर्यात्रा चावश्यिका यदि।
इति। वराहमिहिरः — पुष्यहस्तानुराधाश्विनीनक्षत्राणि चत्वारि सार्वद्वारिकाणि स्युः। उक्तं च-
सार्वद्वारिकसंज्ञं नक्षत्रचतुष्टयं विनिर्दिष्टम्।
पुष्यो हस्ताश्विन्यौ नक्षत्रं मित्रदैवतं चेति॥
ननु कथं श्रवणाश्विनीपुष्यहस्तानां सार्वद्वारिकत्वमुक्तं गर्गादिभिस्तेषां प्राच्यादिदिक्षु शूलत्वेन वर्ज्याभिधानात्। उक्तं च-
प्राक्शूलं श्रवणज्येष्ठे भाद्रर्क्षाश्विनिदक्षिणे।
पश्चाद्रोहिणिपुष्यं च हस्तफल्गुनि चोत्तरे॥
इति। अपि च — धनिष्ठोत्तरार्धरेवत्योश्च याम्यदिग्गमने वर्ज्यत्वाभिधानात्।
तथा च नारदः—
वासवाद्यादिपञ्चर्क्षे(?) सङ्ग्रहं तृणकाष्ठयोः।
याम्यदिग्गमनं गेहे चोपनं च विवर्जयेत्॥
इति। वसिष्ठादिभिर्विरचितेषु ज्योतिश्शास्त्रेषु तेषां सार्वद्वारिकत्वश्रवणादिति। तद्गर्गनारदादिप्रोक्तेषु प्राक्तनशास्त्रेषु तेषां कासुचिद्दिक्षु वर्ज्यत्वश्रवणात् प्राच्यादिदिक्शूलत्वं नाभिहितम्। बहुभिः सार्वद्वारिकतया मतत्वात् तन्मतमेवाश्रित्य तेषां सार्वद्वारिकत्वमुक्तमित्याविरोधः। अथ स्वेष्टे श्रेष्ठे नक्षत्रे वाऽसति प्रयाणस्यापरिहार्यत्वेन बहुगुणलग्नयोगत्वेन अनुक्तेष्वपि तेषु त्याज्यर्क्षवर्जितेषु यात्राविधेयेति श्रीपतिना त्याज्यक्षाणि दर्शितानि —
चित्राविशाखानलयाम्यसार्पवायव्यपित्र्येश्वरदेवतानि।
यात्रास्वनिन्द्यान्यपराणि भानि स्मृतानि नेष्टानि न निन्दितानि॥
अत्रिणा चोक्तं—
जेष्ठार्द्रपूर्वयाम्याहीन्यानेऽप्यात्ययिके त्यजेत्।
यात्रायोगे खलु गतौ सर्वताराः शुभावहाः॥
कार्यातिपत्तौ सत्यामात्ययिके याने यात्रायोगवशात् गच्छतामप्यवश्यत्याज्यनक्षत्रांशा वराहमिहिरेण दर्शिताः—
विवर्जयेत्त्वाष्ट्रयमोरगाणां
** अर्धं द्वितीयं गमने जयेप्सुः।**
पूर्वार्धमाग्नेयमघादिभानां
स्वातिं मतेनोशनसः समस्तम्॥
इति। नृयानात्मककालवशान्नक्षत्राणां ताज्य(त्व)मुक्तं श्रीपतिना। तथा च—
पूर्वाह्ने ध्रुवमित्रभेर्नगमनं क्रूरैर्न मध्यन्दिने **
** श्रेष्ठं नाऽपरवासरे च लघुभिर्मैत्रैर्न रात्रेर्मुखे।
**उग्राख्यैर्न च मध्यरात्रसमये नेष्टा निशान्ते चरैः। **
सर्वेष्वेव करैन्दवेज्य हरिभिः कालेषु यात्रा शुभा॥
इति। अथ यस्मिन्यस्मिन् नक्षत्रे यद्यत्कर्मोक्तं तत्तद्यात्रायां तत्तत्कर्मोक्तनक्षत्रं स्ववर्ज्यकालं परिहृत्य शुभमित्युक्तं वराहमिहिरेण। तथा च —
स्वेस्वे कर्मणि पूजितानि मुनिभिः शुद्धानि सर्वाण्यपि
** त्यक्त्वाऽर्कोदयमानलेति(?)विषयं यात्रादिधक्षोः शुभा।**
रोहिण्यां त्रिषु चोत्तरासु विजयो यातुर्विशाखासु च **
** त्यक्त्वावासरपूर्वभागमवदद्गारर्ग्योऽधिराज्यार्थिनः॥
मूलेन्दूरगरशङ्करेष्वरिवधे यायाद्दिनार्धं विना **
** भृत्यर्थं पवनाश्विसूर्यगुरुभेष्वह्नोऽपरार्धं विना।
रात्र्यादौ तु न पौष्णभित्रशशिभेत्वाष्ट्रेषु चाजद्रुतिं
** रात्रौ मध्यमपास्य पूर्वभरणीपत्र्येषु हन्तुं सुराः॥**
अथ प्रतिशुक्रोदयदोषमाह —
** यद्दिग्भेष्ववतिष्ठते भृगुसुतः तां यो दिशं वामतः (कृत्वावापुरतः) तं कृत्वाऽप्यथ संप्रयातु स ततो नावर्तते दुर्मतिः। दुर्भिक्षादिमहोपसर्गजनने यानेऽप्यदूरे तथा शुक्रादस्ति न दूषणं न च पुनस्तस्मिन् स्वभोच्चस्थिते ॥५॥**
प्रतिदिशमाग्नेयादीनि सप्तर्क्षाणि स्थितानत्युक्तम्। तेषु यद्दिक्सम्बन्धिषु भेषु शुक्रस्तिष्ठति तां दिशं यो दैवज्ञवचनमनादृत्य दुर्मतिः नष्टबुद्धिस्सन् संप्रयाति सम्मुखं प्रयाति; अथवा तं शुक्रमग्रतः कृत्वा याति स पुमान् नातिवर्तते न निवृत्तिमेति न निवृत्तिमेति — विपद्यत इत्यर्थः। एतदुक्तं
भवति -कृत्तिकादिसप्तके स्थिते शुक्रे प्राची न गच्छेत्।मघादिसप्तके स्थिते दक्षिणां। अनुराधादिसप्तके स्थिते प्रतीची। धनिष्ठादिसप्तमे स्थिते उदीचीं नो गच्छेदिति। तत्तत्पूर्वोत्तरयोरपरयाम्ययोरैक्यं केचिदिच्छन्ति। तथा च रल्लः —
**ज्योतिर्गणं भृगुसुतश्चरति यदा वासवादि सप्तान्तम्। **
न तदोत्तरां न पूर्वांयायान्नृपतिर्विजयमन्विच्छन्॥
पित्र्यादिवैष्णवान्त नक्षत्रगणं यदा चरति शुक्रः।
न तदा यायाद्याम्यां दिशमवनिपतिः प्रतीची च॥
समासयात्रायां (?) प्राच्यादि सप्तसप्तक्रमेण धिष्ण्यानि कृत्तिकादीनि अनुलोमान्येकत्वं पूर्वोत्तरयोरपरयाम्ययोश्च। अथवा शुक्रस्य द्वावुदयौ स्तःप्राक् पश्चाच्च। तत्र प्राच्यामुदिते शुक्रे पूर्वोत्तरे न व्रजेत्। प्रतीच्यामुदितेऽपरयाम्ये इति। तथाचायमेवार्थं ऋषिपुत्रेणोक्तः-
पश्चादभ्युदिते शुक्रे यायात्पूर्वोत्तरे दिशौ।
पूर्वतोऽभ्युदिते वाऽपि प्रयायाद्दक्षिणापरे॥
इति। अथशब्दःपक्षान्तरद्योतनार्थः। तेन शुक्रस्योदयलग्नंप्राच्यां कृत्वा दिक्चक्रगतलग्नादिद्वादशराशिभ्रमणेन तत्काले यस्यां दिशि शुक्रस्तिष्ठति तमग्रत कृत्वाऽपि न यायात् । तथा चोक्तं—
**लग्नेऽन्त्यलाभयोः खे धर्मे मरणाख्ययोः स्थितेऽस्त च। **
रिपुसुतयोः पाताले नेयात्सहजार्थयोश्च पूर्वाद्ये॥
इति। लग्नस्थे शुक्रे प्राची न गच्छेत्। द्वादशैकादशस्थे आग्नेयीं दिशं। दशमस्थे दक्षिणां। अष्टमनवमस्थे नैर्ऋती। सप्तमस्थे प्रतीची। इत्यादि। एवं त्रिविधं प्रतिशुक्रत्वं। तेषूदयादिङ्मुखत्वमेव प्रयाणे वर्ज्यं।तथा च मासयात्रायां—
उदयो यतो यतश्च भ्रमणं यद्वारभेषु (चरभ्य) वारश्च।
तत्त्रिविधं प्रतिशुक्रत्वं त्याज्यस्तत्रोदयो लग्नात्॥
इति। अन्ये तां यो दिशं वामस्थां कृत्वा यायादिति पठन्ति। तत्रायमर्थः–तं शुक्रं संमुखं प्रयाति अथ वा वामतः – वामभागे कृत्वा प्रयातीति। तथाचात्रिः—
सख्यगोऽनर्थकृच्छुको लाभकृत्पृष्ठदक्षिणे।
यद्दिङ्मुख स्थितः शुक्रः स त्याज्यः सर्वदाऽग्रतः॥
इति। प्रतिशुक्रं यातस्य फलं तूक्तं —
न प्रतिशुक्रंसिद्धिः स्वल्पोऽप्यर्थः प्रयाति यातॄणम्।
इति। तथा शुक्रस्यास्तमयादौ न व्रजेत्। उक्तं च—
नीचभे ग्रहजितेऽस्तमिते वा
** प्रस्थितो नरपतिः प्रबलोऽपि।**
क्षिप्रमेव वशमेऽति रिपूणां
** भार्गवे कलुषितेऽस्तमित वा॥**
प्रतिशुक्रे कथंचित् यानमनुज्ञातं शुक्रास्तमयेन कथं चित्प्रयायादित्युक्तं।
**कामं व्रजेप्रतिभृगु विजिगीषुर्नास्तगेशुक्रे। **
अस्तमिते तत्रैव वसतिं कृत्वा पुनस्तदुदये यायात्॥
तथाचोक्तं ऋषिपुत्रेण —
प्रयात्यन्तर्हिते शुक्रे तत्रैव निवसेत्पथि।
**कृत्वा स्वस्त्ययनं राजा दृढप्राकारतोरणः॥ **
ततश्चाभ्युदिते यायाद्यदि शुक्रोऽनुलोमगः।
**अथ चेत्प्रतिलोमस्तु न तत् प्रतिपथं व्रजेत्॥ **
प्रतिलोमप्रसन्नेन शुक्रेण क्षीणतेजसा।
**जयप्राप्तेन यो यायात्सबलः स च नश्यति॥ **
आदित्यस्यानुलोमेन शुक्रेणास्तमितेन च।
यायात् स्वविषयं राजा कृतकौतुकमङ्गलः॥
शुक्रेऽस्तमिते स्वराष्ट्रयात्रानुज्ञाता। परराष्ट्र एव निषिद्धा। गुरुः—
**परराष्ट्रे न कर्तव्या यात्रा शुक्रेऽस्तमागते। **
**स्वके तु विषये राज्ञो यात्राकर्म विधीयते॥ **
परराष्ट्रं ब्रजेद्राजा भार्गवऽस्तमिते तु यः।
हतसैन्योनिवर्तेत हारयित्वा तु साधनम्॥
इति। प्रतिबुधगमनं च प्रतिषिद्धम्। तथा च वराहमिहिरः —
दिग्वर्गविलोमगे हते सन्ध्याकोपहते विदीधितौ।
शुक्रे प्रवसन्नरेर्वशं सौम्ये वाऽपि विलोमसंस्थिते॥
इति। अन्ये च—
प्रतिशुक्रं प्रतिबुधं प्रतिभौमं गतो नृपः।
बलेन शक्रतुल्योऽपि हतसैन्यो निवर्तते॥
इति। शुक्रे विलोमगेऽपि बुधस्यानुकूल्येऽनुयानं कार्यं। तथाच समासयात्रायां—
एवं विधेऽपि शुक्रे यायाद्यदि चन्द्रजोऽनुकूलस्थः।
प्रतिबुधयानस्यान्येन परित्राणेन (?) ग्रहाव्यक्ता॥
प्रतिशुक्रे न गन्तव्यं बुधो यद्यनुकूलगः।
विजिगीषोःसुराचार्यो बुधवत्परिकीर्तितः॥
इति। एवं प्रतिषिद्धस्यशुक्रस्य क्वचिदनुज्ञानं दर्शयति –‘दुर्भिक्षादि महोपसर्गजनन’ इत्यादिना। दुर्भिक्षं धान्यौषधीनां दुर्भिक्षत्वं –अनर्वता निष्पत्त्यभावो वा। आदिशब्देन परचक्रमयं मारिक्लेशादिभयं वा। एतदादीनां महतामपरिहार्यत्वेन गुरूणामुपसर्गाणामुपद्रवाणां जनने उद्भवे प्रतिशुक्रदूषणं नास्ति। तथा च गुरुः —
सङ्कुले सभये याने राजदुर्भिक्षपीडने।
समूलकुलयात्रायां शुक्रदोषो न विद्यते॥
तथा च। अदूरे गव्यूतेरेकग्रामे वा शुक्रदोषो नास्ति।
आगव्यूतस्तथाऽर्वाग्वा गमनागमने शुभे।
नारदश्च—
एकग्रामे विवाहे च दुर्भिक्षे राष्ट्रविग्रहे।
द्विजक्षोभे नृपक्षोभे प्रतिशुक्रोन विद्यते॥
गुरुश्च —
आत्मीयग्रामपूर्वेश्मभर्तृवेश्मप्रवेशने।
नृपेण प्रेषिते तीर्थे पुरश्शुक्रोन दोषकृत्॥
तथा च तस्मिन् शुक्रे स्वभे स्वक्षेत्रे स्वोच्चे च स्थिते तस्माद्दोषो नास्ति। तथा च गुरुः—
सिते स्वतुङ्गे स्वक्षेत्रे युक्ते दोषो न विद्यते।
चतुष्पदां विशेषेण न दोषःशुभगोचरे॥
इति। चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः॥ तेन बालातुरादीनां स्त्रीणां केषांचित् गोत्रजादीनां गवां च शुक्रदोषो नास्तीत्युक्तं।तथाचात्रिः—
बालानां चातुराणां च गमने रक्षणाय च।
प्रतिशुक्रफलं नास्ति स्त्रीणां भर्तृगृहं प्रति॥
यज्ञकर्माणि चोद्वाहे एकग्रामे विशेषतः।
पुरो वा वत्सवासिष्ठकाश्यपाङ्गिरसां भृगाः॥
एतेषां पञ्चगोत्राणां शुक्रदोषो न विद्यते।
आत्ययिककार्यवशादावश्यककार्ये अत्रिणा विशेष उक्तः—
दैत्यमन्त्री दिवाकीर्तिरुशना भार्गवः कविः।
ऋषिः श्वेतो माण्डलिको नैगमो विगमः कृती॥
बीधीहन् शुक्रनामानि नमोऽन्तस्सप्तसप्त च।
प्रतिशुक्रगतौ जप्यादस्यग्रत्नामृचं तथा॥
भार्गवो वा भरद्वाजः पूर्णकुम्भधरो द्विज।
गव्यतिमार्गं गत्वाऽग्रेशुक्रदोषं व्यपोहति॥
इति। एवं प्राच्यादिदिक्षूक्तान् शूलपरिघप्रतिशुक्रादिदोषान् तदन्यांश्च गुणांश्चाग्नेयादिदिक्ष्वतिदिशति। प्राच्यादिदिक्स्थैरुडुभिर्नक्षत्रै क्रमेणानलादिकोणानाग्नेयादिविदिशं प्रयायात्। प्राच्यादिदिक्षु निषिद्धैर्नक्षत्रैराग्नेयादिविदिशो न यायात् इति। उडुग्रहणमुपलक्षणं। तिथि बारादिभिराग्नेयादिकोणान् व्रजेत्। प्राच्यादिदिक्षु निषिद्धैस्तैराग्नेयादिकोणं व्रजेदिति। तथाच वराहमिहिरः—
प्राग्द्वारिकैरनलदिङ्न विरोधमेति
शेषा प्रदक्षिणगताःविदिशं प्रकल्प्याः।
इति। अथ प्राच्यादिदिग्यानेषु प्रशस्ततिथीराह—
** नन्दादयस्तास्तिथयः प्रशस्ता दिक्षु प्रयाणे क्रमशो विरिक्ताः॥६॥**
रिक्ताविवर्जिता नन्दादयश्चत्वारस्तिथयः प्राच्यादिदिक्षु क्रमेण प्रशस्ताः स्युः। तथाच सर्वसिद्धिकार आह—
नन्दा भद्रा जया पूर्णा प्राच्यादौ तिथयः शुभाः।
इति। तिथिफलमुक्तं—
नन्दायां नन्दते याता धनधान्यजयादिभिः।
भद्रायां भद्रतां गच्छेन्महालक्ष्म्यादिशक्तया॥
जयायां जयमाप्नोति लब्ध्वा सर्वां रिपोः श्रियम्।
रिक्तयां रिक्ततां गच्छेद्धतश्रीः शत्रुणा हतः॥
पूर्णायां पूर्णतां याति यतस्तत्सर्वसम्पदः।
नन्दाद्यास्तिथयः पञ्च तेऽधमा मध्यमोत्तमाः॥
अन्ये त्वाहुः—
प्राच्यां शूलाष्टमी यातुः षष्ठी याम्ये विशेषतः।
प्रतिपत्पश्चिमे यातुर्द्वादश्यां चाऽशुभा ह्युदक्॥
शुक्ले कृष्णे प्रतीपेन तिथिः साधारणो मतः।
तत्रापि विशेषस्तेनैवोक्तः—
नृपस्य षष्ठ्यामष्टम्यां द्वादश्यां च विशेषतः।
सर्वेषां प्रथमाख्यायां द्वादश्यां च विवर्जयेत्॥
पञ्चदश्यां विशेषेण पर्वयोरुभयोरपि।
षष्ठ्यादयो न केवलं नृपस्येष्टाः तथा सर्वेषां तथाच—
षष्ठ्यां तिथौ तथाऽष्टम्यां द्वादश्यां यस्तु गच्छति।
सोऽपि चित्तलयं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति॥
देवलश्च—
शुक्लपक्षे प्रतिपदि पञ्चदश्यां तथैव च।
न याति याता स्वगृहं वित्तनाशं तथाऽश्नुते॥
एवं शुक्लप्रतिपत्पञ्चदश्योः कैश्चिदशुभमित्युक्तं कैश्चिच्छुभमिति अतस्ते मध्ये। तथा च वराहमिहिरः—
प्रतिपदमलमेके पञ्चदश्यां च नेष्टं
जगुरिदमिति तज्ज्ञैः वाच्यते (?) वावधार्यम्।
किमपिकिमपि नूनं तैः समीक्ष्योक्तमेवं
समवचनविघाते युक्तता केन चिन्त्या॥
इति। कैश्चित्प्रतिपत्तिथिफलमुक्तं—
क्लेशं ज(द्व)यं लाभविपच्छ्रियं च
दुःखं जयं रोगमृतिं कुलानाम्।
क्रोधं च नाशं धनमक्षिरोगं
नाशं च दद्युस्थितयः क्र(मेण) माद्धि॥
इति। करणेषु विष्टिर्वर्ज्या गरवणिजे मध्ये। यत उक्तं यात्रायां—
गरवाणिजविष्टिपरिवर्जितानि करणानि यातुरिष्टानि।
गरमपि कैश्चिच्छस्तं वणिजं हि वणिक्क्रियास्वेव॥
इति। अक्रमादागता भद्रा भद्रा। तथाऽऽह गुरुः—
विष्टिस्तु सर्वदा वर्ज्या क्रमेणैवागता तु या।
अक्रमेणागता विष्टिः सर्वत्र शुभदा मता॥
वसिष्ठः —
गरं शुभप्रदं याने वणिजां वणिजं तथा।
विष्टिस्तु सर्वदा वर्ज्या यातुः प्राणार्थनाशिनी॥
इति। यात्रादावपि यदा तिथिनक्षत्रे शुभे स्तः तदा शुभम्। तथा च गुरुः—
नक्षत्रे यातृगे शुद्धे तिथौ च गुणसंयुते।
याता धनानि लभते विपरीते विपर्ययः॥
तयोरेकतरस्य अनिष्टत्वे यात्रायामुक्तम्—
गुणवति तिथावृक्षेऽनिष्ठे दिवा गमनं हितं
निशि च भगुणे यानं शस्तं तिथौ गुणवर्जिते।
(?)भतिथिगताद्दोषात्प्राप्नोत्यतः प्रतिलोमतः
गुणमपि तयोः सम्यग्यातुर्जगाद भृगुर्मुनिः॥
इति। प्रागादिदिक्षु शुभान्वारानाह —
** न प्राचीं रविशुक्रयोः क्षितिभुवो वारेण याम्यां दिशं मन्देन्द्वोरपि पश्चिमां न विशतात्सौम्यां न जीवज्ञयोः। प्राच्यादीन् क्रमशः कुजस्य शशभृच्छन्योर्बुधाचार्ययोः भास्वद्भार्गवयोर्दिशं प्रविशतादित्याह वाचस्पतिः ॥७॥**
रविशुक्रयोर्वारे प्राची दिशं न विशतात् नव्रजेत्। क्षितिभुवः–कुजस्य वारे याम्यां–दक्षिणां दिशं मन्देन्द्रोर्वारे पश्चिमां प्रतीचीं दिशं जीवज्ञयोर्वारे सौम्यामुदीची दिशं न व्रजेत्। अथ कुजवारे प्राचीं व्रजेत्। चन्द्रमन्दयोर्वारे याम्यां, बुधजीवयोर्वारे प्रतीचीं, रविशुक्रयोर्वारे, उदीची इति। प्राच्यादिदिशः क्रमेण प्रविशतात्— व्रजेत्। यद्यपि विशधातुःप्रवेशनार्थेवर्तते; तथाऽपि दिगुपपदसामर्थ्याद्गत्यर्थः प्रयुक्तः। एवं वाचस्पतिर्गुरुराह। तथा च तद्वाक्यं —
सितार्कवारयोः प्राच्यां न गच्छेद्दक्षिणां दिशम्।
भौमवारे तथा चन्द्रयनयोः वारुणी दिशम्॥
गुरुचन्द्रजयोर्वारे न यायादुत्तरां दिशम्।
एवं दिगीशशूलेषु प्रवसन्मृत्युमाव्रजेत्॥
अङ्गारकदिने प्राची दक्षिणां चन्द्रमन्दयोः।
गुरुज्ञयोस्तु वारुण्यां उत्तरां सितसूर्ययोः॥
यात्रायां शुभदा वारा वारेशे दक्षिणां गते।
सुशुभं यातुरेव स्याज्जयश्चैव भविष्यति॥
इति। दिक्शूलवारानाह —
** मन्दनिशाकरयोस्सुरराजगुरोः शुक्रदिवाकरयोर्बुधभूसुरयोः। दिक्षु गतौ वधबन्धकरा दिवसाः श्रीपतिना त पदक्रमतो मदिताः ॥८॥**
श्रीपतिना––आचार्येण मन्दनिशाकरयोरित्यादिसुबन्तपदक्रमेण प्रागादिदिक्षु दिवसाः–ग्रहवाराःयातुर्वधबन्धकरा उक्ता। इदमुक्तं भवति—मन्देन्दुवारौ प्राच्यां गमने वधबन्धकरौ गुरुवारे याम्यायां न शुभं। शुकादित्यवारौ प्रतीच्यामनिष्टौ बुधकुजवारावुदीच्यां न शस्ताविति।
तथा च श्रीपतिः—
शुक्रादित्यदिने न वारुणदिशं न ज्ञे कुजे चोत्तरां
मन्देन्द्वोरपि शक्रसंज्ञककुभं याम्यां गुरौ न व्रजेत्।
शूलानीति विलङ्घ्ययान्ति मनुजा ये वित्तसौख्याशय-
भ्रष्टाशाः पुनरापतन्ति यदि ते शक्रेण तुल्या अपि॥
इति। एवं सूर्यादिवारेषु यातव्यदिगुक्ता। अन्यदिक्षु फलं यात्रायामुक्तम्—
उदरनयनरोगश्वापदारण्यबाधाः
सवितृदिवसयाता ह्याश्नुतेऽर्घक्षयं च।
अनिलकफजरोगाच्छक्तिपानान्नहानिं
सलिलजनितपीडां चाह्नियातो हिमांशोः॥
केचित् सोमदिने शुभफलमाहुः। तथा च यवनेश्वरः —
साध्वङ्गनापुष्पफलान्नपानं
द्रव्यैर्मनोज्ञैर्जलसंभवैश्च।
संयुज्यते चन्द्रदिने प्रयाता
रतिक्रियार्थैरभिवाञ्छतैश्च॥
एवं विधिप्रतिषेधव्यवस्थान्यायाः यथा–कृष्णपक्षे कष्टफला यात्रा शुक्लपक्षे शुभफला स्यादिति। यच्चन्द्रस्य पापसौम्यत्वनिबन्धना(?) ।
ज्वलनवधविपाऽसृक्शत्रुपीडामसया-
मवनिजदिनयाता साद्यते शत्रुसङ्घैः।
अहनिसवितृसूनोः दैन्यमाप्नोति गच्छन्
स्वजनजनवियोगं मृत्युबन्धामयांश्च॥
बुधदिवसगतोऽरीन् बाधते मन्त्रशक्त्या
श्रवणसुखकथास्त्रीशिल्पमित्रागमांश्च।
क्षितिजयवररत्नस्त्रीप्रतापप्रमोदान्
नरकुलमचिरेण स्वीकरोत्यह्निसूरेः॥
प्रवरयुवतिशय्यावस्त्रगन्धान्नपान-
स्मरसुखधनरत्नान्यह्निभुङ्क्ते सितस्य॥
इति। एतदेव सूर्यादीनामंशके लग्ने च फलं वदेत्। यस्मादुक्तमनेनैव योगयात्रायां —
दिनकृद्दिवसेऽथवांशके वा यात्रा लग्नगते रवेरपीति।
इति। केषुचित्तिथिषु वारेषु केषुचिद्दिक्षु यात्रादौ कार्यविघातयोगिन्यादिदेवताप्रातिमुख्यपरिहारणाय तदारूढदिक्रस्थानमाह—
** योगिन्यः प्रथमादिकासु तिथिषुक्ष्माशैलनेत्राम्बुधित्रिष्वङ्गेभकुशैलदृग्युगगुणब्रह्माङ्गदिक्षु क्रमात्। क्ष्माशैलादिदिशासु सप्तसु वसन्त्यर्कादिवारेषु ताः यात्रादौ फणियोगिनीदिनकराः पृष्ठस्थिता स्सिद्धिदाः॥**
क्ष्मा भूमिः इभा गजाः कुर्भूमिःदृशौ नेत्रे ब्रह्माणि पञ्च प्रथमादिकासु पञ्चदश्यन्तासु पञ्चदशसु तिथिषु ब्रह्माण्याद्याः योगिन्यः क्रमात् क्ष्माशैलादिसङ्ख्यागतासु पूर्वोत्तराग्नेय्यादिदिक्षु वसन्ति। एतत्सङ्ग्रामविजयपद्धत्यामुक्तम्—
पूर्वस्यामुदयो ब्राह्म्याः प्रथमे नवमे तिथौ।
माहेश्वरी चोत्तरस्यां द्वितीया दशमी तिथौ॥
एकादश्यां तृतीयायां कौमारी वहिदिग्गता।
चतुर्थे द्वादशे चैव वैष्णवी निर् ऋतौ स्थिता॥
वाराही दक्षिणामेति पञ्चमे च त्रयोदशे।
षष्ठ्यां चैव चतुर्दश्यामिन्द्राणी पश्चिमे स्थिता।
पौर्णमास्यां च सप्तम्यां वायव्यां चण्डिका स्थिता।
नष्टचन्द्रदिनेऽष्टम्यां महालक्ष्मीः शिवालये।
दक्षपृष्ठे जया चेमा तद्वत्तत्कालयोगिनी॥
इति। एषा तु स्थिरा । सञ्चारिणी पुनर्योगिनी तिथ्यादेरारभ्य यामार्धं स्वोदयदिगाद्यासु दिक्षु तिष्ठन्ती तेन मार्गेण भ्रमति। उक्तं च—
यत्रोदयगता देशे भवेद्यामार्ध (भोगिनी) भुक्तिदा।
भ्रमन्ती तेन मार्गेण भवेत्तत्कालयोगिनी॥
इति। ताः पुनः ब्रह्माण्याद्याः सप्त योगिन्यः सूर्यादिवारेषु सप्तसु क्रमात् क्ष्माशैलादिदिक्षु पूर्वोत्तरादिषु राप्तसु दिक्षु तिष्ठन्ति। अष्टमी महालक्ष्मीः सर्वदा ईशान्यां तिष्ठति। तथा च नरपतिः —
इन्द्रचन्द्राग्निनैर्ऋत्ययमतोयानिले हरौ।
सूर्यादिषु च वारेषु पर्यटेद्वारयोगिनी॥
पर्यटेदित्यभिधानात् तेषामपि सूर्योदयादारभ्य यामार्धमुदयदिगादित एकैकस्यां दिशितिष्ठन्तीत्यभिहितम्। तथाच पद्धतौ—
प्रागुदग्वह्निनैर्ऋत्ययमाम्बुमरुदीशदिक्।
अष्टौ चरन्ति योगिन्यः यामार्धेषुदिवानिशम्॥
इति। यात्रादौ कार्ये यात्रायुद्धनृपदर्शनेषु फणिनो–राहवः। योगिन्य उक्ताः। दिनकरः सूर्यः एते पृष्ठस्थिताः कार्यसिद्धिदाः स्युः। सम्मुखदृष्टिगताः कार्यप्रतिघातकराः स्युः। योगिन्यः स्वस्वदिक्स्थानात् सम्मुखदिग्दृष्टयः तत्रस्थं नाशयन्ति। अन्यगतं रक्षन्ति तथाचोक्तं —
दिक्स्थानां सम्मुखे दृष्टिः(द्वित्रको) दिक्स्थके दारुणा मता।
कोणस्थानाच्च कोणेषु तिथीनामुदय(क्रमात) क्रमः॥
ब्रह्मस्थानं समुल्लङ्घ्य पतन्ति स्थितदिङ्मुखाः।
एतदृष्टिगतान् पुंसो भक्षयद्योगिनी तु तान्॥
पृष्ठे तु शुभमायाति स्थितान्तं तस्य जीवितम्।
इति। ज्योतिषार्णवे—
योगिन्यासि(श्रि)तदिक्सौख्यं दक्षिणं च जयावहम्।
कटाक्षं च मुखं चैव वामं चैव विवर्जयेत्॥
इति। अथ ऋक्षमासपक्षखण्डयामार्धमुहूर्तादिभेदन बहुधा राहुरुक्तः। तत्र कृत्तिकादिदिङ्गनक्षत्रेषु राहाक्रान्तदिग्गतो नक्षत्रराहुरित्याहुः। तथाच नरपतिः—
सप्तरेखाङ्कितेचक्रे कृत्तिकादि न्यसेच्छुभम्।
धिष्ण्ये तस्मिन् स्थितो राहू ऋक्षराहुस्स उच्यते॥
मासाराहुश्च तेनैवोक्तः—
द्वादशारेऽपसव्येन मासं चैत्रादिकं न्यसेत्।
(?) वहन्मासस्थितो राहुर्मासराहुः स उच्यते॥
पक्षराहुः सङ्ग्रामपद्धतावुक्तः—
यः पूर्वोत्तरयोः कृष्णे शुक्ले पश्चिमदक्षयोः।
कृष्णादितिथितः सप्तसप्तभा वह्निकोणतः॥
इन्द्रचन्द्रर्क्षकालाशाभ्राम्यो (?) राहुरिति कमात्।
खण्डराहुःसङ्ग्रामजयार्णवेऽभिहितः—
ऐन्द्र्यां कृष्णे तृतीयायां सप्तम्यां शूलिनो दिशि।
दशम्यां धनदाशायां वायव्यां भूतवासरे॥
शुक्लेचतुर्थ्यां बारुण्यां अष्टम्यां निर्ऋतेर्दिशि।
एकादश्यां तु याम्यायामाग्नेय्यां पूर्णिमातिथौ॥
ग्रहोऽष्टम उदत्येष हन्ति तत्पञ्चमी दिशम्।
मासेष्टाभोदयस्त्वेवं खण्डराहुः प्रकीर्तितः॥
यामार्धराहुर्नरपातनोक्तः—
इन्द्रवायुयमेशानतोयाग्निशशिराक्षसे।
यामार्धमुदितो राहुः भ्रमत्येव दिशि क्रमात्॥
ब्रह्मयामले विशेष उक्तः—
भानुर्भौमोऽङ्गिराः सौम्यसितमन्देन्दुराहवः।
इन्द्रादीशानपर्यन्तमर्धयामगता इमे॥
उदेति पश्चिमं राहुार्दंशि वारग्रहस्य तु।
स्यादस्य दिक्षु सञ्चारे चतुर्नाडिकसंस्थितिः॥
इन्द्रनैर्ऋतचन्द्राग्निजलेशप्रेतमारुतिः।
एवं राहोदिर्वा मार्गो यामार्धाष्टमकल्पितः॥
निश्शेषं वैपरीत्येन रात्रावपि गतिस्तथा।
एषा गतिस्सिते पक्षे कृष्णे पक्षे त्वसौ पुनः॥
इन्द्रवायुयमेशानजलाग्निशशिनैर्ऋतीः।
दिशो याति दिवा राहुर्निशि व्युत्क्रमतो गतिः॥
इत्येवं सूर्यादिवासरे स तथाचाऽन्यत्र भावयेत् ?
अन्यस्मिन् ग्रहवारादि वारग्रहदिशो भवेत् !
उदयोऽस्य गतिश्चैव क्रमायाता यथोदिता।
इति।
यस्यामनेन यातव्यं तां हन्यात् सम्मुखे दिशि।
यथा—
ऐन्द्रयां स्थितः सितः हन्यान्मारुतीं नैर्ऋतस्थिते।
अतोऽर्धयामगमनाच्चिन्तयेत्तद्दिशोदितम्॥
इति। अथ मुहूर्तराहुर्नरपतिनोक्तः—
ईशानयमवातेन्द्ररक्षस्सोमाग्निवारुणे।
पूर्वार्धेऽह्वाभ्रमत्येवमपरार्धे त्वयं क्रमः॥
जलाग्निसोमनैर्ऋत्यशक्रानिलयमे शिवे।
पूर्वरात्रौ भ्रमत्येव अपरार्धे ह्ययं क्रमः॥
दिनपञ्चदशांशेन मुहूर्तः परिकीर्तितः।
एवं मौहूर्तिको राहुः(ज्ञा) हातव्यः स्वरवदिभिः॥
इति। अन्ये त्वाहुः। दिनरात्र्योः पूर्वार्धयोरिति। तथा च ब्रह्मयामले —
ईशकीनाशवायव्यपूर्वनैर्ऋतवित्तपान्।
हुताशनजलाधीशानुदयं सेवते तमः॥
यावद्भवति मध्याह्नं व्यस्तमस्य ततो गतिः।
जलसोमनैर्ऋत (?) शक्रानिलयमासु च।
तां चेद्दिशं याति (?) रात्रावपि यथा दिने॥
प्रोक्तो मौहूर्तिको राहुर्मुहूर्ता दश पञ्च च।
इति। एतान् वामसम्मुखगतान्। तथाचोक्तं—
सम्मुखा वामसंस्था वा यस्येयं राहुमण्डली।
पराजयो भवेत्तस्य वादद्यूतरणादिषु॥
अन्यत्र—
राहोर्मुखं कटाक्षं च वामं चैव विवर्जयेत्।
इति।
यस्य दक्षिणपृष्ठस्था सैषा राहुपरम्परा।
सहस्रं वा तदेकोऽपि पर सैन्यं निकृन्तति॥
इति। दिनकरस्य भ्रमणोदयचारवशात् त्रिविधं पृष्ठगत्वं। तत्र प्रागादिदिग्ललराशिचक्रवशेन यस्यां दिशि स्थितोऽर्कः स यातुः पृष्ठतश्चेत् सिद्धिकरः। तथा च प्राग्लग्नस्थोऽर्कः प्रत्यङ्मुखः स्यात् अस्तलग्नस्थः उदङ्मुखस्य पृष्ठगः स्यात्। एवं विदिक्षु बोध्यम्।
तथा च देवलः—
लग्नस्थे वरुणाशां हिबुकगते दक्षिणां रवौ यायात्।
सप्तमगे पूर्वाशां मेषूरणसंस्थिते सौम्याम्॥
इति। अथवा प्रागादिदिक्षु भानुर्यस्यां दिशि दृश्यते सा दिक् पृष्ठतः कार्या। यथा पूर्वयामे प्राच्यां दिश्यक दृश्यते। द्वितीये आग्नेय्यां तृतीये यास्यायां इत्यादियामाष्टके प्रागादिदिगष्टके भानुस्तिष्ठतीति
प्रसिद्धिः। अनेनैवाभिप्रायेण नरपतिः—
प्रत्यहं दृश्यते यस्यां भानुबिम्बं दिशि स्थितम्।
दक्षपृष्ठस्थिता सा दिक्कर्तव्या जयकांङ्क्षिभिः॥
इति। गोचरेण भानुर्यस्मिन् राशौ तिष्ठति स राशिर्दिग्राशिचक्रे पृष्ठतः शुभः। तथा च नरपतिः—
भास्करो यत्र सन्तिष्ठेत् द्वादशारे प्रतिष्ठितः।
स राशिदिक्षु पृष्ठस्थो यात्रादौ जयदो मतः॥
इति केचिद्दिनगतग्रहणं कूराणामुपलक्षणमाहुः। तेन पृष्ठस्थाः क्रूराः शुभा इत्युक्तं। तथा च ब्रह्मयामले—
दक्षपृष्ठस्थिता कुराःमेषादिद्वादशारके।
यात्रादौ जयदाः प्रोक्ताः सौम्ये वामेऽथवा पुरः॥
इति। अत्र सौम्यौ—बुधजीवौद्वावेव। बुधशुक्रयोः सम्मुखत्वा शुभत्वात्। यथोक्तं योगयात्रायां—
प्रतिशुक्रबुधा शशिपृष्ठगता दिगधः कुरुते नृपतिं गमने।
मदिरामुदिता मदनाकुलिता प्रमदेव कुलं परवेश्मगता॥
इति। अत्रोदयमासपक्षदिनराशिवशेन पञ्चविधं चन्द्रस्य सम्मुखत्वं शुक्लद्वितीयां? नक्षत्रगश्चन्द्रो दृश्यते। तद्द्वयदिग्गतं स्यात्। वर्तमानमासपूर्णिमान्तचन्द्रमाः यद्दिङ्नक्षत्रे स्थितः सा मासचन्द्रदिक्।
तथा च—
चक्रे सप्तशालाकाख्ये वसन् मासर्क्षगःशशी।
मासचन्द्रो भवेदेव हातव्यः स्वरवोदभि॥
इति। शुक्लप्रतिपदादिसाधर्सप्तदिनानि प्रागादिचतुर्दिक्षु अपसव्येन चरति। तथाच नरपतिः —
पूर्वोत्तरगत शुक्ले कृष्णे पश्चिमदक्षगः।
एष मुक्तिप्रमाणेन पक्षचन्द्र इहोच्यते॥
इति। सप्तशलाकाचक्रे प्राचीमध्यरेखायामर्काकान्तभं न्यस्य ततोऽपसव्येन चन्द्रर्क्षं स्यात्। तथाऽऽह—
चक्रे सप्तशलाकाख्ये प्राच्यां मध्येऽर्कभं न्यसेत्।
ततो वामेन चन्द्रर्क्षंदिनचन्द्र इहोच्यते॥
इति। मेषादिराशिगतश्चन्द्रो यद्दिग्नाशो च तिष्ठति सा दिक्सचन्द्रा। तथा च नरपतिः—
दिशि यस्यां स्थितश्चन्द्रो सव्यमार्गेण राशिगः।
राशिचन्द्रस्स विज्ञेयः सर्वदा स्वरवेदिभिः॥
इति।
वामसम्मुखगश्चन्द्रो यात्रादौ विजयप्रदः।
इति। गुरुरपि बुधवदित्यन्ये। तथा च नन्दी—
प्रतिशुक्रेऽपि गन्तव्यं बुधो यद्यनुलोमगः।
विजिगीषो सुराचार्यःबुधवत्परिकीर्तित॥
इति। गुलिकविष्ट्यादिस्थितदिशो न यायादित्याह —
** यस्यां दिशि स्थिता नित्या गुलिकार्कजविष्टयः। न तां प्रति दिशं यायात् पृष्ठगास्ते शुभप्रदाः**
गुलिकः–प्रसिद्धः। अर्कजो–मन्दःकालश्च। विष्टिर्भद्रानित्याः
स्थिरागुलिकादयो यस्यां दिशि तद्दिने स्थिता तां दिशं न प्रयायात्। सम्मुखो न गच्छेत्। ते गुलिकादयः पृष्ठगाःजयप्रदाः। अतः तां दिशं पृष्ठतः कृत्वा यायात्। सूर्यादयः प्रागादिदिक्षु स्ववारेषु।
भानुः सोमः कुजः सौम्यः गुरुः शुक्रश्शनिस्तमः।
ऐन्द्र्यादीशान्यपर्यन्तं अर्धयामोदयाः स्मृताः॥
दिनवारोदया ज्ञेया स्वीयस्वीयदिशः क्रमात्।
तस्मिन् गुलिकजो राहुः स्थाने तत्र शनैश्चरः॥
इति। शनैश्चरश्च त्रिविधः—स्वोदयदिक्संस्थ आरूढदिक्संस्थः प्राग्लग्नादिभावगतदिक्स्थश्च इति। एष पृष्ठतश्च कार्यः। तथा च ब्रह्मयामले—
रविराहुकुजान् मन्दं कृत्वा दक्षिणपृष्ठतः।
सम्मुखं च निशानाथं समराभिमुखो भवेत्॥
इति। सूर्योदये वाराधिपः प्राच्यामुदितो यामार्धभुक्त्या अपसव्यं भ्रमति। तद्द्वितीयाद्यास्तद्वत्। आग्नेयादिप्विति यत्र मन्दः तत्र कालः। तथा च सङ्ग्रामविजये—
तस्य स्थानं वक्ष्ये प्राच्यामुदितं दिनाधिपं न्यस्य।
अपसव्यक्रमयोगात् सङ्गज्य वदेत्तमो भ्रमणम्॥
यत्रास्ते सूर्यसुतः तत्रासौ कालसंज्ञितो गुलिकः।
सोऽर्धप्रहरविभोक्ता विज्ञेयो भूमिचक्रतः सव्यम्॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
अर्कारजीवज्ञभृगुमन्देन्दुदिवसेष्वपि।
प्रागादित सव्यगामी तस्माद्दक्षिणगोऽन्तक॥
इति। नरपतिश्च —
वरोऽह्नि पूर्वदिग्भागे ततः सव्येन मन्दगः।
यस्य यत्तत्र कालस्य पाशः स्यात्तस्य सम्मुखम्॥
दक्षिणस्थःशुभ कालः पाशो वामदिगाश्रयः।
यात्रायां समरे श्रेष्ठः ततोऽन्यत्र न शोभनः॥
इति। विष्टिश्चतुर्थ्यादितिथिगता वारुण्यादिदिशि तिष्ठतीति प्रागुक्तं। एतत्सङ्ग्रामपद्धतौ स्पष्टमुक्तं—
भूताष्टवाजितिथ्यर्धादशा रुद्रगणाः क्रमात्।
प्रागादिविष्टयः प्रोक्ता जयदा दक्षपृष्ठयोः॥
इति। अन्ये तु पूर्णिमादिविष्टीनां आग्नेयादिषु वा अर्धतिथिषु त्रयमपसव्येन स्थानमाहुः। चतुर्दशी भद्रायां सार्धपञ्चकं—
सम्मुखी वामगा वर्ज्या यात्रायां समरे तथा।
पुरग्रामगृहादीनां प्रवेशे शुभमिच्छता॥
इति।
हस्तोत्तराश्विवसुविष्णुसुरे (ड्य) ज्यपौष्ण-
मूलाजमित्रशशिभेषु तथा च रिक्ते।
राजाश्रिते रविपुरन्दरपूज्यसौम्य-
शुक्रोदयांशदिवसेषु नृपः प्रयायात्॥
यदा रवेर्मण्डलमेति काव्यो विनष्टतेजाः गुरुरप्यथैव।
कालस्स दीक्षाव्रततीर्थयात्राविवाहयज्ञोत्सवनाशहेतुः॥
अत्र केचित्खेचरगोचरतारादिबलानुगुण्ये सत्यपि भूबलचक्रवधादिसन्निवेशादिरेव (?)गुण्ये लक्षणमनर्थकमित्याहुः—
विशुद्धलग्ने शुभदैवगोचरेऽप्यनर्थकं लग्नमचक्रशुद्धिमत्।
चक्रेषु शुद्धेषु शुभे च गोचरे शुभप्रदं लग्नमिहैष योगवत्॥
इति। तस्मात् प्राक्तनैरुक्तानि चक्राणि कानिचिद्वक्ष्ये—
तत्रादौ तुम्बुरुचक्रम्। तत्रापि प्रस्तारतुम्बुरुचक्रम्—
त्रयोदशोर्ध्वगा रेखा दश रेखाश्च तिर्यगाः।
भवेयुः कोष्ठगास्तत्र सङ्ख्यान्त्यष्टोत्तरं शतम्॥
कवर्ग नवधा लिख्यात् कोष्ठकप्रथमाष्टके।
द्वितीये सप्तमे चाद्यान् सकृन्न्यस्य तृतीयके॥
………………………..रेवास्वस्याग्व्याश्रिषडष्टके।
यशवर्गे चतुर्थे च (अ) जवर्ग पञ्चमेतथा॥
नवधा दशके नाड्य शेषा नाड्यो द्विकोष्ठके।
चतुरक्षरसंयोगे अश्विन्याद्याः कमेण च॥
ज्ञेया नवाङ्कवर्णानां यथा वा राशिमण्डले।
भौमं शुक्रं बुधं चन्द्रं रविं सौम्यं सितं कुजम्॥
गुरुं सौरि शनिं जीवं दद्यात्तत्कोष्ठकोपरि।
कोष्ठनक्षत्रभो ज्ञेयः चन्द्रस्तत्कालसंभवः॥
तदर्धानं फलं सर्वं लाभालाभजयादिकम्।
क्रूरर्क्षेणाश्रिते चन्द्रो न शुभस्सर्वकर्मसु॥
शुभर्क्षे तु शुभाद्येवं प्रस्तारे चन्द्रनिर्णयः।
नाडीफलयशोवर्गैः कवर्गादिफलोदयः॥
एकपक्षेण मानेन (?) षडतुर्यायिनां जयः।
प्रश्नकाले विवाहे च यात्रायामपि जन्मनि॥
शशाङ्कस्य फलं श्रेष्ठं सर्वशास्त्रषुगोपितम् ।
द्वादशारं लिखेच्चक्रं नाड्येकैका त्रिधा कृता॥
पञ्चमेपञ्चमे स्थाने तिर्यग्वेधं तथा कुरु।
अष्टोत्तरशतं चैव नाडीसंख्या प्रजायते॥
अंशाक्षराणि चक्रस्य नाड्येकाग्रेषु विन्यसेत्।
क्ररवेधाक्षरे चन्द्रो यदा तत्कालसंभवः॥
तदा तस्य फलं वक्ष्ये विवाहादौ शुभाशुभम्।
विवाहे क्रूरवेधेन वैधव्यं च विशीलता॥
यात्रायां च भवेद्धानिः मृत्युभङ्गोमहान् भवेत्।
सर्वहानिकराः क्रूराः ग्रहा सौम्याः फलार्धदाः॥
व्याधौ वेधो भवेद्यस्य मृत्युस्तस्य प्रजायते।
प्रस्तारे द्वादशारे च ऋक्षवर्णक्रमेण च॥
नवांशराशिमात्रेण चक्रं भवति तुम्बुरो।
यत्र क्षेमादिराशिस्थः तत्कालेन्दु प्रजायते॥
ग्रहदृष्टिवशात् सर्वं ज्ञेयं तस्य शुभाशुभम्।
उच्चस्थानास्थितश्चन्द्रः भौमादित्यौ प्रपश्यतः॥
समस्थाने च गुर्विन्दू नीचस्था राहुसूर्यजाः।
बुधशुक्रौ त्रिकोणे च चन्द्रं तत्कालसंभवम्॥
अन्यत्रस्था न पश्यन्ति जात्यन्धा इव खेचराः।
क्रूरदृष्टियुते चन्द्रे सर्वं भवति शोभनम्॥
क्रूरदृष्टियुते हानिर्भयं मिश्रे विमिश्रितम्।
तत्कालेन्दुफलं सर्वं यदुक्तं ब्रह्मयामले॥
गोपितं त्वन्यशास्त्रेषु मया चात्र प्रकाशितम्।
इति। नाडीचक्रं प्रवक्ष्ये—
आद्रार्दिकं लिखेच्चक्रं मृगान्तं च त्रिनाडिकम्।
भुजङ्गसदृशाकारं मध्ये मूलप्रतिष्ठितम्॥
यद्दिने त्वेकनाडीस्था नामचन्द्र भास्कराः।
यद्दिने वर्जयेत्तस्य विवाहे निर्गमे रणे।
इति। नरपतिनोक्तं अन्यैरुक्तं च लिख्यते—अथ पथराहुचक्रं—
पञ्चोर्ध्वास्तियर्गष्टौ च लिखेदेका ऋजूरिदम्।
फलं राहोर्भवेच्चक्रं अष्टाविंशतिकोष्ठकम्॥
धर्मार्थकाममोक्षाख्याश्चतस्रः सप्तकोष्ठकाः।
पङ्क्तयस्तासु दस्रादिफणिगत्या समालिखेत्॥
क्रमाद्धर्मास्थिते राहौ तत्रस्थे सर्वनाशनम्।
धनस्थे जायते भङ्गः स्मरम्थे दारविच्युतिः॥
मोक्षगे धनलाभस्स्यादथ वित्तगते रवौ।
तत्र द्वयोस्थितो (?) धर्मे सर्वार्थसिद्धयः॥
अर्थस्स्याद्विफलं सर्वं कामे कार्यार्थसिद्धयः।
युद्धयात्राविवाहादौ नगरादिप्रवेशने॥
सर्वेषु शुभकार्येषु पथराहुःफलप्रदः।
अथ (कालानलकाल) राहुचक्रम् —
शलाकासप्तकाचक्रं ईशादौ कृत्तिकादिकम्।
साभिजित्सव्यमालिख्य अष्टाविंशतितारके॥
यत्रर्क्षेसंस्थितो राहुस्तस्मात्पञ्चदशर्क्षगः।
केतुमाहुर्बुधाः केचिदेषु शास्त्रप्रमाणतः॥
नरपतिः—
यत्र संस्थितो राहुर्वदनं तन्निगद्यते।
ऋक्षाधारगतो राहुस्सर्परूपेण संस्थितः॥
मुखाच्चतुर्दशे ऋक्षे तस्यपुच्छं विनिर्दिशेत्।
एकोत्तरशतं यत्र केतवः समुपस्थिताः॥
राहुभुक्तानि ऋक्षाणि जविपक्षस्त्रयोदश।
त्रयोदशाथ भोग्यानि मृतपक्षः प्रकीर्तितः॥
मृतपक्षे गुदं तस्य मुखं जीवाङ्गमाश्रितम्।
एवमङ्गद्वयो राहुर्ज्ञातव्यः स्वरपारगैः॥
जीवपक्षस्थिते चन्द्रे कार्यं स्यादमृतोपमम्।
मृतपक्षे मृतं ज्ञेयं यत्र चन्द्रबलं बलम्॥
पद्धतिः—
सर्वंयात्रादिकं कार्यं जीवपक्षेऽर्थसाधकम्।
सजीवजीवहीनं तु मृतपक्षे विनिर्मितम्॥
राहुणा केतुनाक्रान्तनक्षत्रं गुलिकं भवेत्।
कर्तरीति द्वयं चक्रं तत्र नामानुगं फलम्॥
चन्द्रार्कौमृतपक्षस्थौ दुर्बलौ गुलिकेऽपि च।
बलवन्तौ च जीवस्थौ याने वा रणकर्माणि॥
यानं चन्द्रबले प्रोक्तं स्थानं सूर्यबले सति।
यायी चन्द्रो रविः स्थायी तद्बलाबलिनौ हि तौ॥
अथास्मिन्नेव चक्रे मुखोदरगुदपुच्छकपालाख्यपञ्चाङ्गकल्पनया फलमुक्तं नरपतिना—
अथ पञ्चाङ्गभेदेन राहुचक्रं वदाम्यहम्।
मुखोदरगुदंपुच्छे कपालं तस्य पञ्चकम्॥
इति। अन्यैर्मुखहृदयजठरगुदपुच्छमुखार्धस्य षडङ्गकल्पनयोक्तम्।
वदनात्सप्तभुक्तानि हृदयं जठरं ततः।
वदनात्सप्तमो(ज्या) ग्यानि मूर्धा पुच्छं ततश्च षट्॥
इति। पञ्चाङ्गपक्षे तु बदनाज्जठरं ज्ञेयं भुक्तर्क्षाणि त्रयोद्रश इति।
सूर्यरुद्राङ्गगे चन्द्रे रवौ कामाङ्गमागते।
यातुर्भङ्गो जय स्थातुःविज्ञेयं भूबलं हि तत्॥
भानौ कपालसूर्याङ्गे चन्द्रे सम्पुटवर्तिनि।
स्थातुर्भङ्गो जया यातुरीशवाक्यप्रमाणतः॥
रुद्राङ्गं च कपालं च…………
मूर्धा सूर्या पुच्छं च पृष्ठं कामाङ्गसम्पुटम्।
जीवाङ्गमुदरं चन्द्रे कपाली सूर्याङ्गे (?) कर्तर्यामास्थिते रवौ॥
बलद्वयं क्षयं यायि यायी किञ्चिज्जयान्वितः।
सूर्याङ्गमस्तकाङ्गस्थे रवौ कर्तरिगे विधौ॥
उभयोर्बलयोर्नाशो यायी किश्चिजयान्वितः।
मन्मथाङ्गं गते चन्द्रे कर्तरीसंस्थिते रवौ॥
समयुद्धं भवेत्तत्र स्थायी किञ्चिज्जयान्वितः।
सम्पुटस्थेसहस्रांशी कर्तर्यामास्थिते विधौ॥
समयुद्धं प्रजायेत स्थायी किञ्चिज्जयी भवेत्।
मुखे सूर्ये गुदे चन्द्रे विनाशो यायिनो जयः॥
गुदेभानौ मुखे चन्द्रे विध्वंसो यायिनो जयः।
कामाङ्गे हिमतिग्मांशौसन्धिदौबलयोर्द्वयोः॥
अर्केन्दू मूर्धपूर्वस्थौ रणे यायिजयप्रदौ।
पृष्ठस्थौ मस्तकस्थौ वा पृष्ठमस्तकगौ तथा॥
कर्तरीस्थौ यथा याने रविचन्द्रौ विवर्जयेत्।
इति। कर्तरी–गुदं मुखं च। अथास्मिन्नेव चक्रे राह्वादि8 एकत्रिचतुस्त्रयास्त्रकैकत्रितयंचतुष्टयत्रिकसङ्ख्यनक्षत्रैः शिरः पुष्पितफलितनिष्फलस्फुटित(सुखद)गुदराजसतामसशुभमृतसंज्ञदशाङ्गभेदकल्पनया फलमुक्तम्—
अध्वाङ्गतश्च9 रोगश्च राहुऋक्षे प्रजायते।
पुष्पितं फलितं त्रीणि क्षेमवाहकराणि च॥
शत्रुभङ्गो भवेद्युद्धे यात्रामासेन सिद्धिदा।
फलितान्यथ चत्वारि मासार्धेन फलन्ति च॥
गजवाजिधनं देशं प्रियासङ्गः सुखं यश।
निष्फलानि त्रिधिष्ण्यानि सर्वमेषु प्रपीड्यते॥
व्याधिपीडामनोदुःखपुत्रनाशधनक्षयैः।
कलहो मित्रभेदश्च विपदश्च पदेपदे॥
बन्धनं भूमिनाशश्च स्फुटितैस्तैस्ततस्त्रिभिः।
गुदेऽथ लभते कन्यां प्रियां सुखधनानि च॥
विपदो ब्रह्महत्या च मुखरोगश्च भूतिकम्।
ब्राह्मणादिप्रजापीडा राजसाख्यैस्ततस्त्रिभिः॥
शाकिनी10 चेष्टवेतालैः पीडा तामसभत्रये।
अशुभाह्वानि चत्वारि भीतिहानिप्रदानि च॥
सर्वनाशकराण्याहुः यात्राकाले न संशयः।
मृतानि त्रीणि धिष्ण्यानि तानि मृत्युप्रदानि च॥
इति। केचिद्राह्वारूढतारांशादारभ्य चतुर्भिश्चतुर्भिरंशैःएकैकमक्षं परिकल्प्य तैर्दशाभेदैः प्रतिभांगफलमामनन्ति —
आरभ्यराहुणाक्रान्तभांशादङ्गचतुष्टये।
क्रमादेकैकऋक्षस्य दशांशफलमुच्यते॥
शिरोभे शत्रुभिश्चित्तव्यथा सौख्यधनागमः।
पुष्पिताद्ये दशत्रीशत्रिपञ्चाशैर्धनाप्तयः॥
मध्यमेत्त्युत्त(म)रश्रेष्ठमध्यमाख्यैरसिद्धयः।
अन्येऽरिभी रिपुक्षोभ (विजय) विज्ञेयं क्षिप्रसिद्धयः॥
फलिताद्वैर्गजाप्तिर्मूलाभार्थाप्तिश्च रोगिता।
द्वितीये गजलाभार्थलाभगोलाभभीतयः॥
तृतीयेऽर्थाप्त्यभिभवरिपुभिर्भृत्यसङ्गमः।
तुर्येऽर्थलाभोऽर्थसिद्धिः साफल्यं बन्धुबन्धनम्॥
निष्फलं बन्धनाद्भीतिः शत्रुभीः प्राणसंशयः।
द्वितीये मरणं रोगः सैन्यहानिःसुहृत्क्षयः॥
अन्त्ये11 स्वहानिः कलहो नावृत्तिः शत्रुपीडनम्।
स्फुटितेऽरिक्षयो युद्धात् स्थानं मृत्युः पराभवः॥
बन्धो निवृत्तिरिपुभीर्गतिस्तम्भश्च मध्यमे।
अन्त्ये कृच्छ्रं वित्तहानिः प्रजानाशोऽरिपीडनम्॥
गुदे स्थानाप्तिराप्तिर्भूमिलामार्थसिद्धयः।
राजसाद्ये धर्मघातोदेशनाशः कलिर्मृतिः॥
मध्ये स्थानच्युतिर्मित्रहानिर्भद्रं धनागमः।
अन्त्ये मृत्यु कार्यनाशो देशभ्रंशः कुलक्षयः॥
तामसे कार्यनाशेष्टमृतिर्द्वितयपातकम्।
मध्यमे मरणं भूतदैवरक्षोभयानि च॥
अन्त्येन्दौ च क्षोभबन्धगुरुद्रोहप्रणाशनम्।
अशुभाद्ये धनावाप्तिर्मृत्युभीर्मरणं जयः॥
द्वितीये राष्ट्रभेदोऽर्थलाभो रत्न (समा ) धनागमौ।
तृतीये गजलामोऽश्वलाभो मृत्युक्रियाफलम्॥
तुर्ये भङ्गोदेशनाशो सुहृत्पुष्टिः शुभोदयः।
मध्ये रोगःसुहृन्नाशः शत्रु (सुत) नाशोऽखिलक्षयः॥
अन्त्यमे विहतिर्हानिःशत्रुभिस्तीव्रपीडनम्12।
एवं नक्षत्रपादेषुप्रारभ्यारियुताङ्गतः13॥
चन्द्रे सिते दशाङ्गाख्यभेदेन फलमीरितम्।
इदं स्थिरचक्रं। चरचक्रे तु तत्कालचन्द्रसूर्यौ कृत्वा ज्ञातव्यम्। सूर्येन्द्वोरिष्टनक्षत्रनाडिका (नखैः) नवभिर्हित्वाऽऽप्तानि भानीति गुणविशेषधटिका युक्ता।अश्विन्यास्स्वभुक्तयुक्तानि तात्कालिकानि स्युः।
अत्र नरपतिः—
स्थिरचक्रे पुरः प्रोक्तं चन्द्रादित्यफलं यथा।
चरचक्रे च तेनैव प्रकारेण फलं वदेत्॥
सर्वेषु शुभकालेषु यात्राकाले विशेषतः।
प्रश्नकाले शुभश्चन्द्रो ज्ञेयो राहुगुदोदरे॥
मुखपुच्छकपालस्थे शशाङ्के राहुचक्रगे।
धनहानिश्च मृत्युश्च सर्वकार्येषु जायते॥
गुदसम्पुटगे चन्द्रे विवाहे नन्दधुर्द्वयोः।
नैस्स्वं द्वेषश्च वैधव्यं मुखे पुछे च मस्तके॥
पुष्पिते फलिते शून्ये प्रश्नकाले शशी शुभः।
अफले पुष्पिते हानिर्मृत्युः शेषे म (मृ) त बुधैः॥
इति। परचक्रफलं च द्रष्टव्यम्। इदं खेचरं। स्थिरं तु भूचरं। द्वयोः सन्निपाते राहुकालानलं नाम चक्रं। तथा चोक्तं —
ऊर्ध्वं तु खेचरं चक्रं अधो भूचरमेव च।
उभयोः सन्निपातेन राहुकालानलं मतम्॥
न लोभैःन भिया स्नेहैः न देयं कार्यकारणैः।
कालानलमिदं चक्रं गोपनीयं प्रयत्नतः॥
चिरकालस्थितं शिष्यं सुपरीक्ष्य पुनःपुनः।
तस्य शिष्यस्य दातव्यं चक्रं कालानलात्मकम्॥
इति। अथ सर्वकालानलं चक्रम् —
ऊर्ध्वगास्त्रित्रिशूलाग्रात्रिरेखास्तिर्यगायताः।
द्वे नाड्यौ स्थिते कोणे शृङ्गयुग्मं तथैकया॥
मध्यशू (मू) लाऽथ दण्डत्थभानुभाद्यं भमण्डलम्।
साभिजित्तत्र दातव्यं सव्यमार्गेण सर्वदा॥
नामर्क्षंसंस्थितं यत्र ज्ञेयं तत्र शुभाशुभम्।
अधोगतैस्त्रिनक्षत्रैः विधात्तु वधबन्धनम्॥
रेखाष्टके जयो लाभः ऋक्षषट्के तथा पुनः।
शृङ्गयुग्मे रुजाभङ्गो मृत्युः शूलत्रये स्फुटम्॥
विवाहे विग्रहे युद्धे रोगार्तौ गमने तथा।
सर्वकालानलं चक्रं ज्ञातव्य च प्रयत्नतः॥
अथ चन्द्रकालानलचक्रं —
चन्द्रकालानलं चक्रं व्योमाकारं लिखेद्भुधः।
चतुर्दिक्षु त्रिशूलानि मध्यभिन्नानि कारयेत्॥
पूर्वत्रिशूलमध्यस्थदिनऋक्षादिविन्यसेत्।
त्रिशूलबाह्यमध्यस्थं मध्यबाह्यत्रिशूलगम्॥
नामर्क्षं संस्थितं यत्र ज्ञेयं तत्र शुभाशुभम्।
त्रिशूले (च) न भवेन्मृत्युर्मध्यमं बहिरष्टमम्॥
लाभक्षेमजयप्रीतिं चन्द्रगे (हं) भे न संशयः।
वर्जनीयं प्रयत्नेन प्रथमाष्टत्रिपञ्चमम्॥
ऋक्षं द्वादशकं चात्र कालरूपी न संशयः।
लाभालाभौ सुखं दुःखं जयं चैव पराजयम्॥
चन्द्रकालानले चक्रे विद्यात्संशयवर्जितम्।
इति। अथ घोरकालानलं —
शलाकासप्तकं चक्रं लिखित्वा चन्द्रभादितः।
त्रिषुत्रिपु च ऋक्षेषु नव सूर्यादयो ग्रहाः॥
यदङ्गे नामनक्षत्रं फलं तत्र यथाक्रमम्।
भानुना शोकसन्तापौ शशाङ्कः क्षेमलाभदः॥
भूसुतो मृत्युमाधत्ते बुधे प्रज्ञा प्रजायते।
जीवे लाभः शुभं शुक्रे सूर्यपुत्रे महद्भयम्॥
राहुणा घातपातं च केतौ मृत्युर्न संशयः।
यात्राजन्मविवाहेषु सङ्ग्रामे विग्रहेपि वा।
घोरकालानलं चक्रं ज्ञात्वा कर्म समारभेत्।
अथ गूढकालानलं—
सप्तारे वा भवेच्चक्रे चान्द्रभाद्यन्तमण्डलम्।
लिखित्वा कल्पयेत्तत्र षडङ्गं जयकाड्क्षिणा॥
यत्रर्क्षे संस्थितश्चन्द्रः तदादि त्रीणि गूढकम्।
सम्पुटं नव भान्यत्र कर्तरी तु ततस्त्रिम्॥
दण्डाधिण्ष्यानि च त्रीणि कपालं सप्तऋक्षकम्।
वज्राङ्गं धिष्णियान्येवं षडङ्गं निर्णयक्रमात्॥
यदङ्गे नामनक्षत्रं फलं तत्र शुभाशुभम्।
गूढस्थे विभ्रमो युद्धे जयो भवति सम्पुटे॥
कर्तर्यांसजयं युद्धं दण्डे भङ्गो न संशयः।
कपालस्थे भवेन्मृत्युः वज्रे तस्य महद्भयम्॥
गूढकालानलं चक्रं द्रष्टव्यं स (म) प्तराशिषु।
इति। अथ सूर्येन्दुकालानलं—
द्वादशारं लिखेच्चक्रं मेषादिद्वादशान्वितम्।
क्षेत्रयुग्मं च तत्रैव ज्ञातव्यं सूर्यचन्द्रयोः॥
सिंहादि मकरान्तं च भानुक्षेत्रमुदाहृतम्।
कुम्भादिक (र्कि) र्कपर्यन्तं चन्द्रक्षेत्रं न संशयः॥
चन्द्रक्षेत्रं गते सूर्ये चन्द्रे तत्रैव संस्थिते।
यातुर्मृत्युर्जयस्थातुः इत्युक्तं ब्रह्मयामले।
सूर्ये सूयाङ्गसंयुक्ते चन्द्रे चन्द्राङ्गसंयुते।
तदा काले भवेत्सन्धिः युद्ध तस्य विषर्यये॥
कर्तर्यांयदि चन्द्रार्कौसंहारः सैन्ययोर्द्वयोः।
यात्रायां युद्धकाले च चक्रमेतद्विलोकयेत॥
इति। अथ फणिचक्रं—
चक्रं फणीश्वराकारं त्रिनाडीगततारकम्।
अश्विन्यादि च पौष्णान्तं फणिगत्या समालिखेत्।
क्रूरैर्युक्ता नाडिका पीडिका स्यात्
तस्यां संस्थे जन्मभे मृत्युर्भातिः।
राज्ञां पीडाऽर्थक्षयो विप्रयोगः
सौम्यैर्युक्ता सौख्यसम्पत्प्रदा स्यात्॥
इति। अन्ये त्वाहुः —
अश्विन्यां नवकं मूलान्त्यार्धचत्वारिकं (?) तथा।
नक्षत्राणि शशाङ्कस्य भानोः शेषाणि योजयेत्॥
सूर्यभौमौ यदि स्यातां शत्रुसेन्यविनाशनौ।
चन्द्रभे यद्युभौ स्यातां स्वसैन्यस्य विनाशनम्॥
स्वस्वभे यद्युभौस्यातां समं प्रोक्तं तदा बुधैः।
इति। अंशचक्रम् —
अष्टाविंशोर्ध्वगा रखा अष्टाविंशतितिर्यगाः।
अंशचक्रं भवत्येवं यदुक्तं ब्रह्मयामले॥
कृत्तिकानि भान्यत्र पादवर्णक्रमेण च।
साभिजिन्ति न्यसेदृक्षाण्यष्टाविंशतिसङ्ख्यया॥
यो ग्रहो यत्र ऋक्षांशे तं तत्रैव न्यसेद्बुधः।
वेदयेत्सम्मुखं वर्णं क्रूरो वाऽपि शुभोऽपि वा॥
आद्यंशेन चतुर्थांशं चतुर्थांशेन चादिमम्।
द्वितीयेन तृतीयं तु तृतीयेन द्वितीयकम्॥
यस्य नामाक्षरं विद्धं अंशचक्रक्रमेण तु।
क्रूरेऽनिष्टं शुभे हा (ग्ला) निर्द्वयोर्मृत्युर्न संशयः॥
क्रूरोभयकृतेवेधे भवेन्मृत्युर्न संशयः।
शुभोभयस्थिते वेधे व्याधिपीडा च बन्धनम्॥
वैधव्यं तु विवाहे स्याद्यात्रायां तु महद्भयम् \।
योगे मृत्यू रणे भङ्गः क्रूरवेधे न संशयः॥
अद्रयः सागरा नद्यो दिशो (देशे) ग्रामपुराणि च।
क्रूरवेधे विनश्यन्ति किं पुनर्मनुजा भुवि ॥
इति।
चन्द्रऋक्षांशको विद्धो भवेद्यद्यपरग्रहैः।
तन्मानं तद्दिनं वर्ज्यं सर्वत्र शुभकर्मणि॥
इति।अथ ग्रहफणिचक्राणि—
ग्रहर्क्षाणि लिखेद्यत्र फणिचक्रे त्रिनाडिके।
नामऋक्षस्थितं यत्र ज्ञेयं तत्र शुभाशुभम्॥
हानिर्मृत्युश्च रोगश्च नाडिवेधगते ततः।
वर्जयेत् सर्वकार्येषु युद्धकाले विशेषतः॥
निर्वेधमृक्षमध्यस्थं यस्य नाम प्रजायते।
सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि सङ्ग्रामे विजयो भवेत्॥
न्यसेत् सजन्ममारभ्य मूर्धाक्षिगलबाहुषु।
पार्श्वयोः पादयोः युद्धे सर्वस्वायुधवीक्षितः॥
पापग्रहस्थितर्क्षेषु युद्धे शत्रुदिभिः क्ष (ज) यः (सह)।
इत्यादीनि बहूनि वर्णितान्यप्यत्र द्रष्टव्यानि।वामसम्मुखगा इत्यत्र क्वचिदपवादमाह।
** यात्रा शुभदा दक्षिणभागे दिगधीशे केन्द्रे च तथा तद्भवनस्याभ्युदये च। वाराधिपतिं दक्षिणसंस्थं शुभमस्यां शंसन्ति विलग्ने(दो) चोपचयस्थ (स्यच) स्थितवारम् ॥११॥**
यियासितदिक्पतौ ग्रहे यातुर्दक्षिणभागस्थिते ग्रहे सा यात्रा शुभदा भवति॥ पृष्ठभागे च शुभा यथोक्तं —
पृष्ठदक्षिणगे यात्रा दिगीशे विजयप्रदा॥
इति। वामसम्मुखगे दिगीशे यात्रा न शुभदेत्यर्थादेव सिद्धं॥ उक्तं चान्यैः—
वामसम्मुखगे तम्मिन् यातुः प्राणार्थहारिणी॥
इति। तत्रापि संमुखे विशेषतः। तथा च सर्वसिद्धार्थो यात्राकारः—
दिशि यस्यां योऽधिपतिः (तथा) तत्स्थे तस्मिन् न तां दिशम्।
विजिगीषुः प्रतिष्ठेत कार्येप्यात्यायिकेष्वपि॥
इति। अत्रापि प्राग्लग्रादिराशिचक्रभ्रमणेन सम्मुखगो ललाटग इत्युच्यते। तथा च नारदः—
लग्नस्थो भास्करः प्राच्यां दिशि यातुर्ललाटगः।
द्वादशैकादशे शुक्र आग्नेय्यां तु ललाटगः॥
दशमस्थःकुजो लग्नात् यास्यायां तु ललटगः।
नवमाष्टमगो राहुः नैर्ऋत्यां तु ललाटगः॥
लग्नात्सप्तमगः सौरिः प्रतीच्यां तु ललाटगः।
षष्ठपञ्चमगश्चन्द्रो वायव्यां तु ललाटगः॥
चतुर्थस्थानगः सौम्य उदीच्यां तु ललाटगः।
द्वित्रिस्थानगतो जीव एैशान्यां तु ललाटगः॥
ललाटगं तं संत्यज्य जीवितेच्छुः व्रजेन्नृपः।
दिगीश्वरे ललाटस्थेयातुर्न पुनरागमः॥
इति। दिगधीशे केन्द्रे च स्थिते तथा यात्रा। याता यां दिशं जिगमिषति तद्दिगीशं ग्रहं तत्काललग्नेकेन्द्रे कृत्वा व्रजेदित्यर्थः। तथा चोक्तम्—
ललाटगे न प्रविशद्दिगीशे गन्तव्यमास्मिन् खलु कण्टकस्थे।
इति। अपि तु यात्रालग्नकेन्द्रभेषु यत्र राशौ यो ग्रहो यियासितदिगधीशःपूर्णदिग्वलः स्यात्तत्काललग्नकेन्द्रे तद्राशौ “परिहरेन्मनसापि न दिग्बलान्वितदिगधिपे (?) ताम्" इति वचनात्। तथा याता प्राची गन्तुमिच्छन् तदधिपतौसूर्ये दिशामभिदिग्बलान्विते याता लग्नकेन्द्रे दशमे राशौ स्थिते सति तां दिशं मनसापि न गच्छेत्। एवमाग्नेयी गच्छन् शुक्रे चतुर्थस्थे तां न गच्छेत्। एवमन्याश्च स्वाधिपतिषु पूर्णदिग्बलस्थानेषु गतेषु न व्रजेत्। तथा तस्य दिक्पतेर्भवनस्यराशेरुदये च यात्रा न शुभदा। याता यां दिशं गन्तुमिच्छति तद्दिक्पतेर्ग्रहस्य राश्युदये तां ययात्। तथा च गुरुः—
यतो दिगीशगे यात्रा शोभना प्रतिलोमगा।
अशोभना नृपस्तस्मात् दिगीशर्क्षोदये व्रजेत्॥
इति। अथवा यातुर्यियासितस्थितदिग्राशेरुदये यात्रा शुभदेति। दिग्राशिस्तु वराहमिहिरेणोक्तः—
प्रागादीशाः क्रियवृषनृयक्कर्कटाः सत्रिकोणा।
इति। तत्तद्दिमाश्युदये तत्तद्दिग्गमनं शुभदं। प्रतिराश्युदये मेषसिंहचापानां पूर्वदिग्राशीनामुदये पूर्वांदिशं यायात। तत्प्रतिदिग्राशीनामुदये न व्रजेत्। दक्षिणादिगातानां वृषकन्यामकरराशीनामुदये दक्षिणां दिशं व्रजेत्। तत्प्रतिदिग्गतानां कर्कटकवृश्चिकमीनराशीनामुदये दक्षिणां
तथा च श्रीपतिः—
यस्य जन्मनि शुभग्रहाश्रितो यस्यराशिरिहवे (श्च) शिसंज्ञितः।
यश्च शत्रुभवनाधिनैधनो लग्नगः स गमने शुभावहः॥
इति। वराहमिहिरोऽपि —
सौम्यौऽपि जन्मनि लयं शुभपुष्टिदाता
स्थानेन तस्य शुभदं व्रजतो विलग्ने।
पापोऽपि यः शुभफलं प्रकरोति पुसां
स्थानं विलग्नगतमिष्टमुशन्ति तस्य॥
अथवा यातुर्जन्मविलग्नयोर्विधेयतया अनुकूलस्य राशेरुदये यात्रा शुभदा। तथा च वराहमिहिर —
सविपस्यतामुपेते (?) स्वलग्नर्क्षयोर्विलग्नर्क्षे।
अपचयकरेऽपि यदा यातुर्जयधनमानगाः क्षि (प्राः) प्रम्॥
गशीनां विधेयत्वं च तेनैवोक्तं —
स्थलजलसरीसृपास्स्वकानां बलमभिवीक्ष्य विधेयतां भजन्ते।
विषमगृहवशे समा द्युसंस्था निशि विषमाः समवर्तिनःसमानाः॥
इति। स्वजन्मलग्नयोरावधेयराशौ यात्रा धनक्षयायासकरीत्युक्तमेव।यदुक्तं —
अविधेयं भवनं यत्स्वजन्मलग्नर्क्षयोः प्रयातॄणाम्।
अप्यनुकूलं लग्नं धनक्षयायासदं भवति॥
इति। यात्राया विषये तद्दिनवाराधिपतिर्यातुर्दक्षिणसंस्थः शुभः। शंसन्ति वदन्ति। यथाऽऽह गुरुः।नारदेवाभिप्रायेण (?)
यात्रायाश्शुभदा वारा वारेशे दक्षिणे गते।
सुशुभ यातुरेव स्याज्जयश्चैव भविष्यति॥
अथवा सर्वभावेषु प्रशस्तत्वात्सममिति लग्नमुच्यते॥ तत्र स्थितः संस्थः
(लग्न) अनुकूलो दक्षिणो अनुकूलः सुहृत् संस्थितो यस्य तं दक्षिणसंस्थं लग्नस्थग्रहसुहृदं वाराधिपं शुभमाहुः।लग्नस्थग्रहस्य सुहद्वारे यात्रा शुभदेत्यर्थः। तथा च महायात्रायां —
रिपुदिवसो यस्य भवेत्सौम्योऽपि विलग्नगो न शुभदानम्।
पापोऽपीष्टं जनयति मित्रं स्वदिने विलग्नस्थः॥
इति।विलग्नाद्यात्रालग्नस्य उपचयस्थानगतस्य वारं शुभं वदन्ति। वाराधिपतेर्लग्नादुचयस्थाने श्रेष्ठ इत्यर्थः। तथाहात्रिः—
प्रशस्तफलदाः क्रूराः यात्रासूपचयं गताः।
सन्तोऽप्यपचयस्थाश्चेत् स्ववारेऽपि न शोभ (ने) नाः॥
इति। अथवा यातुर्विर्लग्रगो जन्मलग्नर्क्षयोरुपचयगः “स्थितस्य वारं शुभमाहुः। यातुः स्वजन्म (?) भीष्टस्य वारे यात्रा कार्येत्यर्थः। दिनभांशवि धिस्तथा स्यादिति। दिनादेः ग्रहवदतिदेशात्॥ लग्नदोषानाऽऽह —
** यातुर्जन्मविलग्नयोर्मृतिगृहे लग्नेऽथवा शत्रुभे यद्वापष्ठपत्तौ तयोर्मृतिगृहेऽधीशेऽथवा लग्नगे। तद्भप्रोर्बलहीनयोरथ तयोः पापग्रहारूढयोः निर्वीयोसु दिगीशसौम्यतनुषु प्राणान् प्रयाण हरेत्॥१२॥**
यातुर्जन्मराशि जन्मविलग्नयोर्मृतिगृहेऽष्टमराशौ शत्रुभेषष्ठराशौ वा यात्रालग्ने सति। यद्वा––तयोर्जन्मविलग्नराश्यां षष्ठराश्यधिपे वा यात्रालग्नेसति। अथवा तयोस्तद्भत्रोस्तयोर्जन्मबिलग्नराश्यो रधिपयोर्बलवर्जितयोः सतोस्तयोर्विलग्नराश्योः पापगृहैःस्वस्वामिव्यतिरिक्तैः आक्रान्तयोर्वा। दिगीशो–यातव्यदिक्पतिः सौम्या शुभग्रहाःतनुर्यार्त्रालग्नं तासु दिगीशसौम्यतनुषु यथोक्तबलवर्जितासुयात्रा यातुः प्राणान्
हरेत्—विनाशयेत् एवंविधे लग्ने यदि यात्रा क्रियते सा प्राणानपि नाशयति किमुत धनादिकमित्यर्थः॥ अत्र गुरुराह—
यस्य जन्मनि चन्द्रस्थराशिर्जन्मर्क्ष एव च।
हिबुकास्तगतौ पापदृष्टियुक्तौ न शोभनौ॥ **
तयोरेवाधिपौ तद्वदस्तौ वा बलवर्जितौ। **
तदा यातो नरो नश्येत्प्राणसंशयमाव्रजेत्॥
होराष्टमे लग्नगृहाष्टमे वा
** तच्छत्रुभे शत्रुगृहोदये वा।
तद्राशिवैरागमनं विलग्ने
** स्तुल्यं नराणां विषभक्षणेन॥
इति। गुरुः—
सौम्यग्रहाः विलग्नं च यदा वीर्यविबर्जिताः।
लग्नकेन्द्रं च शून्यं चेत् तदा यातुर्विषोपमम्॥
इति।
स्वाष्टलग्नेष्टराशौ वा यात्राभात् षष्ठपोऽपि वा।
तेषामशिस्थराशौ वा यातुर्मृत्युर्न संशयः॥
इति। जन्मलग्नप्रभृतिषु द्वादशसु स्थानेष्वपि लग्नगतेषु फलमुक्तम् महायात्रायाम्—
क्लेशाद्विनाफलमरिक्षयमर्थासिद्धि
** प्राप्नोति लग्नसहितं प्रवसा(न्) स्वलग्ने।**
**अर्थक्षयं सममनर्थमतो द्वितीये **
** कल्याणसौख्यविभवागममाहुरेके॥ **
भृत्यार्थवाहनसहायजयस्तृतीये **
** गन्धार्थनाशभयसैन्यलयाश्चतुर्थे
मन्त्रोपजापविपदात्मजभेऽरिभीतिः
** षष्ठेऽरिवित्तबलदीप्तजयागमाश्च॥
द्यूनेऽध्ववाहनविपत् क्षुदतिश्रमार्ति-
र्बन्धो वधः परिभवो निधने रुजश्च।**
धर्मेऽर्थनाशगदकार्यविपद्भयानि **
** कार्य विना बलभयं दशमे क्षयश्च॥
केचिद्वदन्त्युपचयोपगृहीतमेत- **
** त्तस्माच्छुभं दशमभे गमनं विलग्ने।
अर्थाप्तिदीप्तिशुभसन्धिजयं च लाभे **
** रिप्फे छलं व्ययभवे विजितेऽपि भेद॥
इति। जन्मराशिप्रभृति द्वादशसु स्थानेषु लग्नगतेष्वप्येवं फलमुक्तम्। क्वचित्क्वचिद्विशेषोऽस्ति। स चोक्तः—
रोगाज्जन्मगृहोदये सुतवधूसिद्धिश्च तत्पञ्चमे
** द्यूने क्लेशमवाप्य जन्मभवनात् प्राप्नोति पश्चात् सुखम्।**
मार्गादेव निवर्तनं नवमभे मेषूरणेऽर्थागमः **
** शेषर्क्षेषु यथैव लग्नभवनात् तद्वत् फलं जन्मतः॥
इति। अभियोज्यस्य शत्रोर्जन्मलग्नाभ्यामष्टमे राशौ यातुः शत्रुक्षयः ताभ्यां षष्ठभे स्वनाशः यथाऽऽह सत्यः—
रिपुनिधनशत्रु(वधो) बाधः रिपुषष्ठे लग्नगे यातुः।
इति। जन्मलग्नेशौ क्रूरौ चेदुपचयस्थौ शुभौ चेत्केन्द्रस्थौ बलिनौ चान्यत्र बहलीनौ अशुभौ स्तः। यथोक्तम्—
जन्मोदयपौ बलहीनौ उपचयकण्टकगौ शुभप्रदौ।
इति। यदा जन्मलग्नेशौ सूर्यद्वितीयराशिस्थौ पश्चात्संधिगथौ सूर्यद्वादशराशिस्थौ प्राक्सन्धिगतौ वा सूर्यमण्डलेऽस्तमितः तदा नशुभप्रदौ
शुक्रमन्दौ तादृशावपि शुभप्रदौ। यथाऽऽह बादरायणः—
सन्ध्या सवितृच्छन्ना(?) नेष्टा स्वदशाकाले विलग्नेशाः।
अन्यत्र भृगुराशिभ्यां रविमण्डलनिस्सृतान्त.(?)॥
इति। जन्मलग्नयोः पापग्रहारूढयोरिति कथनं ग्रहदौस्थ्योपलक्षणार्थं। तेन जन्मलग्नयोः क्रूरग्रहदौस्थ्ये यात्रां न कुर्यादित्युक्तम्। यथाऽऽह रल्लः—
ग्रहदौस्थ्ये विश्वासं परगृहगमनं च दूरतो यानम्।
साहसमकालचर्यां मृगयां हयवाहनं त्यजेद्भूपः॥
इति। बलवति दिक्पतौ यात्रा शुभदेत्युक्ता। तथा च गुरुः—
**शत्रोर्विक्रमजन्मेशौ विबलौ च सजन्मपे। **
विबले दिक्पतौ स्वस्थे व्रजेदनभिवक्र(ता)गे॥
इति। तस्मिन् बलहीने सापि शुभदा। सौम्यग्रहेषु निर्वीर्येषु नीचारातिगेषु लग्ने च निर्वीर्येऽष्टकवर्गादिशुद्धिहीने यात्रा न शुभदा। सा समाधमा। अत्र षट्प्रकारां यात्रामाहुः। अत्र वराहमिहिरः–
मध्यमाधमोत्तमसममध्याधमोत्कृष्टा।
मध्योत्तमा च षष्ठा यात्रा यात्रावतामिष्टा॥
इति। तल्लक्षणं शास्त्रान्तरोक्तं यथा—
**अष्टकवर्गविशुद्धैर्नीचारिगतैश्च या यात्रा। **
मध्याधमा निगदिता समानफलदैः समप्राया॥
**सत्फलदशाविपाके नीचारिगतेषु भवति सौम्येषु। **
अधमोत्तमा हि यात्रा प्रयुज्यते क्षिप्रकार्येषु।
**अष्टकवर्गविशुद्धैः स्ववर्गभवनोपगैश्च या यात्रा। **
**सममध्या गदिता सा रिक्तदशा पाकसंस्थिते शत्रौ॥ **
तात्कालिकलग्नाद्यैः परिशुद्धिर्नीचगेष्वपि कथञ्चित्।
अधमाधमा जिगीषोर्दद्याद्यात्रां स्वविषये प्रयातस्य॥
सत्फलदशाविमाके त्रिकोणतुङ्गोपगेषु सौम्येषु।
**यात्रोत्तमोत्तमा सा सर्वत्र फलप्रदा यातुः॥ **
**अष्टकवर्गे बलिभिः त्रिकोणतुङ्गोपगैः सर्वैः। **
**मध्योत्तमा हि यात्रा परदेशे शत्रुसाधिनी यातुः॥ **
इत्येवं सर्वकार्येष्वपि षड्भेदाः स्युः। तुङ्गत्रिकोणगेषु सौम्येषु तात्कालिकलग्नादिशुद्ध्या या यात्रा क्रियते सोत्तमा। तथा स्वमित्रगेषु तात्कालिकलग्नादिशुद्ध्या मध्यमा। सत्फलदशाविपाके स्वमित्रग्रहगैः उत्तममध्यमेत्यादयो भेदाः किं न पृथगुक्ताः, उच्यते, संज्ञातुल्यत्वात्। सामान्यफलत्वाच्च। षष्ठे च यात्रोक्ता। अधमाधमाश्च यात्राभेदा विषयविभागेन यात्राप्रतिनिवृत्त्यादिकालेषु योजनीयाः। अथ ताराबलविशेषमाह—
** गमनेषु पञ्चविंशं नक्षत्रं सप्तविंशमपि कर्तुः।
त्याज्यं मुनयो ब्रुवते केचित् सर्वत्र शुभकार्ये॥**
कर्तुः–यात्रादिकर्तुः जन्मार्क्षात्पञ्चविंशं सप्तविंशं च ताराद्वयं गमनेषु–परराष्ट्रादियात्राक्रियासु त्याज्यामिति गुर्वादयो वदन्ति। केचिन्मुनयः पञ्चविंशं सप्तविंशं च ताराद्वयं सर्वत्र शुभकार्ये वर्ज्यमाहुः। तथाच गुरुः—
**सप्तविंशं च नक्षत्रं पञ्चविंशं च शोभने। **
**वर्जनीये प्रयत्नेन यात्रायां तु विशेषतः॥ **
इति। यात्रायां जन्मलग्नाभ्यां उपचयस्थः चन्द्रः शुभः। तथाऽऽह गुरुः—
**लग्नाज्जन्मर्क्षतो वाऽपि चन्द्रेऽनुपचयं गते। **
**क्षीणे चाशुभदा यात्रा सम्पूर्णोपचये शुभा॥ **
इति। अनुपचयेऽपि सप्तमे जन्माने च शुभ इत्यन्ये। यथाऽऽह—
उपचयगृहसप्तमगः शुभः शशी जन्मगोऽपि यात्रायाम्।
इति। जन्मगो न शुभ इत्यन्ये। यथाऽऽह सत्यः—
जन्मर्क्षगश्च चन्द्रो यातुर्नेष्टो ह्यनिष्टफलदत्वात्।
तस्माद्यात्रासमये जन्मनि चन्द्रस्य जन्म भवेत्॥
इति। तत्रापि जातकोक्ततत्कालाष्टकवर्गविधिना यदा शुभस्तदा शुभमेव करोति। यथाऽऽहवराहमिहिरः–
अष्टवर्गपरिशोभितः शशी श्रेष्ठतां समनुवर्तते यदा।
जन्मगोऽपि हि तदा प्रशस्यते योऽष्टवर्गशुभदः स शोभनः॥
इति। अन्यस्थानगतोऽप्यष्टवर्गशुभदः स शोभन इति। जन्मादिस्थानगतो गोचरेण शुभदश्चन्द्रस्तदानी जन्मराशितः पञ्चमस्थाने यद्यन्यो ग्रहस्तिष्ठति तेन चन्द्रो विध्यते। विद्धश्चानिष्टदः। अथ विपरीतवेध गतोऽनिष्टदोऽपि शुभदः। यथा जन्मराशितः पञ्चमे चन्द्रोऽनिष्टदः। तदानी जन्मनि युद्यन्यो ग्रहस्तिष्ठति तेन चन्द्रो वामेन विध्यते। वामवेधगतः शुभदः। तथाच स्वल्पयात्रायां—
जन्मनि त्रिषडेकादशसप्तमगोऽपि नेष्यते चन्द्रः।
पञ्चभवान्त्याष्टजतुर्वेधगत…………………………॥
इति। अत्र गोचरस्य स्थूलमार्गेण फलत्वात् तद्वेधस्य अनियतत्वाच्च तयोः प्रामाण्यं मन्वानैराचार्यै- रष्टकवर्गशुद्धिरेवाङ्गीकृता। यथोक्तं वसिष्ठेन—
**शुद्धाष्टवर्गशशिना प्रवदेद्वेधजं फलम्। **
गोचराभिहितं चैव न वेधफलंमिष्यते॥
इति। अथ यस्मिन् मासे चन्द्रो यस्य जन्मर्क्षयोगताराया दक्षिणेन गच्छति स तस्मिन् मासे यात्रां न कुर्यात्। यस्मिन् मासे शुक्लपक्षप्रतिपत्प्रारम्भे यायी ग्रहयोः सितारयोः राशिषु प्राप्तः तदा यायी जयति। तस्मिन् यायात्। यदा पौरग्रहाणां बुधगुरुमन्दानां राशिषु स्थितस्तदा
पौराणां जय इति नचात्र यायात् स्थायी स्यात्। कृष्णप्रतिपत्प्रारम्भे यायिक्षेत्रगतश्चपौराणां क्षय इति अत्र यायात्। यथाऽऽह वराहमिहिरः–
यस्योत्सृजत्युडुपतिः पुरुषोऽपसव्य **
** जन्मर्क्षमापदमुपैति स भूमिपालः।
यायी तथेतरगृहोपगते तदादौ
** यायीतरेश्वरजयो बहुवेक्षणाय(?)॥**
इत्युक्तन्यायेन अशुभदेऽपि पक्षे चन्द्रो यद्यनुकूलराशिगः सौम्यमध्यस्थोमित्रवश्यकारकाख्यग्रहगृहगतः शुभकर्ता च भवति। पापाभिलाषीशत्र्वादिक्षेत्रगतत्वात् अशुभद एव। यथोक्तं मिहिरेण—
उपचयगृहयुक्तः सव्यगः शुक्लपक्षे
** शुभमभिवशमान(?) सौम्यमध्यस्थितो वा।**
स हि वशिगृहयुक्तः कारकर्क्षेऽपि चेन्दुः
जयसुखधनदाता तत्प्रहर्ताऽन्यनाथः॥
इति। मित्राण्युक्तानि वश्यस्तु यो यस्य दशमगृहगः स तस्य वश्यो भवेदित्युक्तः। यातुर्जन्मकाले चन्द्रतो दशमस्थानगतो ग्रहः कारकः स्वर्क्षतुङ्गमूलत्रिकोणगाः कण्टकेषु यावन्त आस्थिताः सर्व एव तेऽन्योन्यकारकाः। कर्मगस्तु तेषां विशेषत इत्युक्ता(?) यातुर्जन्मकाले चन्द्रकेन्द्रगा बलिनो ग्रहः यात्रायां यदि चन्द्रः स्वमित्रवश्यकारकर्क्षे नैव स्थितस्तदा तद्वलं नान्यतो वश्यम्\। यथाऽऽह वराहमिहिरः—
प्रक्षीणेऽप्यनुपचयस्थितेऽपि यायात्
** विस्रब्धं यदि शिखिवश्यकारकर्क्षैः।
नैवं चेदुदयगृहात् स्वजन्मभाद्वा
सम्पूर्णेऽप्युपचयगेऽपि न प्रयायात् ॥**
इति। अथ यात्राविहितान् राशीनाह—
** मूर्धोदयोर्ध्ववदनाः शुभसंयुताश्चेत् ग्राह्याः स्थिरा अपि गृहाः कलशस्तु मध्यः। वक्रां करोत्यनिमिषः पदवीं यियासोः याने नृयुग्ममशुभं निजगाद गार्ग्यः॥१४॥**
मूर्धोदयाः—मिथुनसिंहादयः। ऊर्ध्ववदनाः–सूर्यमुक्तकेन्द्रराशयः। मूर्धोदयोर्ध्ववदनग्रहराशयः चरा यात्रायां ग्राह्या इत्युक्तास्थताविधा स्थिरराशयोऽपि शुभग्रहयुक्ताश्चन्द्राद्याः अन्यथा वर्ज्याः। अतस्ते मध्यमाः। कलशः–कुम्भराशिः। मूर्धोदयोर्ध्वमुखस्तु शुभसंयुतोऽपि याने मध्यः। अन्यथा वर्ज्य एव। यथाऽऽह गुरुः–
ऊर्ध्वास्य शोभनो राशिः तिर्यगास्यश्च शोभनः॥
अधोमुखो विनाशाय यात्रायां लग्नमागत।
मूर्धोदया शुभास्सर्वे चराश्चैव विशेषतः॥
इति।वराहमिहिरोऽप्याह—
शीर्षोदये समभिवाञ्चति कार्यसिद्धिम्।
पृष्ठोदयेऽपि……………बलविद्रवाश्चेति॥
नारदः—
**क्रूरग्रहेक्षितयुतो द्विस्वभावोऽपि निन्दितः। **
याने स्थिरोदयो नेष्टः शुभयुक्तेक्षित श्शुभः॥
इति। कुम्भस्तदंशश्च नेष्टः। यथाऽऽह श्रीपतिः—
नेष्टः कुम्भो प्युद्गमेंऽशे स्थिरे वा
लग्ने चांशेऽप्यस्य नौयानमिष्टम्॥
इति। तथाऽपि शुभ इत्युक्तेः,(?) यत उक्तम्—
रवीक्षणासनाभ्यां तु राशेर्भावो निवर्तते॥
इति। ‘पापास्पदानि शुभवीक्षणसम्प्रयोगादिति’ च। द्विस्वभावे च। अनिमिषो–मीनराशिः यियासो जनस्य पदवी वक्रां–मार्गं कुटिलं करोति। मीनलग्ने तदंशे वा कार्यसिद्धिः स्यान्निवृत्तिश्च। तत्रेति यात्रायां नृयुग्मं— मिथुनलग्नं। अशुभं गार्यो निजगाद—उक्तवान्। तथा च तद्वाक्यम्—
करग्रहश्श्राद्धगतिद्रुमार्पणं
** प्रियानुदृष्टिः प्रथमा वधूगतिः।**
गृहक्रियाकर्षणपूजनागमाः **
** कृषिश्च विद्या न शुभं क्रियादिषु॥
इति। (के)(श्चि)चिदूर्ध्वमुखी होरां याने शस्ते(त्युक्ता)त्याहुः। तथा च वराहमिहिरः—
दत्ते वाञ्छितकार्यमूर्ध्ववदनाः क्लेशाद्विना लग्नभात्
** क्लेशायासपरिक्षयं च कुरुते तिर्यङ्मुखी गच्छतः।**
सैन्यध्वंसमधोमुखी प्रकुरुते कृच्छ्राद्गृहे चा(ष्टमं)गमं **
** सर्वाः पु(ष्टिं)ष्पफलप्रदाः स्वपतिना दृष्टा न पापग्रहैः॥
इति। अत्र होराणां ऊर्ध्वाधस्तियङ्मुखत्वं सूर्यमुक्ताक्रान्तानागतत्वेन द्रष्टव्यम्॥ तथा च जीवशर्मा—
मुक्ता सूर्येण या होरा सा तूर्ध्ववदना स्मृता।
आक्रान्ता स्यात्तिर्यगास्याऽधोमुखी या प्रयास्यतः॥
इति। कैश्चिञ्चरराशिषु होरा ऊर्ध्वास्याद्या उक्ताः। तथा च सिद्धार्थः—
होरोर्ध्वास्या चरेष्वाद्या द्वितीया तिर्यगानना।
**स्थिरष्वधोमुखी पूर्वा द्वितीयोर्ध्वानना स्मृता॥ **
क्षेत्रेषु द्विशरीरेषु होरा स्यात्तिर्यगानना।
अधो वक्त्रानुपाश्चात्याः(?) सर्वत्रैव प्रचक्षते॥
इति। कैश्चिन्मीनवृश्चिकर्ककटेषु लग्ने वृश्चिके च।
अन्ये राश्युदये यात्रां न कुर्याद्विजयी नृपः।
इति। दिवा दिनबलेषु नक्तं रात्रिबलेषु यानं शस्तम्। न दिवा रात्रिबलेषु नक्तं दिनबलेषु यानमिष्टम्। तथा च वराहमिहिरः—
शस्ता दिवा दिनबले निशि नक्तवीर्ये
राशौ विपर्ययबले तु गमोऽप्यनिष्टः।
इति। केचिल्लग्नार्कचन्द्रेषु त्रिषु चरराशिस्थेषु स्वदेशगमनं द्वन्द्वस्थेषु सर्वत्र गमनं प्रशस्तमाहुः। तथाच सिद्धार्थः—
चरलग्नादसंस्थेषु लग्नराशीन्दुभानुषु।
**परदेशाभिगमनं यशस्वं कार्यसिद्धिकृत्॥
स्थिरलग्ने स्थिरस्थेषु स्वदेशगमनं शुभम्। **
चरस्थरात्मकस्थेषु यात्रा सर्वत्र शस्यते॥
इति। केचित्तु—सूर्ये मेषसिंहचापराशिस्थे यात्रा शस्ता। मीनवृश्चिककर्कटकस्थे कष्टा। अन्यराशिस्थे मध्येत्याहुः। तथाच वराहमिहिरः—
यात्राजसिहशरगोपगते वरिष्ठा
**मध्या शनैश्चरबुधोशनसां गृहेषु। **
भानौ कुलीरझषवृश्चिकगेऽतिहीना
इति। अन्यैश्च सूर्यादिक्षेत्रे लग्नगते सामान्येन फलमुक्तम्॥ यथाऽऽह वराहमिहिरः—
क्षुत्तृष्णार्तिर्मार्गनाशोऽक्षिरोगः
** क्लेशावाप्तिस्तिग्मगोः प्राग्विलग्ने। **
शस्ता चान्द्रे देवतार्थस्वदेशे **
** कौजे पित्तव्यालशस्त्राग्निपीडा॥ **
बौधे पुष्टिर्वाञ्छिताप्तिर्यशश्च
** जैवेऽर्थाप्तिस्स्थानमानोऽरिनाशः। **
स्त्रीरत्नाप्तिः कार्यसिद्धिश्च शौक्रे
** मान्दे वन्धख्यापिनी चावमानः॥
इति।एतत्सामान्यफलं तत्तदंशकेऽपि समम्। ऊर्ध्वे सामान्यनिमित्त(कं)जं विशेषफलं च लग्नद्रेक्काणानां च फलमुक्तं महायात्रायां—
द्रेक्काणाकारचेष्टागुणसदृशफलं योजयेद्वृद्धिहेतोः
द्रेक्काणे सौम्यरूपे कुसुमफलयुते रत्नभाण्ढान्विते च।
**सौम्यैर्दृष्ठे जयस्स्यात् प्रहरणसहिते पापदृष्टे च भङ्गः **
साग्नौ दाहोऽथ भङ्गः सनिगलभुजगे पा(श)पयुक्ते च यातुः॥
इति। द्रेक्काणाकारचेष्टादिकं शास्त्रान्तरोक्तं संज्ञाध्याये लिखितम्। सौम्यरूपाः देक्काणानां प्रथम कन्या तृतीयो मकरे द्वितीयः कुसुमयुताः। सिंहे द्वितीयः कन्याप्रथमः फलयुक्ताः। कर्कटे प्रथमः। सायुधाः मेषे आद्यतृतीयौ कन्यातृतीयं धनुराद्यतृतीयौ मिथुने द्वितीयतृतीयौ कन्या तृतीयः तुला तृतीयः घनुराद्यतृतीयौ साग्निकाः। वृषे प्रथमः कुम्भे तृतीयः क्षुत्परा। मेषद्वितीयः तुलाद्वितीयः वृषे तृतीयः कर्कटे द्वितीयः सिंहे प्रथमः कुम्भे प्रथमः सर्प(पाश) भूताः। कर्कटे तृतीयः वृश्चिकाद्यतृतीयौ निगलभूतः। मकरप्रथमो रौद्ररूप, वृषे तृतीयः एतेषां द्रेक्काणानां आकारचेष्टासदृशफलं वाच्यम्। लग्नगतानां ग्रहनवांशकानां फलमुक्तं वराहमिहिरेण—
**नवभागे तिग्मांशोर्वाहननाशो विलग्नसंप्राप्ते। **
कृच्छ्रात् स्वगृहागमनं प्रतापमृदुता च चन्द्रांशे॥
**कौजेऽग्निभयं बौधे मित्राप्तिधनागमा जैवे। **
भोगविवृद्धिः शौक्रे भृत्यविनाशो रविसुतांशे॥
इति। अत्र केचिदाहुः—यस्मिन् ग्रहे लग्नगते यथाफलमुक्तं तन्नवांशकेऽपि तदेव फलं। किंच शुभर्क्षे शुभनवांशे वा लग्नगते शत्रुबलैकदेशो यातुः साहाय्यमुपैति । यथाऽऽह वराहमिहिरः—
यदुदयसुफलं ग्र(हैः)हे(ऽपदि) (प्रदि)ष्टं
** जनयति तस्य नवांशके विलग्ने।**
शुभभवननवांशके सहायं **
** रिपुबलभागमुपैति यातुरद्धा।
इति। त्रिंशांशकेऽपि नवांशकवत्फलं वाच्यं। तथाचोक्तं—
यत्प्रोक्तं राश्युदये द्वादशभागेऽपि तत्फलं वाच्यम्।
यच्च नवांशकविहितं त्रिंशांशस्योदये तत् स्यात्॥
इति। अथ जलयात्राविहितनक्षत्रराश्यादिकमाह—
** मृदुक्षिप्रचरक्षैऽपि त्यक्त्वा मृगमृगांशकौ।**
जलराशौ विलग्नस्थे दूरं नौयानमिष्यते॥१५॥
मृदूनि—चित्रामित्ररेवतीमृगशिरसः। विप्राः—पुष्यहस्ताश्विन्यः। चराणि–श्रवणश्रविष्ठाशतभिषकपुनर्वसुस्वात्यः।एषु नक्षत्रेषु जलराशौ झषकुलीरकुम्भानामेकतमे विलग्ने दूरं नौयानं—नावा समुद्रे यानं तदिष्यते। जलराशिरपि मकर अन्यर्क्षेषु मकरांशश्च नौयाने वर्ज्यौ। ‘त्यक्त्वा मृगमृगांशकौ’ इति पर्युदासात्। ‘कुम्भराशिरजलो जलयाने वर्ज्यः’ इत्युक्त्वा नृयुक्त्वेऽपि जलधराभिधानयोगात् नौयाने प्रशस्तः। अथवा सोऽपि जलराशिरेव। यस्माच्छिवगुप्त—
कर्किमृगपश्चिमार्ध कुम्भो मीनश्च जलचरा प्रोक्ताः।
इति। अन्यस्मिन्नपि यात्रोक्तलग्ने कर्किकुम्भमीनांशके प्रवहणप्रयाणमिष्टम्। तथाच वराहमिहिरः—
नौयानमिष्टं दिनराशिलग्ने तदंशके चान्यगृहोदयेऽपि।
इति। गार्ग्यः—
नारायणार्कमृगशीर्षभम(मृक्षे)मर्कवायु-
** पौष्णाश्वियुग्वसुषु कालबलं विलोक्य। **
यात्रा जलेषु वणिजामभिधीयतेऽन्यत् **
** सर्वं प्रयाणविधिनैव विचिन्तनीयम्॥
इति। अन्यैर्नावां निर्माणादिप्रस्थापनान्तकर्मसु कालो निरूपितः। तथाच रुद्रभट्टः—
पौष्णाश्विसौम्यकरवासवविष्णुमैत्रै-
** र्वारोभि(भि)जिद्धिषणयोर्विनिवेशिता नौः।**
सांयात्रिकस्य हितकद्वसुदासगावः **
स्त्रीसङ्गदा विविधलब्धिविधायिनी स्यात्॥
पित्र्योत्तरात्रयमरुच्छततारकासु
** दीर्घायुषी रविदिने स(ज)कलेन्दुवारे।
पूर्वात्रयेषु सपुनर्वसुपुष्यचित्रा-
** स्वल्पार्धदा विरचिता नियतं भवेन्नौः॥**
ज्येष्ठाग्निनैर्ऋतविरिञ्चविशाखभेषु
** द्राग्दह्यते हुतभुजा कुजवासरेऽपि।**
**याम्याहिभूतपतिभानि पतीन्निहन्युः **
** ज्ञार्क्यश्विनोः(?) पुलिनदेशविनाशमेति॥ **
वारेषु यन्निगदितं सफलं भवेत्तत् **
** अन्यग्रहे स्वभवने स्वनवांशके च।
**प्रस्थानकर्मरचनासु निरस्तदोषा **
द्वित्रीणि(?) बाणतुरगास्तिथयः शुभाः स्युः॥
इति। अत्रिरत्र विशेषमाह—
पुष्यादित्येन्दुवस्वश्विमित्रार्का नौकृतौ शुभाः
** त्वाष्ट्राजमघमूलान्त्या मध्या वायूत्तराधमाः।**
स्वात्युत्तरास्वर्थनाशः शेषताराः शुभाः गतौ **
** शुभयुक्ता अपि त्याज्या नौकृत्येऽश्विशताच्युताः॥
इति। गार्ग्योऽपि—
‘अश्वी पुनर्वसुर्हस्तत्र्युत्तरास्वातीश्रवणनक्षत्राणि तिथिरयुग्मा नवमी विवर्जिता पूर्वपक्षाश्रिता शुभा’ इति। ज्योतिषार्णवे—
जीवज्ञचन्द्रशुक्राणां वारांशादिषु कारयेत्।
**अर्कमन्दकुजानां तु वारांशादिषु वर्जयेत्॥ **
चरोभयस्थिराः श्रेष्ठाः मध्या निन्द्या यथाक्रमम्।
इति। अपिचात्रिः—
वारांशोदयहोराद्या वर्ज्या आरार्कसौरिणाम्।
गुरोर्वारोदयश्शस्तः शुक्रेन्द्वोर्जलपूरदा॥
**बुधस्य कूपभङ्गस्स्यात् कटस्यापि प्रभेदनम्। **
**चरोर्ध्वदिक्शिराः शस्ता नौयाने चोभयांस्त्यजेत्॥ **
**शुभं नृत्ते धनं सिंहे मीने नौभ्योऽवरोहणम्। **
**तुलायां च जलावेशं शुभोऽप्युक्षणि(?)तोरणम्॥ **
**अपि सद्दृष्टिसंयुक्तौ शूग्मान्त्यौ(?) शुभदौ न हि। **
आरम्भस्तु शुभोऽन्यत्र बलवान् दोषवर्जितः॥
इति। गार्ग्यस्तु—
चरराशयः श्रेष्ठाः स्थिरराशयः विघ्नं कुर्वन्ति। उभयराशयो विलम्बं कुर्वन्ति। अर्णवे—
चरोभयस्थिराः श्रेष्ठमध्यनिन्द्या यथाक्रमम्।
इत्युक्तम्। तत्र शुभान्यपि भानि नौचक्रे निषिद्धानि त्याज्यानीत्यत्रिणोक्तानि। यथा—
शूलान्यर्केण मुक्तष्यान्यघ ऊर्ध्वत्रिभं क्रमात्।
**अवरोहमथारोहं उरश्शूलं बहिर्मुखम्॥ **
पातालमिति ता(भा)न्यर्कात् साभिजित्कं पुनस्त्रिभम्।
**आरोहपक्षे बहुलमवरोहेऽल्पसम्पदः॥ **
**जलोत्सेके बहिर्वक्रे शूले नाशश्च लोप्तृभिः। **
अधः पतति पाताले नौचक्रे यवनोदितम्॥
इति। लग्नद्रेक्काणफलं रुद्रभट्टेनोक्तम्—
द्रेक्काणजं फलमतस्तपनादिकानां
** नौकाविनाशजलभेदपरिश्रमाणि **
क्षुत्पीडनं सकलशागममर्थलाभः **
** नौसिद्धिनाविकमृति(?)पदपृच्छकानाम्॥
नवांशकफलं—
_(अलाभं कलहं वह्निभयं हानिं धनागमम्।)
_(**रुजं चोरभयं कु(र्यु)र्यात् सूर्यादीनां नवांश(का)कः॥ **)
_(**तिर्यक् सुदारुफलकानि च संविधाय )
_( शुद्धे दिने विविधवाद्यसुतोरणाद्यैः। **)
_(**पोताधिपं शुभदिनोदयभेन्दुयोगे )
_( स्थाने शुभे सुवसनो द्विजपुण्यघोषैः॥ **)
_(पूजाह्नि(?)कृद्बलिनिवेदनमद्यमांसैः )
_( विघ्नेश्वरादिविबुधाष्टकमर्चयेच्च।)
_(विघ्नेशमच्युतमजं वरुणं समीरं )
_( वित्तेश्वरं दिनकरं सुरसूत्रधारम्॥)
इति। ततश्च—
हारिद्रपिष्टकुसुमाङ्गदभूषिताङ्गं
प्रस्थानदारुशुभदिक्षु यथाप्रया(मा)णम्।
संस्थाप्य नामयुतमुद्धतगतिवाद्यैः **
** तत्रार्चयेत् प्रवहणाः शिवदेवताश्च॥
सद्रत्नगर्भफलकद्वितयं निवेश्य
** सङ्क्रन्दनं क्रमुकभोजनपानपुष्पैः। **
संहृष्टनाविकजनस्तदहं प्रपूज्य **
** पातं क्रमादुपरि कर्मविधिं विदध्यात्॥
प्रस्थानकोक्ततिथिवारमुहूर्तलग्ने
** सूत्रादिबन्धनविधानविधिं विधाय। **
**सञ्चालयेत् प्रतिजलं श्रुतिहस्तचित्रा **
** भाग्यैन्दवेषु वरमङ्गलतूर्यघोषै॥ **
आस्फलनैर्गुणहतौ समरप्रवासे **
** क्षुत्तृण्मृतिश्चलितवामतटौ च चौरात्।
तथ्यं तथा यदि………प्लवमानपोतं
** तीरे तु दक्षिणकटिस्थितमर्थलाभम्॥ **
इत्थं परीक्ष्य तु शुभं शुभपार्श्वतश्चेत्
** तत्सम्प्रयाणतृणकाष्ठरसायुधाद्यैः। **
पोतस्य पूर्णमुदरं नियमेन कुर्यात्
** तिप्योत्तरापितृजलान्तकवायुभेषु॥**
कूपोच्छ्रयं ध्रुवहरीन्दुविशाखभेषु
** प्रस्थापयेत् ग्रहबलादि विचार्य काले। **
पश्चाच्छुभेऽह्नि सुदृढं दृढपट्टबन्धं
सश्रीफलं समकुटं सपताककेतुम्॥
पौष्णाश्विनीश्रवणवासवतिष्यपूर्वा
** हस्तानुराधशशिभे शुभकारके वा। **
**वारे सुरेड्यसितयोः सुतिथौ तु योगे **
** विष्ट्यादिदोषरहिते जलयानमिष्टम्॥ **
स्वीयानुकूलखचरस्य दिने विलग्ने **
** भागेऽथ तोयचरराशिभवेऽन्यभेऽपि।
सौम्येऽथ खेटभवने तदधीशदृष्टे **
** लब्ध्वा नभश्चरबलं जलयानमिष्टम्॥
ग्रहभावबलं च तेनैवोक्तम्—
लग्नोपगा रिपुभयं गुणदण्डभङ्गे **
** दैन्यं जले सकुशलं धनसौख्यलाभम्। **
क्षेमान्नपानवसुवस्त्रकलत्रभाव
** लब्धं दिवाकरमुखाः खचराः प्रकुर्युः॥
**अर्घेऽ(र्घ)(र्थ)लाभसुखदा गुरुशुक्रचन्द्राः **
** चन्द्रात्मजस्सकलकामसमृद्धिदाता। **
**सूर्यस्समृद्धतनुतापकरोऽर्थहानिं **
** भौमोऽर्कजश्च कुरुते जलयातृकाणाम्॥ **
सूर्येन्दुभौमभृगुर्जाकसुतास्तृतीये **
** श्रेष्ठार्थलाभसहितं प्रियबन्धुयोगम्। **
कुर्याद्बृहस्पतिरतीव गदप्रदः स्यात्
** चन्द्रात्मजश्च नृपतेर्भयमातनोति॥
**तुर्ये गुरुः शुभकरो रविसौरभौमाः **
** ग्रावाण(?) भेदभयभीतिकराः क्रमेण। **
नौमज्जनं बहुजले बुधशुक्रचन्द्राः **
** सांयात्रिकस्य विकेलन्दुकरांश्च(?)कुर्युः॥
**स्युः पञ्चमे शुभकरा बुधजीवशुक्रा
वाणिज्यकृद्द्विषदुपद्रवभीतिमार्किः।
नौभङ्गकृत् क्षितिसुतः क्षितिनाथशङ्का- **
** क्लेशार्तिदः स्फुरदरातिकरौ रवीन्दू॥ **
**षष्ठे दिवाकरशनैश्चरसोमसौम्याः **
** सर्वार्थलाभकरणाय भवन्त्यवश्यम्। **
ऋक्षेशशुक्रगुरव प्रियमानुषाद्यै **
** संवासदुःखकलिदा जलयातृकाणाम्॥
जामित्रगा भृगुजजीवबुधा विदध्युः
** यात्रार्थसिद्धिमचिरागमनं नराणाम्। **
**सौरारसूर्यशशिनस्तु गदोद्भवादि **
** त्रासं च पोतपतिजीवन(?)नाविकानाम्॥ **
मृत्युस्थिताः प्रमदमङ्गलवाञ्छितार्थान् **
** नौयानकस्य नियतं बुधजीवशुक्राः।
**प्रद्योतनक्षितिसुतार्कसुतात्रिपुत्राः **
** सन्त्रासयन्ति तु मनांस्युपपादयन्ति॥ **
धर्मे बुधार्कवसुधासुतमित्रपुत्राः
** सर्वार्थनिष्फलकरा समजा(?)स्फुजित् स्यात्। **
जीवो हि जैत्रगमिनां धनलाभकर्ता
** चन्द्रः सशूलवनिताकलहप्रदश्च॥ **
**कर्मस्थिते दिनमणौ क्ष(कृ)तक्कृत्यजातो **
** लाभान्वितो भृगुसुते क्षितिजे रुगार्तिः(प्ति):। **
चन्द्रे गुरौ रविसुते ऽब्जसुते च चोरात् **
** क्षेमकरश्च चकिते जलयातृकाणाम्।
लाभे भवन्ति शुभदाः विभवप्रदाश्च
** प्रौढाश्च सन्नकरमाठतदानदक्षा14?॥**
सूर्येन्दुभौमबुधजीवसितार्कपुत्रा
** निर्यायकप्रवहणाधिपनाविकानाम्। **
अन्त्ये धनव्ययकरौ हरिदश्वशुक्रौ **
** भौमार्कजौ ज्वलनशस्त्रविघातदौ स्तः॥ **
त्रासं प्रयोगनृपमन्यवणिग्विवादं
** दद्युर्गुरुक्ष(?)शशिनो जलयातृकाणाम्॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
सूर्यस्त्रिषड्दशमगः त्र्यरिगौ यमारौ
** व्यर्थे शशी त्रितनुखाम्बुबधोक्तिताक्षः15(?)। **
हित्वाऽन्य(म)ध्वरि(?)मृत्युारिभे कालः स्यात् **
** नौयानलग्नत इमे शुभदा उपान्त्ये॥
इति। गार्ग्य आह—
गुरुशुक्रबुधा उदयस्थाः तृतीयनवमदशमस्थाः केन्द्रस्थाश्च शुभग्रहाः तृतीयनवमदशमस्था द्वादशस्थाश्च शुभाः। चन्द्र उदयधनषष्ठसप्तमगः। ज्योतिषार्णवे—
**केन्द्रत्रिधर्मरिप्फेषु शुभाः सर्वे शुभावहाः। **
**त्रिषडायगताः पपाः विशेषेण शुभप्रदाः॥ **
अष्टमस्थाः ग्रहास्सर्वे नेष्टाः पुत्रयुतः शशी।
इति। अत्र नावाधिपस्य नक्षत्रादि राजवदन्वीक्ष्य वक्तव्यमिति वदता तयोरष्टमराश्यादिवर्गमुक्तम्॥
शक्रद्विदेवपवनोरगरौद्रधिष्ण्ये
** क्रूरस्य वाऽथ शुभखेटगृहे सपापे।**
नौर्मुच्यतेऽष्टमगृहेऽपि तथाऽन्यतीरे
** नाशोऽधिपप्रवहणाधिपयोः किल स्यात्॥**
इति। अथ नौयात्रायोगाः–मेषोदये लाभस्थे शुक्रे दशमस्थे चन्द्रे पञ्चमभे जीवे योगो नौविवर्जने\। कुलीरे चन्द्रोदये लाभे(?) गुरौ कर्मणि शुक्रे वा, तुलायां शुक्रोदये लाभे चन्द्रे बन्धुस्थे गुरौ वा, मकरे गुरूदये लाभे चन्द्रे बुधे वा योगचतुष्टयमाहुः। अस्मिन्न नक्षत्रं न तिथिर्नाष्टमराशिर्न पापक्षेत्रं। सर्वत्राष्टमाः पापग्रहाः नेष्टाः\। योगे बुधमष्टमस्थमपि प्रशंसन्ति। एवंविधे लग्ने नावमारुरुक्षुः तत्पतिः प्रागेव लग्नकालात्तद्दिने होमदेवतायागबल्यादिकं कुर्यात्। अत्र गार्ग्यः—
अथ नौकाया(?) उत्तरदिग्गोमयेन गोचर्ममात्रं स्थण्डिलमुपलिप्याग्निं प्रतिष्ठाप्य सुदर्शनेनाष्टशतं सहस्त्रं वा जुहुयात्। प्रातस्तोयपूर्णं कुम्भं प्रतिष्ठाप्य सुदर्शनेनाष्ट(शतं) सहस्रं जप्त्वा कुम्भोदकेन नावं प्रोक्ष्य ततो नेतारं(?) सहारोहेणाष्टाक्षरेण जप्त्वा अष्टसहस्रं जुहुयात्। समुद्रं नमस्कृत्य हविषा ‘समुद्रं गच्छ स्वाहा। सिन्धुपतये स्वाहा। विष्णवे वरुणाय सर्वं पाहि विश्वं पाहि सर्वजीवाय समुद्रेभ्यः सर्वेभ्यः समुद्रेभ्यो देवताभ्यस्सर्वेभ्यो ग्रहेभ्यस्सर्वेभ्यो नक्षत्रेभ्यस्सर्वाधिपतिभ्य स्वाहेति’ हुत्वा ततो बिसतन्तुरज्जुं सुदर्शनेनाष्टसहस्रं जप्त्वा नावं बध्नीयात्। ततो य(ज्ञ)क्षवास्तुं कृत्वा ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयित्वा वायव्यबीजेन विसर्जयेत्। आगमनेऽप्येवं होमं कुर्यात्। आगता रक्षा भवत्यन्यथा विनश्यति। एवं होमं कृत्वा बिसतन्तुरक्षां ‘समुद्रं गच्छं स्वाहा’ इति एका-माहुतिं विसर्गमन्त्रं वर्जयित्वा ततो ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयित्वा नौस्थं द्रव्यमवतारयेदिति। रुद्रभट्टोऽपि—
सांयात्रिकस्सत्तिथिवारलग्ने
** प्राग्वत् यजेत विबुधाष्टकमब्धितीरे।**
प्रास्थानकालगदितैरुपहारतन्त्रैः
** लाजैस्सुपिष्टगुडपायसमोदकैश्च॥ **
रत्नाकरं तदनु पुष्पफलाढ्यदानैः **
** अभ्यर्च्य नावमधिरुह्य सुधर्मबुद्धिः।
नौनाथमिष्टकदलीदलतोरणाढ्यां **
** तां पूजयेन्मकुटमण्डनवस्त्रमाल्यैः॥ **
संचिन्त्य पोतपतिरीप्सितमर्थलाभं
** क्षे(हो)मं च दिक्षु विकिरेच्च बलिं सुरेभ्यः।
नारङ्गरज्जुहरणीयक…………….द्या **
** नाकार्य दैविकनिमित्तसमूहमूहैः॥
इति। अत्र निमित्तान्यनुकूलवातादीनि। यात्रावदवगन्तव्यम्। उक्तं च—
पोतप्रयाणसमये लवनं समीर-
** चोदङ्मुखो न खर इप्यत उत्पतिष्णुः। **
शत्रुप्रकोपविपदः सुरचापमुच्चैः
** क्षेमेष्टकूलधनलब्धिकरोऽन्यथा स्यात्॥**
इति। एवं प्रस्थापितस्य प्रवहणस्य क्षेमेण प्रयाणं पुनरायानं लाभायोभौ च प्रयत्ने वदेत्। अत्र गार्ग्यः—
कदत्तोदकस्य(?) राशेः गतमवधीकृत्य मध्ये पापस्तिष्ठति चेत् विघ्नकृत्। शुभो न दोषकृत्। जलमध्ये गुरुर्यद्युदेति गमनागमनलाभेषु शुभं ब्रूयात्। शुक्रेन्दू जलमध्यगौ गुरुरुदेति चेत् किञ्जिज्जलभयं। शुक्रोदयश्वेत् इतरयोर्मध्यगयोमहालाभः। गमने किञ्चिद्विघ्नं। चन्द्रोदयश्चेदितरयोर्मध्यगयोर्महालाभः। आगमने किञ्चिद्विघ्नं। सूर्योदये नेतुर्मृतिस्स्यादनेनैव विधिना धनादयोऽप्यातां(?)। रक्तोदये नौस्थानां विषूच्यादिभङ्गः। मन्दोदयेऽपि परहस्तगतः स्यादित्यादि। अशुभेऽर्के धनस्थे षष्ठे चन्द्रे शत्रुहस्तं
गताः स्यु। प्रश्ने कोणस्थानं श्रेष्ठम्। ध्वजादिस्थानं विघ्नकृत्। प्रश्नकाले यदि कश्चिदायाति दूरस्थानादागमनमाहुः। तस्माद्देशाद्यदि गच्छति गमनं ब्रूयात्॥ किमप्यवष्टभ्य कृतेन तस्मादुच्चस्थे वक्तुर्वा विघ्न आगते विघ्नं ब्रूयात्। प्रतिकूलो वायुर्वाति चेत् वायोः प्रातिकूल्यं स्यात्। शुभवाक्यश्रवणे शुभं ब्रूयात्। अक्षरराशिषु धनलाभस्थानमन्वीक्ष्य ब्रूयात्। अथवा अका(तका)रादिह्रस्वोच्चारणे वर्गाद्यतृतीयान्त्याकारोच्चारणे शुभामाहुः। ऊर्ध्वस्वरे शुभं। तिर्यक्स्वरे किञ्चिच्छुभं। अधरस्वरे विघ्नं ब्रूयात्। जातकोक्ते प्रश्ने वेश्माधिपतिविलोकिते (कर्म, पइ) कर्मपञ्च मार्गे नौ(?)र्वेश्माधिपतिः कर्मस्थः तदा विलम्बेन नौरेति।
हिबुकाधिपो न युक्तो दृष्टो वा लग्नपो(लग्नाधिपो ) यदा भवति।
**लग्नप्रान्तगतो वा तदाशु नौः शीघ्रमायाति॥ **
**कर्मगतः पूर्णबलो जीवः शुक्रावलोकितो वाऽपि। **
लग्नाधिपेन (पोलग्नं) लग्ने विलोकिते वा तदागमनम्॥
**मार्गेशः शुभदृष्टः लग्नेशः सौम्यवीक्षितो वाऽपि। **
क्षेमेण तदा यानं शत्रुसकाशात्समायति॥
**निवृत्तभवनं चन्द्रः पश्येद्यदि बलान्वितः। **
**तदातिलाभसंयुक्तः यानमायाति सत्वरम्॥ **
**लग्नाधिपे शुभोर्दृष्टे यानं वस्त्रसमन्वितम्। **
**समभ्येत्य शुभैर्दृष्टे तद्वस्तुरहितं शुभम्॥ **
स्वयं भौमं बुधयुतं ( बुधयुतपश्येत् ) भ्रातृस्थो यदि मन्त्रिपः।
पश्येल्लग्नं च लग्नेशः पोतस्य स्यात् प्रवासनम्॥
यानागमनदिनसङ्ख्यादि यात्रावदत्र द्रष्टव्यम्।
**भौमार्की वक्रिणौ लग्ने लग्नेशो वाऽथ वक्रगः। **
लग्नेशस्थितराशीशो वक्री वा न निवर्तते॥
**लग्नाधिपः पश्यति चेत् विलग्नं **
** सद्बन्धुरन्ध्रान्त्यगतोऽथ वा स्यात्। **
**सहोत्थगेऽस्मिन् मृतिरिप्फसंस्थे **
** षष्ठाधिपे पोतपतेः प्रवासः॥ **
**कर्मेशे वा त्रिकोणस्थे प्रवासः पापवीक्षिते। **
**भवत्येवाऽथवा लग्ने स्थितेऽपि गुरुवीक्षिते॥ **
**अथ कथयन्त्यगृहं पथि रिप्फमशनिदृष्टमरियुद्धम्। **
यदि जीव शश्शिजो वा पश्यत्यस्तं तदा रणनिवृत्तिः॥
**भौमे पश्यत्यस्तं महारणं स्यादथार्कसन्दृष्टे। **
लग्ने लग्नपतौ वा युतदृष्टं तस्करैर्हृतं याना(त्)म्॥
**हिबुकाधीशो मन्दं क्षीणेन्दुनिरीक्षितस्तु चोरभयम्। **
**स तु पूर्णचन्द्रदृष्टो वातेनापादपाद्भयं कुरुते॥ **
लग्नं रुचं प्रवहणस्य चराणमम्बु-
शृङ्गाणमस्तभवनं दशमं तु कूपम्।
तद्भेशयोरशुभदर्शनसंयुतिभ्यां त
** तद्भज्यते शुभयुतीक्षणहीनयोश्चेत्॥ **
द्वित्रिचतुःपञ्चगृहात् दक्षिणतो नवदशागमव्ययभम्।
वामो भागरिछद्रं वस्त्राषष्ठञ्च तान्नदर्शयेच्च(?) ॥
शुभाशुभमुक्तं— शुभाशुभैश्च केन्द्रमैश्च तद्भवति दक्षिणतो यात्रायां व्यावृता वामतो या(?)\।
**दशमस्थे कुजे लग्ने दशमस्थे तु वेद्युतात्। **
दाह(राहु)भीतिस्तु पोतस्य लग्नस्थे तत्र भञ्जनम्॥
क्रूरयुतीक्षणसहिते कर्मगृहे प्रवहणस्य भङ्गस्स्यात्।
क्रूरग्रहसंयुक्ते कर्मेशे नौ विनाशनं भवति॥
या(त्रे)ने भिनत्ति कुब(व)रं क्रूरयुतेक्षितस्तपनः।
नवमस्थेऽर्कसन्दृष्टः परदेशं सुधांशुना॥
अस्तं गतो विलग्नेशो लग्ने तुर्ये तथाऽष्टमे।
क्रूरस्तिष्ठति पृच्छायां मृतिः पोतपतिस्तदा॥
**शशिदृष्टोऽष्टमं मन्दः श्रृङ्गाणादौ प्रणाशकृत्। **
याने राश्यंशभुक्तियुक्त्या तदादिमध्यान्तदेशेषु॥
**(?) सभेशो मन्त्रस्थः क्रूरयुतः क्रूरवीक्षितो वाऽपि। **
याने प्रधानपुरुषं गमयति मृत्युं ग्रहवशाच्च॥
**यः क्रूरः कर्मेश्वरः(?) क्रूरः क्रूरवीक्षितो हिबुकम्। **
यद्वा तिष्ठेदथ वा पश्येत् पराणां लगति स्थले॥
**अथ सौम्यग्रहैर्दृष्टो युक्तो वाऽपि तदीश्वरः। **
नौकापराणां क्षेमेण स्थलादधिगमिष्यति॥
**हिबुकाधिपतिर्मन्त्रभवनं यदि वक्षते। **
जलमध्ये तदा भङ्गो भवेत्प्रवहणस्य वै॥
**यदि कर्किमीनलग्नं शशिशुक्राभ्यां युतेक्षितं भवति। **
तद्युतदृष्टे भेशे मज्जति जलधौ तदा यानम्।
**व्ययभवनं निजपतिना युतेक्षितं चाथ मृत्युगृहे। **
वीक्षेते न तदीशौ जलमध्ये भज्यते यानम्॥
मृत्युस्थौ शशिभौमौ विलोकयेते तदा रविणा।
एकांसे प्रान्तगतौ तदा तटे यानभङ्गः स्यात्॥
**लग्नेशे षष्टमायायाते स्वयमेवात्मना रिपुः। **
मृत्युमष्टमगे तस्मिन् व्ययगे च बहुव्ययः॥
**यदि मृत्युविलग्नेशौ विक्षेते मृत्युलग्नभे। **
अथवा तौ स्थितावन्ते क्षेमेणायाति सा तरी॥
**यदा छिद्रेशलग्नेशौ सूर्यगौ शत्रुवेश्मनि। **
**नीचे वा नवमे संस्थे लाभो न व्ववहारतः॥ **
**लग्नं पश्यति लग्नेशः छिद्रे भवति वाक्पतिः। **
**अथवा प्रबले लग्ने चन्द्रे वाऽष्ठमसंस्थिते॥ **
**प्रबले प्रश्नलग्ने वा स्वोच्चगे (त)सद्ग्रहेऽष्टमे। **
**प्रबले लग्नपे शुक्रे छिद्रगे पापवर्जिते॥ **
**व्यवहारेण वस्तूनां लाभो भवति निश्चितः। **
**व्यये धने स्मरे क्रूराः तेषां सप्तमगः शशी॥ **
मृत्युयोगः समाख्यातः चन्द्रः पापयुतोऽथ वा।
**लग्ने सूर्यस्मरे चन्द्रो मृत्युयोगोऽन्यथाऽथवा॥ **
**मृत्युयोगे समायाति क्षेमलाभयुता तरी। **
रोगिणामत्र मृत्युः स्यात् वधः(?) शीघ्रं विमुच्यते॥
इत्यादि द्रष्टव्यम्। तत्प्रवहणगतद्रव्यस्वरूप प्रमाणगणनादि प्रश्नलग्नरश्मितदंशतः तत्स्वामिवशात् वदेत्। क्षेमणागतां तां तरी निजतटमवरोहयेत्। तदुक्तं—
क्षेमागतां विततके नवचक्रवालां
** वादित्रघोषबधिरीकृतरोदसकाम्। **
(?)प्राणिप्रयाण कनिकायनिरस्तभङ्गं **
** विश्रामयेत् कतिपयानि दिनानि नौकाम्॥
आरोहयेदथ तटं विधिवच्छुभेऽग्नि-
** स्वातिध्रुवेन्दुपितृमित्रभनैर्ऋतेषु। **
पूर्वात्रये खरभपुष्यमघासु चीर्णा- **
** मुद्धारयेदभिनवामिव खण्डितानाम्॥
इति। एवं नौयात्रायां ग्रन्थान्तरोक्तविशेषोऽभिहितः। अन्यत्सर्वं यात्रावदगन्तव्यं। प्रयाणविधिनैव विचिन्तनीयमिति।
गार्ग्यः—
विक्रेतलाभपतिः(?) तयोर्बलेन तत्सिद्धं वदेत्। युद्धयात्रायामपि यात्रावत् काल इष्यते। तथा च ज्योतिषार्णवे—
नक्षत्र तिथि तिथ्यर्धयोगवासरराशयः।
भावयोगादिकं युद्धे यात्रावत् सर्वमिष्यते॥
यात्रा विशेषस्स उच्यते—
**त्रिपूर्वाभरणी ज्येष्ठा मघाग्निशिववारुणाः। **
सर्पाश्विभेषु(?) वायव्याः समरे विजयावहाः॥
कृष्णे पक्षे जयारिक्तातिथयो विजयप्रदाः।
जीवमन्दार्कभौमानां वारराश्यंशकादयः॥
उयप्रेक्षणाद्यासु समरे विजयप्रदाः।
जन्मभाद्वसुदिग्वेदविश्वाष्टौ तिथयः क्रमात्॥
आकृत्यतिकृतीभानि गमने वर्जयेद्युधि।
अत्राऽर्थेऽन्धमानि वर्ज्यानि। यथाऽऽहुः—
जयमध्यविनाशश्च द्विदृक्काणान्धमेषु (?)
** दृष्टं रविस्थितर्क्षं तु तत्र स्थितिविभागतः। **
दृष्टाः शुभाश्च निर्धिष्टाः तारा साभिजितः कमात्॥
इति।
**षष्ठोऽष्टमो द्वादशकश्च राशिः शुभेषु कार्येषु विवर्जनीयः। **
क्षौरे विवाहे च तथा प्रयाणे षष्ठं विदुः कर्तुरतीव शोभनम्॥
कर्तुः षष्ठं त्यजेल्लग्नं क्षौरोद्वाहगतिं विना॥
सारसङ्ग्रहे—
सप्तविंशतिनक्षत्रं एकराशिसमन्वितम्।
सर्वेषु शुभदं प्रोक्तं बहूनां सम्मतं त्विदम्॥
अथ। शुचिर्वस्त्रालङ्कृतो राजा देवतागारं प्रविश्य दिगश्वरानभ्यर्च्य तस्मिन् साक्षतान् सितसर्षपान् विकीर्य शुद्धायां भुवि दर्भानास्तीर्य दूर्वादिभिरुपधानं विधायचतुर्दिक्षु चतुरः पुष्पलतालङ्कृताम्बुपूर्णकलशान् विन्यस्य इष्टदेवतां नमस्कृत्य तन्मत्रान् जपेत्—
नमः शम्भो त्रिणेत्राय रुद्राय व(रदाय )रुणाय च।
वामनाय विरूपाय स्वप्नाधिपतये नमः॥
भगवन् देवदेवेश शूलिन् वृषभवाहन।
इष्टानिष्टे ममाचक्ष्व स्वप्ने सत्यस्य शाश्वत॥
इति। अत्र वराहमिहिरः—
यज्जाग्रतो दूरमुपैतुदेव-
** मावर्त्य मन्त्रान् प्रयतस्त्रिरेतान्।**
**लध्वेकभुक् दक्षिणपार्श्वशायी
स्वपान् निरीक्षेत यथोपदेशम्॥ **
**एकवस्त्रः कुशास्तीर्णः स्वप्ने प्रयतमानसः। **
निशान्ते पश्यति स्वप्नं शुभं वा यदि वाऽशुभम्॥
आद्ये वर्षात् वत्सरार्धात् द्वितीये
** यामे पाको वर्षपादात् तृतीये।**
मासात् पाकः शर्वरीपश्चिमांशे
** सद्यः पाको गोविसर्गेे च दृष्टे।**
अरुणोदये दशाहेन गोविसर्गे तद्दिन एव फलति। तथाऽन्यत्रोक्तम्—
अरुणोदयवेलायां दशाहेन फलं लभेत्।
गोविसर्गस्य काले तु तस्मिन्नेव फलं स्मृतम्॥
इति। स च स्वप्नः सप्तविधः यथोक्तम्—
दृष्टश्रुतोऽनुभूतश्च कल्पितः प्रार्थितस्थथा।
दोषजो भावजश्चेति स्वप्नः सप्तविधो मतः॥
इति। स्वप्नः स्वयमन्येन दृष्टो वाऽपि शुभोऽशुभ एवं—
दृष्टः सप्तविधः प्रोक्तः तत्राद्याः पञ्च निष्फलाः।
**यथा स्वप्रकृतिः स्वप्नो दिवा दृष्टश्च विस्मृतः॥ **
ह्रस्वो दीर्घोऽपि वा नातिसुप्तदृष्टश्च निष्फलः।
पूर्वरात्रेष्वफलदो गोविसर्गे महाफलः॥
**द्वावन्त्यौ फलदौ प्रोक्तौ दोषजश्च स्वभावजः। **
**यश्चानुपहतः स्वप्नो भूयः प्रस्थापयेन्न तु॥ **
**प्रतिकूलैर्वचोभिर्वा दानाहुतिजपादिभिः। **
प्रत्यक्षवत् स्फुरत्यन्तः प्रबोधे सफलः स्मृतः॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
**धातुप्रकोपग्रहपाकचिन्ताऽदृष्टाभिचारोद्भवगुह्यकोत्थाः। **
**(?)गतैष्यता(भ्य)त्यन्तर सत्यसङ्गस्वप्ने ह्यनूके गतिजश्च चिन्त्यम्॥ **
धातुप्रकोपादनिलात्मकः स्यात् नागाद्रितुङ्गाम्बरलङ्घनानि।
पित्ताधिके काञ्चनरत्नमाल्यदिवाकराग्निप्रभृतीनि पश्येत्॥
**श्लेष्माधिकश्चेन्दुमशङ्खशुक्तिसरित्सरोऽम्भोधिविलङ्घनानि। **
**जधन्यमध्यप्रथमे निशांशे प्रावृट् शरन्माधवसंज्ञिते च। **
काले मरुत्पित्तकफप्रकोपे साधारणं स्यात् फलसन्निपातः॥
**दशा (दृशा) सु जातं फलपाकजातं **
** चिन्ता च दृष्टा च यथा तथैव। **
**भीभत्ससत्वाभिभवोऽभिचारो **
** विघ्नोद्भवो गुह्मरुजो(?) प्रवि(दि)ष्टः॥ **
**अनूकचिन्तागतिदोषतृष्णान्यतीतकर्माणि च निष्फलानि। **
सुदृष्टदीर्घाकथिताश्च तद्वदनित्यपाका गदिताश्च शेषाः॥
प्रत्यक्षवद्भवति यः स्फुरतीव चान्तः
** स्वप्नस्य तस्य नियमात्सदसत्फलाप्तिः। **
स्वप्नाः शुभाशुभकृताः फलदा नराणां **
** उद्देशमात्रमिह ताननुवर्णयामि॥
स्वाङ्गप्रज्वलनं परोपगमनं छत्रध्वजालिङ्गनं
** दिक्संवृत्तनरैर्निकृत्तपतनाः प्रक्षेपणं दिक्षु च। **
बन्धो वा निगले ग्रसेत दहनं नानाशिरोबाहुता **
** सच्छत्रं द्विरदोऽभिषिच्य बिभृयाद्दिव्योऽथवा ब्राह्मणः॥
उडुपदिनपगोश्रृङ्गस्नाता(?)नङ्घभिषेचनं
भवति यदि वा व्याघ्रीसिह्मीगवां मुखदोहनम्।
जठरनिसृतैरान्त्रैर्ग्रामद्रुमाद्यभिषेचनं **
** विशति यदि सुश्लिष्टाङ्गी(?) त(न)नुप्रवराङ्गना॥
मनुजहृदयमूध्नो भक्षणं सास्वदान
** स्वहतभुजगसिह्मेभाजमांसोदनानि।**
तृणतरुकुसुमाम्बुप्रोद्भवो वा स्वनाभौ
** क्षितिररिपरिवृत्तोन्मूलने चाधिराज्यम्॥**
दिनकरशशिताराभक्षणस्पर्शनानि **
** दलनमपि च मूध्नः सप्त पञ्च त्रिधा वा।
वृषभगृहनगेन्द्राश्वभसिह्माधिरोहो
** ग्रसनमुदधिनेम्योश्चाधिराज्यप्रदानि॥**
विपुलरणविमर्दद्यूतवाद्यैश्च जित्वा **
** पशुमनुजमृगाणां लब्धिरध्यापनं वा।
विशसनपरिलोपोऽगम्यनारीगमो वा
** स्वशरणशिखिलाभस्सस्यसन्दर्शनं वा॥**
सितकुसुममनोज्ञालेपमाल्याम्बरस्त्री
** द्विजगुरुसुरराज्ञां दर्शनं चाशिषश्च ।**
मणिरजतसुवर्णाम्भोजपत्रेषु भुङ्क्ते
** यदि दधिपरमान्नं मज्जतेसृ(घ्घटे)ग्घ्रदेवा॥**
सिततुरगफलध्वजातपत्रव्यजनसरोजमणिद्विपेन्द्रलाभः।
अभयजय च भुङ्क्ष्यचेति शब्दाः परिणतराज्यफलप्रदाः प्रदिष्टाः॥
लब्धे शयने च दर्पणे भृङ्गारादिषु चाङ्गनातिरुक्ता।
कामिन्या धनलब्धिरम्बुतरणे दुःखस्य नाशो भवेत्
** सिह्मीदोहनरोदनादिषु तथा दाहेऽपि वृद्धिस्स्मृता।**
गोलिङ्गद्विजदेवतापितृवधूबालाश्च शंसन्ति यत्
** स्वप्ने तन्नियमाद्भवत्यवितथं कष्टं शुभं तद्भवेत् ॥**
अन्यत्र—
देवद्विजान् गोवृषभान् सुजीवत्सुहृदो नृपान्।
साधून् यशस्विनो वह्निमिद्धं स्वल्पजलाशयान्॥
कन्याकुमारकान् गौरान् शुक्लवस्त्रान् सुतेजसः।
नराशनं दीप्त(तनुं) तुण्डं समन्ताद्रुधिरोक्षितम्॥
यः पश्येल्लभते यो वा छत्रादर्शविषामिषम्।
शुक्लान् सुमनसो वस्त्रममेध्यालेपनं भवेत्॥
शैलप्रासादसफलवृक्षसिम्हासनद्विपान्।
आरोहेद्गां च यानं च तरेद्ध्रदनदोदधीन्॥
पूर्वोत्तरे च गमनं सम्बाधानिस्सृतिर्मृतिः।
वक्रं वा बाहुभङ्गं वा पश्येन्न तु शुभाशुभम्॥
रोधनं पतितोत्थानं द्विषतां चोपमर्दनम्।
यस्य स्यादायुरारोग्यं वित्तं च बहुशोऽश्नुते॥
यस्तु मध्ये तटाकस्य भुञ्जीत घृतपायसम्।
सौवर्णे पौष्करे पत्रे तं विद्यात् पृथिवीपतिम्॥
तुरगो वृश्चिको वाऽपि जलूको ग्रसते यदि।
विजयश्चार्थसिद्धिश्च विपुलं च धनं लभेत्॥
प्रासादशैलयोर्भूत्वा समुद्रं तरते नरः।
अपि दासीकुले जातो जायते पृथिवीपतिः॥
शुष्ककण्टकवृक्षाणामेकाकी यश्च रोहति ।
तत्रस्थश्च विबुध्येत तं व्याधिश्शीघ्रमाप्नुयात्॥
निगलैर्बध्यते……………………………….।
भयं नाशो भवेत्तस्याप्यपत्यं वा विपद्यते॥
नाभेरन्यत्र देशे तृणतरुकुसुमप्रोद्भवः स्नेहपानं
** क्रीडायानोपभोगाः खरकरभकपिव्यालरूपैश्च सत्वैः।**
कायस्यालेपनं वा कलुषजलमषीकज्जलस्नेहपङ्कैः
** दृग्जिह्वादन्तपङ्क्तिप्रपतनमपि वाऽनर्थशोकप्रदानि॥**
भृङ्गारुध्वजपावकाभिपतनं स्रोतोवहासो(त्त)भ्रमः
** रज्जुच्छेदमतिप्रतापजननीगात्रप्रवेशास्तथा।**
स्वप्ने कायविचूर्णनं च शिरसः क्लेशामयानर्थदाः
** श्मश्रुकेशनखदीर्घकल्पना वानरीविकृतनार्युपासनम्॥**
रक्तवस्त्रमनुजाङ्गमर्दनं रोगमृत्युभयशोकतापदम् —
स्थलमृदुपशुकीटानूपचर्या गजानां
** प्लवनमुदकराशौ स्याद्विवाहोत्सवो वा।**
सरसिजजलभाण्डक्रीडनं नर्तनं वा
** मलिनविवसनत्वाच्चाशु शोकप्रदानि॥**
पुत्रस्य नाशस्सुहृदां वियोगश्छेदश्च पाण्योः कलहाय नित्यम्।
प्रासादवेश्माद्रिशिरोऽवतारात् स्वप्नेऽप्यनिष्टा इति संप्रदिष्टाः॥
मित्रस्याप्तिस्स्याद्द्विकोशासिलाभो वश्यं राजा गच्छते शासनाप्तौ ।
सर्पे कर्णौ नासिकां वा प्रविष्टे तच्छेदस्स्याद्वेष्टने चाशुबन्धः ॥
अन्यत्र—
पितृदेवद्विजातीनां क्रुद्धभीतकृशात्मनाम्।
मालनाम्बरपुष्पाणां दर्शनं न प्रशश्यते॥
तेषामेव सुपुष्पाणां शुक्लपुष्पाम्बरात्मनाम्।
दर्शनं शस्यते स्वप्नेतैश्च संभाषणं शुभम्॥
मानुषाणि च मांसानि स्वप्नान्ते यस्तु भक्षयेत्।
रुधिराणि च पक्वानि पक्षे च मरणं ध्रुवम्॥
नावमारोहयेद्यस्तु भिन्नां याति समुत्तरन्।
असिंच निर्मलं तीक्ष्णमध्वानं सोऽधिगच्छति॥
आन्त्रेणावेष्टयेद्यस्तु नगराणि गृहाणि च।
गृहे माण्डलिको राजा नगरे पार्थिवो भवेत्॥
सूर्येन्दुग्रहताराणां स्वप्ने स्पर्शः शुभावहः।
** **आरोहति.. वायू च पुष्पाढ्यशाल्मलीकोविदारकिंशुकपारिभद्रकान्?लभते वा स्वर्णलोहलवणतैलपिण्याककार्पासकान् पराजीयते वासरैः।
स्वप्ने दृष्टे शोभनेनेव विद्यात्
** पश्चाद्दृष्टो यस्स पाकं विधत्ते।**
तद्वक्तव्यं साधु मित्रद्विजेभ्यो
** ते चाशीर्भिवर्धयेयुःर्नरेन्द्रम्।**
भूयोऽपि स्वपनं नचास्य कथनं गङ्गाभिषेको जपं
** शान्तिः स्वस्त्ययनं निषेवणमपि प्रातर्गवाश्वत्थयोः।**
विप्राणां च तिलान्नदानकुसुमैः पूजा यथाशक्तितः
** पुण्यं भारतकीर्तनं च कथितं दुस्वप्नविच्छित्तये॥**
अन्यत्र—
दृष्ट्वा स्वप्नान् शोभनान् दारुणान् वा
** प्रातस्नानं सर्षपानग्निवर्णान्।**
हुत्वा सावित्र्या सर्पिषाक्तांस्तिलान् वा
** पूतः पापैर्मुच्यते व्याधिभिर्वा॥**
इति । सर्वत्र साधारणं यात्राकालमुपदिशन् गोस्त्रीणां विशेषमाह—
प्रयाणे सर्वजन्तूनां शुभवाराः शुभास्स्मृताः।
बुधभार्गवयोर्वारौ न शुभौ गोस्स्त्रियोः क्वचित्॥
सर्वेषां स्त्रीपुंसात्मकानां द्विपदां चतुष्पदां च प्राणिनां प्रयाणे शुभवाराः शुभाः पापवारा वर्ज्या इत्येतत्सर्वसाधारणं। न विशेषः । तथा च मुहूर्तसारे—
कुलीरकन्याघटसंस्थितं रविं सितज्ञवारौ प्रथमं (?) तथोत्तराम्।विवाहयात्रावनितासु शम्यते विशेष एषोऽन्यदशेषमुक्तवत्॥
इति । ज्योतिषार्णवेऽपि—
बुधवारस्त्रियां निन्द्यः शुक्रवारोऽपि नाशकृत्।
नक्षत्रतिथितिथ्यर्धयोगवासरराशयः॥
ग्रहभावस्तथा योगो यात्राकालवदिष्यते ।
इति । रविमन्दवारावपीत्यन्ये । तथा च ज्योतिषार्णवे—
अर्कज्ञसितमन्दारवारेषु भयदास्सदा।
सर्वसौख्यं विजानीयाद्वारयोश्चन्द्रजीवयोः॥
देवेन्द्राश्विमघाशशाङ्कहुतभुक्पूर्वोत्तरारेवती
** नीरेशश्रवणद्विदैवतयमप्राजेशभेषूच्यते।**
गोयात्रा शनिमन्त्रिणोस्तु दिवसे शुद्धेऽष्टमे गोधनुः-
** युग्माद्यन्तमृगेश्वरेषु सकलं चान्यद्विचिन्त्यं नृवत्॥**
दारधर्मधने पुत्रे सहजर्क्षसहोदये।
समागमस्तु स्थानेषु गवां यात्रासु शस्यते ॥
पुत्रारिधर्मतोयेषु सहजे लाभरन्ध्रयोः।
शुक्रं सुपूजितं विद्याद्गवां यात्राफलप्रदम्॥
त्रिषडायगताः पापाः सौम्यास्सर्वे नभस्स्थले
सूर्यचन्द्रोदये प्राप्ते पशूनामायुषः क्षयः॥
यात्रायां सग्रहदोषफलमाह—
तीव्रैर्व्योमचरैस्संयुक्ते यातस्तीव्रान्विन्दति रोगान्। सौम्याख्यैरथ पीयूषांशावात्मीयैः कलहं प्राप्नोति ॥१७॥
तीव्रैः–क्रूरग्रहैरर्कार्किकुजराहुकेतुभिः। संयुक्ते–एकराशावेकनक्षत्रे सह स्थिते चन्द्रे यातस्तीव्रान् दारुणान् रोगान् विन्दति–प्राप्नोति। अत्रात्रिबृहस्पती—
यानेऽर्कयुक् ज्वरं चन्द्रः सर्पयुक् स्थाननाशनम्।
करोत्यारार्कियुक्क्लेशं मिथो भेदं बुधादियुक्॥
केतूल्कादिषु संयुक्ते चन्द्रे देशविनाशनम्।
बहुरोगोऽर्थनाशश्च परपीडा च जायते॥
इति। ग्रहैर्मण्डलभेदेन फलमुक्तं वराहमिहिरेण—
भृगुसुतबुधभिन्नैः रुक् सुरेड्येन मृत्यु-
** र्भयमसितकुजाभ्यां केतुना स्त्रीविनाशः।**
अपशुकिरणकान्तौ गच्छतश्शत्रुवृद्धौ
** सविकृतपरिवेष्टा तेन नाशं शशाङ्के॥**
इति । व्यतीपातादिदोषे फलमुक्तं व्यसनम्—
ऋत्वयनयुगसमाप्तौ न विजयकाङ्क्षी नृपः प्रवसेत्।
विधिरत्ने—
आर्द्रायामतिदुःखं क्षुद्बाधा जायतेऽहिपतौ।
पूर्वाषाढे नियतं शरीरहानिर्भवेद्यातुः॥
चित्रायां च विशाखे यातुर्यात्रा तदा मृतिं कुरुते।
याम्ये मघासु मरणं ज्वलनपतावस्य पर्यटनम्॥
पूर्वाभाद्रपदे यातुः क्लेशस्स्याद्द्विविधो भृशम्।
ऐन्द्रे भवेज्ज्वरस्तीव्रोभाग्येनासौ निवर्तते॥
रिक्ता तु दोषदा यातुरष्टमी व्याधिदा भृशम्।
कुरुते प्रतिपद्यातुर्देहनाशमसंशयम्॥
रोगो विष्ट्यां यातुश्शरीरहानिर्व्यतीपाते।
संक्रन्त्यां यदि गमनं विदेशगमनं प्रयातुरेव स्यात्।
ग्रहणे बन्धनमुक्तं वायौ प्रतिलोमगे महाक्लेशः॥
परिवेषे यदि गमनं क्षुत्तृष्णाभ्यां शरीरपीडा स्यात्।
दैन्यं दुर्दिनयाने पुनरावृत्तिं करोति सा वर्षे॥
सुरपतिचापे यातुर्भिनत्ति निस्संशयं यात्रा।
दिग्दाहे सति बाधा धूमेऽत्यन्तं नरस्सदाऽऽपन्नः॥
चोराद्याक्रान्तिस्स्याद्विधिनियमो दुर्निमित्तयुतयाने।
न व्रजेद्योजनादूर्ध्वमेषु योगत्रयेषु तु॥
अर्वागेव व्रजेदेषु योजनायास्सु (सु) बुद्धिमान्।
विद्रुतेन न गन्तव्यं मनुजेन विवेकिना॥
कर्मणां नैव सिद्धिस्स्यादनिष्टं च फलं भवेत्।
इति।
अभोजनमरिक्लेशः भयशोकस्थितिर्व्यथा।
प्रथमेऽह्नियथा न स्यात्तथा यायाद्विचिन्त्य तु।
श्रान्तो वाऽप्यथ मत्तो वा व्यथितो वा बुभुक्षितः।
क्रुद्धो लुब्धश्च मुग्धो वा न गच्छेदपि मत्सरी॥
श्रान्तादिकामं वपनं च मांसं
** सप्ताहमत्र त्यज मैथुनं च।**
प्राप्तेऽथ याने कृतमैथुनो यः
** तस्यापि मृत्युर्भवतीह शीघ्रम्॥**
यानस्य काले परिताप्य किञ्चिद्गच्छेन्मृतिस्स्याद्द्विजनिन्दया वा।भार्यावमानान्ननिवृत्तिरस्य यातुश्च मातापितृनिन्दया वा॥
इति । अथ यात्रादिफलसिद्ध्यर्थं तद्दिनकृत्यं तत्कालकृत्यं चाह—
** प्रतोष्य विप्रान्हविषा धनञ्जयं समर्च्ययातो लभते धनं जयम्।**
प्रणम्य गौरीं गणनाथमीश्वरं स्मरन् ग्रहेन्द्रं मनसा दिगीश्वरम् ॥१८॥
हविषा आज्यचरुतिलादिना धनञ्जयमग्निं समभ्यर्च्य सम्यक्—स्वगृह्योक्तग्रहयज्ञविधिनेष्ट्वा विप्रान्—दैवज्ञादीन् मणिकनकवस्त्रान्नादिना प्रतोष्य। गौरीं दुर्गां गणनाथमीश्वरं स्मरन् स्वेष्टदेवतामीश्वरं च सम्पूज्य प्रणम्य दिगीश्वरं ग्रहेन्द्रं—सूर्यादिकं दिगीशमिन्द्रादिकं च मनसा स्मरन् यातो धनमिष्टार्थं शत्रुजयं च लभते। अत्र होमश्च तत्तद्दिनक्षत्रदेवतामन्त्रैः कार्यः। यत आहुः—
नक्षत्रदेवतामन्त्रैर्हत्वा चाग्निंव्रजेन्नृपः।
औदुम्बराणि पालाशखदिराश्वत्थवञ्जुलैः॥
न्यग्रोधार्कसमिद्भिश्च प्रागादौ दिक्षु दक्षिणः।
हुत्वान्नज्याहुतीस्तस्य नक्षत्रेशस्य नामभिः॥
इति।एतदुक्तं भवति—
वक्ष्यमाणग्रहयज्ञं विधाय अथ कृतशान्त्यभिषेको ब्राह्मणान् यथाशक्ति विशेषतो दैवज्ञं स्वर्णवस्त्रान्नताम्बूलादिवितरणेन तत्तद्ग्रहोक्तदाक्षणाभिश्च सन्तोष्य दुर्गां गणाधिपतिं स्वेष्टदेवतां च सम्पूज्य नक्षत्राद्युक्तभक्षणं कृत्वा पुण्यस्त्रीजनकृतस्वस्त्ययनो गुरुद्विजदेवता अभिवन्द्य प्रदक्षिणीकृत्य च मङ्गलानि पश्यंस्तदाशीर्वादवाद्यघोषान् शृण्वन् उत्थाय प्राङ्मुखः स्थित्वा त्र्यम्बकमुमापतिं ध्यात्वा स्वेष्टविद्यां जप्त्वायथायायात्। इति। यात्राविधिमाह—
द्वात्रिंशतं दक्षिणपादपूर्वमध्युष्य गत्वा नृपतिः पदानि।
यायाततो हस्तिरथाश्वमर्त्यानारुह्य काष्ठाः क्रमशचतस्त्रः॥१९॥
यास्यन्नृपतिर्दक्षिणपादपूर्वं द्वात्रिंशतं पदान्यध्युप्य भूमौ गत्वा अथो गजरथाश्वमर्त्यानारुह्य क्रमशः–प्राच्यादिक्रमशः चतस्रः काष्ठाः दिशः प्रयायात्। गजमारुह्य प्राची रथमारुह्य दक्षिणां अश्वमारुह्य प्रतीची अन्यां मनुष्यवाहशिबिकादियानमारुह्योदीची गच्छेदित्यर्थः। श्रीपतिः—
हुत्वा वह्निं देवताश्च प्रणम्य
** श्रद्धायुक्तः स्वस्ति वाच्य द्विजेन्द्रान्।**
ध्यायन्नाशाधीश्वरं हृष्टचेताः
** क्षोण्याधीशो निर्विलम्बंप्रयायात्॥**
इति। दिगीशोऽत्र ग्रहो लोकेशश्च। तथाचोक्तम्—
प्राचीं प्रणम्य चार्केन्द्रौयायाद्याम्यांयमं कुजम्।
वारुणीं वरुणं मन्दं सौम्यां सौम्यधनेश्वरौ॥
इति। गुरुः—
शुक्लमाल्याम्बरश्शुद्धो मुक्तादिसितभूषणः।
वारेशसमवर्णो वा बलिग्रहसमोऽपि वा॥
दृष्ट्वाष्टौ मङ्गलान् गच्छेन्नृपतिः मङ्गलां गिरम्।
श्रुत्वा च तूर्यशब्दांश्च निजादन्तःपुरादपि॥
पूर्णकुम्भं ध्वजं छत्रं दीपं शङ्खं च चामरम्।
अङ्कुशं शक्तिमाराध्यं मङ्गलाष्टकमीरितन्॥
एषां च दक्षिणे पार्श्वे समभ्यर्च्य ग्रहान् शुचिः।
नमस्कारेण मन्त्रेण ग्रहनामयुतेन च ॥
नक्षत्रभक्षणं कृत्वा तिथिभक्षणमेव च।
दैवज्ञं पूजयित्वा तु विप्रान् संपूज्य शक्तितः।
प्रदक्षिणानिमान् कृत्वा तिष्ठन् ध्यायेदुमापतिम्॥
प्राङ्मुखस्त्रिपुरघ्नं तं जपेद्विद्यां च मङ्गलाम्।
पूर्वं दक्षिणमुद्धत्य पादं यायान्नराधिपः॥
द्वात्रिंशतं पदं गत्वा धरायां नृपतिस्स्वयम्।
दैवज्ञामात्यविप्राढ्यपुरोगैः स्वजनैर्युतः॥
पूर्वाशां गजगो राजा रथमारुह्य दक्षिणाम्।
पश्चिमां वाजिगो यायादुत्तरां नरवाहन॥
इति। अत्र केचित्प्रवहद्वायुनासापुटभागगतं पादं पूर्वमुद्धुत्य यायादित्याहुः। तथाच स्वरशास्त्रे—
दक्षिणेऽप्यथवा वामे यत्र सञ्चरतेऽनिलः।
कृत्वा तत्पादमादौ तु यात्रा भवति सिद्धिदा॥
इति। अत्र वामगे वायौ वामपादमुद्धृत्य दक्षिणपादसमं विन्यस्य दक्षिणमेवोद्धृत्य द्वात्रिंशत्पदानि गच्छेत्।
तथाचोक्तम्—
चन्द्रे तु समपादं स्यात् सूर्ये तु विषमं स्मृतम्।
पूर्णं पूर्वं समुद्धृत्य यात्रा भवति सिद्धिदा॥
इति। अत्रापि परिघमिच्छन्ति। दक्षिणगे पूर्वोत्तरे न व्रजेत्। वामगे याम्यपश्चिमौ न व्रजेत् इति। तथाच ब्रह्मयामले—
वामेतरप्रवाहे तु न यायात्प्रागुदग्दिशौ।
परिपन्थिभयं तत्र गतोऽसौ न निवर्तते॥
सव्यनासाप्रवाहेन न गच्छेद्याम्यपश्चिमे।
तत्र स्याद्दस्युसम्पातो मृत्युरेव न संशयः॥
इति।केचित्सर्वदिक्षु परिघदोषपरिहरणाय वायुं कुम्भितं कृत्वा व्रजेदित्याहुः। तथा च विधिरत्ने—
प्राङ्मुखो धूर्जटिं ध्यायन् कृत्वाऽतो कुम्भकं सुधीः।
पाद दक्षिणमुद्धृत्य गच्छेत्पूर्वं सुशोभनम्॥
इति। तथा च नारदः—
अप्रयणे स्वयं कार्यापेक्षया भूभुजां तदा।
कार्यं निर्गमनं तत्र शस्त्रास्त्राक्षतवाहनैः॥
इति। अन्यद्वा मनसोऽभीष्ठं प्रस्थापयेत्।तथा च वराहमिहिरः—
छत्रध्वजान्यम्बरभूषणानि
** पाथेयरैवासनवाहनानि।**
सदर्पणाद्यौपयिकानि पूर्वं
** प्रस्थापयेद्वैजयिकं जयाय॥**
इति। प्रस्थानक्रमश्च गुरुणोक्तः—
किञ्चिद्विलम्ब्य यातव्ये कार्यं निर्गमनं बुधैः।
योगे वा प्रोक्तकाले वा यात्रावत्साध्यसाधनम्॥
आत्मतुल्यं समभ्यर्च्य पदांर्थ शासनं नृपः।
स्वयमादाय तां गत्वा यात्रावत्पूजितेन च॥
अन्तपुराद्वा स्वनिकेतनाद्वा
** सिंहासनादग्निपरिस्तराद्वा।**
कुर्यान्नरेन्द्रः प्रथमं प्रयाणं
** विप्रैस्स चाग्र्यैःकुतमङ्गलाशीः॥**
प्रस्थितस्य गन्तव्यमार्गमाह—
सहस्रं वा तदर्धं वा शतं वा धनुषां पथि।
नागत्वा प्रस्थितस्तिष्ठेत्ततस्तिष्ठेत्प्रयातु वा॥२०॥
स्वस्थानात्प्रस्थितो राजा प्रथमदिने पथि स्वगृहप्राकारात्परं मार्गे धनुषां सहस्रं अर्धक्रोशं तदर्धं धनुषां पञ्चशतानि वा धनुषां शतं वा नागतस्तिष्ठेत्। तथा च सर्वसिद्धौ—
याति येन मुहूर्तेन गृहं (गृहात्) तैनैव मानवः।
धनुस्सहस्रमर्धं वा शतं वा दूरतो व्रजेत्।
रत्नकोषेऽपि—
स्वस्थानात्प्रस्थानं धनुश्शतार्धं शतानि पादानाम्।
अर्वाग्धनुस्सहस्रान्न स्थेयमिति ब्रुवन्त्यपरे॥
अन्ये पुनराचार्या स्वगृहप्राकारनिर्गमादुपरि इति।रत्नमालायामपि—
स्वस्थानमाहुर्धनुषां शतानि
** पञ्चार्धमेकं च धनुश्शतार्धम्।**
स्वस्थानतस्स्याद्दशभिर्धनुर्भि-
** र्गतं खलु प्रस्थितमेव मन्ये॥**
अत्रेयं व्यवस्था द्रष्टव्या–राज्ञां प्रस्थानं धनुस्सहस्रं।मण्डलेशानां तदर्धम्।
प्रभूनाम् धनुश्शतम्। अन्येषां प्राकृतानां तदर्धम्।नीचानां धनुर्दशकमिति। अथवा दिग्विजययात्रायां धनुत्सहस्रं परविषययात्रायां तदर्धम्। स्वमित्रराष्ट्र्याने धनुश्शतं।स्वराष्ट्रयानेतदर्धं इति। धनुरिह दण्ड उच्यते। तेनैव क्रोशादि मानगमनात्। तथा च नारदः—
स्वस्थानान्निर्गमस्थानं दण्डानां तु शतद्वयम्।
चत्वारिंशत्पथे विशत्प्रस्थितिश्च स्वयंगतः॥
इति। दण्ढप्रमाणं च श्रीधरेणोक्तम्—
हस्तोऽङ्गुलविंशत्या चतुरान्वितया चतुष्करो दण्डः।
तद्विसहस्रं क्रोशः योजनमेकं चतुःक्रोशम्॥
इति। आद्येऽह्नि प्रस्थितो राजा धनुस्सहस्रं गत्वा ततस्तत्र तिष्ठेत्। परतो दूरं न गच्छेत्। तथाच बादरायणः—
तस्मात्क्रोशं गच्छेदाद्येऽहनि पार्थिवो विजयकाङ्क्षी।
नूनं तद्विकोशाद्गमने गतिदोषभङ्गास्स्युः॥
एतदुक्तं भवति—तदूर्ध्वं शकुनानां निष्फलत्वात् इति। अथ मतान्तरमाह—प्रयातु वेति। यः श्रवणादिभेषु प्रस्थितोऽनुलोमशकुनस्य किञ्चिद्विलम्ब्य(?) तत ऊर्ध्वं गच्छत्विति सुमुहूर्तप्रयाणे मुहूर्तमपेक्षणीयम्। यस्मान्नारदः—
मनोनिमित्तशकुनैर्लग्नंलब्ध्वा व्रजत्यरीन्।
विषयं विजगीषुर्यो विजयश्रीयुतान्यपि॥
निमित्तान्यत्रोक्तानि—
ज्वलदग्निभतुरगनृपासनवराङ्गनाः
** गन्धपुष्पाक्षतच्छत्रचामरान्दोलिका नृपाः।**
भक्ष्येक्षुफलशस्त्राणि दध्यन्नमधुसमर्पिषः
** मत्स्यमांससुराधौतवस्त्रसङ्घवृषध्वजाः॥**
पण्यस्त्रीपूर्णकलशरत्नभृङ्गारगोद्विजाः।
भेरीमृदङ्गपटहशङ्खवणादिनिस्वनाः॥
वेदमङ्गलघोषाच्च यायिनां कार्यसिद्धिदाः।
वराङ्गना–प्रजावती। सती–रम्या वीरसूरित्युक्तलक्षणा।वन्ध्या–मलिना क्षीणपयोधराणां वर्ज्यत्वात्। शस्त्रं–धनुः मधु–क्षौद्रं, अन्नं–सिद्धान्नं गौर्वन्ध्या वर्ज्या, द्विजः–श्रोत्रियो विद्वान्, ‘ब्राह्मणस्सर्वज्ञः श्रोत्रियस्सौम्यमित्रं बान्धवधन्विन’ इति वचनात्। वेदपुण्याहघोषाश्च। जय–शत्रून् पराजय। षड्जमध्यमगान्धारऋषभाश्च स्वराः हिताः। इति। सम्प्रापय व्रज विसर्जय गच्छ मुञ्च वर्धस्व भुङ्क्ष्व रमय स्त्रियमाप्नुहीति संसर्प याहि जय दिव्यशुभप्रमोदशब्दाः प्रयातुरभिवाञ्छितसिद्धिदास्स्युरिति श्रीपतिः—
भृङ्गाराञ्जनवर्धमानमुकुरं वध्वैकपश्चामिषो-
** ष्णीषक्षीरनृयानपूर्णकलशच्छत्राणि सिद्धार्थदाः।वीणाकेतनमीनपङ्कजदधिक्षौद्राज्यगोरोचनाः**
** कन्याशङ्खसिताक्षवस्त्रसुमनोविप्राश्च रत्नानि च॥**
समिदिन्धनताम्बूलकुशताम्रादिभूषणाः।
शय्यास्त्रक् स्वस्तिरूप्याणि धान्यं च पुरतश्शुभम्॥
राजा धेनुर्गुरुर्विप्रा वास कन्या शिशुश्शव।
एतांस्तु प्रथमं दृष्ट्वाकार्यसिद्धिं तु विन्दति॥
अथ—
‘सुमुहूर्ते प्रयातोऽपि निमित्तविपरीततः।
प्रयातो नाप्नुयात्सिद्धिं अतस्तत्परिवर्जयेत् ॥’
इति वचनात् (?) यात्रासिद्धिप्रतिषेधे अशुभनिमित्तान्यत्रोक्तानि यथा—
चर्मास्थितैलगुडविपतुभूषारनाल(?)
** कृष्णान्नपङ्कतृणपङ्कविलुप्तकेशाः।**
कार्पासभस्मलवणौषधधान्यषण्ड
** साङ्गारवान्तसरुगन्धनपङ्गुकुब्जाः॥**
भिन्नाङ्गभिन्नहतविप्लुतमत्तभीत
** तैलाक्तमूकबधिराधमबन्धरुद्धाः।**
क्षुत्क्षामवागुरिकधीवरकोऽभिगाती
** काषयिमुण्डजटिला गमने न शस्ताः॥**
भिन्नाङ्गः–कृत्तनासाद्यङ्गभिन्नः,पतनाद्याभिघातादिना भिन्नपादाद्यवयवः। हतश्चोरादिभिरभिभूतः। पतितो–भग्नव्रत मत्तः–उन्मत्त सर्पादिदर्शनात्। अधमो–मूर्खः। बद्ध–पाशनिगलादिना रुद्ध। अभिघाती–प्राणहिंसक काषायी–काषायवासा॥अन्ये
मत्तं तैलाभिषिक्तं भुजगमभिमुखं मुक्तकेशं विवस्त्रं।
प्रव्रज्यां भिन्ननासं मलिनधृतजटारक्तपुष्पार्द्रवस्त्रान्॥
मृत्कुम्भं भाण्डभारं कलहमभिमुखं काष्ठधारं च दृष्ट्वा।
प्रस्थाने पार्थिवानां यदि भवति तदा मृत्युसिद्धिर्नराणाम्॥
प्रव्रज्याग्रहणात् प्रव्रज्यायुताः पुरुषाः स्त्रियश्च। मृत्कुम्भो रिक्तः।
ब्रह्मवित्स्वीकृताकारो जाल्मजालोपजीविनः।
ब्रह्मचारी भिक्षुकी स्त्री क्षीणा वन्ध्या रजस्वला॥
कांस्यं कार्षापणं सीसमयस्कान्तं च काञ्चिकम्।
मार्जनी रज्जुशूर्पाणि पुलाकं तृणसञ्चयम्।
पाषण्ढान् रिक्तपात्रं च यात्रायां पुरतोऽशुभम्। अन्ये—
पाषण्डिचण्डालखरोष्ट्रदुःखिताः
** जलावकीर्णोऽप्यशुभाय वीक्षितः।**
क्वयासि तिष्ठ प्रविश प्रियाय किं
** करोषि नास्तीत्यशुभा गिरस्तथा॥**
श्रीपतिः—
कुटुम्बकलहो गृहज्वलनमार्तवं योषितां
** बिडालसमरं क्षतस्खलितमम्बरादेस्तथा।**
दुरुक्तमतिकोपता महिषयोश्च युद्धं भवेत्
** प्रयाणसमये नृणामभिमतार्थविच्छित्तये॥**
कुलालनग्नवैद्यांश्च नापितं व्याधितं तथा।
कर्मारमुनिचोरांश्च वीक्ष्येन्द्रादौ तु न व्रजेत्॥
वराहमिहिरः—
ध्वजातपत्रायुधसन्निपातः
** क्षितौ प्रयाणे यदि मानवानाम्।**
उत्तिष्ठते चाम्बरमेति सङ्गं
** पाताच्च पात्रं नृपतेर्भयाय॥**
उत्तानशय्यासनपात्र सर्ग
** निष्ठ्यूतदुर्दशेनवाशितानि।**
नेष्टानि शब्दाश्च तथैव यातु-
** रागश्च तिष्ठ प्रविश स्थिराद्याः॥**
आसनं—पर्यङ्कादिः।अधोमुखयोश्शय्यासनयोरुत्तानं वा सर्गो गुदोच्चांसं तोरणभूषणशकलाक्षतादीनि वाहनादीनि वाताश्च न शुभाः। यातुः पादस्खलने अङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीषु फलमुक्तम्—
स्खलनं दक्षिणस्याङ्घ्रेर्ज्येष्ठाद्यङ्गुलिषु क्रमात्।
वसुवस्त्रं विरोधश्च विवादं हानिमाप्नुयात्॥
वामेन तद्वन्नैष्फल्यं कलहं मित्रमीप्सितम्।
सौख्यं च लभते मर्त्यो यात्रायां नात्र संशयः॥
अन्यत्र—
सर्वदिक्षु क्षुतं नेष्टं मृतये गोक्षुतं फलम्।
सन्निपातरुगाद्यार्तवृद्धपीनसनासिकैः॥
निरर्थकं पुर प्रोक्तं अनर्थं दक्षिणेन तु।
पृष्ठतः कार्यलाभाय क्षुतं क्षेमाय वामतः॥
अन्ये त्वाहुः—
वृद्धिं क्षयं विनाशं वृद्धिमनर्थागमं ततो व्याधिम्।
आरोग्यमर्थलाभं क्षुतस्य पूर्वादित फलं विद्यात्॥
अन्ये त्वन्यथाऽऽहु—
प्रीतिद्रव्याण्यपूपं व्यसनपरिभवं प्रस्तुताभावभावो
** गव्यं ताम्बूलवस्त्रागमनमथ सुहृद्दत्तयोषागमं च।**
अर्थावाप्तिं नराणामपगमनमथो वाहनं चार्कपूर्वं
** जानीयात्पञ्चमादे क्षतजफलमिदं षोडशांशीकृतांशै॥**
इति। वायुलक्षणमुक्तम्—
प्रोक्षिप्तक्षुपपांसुपत्रविहगछत्रध्वजाग्रारति
** दुर्गन्धः करिदानशोषजनक सर्वत्र लोष्टोत्कर।**
यातुर्वायुरनिष्टद शुभकरो यात्रानुगोऽल्पोद्यम
** प्रह्लादी सुरभि प्रदक्षिणगति स्वादुश्च वृद्धिप्रदः॥**
इति ।
लीलोन्मूलितपादपः प्रतिहनद्वल्मीकगुल्माचलो
** कक्ष्यासन्नहनोद्यतं प्रतिमुखं मुञ्चन् करान् शीकरान्।**
दानाक्तोयदि वा भवेद्रुतगति संवेष्टयन् पाणिना
** दन्तं दक्षिणमक्षिणी विकसयन् राज्ञां प्रशस्तः करी॥**
आरोहति क्षितिपतौ विनयोपपन्नो
** यात्रानुगोऽन्यतुरगं प्रति हेषितं च।**
वक्त्रेण च स्फुरति दक्षिणमात्मपार्श्वं
** योऽश्वस्स्वभर्तुरचिरात्प्रतिभाति लक्ष्मीः॥**
अशुभानि निमित्तानि—
निद्रामलितलोचनोऽवनितले विन्यस्तहस्तो हितं
** भक्षं भक्षति भीतकर्णयुगलो विण्मूत्रकृच्चासकृत् ।**
दीर्घं निश्वसिति स्खलद्गतिरयं यात्राविलोमन्तथा
** दीनं च द्विरदोऽशुभोऽपि गमने क्षिप्रं भवेद्भूभुजाम्॥**
परिजननिमित्तानि—
निद्रालस्यावनतबदनाः केतनस्वप्नशीलाः
** भ्रष्टाचारा मलिनपुरुषाश्छाययाऽक्रान्तदेहाः।**
दीर्घश्वासाः सजलनयनाः शोकलोभाभिभूताः
** सैन्ये यस्य द्विजगुरुसुहृद्वेषिणश्चैव योधा॥**
अकारणार्थोद्गतरोमकूपाः
** जये निराशाः प्रकृतेरपेताः।**
अमङ्गलाश्चेष्टितजातहासाः
** सैन्ये नरा यस्य जयो न तस्य॥**
शुभनिमित्तानि—
संरक्ताः परितोषगं(मं?) सवदनाः सन्तोषफुल्लेक्षणाः
** स्वाचारा वृतमङ्गलाः सुवपुषः सन्त्यक्ततन्द्रीक्लमाः।**
संसक्ता धृतनिश्चया रिपुजये दैवार्यविद्वत्सुहृ-
** द्भक्ता यस्य बले भवन्ति मनुजास्तस्याप्यवश्यं जयः॥**
इति ।
शुभाशुभानां कार्याणामासन्नानां भविष्यताम्।
सूचकान्येव यानीह शकुनानि विदुर्बुधाः॥
इति। वराहमिहिरेणोक्तानि तथा—
चुचुन्दरी सूकारका शिवा च
** श्यामोरला पिकालिकान्यपुष्टा।**
वामाः प्रशस्ता गृहगोधिका च
** पुंसंज्ञिता ये च प्रतत्रिणस्स्युः॥**
एते यातुर्वामभागगताः शुभाः—
भारद्वाज्यजमाहिषाश्वनकुलास्सङ्कीर्तनाद्दर्शनात्
** क्रोशन्तश्च शुभप्रदा न सरटो दृष्टः शिवाय क्वचित्।**
गोधा सूकरजाहकाहिशशकाः पापा रुतालोकने
** धन्यं कीर्तनमृक्षवानरफलं तद्व्यत्ययाच्छोभनम्॥**
अन्ये त्वाहुः—
सृगालनकुलव्याघ्रचकोरोरगप्रोत्रिणाम्।
दक्षिणे दर्शनं श्रेष्ठं प्रस्थाने वामतोऽन्यथा॥
श्वमृगाजगरध्वांक्षरुरूणां वायसस्य च।
वामेनालोकनं श्रेष्ठं प्रयाणे दक्षिणेऽन्यथा॥
उलूकमहिषश्येनाः खरोष्ट्रव्यालडुण्डुकाः।
वृकमेलकमेषौ च याने दृष्टा न शोभनाः॥
नारदोऽप्याह—
एला कुड्याशिवा काककपोतानानां गिरश्शुभाः।
रुरुचुञ्चु कहेमाक्षिसना (?) यानेऽत्र वामतः॥
रुरुवाग्व्यत्यये शस्ताः पक्षिणां दक्षिणा गतिः।
यात्रासिद्धिर्भवेद्दृष्टे शबे रोदनवर्जिते॥
प्रवेशे रोदनयुतः शवश्शावप्रदस्तदा॥
इति।
फणिनो डुण्डुभस्यापि सरटस्य तु वामतः।
प्रदक्षिणा गतिरशस्ता मृगास्सनकुलाण्डजाः॥
वृकास्सृगालारशार्दूलाः बिडाला गर्दभाश्शशाः।
वामतोऽर्थकरा ज्ञेयाः कुरङ्गा दक्षिणेन च॥
रिक्तोऽनुकूलः कलशो जलार्थ
** मभ्युद्यतस्सिद्धिकरः प्रयाणे।**
विद्यार्थिनां चौर्यसमुद्यतानां
** वणिक्क्रियामुद्यमिनामतीव्॥**
** नैकत्र वसतु दिवसान् दश प्रयातो नृपो न पञ्चान्यः। यदि निवसेत्प्रस्थानं पुनरपि कुर्याच्छुभे दिवसे ॥२१॥**
सुमुहूर्ते प्रयातो नृपः एकत्र प्रदेशे दश दिवसान्न वसेत्। तर्हि पुनश्च शुभे दिवसे प्रस्थानं कुर्यात्। मण्डलेशस्तु सप्ताहानि नैकत्र तिष्ठेदित्याहुः। तथाच विधिरत्ने—
यांयां काष्ठां गन्तुमिच्छेद्विरोधे
** तस्यांतस्यां विन्यसेद्द्रव्यमित्थम्।**
आसप्ताहात्तेन यायादभीष्टं
** तस्मादूर्ध्वं निष्फलं प्राहुरार्याः॥**
इति। प्रस्थानस्य नक्षत्रवशात् यात्राकालमाह—
** प्रस्थाय सौम्ये परमृक्षयुग्ममध्युष्य पुष्ये विदधातु यात्राम्।विष्णौ प्रयातो न वसेत्स्वसीम्नि मैत्रे तु निर्गत्य च यातु मूले ॥२२॥**
** हस्ते प्रयाय पवने विदधातु यात्रां पौष्णे गतश्च रजनीं निवसेतू स्वसीम्नि।अध्युष्य गच्छतु परेषु मुहूर्तमात्रं नाध्युष्य हस्तगुरुविष्णुषु केचिदाहुः॥**
सौम्ये–मृगशिरशि।प्रस्थाय ततः परमार्द्रापुनर्वसुताराद्वयं तत्रैः वाध्युष्य पुष्ये यात्रां कुर्यात्। तदूर्ध्वं न तिष्ठेत्। विष्णौ प्रस्थितस्वसीम्निन वसेत्। तदानीमेव स्वसीमान्तात्परं व्रजेदित्यर्थः। मैत्रे विनिर्गत्य प्रस्थाय ज्येष्ठामध्युष्यमूले यायात्। हस्ते प्रस्थाय चित्रामध्युष्य स्वात्यां व्रजेत्। तथा रेवत्यां प्रस्थितः स्वसीम्नी रात्रिमेकामध्युष्य परेद्युर्व्रजेत्।अन्येषु नक्षत्रेषु प्रस्थितो मुहूर्तमात्रमध्युष्य गच्छेत्। अथ हस्तपुष्यश्रवणेषु प्रस्थित क्षणमपि नाध्युष्य बिलम्बमकृत्वा गच्छेदिति केचिदाचार्या आहुः । एतदुक्तं सर्वसिद्धौ—
सौम्ये गत्वा शिवादित्ये समध्युष्यार्यभे व्रजेत्।
धनसिद्धैर्हरौ गत्वा स्वसीम्नि निवसेद्बुधः॥
मैत्रे गत्वेन्द्रभेऽध्युष्य मूले यायाद्धनाप्तये।
हस्ते गत्वा समध्युष्यचित्रां स्वात्यां परे व्रजेत्॥
गत्वा पौष्णेन्दुपुष्येषु समध्युष्यैकरात्रिकम्।
स्वसीम्न्येव ततो गच्छेद्धनारोग्यादिसिद्धये॥
नाध्युष्यार्केन्दुविष्ण्वार्यहस्तेषु त्वरया व्रजेत्।
इति। पथि दश दिनान्येकत्र न वसेत्। यदि निवसति पुनश्च शुभ(सु)दिने यायादिति प्रागुक्तं केचिदाहुः तथाच बादरायणः—
शुभलग्नेनिर्यातो राजा विनिवर्तते फलसमाप्तौ।
जित्वा सकलान् शत्रून् न पुनस्तत्रादिशेल्लग्नम्॥
इति। अथ यातुर्मूर्त्यादिना शुभाशुभनिरूपणायाह—
** लग्नाद्यास्स्युभोवा मूर्तिः कोशो योघो बाह्ये मन्त्रः।शत्रुर्मार्गोऽयायुस्स्वान्तं व्यापारश्च प्राप्त्यप्राप्ती ॥२४॥**
यात्रालग्नाद्वादशभावा यातुर्नृपादेर्मूर्त्यादयः। लग्नं मूर्तिः शरीरं स्यात्। द्वितीयं कोशो धनस्थानम्, तृतीयं योधो विक्रमस्थानं पत्यादि, चतुर्थं वाहोऽश्वादियानम्; पञ्चमं मन्त्री बुद्धिस्थानम् सचिवादि; षष्ठं शत्रुरभियोज्यवैरिस्थानम्; सप्तमं मार्गो गन्तव्यः पन्थाः गतिस्थानम्; अष्टममायुर्जीवितफलम्; नवमं स्वान्तं हृदयम्; दशमं व्यापारं कर्मस्थानम्; एकादशं स्थानं प्राप्तिर्धनाद्यागमः, लाभस्थानम्; द्वादशमपाप्तिः लाभस्य व्ययस्थानमित्यर्थः–तथाच वराहमिहिरः ;—
नृपमूर्तिर्लग्नगतो (?)मन्त्रिणो द्वितीये च।
वैद्यः पुरतस्सांवत्सरस्तृतीये परे भृत्यः॥
स्थानपराक्रमचिन्ताव्यापारपराक्रमे (?) चमूबलं ज्ञेयम्।
(?) प्रयातुर्मन्त्रस्य विनिश्चयं च तत्परतः॥
ज्ञेयाः पञ्चदशाद्या द्रेक्काणचतुष्टये रिपवः।
एकोनविंशके सैनिकाम्बुशयनेन्धनानि परतोऽर्थाः॥
परतोऽस्य दण्डनेता दण्डस्योपद्रवः परतः।
सेनाच्छिद्रं तस्मात् सेनानेता चतुर्विंशे॥
सेनारोग्यं सैन्यं चतुष्पदश्च क्रमात् तच्च।
(?) त्रये कार्यं कोशः फलासद्धिश्च भूमिपास्त्रयोऽपरतः॥
धर्मक्रियाथ योधार्चनं च यात्रासमाप्तिश्च।
इत्युदयाद्या भावा द्रेक्काणैर्ये मया समुद्दिष्टाः॥
सदसत्फलमादेश्यं सदसद्युतिवीक्षणात्तेषाम् ।
इति। सामान्यस्य विशेषमाह —
** योधाप्तिवर्ज्यमितरान् क्षपयन्ति भावान् पापाः कुजोष्णकिरणौ दशमं च हित्वा।मूर्त्यायुषी हिम-**
करो भृगुजस्तु मार्गं हित्वा सपत्नमितरान् प्रथयन्ति सौम्याः ॥२५॥
पापा—रविकुजमन्दराहुकेतवो मूर्त्यादिस्थानगताः योधाप्तिवर्ज्यं यौधाप्तिभावौ वर्जयित्वा तदितरान् भावान् क्षपयन्ति विनाशयन्ति। कुजोष्णकिरणौ–कुजार्कौयौधाप्तिभावौ दशमं च हित्वा अन्यभावान्–निघ्नन्ति। सौम्या–बुधगुरुशुक्राः सचन्द्राः मूर्त्यादिस्थानगताः सपत्नं–शत्रुस्थानं हित्वा इतरान् मूर्त्यादिभावान् प्रथयन्ति–पोषयन्ति। षष्ठगास्तु शत्रून् क्षपयन्ति। हिमकरश्चन्द्रः शत्रुमूर्त्यायुषी हित्वा अन्यान् प्रथयति मूर्त्यायुषी क्षपयति। शुक्रस्तु मार्गं शत्रुं च हित्वा अन्यान् प्रथयति मार्ग शत्रुं च क्षपयति। तथाच वराहमिहिरः—
विलाभवर्ज्यं रविसौरभौमाः
निघ्नन्ति नो कर्मणि भौमसौरौ।
पुष्णन्ति सौम्या रिपुभाववर्ज्यं
नास्तं भृगुर्मृत्युविलम्नमिन्दु॥
इति।अत्रेदमुक्तं स्यात्–रविभौमौ त्रिषडेकादशगतौ शुभौ। मन्दस्त्रिषडेकादशदशस्थः राहुकेतूदयसदृशफलत्वात्। त्रिषडेकादशस्थौ शुभौ। एतेऽन्यत्र न शुभाः। गुरुबुधौ षट्पादगतौ न शुभौ। शुक्रः षट्सप्तमद्वादशगो न शुभः।चन्द्रो लग्नषडष्टमद्वादशस्थाने न शुभः। एतेऽन्यत्र शुभा इति। वराहमिहिरः—
सन्तापशोकगदविघ्नकृदुद्गमेऽर्कः
** कल्याणमानबलहार्दहरो।**
भौमान्नविद्रुममणिक्षितिदस्तृतीये
** वैराग्यबन्धुकलहारतिदश्चतुर्थे॥**
पुत्रापदं सुतगतोऽध्वनि चार्थलाभः
** षष्ठेऽभिवाञ्छितफलाप्तिमरिक्षयाय।**
द्यूने कलत्रकलहं धनसंक्षयं च
** मृत्युं करोति निघने सविता रुजं च॥**
धर्मं हिनस्ति नवमे सविताऽर्थदश्च
** हत्वा वियत्यविदितं श्रमकर्मदाता।**
रत्नागमं तु बहु लाभगतः करोति
** कृत्वा व्ययं व्ययगतः कुरुतेऽर्थमन्यम्॥**
लग्ने शशी कलहशोकहरो न पूर्णः
** स्त्रीवाजिरत्नसुहृदात्मजदः कुटुम्बे।**
दुश्चित्कगो युवतिरत्नधनप्रदाता
** वध्वाप्तिदः सुहृदि तत्क्षयदश्च कृष्णे॥**
अर्थक्षयस्त्रयगतः सुतशोककृच्च
** मित्रारितां प्रकुरुते न सुखं च षष्ठे।**
अस्तेऽर्थभूयुवतिदोऽर्थविनाशदोणु-
** श्चन्द्रोऽष्टमे निधनशोककरः प्रयातुः॥**
प्रत्येति नाशु नवमे कुरुतेऽतिकार्यं
** क्षीणो व्ययं वियति वृद्धेिकरोन्यथास्थः।**
एश्वर्यसौख्यधनलाभमुपैति लाभे
** क्लेशक्षयव्ययभयानि च रिफयाते॥**
लग्ने विषाग्निरुधिरागमशस्त्रबाधा
** भिन्द्याद्बलं धनगतोऽर्थगतश्च पश्चात्।**
दुश्चित्कगो युवतिरत्नधनाम्बराप्तिं
** बन्धुक्षयारिभयदो हिबुके महीजः॥**
पुत्रापदं क्षितिसुतः कुरुते सुतस्थः
** शत्रुप्रणाशमचिरादारंग करोति।**
अर्थक्षयारतिगदाधनमस्तसंस्थो16
** बन्धा(बन्ध्व)र्थनाशभयमृत्युकरश्च मृत्यौ।**
धर्म न साधयति धर्मगतो महीजः
** शस्तोऽम्बरे न शुभदः कथितोऽपरैश्च॥**
लाभार्थसिद्धिविभवागमदः प्रयातु-
** र्वित्तक्षयं बहु करोति गतश्च रिष्फे।**
लग्नेकीर्तिसुखार्थामित्रविजयान् प्राप्नोति वित्तं घने
** सोत्कण्ठं स विरागमेति सहजे कार्यं लभेताखिलम्।**
पाताले शयनान्नपानविभवान् पुत्रागमं पञ्चमे
** षष्ठे यात्यरिवध्यतां शशिसुते क्लेशश्च यातुर्भवेत्॥**
जायास्थे प्रवराङ्गनाम्बरधनप्राप्तिर्बुधेऽर्कात्सुते
** केचिल्लग्नमुशन्ति नैघनगते शंसन्ति केचिच्छुभम्।**
धर्मे धर्मविवृद्धिरम्बरगते सिद्धिर्भवेदीप्सिता
** विद्यार्थाप्तिरयत्नतश्च परतो रिष्फे च वाच्यो व्ययः।**
कीर्तिलग्नेऽर्थस्य सिद्धिर्द्वितीये
** दुश्चित्कस्थे क्षुच्छ्रमार्तिः सुरेड्ये।**
पातलस्थे सर्वदाऽऽसत्तिकामा
** कार्यं सिध्यत्यात्मजस्थेऽप्यसाध्यम्॥**
षष्ठे जीवे शत्रुरायाति वृद्धिं
** केचित्प्राहुर्वश्यतां याति शत्रुः।**
विन्दन्तेऽस्तेऽरिस्वयोषा यशांसि
** मृत्यौ प्राणान् हन्त्यथान्ये जगुर्न॥ **
पुत्रोत्पत्तिर्धर्मवृद्धिश्च धर्मे
** जीवेकर्मण्यर्थसिद्धिर्यशश्च्।**
लाभे जीवे वाञ्च्छितायाति सिद्धिः
** रिष्फे प्राप्ते क्लिश्यतेऽनेकदुःखैः॥**
वश्यार्थाम्बरमाल्यभोजनसुखप्राप्तिर्विलग्नेभृगौ
** लाभोऽर्थे सहजे न सीदति गतः प्राप्नोति चैषां श्रुतिः।**
पाताले सुहृदागमः सुतगृहे स्थानार्थमानागमः
** षष्ठे शत्रुपराभवारतिशुचं स्थानेऽन्यथा तज्जगुः॥**
दत्वा स्त्रीधनमस्तगः स्वविषयव्युच्छित्तिदो भार्गवः
** कार्यं साधयतेऽष्टमे च नवमे क्षिप्रं करोतीप्सितम्।**
यातुः कर्मगतः प्रभूतधनदो लाभे जयार्थप्रदो
** व्यर्थं द्वादशजन्मगोऽत्र कुरुते शस्तोऽपरैर्द्वादशे॥**
बन्धं वधं चार्कसुते विलग्ने
** धनेऽर्थहानिं लभते शुचं च।**
शत्रोर्बलं हन्ति गतस्तृतीयो
** चतुर्थगो बन्धवधं परेभ्यः॥**
नार्थस्य सिद्धिस्सुतगेऽर्कपुत्रे
** रिपुं रिपौ संप्रजयत्ययत्नात्।**
उत्साहभङ्गोऽर्कसुते च कामे
** विषाग्निशस्त्रारिवधोऽष्टमस्थे॥**
धर्मे न धर्मं लभते सुखं च
** यानावृतिं कर्मफलं च स्वस्थे।**
एकादशस्थे जयवित्तलाभो
** मन्देऽन्त्यगे नाशमुपैति याता॥**
इति।मूर्त्यादिगतानां शुभाशुभत्वं गुरुमतेनाह—
** यात्रायां तनुमृत्युशत्रुषु विधुः कृष्णे च खाम्ब्वस्तगः शुक्ले शत्रुमदागमेषु धिपणे रन्ध्रक्षतभ्राषु। पापाऽनात्मनि विक्रमाम्बरभवेष्वभ्रेच राह्वर्कजौ रिष्फस्थानखिलान्ग्रहान् न शुभदान्प्रोवाचवाचस्पतिः॥२६॥**
शुक्लेकृष्णे च चन्द्रं लग्नादष्टमषष्ठेषु स्थितं, क्लष्णे दशमचतुर्थसप्तमगतं, शुक्रं षष्ठसप्तमैकादशेषु स्थितं धिषण गुरुं अष्टमषष्ठतृतीयेषु स्थितं षड्दशैकादशलग्नव्यतिरिक्तेषु लग्नाद्विचतुःपञ्चमसप्तमाष्टमनवमस्थानेषु पापान्रविकुजराहून् तेषु अभ्रे—दशमे च उदयद्विचतुपञ्चसप्ताष्टमनवमदशमस्थानेषु राहुशनैश्चगै द्वादशस्थानखिलात् सर्वानेतांश्च शुक्रगुरुरविकुजशनिराहून्। एवमेतेषु स्थानेषु एतान् ग्रहानशुभान् बृहस्पति प्रोक्तवान्। अर्थादेवान्यस्थानेषु शुभप्रदानाह। तथा च गुरुवाक्यम्—
पापास्सर्वे शुभा यातुररातित्रिदशायगाः
** शनिं विहाय कर्मस्थं शेषेषु न शुभप्रदाः**
राहुकेतुफलं प्रोक्तं मन्दवद्भावराशिषु **
** शुक्रोऽरातिव्ययास्तायभवनेषु न शोभनः॥
शेषेषु महती लक्ष्मी कीर्ति दद्याद्धनान्यपि।
मन्त्री षट्त्रिव्ययाष्टर्क्षस्थितो यातुर्न शोभनः॥
शेषेषु विजयं सौख्यधनकीर्तिप्रदो बली
यातुरायार्थपुत्रर्क्षत्रिधर्मदशमस्थितः॥
शुभदोऽशुभदश्शेषभवने विनिशाकरे।
इति।
बन्धुगो बन्धुदश्चन्द्रः कृष्णे बन्धुविनाशनः।
सप्तमे धनदः स्त्रीणां लाभदोऽर्थविनाशनः।
दशमेऽह्नि क्षये चन्द्रो व्ययदोऽवृद्धिदस्सदा॥
इति। बुधस्सर्वत्र शुभ एव। यतो गुरुणा—
शुक्रमायगतं त्यक्त्वा शुभास्सर्वे शुभप्रदाः।
तथा च विधिरत्ने—
**षष्ठे ग्रहफलं यद्वत् दशमैकादशे तथा। **
यथाष्टमे तथा रिष्फेफलं यात्रासु पठ्यते॥
इति। बादरायणः—
उपचयसंस्थाः पापाः सुतलाभद्वादशं विना शुक्रम्।
उपचयजामित्रगतः शशी गुरुस्सर्वदा सौम्याः
अन्त्यायहिबुकसप्तमलग्नोपगतश्शुभमदः प्रायः।
शशिनं शुक्ले भुक्तं कृष्णे वाप्य……… लकं वाच्यम्॥
इति। अथावश्यकं याने प्राप्ते यथोक्ततिथिवारताराणामसंयोगे तद्दोषशान्त्यर्थं तिथ्यादिषु तस्य द्रव्याण्याह—
** अर्कदलतण्डुलजले घृतं यवागूर्हविस्सुवर्णजलम्।मोदकबीजापूरौजलगोमूत्रे यवं च पायसकम्।गुडरूधिरे मुद्गोदनमिति वस्तूनि क्रमेण पञ्चदश। प्रथमादितिथिषु भुक्त्वा स्पृष्ट्वा वा यातु कार्यसंसिद्धयै ॥२७॥**
अर्कदलमर्कपत्रं, तण्डुलजलं—तण्डुलक्षालनोदकं घृतं गव्यमाज्यं; यवागू—श्राणा; हविर्हविष्यं; सुवर्णजलमन्तर्निहितकाञ्चनपानीयं; जलं—शुद्धोदकं; रुधिरं मृगादीनां, एतान्यर्कपत्रादीनि पञ्चदश वस्तूनि कार्यसिद्ध्यर्थं क्रमेण प्रथमादितिथिषु भोज्यानि।तानि भुक्त्वाअयोग्यानि स्पृष्ट्वावा; वाशब्दादलाभे स्मृत्वा वा प्रयातु। अत्र गुरुः—
अर्कपत्रं भवेद्यातुर्भक्ष्यं सत्तण्डुलोदकम्।
तृतीयायां भवेत्सर्पिः यवागूस्स्यादत परम्॥
पञ्चम्यां तु हविष्यान्नं षष्ठ्यांस्यात्काञ्चनोदकम्।
अपूपभुक्तिस्सप्तम्यां अष्टम्यां बीजपूरकम्॥
नवम्यां तोयपानं स्याद्गोमूत्रं स्यादतः परम्।
एकादश्यां यवाद्यन्नं द्वादश्यां पायसं तथा॥
त्रयोदश्यां गुडो लेह्यः रुधिरं स्याच्चतुर्दशे।
मुद्गोदनं भवेद्भोज्यं पञ्चदश्यां यियासतः।
पक्षयोरुभयोरेवं यात्रायोगविधिस्समः॥
तिथयो नव दूष्यास्स्यःयात्रायां योगगामिनाम्।
नक्षत्रतिथिभोज्यादिभक्षं कृत्वा यियासताम्॥
इति। रल्लेन—
अर्कदलतण्डुलोदकसर्पौषि हविष्यदधिसुवर्णपयः।
तिलवारिबीजपूरं माषाक्षतसूत्रपिष्टकाश्चापि॥
तिलपिष्टकन्दमूलानि निशामथ (सप्त) शस्तवृक्षपत्राणि।
प्रतिपत्प्रभृतिषु भुक्त्वाप्रस्थाता सिद्धिभाग्भवति॥
इति। वारभक्ष्याण्याह—
** क्रमात्सूर्यादिवारेषु घृतं क्षीरं गुडं तथा।** तिलान् दधि यवान् माषान् भुक्त्वा यायान्नराधिपः॥२८॥
अत्र गुरुवाक्यमेव व्याख्यानम् —
सूर्यवारे घृतं प्राश्य सोमवारे पयस्तथा।
गुडं मङ्गलवारे तु बुधवारे तिलानपि ॥
गुरुवारे दधि प्राश्य शुक्रवारे यवानपि।
माषान् भुक्त्वाशनेर्वारे पश्चाद्गच्छेन्न दोषभाक्॥
इति। श्रीपतिना तु द्रव्यान्तराण्युक्तानि —
मार्जिका सघृतपायसं तथा
काञ्जिकं सितपयो दधि क्रमात्।
क्षीरमक्कथितकं तिलोदनं
वारदोहदविधिः बुधैः स्मृतः॥
इति। नक्षत्रभक्ष्याण्याह -
तारास्वश्विन्यादिषु कल्माषं तण्डुलं च दधिपृषतम्। मृगमांसं रुधिरमसृग्बिडालकं पायसं चखगमांसम्॥ सतिलान्नं शाल्योदनमपूषकं यवतिलंच चित्रान्नम्। आमलकं पिष्टान्नं कुलत्थकं बीजपूरकं कन्दम्॥ दधि बीजापूराख्यं सक्तून् शाकं बिडालमांसं च। अजदुग्धं कोलफलं मुद्गान्नं च ब्रुवन्तिभक्ष्याणि॥२९॥
कल्माषमरण्यमाषं। अथवाऽक्षतमाषतिलानामेकीभावः कल्माषउच्यते। अश्विन्यामक्षतमाषतिलान् संमिश्र्य भक्षयेत्। भरण्यांतु शुभतण्डुलं सतिलमक्षतमन्ये। तथा च गुरुः —
अक्षतांश्च तथा माषान् सतिलानश्विदेवते।
तण्डुलान्यमदैवत्ये दधि गव्यं हुताशने॥
पृषतं चैव रोहिण्यां सासिनं (मं)? चापरार्धके।
पिशितं सोमदैवत्ये रुधिरं शाङ्करे तु भे।
बि(वि)लायनं पुनर्वस्वोःपायसं पुष्यभे भवेत्॥
सर्पमांसं घृतं सार्पे मघायां तु तिलोदनम्।
शाल्यन्नं भाग्यभेऽश्नीयात् आर्यम्णेऽषूपभुग्भवेत्॥
यवं तिलांस्तथा हस्ते चित्रायां चित्रमोदनम्।
अण्युजामलकं(?) स्वात्यां क्षीरं चापरविंशके॥
पिष्टोदनं विशाखासु फलं यावकमेव च।
मैत्रे कुलत्थपिष्ठे द्वे मूलके मधुसर्पिषी॥
ऐन्द्रर्क्षे बीजपूरं स्यान्मूलकेन्द्रं च सक्तुकम्।
दध्ना च शालिनीस्रावमाप्ये स्याद्बीजपूरकम्॥
ततोऽभिजित्सु शुण्ठी स्याच्छ्रवणे सक्तुशालिनी।
दध्नायुतं श्रविष्ठायां शालिनी स्रावशाकभुक्॥
वारुणे मधुना युक्तं बैडालं मांसमेव च।
शर्करामजपाद्दैवे पयश्चाजं पिबेन्नरः॥
आहिर्बुध्न्येष्टमांसं स्याद्वाराहं मांसमेव च।
रेवत्यां शाकसंयुक्तं मुग्दान्नंसक्तुकं भवेत्।
माषसम्पृक्तपिण्डं च भुक्त्वा यायान्नराधिपः॥
इति।
नक्षत्रभक्ष्यं प्रथमं तु भुक्त्वा
** ततस्थितौ यच्च ततश्च वारे।**
तस्मिन् पुनःकृत्य यथेह यायात्
** यात्राफलं वाञ्छति यो मनुष्यः॥**
इति। दिग्वशाद्यात्रायां कालं भक्ष्यं चाह—
** यात्रा तद्दिन एव कार्यवशतः योऽवश्यकार्यागतौ तस्यां पायसभुग्विवस्वदुदये यायादुदीचीं दिशम्। मध्याह्ने घृतभोजनो नरपतिः प्राचीमवाचीं रवेरर्धास्ते तिलभोजनोऽथ झषभुङ्मध्ये प्रतीचीं दिशम॥**
स्पष्टोऽर्थः -
फलसिद्धिर्योगवशाद्राज्ञां विप्रस्य धिष्ण्यत।
मुहूर्तशक्तितोऽन्येषां शकुनैस्तस्करस्य च॥
इति।
आरोग्यमृक्षेण धनं क्षणेन कार्यस्य सिद्धिस्तिथिना शुभेन।
राश्युद्गमेनाध्वनि शुद्धिमाहुः प्रायश्शुभानि क्षणदाकरेण॥
इति।
लग्नस्य शुद्धिर्दशमे निमित्तैर्विज्ञायते सुकरणैश्च सम्यक्।
अनन्यभावाश्रयसम्प्रवृत्ते कौलीनपुंसश्च तिलैर्विदेशे॥
इति।
यथा हि योगादमृतायते विषं
विषायते मध्वपि सर्पिषा समम्।
तथा विहाय स्वफलानि खेचराः
फलं प्रयच्छन्ति हि योगसंभवम्॥
तिथौ क्षणे भे करणे च वारे
योगे विलग्ने हिमगौ नृपाणाम्।
पापोऽपि यात्राफलदोऽत्र योगैः
यतस्ततस्तत्क्रियतोऽभिवक्ष्ये॥
इति।
नक्षत्रमेकं युगपत्प्रविष्टौ
यदा धरित्रीतनयामरेड्यौ।
कुर्यात्सयात्रां द्विषतां बलस्य
रोगी यथान्तं निशि सौप्तिकेन॥
ऋक्षे गुरुज्ञौगुरुभार्गवौ वा
ज्ञभार्गवौ वा युगपत्समेतौ।
अर्थानवाप्नोति तदा विचित्रान्
शास्त्रात्सुतीर्थाद्गुरुसेवयेव॥
इति। अतः परं गुरुणोक्तान् योगान् कथयामीति तानाह सप्तश्लोक्या -
चन्द्रेऽनष्टमगे क्षते दिनकरे लग्ने बलिष्ठो गुरुःकेन्द्रस्थे सुरराजमन्त्रिणि तनोरापोक्लिमस्थे विधौ।मूर्तिस्थे मृगलाञ्छने सुरगुरौ शुक्रेऽपि वा कण्टके चन्द्रेऽस्ते तनुगे गुरौ च सहजे पापे व्यये ज्ञेगुरौ॥३१॥
** मूर्तिभ्रातृमदायखेषु धिषणः पापौ शशीनश्शुभौ जीवार्केन्दुसितेषु मूर्त्यरिनभस्तोयेषु पुत्रेबुधे। वागीशे वपुषि स्थिते भवधनप्राप्तेषु शेषेषु च ज्ञे लग्नारिखतोयगे बलयुते पापोज्झितेऽन्त्ये(न्ये) स्मरे॥३२॥**
** ज्ञे लग्नाम्बुरिपुस्मरेषु सितसौम्याकरजीवाः क्र-**
मात्लाभाज्ञारिपुरिष्फमन्मथतनुत्रिस्थेषु सूर्यादिषु। षट्ख(ष्ठ)भ्रातृमदात्मबन्धुभवगास्सर्वे गुरोर्वासरे पुत्रारित्रिमदाष्टमेषु गुरुभान्वारज्ञशुक्रेषु च॥
** होराम्बुत्रिषु जीवशुक्रदिनपेष्वायेऽर्कजीवाःकुजे व्यर्काःपञ्च निरन्तरं यदि गताः क्षेत्राणिपञ्च ग्रहाः। यद्येकान्तरगा ग्रहाश्च निखिलाः क्षेत्रेषु षट्सु स्थिताः चन्द्रे भार्गवजीवमध्यवसतौलग्ने सुखे वा स्थिते॥३४॥**
** बन्धुस्थौ ज्ञसितौ स्मरे हिमकरे लग्ने चजीवेक्षिते लग्ने सद्दृशि केन्द्रगौ गुरुकुजौ यद्येकतारांशगौ। यात्रादिक्पतिसंश्रिताच्च भवनात्पुत्रेबलाढ्यग्रहे जीवज्ञार्कसितेषु कश्चन कुजान्मन्दात्त्रिकोणस्थितः॥३५॥**
** कल्यस्थो धिषणः परेऽपि च यथालाभस्वगेहस्थिताः पापा विक्रमगाश्शुभास्तनुगताश्चन्द्र-स्स्थितोऽनष्टमे। चन्द्रेऽनष्टमगे तनौ सुरगुरौक्रूरे भवे व्योम्निवा लग्नैकादशवित्तगा यदिशुभाःपापा त्रिगौ खे रविः॥३६॥**
** स्वोच्चस्थो यदि कश्चनोदयगतश्चन्द्रे स्थितेकर्कटे सत्कर्मा हिबुकस्थितो यदि सिते पक्षे शुभश्चन्द्रमाः। व्योम्नीन्दुर्गुरुरात्मगो भवगतोःपापा विशुद्धे सुते क्रूरेषु त्रिषडायगेषु धिषणे मूर्तौविशुक्रे स्मरे॥३७॥**
यात्रालग्नय. . . .स एको योगः। तथाच गुरुवाक्यम्—
लग्नेगुरौ बलैर्दीप्तेविना मृत्युं निशाकरे।
षष्ठे दिवाकरे याते यात्रायोगः शुभावहः॥
इति।
त्रिषडायगते पापे सप्तमे शुक्रवर्जिते।
गुरूदये भवेद्यात्रा यातुरिष्टं प्रयच्छति॥
श्लोकस्य पद्यस्य एकैकपादोदितान् योगानिमान् जीवोक्तानष्टाविंशतिसङ्ख्यान् योगान् सुनफानफाधुरधुराख्यान् योगाधियोगानेतांश्च यात्राविविषये सिद्धिकरानभिलषितकार्यसिद्धिकरान् विदुः। सुनफानफाधुरुधुराधियोगानां स्वरूपं प्रागुपनयने अभिहितम् —
चन्द्रस्य द्वादशे कश्चिद्रविवर्जंन शोभनम्।
द्वितीये चोदयस्थौ वा एते योगास्त्रयः शुभाः॥
वर्गोत्तमगते लग्ने स्वाधिमित्रभगे गुरौ।
हन्ति शत्रुं गतो राजा कर्म ज्ञानोदयं यथा॥
गुरौ विलग्नेयदि वा शशाङ्के
षष्ठे रवौ कर्मगतेऽर्कपुत्रे।
सितज्ञयोर्बन्धुसुतस्थयोश्च
यात्रा जनित्री विहिता नि धत्ते॥
होरारिधीलाभसहोत्थगेषु
जीवार्किसौम्यार्ककुजेषु यातुः।
वरस्त्रियोकीर्तिजयाभिधोऽसौ
श्रेष्ठो वसिष्ठो न कृतार्थसिद्ध्यै॥
एकान्तरर्क्षे भृगुजात्कुजाद्वा
सौम्ये स्थिते सूर्यसुताद्गुरोर्वा।
प्रध्वस्यतेऽरीनचिराद्गतस्य(?)
सितेन्दुजो . . . निशाकरस्तु सप्तमे॥
यदा गतो नृपस्तदा जयत्यरीन् विना रणात्।
कुजयुक्तनवांशर्क्षाद्दशद्वादशगे रवौ॥
क्रमाद्राशौ नवांशे वा यात्रायां शुभदोगुरुः।
आदत्ते धरणीपतेरभिहितं पुष्पं विशेषत्फलं -
यात्रोक्तो निखिलो जनस्य समयः सर्वत्र साधारणः।
वराहमिहिरः—
वक्ष्यामि भूषमधिकृत्य गुणोपपन्नम्।
. . . . . . . ॥
अपि च—
यात्राकालमतः परं मुनिमतादालोक्य . . . (?)
तथाच गुरुः—
भौमसूर्योद्भवो योगो गच्छतां शुभदो भवेत्।
यात्रा राज्ञां तथाऽन्येषां नृपकृत्यकृतां तथा॥
इति। वराहमिहिरः—
रजका वर्धकाश्चैव यस्य जन्मनि याचकाः।
तान् पापान् पथि निश्शङ्कं यात्रालग्नेषु योजयेत्॥
योगाधियोगानाह—
एकोऽपि जीवो बलवान् विलग्ने केन्द्रात्रिकोणेशशिजः कविर्वा। द्वाभ्यां च ताभ्यामधियोगस्संज्ञो योगाधियोगंस्सहितैस्त्रिभिः स्यात्॥३८॥
. . . . . त्रिकोणगः।
योगोऽयं ब्रह्मणा प्रोक्तो यात्रायामतिशोभनः॥
अधियोगस्तथा ताभ्यां त्रिभिर्योगोऽधियोगकः।
एभिः फलं पृथग्वक्ष्ये यथोवाच चतुर्मुखः॥
योगेन(?) ता नरा यात्रां गत्वा क्षेमेण ते पुनः।
कृयकार्या निवृत्याशु क्षेमेणायान्ति चालयम्॥
अधियोगगता एते क्षेमेणायान्ति संयुगे।
जित्वा रिपून् धनं लब्ध्वा यशसा च जयश्रिया॥
योगाधियोगे ये यातास्ते चायान्ति धनैर्युताः।
जित्वा रिपून् जयं धात्री लब्ध्वा क्षेमेण योषिता॥
एतदुक्तं भवति—
यथोक्तकालेन प्रयाणं दुरवापम्। अन्ये त्वाहुः - यातॄणां स्वचिकीर्षितकृत्यानुगुणेषु योगादिषु यात्रा कार्या। यथा धर्मप्रवृत्तानांयथाविधयोगेषु यात्रा कार्येति। यथा परधनापहरणाय गच्छतां नाभसयोगेषु कुटादिषु; परविघातार्थं गच्छतां केमद्रुमादिषु; धर्मार्थं गच्छतांगदादिषु कृप्यर्थं गच्छतां केदारादिषु;एवमादि यथायोग्यं यात्रा देयेति।सर्वेषां विनापि लग्नादिसामान्यविशुद्धि(?) राजयोगेषु लग्ने शुद्धेऽल्पदोषत्वात्माण्डलिकादिषु तथामात्यसेनापतिधनिकयोगादिषु यथायोग्यं प्रयाणंदातव्यमिति। तथाचोक्तं शुभाशुभ फलयोगजातके—
उदाहृतान् यथायोग्यं प्रयाणेष्वपि योजयेत्। इति।
इतीह रुचिरैःश्लोकैश्चतुष्पञ्चाशता कृतः। द्वादशोऽयं समाप्तोऽभूद्यात्राध्यायः सविस्तरः॥३९॥
इति विद्यामाधवीये द्वादशोयात्राध्यायः
इति — एवमादियात्रामुहूर्तयोगादिसम्पन्ने इह विद्यामाधवशास्त्रेरुचिरैर्मनोहरैः श्लोकैः पद्यसन्दर्भैःचतुःपञ्चाशता चतुःपञ्चाशद्भिःपद्यैःकृतो विरचितो अयं द्वादशो यात्राध्यायः सविस्तरो —विस्तरेण सहितः समाप्तोऽभूत् सम्पूर्णोऽभूदित्यर्थः॥
इति मुहूर्तदीपिकायां विद्यामाधवीय व्याख्यायां
द्वादशो यात्राध्यायः
त्रयोदशः प्रकीर्णकाध्यायः
अथ प्रागनभिहितकार्याणि पुंसामवश्यकार्याणि बहूनि कर्माणिसन्तीति तेषां सर्वेषां कालमेकत्राध्याये विवक्षुरादौ तत्र नववस्त्रपरिधानस्याह —
अत्याज्यनामनि सशूर्पघटे विचापे कुर्यात्गणे निवसनं नवमम्बराणाम्। तत्रापि मूषिकभयंकथयन्ति सौम्ये प्राचेतसे विषभयं श्रवणेऽक्षिरोगः॥१॥
अत्याज्याख्यगणे सविशाखानक्षत्रे सकुम्भराशौ विचापे धनूराशिवर्जिते अम्बराणां वस्त्राणां नवमाद्यं निवसनं कुर्यात्। अत्र वराहमिहिरः —
पुष्यप्रजेशवसुहस्तविशाखचित्रा-
मैत्रोत्तराणि पवनादितिवाजिपौष्णाः।
एते चतुर्दश नवाम्बरधारणेष्टाः
मृत्युप्रदे शिवमघे व्यसनानि शेषाः॥
इति। तत्र तास्वत्याज्यतारास्वपि सौम्ये - मृगशिरसि मूषिकभयं वस्त्रस्यमूषिकाच्छेदभयं प्राचेतसे - शतभिषजिवस्त्रस्वामिनो विषभयं श्रवणे नेत्ररोगं कथयन्ति। मुनय इति शेषः। तथाच वराहमिहिरः —
प्रभूतवस्त्रदाश्विनी भरण्यथापहारिणी
प्रदह्यतेऽग्निदैवते प्रजेश्वरेऽर्थसिद्धयः।
मृगे तु मूषिकाद्भयं व्यसुत्वमेति शाङ्करे
पुनर्वसौ शुभागमस्तदग्रभे धनैर्युतिः॥
भुजङ्गमे विलुप्यते मघासु मृत्युमादिशेत्
भगाह्वये नृपाद्भयं धनागमाय चोत्तरा।
करे तु कर्मसिद्धयः शुभागमस्सुचित्रया
शुभं च भोज्यमानिले द्विदैवते जनप्रियः॥
सुहृद्युतिस्तु मित्रभे पुरन्दरेऽम्बरक्षयः।
जलप्लुतिस्तु नैर्ऋते रुजो जलाधिदेवते॥
मृष्टमन्नमपि वैश्वदैवते
वैष्णवे भवति नेत्ररोगिता।
धान्यलब्धिमपि वासवे विदुः
वारुणे विषकृतं महद्भयं॥
भद्रपदासु भयं सलिलोत्थं
तत्परतस्तु भवेत् सुतलब्धिः।
रत्नयुतिं कथयन्ति च पोष्णे
यो हि नवाम्बरमिच्छति वस्तुम्॥
इति। प्रतिराशि फलं गुरुणोक्तम् —
राज्ञो भयं क्रिये विद्यात् धान्यलाभं वृषोदये।
धनलाभं यमे राशौ सुखं कक्यां लभेन्नरः॥
सिंहे विनाशतां याति कन्यायां तु धनं लभेत्।
जूके बुहुशुभं ब्रूयात् वृश्चिके व्यसनं महत्॥
रोगं धनुषि वासोहृत् गौणभावं मृगे लभेत्।
घटेऽतिपूज्यतां याति धनं मीने लभेन्नरः॥
वस्त्रसन्धारणादेवं लग्नराशौ फलं लभेत्।
नववस्त्रप्रयोगेषु भुक्तपूर्वे तु नैव तत्॥
इति। मृगकुम्भधनुर्मीना मध्यमा इत्यन्ये। प्रतिवारफलं श्रपितिनोक्तम् —
शीर्णं रवौ सततमम्बुभिरार्द्रामिन्दौ
भौमे(तु चेत् ) शुचे बुधदिने च भवेद्धनाय।
ज्ञानाय मन्त्रिणि भृगौ प्रियसंगम च
मन्दे मलाय च नवाम्बरधारणं स्यात्॥
इति। कृष्णाष्टम्याः परतस्तिथयो न शस्ताः। तथा च गुरुः —
प्रशस्तं पूर्वपक्षे तु कृष्णे नैव प्रशस्यते।
द्वितीया च तृतीया च पञ्चमी सप्तमी तथा॥
दशम्येकाशी चैव त्रयोदश्यपि शोभनाः।
कृष्णपक्षेऽपि तद्वत् स्यात् अष्टम्यन्तं कदाचन॥
इति। ग्रहस्थितिश्च गुरुणोक्ता —
पापाःस्युः त्रिषडायस्थाःशुभाः केन्द्रत्रिकोणगाः।
शुभदाःस्युःग्रहास्सर्वे नववस्त्रभुजां नृणाम्॥
इति।
अष्टमस्थाःग्रहास्सर्वे नेष्टा वस्त्रस्य धारणे।
योगश्च तेनैवोक्तः —
शुभवारे शुभारताराः शोभनैः स्थितिभिर्युताः।
शुभांशे शुभलग्ने च शुभग्रहनिरीक्षणे॥
शुभग्रहोदये चैव नवेनाच्छादनं शुभम्।
इति।
शुभग्रहोदये चन्द्रशुक्रौ पातालसंस्थितौ।
नैतौ(?) . . . . . . ॥
द्वादशाष्टमाभ्यामन्यत्र चन्द्रश्शुभः। तथा च स एव—
चन्द्रः शुभप्रदो ज्ञेयो द्वादशाष्टमभे विना।
शुभांशगे शुभः प्रोक्तः पापांशे न शुभप्रदः॥
इति। रक्तादिवस्त्रधारणे श्रीपतिना विशेष उक्तः —
करादिपञ्चकेऽश्विभे सपौष्णवासवे स्मृता।
धृतिश्च शाङ्खकाञ्चनप्रवालरक्तवाससाम्॥
इति। क्वचित् त्याज्यगणे वस्त्रधारणमिष्टमित्याह—
विवाहादिषु कार्येषु राजाज्ञायां च वाससाम्।
परिधानं नवीनानां गणे त्याज्येऽप्यदूषितम्॥२॥
आदिशब्देन व्रतोपनयनसमावर्तनादिकर्माणि गृह्यन्ते। विवाहादिकार्येषु राज्ञः - स्वामिनः सन्तोषदानपूर्विकायामाज्ञायां चशब्दात्ब्राह्मणसंमतौ च नवाम्बरधारणं त्याज्यर्क्षादिगणेऽपि अदूषितं - प्रशस्तम्॥
तथाचोक्तम्—
वस्त्रं नवाम्बरं शस्तमृक्षेऽपि गुणवर्जिते।
विवाहे राजसन्माने ब्राह्मणानां च संमतौ॥
गुरुश्च—
द्वितीयजन्मकाले च समावर्ते व्रते तथा।
विवाहे च शुभः कालः प्राप्तस्तेषां प्रचोदितः॥
इति।
शुभग्रहोदये चन्द्रशुक्रौ पातालसंस्थितौ।
युगपद्वा पृथग्वापि शुभं वस्त्रस्य धारणम्॥
इति। प्रथमाच्छादनात्परं अग्निमूषिककीटादिहते वस्त्रे तत्स्वामिनःशुभाशुभमुक्तं गुर्वादिभिरभिधीयते।
तत्र गुरुः —
षण्मासाभ्यन्तरे वस्त्रे प्रथमाच्छादनात् परम्।
मूषिकाग्निहते दुष्टे शिबिरीयष्टिभिः क्षते॥
मषीगोमयलिप्ते वा कर्दमादिभिराहते।
कायानुलेपनाद्यैर्वा ताम्बूलरससंयुते॥
एषामाकारभेदैश्च बहुच्छेदनमानतः।
शुभाशुभफलं वक्ष्ये नववस्त्रवतां नृणाम्॥
आच्छादिते नरैर्वस्त्रे तथाऽनाच्छादिते फलम्।
महल्लघु भवेतां ते क्रमादस्फुटितेऽपि च॥
तद्वासस्त्रिगुणीकृत्य प्रारम्भे (प्रारम्भं) तू चोर्ध्वपश्चिमे।
अर्धावसानं प्राच्यां तु भूमौ सन्यस्य वा पुनः॥
मेषादिराशिचक्रेऽस्मिन् वस्त्रे वस्त्रवतो गृहा(त्)न्।
द्वादशाष्टमषष्ठेषु यदि पापग्रहेण तत्॥
दृष्टं वा छिन्नमेतस्य नाशमारभयप्रदम्।
अन्यत्र सद्ग्रहैः सार्धं छिन्नं शोभनदं भवेत्॥
वस्त्रवज्जन्मराशेस्तु भावैर्भावं फलरैपि।
शुभाशुभग्रहैस्सार्धं छिन्ने तद्वत् फलं वदेत्॥
इति। अन्ये तु तत्रैव मेषादिराशिवशेन फलमाहुः —
कीटाग्न्याखुहतात्मनां त्रिगुणितप्रागुद्दशानामजे
नाशं श्रीस्तु वृषे युगेऽथ मरणं वह्नौ मृतिः कर्किणि।
स्याद्भर्तुमरणं हरौ धनसमावाप्तिः कुलोत्कृन्तनं
कन्यायां निर्ऋतौ सुतोद्भवमथो भार्यामृतिः सप्तमे॥
वस्वाप्तिस्त्वथ वृश्चिके कलगिरां भूषा च चापेऽनिले
स्त्रीनिष्क्रान्तिरथो मृतिश्च भगिनीसूनोः मृगास्ये ततः।
कुम्भे त्वात्मजदारहारसुदृशामैक्यंतयोरन्तरे
दाहं शूलिनि गेहदाहमतुलं मीने फलं वाससाम्॥
इति। अत्रिस्त्वाह—
पुत्रं क्लेशं बन्धुनाशं गोमृतिं चाग्निना भयम्।
पुत्रीं श्रियं महारोगं धनं स्त्रीमरणं तथा॥
निधिं च निधनं मृत्युं पुत्रनाशं च सम्पदम्।
पुण्यं श्रियं महारोगं महाव्याधिं च सम्पदम्॥
यात्रां नाशं पुत्रनाशं रोग पौष्णमैश्वरे।
प्राप्नोति मूषिके वह्नौसदसत्फलमब्दतः॥
त्रिगुणं प्राग्दशं न्यस्य पञ्चविंशतिधा कुते।
प्रत्यगादिफलं ब्रूयात् निर्ऋत्यां दिशि वान्तकम्॥
इति। एतदुक्तं भवति - अग्न्यादिहतं वस्त्र त्रिगुणीकृतं प्राग्वत् विन्यस्यतत्र पञ्चविंशतिपदानि कल्पयित्वा नैर्ऋत्यादीशान्तं प्रत्यगादिफलंब्रूयादिति। अन्ये त्वाहुः — वह्न्यादिहतं वस्त्रं नवपदं विभज्य तत्रकोणगतपदचतुष्टयं दैवं शुभम्।आद्यन्तभागयोस्तन्मध्यगतं पदद्वयंमानुषं च सत्। शिष्टं तन्मध्यगतं पदत्रयं राक्षसमशुभं इति। तथाचवराहमिहिरः —
वस्त्रस्य कोणेषु वसन्ति देवाः
नरास्तु पाशान्तदशान्तमध्ये।
शेषास्त्रयस्तत्र निशाचरांशाः
तथैव शय्यासनपादुकासु॥
लिप्ते मषीगोमयकर्दमाद्यैः
छिन्ने प्रदग्धे स्फुटिते च विद्यात्।
पुष्टं नवेऽल्पाल्पतरं च भक्ते
पापं शुभं वाऽधिकमुत्तरीये॥
रुग्राक्षसांशेष्वथ भस्य मृत्युः
पुंजन्म तेजश्च मनुष्यभागे।
भागे सुराणामथ भोगवृद्धिः
प्रान्तेषु सर्वत्र वदन्त्यानेष्टम्॥
इति। वस्त्रस्य नवपदविभागक्रमो गर्गेणोक्तः —
वस्त्रमुत्तरलोमं तु प्राग्दशं नवधा भजेत्।
त्रिधा दशान्तपाशान्ते त्रिधा मध्यं पृथक् पृथक्॥
इति।शुभाशुभस्थानगतानां छेदानामाकारवशात् सदसत्फलसूचकत्वमुक्तम्। वराहमिहिरेण —
कङ्कप्लवोलूककपोतकाक-
क्रव्यादगोमायुखरोष्ट्रसार्पैः।
छेदाकृतिर्दैवतभागगापि
पुंसां भयं मृत्यु(भयं) समं करोति॥
छत्रध्वजस्वस्तिक वर्धमान-
श्रीवृक्षकुम्भाम्बुजतोरणाद्यैः।
छेदाकृतिः नैर्ऋतभागगापि
पुंसां विधत्ते न चिरेण लक्ष्मीम्॥
इति। बहुच्छेदेषु शुभाशुभं ग्रहयोगेक्षणाभ्यामूह्यम्। तथाचाऽऽहुः —
शुभभागेषु दृष्टेषु छिन्नेषूह्यं शुभाशुभम्। ग्रहयोगादिभिः।
इति। तत्फलं च सामान्यवस्त्रे षण्मासादित्युक्तं वस्त्रविशेषकालो गुरुणोक्तः —
क्षौमादिषु महार्घेषु त्रिषडब्दादधः फलम्।
कम्बलादिषु सर्वेषु त्रिभिर्वर्षैरथो फलम्॥
इति। तच्छान्तिः गर्गेणोक्ता —
प्रशस्ते वाऽप्रशस्ते वा प्रशस्तं स्वस्तिवाचनम्।
इति आद्यो योगः; चन्द्रे केन्द्रस्थे अन्यो योगः। तथा च गुरुः —
लग्ने स्वांशगते जीवे भृग्विन्दुज्ञाश्च कण्टके।
हेमाभरणभूषी चेदेको नैकगुणान् लभेत्॥
इति। अयमपि तत्रान्तर्गत इत्याचार्येण न पृथगुक्तः। अत्र वाशब्देन अन्ये च योगाः ईदृशाः सन्तीति सूचित्तम्। तथाच गुरुः-
अत्युच्चस्थे रवौ लग्ने हेमकृत्याङ्गुलीयकम्।
अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तु धारयन्न दरिद्रता॥
आत्मांशके विलग्नस्थे नीचारातिगृहं विना।
स्वर्णाभरणभूषी चेत् जीवे कोटिगुणं भवेत्॥
कीटान्त्यांशे कुजे लग्ने शुभकृत् स्वर्णभूषणम्।
हेम्ना सुभूषणं कुर्यात् धारणं च शुभावहम्।
भूषणधारणे नक्षत्रादीन्युक्तानि ज्योतिषार्णवे —
धनिष्ठारोहिणीपौष्यमैत्रार्कवरुणानिलाः।
आदित्यमघपौष्णाश्वित्वाष्ट्रं चान्द्रं च शाङ्करम्॥
उत्तरत्रितयं स्वर्णभूषणादिषु सौख्यकृत्।
भूषणेषु ग्रहाः सर्वे रन्ध्रस्थाने विनाशदाः॥
स्वोच्चभागोदये चन्द्रे जीवे चास्तगृहे स्थिते।
वित्तमाभरणं चैकमेकं कौटिगुणं भवेत्॥
एकांशकगतौ स्यातां यदा सौम्यनिशाकरौ।
पादयोर्हस्तयोश्चैव धारयेदङ्गुलीयकम्॥
एकांशकगतौ स्यातां आश्लेषाद्यंशगे गुरौ।
धारयेत् हारकेयूरकुण्डलान्युदये तयोः॥
अत्युच्चसंस्थिते चन्द्रे गुरौ वात्युच्चसंस्थिते।
तयोरभ्युदये कुर्यात् शिरोभूषणमुत्तमम्॥
मूलत्रिकोणगे जीवे तथा वै? दानवर्जिते।
वैडूर्यमणिरत्नानि भूषणान्यपि धारयेत्॥
उच्चमित्रस्ववर्गेषु शुभकेन्द्रत्रिकोणगे।
वस्त्रवाहनशस्त्रादि भूषणादिविवृद्धये॥
विधिरत्ने —
चन्द्रे कुलीरे यदि लग्नसंस्थे
सदृष्टियुक्ते सति तत्र कुर्यात्।
सद्वस्त्रहेमाभरणानुलेपान्
क्षौमं च शय्यासनकादि कार्यम्॥
इति। सिंहासनादिस्वीकारेऽपि वस्त्रवत् काल इत्याह। यथोक्तम् —
शय्यासिंहासनादीनां प्रात्रभूषणसंग्रहे।
पादुकाकम्बलादीनां आसनायुधवर्मणाम्॥
छत्रचामरपिण्डानां वस्त्रधारणकालवत्।
इति। दन्तधावनकालमाह —
त्यजेत्तिथीन्द्वङ्कवसुक्षमातिथीरसौम्यवारानपिदन्तधावने। विधीयतेऽन्यैर्नियमात्तदन्वहं परैः परंशुक्रशशाङ्कवारयोः॥४॥
दन्तधावनकर्मणि पञ्चदशीचतुर्दशीद्वादश्यष्टमीप्रतिपत्तिथीःक्रूरताराश्च त्यजेत्। अपिशब्दात् जन्मर्क्षसङ्क्रमादिकालांश्च त्यजेत् तथा च स्मृतिः —
ऋते जन्मर्क्षदिवसे प्रतिपन्नवमीषु च।
श्राद्धकर्ता चान्यदने सङ्क्रान्तिग्रहणेषु च॥
आरार्कवारे सप्तम्यां चतुर्दश्यष्टमीषु च।
द्वादश्यां पौर्णमास्यां च षष्ठ्यां दर्शे विशेषतः।
तैलाभ्यङ्गं रतिं मांसं दन्तकाष्ठं च वर्जयेत्॥
पापदिनानि प्राक्तनैरनुक्तानीति त्याज्यान्युक्तानि। तद्दन्तधावनमन्यैर्मन्वादिभिःमुनिभिः —
“संशोध्य दन्तानाचम्य विधिवत् स्नानमाचरेत्”
इति नित्यतया विधानात् कर्तव्यनियमादनुदिनं विधीयते। तत् दुष्टदिनेऽपि न परिहीयते। तथा च गुरुः —
नित्यत्वात् दन्तसंशुद्धेः न कालनियमो नृणाम्।
परिकल्पो दिवैव स्यात् पूर्वाह्णेचोदितावुभौ॥
इति। अन्ये प्रतिवारं दन्तधावनफलमाहुः —
अकीर्ति राजसन्मानं कलहं शान्तिनिर्वृती।
सौभाग्यं शुक् च दन्तानां धावने भास्करादिषु॥
इति। कृतदन्तधावनेन तैलाभ्यङ्गस्येष्टत्वात् तं कालमाह—
सङ्क्रान्त्यादिर्निखिलः पुण्यकालः शुक्राचार्यक्षितिपुत्रार्कवाराः।पर्वोपेता मनुवस्वङ्गसङ्ख्यास्तै-लाभ्यङ्गे तिथयश्चानभीष्टाः॥५॥
सूर्यस्य प्रतिराशि संक्रमणं संक्रान्तिः। आदिशब्देन व्यतीपातवैधृतदिनक्षयादि गृह्यते। पुण्य—दानदेवतोपासनादि; तद्योग्यः कालःपुण्यकालः। स च स्मृत्यादिप्रसिद्धः। सर्वोऽपि तैलाभ्यङ्गे नेष्टः। शुक्रगुरुकुजादित्यवाराः पर्वभ्यां सहिता मन्वादिसङ्ख्याश्चतुर्दश्यष्टमीषष्ठ्यस्तिथयश्च नेष्टाः। अत्र श्रीपतिः —
नार्कारवारे रविसंक्रमे च
न वैधृतौ न व्यतिपातयोगे।
न पक्षमध्ये न च विष्टिषष्ठ्यो-
रभ्यङ्ग इष्टो न च पर्वसूक्तः॥
इति। तैलाभ्यङ्गे प्रतिवारफलं च तेनैवौक्तम् —
रविस्तापं कान्तिं वितरति शशी भूमितनयो
मृतिं चान्द्रिर्लर्क्ष्मीसुरपतिगुरुर्वित्तहरणम्।
विपत्तिं दैत्यानां गुरुरखिलभोगनुभवनं
नृणां तैलाभ्यङ्गे सपदि कुरुते सूर्यतनयः॥
इति। तिथयश्चानभीष्टा इत्यत्र चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थ। तेन मृताहजन्मर्क्षदिवसाद्या निषिद्धा अत्रापि वर्ज्या इत्युक्तं। तथाच स्मृत्यर्थसारे —
अर्कवारव्यतीपातजन्मदिनसंक्रान्तिनन्दासु विशेषतः अषष्ठीप्रतिपदो भूताष्टमीनव्रपर्वसु विशेषतो नवम्यां दर्शे च दन्तकाष्ठं स्त्रियं मांसंच वर्जयेत् इति। द्वादशीसप्तम्यौ वर्ज्ये इति केचित्। तथाच गर्गः —
द्वादश्यां सप्तमीषष्ठ्योस्तैलस्पर्शं विवर्जयेत्।
इति। पञ्चम्यादयो नेष्टा इत्यन्ये। तथाच स्मृतिः —
पञ्चमींदशमींचैव पौर्णमासींत्रयोदशीम्।
एकादशीं तृतीयां च यस्तैलमुपसेवते॥
अभ्यङ्गात् स्पर्शनाद्वापि भक्षणाच्च तथैव च।
उच्छिन्ना तस्य वृद्धिः स्यात् धनापत्यबलायुषाम्॥
इति। केचित् चित्रादिनक्षत्राणय्पि वर्ज्यान्याहः —
चित्रासु हस्ते श्रवणे च तैलम्
क्षौरं विशाखासु भिषक्षु वर्ज्यम्॥
इति। दुष्टदिनेष्वपि द्रव्यान्तरयुतस्य तैलस्य न दोषः। तथा चस्मृतिः —
सार्षपं गन्धतैलं च यत्तैलं पुष्पवासितम्।
द्रव्यान्तरयुतं तैलं न दुष्यति कदाचन॥
घृतं च सार्षपं तैलं यत्तैलं पुष्पवासितम्।
न दोषः पक्वतैलेषु स्नानाभ्यङ्गेषु नित्यशः॥
इति। नित्यस्नानादौ च न दोषः। यथाऽऽह गर्गः —
पुत्रजन्मनि सङ्क्रान्तौ श्राद्धे जन्मदिने तथा।
नित्यस्नाने च कर्तव्ये तिथिदोषो न विद्यते॥
यादृच्छिकं तु यत् स्नानं भोगार्थं क्रियते नरैः।
तन्निषिद्धं दशम्यादौ नित्यनैमित्तिकं न तु ॥
इति। यद्यपि द्रव्यान्तरयुतं तैलं सर्वासु तिथिषु न दुष्यतीत्युक्त; तथाऽप्यामलकयुतं तिथिष्वपि वर्ज्यम्। तथा च स्मृतिः —
षष्ठी च सप्तमी चैव नवमी च त्रयोदशी।
संक्रान्तौ रविवारे च स्नानमामलकैस्त्यजेत्॥
श्रीपतिः —
स्नातुर्जनस्य दशमी तनयं त्रयोद-
श्यर्थं निहन्त्युभयमेतदपि द्वितीया।
सप्तम्यनिन्दुनवमीषु च सम्पदिच्छुः
स्नायात् कदाचिदपि नामलकैर्मनुष्यः॥
इति। द्रव्यसंग्रहकालमाह—
जीवोदये नभसि भास्वति कामबन्ध्वोः चन्द्रेनवद्रविणसङ्ग्रहणं विदध्यात्। स्वांशे गुरौ वपुषि वाऽथ खलाभलग्नवित्तेषु चार्कभृगुजेन्दुसुरार्चितेषु॥
लग्ने गुरौ दशमे सूर्ये सप्तमे चतुर्थे वा चन्द्रे पुष्ट्यर्थमिष्टस्यद्रव्यस्य स्वर्णादेः प्रथमसंग्रहणं कुर्यात्। तत्र राशौ स्वांशगे गुरौ लग्नेस्थितेऽन्यो योगः। अर्के लाभे भृगौ लग्ने चन्द्रे द्वितीये गुरौ स्थिते
अन्यो योगः। दशमेऽर्के लाभे भृगौ लग्ने चन्द्रे द्वितीये गुरौ स्थितेअन्यः। एते त्रयो योगाः द्रव्यसंग्रहकार्ये सिद्धिदाः। अत्र गुरुः—
. . . जीवे लग्नस्थे स्मरे वा तोयगे विधौ।
खस्थेऽर्केऽर्थान् सुगृह्णीयात् प्रारब्धं चात्र सिद्ध्यति॥
श्रीपतिः —
कुम्भराशिमपहाय साधुषु
द्रव्यकर्म भवमूर्तिवर्तिषु।
अव्ययेष्वशुभदायिषूद्गमे
भार्गवे विप(?)णिनीन्दुसंयुते॥
शुद्धेषु धर्मात्मजनैधनेषु
चरे च वर्गे द्रविणप्रयोगः।
बुधे विलग्ने दशमे च भौमे
चौर्यस्य कालः कथितो मुनीन्द्रैः॥
इति। हेमसङ्ग्रहे योगमाह —
इष्टगृहे सुरपूज्ये स्वांशगते तनुसंस्थे। सङ्ग्रहणं नवहेम्नः कोटिगुणं तत्कुरुते॥८॥
इष्टगृहे – नीचारिवर्जितराशौ स्वनवांकस्थे गुरौ लग्नगते सतिलाभार्थं नवसुवर्णस्य संग्रहणं। तत् सुवर्णं कोटिगुणितलाभयुक्तंकरोति। तथा च गुरुः —
ब्रह्मांशगे विलग्नस्थे जीवे नीचारिभात् विना।
भूषणं हेमसंगृह्य त्वेकं कोटिगुणं भवेत्॥
इति। अन्ये च स्वर्णसंग्रहे योगाः अर्णवेऽभिहिताः—
वर्गोत्तमगते जीवे बुधशुक्रौच कण्टके।
स्वर्णसंग्रहणं कुर्यात् एकं शतगुणं भवेत्॥
इति।
उच्चस्थाःस्वोदये जीवे भवे चैव दिवाकरे।
भूषणं हेम सगृह्य त्वेकं कोटिगुणं भवेत्॥
उच्छस्थे स्वोदये वक्रे स्वोच्छस्थेऽस्ते स्मरार्चिते(?)।
स्वर्णसग्रहणं कुर्यादेकं कोटिगुणं भवेत्॥
उच्चभागोदये सूर्ये मन्दे वाऽस्तं समाश्रिते।
स्वर्णसंग्रहणं कुर्यात् एकं कोटिगुणं भवेत्॥
इति। रजतादिसंग्रहयोगमाह —
एकांशकोपगतयोरुदयेः चन्द्रशुक्रयोः।रजताम्बरधान्यादि सङ्गृह्णीयात् समृद्धये॥९॥
क्वचिदेकांशस्थयोः चन्द्रशुक्रयोः उदये लाभार्थ रूप्यवस्त्रधान्यानि; आदिशब्दात् पूगफलादीनि च स्वीकुर्यात्। तथा च गुरुः—
एकांशकगतौ चन्द्रशुक्रौ लग्नमुपागतौ।
धान्यवस्त्रे ग्रहीतव्ये रजतं वृद्धितां ययुः॥
इति। अन्ये च रूप्यादिसङ्ग्रहयोगास्तेनैवोक्ताः —
यदैकांशसमायु्र्क्तौशुक्रार्का स्वत्रिकोणगौ।
रजते सङ्गृहीते तु वर्धते तत् दिनेदिने॥
यदैकांशे विलग्नस्थौ शुक्रमन्दौ क्वचित्तदा।
व्रीहीणां रजतानां च सङ्ग्रहो वृद्धिदो भवेत्॥
इति। अन्यत्र —
उच्चभागोदये शुक्रे जीवे चास्ते भवे रवौ।
रूप्यसङ्ग्रहणं कुर्यात् एकं कोटिगुणं भवेत्॥
इति।
मन्दवारे युते चन्द्रे प्राजापत्यसितोदये।
कुम्भराशौ गुरौ दृष्टे रूप्यमेकांशकं भवेत्॥
एकांशगयोरुदये रवियमयोः कालमायरां ग्राह्यम्।
तद्वत् भृगुसुतशिखिनोः वाहनशस्त्रादि सङ्ग्रह शुभद॥
(क्वचिदेकांशकगयो) क्वचिद्राशावेकांशगयो रविमन्दयोरुदये कालायसंगृह्णीयात्। अत्र गुरुः —
यदैवैकांशकौ युक्तौ रविमन्दौ क्वचित्तदा।
कृष्णलोहं तदा ग्राह्यं द्वयोरंशोदये यदि॥
इति। तद्वत् क्वचिद्राशावेकांशकस्थयोः शुक्रकेत्वोरुदये वाहनोपकरणानि शस्त्राणि आदिशब्दात् छत्राणि सङ्गृह्णीयात्। तथा च गुरुः—
यदैकांशे विलग्नस्थौ शुक्रकेतू क्वचित् तदा।
छत्रवाहनशस्त्राणां सङ्ग्रहं करणं शुभम्॥
इति। रत्नसङ्ग्रहयोगोऽपि —
स्वोच्चभागोदये मन्दे जीवशुक्रौ च कामगौ।
रत्नसङ्ग्रहणं कार्यमेकं कोटिगुणं भवेत्॥
जीऽवेस्ते लग्नगे शुक्रे शशाङ्के भवगे तथा।
धनं च जीवं सङ्गृह्य त्वेकमेवायुतं भवेत्॥
लग्नेजीवेऽस्तगे मन्दे जीवं धान्यं च तद्धनम्।
सङ्गृह्य रत्नं कोशं च त्वेकं कोटिगुणं भवेत्॥
एवमुक्तयोगेषु सर्वधातुद्रव्याणां सङ्ग्रहः कार्यः। यथोक्तमर्णवे —
हिरण्यं रजतं ताम्रमारकूटमयस्तथा।
मुक्ताप्रवालवैडूर्यवज्रान्(?) बैरादयस्तथा॥
कोशसंग्रह(ॠ) मृदौ सङ्गृह्णीयात् समृद्धये।
इति। कोशसङ्ग्रहर्क्षाण्यपि तत्रैवोक्तानि —
रौद्रश्रवणपुष्येन्दुमैत्रवारुणवासवाः।
त्रीण्युत्तराणि हस्तश्च कोशसङ्ग्रहणे शुभाः
दर्शश्च पर्वरिक्ताश्च वर्ज्याः शेषाःशुभावहाः।
स्थिरर्क्षाणि प्रशस्तानि मध्यमान्युभयानि॥
इति ।
हिरण्यं रजतं ताम्रमारकूटमयस्तथा।
अन्येषां संचयानां च व्ययस्सर्वममृद्धिकृत्॥
इति। वृद्ध्यर्थंसङ्गृहीतानां व्रीह्यादीनां बन्धनकालमाह पद्यार्धेन —
मन्दांशस्थेऽप्युशनसि लग्ने व्रीहेर्बन्धो जनयतिवृद्धिम्॥१०॥
अपिशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन नीचारिभेभ्योऽन्यत्र गृह्यते।शुक्रे स्वनीचारिभ्योऽन्यत्र राशौ मन्दांशस्थे लग्नगते सति व्रीहेर्व्रीह्यादीनां बन्धस्तद्व्रीहिवृद्धिं जनयति। व्रीहेरिति जातावेकवचनं। अत्रगुरुः—
शुक्रे मन्दांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
व्रीहीणां बन्धनं कुर्यात् व्रीहिवृद्धिं यदिच्छति॥
इति। समृद्धधनस्य पालकमन्तरेण रक्षा दुष्करेति तावत् स्वामिदर्शनकालमाह —
** आर्द्रासर्पसुरेन्द्रकृत्तिकापूर्वायाम्यविवर्जिते शुभे।सत्तिथिवारयोः पुमान् कुर्यात् स्वामिमुखा-वलोकनम्॥११॥**
आर्द्राद्यष्टताराविरहिते शुभे अत्याज्यनक्षत्रगणे स्वस्वामिनोरनुकूलशुभतिथौ शुभवारे स्वामिनो मुखं पश्येत्। अत्र त्रिविधं स्वामिदर्शनं। प्रथमदर्शनं निर्गत्यानुदर्शनं पुनः पुनदर्शनं चेति। तत्र
प्रथमदर्शने स्वस्वामिनोर्द्वयोरानुकूल्यं इष्टम्। अन्यत्र भृत्यस्यैव —
तथा च गुरुः —
स्वस्वामिनोऽनुकूलस्य दासस्यायुश्श्रियौ सदा।
वर्धेते वंशजस्यात्र तस्य दर्शनकालतः॥
शुभाशुभौ भवेतां तत् कालं वक्ष्ये शुभार्थिनाम्।
प्रथमं तत्प्रवेशे च निर्गत्यानुप्रवेशने॥
पुनः पुनर्दिदृक्षायां स्वामिनो भृतकस्य च।
दर्शने शुभकाले तु द्वयोः शोभनमेधते॥
भृत्यस्य शुभदे काले पुनः कर्मणि शोभनम्।
शुभकर्ममुहूर्तं च शुभं चेदन्यथाऽन्यथा॥
आर्द्राऽऽश्लेषा तथा ज्येष्ठा कृत्तिका भरणी तथा।
त्रिपूर्वाश्च विना शेषाः दर्शने स्वामिनः शुभाः॥
भृत्यानुकूलनक्षत्रे शुभांशे शशिनि स्थिते।
विष्टिरिक्ताविवर्ज्येषु तिथिषु प्रेक्षणं शुभम्॥
दर्शाष्टरिक्ता वर्ज्याः स्युः शेषाश्च तिथयः शुभाः।
इति। अन्ये—
शुभवारे शुभे योगे स्थिरराशौ शुभेक्षिते।
शुभग्रहाणां लग्नेच शुभे केन्द्रत्रिकोणगे॥
शुभग्रहदृशा युक्ते स्वामिन्युपचयस्थिते।
आयारिभ्रातृगे पापे शुभे केन्द्रत्रिकोणगे।
दर्शनं शुभदं प्रोक्तं स्वामिनो भृतकस्य च॥
इति। अथ—
‘पापवारा विवर्ज्यास्स्युश्शुभवारास्तु शोभनाः’
इत्यत्र विशेषमाह—
विप्रस्य दर्शनेऽर्कस्य वारो विट्छूद्रयोश्शनेः।
राज्ञां भौमस्य शुभदः सोऽपराह्णे स्मृतः परैः॥
द्रष्टव्यः — स्वामी — उपजीव्यः प्रभुरन्यो वा। स विप्रश्चेत् तस्य दर्शनेरविर्वारःशुभः। तथा वैश्यशूद्रयोर्दर्शने शनेर्वारः शस्तः। राज्ञां दर्शने कुजस्य वारश्शस्तः। स चापराह्णे शुभ इत्यन्ये।गुरुः —
सूर्यवारःशुभः प्रोक्तः ब्राह्मणानां तु दर्शने।
मन्दवारःशुभः प्रोक्ता विट्छूद्राणां तु दर्शने॥
भौमवारो नृपाणां तु दर्शने शोभनः परम्।
केचिन्मध्याह्नतः पश्चात् जगुश्शोभनतां नृपात्॥
इति। अनेन स्वामिदर्शनमपराह्णेऽपि कार्यमित्युक्तं भवति —
स्त्रीणां तु दर्शनं श्रेष्ठं (प्रोक्तं) चन्द्रशुक्रदिनादिष्वपि।
इति। स्वामिदर्शनस्य श्रेष्ठराशिमाह —
स्ववश्यराशेरुदये तमेव दिक्संस्थमारुह्य नृपस्य वक्त्रम्।दृष्ट्वा विधत्ते वशवर्तिनं तं भृत्यस्तदेतत् परमं रहस्यम्॥१२॥
भृत्यः स्ववश्यराशौ लग्नगते प्राच्यादिगताः क्रियाया द्वौ द्वौकोणगता द्विमूर्तय इत्युक्ते राशिचक्रे प्रागादिदिक्षु स्थितं स्ववश्यराशिमारुह्य स्वामिनो मुखं पश्यति चेत् स्वामी भृत्यस्य वशवर्ती भवति।तदेतदतिरहस्यं अनाप्तेष्वप्रकाश्यम्। अत्र गुरुः—
वश्यराशौ प्रशस्तं हि दर्शनं स्वामिनो नृणाम्।
तस्मादुदयकाले च वश्यर्क्षे वश्यतामियात्॥
इति। वश्यराशिर्विवाहाध्याय उक्तः। स्वामिदर्शने द्वन्द्वराशयो वर्गो —
त्तमादयश्च श्रेष्ठाः। तथा च गुरुः —
वर्गोत्तमादयो जीवबुधद्धक्षेत्रे विशेषतः।
स्वस्वामिदर्शनं श्रेष्ठं सक्तोऽसौ मरणान्तिकम्॥
इति। अथ स्वामिदर्शनयोगानाह —
स्वोच्चस्वर्क्षगते चतुष्टयगते जीवे शशाङ्केऽपि वा
निश्शुक्रेमदने त्रिकोणगृहगौ शीतांशुवागीश्वरौ।
चन्द्रे मैत्रतृतीयपादनिरते मैत्रे मुहूर्ते तनौ होरा-
रिप्फभवस्थिताः सितबुधब्रध्नाःक्रमेण त्रयः॥१३॥
स्वोच्चस्वराशिगते गुरौ केन्द्रे सत्येको योगः। तथाविधे चन्द्रेलग्नेद्वितीयः, चन्द्रजीवौ त्रिकोणगतौ सप्तमे शुक्रो न चेत् तृतीयः,अनुराधातृतीयपादगते चन्द्रे लग्नेसति मैत्राख्ये दिवा तृतीये मुहूर्तेचतुर्थः। शुक्रे लग्ने द्वादशे बुधे एकादशे सूर्ये सति पञ्चमः। अस्योत्तरश्लोकस्थेन स्वामिनं यः पश्यत्युपगम्य तस्य नृपतिः शश्वद्वशेवर्तते इत्यनेन सम्बन्धः। एषु योगेषु स्वामिनं यः पश्यति स्तामी तस्य भृत्यस्य वशे सदा वर्तत इत्यर्थः। अत्र गुरुः —
योगे दृश्यानि वा भृत्यै स्तेऽति स्निह्यन्ति दासवत्।
नैव यान्ति च रूक्षत्वं तस्माद्योगान् प्रचक्ष्महे॥
गुरौ केन्द्रे स्वतुङ्गे वा स्वर्क्षे वा शीतगौ तथा।
स्वामिदर्शनयोगोऽयं भृत्यस्वाम्यनुकूलदः॥
शुक्रवर्जितजमित्रे गुरुचन्द्रौ त्रिकोणगौ।
पश्यति स्यामिनं भृत्यो मरणान्तिकमाव्रजेत्॥
मत्रै(र्क्ष)स्य च तृतीयांशे सचन्द्रे चोदयं गते।
मैत्रे मुहूर्ते सम्प्राप्ते स्वामिदर्शनमुत्तमम्॥
भवेऽर्के व्ययगे सोम्ये लग्नगे भृगुनन्दने।
राजदर्शनमुक्तं हि ब्राह्मणा भृत्यवृत्तये॥
इति। योगान्तराण्याह —
लग्ने साधु निरीक्षिते शुभदिने चन्द्रे शुभांश-
स्थिते चन्द्रे केन्द्रगते शुभे तनुगते मैत्रे मुहूर्ते तथा।
जीवे चित्तगते भवे दिनकरे रिप्फे भृगौ स्वामिनंं
यः पश्येदुपगम्य तस्य च वशे सन्तिष्ठते दासवत्॥
शुभदिने बुधांशगे चन्द्रे शुभेक्षिते लग्ने सत्येकः। गुरुबुधशुक्रेष्वेकस्मिन् लग्नगे चन्द्रे केन्द्रे सति मैत्रे मुहूर्ते अन्यः। गुरौ द्वितीयेद्वादशे शुक्रे रवावेकादशस्थिते सत्यपरः। एषु योगेषु यः स्वामिनंपश्येत् सः स्वामी तस्य भृत्यस्य वशे सदा दासवत् तिष्ठति। गुरुः —
बुधांशकस्थिते चन्द्रे शुभर्क्षे शुभवासरे।
लग्ने शुभे शुभैर्दृष्टे शुभाय स्वामिदर्शनम्॥
जीवशुक्रबुधेष्वेको लग्नगो मैत्रसाह्वये।
मुहूर्ते केन्द्रगे चन्द्रे स्वामिदर्शनमुत्तमम्॥
धनायव्ययगा जविभानुशुक्रायथाक्रमम्।
स्वामिदर्शनयोगोऽयं भृत्यमात्रसमं नयेत्॥
इति। अत्रैकदेशग्रहणसमुचिताः केचिदन्ये योगास्ते गुरुणोक्ताः —
स्वराशौ वा स्वतुङ्गे वा स्वत्रिकोणे ऽथवा स्थितः।
शुभःस्वामित्रदृष्टश्चेत् मुदितः स्वामिनं व्रजेत्॥
अधिमित्रांशके राशौ द्रेक्काणे वा स्थितः शुभः।
लग्नगो यदि मैत्राख्ये मुहूर्ते स्वामिनं व्रजेत्॥
शुभांशकगते चन्द्रे शुभर्क्षे शुभवीक्षिते।
भवारिभ्रातृगे पापे स्वामिदर्शनमुत्तमम्॥
दशायोगेऽथवा पापे पापे लग्नेऽर्थगेऽपि वा।
चन्द्रे वा रन्ध्रगे योगे स्वामिदर्शनमुत्तमम्॥
अत्रैव वश्ययोगाः —
एकांशकस्थयोर्जीवशिखिनोः शिखिसौम्ययोः।
उदये ज्ञांशकस्थे वा केतौ दृष्टमुखः सुहृत्॥
क्वचिद्राशावेकांशकस्थितयोः गुरुशिखिनोरुदये तथाविधयोर्बुधशिखिनोर्योगे वादये बुधांशकगते केतौ वोदये दृष्टमुखः स्वामी रिपुर्वा सुहृत्भवति। तथा च गुरुः —
यदैकांशे विलग्नस्थौ जीवकेतू क्वचित्तदा।
स्वामिनं रिपुमन्यं वा दृष्ट्वा मित्रं भविष्यति॥
यदैकांशसमायुक्तौ बुधकेतू विलग्नगौ।
रिपुं स्वामिमन्यं वा दृष्ट्वा मित्रं भविष्यति॥
केतौ सौम्यांशगे लग्नेनीचारातिगृहान् विना।
गृहं यस्य समागच्छेन् वश्यत्वं याति तत्पतिः॥
सङ्ग्रामविजये —
मैत्रान्त्यांशकयोगे मैत्रमुहूर्ते च चन्द्रवेलायाम्।
ऋणनाशोऽल्पप्रदानाद्रिपुरपि दृष्टः तदा भवेन्मित्रम्॥
इतिः। श्रीपतिः —
शुभे विलग्नेदशमायगे रवौ . . . ।
विप्रवश्ययोगानाह —
अशत्रुनीचास्पदगे कुजांशे लग्नेऽर्कपुत्रे भृगुजेरवौ वा। विप्रस्य गत्वा गृहमस्य वक्त्रं पश्यन्जनस्तं स्ववशं करोति॥१५॥
शत्रुनीचराशिभ्योऽन्यराशिसम्बन्धिनि कुजांशे स्थिते मन्दादिष्वेकैकस्मिन् लग्ने सति त्रयो योमाः। वाशब्दात् अन्यस्मिन् बुधे चन्द्रेच द्वौ योगौ एषु योगेषु ब्राह्मणस्य गृहमागत्य तस्य मुखं पश्यति तंस्पृशति तेन संभाषणं वा करोति यस्तस्य स ब्राह्मणो वश्यो भवति।अत्र गुरुः—
मन्दे भौमांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
ब्राह्मणस्य गृहं गच्छेत् वश्यः स्यात् भार्यया द्विजः॥
शुक्रो भौमांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
ब्राह्मणस्याननं दृष्ट्वा दासवत् वश्यतां नयेत्॥
जीवे भौमांशगे लग्ने नीचारातिविवर्जिते।
भाषणात् ब्राह्मणेनाऽत्र वश्यः स्यात् ब्राह्मणः स्वयम्॥
सौम्ये भौमांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
स्पृष्टाङ्गो ब्राह्मणःस्प्रष्टुर्वश्यस्स्यात् मरणान्तिकम्॥
सोमे भौमांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
ब्राह्मणस्याननं दृष्ट्वा वश्यस्स्यान्मरणान्तिकम्॥
अन्येऽपि वश्ययोगास्तेनोक्ताः —
यदैकांशे विलग्नस्थौ कुजचन्द्रसुतौ तदा।
दृष्टे विप्रमुखस्यायं वश्यस्स्यास्मरणान्तिकम्॥
यदैकांशे विलग्नस्थौ कुजदेवगुरू तदा।
ब्राह्मणक्षत्रियौ दृष्ट्वा वश्यावामरणान्तिकम्॥
यदैकांशोदि(ते)तौ(भौमे) भौमभृगुपु(त्रे) त्रौ तदा क्वचित्।
ब्राह्मणक्षत्रियवैश्या दृष्ट्वा वश्यत्वमाययुः॥
नीचारातिगृहान्यभे दिनकरे लग्ने कुजांशस्थिते ज्ञांशे जीवरवीन्दुभौमशशिजेष्वेको विल-
ग्रस्थितः॥एकांशोपगतौ यदा कुजबुधौ लग्नेतदा स्वामिनं यः पश्यत्युपगम्य तस्य नृपतिःशश्वत् वशे वर्तते॥१६॥
नीचशत्रुगृहेभ्योऽन्यत्र राशौ कुजांशकस्थे रवौ लग्ने सत्येकोयोगाः। जीवादिष्वेकस्मिन् नीचारिभादन्यराशौ बुधांशस्थे लग्नगते सतिपञ्च योगाः। कुजबुधौ द्वौ क्वचिद्राशावेकांशस्थौ लग्नगौ यदा स्तस्तदा चैषु सप्तसु योगेषु यः स्वामिनमुपेत्य पश्यति सः स्वामी राजा अन्यो वा भृत्यस्य वशे शश्वत् वर्तते इति। अत्र गुरुः —
भानौ भौमांशगे लग्नेनीचारातिगृहैर्विना।
नृपतेरानने दृष्टे वश्यः स्यास्मरणान्तिकम्॥
जीवे बुधांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
स्पर्शनेन नृपो वश्यस्त्वया वज्रिन् समोऽपि यः॥
सूर्ये बुधांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
द्रष्टव्यो नृपतिश्यो भवेत् प्राणैर्धनैरपि॥
चन्द्रे बुधांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
राजा सम्भाषणेनैव वश्यः स्त्रीभिर्धनैरपि॥
भौमे बुधांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
नृपस्सम्भाषणादेव वश्यः स्यान्मरणान्तिकम्॥
बुधे स्वांशकगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
स्पृष्टो भूषोऽस्य वश्यस्स्यात् पुरन्दरसमोऽपि यः॥
यदैकांशे विलग्नस्थौ कुजचन्द्रसुतौ तदा।
दृष्टे नृपमुखेऽस्यायं वश्यस्स्यान्मरणान्तिकम्॥
एतेऽपीत्यत्र अपिशब्दस्याऽनुक्तसमुच्चयार्थत्वात् अन्येऽपि द्रष्टव्याः।
अत्र गुरुः—
शुक्रे बुधांशेगे लग्नेनीचारातिगृहैर्विना।
दृष्टाननोऽपि वश्यस्यान्नृपतिर्निष्ठुरोऽपि सन्॥
मन्दे बुधांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
नृपस्य सन्निधिं गच्छेत्तस्य वश्यत्वमिच्छतः॥
चन्द्रे जीवांशके लग्ने नचारातिगृहैर्विना।
कृतसंभाषणो राजा वश्यो भृत्यसमो भवेत्॥
राहौ भामांशगे लग्ने मुखपुच्छविवर्जिते।
राज्ञां तु गृहमागच्छेत् वश्याः प्राणैर्धनैरपि॥
राहौ बुधांशगे लग्ने मुखपुच्छविवर्जिते।
राजानं याचयेत् कर्म वश्यतां याति भूपतिः॥
यदैकांशे विलग्नस्थौगुरुराहू क्वचित्तदा।
नृपमन्दिरमासाद्य दृष्ट्वा तं श्रियमाप्नुयात्॥
यदैकांशोदितौ जीवमन्दौ दृष्टौ क्वचित्तदा।
राजानं तद्गृहं गत्वा दृष्ट्वा लाभो भविष्यति॥
इति। वैश्य वैश्ययोगानाह —
नीचारिभाग्यभवने सुरपूजितांशे लग्ने बुधेभृगुसुते भुजगे स्थिते वा। वैश्यस्य गेहमुपगम्यमुखं तदीयं पश्यन् वशं नयति तं पुरुषं स्पृशन्वा॥१७॥
नीचशत्रुभाग्यराशिसंबन्धिनि गुर्वंशे सौम्यादिष्वेकास्मिन् लग्नेस्थिते सति यो वैश्यस्य गृहं गत्वा तन्मुखं पश्यति तं स्पृशतिवाशब्दात् तेन सह संभाषते वा; तस्य स दृष्टः स्पृष्टः सम्भाषितो वा
वैश्यः वश्यो भवति। गुरुः—
सौम्ये जीवांशगे लग्ने नीचारातिगृहौर्विना।
वैश्यानां वदनं दृष्ट्वा वश्या जन्मान्तरेऽपि ते॥
शुक्रे जीवांशगे लग्ने नीचाराति गृहैर्विना।
वैश्य संभाषितो वश्यो दासवत् प्रेष्यतामियात्॥
राहौ जीवांशगे लग्ने मुखपुच्छविवर्जिते।
वैश्यस्य गृहमागच्छेद्धनधान्यसमृद्धये॥
इति। चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् तादृशा अन्येऽपि योगाः गुरूक्ताःद्रष्टव्याः। यथा —
सूर्ये शुक्रांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
वैश्यस्य गृहमागच्छेत् गृहेशो वश्यतां व्रजेत्॥
शूद्रवश्ययोगानाह पद्यार्धेन —
दृष्ट्वा शूद्रं शशिनि सितांशे स्पृष्ट्वा स्वांशे वशयति शुक्रे॥१८॥
‘नीचारिभाग्यभवन’ इत्यनुवर्तत एव। नीचशत्रुभाग्यराशिसंबन्धिनि सितांशौ स्थिते चन्द्रे लग्ने सतिशूद्रं दृष्ट्वावशयति। तादृशेस्वांशे शुक्रे लग्नेसति शूद्रं दृष्ट्रा वशं नयति। गुरुः—
चन्द्रे शुक्रांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
शूद्रस्य वदनं दृष्ट्वावश्यस्स्यान्मरणान्तिकम्॥
शुक्रे स्वांशगते लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
शूद्राणां गृहमागत्य स्पृष्टस्तैर्वश्यतां ययुः॥
इति। शुक्रांशे चन्द्रे शूद्रो दृष्ट एव वश्यः स्यात्। तथा स्वांशस्थेशुक्रे लग्नेस्पृष्टो वश्यो भवति।
दृष्ट्वाशूद्रं सितांशस्थे शशाङ्के स्ववशं नयेत्।
दृष्ट्वातत्स्वांशगे शुक्रे वशं नयति साधकः॥
इति। अथवा अन्येऽपि योगा गुरुणोक्ताः —
सौम्ये शुक्रांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
शूद्रसंस्पर्शनादेव वश्यः स्यात् वंशजैस्सह॥
जीवे शुक्रांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
शूद्रस्य गृहमागत्य तं शूद्रं वश्यतां नयेत्॥
भौमे शुक्रांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
शूद्रस्य वदनं दृष्ट्वावश्यस्स्यान्मरणान्तिकम्॥
केतौ जीवांशगे लग्ने मुखपुच्छविवर्जिते।
शूद्रस्य गृहमागच्छेद्वश्यो भवति नित्यशः॥
इति। अपरार्धेन स्त्रीवश्ययोगानाह—
जीवांशस्थे स्त्रियमिह लग्ने सौरांशस्थे सवितरि वेश्याम्॥१९॥
इह शुक्रे जीवांशगे लग्ने स्थिते यां कांचित् स्त्रियं दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा वशयति। मन्दांशगे सूर्ये लग्ने वेश्यां स्त्रियं वशयति। गुरुः —
शुक्रे जीवांशगे लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
स्त्रीणां राज्ञां मुखं दृष्ट्वा वश्याः स्युः स्त्रीनराधिपाः॥
मन्दांशगे रवौ लग्ने नीचारातिगृहैर्विना।
वेश्यास्त्रीभाषणेनैव वश्याऽवश्यमृते स्वयम्॥
इति। शत्रूणामपि मैत्रीकारकं योगद्वयमाह —
लग्ने गुरुः शशिसिनौ हिबुके यदा स्तः संभाषणं सह तदा द्विषता विदध्यात्। मित्रत्वमेति
रिपुरस्य तथैकराशौ वर्गोत्तमे गुरुसितौ च विलग्नगौ वा॥२०॥
लग्ने गुरुः चतुर्थे शशिशुक्रौ यद्येको योगः।एकस्मिन् राशौवर्गोत्तमांशे स्थितौ गुरुशुक्रौ द्वौ लग्ने यदि स्तोऽन्यः, अस्मिन् योगद्वयेशत्रुणा सह संभाषणं कुर्यात् स शत्रुर्मित्रीभवति तस्य गुरुः —
जीवे लग्नगते चन्द्रशुक्रौ हिबुकमाश्रितौ।
यदा तदा मित्रयोगः शत्रंसम्भाष्य मित्रकृत्॥
वर्गोत्तमांशगौ जीवशुक्रौ सह विलग्नगौ!
शत्रुभिः सह सम्भाष्य मित्रं कुर्यात् परस्परम्॥
इति। अन्ये च मित्रयोगा गुरुणोक्ताः —
चन्द्रजीवसिताः कर्मलग्नवेश्मसु मित्रकृत्।
चन्द्रजीवसिताः वेश्मकर्मलग्नेषु मित्रकृत्॥
स्वगृहस्थे सिते तोये स्वगृदस्थे विधूदये।
मित्रर्क्षस्थे गुरौ दृष्टे दृष्टो मित्रं भविष्यति॥
रक्तेऽस्ते गुरुलग्ने च मन्देऽस्ते भार्गवोदये।
रिप्फे मन्दे सिते लग्नेत्रयो योगाः सुमित्रदाः॥
शूर्पे चन्द्रे सिते लग्ने वैरिदर्शनमुत्तमम्।
मैत्त्रद्वितीयपादेन्दावुदयत्यपि भार्गवे॥
इति। एषु दृष्टा न केवलं शत्रवो मित्रीभवन्ति। राजादयोऽप्यतिस्त्रिग्द्धाः स्युः। गुरुः —
एषु योगेषु राजानो द्रष्टव्या मैत्रमिच्छता।
भृत्येन वाऽरिणाऽन्येन तेऽतिस्निह्मन्त्यसंशयः॥
इति। दृष्टस्य मित्रस्य स्वामिना संग्रहणकालमाह —
** स्ववश्यभवने स्वामी कुर्यात् भृत्यस्य संग्र-**
म्। स्वकर्मराशौ वा कालः प्रोक्तोऽत्रान्यैर्विवाहवत्॥२१॥
स्वामी प्रभुः स्वस्य जन्मनो नाम्नो वा वश्यराशौ स्वस्य कर्मराशौ दशमराशौ वा भृत्यस्य सेवकस्य संग्रहं कुर्यात्। तथा च गुरुणाअनेनैवाभिप्रायेणोक्तं —
स्वस्वामिराशिवश्यर्क्षे चन्द्रे लग्नेऽथ वा व्रजेत्।
भृत्यः स शुभदो दृष्टो दृष्टेष्वेवं शुभाशुभम्॥
इति। मुहूर्तसारेऽप्युक्तं —
उत्तरात्रयहस्ताश्विवसुविष्णुसुरेड्यभम्।
पौष्णेन्दुत्वाष्ट्रमैत्राणि सेवायां शुभदान् विदुः॥
दर्शाष्टरिक्ता निन्द्याः स्युः शेषाश्च तिथयः शुभाः।
शकुनादीनि विष्टिं च दुष्टयोगांश्च वर्जयेत्॥
अर्कार्किवारवर्गाणां वारवर्गादयाःशुभा।
स्थिरक्षाणि च शस्तानि मध्यमान्युभयानि च॥
शुभाः केन्द्रत्रिकोणस्थाः पापाः षष्ठत्रिलाभगाः।
सेवासौख्यावहाः सर्वे नेष्टा रन्ध्रस्थिता ग्रहा॥
चन्द्रे सद्गुणसंयुक्ते स्थिरराशौ स्थिरांशके।
विधोर्बलयुते काले सेवा सर्वसुखावहा॥
भृत्यर्थकर्मणामारम्भकालमाह—
कर्मण्यर्के गुतौ लग्ने स्मरे तोयेऽपि वाविधौ।
प्रारब्धं सिध्यति तदा श्रेष्ठश्च द्रव्यसहः॥२२॥
दशमेऽर्के शुभे लग्ने गुरौ सप्तमे विधावेको योग। अत्र चन्द्रे चतुर्थेअन्यः। अस्मिन् योगद्वये प्रारब्धं कर्म विद्याकृष्यादि कर्म अविघ्नेनसिध्यति तथा अस्मिन् योगद्वये द्रव्यसंग्रहश्च शुभः। गुरुः —
जीवे लग्नगते चन्द्रे स्मरे वा तोयगे विधौ।
खस्थेऽर्केऽर्थानि गृह्णीयात् प्रारब्धं च फलप्रदम्॥
जीवकर्किणि स्वांशस्थित्येदमेव योगान्तरम्।यथोक्तं गुरुणा—
आश्लेषाद्यन्तयोरंशे जीवलग्ने स्मराम्बुगे।
चन्द्रे खेऽर्के विना विघ्नं प्रारब्धमिह सिद्ध्यति॥
इति। विवादभूमेः स्वत्वापादनोपायमाह—
** पितृसलिलरोहिणीनां तुर्यांशे स्वस्य शीतगोरुदये। मृत्स्नां विवादभूमौ गृह्णीयात् सा भवेत्स्वीया॥२३॥**
मघापूर्वाषाढारोहिणीनां चतुर्थपादस्थस्य चन्द्रस्योदये विवादभूमिंगत्वा तत्र मृत्तिकां गृह्णीयात्।सा भूमिरनायासेनार्थिनः स्वकीयैव स्यात् तथा च गुरुः —
पित्र्याप्यरोहिणीनां तु चतुर्थांशोदिते रवौ।
विवादभूमौ गृह्णीयात् मृदं सा स्वा धरा भवेत्॥
इति। मृद्ग्रहश्च शत्रोस्त्रिजन्मजा(?)ष्टमोदयादिषु कार्यः। गृहीतां मृदंस्वगृहे चुल्ल्यादौ विन्यसेत्। यथाऽऽह गुरुः—
पैत्राजपादरोहिण्यां तुरीयांशे विधूदये।
विवादमृदमादाय न्यसेत् च्चुल्यामूलूखले॥
इति। अत्र केचिदाहुः। प्रोक्ततारागतचन्द्रोदये भूमौ कृषिं कृत्वा पुनस्तद्योगे ततो मृदं गृहीत्वा स्वगृहे चुल्यादौ निक्षिप्य पुनस्तद्योगे तत्र
गत्वाऽऽखुकृत्यां कुर्यादिति। तथा गुरुः—
रोहिण्यामुदिते चन्द्रे व्यवहारावनौ कृषिम्।
कृत्वा तु विवदेदेषा भूः सा स्यादवशेन तु॥
चन्द्रनक्षत्रयोगे तु मृदमुद्धृत्य निक्षिपेत्।
स्वधाम्नि लग्ने भूयो व्यवहारावनीर्विशेत्॥
तत्रोत्साहं विदध्यात्तु सा भूः स्वा स्यात् फलैः सह।
अत्र अन्ये नक्षत्रयोगा गुरुणोक्ताः —
हस्ते चन्द्रोदये हृत्वा मृदं तत् प्रतिरूपकम्।
कृत्वाऽवटे खनेत् सा भूः स्वस्य स्यादरिनाशतः॥
रोहिण्यजैकपादाभ्यां यद्यर्कस्योपरागतः।
तदा मृदं गृहीत्वैव व्यवहारभुवं विशेत्॥
चैत्रमे च शशिकीटभोदये प्रारभेत कृषिभूविलावनम्।
व्यवहारिकभुवं पुनर्मघाकटिभे स्वविवदेज्जयेच्छया॥
सौम्यर्क्षे तद्विलग्नेवा मृदमादाय तद्ग्रहे।
विन्यस्याऽमिन् पुनर्योगे कृषिं कुर्यादविघ्नकृत्॥
जीवे लग्नगते सिते गगनगे चन्द्रे स्मरायस्थिते
लाभे मन्दमहीजयोर्दिनकरे षष्ठे विलग्ने गुरौ।
लग्नाम्बुस्मरनेषु शुक्रशशभृन्मन्देषु मृत्संग्रहः तद्गा-
गोऽधिविवादधात्रि तनुते स्वीयामयत्नेन ताम्॥२४॥
एतेषु त्रिषु योगेषु विवादभूमौ यो मृदमादत्ते भक्षयते वातत्फलमुपभुङ्केवा सा भूरयत्नेन तस्य स्वीयैव स्यात्। गुरुः—
कर्मणि शुक्रे जीवे लग्ने लाभगतेन्दौ कामगते वा।
मृद्गहणाद्वा तत्फलभोगाद्वादधरा स्यादिति वाच्यम्॥
आयगौ यमधरासुरौ यदा षष्ठेगे दिनकरे गुरूदये। व्यावहारिकधरासु वादयेत् निर्विशङ्कमरिणा जयं व्रजेत्॥२५॥
लग्नगृहकामराशिषु भृगुशशिमन्दाः स्थिता यदि तदानीं। व्यवहारवति क्षेत्रे मृदमादत्ते स्वका भूस्स्यात्। इति योगान्तराण्याह —
** स्वांशे विधौ गुरुदिति गुडयुक्तदृष्टे लग्ने स्वभांशगतमन्दतेक्षिते वा । मन्देऽथ वाऽध सहजेभवने भुजङ्गे मृत्सादनात् भवति वादमही स्वकैव॥**
एते त्रयोऽपि योगा विवादभूमौ मृद्भक्षणात् तां स्वकीयांकुर्वन्ति। तत्र प्रथमद्वितीययोगयोरिक्तातिथियोगो द्रष्टव्यः। गुरुः —
गुरुवारे स्वभाशेन्दौ गुरुलग्नेक्षणे गुरोः।
व्यवहारावनौ भुक्त्वामृदं रिक्तासु तां जयेत्॥
मन्दस्य लग्ने स्वर्क्षांशे मन्दलग्नेक्षणेऽपि वा।
रिक्तायामपि मृद्भक्षाद्व्यवहारस्वभूः स्वका॥
आये राहौ सहजेन्दौमन्दे मृद्भक्षणात् स्वयं विवादभूमिरायाति। विवादेन विना हठादिति; वाशब्दादन्येऽपि ईदृशा योगा अप्यत्र द्रष्टव्याः —
लग्ने बुधगुरू तोये सितेन्दू सूर्यजन्मगौ।
राह्वारौ कर्मगौयोगो यदि स्यान्मुद्ग्रह शुभः॥
जीवेन्दू रोहिणीयातौ लग्नस्थौ चेत्तदा बुधः।
विवादभूमृदं गेहे स्वे स्थाप्य विवदेत्तदा॥
कुम्भस्य पञ्चमांशे मन्ददिने मन्दयुक्तनक्षत्रे।
स्वमतीष्टकोपं लिखेत् विवादभूमौ खनेत् स्वका भूस्स्यत् ॥
इति
अर्केण सहिते भौमे बुधे वा लग्नमागते।
प्रत्यर्थिना तु संभाष्य सङ्गृह्णीयात् भुवं बुधः॥
इत्यादयो द्रष्टव्याः —
सावित्रश्रवणविशाखयाम्यमैत्रे
पादेऽन्त्ये नवमकुलीरवृश्चिकेषु।
गृह्णीयान्मृदमथवा फलं तदीयं
प्रत्यर्थी न च बलते विवादभूमौ॥
शुक्रेन्दुसूरिरविसौम्यशनैश्चराणां
वारान्वितेषु करणेषु बवादिकेषु।
होरा नराद्यनुगुणेन विवादभूमौ
मृत्संग्रहाद्भवति भूमिरियं स्वकीया॥
गुरुः —
बुधवारे धनुर्लग्ने वारुणे मूषिकावटे।
आरग्वधं खनेच्छङ्कुं सप्ताङ्गुलमधोमुखम्॥
चतुर्थीविष्टियामे तु तदाशायां खनेद्बुधः।
अच्छिद्रपद्मपत्रान्तरस्थिभस्म निधाय च॥
विवादभुवि वा सीम्नि स्वा भूः स्यादरिनाशतः।
सौगन्धिकदले भस्म साप्तवर्णं युतं खनेत्॥
एकादशी विष्टियामे आरामे वा गृहाङ्गणे।
रिपोः क्षेत्रेऽपि वा स्वा स्यात् सा भूमिः शत्रुनाशतः॥
रोहिणी शूर्पयाम्यानामन्त्यांशे वृश्चिकोदये।
व्यवहारो जयाय स्यादाहवे च तथेषाभिः॥
अश्विन्यास्तु तृतीयांशे बुधे षष्ठे गुरौ यदि।
व्यवहारो जयाय स्याद्युद्धे बाणविसर्जनात्॥
विष्णुशूर्पयमान्त्यांशेष्वलिकर्कुदये वदेत्।
व्यवहारकवाक्यानि स्थैर्यं स्यादात्मो धनम्॥
दर्शनादिभिः परधनादीनां स्वत्वापादनयोगाश्च तेनैवोक्ताः —
यदैकांशोदितौ भौममन्दौ गुरुदृशा युतौ।
यः पश्येत् ब्राह्मणस्य स्वं षण्मासात्तस्य तद्धनम्॥
यदैकांशे विलग्नस्थौ भौमराहू क्वीचत्तदा।
ब्रह्मक्षत्रधनं दृष्टं सप्ताहात् प्रेक्षकस्य तत्॥
यदैकांशगतौ भौमभृगुपुत्रौ क्वचित्तदा।
ब्रह्मक्षत्रधनं दृष्टं सप्ताहात् प्रेक्षकस्य तत्॥
यदैकांशोदितौ चन्द्रचन्द्रजौ शुभवर्गगौ।
परदारग्रहं कुयात् सोदर्के स्यान्निजाङ्गना।
यदैकांशे विलग्नस्थौ शुक्रराहू क्वचित्तदा॥
संग्राह्या दासवर्गाः स्युः ते मासात् स्वं भविष्यति॥
इति। क्षेत्रादिसंग्रहयोगानाह —
एकांशस्थौवपुषि सितज्ञौ ग्राह्यं क्षेत्रं बहुफलवृद्ध्यै। मन्दज्ञौ वा यदि गुरुशुक्रौ संगृह्णीयात्फलमभिवृद्ध्यै॥२७॥
क्वचिद्राशौ शुक्रज्ञौ एकांशकस्थौ लग्ने यदि स्तः तदा क्षेत्रंगृह्णीयात्। तथा मन्दज्ञौ शुक्रगुरू वा द्वौ तादृशौ लग्ने यदि स्तस्तदा स्वक्षेत्रमध्यात् फलं संगृह्णीयात् —
गुरुः —
यदैकांशोदितौ सौम्यभृगुपुत्रौ क्वचित्तदा।
क्षेत्रं यत्नेन गृह्णीयात् महाफलदतामियात्॥
अपि च—
रविराहू यदैकांशे प्रोद्गतौ ग्रहणं विना।
तदा भूग्रहणं कार्यमर्धवृद्ध्यै तु मेदिनी॥
रविकेतू यदेकांशे प्रोद्गतौ मन्ददर्शने।
भूमिसंग्रहणं श्रेष्ठं पञ्चवृद्ध्ये मही भवेत्॥
यदैकांशे समायुक्तौ गुरुशुकौ क्वचित्तदा।
क्षेत्रस्य चाग्रतो मध्ये गत्वा हृत्वा फलं भजेत्॥
यदैकांशे विलग्नस्थौ सौम्यमन्दौ क्वचित्तदा।
क्षेत्रमध्यात् फलं ग्राह्यं बहुवृद्धिर्भविष्यति॥
इति। परक्षेत्राणामाक्रमणमृद्ग्रहणभक्षणफलोपभोगादिभिः स्वत्वापादकान्योगानाह —
एकांशोपगयोः सुरेड्यबुधयोः लग्ने द्विजानांमही सर्वेषां भृगुसौम्ययोः ज्ञफणिनोः मृत्सादनात्सा भवेत्। ब्रह्मस्वं कुजमन्दयोर्नृपधनं सर्पारयोःप्रेक्षणात् स्वं स्यादिन्दुविदोस्तथा हि सितयोःप्राप्तं परस्त्र्यादिकम्॥२८॥
कुत्रचिद्राशावेकांशस्थयोः गुरुबुधयोः उदये विप्राणां भुवं गत्वाततो मृदमादाय अद्यात्। सा भूः स्वीयैव स्यात्। तादृशयोः शुक्रबुधयोः बुधराह्वोर्वोदये सर्वेषां विप्राणां अन्येषां वा भुवं गत्वा मृद्भक्षणात् फलग्रहणाद्वा सा भूः स्वस्यैव स्यात्। तादृशयोःकुजसौरयोरुदये प्रेक्षितं विप्राणां कुप्याकुप्यात्मकं धनं प्रेक्षकस्य स्वस्यैव स्यात्।
तादृशोःकुजराह्वोरुदये दृष्टं क्षत्रधनं विप्रधनं च स्वं भवेत्। तादृशयोः चन्द्रबुधयो राहुशुक्रयोर्वोदये परस्त्रीदासादि स्वस्यैव भवति। तथाचगुरुः —
यदैकांशोदितौ सौम्य देवपूज्यौ क्वचित्तदा।
क्षेत्रं विप्रस्य गत्वा तु स्वं भवेत् मृत्तिकाशनात्॥
यदैकांशोदितौ सौम्यभृगुपुत्रौ क्वचित्तदा।
अन्यक्षेत्रात् फलं ग्राह्यं वर्षात् तत् स्वं भविष्यति ॥
यदैकांशे विलग्नस्थौ सौम्यराहू क्वचित्तदा।
परक्षेत्रान्मृदं भुक्त्वाहृत्वा च स्वं भविष्यति॥
इति। क्षत्रियभूग्रहणयोगश्च गुरुणोक्तः —
सूर्ये जीवांशगे . . नीचारातिग्रहैर्विना।
भूषस्य मेदिनीं दृष्ट्वा मासेनैवाप्नुयात् स ताम्॥
इति। गृहादिषु मूषिकादिबाधापनयनोपायकालमाह —
दृष्टे रवौ सपरिधौ सति लोहकीलं तारापतौतु निदधातु शिलां स्वसीम्नि। ते द्वीपनिष्कुटखलाङ्गणमन्दिरादौ छिन्तः पृथक् मृगवराहगवाखुबाधाम्॥२९॥
रवौव्योम्नि परिवेषसहिते दृश्यमाने सति लोहकीलमारामादिषु मृगादिबाधापनयनाय निक्षिपेत्। तथा चन्द्रे सपरिवेषे दृष्टे सति स्वसीम्न्यारामादिषु लोहकीलं शिलां च निक्षिपेत्। ते निक्षिप्ते लोहकीलंशिलेद्वीपारामखलाङ्कणगृहक्षेत्रादिषु मृगवराहपशुपक्षिमूषिकादिबाधां प्रत्येकंहरतः। दिवा रवौ सपरिविष्टे दृष्टे सति स्वसीम्न्याधारामादिषु निहितं लोहकीलंमृगाद्युपद्रवं हरति। तथा रात्रौ चन्द्रे सपरिवृष्टे दृष्टे गृहारामादिषु
स्वस्वीमायां निहिता शिला च तेषु मृगाद्युपद्रवं हरति। वास्त्वध्यायानुक्तकालस्य गृहकर्मणः कालमाह —
शशिशुक्रयुते लग्ने स्थिरे गुरौ केन्द्रगे च शुभवरो। गृहकार्यं सर्वमपि प्रशस्ततिथितारके शस्तम्
शुभवारे शुभतिथिनक्षत्रान्विते स्थिरे लग्ने शशिशुक्रयोरन्यतरस्योदये गुरौ केन्द्रे सर्वमुक्तकालमनुक्तकालं च गृहकार्यं शुभं भवति। गृहादिस्थिरकार्ये अन्ये योगा गुरुणोक्ताः—
देवेड्यशुक्ररविजा यदि साकमेक-
मंशं गताः शुभविलग्नमुपागताश्च।
सम्पत्करस्थिरकराणि शुभावहानि
प्रासादगेहकरणप्रतिमादिकानि॥
एकांशे लग्नगाश्चेद्बुधगुरुभृगुजा यज्ञराजाभिषेकं
ग्रामं कुर्यान्नृपाद्यालयविबुधगृहान् वेदवेदाङ्गशास्त्रम्।
नानामित्रं (नानातनुच) वैद्यकटककृतिमहावेधयन्त्राधिकं च
प्रारम्भं ग्रामराष्ट्रापणपुरकटककक्ष्मानिवेशादिकानाम्॥
कुजज्ञजीवशुक्रेषु गतेष्वेकांशकं तदा।
लग्नकेन्द्रेऽथवा तेषु गृहशिल्पाद्युपक्रमः॥
चन्द्रे लगे शुभांशे च शुभलग्नेशुभेक्षणे।
मन्दिरादौ गृहान्तेषु स्तम्भस्थापनमीरितम्॥
गोषु बन्धनकालमाह —
स्वातीरुद्रसमेते शनिवारे ताबुरूदये गोष्ठम्।
बध्नीयात् शुभदृष्टे ध्रुवभे वा मन्दजीवदिनसहिते॥
स्वात्यार्द्रायुक्ते मन्दवारे वृषभराशौ लग्ने गवां निवासार्थं गोष्ठंकुर्यात्। तथा स्थिरनक्षत्रे मन्दवारेण वा सहिते शुभदृष्टे स्थिरे लग्नेवा गोष्ठं कुर्यात्। एतद्योगत्रयं गोष्ठार्थं।दार्वानयनादियोगा गुरुणोक्ताः।
कुम्भाद्यन्तांशगे भानौ दारूण्यापाद्य साधिते।
गोष्ठे वासं गवां कुर्यात् वृद्धिः स्यान्निरुपद्रवा॥
घटस्य नवमांशस्थे जीवे लग्नमुपागते।
महिषीसङ्ग्रहं कुर्यात् तासां वृद्धिं यदीच्छति॥
गवां सङ्ग्रहणकालमाह —
श्वव्याघ्रसिंहकरणानि तदीययोनिवारान् विहाय वृषभान्त्यघटास्पदेषु। अश्वेभगोमृगमहिष्यज-योनिभेषु कुर्यात् गवां प्रथमसंग्रहणं समृद्ध्यै॥
विष्टिबालवबवकरणानि तद्योनिवारान् – कुजसोमशुक्रवारांश्चहित्वा अन्यकरणवारेषु अश्वादियोनिशुभभेषु वारुणाश्विपौष्णोत्तरात्रयमत्रैहस्तस्वातीतिप्यभेषु वृषकुम्भमीनलग्ने वृद्ध्यर्थं गवां प्रथमसङ्ग्रहं क्रयरूपमुपादानं कुर्यात्। कचिदुत्तरात्रयमष्टमीचतुर्दशीदर्शतिथीश्च वर्जयन्ति।
तथा च श्रीपतिः —
चित्रोत्तरावैष्णवरोहिणीषु
चतुदशीदर्शदिनाष्टमीषु।
स्थानप्रवेशं गमनं विदद्ध्यात्
धीमान् पशूनां न कदाचिदेव॥
इति। अन्ये पूर्वात्रयज्येष्ठा श्रविष्ठासौम्यादितिशूर्पभानि ग्राह्माण्याहुः।तथा च रल्लः —
शूर्पत्रितयं पूर्वाः पौष्णात् वसुभात् पुनर्वसोः द्वितयं।
सौम्यं हस्तश्च तथा गवां क्रये विक्रये भगः॥
इति। गवां संग्रहणयोगमाह —
सौरस्य वारे वणिजेन युक्ते प्रशस्तनक्षत्रसमन्वितेच।वृषोदये संग्रहणं विध्यात् गवां समृद्ध्यै शुभ एष योगः॥३३॥
मन्दवारे वाणिजकरणे स्वातीमैत्रादिशुभर्क्षयुक्ते वृषभराश्युदये गाःसङ्गृह्णीयात्। एष योगो गवां वृद्धिकृत्। ननु सर्वत्र तारालग्नादिप्रधानतया गृह्यते। इह तु वारकरणादि प्राधान्येनोक्तमित्यत्राह —
गोकार्येषु समस्तेषु वाराश्च करणानि च। ऋक्षादिभ्यो विशिष्यन्ते शूर्पंचित्रां च वर्जयेत्॥३४॥
सर्वेषु गोकार्येषु क्रयविक्रययात्रापोषणरक्षणादिषु नक्षत्रतिथियोगेभ्यो वाराःकरणानि च विशेषतः प्राधान्येन ग्राह्याणि। गोकार्याणिवर्ज्यानीत्यर्थः। विशेषतो वारकरणेषु शुभेषु कार्याणि निषिद्धेषु त्याज्यानीत्यर्थः। चशब्दात् गोकार्येषु चित्राशूर्पभे च वर्जयेत्।व्याघ्रयोनित्वात्।चित्राविशाखयोरपि गोकार्याणि वर्ज्यानीत्यर्थः।सङ्गृहीतानां गवां पोषणरक्षणादिकालः श्रीपतिनोक्तः—
शुभग्रहोदये शुद्धे नैधने स्वर्क्षयोनिषु।
रक्षावृद्धिक्रियाः शस्ताः पशूनां मुनिभिः स्मृताः॥
इति।
मकराद्यन्तपादस्थे रवौ लग्ने च बन्धयेत्।
मण्यादीन् गोधनादीनां रोगचोरादिशान्तये॥
पूर्तादिकर्मणां कालमाह —
कूपतटाकमहाद्रुमवृषभोत्सर्गादिकेषु कार्येषु।
कूपादीनां प्रथमे सलिलादाने च चौलवत्कालः॥
कूपतटाकपरिखादिखनने महाद्रुमादिस्थापने वृक्षोत्सर्गसत्रादिकार्येषु आदौ कूपतटाकादिसलिलस्वीकारे च चौलवत् –चौलोक्तनक्षत्रतिथिवारादिकालसदृशः कालः स्यात्। अनुक्तकालानां सर्वेषां शुभकर्मणां कालमाह —
विवाहमेकं परिहृत्य सिद्धे सर्वाणि कार्याणि करोतु सिद्ध्यै। तुषारमूर्तेरुदये गुरोर्वा स जीववारः खलु दुर्लभोऽयं॥३६॥
सिद्धे — पुष्यनक्षत्रे। अर्थात् शुभवारयुते विशेषतो गुरुवारयुतेचन्द्रोदये गुरोरुदये वा विवाहमेकं विहाय तदन्यानि सर्वाणि कार्याणिशुभकर्माणि कार्यसिद्ध्यै कूर्यात्। पुष्यनक्षत्रमात्रेऽपि शुभकार्याणिकार्याणि स्युः। गुरुवारयुक्ते किं पुनरित्यर्थः। अत्र खल्विति प्रसिद्धिवाचकशब्दाभिधानात् ग्रहवेधादिदोषयुक्तेऽपि पुष्ये शुभकार्याणि कुर्यात्। इत्युक्तं भवति। तथाच श्रीपतिः —
ग्रहेण विद्धोऽप्यशुभान्वितोऽपि
विलोमतारोऽपि विलोमगोऽपि वा।
करोत्यवश्यं सकलार्थसिद्धिं
विहाय पाणिग्रहमेव पुष्यः॥
इति। ग्रहवेधदोषसहितस्यापि तिष्यस्य प्रशस्यत्वं च तेनैवोक्तं —
परकृतमखिलं निहन्ति पुष्यो
न खलु निहन्ति परस्तु पुष्यजातम् ।
ध्रुवममृतकरेऽष्टमेऽपि पुष्ये
विहितमुपैति सदैव कर्म सिद्धिम्॥
इति। सर्वारम्भसिद्धियोगः श्रीपतिनोक्तः —
व्ययनैधनसंशुद्धौ संदृष्टोपचयोदये।
सर्वारम्भेषु संसिद्धिश्चन्द्रे चोपचयस्थिते॥
ज्योतिषार्णवेऽपि —
जीवोदये स्मरे चन्द्रे त्रिषडायेष्वसद्ग्रहाः।
शुक्रे ज्ञे वा चतुर्थेऽस्ते योगोऽयं स्यात्त्रिपुष्करः।
शुभकर्माणि सर्वाणि कूर्यादस्मिन् सुसिद्धये॥
पौष्टिकादिकर्मणां कालमाह —
अभिवर्धिष्णु यत्कार्यंतारासूर्ध्वमुखीषु तत्।
ऊर्ध्वास्यानां तु राशीनां उदयेषु विधीयताम्॥
अभिवर्धिष्णु पौष्ठिकं कर्मानुक्तकालं द्रुमलताशाखाङ्कुरार्पणादिकं वा तत्सर्वमूर्ध्वमुखेषु पुष्यादिनवभेषु ऊर्ध्वमुखानां; तुशब्दान्मूर्धोदयानां वा राशीनामुदये कुर्यात्। एतत् संज्ञाध्याये ‘तत्तत्समं तत्तत्फलम्’ इत्यत्रोक्तम्। केचित्तिर्यग्वक्त्रभेष्वपि पौष्टिकमिच्छन्ति। तथाच ज्योतिषार्णवे —
आर्यम्णविश्वाच्चत्वरि तथाऽऽहिर्बुध्न्यभात्त्रयं
ब्रह्मादित्यद्वयं मैत्रं उत्तरत्रितयं तथा।
एकास्ताराःप्रशस्ताः स्यु पौष्टिकेषु विशेषतः
वृषभो मिथुनं चैव पाथोनश्च कुलीरकः॥
जूकश्चापं प्रशस्तं स्यात् पौष्टिकेषुविशेषतः
तिथिवारर्क्षयोगेषु ये शुभास्ते शुभावहाः।
सिद्धानन्दामृताद्यास्तु पौष्टिकेषु विशेषतः
त्रिषडेकादशे पापाःशुभाः केन्द्रत्रिकोणगाः॥
पौष्टिके शुभदाःसर्वे रन्ध्रस्थाः सर्वनाशनाः
ऐरावतगते चन्द्रे सुरेश्वरगतेऽथ वा।
देवलोकगते वाऽपि पुष्करांशगतेऽथ वा
वर्गोत्तमगते चन्द्रे सद्गुणस्थे बलान्विते॥
कलावृद्धिसमायुक्ते शुभभावभयोगयोः
योगे धुरधुराख्ये च अधियोगादिकेषु च।
अन्येषु शुभयोगेषु पौष्टिकं सुशुभावहम्॥
इति। अनुक्तानां विद्याद्रव्योपकरणविनोदपरिकर्मादीनां कालमुक्तं पौष्टिककालवद्वदेत्। तथाचोक्तं ज्योतिषार्णवे —
गेयनृत्तादिकं वाद्यं मृदङ्गपटहादिकम्।
रङ्गारम्भावतारादि शङ्खकाहलमेव च॥
अमत्रे भोजनं भाण्डसङ्ग्रहं घटसङ्ग्रहम्।
छत्रचामरपिंछाद्यमुपानत्पादुकादिकम्॥
पीठासनादिग्रहणं पात्रद्रव्यादिसंङ्ग्रहम्।
दन्तच्छेदमजादीनां नखच्छेदं च वाजिनाम्॥
गजरथ्योक्षकादीनां दर्शनं दमनं तथा।
व्याघ्रसर्पकुरङ्गानां नकुलाख्वादिसङ्ग्रहम्॥
तेषां च दमनं बालकेशादीनां च सङ्ग्रहम्।
चकोरशुकचक्राह्वकुक्कुटादिपरिग्रहम्॥
तेषां च दमनं कार्यं वाहनारोहणं तथा।
गोभूमिबान्धवादीनां दर्शनं तीर्थसेवनम्॥
दर्शनं दर्पणादीनां शरीरस्य च संस्क्रिया।
ग्रहस्य सङ्ग्रहं भूतपिशाचादिप्रमोचनम्॥
कुड्याद्यारोहणं तेषां सेवनं दन्तसङ्ग्रहम्।
त्वक्कर्मादि तथा सेव्यं शिलाशूर्पादिसङ्ग्रहम्॥
तुलाप्रस्थादिमानानां करणं सङ्ग्रहं तथा।
छेदकाभरणादीनां17 रथशस्त्राास्त्रसङ्ग्रहम्॥
औषधग्रहणं चैव सर्वोपकरणानि च।
सर्वोपकरणानां च ग्रहणं सर्वशिल्पिनाम्॥
भूमिद्रव्यविभागश्च लीलाकन्दुकविग्रहः।
हलरज्वादिसङ्ग्राह्यंशिक्षासाधनसङ्ग्रहम्॥
चतुरङ्गाक्षरादीनां साधनानां च सङ्ग्रहम्।
गणनासाधनादीनां लेख्यादीनां च सङ्ग्रहम्॥
वाणिज्यारम्भणं चैव तेषां साधनसङ्ग्रहम्।
अजिनादि च सङ्ग्राह्यंसंग्राह्यं शिबिकादिकम्॥
दासीदासखरादीनां सङ्ग्रहं रक्षणाविधिः।
हेमराजतताम्रादि विकाराणां च सङ्ग्रहम्॥
माणस्फटिकरत्नादि सङ्ग्रहं कोशसङ्ग्रहम्॥
क्षौमाणां कम्बलादीनां शाल्यादीनां च सङ्ग्रहम्॥
एवमादीन्यनुक्तानि पौष्टिकोक्तेषु कारयेत्।
इति। विद्वेषणादि कालमाह —
पुंसो जन्मेशारिराशौ विदध्यात् षष्ठे भे वाकर्म विद्वेषणाख्यम्। नक्षत्रादौ शात्रवाणामनिष्टेकुर्यात्सर्वं मारणोच्चाटनाद्यम्॥३८॥
स्वशत्रोः पुरुषस्य जन्मेशस्य शत्रुराशौ शत्रुजन्मनः षष्ठराशौवा विद्वेषणाख्यं सुहृदोः मिथो वैरोत्पादकं कर्म कुर्यात्। तथा शात्र-
वाणां शत्रूणां अनिष्टे — विपत् प्रत्यरवैनाशिकादौ नक्षत्रे अष्टमादिराश्युदये तज्जन्मेशवैरिग्रहाणां वारांशकोदयेषु शत्रूणां मारणं मारणोत्पदकंकर्म उत्सादनं। उच्चाटनं स्वस्थानात्। आदिशब्देन स्तम्भनमोहनादीनि गृह्यन्ते। ईदृशानि सर्वकर्माणि कुर्यात्। उक्तं च-
शत्रोर्जन्मेशलग्नेशशत्रुराश्युदयादिषु।
शत्रुभे वा नरः कुयात् कर्म विद्वेषणादिकम्॥
इति। अर्णवेऽपि—
जन्मत्रये च शत्रोश्च तथैव विपदादिषु।
चन्द्राष्टमे विनाशर्क्षे वैनाशेऽष्टमराशिके
स्वनुकूलगते चन्द्रे शत्रुनाशादि कारयेत्॥
इति। विशेषमाह गुरुः —
भानौ भौमांशगे लग्ने नीचारातिगृहं विना।
शत्रूच्चाटनकर्म स्यात् कुह्वां वा जन्मभे विषे।
पर्वसन्धिकाले जन्मर्क्षविषनाड्यो यदि स्युः सा कुहूरिति। तथा चगुरुः —
यस्य जन्मर्क्षगश्चन्द्रो विषनाड्यां कुहूं व्रजेत्।
अभिचारेण कि तस्य स्वयमेव पतिष्यतः॥
दिव्यसारस्वते —
पौर्णमासीमन्दभानुयुक्ता विद्वेषकर्मणि।
चतुर्दश्यष्टमी कार्ष्णी अमावास्या तथैव च।
मन्दारार्कदिनोपेता शस्ता मारणकर्मणि॥
अष्टम्यां शुक्लपक्षे मृगपतिधनुषी मेषमाश्रित्य नाथे
तिष्ठत्यह्वामधीशे गतवति . . . मध्यमाशामुदीचीम्।
पश्यन् क्षेत्रे निरुद्धे दशपलममलं शुक्लमश्मानमेकं
कुर्यात् खातं निगूडं रजनिकृदुदये यद्यरातेर्ज्वरःस्यात्।उच्चाटनादिषु योगानाह —
उच्चाटनं चरगृहे चरतारकायां चन्द्रादिशीघ्रखचराभ्युदये चरांशे। संस्तम्भनाह्णयमथो विपरीतकाले वश्याख्यमाचरतु साधकवश्यराशौ॥
चरेषु नक्षत्रराश्यंशेषु चन्द्रादीनां शीघ्रग्रहाणां शीघ्रातिशीघ्राख्यगतिमतां वा ग्रहाणामुदये शत्रुच्चाटनकर्म कुर्यात्। अतोऽन्यथा कालेस्थिरताराराश्यंशकेषु स्थिरग्रहाणां सूर्यादीनां मन्दाख्यगतिमतां वा ग्रहाणामुदये शत्रूणां स्तम्भनाख्यं कर्म कुर्यात्। तथा साधकः स्वस्यवश्यराशौ तत्सम्बन्धितारासु च तदधिपग्रहोदये वश्यकर्म कुर्यात्।
दिव्यसारस्वते —
काष्णी चतुर्दशी तद्वदष्टमी मन्दवारागा।
उच्चाटने शुभा सेयं प्रदोषेषु विशेषतः॥
बुधचन्द्रदिनोपेता पञ्चमी दशमी तथा।
पौर्णमासी च देवेश शस्ता स्तम्भनकर्मणि॥
गुरुचन्द्रयुता षष्टी चतुर्थी च त्रयोदशी।
नवमी पौष्टिके शस्ता दशमी चाष्टमी तथा॥
पञ्चमी च द्वितीया च तृतीया सप्तमी तथा।
बुधगुर्वोर्वारयुक्ता शान्तिकर्मणि पूजिता॥
आकर्षणेऽप्युक्तम् —
दशम्येकादशी चैव भानुशुक्रदिनाऽन्विता।
आकर्षणे त्वमावस्या प्रतिपन्नवमी तथा॥
अथ पुंसामभ्युदयार्थं उपद्रवादिशान्त्यर्थं च क्रियमाणे होमबलिरक्षाकर-
** वादाग्निदानतरुभेदविषास्त्रकर्म चौर्यादिबन्धमृगयारणसाहसेषु। भौमस्य दुष्टदमने वधधातुकार्ये वारोदयावसृगपाकरणे च शस्तौ॥४१॥**
वादो — धातुवादादिः। अग्निदानमरण्यादि। गवादीनां रोगशान्यर्थंअभिकर्म च। तरुभेदःकृष्याद्यर्थं वनादिवृक्षादिच्छेदनम्। भिन्नानांवा तरूणां क्रकचादिना भेदनं च।विषकर्म — हिंसार्थं रोगशान्त्यर्थंच। बाह्वादिरम्भावृतिक्रियार्थं च। शस्त्रपातोऽस्त्रकर्म।चापाद्यस्त्रकरणंवा। चौर्यं परद्रव्यापहरणं। आदिशब्देन वञ्चनादि ग्राह्यम्। बन्धो दुष्टादीनां। मृगया आखेट। रणं कलियुद्धादि। साहसं — बलात्कारेण परस्वापहरणादि। दुष्टानामशीलानां गवाश्वादीनां दमनं वध। शत्र्वादीनामभिघातादिः। अथवा वधकार्यं मारणादिकर्म। धातूनांधातुद्रव्याणां स्वर्णताम्रविद्रुमादीनां कार्यं धातुकार्यम्। त्वग्विकारेषुशृङ्गजलूकादि भीरक्तापनयनमसृगपाकरणं एतेषु कर्मसु कुजस्य वारउदयश्च शस्यते। कुजवारे कुजोदये च एतानि कर्माणि कुर्यादित्यर्थः।एतत् प्रागेवापवादाध्यायोक्तम्। चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन एतेषुकर्मसु एते ग्राह्याः। गुरुः —
मित्रोच्चभस्थेऽवनिजे भृगुजज्ञौ
शुभाज्ञयोःशत्रुविनाशनाय।
विद्वेषणोच्चाटनशस्त्रशाणा
ध्वादिकं वा विदधीत धीमान्॥
…..द्रेक्काणगे सौम्य विलग्ने विवदेत् स्वयम्।
अरिणा सह युद्धे वा विजयी स्याद्रिपोर्बलात्॥
इति।
दृष्टे ग्रहेऽथ परिधौ क्रमतो रवीन्द्वोः सङ्गृह्य
लोष्टयुगलं च सिताशमयुग्मम्। तद्धर्षयेत्पुरुषयोः कलहे द्धवृत्ते तत् स्यात्तयोर्महदतीव रणाय योगांत्ः॥
इति। वेतालकमर्णोऽपि काल उक्तः—
पित्र्येशयाम्यमूलेन्दुभेषु शुद्धेऽष्टमेऽपि च।
वेतालसिद्धिः पाताले भृगौ ज्ञे घटलग्नगे॥
इति।
यमभे कुजवारस्थे चतुर्दश्यष्ठमीयुते।
कृष्णे पापोदये कुर्यात् दुष्टग्रहविसर्जनम्॥
मन्दांशगे रवौ लग्ने तुङ्गमित्रस्वभान् विना।
शत्रूणां कुलनाशाय कुर्यात् कर्म सुदारुणम्॥
इति। श्रीपतिः—
सकूरैः कूरवर्गस्थैः चन्द्रे बलनि साधने।
अरिष्टयोगे कर्तव्यो ह्यभिचारोऽरिनैधने॥
गुरुश्च—
अर्कार्क्याराहिकेतुनां बलेष्वन्यतमोदये।
गुरौ विक्रमगे कुर्यात् शत्रुनाशाय कर्म तु॥
निखनेत् कौमुदे पत्रे निम्बभस्मयुतं भुवि।
अष्टमीविष्टिदिक्काले शत्रोः शत्रुविनाशनम्॥
भस्म मूलकजं निम्बपत्रे कृत्वा वपेद्रिपोः।
प्राङ्गणे पूर्णिमाविष्ट्यां शयने वा महानसे॥
रिपुरोगावहं तस्य रोगशान्तिस्तथोद्यते।
निखनेत् सप्तमीविष्ट्यां स्नानभूमौ तु काकजम्॥
अलाबुपात्रके भस्म रिपोः सर्वाङ्गरोगिता।
दशमीविाष्टकाले तु गजदन्तं नवाङ्गुलम्॥
शत्रोः पादे निखन्यात्तदङ्गुहीनो भवेद्रिपुः।
विष्टिकाले चतुर्दश्यां श्वजिह्वाभस्मकं खनेत्॥
पटोलपत्रे निक्षिष्य त्वभिचारावनौ रिपोः।
शत्रोस्तु गलशूला स्यात् रिपोरान्त्रामयोद्भवा॥
विष्टियामे तृतीयायां गृहभस्म तु गूढकम्।
निर्गुण्डीपत्रमध्ये च शत्रुपादोत्थपांसुयुक्॥
निखनेत्मातृकास्थाने पादरोगी भवेदरिः।
सर्वेषां थोक्ष्यमाणानामुद्धृतेरोगमोक्षणम्॥
इति।
त्वाष्ट्रमैत्रान्त्यपादस्थे शीतागौ मिथुनोदये।
दम्यस्य विषमैर्दण्डैर्विदध्याद्दमनं बुधः॥
इत्यादयो द्रष्टव्याः। एतानि क्षुद्रकर्माणि मन्दवारोदययोरपि कार्याणीत्याह—
** दिवसोदययोस्सौरेःगोदासादिपरिग्रहम्। कुर्यात्सर्वे स्थिरं कर्म भौमवारोदितं च यत्॥**
** **शनेर्दिवसे उदयेच गोदासमहिषखरोष्ट्रतिलायसादिस्वीकारं कुर्यात्। तस्मिन् स्थिरं स्थावरं गृहनिवेशादि कर्म च कार्यं। ‘यच्चवादाग्निदान’ इत्यादिकं भौमवारोक्तं कर्म तच्चकुर्यात्। स्वांशगस्य तस्योदयेऽपि स्थिरं सर्वं कार्यं। तथा च गुरुः—
मन्दे च स्वांशगे लग्ने नीचारातिग्रहैर्विना।
नक्षत्रे च स्थिरे स्थाप्यं चिरकालं स्थिरं भवेत्॥
इति। श्रीपतिः—
दशमैकादशे लग्ने वित्तकेन्द्रत्रिकोणगैः।
शुभैः षुण्यस्य कर्मोक्तं वर्जियित्वा चतुदर्शीम्॥
गुरुः—
सिंहे सिंहांशके लग्नेगुरुभास्करदर्शने।
सम्पदे होमदानादि कर्तव्यं च महात्मभिः॥
श्रीपतिः—
पूर्णे चन्द्रे वेश्मगेऽर्केऽम्बरस्थे
जीवे लग्ने वाक्पतेवासरे च।
श्रीमन्त्यायुष्याणि कर्माणि कुर्यात्
युक्तस्तस्मिन्नेव राजाभिषेकः॥
इति। एवं धर्मक्रियायां क्षपितसकलदुरितस्य शुद्धचित्तस्य श्रेयोर्थिनःपुरुषस्य ज्ञानग्रहणकालमाह—
** शुभोदये पापदृगुज्झिते विधौ बुधार्कगे ज्ञानपरिग्रहः शुभः। गुरौ नभस्स्थेविबलैश्शुभस्थितैःशुभेतरैर्दीक्षणकर्म मोक्षदम्॥४४॥**
** **चन्द्रे बुधक्षेत्रे पापयुतिदृष्टिहीने स्थिते सति शुभोदये आत्मज्ञानग्रहणं कार्यंतथा गुरौ दशमस्थे पापेष्वबलेषु नवमस्थेषु तत् ज्ञानजनकं प्रव्रज्याख्यं दीक्षणं मुमुक्षुभिर्ग्राह्यम्। अत्र श्रीपतिः—
शीतांशौ बुधराशिस्थे शुभेषूदयवर्तिषु।
ज्ञानस्य ग्रहणं कार्यं हित्वा क्रूरग्रहोदयम्॥
देवाचार्ये कर्मभावं प्रपन्ने
पापैर्धर्मस्थानगैः वीर्यहीनैः।
योगे प्रव्रज्याह्वये सुस्थिरे च
कार्यास्तज्ज्ञैस्तत्र दीक्षा मुमुक्षोः॥
इति। प्रव्रज्यायोगा जातकेऽभिहिताः—
सौरः शुभभागस्थः पश्यति चन्द्रं ग्रहांस्तथैवान्यान्।
कुम्भांशेषु प्राप्तान् जनयति दीक्षान्वितं पुरुषम्॥
जन्मेशोऽन्यैर्यद्यदृष्टोऽर्कपुत्रं
पश्यत्यार्किर्जन्मपं वा बलोनम्।
दीक्षां प्राप्नोत्यार्किदृक्काणसंस्थे
भौमार्क्यंशे सौरदृष्टे च चन्द्रे॥
सुरगुरुशशिहोरास्वार्किदृष्टामु धर्मे
गुरुरथ नृपतीनां योगजस्तीर्थकृत् स्यात्।
नवमभवनसंस्थे मन्दगेऽन्यैरदृष्टे
भवति नरपयोगे दीक्षितः पार्थिवेन्द्रः।
‘एकस्थैश्चतुरादिभिर्बलयुतैर्जात’॥
इत्यादयः। अत्र जन्मस्थाने तत्काललग्नं ग्राह्यं। तथा च गुरुः—
श्रवणे मन्दवारस्थे शुभलग्नेयमे तिथौ
दीक्षा या दीयते वज्रिन् मुक्तिदा समयेष्वपि।
जीवशुक्रार्किसूर्येषु एकांशे यदि लग्नगे
तदा राज्यादिसिद्ध्यर्थं जपहोमाद्यमारभेत्॥
सौम्यवासवहस्तेषु चतुर्दश्यां च पर्वणि।
कुजवारे हरौ लग्नेरक्षा कार्या नृणां बुधैः॥
श्रीपतिः—
हिबुकेऽर्के गुरोर्लग्नेधर्मारम्भो रवेर्दिने।
मङ्गल्यमभिचारश्च खस्थे सूर्ये गुरूदये॥
अन्यत्र—
श्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रोक्तानां सर्वकर्मणाम्।
गुरुज्ञलग्नवर्गेषु प्रारम्भः तद्बले सति॥
अथ रोगाणां अगदक्रियाकालं विवक्षुः रोगारम्भदिनवशात् साध्यासाध्यतामभिधित्सन् सर्पदष्टस्य तावदसाध्यत्वमाह—
** भुजङ्गभूतेशमखाविशाखाकृतान्तकाशनवनैर्ऋतेषु। छिद्रासु दर्शप्रतिपद्विषेषु न प्रायशः प्राणिति सर्पदष्टः॥४५॥**
अश्लेषा, अर्द्रा, मखा, विशाखा, भरणी, कृत्तिका, मूलभेषुछिद्रासु तिथिषु दर्शप्रतिपदोश्च नष्टचन्द्रयोस्तिथ्योः विषे—विषाख्येतारातिथ्यादियोगे। अथवा विषगुलिकस्तस्योदये। यद्वा—विषनाडीषुविषभागेषु वा सर्पदष्टः प्रयशो न प्राणिति। न जीवतीत्यर्थ।केवलेषुनक्षत्रादिषु कृच्छ्रेण जीवति। छिद्रादियुक्तेषु तेषु न जीवति। तारातिथिविषाणां त्रयाणां योगे कृच्छ्रेणापि न जीवति। यदाह श्रीपतिः—
यः कृत्तिकामूलमघाविशाखा-
सार्पान्तकार्द्रासु भुजङ्गदष्टः।
स वैनतेयेन सुरक्षितोऽपि
प्राप्नोति मृत्योः सदनं मनुष्यः॥
तत् पापवारादियुक्तर्क्षेषु ज्ञेयम्। यस्मात् गुरुः—
द्विदैवत्यमखा श्लेषाभरण्यार्द्रासु नैर्ऋते।
बहुलायां विषैर्दष्टो न प्राणिति कुवारतः॥
इति। गारुडतन्त्रे—
चतुर्दशी चतुर्थी च षष्ठी द्वदश्यमाष्टमी।
प्रतिपन्नवमी चैव दृष्टा दष्टस्य मृत्युदा॥
इति। जर्याणवेऽपि—
यात्राविवाहमङ्गलसेवाराजेष्टदर्शनं सर्वम्।
नाशयति गुलिकवेला दष्टं नष्टं कृतं समरे॥
इति। कालदीपे विशेष उक्तः—
कृत्तिका भरणी स्वाती मूलपूर्वात्रयाश्विनी।
विशाखाऽऽर्द्रामखाऽऽश्लेषा चित्रा श्रवणरोहिणी॥
तारास्ताः सर्पदष्टस्य दुष्टा मन्दकुजौ तथा।
पञ्चम्यष्टम्यमा षष्ठी रिक्ता दष्टस्य निन्दिताः॥
तस्याति निन्दिताः कृष्णपञ्चमी च चतुर्दशी।
सन्ध्याचतुष्टयं दुष्टं दग्धयोगाश्च राशयः॥
इति। विषनाड्यो नक्षत्रेषु प्रागुक्ताः।विषभागाश्च श्रीपतिनोक्ताः—
मेषादिभेषु क्रमशोऽष्टनन्द-
द्वाविंशतिश्चाकृतितत्वचन्द्राः।
वेदत्रयोविंशधृतिर्नृपाश्च
मूर्च्छादिशोमृत्युकरास्तभागाः॥
इति। असाध्यरोगारम्भकालमाह—
** ज्येष्ठासमीरोरगरौद्रपूर्वात्रयेषु नो जीवति जातरोगः।छिद्रासमेतेषु सपाषवारेष्वाग्नेयवस्वन्तकवारुणेषु॥४६॥**
ज्येष्ठास्वात्याश्लेषाऽऽर्द्रापूर्वात्रयेषु जातरोगो न जीवति। श्रीपतिः
स्वात्याऽऽश्लेषारौद्रपूर्वा शाक्रे
रोगोत्पत्तिर्जायते यस्य पुंसः।
तद्भैषज्यव्यापृतो निप्प्रयत्नः
स्यात् दुग्धाब्धेर्लब्धजन्माऽपि वैद्यः॥
इति। अपिच पापवाररहितेषु छिद्रातिथिभिश्चान्वितेषु कृत्तिकाधनिष्ठाभरणीवारुणेषु च जातरोगश्च न जीवति। तथा च वैद्यके—
उरगवरुणरुद्रा वासवेन्द्रत्रिपूर्वा
यमहुतवहताराः पापवारेण युक्ताः।
तिथिषु नवमिषष्ठीद्वादशीभिश्चतुर्थी-
सहितमरणयोगा रोगिणामत्र मृत्युः॥
इति। अत्र दुष्टतारातिथिवारणां त्रयाणामपियोगेरोगी न प्राणिति।तारातिथ्योस्तारावारयोर्द्वयोर्योगे चिरेण कृच्छ्रात् जीवति। केवलासुतारासु कियद्भिरहोभिरुल्लाघो भवितेति। नक्षत्राणां दिनसङ्ख्यामाह—
** वैश्वे सौम्ये च मासाद्वसुभदिवसकृत्शूर्पशक्रेषु पक्षात् रोगी चित्राप्रचेतोयमहरिषु सुखं विन्दते रुद्रसंख्यात्। विंशादह्नो मघायां गुरुभगसुरसूधातृबुध्न्येषु भूभृत्सङ्ख्यान्मूलाश्वियुक्त हुतभुजि नवमान्मित्रपूष्णोस्तु कृच्छ्रात्॥४७॥**
** **वैश्वसौम्ययोर्नक्षत्रयोरुत्पन्नज्वरादिरोगो मासात्—मासं त्रिंशतंदिनानि संक्लिश्य परतः सुख प्राप्नोति। धनिष्ठाहस्तविशाखाशक्रेषुचतुर्षु पक्षात् मासार्धात् परं। चित्राशतभिषग्भरणीश्रवणेषु भेषुरुद्रसङ्ख्यादेकादशसङ्क्त्यात् दिनात् परतः।मघायां विंशादह्नोविंशतिपूरणात् दिनाद्र्ध्वं। पुष्योत्तरफल्गुनीपुनर्वसरोहिणीबुध्न्यभेषु भूभृत्सङ्क्यात्—सप्तमाद्दिनात्। मूलाश्विनीकृत्तिकासु नवमाद्दिवसात् परस्तात्
सुखं लभते। मित्रपूषभयोःरोगी चिरं संक्लिश्य कृच्छ्रेण सुखमाप्नोति।अत्र गुरुः—
कदर्थितश्चिरं पौष्णे मैत्रे पापदिनैर्युते
रिक्ताभिर्द्वादशीषष्ठ्योः जीवेद्रोगी कथंचन।
सौम्ये वैश्वे शुभे वारे रिक्ताविष्टिविवर्जिते
तिथौ रोगी परं मासात् जीवेदिह न संशयः॥
मघायां विंशतौ प्रोक्तो दिनात् जीवेत् शुभे दिने
ज्येष्ठाविशाखाहस्तेषु रोगी मासार्धतः सुखी।
चित्रायां वैष्णवे याम्ये वारुणे सौम्यवारगे
रोगी सैकादशाहीने सुखी स्याद्दिवसादपि॥
मूलाह्वकृत्तिकापुष्यपुनर्वस्वः सुवारगाः
यदि रोगी नवाहाद्वा सप्ताहाद्वा सुखी भवेत्।
रोहिण्युत्तरफल्गुन्योराहिर्बुध्न्येतथाऽऽमयी
सप्ताहाद्वा नवाहाद्वा सुखी भवति वृत्रहन्॥
श्रीपतिनापि धनिष्ठायां पक्षात् सुखमित्युक्तम् ‘पक्षाद्धस्ते वासवे सद्विदैव’ इति। मतद्वयमप्याश्रित्य अभिहितमाचार्येण ‘वसुभदिवसकृच्छूर्पशक्रेषुपक्षादिति’। अनुक्तेषु स्वात्यार्द्राऽऽश्लेषापूर्वात्रयेषु चिरात् कृच्छ्रेण जीवतीत्यर्थः। अयमभिप्रायः—सर्वेषु भेषु क्रूरवारहोराराशिच्छिद्रातिथिविष्टिदुष्टयोगयोगिनीषूत्पन्ना रोगाश्चिरं प्रवाधन्ते। सौम्यदिनादियुक्तेषुप्रोक्तदिनानि स्वात्यादिषु सौम्यवारादिसंयुक्तेष्वपि चिरं प्रबाधन्तेतरामिति। नक्षत्रेषु दिनसङ्ख्या क्वचिदन्यथा ख्यायते। तथा च भरद्वाजः—
दशरात्रं धनिष्ठासु रोगो भवति देहिनाम्।
षडहं द्वादशाहं वा वारुणे भवति ज्वरः॥
तथा भाद्रपदे चैव पूर्वे हि मरणं ध्रुवम्।
उत्तरे तु भवेन्मोक्षो दिवसे हि चतुर्दशे॥
अष्टरात्रं चतूरात्रं रेवत्यां वर्तते ज्वरः।
अश्विन्यामपि षड्रात्रात् सुखं भवति हि ज्वरे॥
यमदैवे यमस्तिष्ठेन्नराणां पञ्चमेऽहनि।
कृतिकासुगृहीतस्य सप्तमे मृत्युमादिशेत्॥
ऊर्ध्वं यद्यतिवर्तेत त्रिपक्षे संशयो भवेत्।
रोहिण्यामष्टरात्रेण मुञ्चेदेकादशेऽह्निवा॥
मृगे तु षडहे जीवेन्नवरात्रं तदा भवेत्।
आर्द्रायामुत्थितो व्याधिः दशरात्रेण शाम्यति॥
पुनर्वसूद्भवो व्याधिरष्टरात्रात् प्रशाम्यति।
तिष्ये त्रिरात्रं ज्वरितः सप्ताहाद्वा सुखी भवेत्॥
आश्लेषासु भवेन्मृत्युः दीर्घकालक्रमादपि।
मघासु द्वादशाहेन ज्ञेयो मृत्युर्न संशयः॥
ऊर्ध्वस्थयमरेखायां पुनरेव सुखी भवेत्।
पूर्वासु चोपदिष्टस्य दशाहं भवंति ज्वरः॥
उत्तरासु तथाऽष्टाहं नवरात्रमथापि वा।
एकविंशतिरात्रं वा ज्वरः सौम्ये विमुञ्चति॥
हस्ते च सप्तमे मोक्षंश्चित्रायामष्टमे सुखम्।
स्वातियोगे दशाहेन मुञ्चेत् पक्षत्रयादपि॥
विशाखासु भवेद्व्याधिरेकविंशेऽह्नि शाम्यति।
ज्वरस्तु दिवसानष्टावनूराधासु वर्तते॥
ज्येष्ठायामुत्थितो व्याधिर्दशाहेन प्रशाम्यति।
मूलेन चोपदिष्टस्य दशरात्रं भवेज्ज्वरः॥
अषाढास्वेव पूर्वासु दशमेऽहनिमुच्यते।
उत्तराषाढजो व्याधिर्मासंक्लिश्येन्न संशयः॥
श्रवणेनाष्टरात्रं तु क्लिश्यते ज्वरपीडितः॥
इति। अपिच—
आधानजन्मनिधनप्रत्यराख्येविपत्करे।
नक्षत्रे व्याधिरुत्पन्नःक्लेशाय मरणाय वा॥
इति। अत्र रोगोदयर्क्षंरोगिजन्मलग्नेच ज्ञात्वा साध्यासाध्यत्वाविवेकःकार्य इत्याहुः। तथा च—
रोगोदयर्क्षं नरजन्मलग्ने
ज्ञात्वा त्रयं चिन्त्यमनिष्टमिष्टम्।
मीनजं (?) वस्विन्दुरवी तृतीये
व्याध्युद्गमे जीवति स त्रिरात्रम्॥
तृतीयतारे रविणैकरात्रं
चन्द्रेऽर्कयुक्ते दशमस्थिते वा।
जामित्रगौ भौमयमौ शशाङ्कात्
रोगोदये सप्तदिनं च जीवेत्॥
सव्यापसव्ये चतुरश्रगेषु
पापेषु रोगी दशरात्रजीवी।
सूर्यत्रिकोणोपगतः शशाङ्को
वामे तदा द्वादशरात्रजीवी॥
चन्द्रे त्रिकोणे चतुरश्रगेऽर्के
दुर्व्याधिना जीवति स त्रिरात्रम्॥
एवं साध्यासाध्यत्वे विचार्य रोगस्य साध्यत्वे निश्चिते सत्यौषधक्रियारम्भकालमाह—
** रोद्रे भेषु चरेषु सोग्रमृदुषु क्षिप्रेषु नन्दाह्वया–**
रिक्तास्वारगुरुज्ञवासरकृतां वारोदयांशेषु च।
दद्यान्मेषकुलीरयोश्च सकलव्याधिक्षयायौंषधं
जीवेन प्रतिरोगमत्र कतिचिद्योगाः पृथक्कीर्तिताः॥
उग्रैः पञ्चभिः। मृदुभिःचतुर्भिः भैः सहितेषु चरेषु पञ्चसुक्षिप्रेषु च त्रिषुभेषु रौद्रे अर्द्रायां चेत्यष्टादशसुभेषुनन्दाजयारिक्तासुनवसु तिथिषु कुजगुरुसौम्यसूर्याणां चतुर्णां वारेषु तेषामुदये तदंशेषुचशब्दात्तद्धोरासु च मेषकर्कटयो राश्योः चशब्दाच्चरराशिषु वा सर्वव्याधिक्षयार्थं औषधं दद्यात्।रोगिण इति शेषः। तथा च गुरुः—
क्षिप्रोग्रचरनक्षत्रे मेषकर्कटकोदये
चरग्रहदिनस्वांशे मृदुवृक्षे(?) हरे तिथौ।
नन्दायां चरलग्नेवा कण्टके शुभसंयुते
सर्वव्याधिविनाशाय विदध्यादौषधं बुधः॥
अन्ये तु—
आराऽर्काजीवेन्दुतनूद्भवानां
वारांशके भेषजमामनन्ति।
तिथिं सुपूर्णां च विहाय रिक्तां
विष्टिं चराष्टान्त्यनृयुग्मभेषु॥
इति।अत्र रौद्रादिभेषु सर्वव्याधिक्षयाय औषधं दद्यादित्यविशेषेणोक्तंयद्यपि; तथाप्यन्यत्र विशेषेण विभज्योक्तं द्वष्टव्यम्।
वारुणार्द्राश्रविष्ठासु मेषकर्कटकोदये।
आरार्कशनिराहूणां दर्शने भेषजं शुभम्॥
ज्योतिषार्णवे—
उत्तमं विष्टिवर्ज्येषु चरेषु करणेषु च
चरोभयस्थिरर्क्षेषु श्रेष्ठं मध्यं च निन्दितम्।
शुभाः केन्द्रत्रिणोस्थाःसुखारोग्यप्रदास्सदा
शुभा दुश्चित्कगाःपापाः सर्वेषां ये शुभावहाः॥
इति। तत्र भैषज्यकर्मणि श्रीपतिः—
पौष्णद्वये चादितिभद्वये च हस्तत्रये च श्रवणत्रयेच।
मैत्रे च मूले च मृगे च शस्तं भैषज्यकर्म प्रवदन्ति सन्तः॥
इति। शस्त्रदहनादिकर्मणि—
रौद्रैन्द्रोरगमूलभेषु दिनकृत्पुत्रारवारोदये
रिक्तायां क्रियकर्कितौलिवनितालग्ने विशुद्धेऽष्टमे।
क्रूरेषु प्रबलेषु कर्तुरनुकूले चैव काले द्विजैः
कृत्वाऽऽशीर्विदधीत शस्त्रदहनक्षारादियोगं बुधः॥
इति॥
चन्द्रे चतुर्थे तपने च षष्ठे स व्याधिरष्टादशवासरान्तः।
रवौ स्थिते चन्द्रमसस्त्रिकोणे व्याधिं गतो विशतिवासरान्तम्।
होराष्टमन्दे कुजमन्ददृष्टे सूर्ये सरोगस्तु विपद्यते सः॥
इति। उदयजन्मलग्नानां त्रयाणां समं यदा क्वचित् स्पष्टतल्लिङ्गोपलब्धेरोगारम्भसमयो न सम्यगवधार्यते; तदा प्रश्नकालविलग्नादिना साध्यासाध्यात्वं वदेत्। तद्यथाऽऽह कृष्णः—
मन्दः पापसमेतो लग्नान्नवमे शुभैरयुतदृष्टः।
रोगार्तस्य विदेशे वाऽष्टमगो मृत्युकर एव॥
उरगैर्वेष्टितकाया द्रेक्काणा गृद्ध्रकोलसदृशसुखाः।
क्रूराः कुर्यर्मरणं निधने यदि चन्द्रमास्तिष्ठेत्॥
पृष्ठोदये विलग्नेक्रूरा लग्नास्तहिबुकदशमगताः।
निधने च शीतरश्मिःम्रियते रोगार्दितः पुरुषः॥
षष्ठाष्टमयोः क्रूरास्तिष्ठत्यवलोकितोऽथवा रिपुणा।
नोत्तिष्ठते सरोगी नीरुजति च भक्षणे ताभ्याम्॥
पश्यत्यशुभो यतमे राशौ स्थित्वा तु रोगसूत्रस्थम्।
ततमे दिवसे व्याधिः सौम्ये सुखमेधते रोगी॥
लग्नाच्चन्द्रो यतमे राशौ ततमे दिने भवेद्रोगः।
सौम्यः पश्येदिन्दुं यतमे ततमे सुखी दिवसे॥
परिपूर्णतनुश्चन्द्रो लग्नोपगतो निरीक्षितो गुरुणा।
गुरुशुक्रौ केन्द्रे वा रोगार्तस्तत्र सुखितस्स्यात्॥
अन्यत्र—
शुभग्रहाः सौम्यनिरीक्षिताश्च विलग्नसप्ताष्टमपञ्चमस्थाः।
त्रिषड्दशायेषु निशाकरस्स्यात् शुभं वदेद्रोगनिपीडितानाम्॥
इति। अन्ये तु तत्कालप्रश्नलग्नयोश्चरस्थिरद्वन्द्वभावयोगपर्यायैर्यथायोगं जीवरोगमृतिसंज्ञास्तिस्रःस्तिस्रो वेला स्वसंज्ञासमानफलास्स्युरिति। यथाऽऽहुः—
चरे चरस्थिरद्वन्द्वाः स्थिरे द्वन्द्वचरास्थिराः।
द्वन्द्वे स्थिरोभयचरा जीवो रोगो मृतिःक्रमात्॥
इति। ज्वरादिव्याध्युदये व्याधिमोक्षदिनान्तं बल्याहरणमुक्तंवैद्यके—
यावद्व्याधिप्रमोक्षस्स्यात् तावत्तद्बलिमाहरेत्।
चतुष्पथे श्मशाने वा देवागारे गृहेऽथवा॥
देववृक्षप्रसिद्धे वा शुद्धे देशे जलाशये।
नक्षत्रोदयकाले वा सन्ध्याकाले बलिं हरेत्॥
बालानां स्थविराणां च सर्वेषामपि कारयेत्।
बलिभिस्सकलैरुक्तं ब्राह्मणानां च योजयेत्॥
इति। यत्पुनः—
जन्मर्क्षस्यानुकूलर्क्षे दिवसे दोषसंयुते।
विष्टियोगे व्यतीपाते कुर्याद्व्याधिप्रतिक्रियाम्॥
रौद्रेन्दुसार्पजलभेषु याम्ये
स्वातौ त्रिपूर्वासु सरोहिणीषु।
तिष्याश्विपौष्णादितिहस्तमित्रे-
षूक्तं चरांशे शुभमौषधीनाम्॥
इति। क्रूरवारतारांशलग्नादिषूक्तं तच्छस्त्रदहनादिकर्मस्वेवग्राह्यं नत्वौषधपानलेपादिषु। यस्माच्छ्रीपतिः—
द्यूनशत्रुनिधनव्ययशुद्धौ सद्गृहेषु नितरां बलवत्स्सु।
आयुषश्च हितकारिणि योगे कीर्तिता नियतमौषधसेवा॥
इति। सौम्यवारतारांशलग्नादिष्वेव पानलेपनाद्यौषधसेवनं कार्यम्।न क्रूरवारादिषु।शस्त्रदहनादिकर्म सौम्यवारादिष्वप्यनिषिद्धम्। भैषज्येजन्मत्रयं जन्मदिनं च निषिद्धम्। कैश्चिन्नन्दापि निषिध्यते। यथाऽऽहुः—
वर्ज्यं सनन्दमपि जन्मदिनत्रयं च।
इति। अन्यैस्त्वदिविचित्रार्कवसुमूलानि त्यज्यन्ते। यथाऽऽहुः—
भैषज्येऽदितिचित्रार्कवसुमूलोत्तराम्त्यजेत्।
इति। एवमयं सर्वरोगाणामविशेषेणौषधक्रियाकाल उक्तः। अत्र भैषज्यविधौ जीवेन प्रतिरोगं कतिचिद्योगाः पृथगुक्ताः। त इह ग्रन्थविस्तरभीत्या दोषत्रयसामान्यप्रशमकराः केचिदेवाभिधीयन्त इत्यर्थः। तान्योगानाह—
** वातं घ्नन्ति सजीववासरजयाविष्ट्याश्विनेयाग्नयः पित्तं वाय्वजपूषणश्चरतनोः शौकेऽह्नि भद्रान्विताः। वातश्लेष्महरा यमाग्निगिरिशाः कौजेऽह्नि**
लग्ने चरे रिक्ताशूर्पयमेशमित्रर्दिनकृद्वारास्त्रिदोषच्छिदः॥४९॥
** **जीववारेण जयातिथ्या च सहिता श्रवणाश्विनीकृत्तिका वातं ध्नान्ति—वातरोगान्नाशयन्ति। शुक्रवारे भद्रातिथ्यान्विता स्वातीरोहिणीरेवत्यः पित्तं—पित्तरोगान्नाशयन्ति।कुजवारे भरणीकृत्तिकार्द्रा वातरागान् श्लेष्मरोगांश्च हरन्ति। सूर्यवारे रिक्तातिथियुक्ता विशाखाभरण्यार्द्रानूराधास्त्रिदोषभवं सन्निपातं छिन्दन्ति नाशयन्ति। सर्वत्रचरलग्नमिष्टम्। अत्र गुरुः—
वारुणे चाग्निदैवत्ये तुरगे गुरुवारगे
जयायां वातशान्त्यर्थं भेषयन्नैव पैत्तिके।
प्राजापत्ये च पौष्णे च स्वातौ शुक्रदिने युते
भद्रायां चरलग्नेच भेषयेत् पित्तशान्तये॥
याम्याग्नेयर्क्षरौद्रेषु भौमवारे चरोदये
वातश्लेम्मविनाशाय भेषयैन्नैव पैत्तिके।
रौद्रमैत्रविशाखासु भरण्यां सूर्यवारगे
रिक्तायां भेषयेद्विद्वान् सन्निपातक्षयाय तु॥
इति। अत्र द्वितीयपादे योगान्तरं सूचितम्। अत्र गुरुः—
स्वातिनैर्ऋतपुष्येषु गुरुवारे चरोदये।
नन्दायां पित्तशान्त्यर्थं भेषयेन्मतिमान् भिषक्॥
इति। तेन प्रतिरोगं च विशेषेण केचिद्योगा उक्ताः। ते यथा—
दर्शे चातिशुभं विद्यात् गुह्यरोगप्रशान्तये।
क्षिप्रोग्रचरनक्षत्रे मेषकर्कटकोदये॥
चरग्रहदिनस्यांशे चित्रास्वातिहरौ तिथौ।
नन्दायां चरलग्ने च कण्टके शुभसंयुते॥
गुह्यव्याधिविनाशाय विदध्यादौषधं बुधः।
शुभवारतिथिष्वेषु शुभांशे कर्कटे विधौ।
रौद्रमैत्रश्रविष्ठासु चाश्विन्यां पुष्यचित्रयोः।
औषधं व्याधिनाशाय दद्यात्क्रियकुलीरयोः॥
क्षिप्रोग्रचरभे वारे सौम्ये रिक्तासु मेहिनाम्।
अष्टादशमु मेहेषु कर्तव्या औषधक्रियाः॥
पापवारे सतिष्यांशे पापराश्युदये नृणाम्।
पापदृष्टे क्रियां कुर्यात् औषधं कण्ठरोगिणाम्॥
साधारणाख्यनक्षत्रे चक्रग्रहनिरीक्षिते।
…. वर्ज्येतिथौ कुर्यादौषधं राजयक्ष्मणः॥
उग्रयोगेषु कर्तज्यं भैषज्यं दीर्घरोगिणाम्।
श्वित्रे क्षये च गुल्मे च अपस्मारे ज्वरेषु च॥
शूलविद्धे चरे लग्ने भैषज्यं शुभमिच्छताम्।
अनुक्तकालानां भैषज्यक्रियाकालश्च अन्यत्रोक्तः—
नक्षत्रेषु मुहूर्तेषु राशिष्वंशेषु भुक्तिषु।
अधोमुखेषु सर्वेषु रिपुनीचस्थितेषु च॥
ग्रहेषु ग्रहणान्ते च सायाह्नेदिवसक्षये।
विनाशांशे विनाशर्क्षे लग्नाष्टमदिनेषु च॥
विपत्प्रत्यरपातेषु गुलिके क्ष्वेलकेऽपि वा।
अष्टपर्वणि रिक्तायां विष्ट्यां च क्रूरवासरे।
भैषज्यं परिशेषेण पापयोगे शुभायुषाम्।
उभये तत्समं प्रोक्तं चरे चन्द्रदिवाकरौ॥
यदि युक्ता स्थिरे नैव कर्तव्यं व्याधिशान्तिदम्।
क्षिप्रर्क्षे च चरर्क्षेच चरराशौ चरांशके॥
सर्वव्याधिप्रशान्त्यर्थं भेषयेत् स्नापयेच्च तत्।
अपचारादिरोगाणां एवं शान्तिप्रदाः …॥
कर्तव्याः प्रोक्तकालेषु मन्त्रौषधविशारदैः।
विपरीताख्यविष्ट्यां च कर्तव्यं शुभमिच्छता॥
औषधं नासिकायां वा अमृताख्ये विषात्परे।
इति। अनुक्तपौष्टिकरसायनादीनां कालमाह—
** लग्ने शुभग्रहगृहे शुभयुक्तदृष्टे क्षिप्रे स्थिरे मृदुनि भे शुभवासरे च।योगे शुभे शुभतिथौशुभतारकायां पुष्ट्यर्थमौषधमुशन्ति रसायनाद्यम्॥**
क्षिप्रे स्थिरे मृदुनि वा शुभाख्ये नक्षत्रे शुभवारे शुभग्रहराशौशुभयुक्तेक्षिते पुष्टयर्थं पौष्टिकं रसायनाद्यमौषधं; तथा शुभनक्षत्रे शुभतिथौ शुभयोगे वा पौष्टिकं रसायनाद्यमौषधं ग्राह्यमिति वदन्ति। अयमेकएव योगो वा; एवं योगद्वयं वा। यथाऽऽह गुरुः—
शुभर्क्षे शुभवारे तु शुभनक्षत्रसंयुते।
आरोगणस्तु पुष्ट्यर्थं कुर्यादौषधमुत्तमम्॥
शुभयोगेषु वारेषु शुभतिथ्यंशके शुभे।
शुभग्रहोदयेक्षायां रसायनमुदाहरेत्॥
इति। योगान्तरमुक्तम्—
बुधजीवसितार्क्याख्या यदैकांशसमायुताः।
लग्ने यदि तदा नॄणां सोऽयं रसभुजां शुभः॥
अन्येऽपि योगाः—
शुभग्रहयुते लग्नेषष्ठे च शुभसंयुते।
चन्द्रे शुभक्रियायुक्ते कुर्यादौषधमृद्धिदम्॥
इति। अन्येऽपि—
मन्दांशे मन्दलग्नेच मन्ददृष्टियुतोदये।
मन्दराशौ क्रियां कुर्यात् शिरसः कार्ष्ण्यसिद्धये॥
किंच—
विशल्यकरणादीनां मृतसंजीवनादिषु।
सन्धानकरणादीनामपि कालाद्विना फलम्॥
इति। रोगान्तस्नानकालमाह—
स्वातीदस्रविधूत्तराम्बुजभुवो रोगावसानोचितस्नाने भार्गवजीवशीतमहसां वाराः प्रशस्ताःस्मृताः। भूतेशत्रिदशेन्द्रयाम्यफणभृत्पूर्वा मखाकृत्तिकाः पापानां दिवसाश्चनिन्दिततमाः ताराःपरा मध्यमाः॥५१॥
स्वात्यादयः सप्त ताराः शुक्रगुरुचन्द्राणां वाराश्च रोगिणांरोगावसानोचिते आरोग्याख्ये स्नाने श्रेष्ठाः। आर्द्राज्येष्ठाभरण्याश्लेषात्रिपूर्वामघाकृत्तिकाः नव ताराः पापवाराश्च पापानां दिवसाश्च—निन्दिततमापौनःपुन्येन रोगप्रदा इति निन्दिततमा उक्ताः। परास्तदन्यास्तिष्यादिःतिहस्तचित्राशूर्पमैत्रमूलश्रवणवसुवारुणरेवत्यो मध्यमा एकादश ताराःभवन्ति। अत्र गुरुः—
त्रिषूत्तरेद रोहिण्यां वायुसोमाश्विभेषु च।
गुरुशुक्रेन्दुवारेषु स्नातो नीरोगतामियात्॥
शिवशक्राहियाम्याग्निमधापूर्वात्रयं तथा।
पापवारयुता योगाः पौनःपुन्यसमाह्वयाः॥
एषु भैषज्यरोगान्तस्नानशावव्रतान्यपि।
पुनर्गृह्णाति तस्मात्ता वर्जयेत्तेषु शोभनम्॥
इति।पारास्तारा एकादश अदितितिप्यहस्तचित्राशूर्पमैत्रमूलश्रोणाधनिष्ठा वारुणरेवत्यः स्नाने मध्यमाः। अन्ये त्वाहुः—
विशाखा रुद्रतारा च वाजिभात्रितयं गुरुः।
चान्द्रं कालद्वये पूर्वफग्गुनी शुभदा सदा॥
रिक्ताष्टमीषु दर्शाख्ये नीरोगी स्नानमाचरेत्।
बुधजीवकुजानां तु वारवर्गोदयाःशुभाः॥
पुनर्वसुपौष्णभे वर्ज्ये इति श्रीपतिः। तथा चोक्तम्—
इन्दोर्वारे भार्गवे च ध्रुवेषु
सार्पादित्यस्वातियुक्तेषु भेषु।
पित्र्ये चान्त्ये चैव कुर्यात् कदाचित्
नैव स्नानं रोगनिर्मुक्तजन्तुः॥
इति। अनेन स्वात्युत्तरारोहिण्यो रोगान्तस्नाने प्रशस्तत्वेनात्रोक्ताः; ताएव तत्र वर्ज्याः श्रीपतिनोक्ताः इति विरोध आपतति, विषयभेदान्नेतिब्रूम। तथा ह्यत्र स्वात्यादय सर्वरोगान्तस्नानेषु शस्ताः इत्यविशेषेणोक्ताः। श्रीपतिना तु कुष्ठमसूरिकात्रणापस्मारादिरोगान्तस्नाने वर्जनीयत्वेन विशेषेणोक्ता इति विभागःकार्यः। तत्र क्रूरर्क्षादीनां ग्राह्यत्वश्रवणात्। तथाचाहुः—
क्रूराष्टर्क्षक्रूरवरांशलग्ने
रिक्ता षष्ठी द्वादशी वा यदि स्यात्।
रोगार्णादिध्वंसनं तत्र कार्य
रोगान्मुक्तः स्नानमप्यत्रकुर्यात्॥
इति। नन्वेतदपि कुष्ठादिरोगान्तस्नानविषयं न भवितुमर्हति। रोगा-
न्मुक्त इत्यविशेषाभिधानात् इति चेत्, न, कुतः; ज्ञापकादिति ब्रूमः। किंतत् “उग्रयोगेषु कर्तव्यं भैषज्यं दीर्घरोगिणाम्’ इति गुरुवचनम्।योगान्तराण्याह—
** नक्षत्रे तु चरे विधौ चरगृहे स्वांशे चरांशोदये रिक्तायां रविपुत्रजीवदिनयोर्गद्वा व्यतीपातके। सर्वव्याधिशमाय सद्भिरुदिता स्नानौषधप्रक्रियाकालोऽसावृणमोचने च सदृशः शावव्रतोत्सर्जने॥॥**
** **चरांशके नक्षत्रे स्वांशे चरांशे वा चन्द्रे स्थिते चरराशौ चरांशेच लग्ने सत्येको योगः।अत्र तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। तेन क्षिप्राख्येच नक्षत्रे चरराशौ लग्ने चरांशे अन्यो योगः।मन्दजीवदिवसे तदंशे चरिक्तायां च तिथौ तयोः स्वांशोदये अपरो योगः।स्वांशे नक्षत्र इत्यनुवर्तते। तेन मन्दजीवांशकनक्षत्रे चेति शेषः। यद्वा व्वतीपातके योगेअपरो योगः। एषु योगेषु सर्वव्याधिशान्तये स्नानौषधप्रक्रियां स्नानंरोगान्तस्नानं आरोग्याख्यं औषधं पानलेपाशनादि तयोः प्रक्रिया आरम्भःसा उदिता गुर्वादिभिरित्यर्थः। गुरुः—
चरभेस्वांशके चन्द्रे चरराश्यंशकोदये।
भैषज्यं रोगनाशाय कारयेत् स्नापयेच्च तम्॥
क्षिप्रर्क्षे च चरर्क्षे च चरराशौ चरांशके।
सर्वव्याधिप्रशान्त्यर्थं भेषयेत् स्नापयेच्च तम्॥
गुर्वार्क्यंशकनक्षत्रे गुरोर्वार्किदिने यदि।
तद्दिनेशांशके रिक्ते रोगिणां च प्रतिक्रियम्॥
अपि च—
गुरूदयांशवाराणां रिक्तायोगोऽर्कजस्य वा।
कुर्यात्तद्दृष्टिलग्नेवा रोगर्णादिप्रतिक्रियाम्॥
व्यतीपाते क्षये दाने व्यतीपाते च रोगिणाम्।
स्नानभैषज्यर्योयोगःशत्रूणां च प्रतिक्रिया॥
मन्दवारादि मध्यमित्यन्ये—
मध्यमं मन्दवारादि स्नाने स्यान्मुक्तरोगिणाम्।
चन्द्रभार्गवयोर्वारवर्गलग्नांश्च वर्जयेम्॥
इति। स्थिरराशयो वर्ज्याः। यत उक्तम्—
पौनःपुन्यं स्थिरे स्वर्क्षवारांशकादिषु।
अपिच—
चरस्थिरोभयर्क्षेषु श्रेष्ठं मध्यं तथाऽधमम्।
शुभानां(?) श्रेष्ठा इति केचित् प्रचक्षते
इति। असौ—रोगप्रतिक्रियायामुक्तःकालःऋण मोचने ऋणमोक्षेशावव्रतोत्सर्जने च सदृशः। गुरुः—
ये योगाश्चोदिता रोगे ते शावव्रतसर्जने।
ऋणादिशान्तये चैव चोदिता मुनिसत्तमैः॥
इति। अत्रान्ये चेदृशा योगा गुर्वादिभिरुक्ताः। यथा—
वारुणार्द्राश्रविष्ठासु क्रिया कर्क्युदये यदि॥
आरार्क्यर्काहिसंदृष्टे रोगर्णादिप्रतिक्रिया।
यदैकांशे विलग्नस्थौ मन्दकेतू कुजध्वजौ॥
रोगर्णादिविनाशाय योगयुग्मे प्रतिक्रिया।
एकाङ्गगेषु चन्द्रार्ककुजज्ञेषु प्रतिक्रिया।
चन्द्रेमन्दांशगे लग्नेतुङ्गमित्रस्वभान् विना।
ऋणरोगादिनाशाय कुर्यादत्र प्रतिक्रियाम्॥
केतौ भौमांशगे लग्नेमुखपुच्छविवर्जिते।
शत्रुनाशनयोगोऽयमृणरोगविनाशनः॥
भौमे मन्दांशगे लग्ने तुङ्गमित्रस्वभैर्विना।
विषनाडी समायोगे कुर्याच्छत्रुविनाशनम्॥
विधिरत्ने—
मैत्रदस्रांशगे चन्द्रे लग्नेमैत्रमुहूर्तगे।
अल्पदानादृणं नश्येच्छत्रुयोगोऽतिमित्रदः॥
भौमसूर्यार्किवारेषु सरिक्तेगुलिकोदये।
किंचित् दद्यात् ऋणं नष्टं शत्रुनाशं तदा स्मरेत्॥
इन्द्वारबुधजीवानां एकांशस्थं यदोदयम्।
तदा रिपुबले कुर्यात् मरणाद्यं विचक्षणः॥
इति।
शुभांशकगते चन्द्रे शुभर्क्षेशुभवीक्षिते।
भवारिभ्रातृगे पापे स्वामिदर्शनमुत्तमम्॥
दशायगेऽथवा पापे शुभे लग्नेऽर्थगेऽपि वा।
चन्द्रे वा रन्ध्रगे योगे स्वामिदर्शनमुत्तमम्॥
स्थिरादिभेषु कृत्यान्याह—
** कार्येस्थिरे स्थिराख्यं क्षिप्रे क्षिप्रं चरे चरंकुर्यात्। मृदुनि मृदून्यत्युग्राण्युग्रे तीक्ष्णे चदारु(मार)णादीनि॥५३॥**
** **स्थिरे नक्षत्रगणे स्वात्युत्तरारोहिणीषु स्थिराख्यं कर्म पुरग्रामगृहारम्भप्रवेशविवाहपट्टबन्धक्षेत्रोद्यानवापादि कार्यं स्यात्। पुष्ये भगणे पुष्याश्विहस्ताभिजित्सु क्षिप्रं कर्म विद्यागजाश्वशिक्षाक्रयविक्रयदूतलेख्यादिकुर्यात्। चरे भगणेश्रवणत्रयस्वात्यादित्येषु चरं कर्म यात्राशिल्पसेवावाणिज्यनौशकटारोहादि सर्वंचलात्मकं कुर्यात्। मृदुनि भगणे मैत्र-
चित्रासौम्यपौष्णेषु मृदुकर्म चौलोपनयनवस्त्रभूषणशान्तिकपौष्टिकमङ्गलगृहप्रवेशादि कुर्यात्। उग्रे भगणे त्रिपूर्वामघायाम्येषूग्राणि कर्माणिदहनबन्धनमारणविषदानसङ्ग्रामदासीदासादीनामधिकारादीनि कुर्यात्।तीक्ष्णे भगणे ज्येष्ठामूलाऽऽर्द्राऽऽश्लेषासु दारुणादीनि मायामन्त्रयन्त्रास्त्रशिक्षापरदारगमनचौर्यसाहसादीनि क्रूरकर्माणि कुयात्। चशब्दात् तीक्ष्णयोरपि कृत्तिकाविशाखयोरपि साधारणं कर्म हेमरूप्यताम्रत्रपुसीसलोहकांस्यचुल्लीभाण्डकुण्डादीनि कर्माणि कुर्यात् इत्युक्तं भवति।एतत् प्रागेव संज्ञाध्याये प्रपञ्चितमाचार्येण। तत्र भानां संज्ञामात्रकथनात् अत्र तत्संज्ञाऽनुगुणं कर्म तेषु कुर्यादित्युक्तं; न पौनरुक्त्यप्रसङ्गः। अथवा स्थिरे वर्गे तिथिवारग्रहराश्यंशादौ स्थिरकार्याणि कुर्यात्। क्षिप्रे वर्गे क्षिप्रकार्यामित्यादि नेयम्। तिथिवारग्रहादीनां स्थिरादिसंज्ञा संज्ञाध्याये मया प्रदर्शिता। अन्तरङ्गबहिरङ्गनक्षत्रकृत्यान्याह—
यदात्मनीनं शुभमन्तरङ्गे तद्भे विदध्यादशृभं तु बाह्ये। सप्रेतकायं च पराभिचारविद्वेषणोत्सादनपूर्वकं यत्॥५४॥
यत्कार्यमात्मनीनं—आत्मने हितं–शुभं–पौष्टिकं शान्तिकं मङ्गल्यंच तदन्तरङ्गबहिरङ्गनक्षत्रे कुर्यात्। तच्छुभफलमात्मन एव स्यात्, यत्पुनःपराभिचारविद्वेषणोच्चाटनस्तम्भनमोहनादिकं; प्रेतकार्येण–परेतानां दाहसंचयैकोद्दिष्टश्राद्धादिनां सपिण्डीकरणश्राद्धान्तेन संस्काररूपेण कर्मणासहितं शुभं–रोगर्णादिप्रतिक्रियारूपं कर्म तद्बहिरङ्गनक्षत्रे कुर्यात्।तत्फलं परस्य भवति नात्मनः। रोगर्णयोः प्रतिक्रिययो स्वस्य तच्छान्तिरेवस्यात्।
अथ श्राद्धकालमाह—
** श्राद्धेष्विन्दुमुकुन्दतिष्यवसवः पूर्वात्रयं वारुणंचित्रामित्रयमाश्विमारुतमघाहस्ताः प्रशस्ताः स्मृताः।मन्देन्द्वोर्दिवसौ शुभावशुभदौ भौमस्य तेमध्यमाः शेषाणां भृगुनन्दनोदयदिनक्षेत्रांशकादींस्त्यजेत्॥५५॥**
श्राद्धेषु पैतृकेषु मृगशीर्षादिपञ्चदश ताराः शस्ताः। तथाचगुरुः—
हस्तश्चित्राश्रविष्ठा च स्वाती मैत्राश्वियाम्यभाः
सौम्यवैष्णवतिष्याश्च . . . . .॥
एतान्येव पूर्वात्रययाम्यवर्जितानि एकादश भानि प्रेतश्राद्धेषु ग्राह्याणि।तथाच वसिष्ठः—
हस्तश्चित्राश्रविष्ठे च स्वाती श्रवणमाश्विनः
मघा मैत्रं च पुष्यश्च वारुणं सोमदैवतम्।
एकादशैते कथिताः प्रशस्ताः प्रेतकर्मणि
सुखाय सम्भवन्त्येते नराणां योगसम्पदा॥
इति। अन्येतु श्राद्धेष्वेकतारानक्षत्राण्याहुः—
**एकतरासु नक्षत्रे त्रिपूर्वासु च केचन।
इच्छन्ति मुनयः श्राद्धं नान्यतारासु शोभनम्॥ **
इति। पैतृके प्रेतके च श्राद्धे शनिसोमयोर्वारौ शस्तौ। भौमशुक्रयोर्वर्ज्यौ।शेषाणां सूर्यजीवबुधानां वारा मध्यमाः। अत्र गुरुः—
**मन्देन्दुदिवसौ श्रेष्ठौ सूर्यवारस्तु मध्यमः।
अधमो भौमवारस्स्यात् न श्राद्धं निशि भोजनम्॥ **
शुक्रस्योदयवारराशिनवांशककालहोराद्यास्त्याज्याः। तथाचाऽऽहुः—
शुक्रवारोऽपि वर्ज्यःस्यादस्य(?) ऋक्षग्रहेक्षणाः।
कालहोरांशकादींश्च शावे शुक्रस्य वर्जयेत्॥
इति। अत्र शुक्रवारस्यैव विशेषतो वर्ज्यत्वकथनात् पारिशेष्येण गुरुज्ञवारौ मध्यावित्युक्तमाचार्येण।
नन्वत्र ‘शावे शुक्रस्य वर्जयेदिति’ शुक्रवारस्य प्रेतकार्येष्वेववर्ज्यत्वं न पैतृके इति; नैतदभिमतं, शुक्रवारस्य पिण्डदानमात्रे निषेधदर्शनात्—
नन्दायां भार्गवदिने चतुर्दश्यां त्रिजन्मसु।
पिण्डदानं न कर्तव्यं कुलक्षयकरं हि तत्॥
इति। अपि च—
सर्वथा सर्वकार्येषु भार्गवोस्मिन् क्रियाविधौ।
गर्हितः पूजितः सौरिः ग्रहाणां तु विशेषतः॥
इति। शुक्ले तदनन्तरं—
शुक्लाष्टम्याः परं तेषां निशाख्या बहुलाष्टमी।
इति। अथ श्राद्धकालयोगा मुनिभिरुक्ताः केचनोपदिश्यन्ते—
नभस्यमासे संप्राप्ते कृष्णपक्षे समागते।
तत्र श्राद्धं प्रकुर्वीत सकृत् द्वादशवार्षिकम्॥
विशिष्टदिवसे कर्तुश्चन्द्रताराबलान्विते।
नन्दाख्यास्तिथयो निन्द्या भूतायां शस्त्रघातिनाम्॥
द्वितीया मध्यमा ज्ञेया तृतीया भरणीयुता।
पूज्या यदि चतुर्थी वा श्रीप्रदा पितृकर्मणि॥
आनन्दयोगं पञ्चम्यां पादर्क्षस्थे निशाकरे।
भोजयेद्यः पितॄंस्तत्र पुत्रपौत्रधनं लभेत्॥
यशस्करी सप्तमी स्यादष्टमी भोगदायिनी।
श्राद्धकर्तुश्च नवमी सर्वकामफलप्रदा॥
कन्याकुम्भगते सूर्ये कृष्णपक्षे विधीयते।
पञ्चम्याः परतः सर्वा वर्जयित्वा चतुर्दशीम्॥
इति।
कन्यागते रवौ पुष्ये नक्षत्रे तिथिभिर्युते।
दशम्याद्यैस्त्रिभिः पापवारैर्योगः पित्रुत्सवः॥
कन्यायां भास्करे मासि नमस्येऽस्य त्रयोदशी।
पितृभेन युता चेत्तत् पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
पित्र्ये विधौ त्रयोदश्यामर्के हस्तगते तदा।
योगोऽयं कुञ्जरच्छाया पितॄणां श्राद्धदोऽनृणः॥
असिते प्रोष्ठपान्मासि पक्षे चित्रादि भत्रयम्।
द्वादश्यां वा त्रयोदश्यां सा छाया कुञ्जराह्वया॥
नभस्यकृष्णपक्षे तु द्वादश्यां पितृभं यदि।
सार्पं वाऽथ दशम्यां तु पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
माघे मास्यसिते पक्षे द्वादशी वा त्रयोदशी।
वैश्वादिभत्रयैर्युक्ता सा छाया कुञ्जराह्वया॥
भानौ कुम्भगते माघे मासि कृष्णचतुर्थ्यपि।
हस्तादितिभसंयुक्ता पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
नभस्यासितपक्षस्य द्वितीया यदि याम्यभे।
तृतीया चार्किवारेण सहिता पितृतृप्तिदा॥
उपरागे यदाऽर्केन्द्वोःतदा छाया गजाह्वया।
सप्तमी कृष्णपक्षस्य सूर्यवारसमान्विता॥
अमावास्येन्दुवारेण चतुर्दश्यारवारगा।
खरच्छायेति विज्ञेया पितॄणां तृप्तिदा सदा॥
कृष्णपक्षे तु माघस्य मैत्राद्यत्रयभेषु च।
तिथयः सप्तमीपूर्वाः पितृणां तृप्तिदाः सदा॥
एषु ज्येष्ठाष्टमीमुख्या तिसृष्वप्यष्टकासु च।
नवम्या सहिता ज्येष्ठा विशेषात् पितृतृप्तिदा॥
माघे नभसि यन्मासिमासि तद्भास्करे युते।
कुम्भ पाथोनराशौ च क्रमात् समगते वदेत्॥
इति। इदमत्राभिहितं—पैतृकेषु भृगोर्वारर्क्षोदया वर्ज्या एव। प्रेतकार्येषु कालहोरांशकद्रेक्काणाश्च वर्ज्यन्ते। अंशकादयश्चन्द्रेणाधिष्ठिताः।यथाऽऽह वसिष्ठः—
द्रेक्काणांशकहोरासु शुक्रस्य रजनीकरः।
यदि तिष्ठति नेच्छन्ति प्रेतकर्म विचक्षणाः॥
इति। अपि च—
नक्षत्राण्यशुभान्याहुः आस्थितानि शुभग्रहैः।
वर्जयेत्तु विशेषेण शुक्रेणाध्युषितं तु भम्॥
इति।
अंशकेक्षणहोरास्तु शुभानां परिवर्जयेत्।
पापदृग्युतवर्गाद्याः शस्ताः। गुरुः—
स्थिरक्षेत्रे न शस्ता स्स्युरुभया मध्यमास्तथा।
चरास्तथाऽतिशस्तास्स्युश्चरेष्वपि च पैतृके॥
राशयश्शुभदास्सर्वे पापदृष्टयुता अपि।
भृगोरिति तुला नेष्टाःकैश्चिच्छेषास्तु शोभनाः॥
इति। गार्ग्यः—
मुहूर्ताश्च समाख्याता नक्षत्रसदृशा गुणैः।
यथा तिथिस्समाख्याता करणाश्च शुभाशुभाः॥
इति। अथ तिथीराह—
** षष्ठ्यादयोऽनभिहिताः दश शुक्लपक्षे मध्याःस्मृताः प्रमुखतो बहुलस्य पञ्च।श्राद्धे पराःपरिपठन्ति तिथीः प्रशस्ताः नन्दां सदा परिहरन्तिचतुर्दशीं च॥५६॥**
** **श्राद्धे शुक्लषष्ठ्यादयो राकान्ता दश तिययो नेष्टाः। ततः कृष्णप्रतिपदादयः पञ्च तिथयो मध्यमाः स्युः। अन्यास्तिथयः कृष्णषष्ठ्यादिशुक्लपञ्चम्यन्ताः पञ्चदश प्रशस्ता भवन्ति। तासु शुक्लां कृष्णां च नन्दांचतुर्दशीं च श्राद्धे त्यजन्ति। शस्त्रादिहतानां चतुर्दश्यां कुर्वन्ति। तथा च स्मृतिः—
वृक्षारोहणलोहाद्यैःविद्युत्ज्वालाविषादिभिः।
नखिदंष्ट्रिविपन्ना ये तेषां शस्ता चतुर्दशीं॥
‘अपरपक्ष ऊर्ध्वं चतुर्थ्याः पितृभ्यो दद्यादिति’ वसिष्ठस्मृतिः। अन्येत्वात्ययिके पौर्णमासीं विहाय सर्वास्तिथयो ग्राह्या इत्याहुः। तथा चगार्ग्यः—
पौर्णमास्यां न कुवीत शेषं कुर्याद्विचक्षणः।
इति । गुरुश्च—
निशार्धं पौर्णमासी स्यात् मध्याह्नः स्यात् कुहूर्विधौ।
कुतपाख्यः शुभः कालो नृणां प्रोक्तो दिनार्धजः॥
अमावास्यातियामा स्यात् कुतपः पैतृकस्तयोः।
योगोऽतिशोभनो नॄणां श्राद्धकर्मणि पैतृके॥
इति। य अपिच। कृष्णाष्टम्याः परं पित्र्यमहः।महालयश्राद्धं तु सूर्येकन्यास्थ एव कार्यमिति केचित्। तथाच गुरुः—
कन्यां गतो यदाऽऽदित्यः पितृभिः सह गच्छति।
शून्यं प्रेतपुरं तावत् यावत्तु तुलदर्शनम्॥
तुलायां तु रवौ प्राप्ते निराशाः पितरो गताः।
ततः स्वभवनं यन्ति शापं दत्वा सुदारुणम्॥
इति। अन्ये च श्राद्धकालाः स्मृतिषूक्ताः यथा—
अमावास्याष्टका वृद्धिः कृष्णपक्षोऽयनद्वयम्
द्रव्पब्राह्मणसम्पत्तिर्विषुवत्सूर्यसङ्क्रमः।
व्यतीपातो गजच्छया ग्रहणं चन्द्रसूर्योः
श्राद्धं प्रतिरुचिश्चैव श्राद्धकालाःप्रतिकीर्तिताः॥
तत्र ‘हेमन्तशिशिरयोश्चतुर्णामपरपक्षाणामष्टमीष्वष्टका’ इति शौनकः। मन्वादयो युगादयश्च श्राद्धकालाः। अथ यदुक्तं स्मृतिषु—
नन्दायां भार्गवदिने कृत्तिकासु मघासु च
भरण्यां भानुवारे च गजच्छायाह्वये तथा।
अयनद्वितये चैव युगादिषु चतुर्ष्वपि
पिण्डदानं मृदा स्नानं न कुर्यात्तिलतपर्णम्॥
इति। तत्तु(?) पितृवक्त्रादियोगेद श्राद्धं कार्यं। तेषां लक्षणमुक्तं ज्योतिषार्णवे—
क्रूरोदये तथाऽस्ते वा शेषेष्वन्ये तथाऽष्टमे।
पिगृवक्त्रमिति ख्यातं पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
इति।
मूर्तिस्थे तु यदाङ्गारे कामस्थाने शनैश्चरे
अष्टमेषु तथाऽन्येषु छायेयं स्यात् गजस्य तु।
मन्दोदये स्मरेऽङ्गारे चन्द्रे चैवाष्टमस्थिते
द्वादशेषु तथाऽन्येषु यागोऽयं स्यात् गजाह्वयः॥
शकटाख्यस्तथा योगः पितृकल्याणकारकः।
एषु शुभकर्माणि वर्ज्यानि—
पितृक्त्रगजच्छायागजेषु शकटेऽपि च।
शुभानि शुभकार्याणि वंशनाशाय सर्वदा॥
इति। वर्ज्यनक्षत्राण्याह पद्यार्धेन
भार्यापुत्रसमन्वितस्य नियमान्नेच्छन्ति जन्मत्रयं कर्तुः स्वस्य च सङ्कृतित्रिघनभे त्याज्ये स्थिरर्क्षाणि च॥५७॥
पत्नीपुत्रसहितस्य कर्तुः जन्मत्रयं नेष्टम्। अत्र यजमानस्य ज्येष्ठपत्न्याः ज्येष्ठपुत्रस्य च त्रिजन्मभानि त्याज्यानि। तयोरेवाधिकारात्।यजमानस्य स्वस्य चतुर्विशसप्तविंशे च नक्षत्रे त्याज्ये। स्थिरनक्षत्राणि चत्वारि वर्ज्यानि। तथाच गुरुः—
कर्तुजन्मत्रयं वर्ज्यंदारसून्वोस्त्रिजन्म च।
चतुर्विंशतिभं कर्तुः सप्तविंशतिभं तथा॥
तत्फलं चोक्तम्—
स्वामिनो जन्मनक्षत्रे कर्तुर्वाऽस्तं समेयुषि
अग्निं पिण्डोदकं वाऽपि तस्य तस्याचिराद्भवेत्॥
इति। ननु यथा शुभेषु विपदाद्यनिष्टर्क्षपापवर्गेषूदयादिदोषाः वर्ज्यन्ते; अत्रापि तथा वर्ज्यास्स्युरित्याशङ्क्यपद्यार्धेन परिहरति—
नक्षत्रं विपदादिकं च यदसद्वर्गापराह्णादिकं यच्चान्येषु शुभेषु दृष्टमिह तत्तत्सर्वमिष्टं स्मृतम्॥
विपत्प्रत्यरवधवैनाशिकनक्षत्राणि चकारादष्टमद्वादशाद्यनिष्टराशयः पापषड्वर्गापराह्णकृष्णपक्षविष्टिगुलिकसग्रहादयो ये दोषाः; अपिचाऽ
न्येषु शुभकर्मसु दुष्टा व्यतीपातसङ्क्रमायनविषुवमन्वादियुगादिसूर्येन्दुग्रहाः शून्यदग्धविद्धादयो ये दोषाः; इह श्राद्धकर्मणितेते सर्वे इष्टा स्मृताः। येये शुभकर्मसु शस्ताः शुभोदयादयस्ते सर्वे श्राद्धेषु वर्ज्याः। तथा चोक्तम्—
नक्षत्राष्टमराशौ वा विपत्प्रत्यरनैधने।
तथा वैनाशिकं श्रेष्ठं कर्तव्यं सर्वथा भवेत्॥
न ग्राह्यं शुभकार्येषु दिवसं दोषसंयुतम्।
प्रशस्तं प्रेतकार्येषु तथैव भवनादयः॥
श्राद्धे च शावे क्षौरे च शुभाःकालाःन शोभनाः।
इति।
पूर्वाह्णेन प्रशस्तं स्यात् मध्याह्ने मध्यमं भवेत्।
उत्तमं चापराह्णेस्यात् कुतपश्चोत्तमोत्तमः॥
सन्ध्याद्वयं च रात्रिश्च विवर्ज्याःप्रेतपैतृके।
यदि वा स्याद्दिवारम्भः शेषं सा साधयेन्निशि॥
सङ्क्रान्तिग्रहणादिनिमित्तेषु पैतृकेषु पूर्वाह्णादयः शस्यन्ते। यत उक्तं विधिरत्ने—
अनिमित्तेषु पूर्वाह्णेसन्ध्ययोर्निशि वर्जयेत्।
इति।
जन्मराश्युदयो नेष्टः शुभयोगे च पुष्कले।
चन्द्रोदये चास्तमये बलवच्छुभवीक्षिते॥
तथा ग्रहणां सर्वेषां शुभानामुदयास्तयोः।
विद्वद्भिर्नेष्यते कैश्चित् पापानां तु शुभायते॥
चन्द्रजीवज्ञदैत्यानामुदयेषु विचक्षणाः।
वर्जयन्ति चितारोहं प्रेतस्याग्र्युदकार्पणम्॥
भौमसूर्यजसूर्येषु चतुष्टयगतेषु च।
पिण्डनिर्वापणं श्रैष्ठमिति गार्ग्यस्य शासनम्॥
वर्गोत्तमगते चन्द्रे तथा वर्गोत्तमोदये।
प्रेतकार्यं विवर्ज्येत नृणां शोभनमिच्छताम्॥
चन्द्रद्वये बलिर्नैव देयः प्रेतस्य शान्तये।
यदि दद्यात् द्विचन्द्रेऽन्नं दातुः कुलविनाशनम्॥
पूर्णिमासी यदा विद्यात् मध्ये प्राप्तदिनस्य तु।
इन्दुद्वयं तदा न स्यादतिक्रान्ते च दोषकृत्॥
अन्यैरुक्तम्—
जीवोदये स्मरे चन्द्रे त्रिषडायेष्वसद्ग्रहे।
शुक्रे ज्ञे वा चतुर्थस्थे योगोऽयं स्यात्रिपुष्करः॥
शुभकर्म तदा कुर्यात् हेयं मासादिकं तथा।
शुभकर्मणियदिष्टं श्राद्धेषु तद्दुष्टमित्येतद्योगान्तरमुदाहृत्य स्पष्टयति—
खद्यूनयोर्गुरुसिताविन्दुर्बन्धुसुतात्मसु। यदा तदा कृतं श्राद्धं कुटुम्बक्षयकारकम्॥५९॥
यदा श्राद्धकाले दशमे गुरुः सप्तमे शुक्रः चतुर्थपञ्चमलग्नेषु चन्द्रस्थिष्ठति तदा कृतं श्राद्ध पिण्डदानादि कर्तुः कुटुम्बनाशकृत् भवति। तथा च गार्ग्यः—
शुक्रबृहस्पतिसप्तदशस्थौ लग्नचतुर्थसुतस्थितचन्द्रे।
प्रेतकार्यं कृतं मनुजानां सर्वकुटुम्बविनाशनमेतत्॥
इति। अयं योगः प्रेतश्राद्धे महालयश्राद्धे पैतृके च समः।प्रेतश्राद्धादिषु यो विशेषस्तमाह—
शूर्पादित्यहिमूलयाभ्यहुतभुक्पौष्णप्रजेशोत्तराः
प्रेतश्राद्धविधौ पुनर्मरणदास्तिस्रश्च पूर्वास्तथा। ग्राह्यामापदि तारकां सुरपतेर्गाग्यो मुनिर्गीतवान् ग्राह्यं रुद्रभमष्टकास्वकथयत्पाथोनगेऽर्के गुरुः॥
प्रेतश्राद्धकर्मणिविशाखादीन्येकादश भानि; पूर्वात्रयेण चतुर्दश भानि पुनर्मरणदान्यतो वर्ज्यानि। आर्द्राज्येष्ठे च वर्ज्येइति वसिष्ठः—
पौष्णमादित्यमैन्द्राग्रं रोहिणत्रियमुत्तराः।
आवहेयुरदूरेण पुनर्मरणमेव वै॥
आग्नेयमार्द्रा सार्पं च तिस्रः पूर्वाश्च नैर्ऋतम्।
ज्येष्ठा च भरणी चात्र निन्दितास्तत्वदर्शिभिः॥
इति। अत्र भरणी ग्राह्येति केचित्। तथाच वसिष्ठः—
प्रेताधिपतिदैवत्वात् भरणी कैश्चिदिष्यते।
इति। आपदि प्रेतश्राद्धे ज्येष्ठाऽपि ग्राह्येति गार्ग्यः उक्तवान्। अष्टकासु महालयादिषु श्राद्धेषु सूर्ये कन्याराशिस्थे आर्द्रा ग्राह्येतिगुरुरुक्तवान्॥
पाणेनगे रवौरौद्रे नक्षत्रे तिथिभिर्युते।
सप्तम्यादित्रिभिर्योगः पितृकल्याणसंज्ञितः॥
इति। तेषु त्रैपक्षिकषाण्मासिकसांवत्सरिकेषु त्रिषु विधानकालमाह—
प्राणात्ययादिषु विलोचनतर्कसूर्यमासेषु रुद्रसमिदष्टिमितेष्वहस्सु। श्राद्धं तदादिषु तु पञ्चसु वा विधेयमिष्टे मृतस्य नुरहन्यशुभे च कर्तुः॥६१॥
प्रेतस्य प्राणोत्क्रान्तिमासानादारभ्य द्वितीयतृतीयषष्ठद्वादशमासेषु क्रमादेकादश एकविंशषोडशसङ्ख्यदिनेषु तदादिषु पञ्चसु वा प्रेतस्येष्टे कर्तुरनिष्टे दिने काले च श्राद्धं दद्यात्। एतदुक्तं भवति—
उत्क्रान्तिमासात् द्वितीयमासे तत्तद्दिनात्परमेकादशेऽह्निततः परं पञ्चदिनेषु वा विषमे दिने त्रिपक्षाख्यं श्राद्धं कार्यम्। तथा षष्ठे मास्येकविंशादिपञ्चदिनेषु षण्मासाख्यं, द्वादशे मासि षोडशादिपञ्चदिनेषूनसंवत्सराख्यं कुर्यात्। गुरुः—
त्रिपक्षे द्वादशे पक्षे चतुर्विंशे तथैव च।
पक्षत्रिपक्षकं कुर्यात् अन्त्ये मध्ये तथाऽऽदितः॥
इति। प्रेतश्राद्धेषु सर्वेषु विषमदिनं ग्राह्यम्। यथाऽऽहुः—
दिनसङ्ख्या न युग्मा स्यात् शोभना ब्राह्मणेष्वपि।
ओजाः सर्वत्र संपत्त्यै प्रेतके पैतृकेऽपि च॥
इति। अपि च—
दशाहे समतिक्रान्ते विषमाहः प्रशस्यते।
तत्काले अकृतसंस्कारस्य प्रेतस्यास्थिशावादिपुनर्दहनकर्मणि कालविशेषो नारदेनोक्तः—
चतुर्दशीतिथिं नन्दां भद्रां शुक्रारवारयोः।
सितेड्ययोरस्तमयं द्व्यङ्घिभं विषमङ्घिभम्॥
शुक्लपक्षं च संत्यज्य पुनर्दहनमुत्तमम्।
वसूत्तरार्धादिपञ्चनक्षत्रेषु त्रिजन्मसु॥
पौष्णब्राह्मभयोः पौनर्दहनात् कुलनाशनम्।
दिनापरार्धे तत्कर्तुश्चन्द्रताराबलान्विते॥
पापग्रहबलैर्युक्ते शुक्रलग्नांशवर्जिते।
पुनर्दहनादिकं कर्तव्यमित्यर्थः। त्रिषु पादर्क्षादिषु प्रेतश्राद्धं वर्जयेत्।
त्रिजन्मसु त्रिपादर्क्षेनन्दायां भृगुवासरे।
धातृपौष्णभयोः श्राद्धं न कर्तव्यं कुलक्षयात्॥
प्रेतश्राद्धमित्यर्थः—
सकृन्महालये (श्राद्धे) कार्ये न्यूनश्राद्धेऽखिलेषु च।
अतीतविषये चैवमेतत्सर्वं विचिन्तयेत्॥
नारदः—
अर्कार्किभौमवारे च भद्रायां विषमाङ्घ्रिभम्।
त्रिपुष्करस्त्रिगुणदो द्विगुणं यमलाङ्घ्रिभम्॥
इति। तद्दोषशमनं च नारदेनोक्तम्—
दद्यात्तद्दोषनाशाय गोत्रयं मूल्यमेव वा।
द्विपुष्करे द्वयं दद्यात् नास्ति दोषो भमात्रतः॥
इति। अथ तिथिषु काम्यश्राद्धानि नारदेनोक्तानि—
कन्यां कन्यावेदिनश्च पशून् वै सत्सुतानपि।
द्यूतं कृषिं च वाणिज्यं द्विशफैकशफांस्तथा॥
ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रान् स्वर्णरूप्ये सकुप्यके।
ज्ञातिश्रैष्ठ्यं सर्वकामानाप्नोति श्राद्धदः सदा॥
प्रतिपत्प्रभृतिष्वेषु वर्जयित्वा चतुर्दशीम्।
शस्त्रेण निहता ये वै तेभ्यस्तत्र प्रदापयेत्॥
इति। नक्षत्रेष्वपि तेनैवोक्तानि—
स्वर्ग्यंह्यपत्यमोजश्च शौर्यंक्षेत्रं फलं तथा।
पौत्रश्रेष्ठयं ससौभाग्यं समृद्धिंमुख्यतां शुभम्॥
प्रवृत्तचक्रतां चैव वाणिज्यप्रभृतीन्यपि।
अरोगित्वं यशो वीतशोकतां परमां गतिम्॥
धनं वेदान् भिषक्सिद्धिं कुप्यान् गामप्यजाविकम्।
अश्वानायुश्च विधिवद्यः श्राद्धं संप्रयच्छति।
कृत्तिकादिभरण्यन्तं स कामानाप्नुयात्क्रमात्॥
इति। पितृणां श्राद्धकर्मफलं यमेनोक्तं—
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिंपुष्टिं बलं श्रियम्।
पशून् सुखं धनं धान्यं प्राप्नुयात्पितृपूजनात्॥
इति। श्राद्धाकरणे प्रत्यवायश्च हारीतेनोक्तः—
न तत्र वीरा जायन्ते नारोगा न शतायुषः।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्॥
इति। संवत्सरादिश्राद्धेषु तिथिनिर्णय उच्यते—
यस्यामस्तं रविर्याति पितरस्तामुपासते।
तिथ्यां तेभ्यो यतो दत्तो ह्यपराह्णःस्वयम्भुवा॥
या पूर्वास्तमयं स्पृष्ट्वा परेऽह्न्यस्तमये स्थिता।
ग्राह्या परेऽह्निसा श्राद्धे पूर्वा पूर्वोक्तवत् स्थिता॥
व्यापिनी श्राद्धकालस्य भवेद्या तिथिरुत्तमा।
पूर्वा परा वा सा ग्राह्या तिथिरित्यपरे विदुः॥
वृद्धौ षण्णाडिका ग्राह्याः समे तिस्रः क्षये चतुः।
प्रत्यब्दाहं प्रकुर्वीत निर्णयः पितृकर्मणि॥
अथ नक्तोपवासव्रतादिकालविशेषास्तन्निर्णयश्चाभिधीयन्ते–
नक्तव्रतेषु सा ग्राह्याप्रदोषव्यापिनी तिथिः।
पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी स्मृता।
एकभुक्तोपवासेषु या विंशद्धटिका स्मृता॥
महाचतुर्थी—
मासि भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां गणनायकम्॥
पूजयेन्मोदकाहारं सर्वविघ्नोपशान्तये॥
रथसप्तमी—
माघशुक्ले च सप्तम्यां योऽर्चयेद्भास्करं नरः।
अरोगः श्रियमाप्नोति शर्कराघृतपायसैः॥
मासि भाद्रपदे कृष्णे रोहिणीसहिताष्टमी।
अध्यायमुपसंहरति—
इति हृद्यतमैः पद्यैरिहैकपञ्चाशता विनिर्दिष्टः।
पूर्णस्त्रयोदशोऽयं नववसनादिप्रकीर्णकाध्यायः॥
इति रम्यैरेकपञ्चाशत्सङ्ख्यैः पद्यैरुक्तस्त्रयोदशोऽयं नववस्त्राच्छादनस्वर्णभूषणदन्तधावनतैलाभ्यङ्ग-हेमादिद्रव्यसङ्ग्रहस्वाम्यादिदर्शनविवादभूमृद्ग्रहणगृहादिरक्षातत्कार्यगोष्ठगोकार्यपूर्तादिकर्मपुष्यप्रशंसापौष्टिकविद्वेषणादिकृत्यपारकृत्यरोगर्णारिप्रतीकारनक्षत्रकृत्यश्राद्धकालाद्यभिधायी बहुकर्माभिधायित्वादेव प्रकीर्णकाख्योऽयमध्यायः पूर्णोऽभूदित्यर्थः॥
इत्थं मुहूर्तशास्त्रे प्रकटितनव्याम्बरादिनैकविधिः।
व्याख्यायि विष्णुनाऽयं प्रकीर्णकाख्यस्त्रयोदशोऽध्याय॥
इति मुहूर्तदीपिकायां विद्यामाधवीयव्याख्यायां त्रयोदशःप्रकीर्णकाध्यायः
तारादिलक्षणाध्यायः
———————
एवं गर्भाधानादिपितृकार्यान्तकर्मणां क्रियाकालमभिधाय अथ तत्कालसाधनं घटीपात्रादिभिः क्रियते। तेषां साध्वसाधुत्वं दिवा शङ्कुच्छायया ज्ञायते रात्रौ तु नक्षत्रैरिति स्वस्वराश्यंशलिप्तासु नियतोदयानां तेषां उदयश्च पूर्वहरिजस्य पर्वतादिव्यवहितस्यास्फुटदृश्यत्वात् दुरधिगमः, खमध्यस्थितिस्तु सुव्यक्तदर्शनेति नक्षत्राणामुदयेन तद्राशिगतभागादिकं तेषां तेषां खमध्यस्थित्या तच्चतुर्थराशिगतभागांश्च प्रवक्ष्यन् प्रचुरतरतारतारकानिकरपरिवृते नभसि दस्रादिमानां स्वरूपविवेको दुखाप इति तेषां तारासन्निवेशप्रकारं विवक्षुरादौ तत्तारासंख्यामाह—
त्रिलोकाः षड्बाणा दहनशशिवेदाम्बुधिरसाश्चतुर्नेत्राक्षीषु क्षितिशशिचतुर्वेददहनाः।भवाम्नायाम्भोधित्रिशरशतनेत्राक्षिदशनाः क्रमेणेत्यश्विन्याद्युडुनिकरताराः परिमिताः॥१॥
लोकास्त्रयः, भवा एकादश आम्नायाश्चत्वारः, दशना द्वात्रिंशत् इत्युक्तवत् क्रमेण त्र्याद्येकैकपदगतसङ्ख्यापरिमिता अश्विन्यादिसप्तविंशतिभानां तारा भवन्ति। अत्र केषांचित् भानां तारासङ्ख्यावैमत्यं क्वचित् दृश्यते। तद्यथा—
शिखिशिखिरसशरगुणशशिकृतगुणरसविषययमलयमविषया।
शशिशशिकृतयुगगुणशिवयुगयुगगुणदहनजलधिशतयमलाः॥
यमलरदाः साभिजितां तारासङ्ख्येयमाश्विनादीनाम्॥
इति। अत्र पुष्यमघाधनिष्ठादीनां तारासङ्ख्या वैमत्येन रल्लेनोक्ता।
शिखिगुणरसेन्द्रियानलशशिगुणविषयर्तुपञ्चवसुपक्षाः।
विषयैकचन्द्रभूतार्णवाग्निरुद्राश्विवसुदहनाः॥
भूतशतपक्षवसवो द्वात्रिंशद्वेति तारकामानम्॥
इति। वराहमिहिरेणोक्ते बहूनां दृश्यते। स्यादेतत्—नभसि प्रत्यक्षदृश्यभानां ताराणां कथं तारासङ्ख्यावैमत्यमिति। अत्र ब्रूमः—भताराणामत्यासन्नतारान्तराणां दृश्यत्वसम्भवात् तत्संख्याया अनिश्चय इति। तद्यथा—कैश्चिदत्यासन्नतारान्तराणि तन्नक्षत्रतारासन्निवेशे निक्षिप्य नक्षत्रतारासंख्योक्ता, कैश्चित् तैर्विनेत्युपपन्नम्। एषां नक्षत्राणां मण्डलदक्षिणोत्तरावस्थितिस्तदन्तरांशाश्च शरसंज्ञाश्च भास्करेण सिद्धान्तशिरोमणावुक्ताः—
दिशोऽर्काश्च सार्धाब्धयः सार्धवेदा
दशेशा रसाः खं स्वराः खं च सूर्याः।
त्रिचन्द्राः कुचन्द्रा द्विपादौ च दस्रौ
तुरङ्गाग्नयस्सत्रिभागं च रूपम्॥
विपादद्वयं सार्थरामाश्च सार्धा
गजाः सत्रिभागेषवो मार्गणाश्च।
द्विषष्टिः खरामाश्च षड्वर्गसङ्ख्याः
त्रिभागो जिना उत्कृतिः खं च भानाम्॥
निरुक्ताः स्फुटा योगताराशरांशाः
त्रयं ब्रह्मधिष्ण्याद्विशाखादिषट्कम्।
करो वारुणं त्वष्टृभं सार्पमेषां
शरा दक्षिणा उत्तराः शेषभानाम्॥
इति। तारासन्निवेशप्रकारमाह—
क्रमशो हयमुखयोनिक्षुरशकटमृगोत्तमाङ्गंमणिगृहवत्। शरचक्रवच्चशयनवदथ पर्यङ्कानुरूपमृगयुगलम्॥करमुक्ताफलविद्रुमतोरणवत् त्रिवलिवच्च कुण्डलवत्। मृगपतिविक्रमश-य्यागजपतिश्रृङ्गाटकत्रिविक्रमवत्॥ कूश्माण्डवच्च वृत्तं यमलद्वयवत्ततोऽन्यदृक्षयुगम्। पर्यङ्कवन्मुरजवद्दिवि मान्यश्व्यादिकानि दृश्यन्ते॥
अश्विन्यादिसप्तविंशतिभानि क्रमेणाश्वमुखाद्याकारतारासन्निवेश वन्ति दिवि दृश्यन्ते। तद्यथा—अश्विन्यश्वमुखाकारा सन्निवेशत्रितारा। भरणी योनिवत् त्रिकोणाकारा सन्निवेशत्रितारा कृत्तिका क्षुराकारषट्तारा। भान्येतानि त्रीण्युन्मण्डलादुत्तरेण दृश्यन्ते। रोहिणी शकटाकारपञ्चतारा। मृगशीर्षंमृगशीर्षाकारत्रितारं। आर्द्रामणिसदृशैकतारा। त्रीण्येतानि भान्युन्मण्डलाद्दक्षिणे लक्ष्यन्ते। पुनर्वसुनक्षत्रं गृहाकारचतुस्तारं, गृहाकारपञ्चतारमित्यपरे, कुण्डलाकारद्वितारमिति गुरुः। तदुत्तरेण दृश्यन्ते। पुष्यः शराकारचतुस्तारः, क्वचिच्छराकारत्रितारः। स चोन्मण्डलगतो व्योममध्ये दृश्यते। आश्लेषा चक्राकारषट्तारा, क्वचिच्चक्राकारपञ्चतारा, कटीसंस्थानषट्तारेति गुरु, सा च दक्षिणतो दृश्यते। मघा शय्याकारचतुस्तारा, क्वचिद्वक्रयष्ट्याकारपञ्चतारेति।सा च व्योममध्ये दृश्यते। फल्गुनीद्वयं पर्यङ्काकारद्वितारं उदक् दृश्यते। तत्राद्यमष्टतारमिति क्वचित्। हस्तः कराकारपञ्चतारः। चित्रा मौक्तिकाकारैकतारा, एते द्वे भेदक्षिणतो दृश्येते। स्वाती मौक्तिकाकारैकतारका उत्त–
रतो दृश्यते। विशाखा तोरणाकारचतुस्तारा क्वचित् पञ्चतारेति,द्वितारेत्यन्ये।अनूराधा त्रिवलीसंस्थानचतुस्तारा। ज्येष्ठा कुण्डलाकारत्रितारा। मूलं सिंहविक्रमाकारेकादशतारम्, द्वादशतारमित्यन्ये। आप्यं शय्याकारचतुस्तारम्, क्वचित् द्वितारमिति।वैश्वं गजविलासाकारचतुस्तारम्, अष्टतारमित्यन्ये, द्वितारमित्यपरे। षडेतानि भानि दक्षिणतः स्थितानि दृश्यन्ते। अभिजित् शृङ्गाटकाकारत्रितारम्। श्रवणं त्रिविक्रमाकारत्रितारकं, चतुस्तारमिति क्वचित्। धनिष्ठा कूश्माण्डफलाकारपञ्चतारा, मृदङ्गाकारचतुस्तारमित्यन्ये। त्रीण्येतान्युदक्स्थितानि। वारुणं वृत्ताकारशततारकम्, दशतारमिति गुरुः। तच्च दक्षिणतः स्थितम्। पूर्वाभाद्रभंयमलद्वयाकारं द्वितारम्। उत्तराभाद्रभं पर्यङ्काकारद्वितारकम्। एते द्वे उदग्दृश्येते। रेवती मुरजाकारद्वात्रिंशत्तारा मध्ये दृश्यते॥
तुरगमुखसदृक्षं योनिरूपं क्षुराभं
शकटसममथैणस्यात्तेमाङ्गेन तुल्यम्।
मणिगृहशरचक्राभानि18शय्यासमाभं
शयनसदृशमन्यच्चात्र पर्यङ्करूपम्॥
हस्ताकारमतश्च मौक्तिकसमं चान्यत् प्रवालोपमं
धिष्ण्यंतोरणवत् स्थितं वलिनिभं सत्कुण्डलाभं परम्।
क्रुध्यत्केसरिविक्रमेण सदृशं शय्यासमानं परं
चान्यद्धस्तिविलासवत् स्थितमतः शृङ्गाटकव्यक्ति च॥
त्रिविक्रमाभं च मृदङ्गरूपं वृत्तं ततोऽन्यद्यमलद्वयाभम्।
पर्यङ्कतुल्यं मुरजानुरूपमित्येतदश्व्यादिभचक्ररूपम्॥
इति। अश्व्यादिनक्षत्रोदये मेषादिराशिगतभागानाह—
वस्वृक्षाङ्गपुराणलोचनदिशो वेदांस्तिथिं सङ्कृतिं
विद्येध्माब्धिविकृत्यनुष्णकिरणात्यष्ट्याकृतीन् भास्करान्। विद्येन्द्विन्द्रभभूमिपोत्कृतिगिरीन् भांशान् दशोपान्तिमांस्तीर्त्वोशानुदयन्ति भानि परतो भागैः क्रियादेः क्रमात्॥
अश्विन्यादीनि भानि क्रमेण मेषादिराशीनामष्टमाद्यंशानतीत्य तावत्सङ्ख्यैस्तद्राशिभागैः स्वयमुदयन्ति, मेषादिराशीनामष्टमाद्यंशमितध्रुवस्थितयोऽश्विन्यादयस्तेषां तावत्स्वंशेषु कृतोदया इत्यर्थः। यथा—अश्विन्यां प्रोदितायां मेषस्याष्टावंशा गताः स्युः, भरण्यां सप्तविंशतिः, कृत्तिकायां वृषस्य षडंशाः, रोहिण्यामष्टादश, मृगशिरसि मिथुनस्य द्वावंशावित्यादि पुरत ऊह्यम्। अत्र भास्करः—
अष्टावष्टादश दिशो मनवोऽर्काद्वयोर्घना।
द्वाविंशतिश्च विश्वे च नवशक्रास्त्रयोदश॥
दिशो विंशतिरेकोना द्वादशार्कास्त्रिपञ्चकम्।
दिशो रसाश्च विश्वे च विश्वे सूर्या धृतिस्तथा॥
रुद्रास्सूर्यास्त्रिसप्ताथ शैलेन्दुतिथयः क्रमात्।
पूर्वपूर्वयुता ज्ञेया योगभागा यथोदिताः॥
आप्यवैष्णवमूलानां पितृवासवयोरपि।
त्रिंशल्लिप्तास्सयाम्यानां क्षेप्या वैश्वस्य शेषतः॥
योगभागसमः सर्वः संयुक्तो लक्ष्यते गृहम्।
अधिकोनकलाकालविज्ञानं चानुपाततः॥
इति। एवं भास्करोक्तानां ब्रह्मगुप्ताभिहितानां च नक्षत्रध्रुवांशानां च वैषम्यं दृश्यते। तथाऽऽह ब्रह्मगुप्तः—
अष्टनवैर्मेषे गवि रदलिप्तोनैर्गुणस्स्वरैर्मिथुने।
कर्कटके गुणषोडशधृतिभिः सिंहे नवत्रिघनैः॥
कन्यायां पञ्चनखैः तुलिनि त्र्यतिधृतिभिरलिनि।
सेषुकलैः मद्विचतुर्दशं? त्रिधृतिर्धनुषि शशाङ्कमनुनवतत्वैः॥
मकरेऽष्टनखैः कुम्भे नवषड्विंशैर्झषे मुनित्रिंशैः।
पृथगश्विन्यादीनां ध्रुवकांशैर्योगताराः स्वै॥
इति। श्रवणादिनक्षत्रेषु व्योममध्यस्थेषु मेषादिराशिगतभागानाह—
मेषादेः कृतिवेदराड्वसुजनाः षड्भानुभाश्चाधृतिक्ष्माविद्यागुणभूमिपोत्कृतिमिताः काष्ठाः समिद्वार्धयः। विंशोपान्त्यदिशो विकृत्यनलदिक्तत्वानि दिक्तारकाभागा यान्त्युदयं खमध्यनिरतष्वृक्षेषु विष्ण्वादिषु॥६॥
श्रवणादिनक्षत्रेषु व्योममध्यवर्तिषु स्वमूर्धोपरि दृश्यमानेष्विति यावत्। मेषादेरिति जातावेकवचनम्। मेषादिराशीनां विंशादिभागा पूर्वहरिज उदयं यान्ति। यथाश्रवणे व्योममध्यगे मेषस्य विंशोंऽश उद्गच्छति, धनिष्ठानक्षत्रे वृषभस्य चतुर्थस्त्रिंशांशः,शतभिषङ्नक्षत्रे वृषभस्य षोडशोंऽशः इत्याद्युन्नेयं उत्तराषाढे मीनस्य सप्तविंशोंऽश उदेतीत्यन्तम्। तत्र उपान्त्य एकोनत्रिंशः विकृतिसंख्यस्त्रयोविंशः। अत्र प्राक्तना आहुः—
गुरोर्धियाज्ञासकलेन यज्ञं
बलेशपथ्यं नरसूनुरत्नम्।
वेलाम्बरश्रीमृगमीनलग्नं
जयेन्द्रयागं हिमचारगानम्॥
कलाक्षिनाभिः परदायभिन्नं
जराङ्कनामा दशदायमानम्।
शिवेन्द्रनीतिः शिवमायतानं
प्रियेशरक्षा जयधेनुसेना॥
शग्नुर्नरार्थीजलगानदीनां
पट्टज्ञयेदं तिलजप्रदानम्।
नयाधनर्धिंजलकृत्प्रधानम्
जलेन्द्रनिम्नायखनिर्धनं नृपः॥
तपोभिरत्नायकरालनाटकं
सुनीतिरूपायकलांशराशयः।
आकाशमध्यं श्रवणादिकं क्रमात्
गतेषु मेषादिभपत्तिराशयः॥
इति। ‘उदयोदोदयाद्भानो भूमिसावनखासनाः’ इति बहुसम्मतं मतमाश्रित्य किञ्चिदूनाधिका षष्टिघटिका वारप्रमाणमित्युक्तम्; सांप्रतं मतान्तरेण वारप्रमाणमाह—
रसनन्दभूतजलराशिभोगभृत्कुलशैलवह्निघटिका दशाहताः। दिवसाधिपप्रभृतिवारभुक्तयः क्रमशोऽत्र कैश्चिदृषिभिः प्रकीर्तिताः॥७॥
सूर्यादिवारा क्रमेण षष्टिनवतिपञ्चाशत्चत्वारिंशदशीतिसप्ततित्रिंशद्धटिकामिता भवन्तीति कैश्चिदृषिभिरुक्तम्। “तद्धिमेभजसांगेति सूर्यादेर्वारभुक्तयः” इति तन्मते सूर्यवार उक्तप्रमाण एव। सोमवारो भौमवारदिनान्तान्तं प्रवर्तते। भौमवारस्ततःपरं सौम्ये दिवाविंशति–
घटिकान्तम्। शेषः सौम्यस्य स्ववारः। गुरुवारस्तु शुक्रदिने दिवा विंशतिघटिकान्तं भवति। ततः परस्ताच्छुक्रवारः शनिवारदिनान्तान्तं भवति। शेषः मन्दस्य स्ववारः॥
इडां प्रपन्ने श्वसने विदध्यात् शुभानि रौद्राणि तु सूर्यनाडीम्। तत्रापि शंसन्ति वसुन्धरादिभूतोदयान् कर्मविशेषकालान्॥८॥
श्वसने वायौ इडां सोमनाडी प्राप्ते सर्वाणि शुभानि शान्तिकपौष्टिकादीनि कुर्यात्। सूर्यनाडी दक्षिणनाडीम्॥ नित्यमुहूर्तयोगानाह—
मन्देन्दुशुक्रदिवसेषु नवार्धसङ्ख्यान्यष्टौ बुधे नव कुजे धिषणे तु सप्त।एकादशार्कदिवसे च यदा भवन्ति छायापदानि भुवि वासरपूर्वभागे॥
नित्यास्तदा वारमुहूर्तयोगाःशुभाः प्रदिष्टाः कथितेषु तेषु।कुर्याच्छुभं कार्यमवश्यकार्येन तत्र तारादिकृतोऽस्ति दोषः॥१०॥
केचित् सङ्क्रान्तिचक्रमन्यथाऽऽहुः। अर्णवे—
तिर्यग्रेखात्रये शूलत्रयं मध्ये तथोर्ध्वके।
मध्यशूलान्तरे तद्भंस्थाप्यं यामावसानकम्॥
अपसव्यादिति ततो विद्याद्रोहावरोहणम्।
गणयेत् समपर्यंन्तमारभ्यैवं प्रवेशनम्॥
शूलेषु नवभैर्नाशः षड्भिर्बाह्यैर्वसुक्षयः।
द्वादशर्क्षे शुभं विद्याद्देवि!सङ्क्रमणादिषु॥
इति। मन्त्रादिदीक्षासु मार्गशीर्षमाघाषाढमासाश्च वर्ज्याः। यथोक्तं—
आषाढं मार्गशीर्षं च माघमासं च वर्जयेत्।
इति। तत्र नक्षत्रादीन्युक्तानि—
उत्तरत्रयरोहिण्यो रेवतीपुष्यवासवाः।
वायुमित्रपितृत्वाष्ट्रनैर्ऋताः सौम्यशङ्करौ॥
इन्द्रवैष्णवहस्ताश्च दीक्षायां सुशुभावहा।
कौजं सर्वं विवर्ज्यं स्यात् चरराशिषु सौख्यदा॥
त्रिषडायगताः क्रूराः शुभाः केन्द्रत्रिकोणगाः।
दीक्षायां शुभदाः सर्वे रन्ध्रस्थाः सर्वनाशनाः॥
समृद्धबलसंयुक्ते शुक्रे देवपुरोहिते।
शुक्लपक्षेऽथ कृष्णे वा दीक्षा सर्वशुभावहा॥
कृष्णाष्टम्यां चतुर्दश्यां पञ्चपूर्णदिने तथा।
ग्रहणादौ व्यतीपाते परिवेषादिके तथा॥
शुभवेधसमायोगे शुभवर्गे शुभोदये।
अष्टाक्षरादिमन्त्राणां सङ्ग्रहः सर्वसौख्यकृत्॥
शिष्यत्रिजन्मनक्षत्रसङ्क्रान्तिविषवेषु च।
अयने पुण्ययोगेषु ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः॥
गुलिके शकुनादौ च देहशुद्धिः शुभा भवेत्।
ग्रहणादिष्वपि ताराद्यानुगुण्यमिष्टम्।यथोक्तं—
कृष्णाष्टमीचतुर्दश्योःग्रहणादौ च साधकैः॥
तत्र नक्षत्रतिथ्यादौ करणे योगवासरे।
मन्त्रोपदेशं गुरुणा साधनं च शुभावहम्॥
तारासङ्ख्यादिकाध्यायःश्लोकैर्दशभिराहितः।
समाप्तोऽयमभूद्विद्यामाधवीये चतुर्दशः॥११॥
इति विद्यामाधवीये चतुर्दशस्तारादिलक्षणाध्यायः सम्पूर्णः
अथ पञ्चदशोऽध्यायः
—————
कन्यानां प्रथमार्तवदर्शनकालाच्छुभाशुभं विवक्षुस्तत्र शुभं नक्षत्रादिकमाह—
वस्वादित्यमघाचतुर्गुरुयमा वैश्वं तथा रोहिणी वायव्यादिचतुष्कबुध्न्यभयुतं पौष्णं च मुख्यं स्मृतम्। मन्वर्काङ्गनवाष्टवेदतिथयो दर्शान्विता निन्दिताः कन्यानां प्रथमार्तवे ह्यशुभदाः पापांशवारोदयाः॥१॥
वसु धनिष्ठा, आदित्यं पुनर्वसुः, मघादिचतुष्टयं वस्वादिका एताः षोडशताराः कन्यानां प्रथमार्तवे प्रथमं योनावस्रसम्भवे श्रेष्ठाः। अन्याः एकादश अशुभा इति अर्थसिद्धाः। एतत् प्रतिनक्षत्रफलाभिधायिगार्ग्यवचनेन निगदितं भवति। यथा—
अश्विन्यां विधवा नारी भरण्यां पुत्रिणी भवेत्।
कृत्तिकायां प्रजाहानी रोहिण्यां सुखभोगिनी॥
सौम्यर्क्षेगुरुकल्पा स्यादार्द्रायां व्याधिपीडिता।
आदित्ये भूषणैर्युक्ता पुष्ये राजानुभोगिनी॥
सार्पर्क्षे मृतपुत्रा स्यात् पित्र्ये बहुकुटुम्बिनी।
फल्गुन्यां धनपुत्राढ्याऽप्युत्तरे भोगवर्धनी॥
हस्ते राजानुभावा च चित्रायां रोगपीडिता।
स्वातौ कुटुम्बिनी चैव विशाखायां धनान्विता॥
मैत्रे भोगवती कन्या त्वैन्द्रे राजवती प्रिया।
मूले तु मुण्डिनी चैव पूर्वाषाढे तु दासिका॥
उत्तराषाढभे धन्या श्रवणे मतिदूषिता॥
धनिष्ठायां भोगवती वारुणे च दरिद्रता।
पूर्वाभाद्रपदे व्याधिराहिर्बुध्न्येतु भोगिनी॥
रेवत्यां स्याद्धनवती प्रथमे तु रजस्वला॥
इति। तिथिषु मन्वादिसंख्याश्चतुर्दशीद्वादशीषष्ठीनवम्यष्टमीचतुर्थ्यमावास्या निन्दिताः। तथाहि प्रतितिथिफलम्—
प्रतिपद्यल्पपुत्रा स्यात् द्वितीयायां च सुप्रजाः।
तृतीयायां भोगिनी स्याच्चतुर्थ्यां रोगपीडिता॥
पञ्चम्यां सुभगा नारी षष्ठ्यां पुत्रविनाशिनी।
सप्तम्यां भोगमाप्नोति त्वष्टम्यां क्रूरचेष्टिता॥
नवन्यां तु दरिद्रा स्याद्दशम्यां धनभागिनी।
एकादश्यां पतिप्रीता द्वादश्यां दूषणान्विता॥
त्रयोदश्यां पुत्रवती चतुर्दश्यां तु पुंश्चली।
पौर्णमास्यां सुपूर्णा स्यात्कुह्वां तु कुलटा भवेत्॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
पौर्णमास्याममावास्यामुभयोर्नष्टवल्लभा॥
इति। पापग्रहाणामंशकः तद्वाराः तदुदयाश्चैते कन्यानां प्रथमार्तवे अशुभफलप्रदाः स्युः। तथाच प्रतिवारफलकथने नारदेनाभिहितम्—
सरोगा पतिभक्ता च दुःखिनी पुत्रिणी तथा।
भोगिनी पतिभक्ता च क्लेशिनी रविवासरात्॥
पापोदया वर्ज्या इत्यभिदधता शुभोदयदृष्ट्यादयः शस्ता इत्युक्तमेव भवति।
तथाचोक्तमन्यत्र—
अशुभमपि समस्तं चार्तवे संप्रभूते
सुरगुरुसितयुक्ते प्रेक्षिते वाऽथ लग्ने।
तिमिरमिव कठोरं ज्योतिरुत्पत्तिकाले
क्षयमपि समुपैति प्राप्नुयाच्चापि लक्ष्मीम्॥
इति।
मेषलग्ने दरिद्रा स्यात् वृषभे गोप्रवर्धनी।
मिथुने भोगवित्ता स्यात् कर्क्यांविकृतचारिणी॥
सिंहे सकृत्प्रसूता च कन्यायां कन्यकाप्रजा।
तुलायां तु तुलाधारी वृश्चिके बहुदूषिणी॥
कार्मुके भर्तृनिरता मकरे प्रियवादिनी।
कुम्भे कुलद्वयप्रीता तत्र वन्ध्येति केचन॥
मीने दारिद्र्यरोगार्ता कन्यका प्रथमार्तवे॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
मेषे पररता नारी वृषभे व्यभिचारिणी।
मिथुने धनसम्पन्ना कर्कटे भ्रष्टचारिणी॥
सिंहे त्वेकप्रसूतिस्स्यात् कन्यायां श्रीमती भवेत्।
विचक्षणा तुलायां च वृश्चिके व्यभिचारिणी॥
दुश्चारिणी धनुःपूर्वेपश्चिमार्धेपतिव्रता।
मकरे मानहीना स्यात् कुम्भे धनवती भवेत्॥
मीने विचक्षणा चैव रजसः प्रथमोदये॥
मतान्तरेण नक्षत्रफलमाह—
अन्तरङ्गेषु नक्षत्रेष्वृतुयोगः प्रशस्यते। बाह्ये–
ष्वशुभदस्सर्वेष्विति केचित् प्रचक्षते॥२॥
कृत्तिकादिष्वन्तरङ्गनक्षत्रेष्वार्तवं प्रशस्यते। पुनर्वस्वादिषु बाह्याख्यनक्षत्रेषु अशुभमिति केचिदाहुः। तथाचान्यत्र—
एवमभ्यन्तरे धिष्ण्ये सार्तवं कन्यका गता।
मङ्गल्यं पुत्रवृद्धिं च नानासुखमवाप्नुयात्॥
बाह्यर्क्षेस्यादमङ्गल्यंदौर्भाग्यं च दरिद्रता॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
विश्वादिद्वादशर्क्षेषु पत्युर्भवति वल्लभा।
पतिरक्ता सुपुत्रा च पुत्रनप्त्रादिसंयुता॥
इति।
अशुभाकुलटा रूक्षा चाद्रीदिषुच सप्तसु।
वेश्या हस्तादिके नारी मैत्रादौ विधवा च सा॥
विधिरत्ने—
स्वजन्मराशिलग्नाभ्यामष्टमस्थे निशाकरे।
अष्टमे वाऽपि लग्नस्थे लग्ने क्रूरग्रहेऽथवा॥
लग्नेच गुरुशुक्रज्ञयोगदर्शनवर्जिते।
तारेन्द्वोर्बलराहित्ये मन्दगस्योदयेऽपि वा॥
विष्टौकष्टेऽह्नि वा योषा पुष्पिणीबहुदुःखभाक॥
इति। अपि च—
अत्रोपचयगे चन्द्रे दृष्टे काव्येन सूरिणा।
स्वभर्त्रारतिमाप्नोति विटेनावनिसूनुना॥
सूर्येण राजपुरुषेण भृत्येन रविसूनुना।
पापैस्तु सकलैर्वेश्या ग्रहसंस्था विवाहवत्॥
भावफलं चोक्तम्—
सार्पे जामित्रसंस्थाः प्रददति मरणं शोकवैधव्यदुःखं
खेटा रिष्फेच तद्वद्बुधगुरुभृगवोऽस्मिन् शुभाश्चेति केचित्।
भानुर्भौमश्च मन्दो भवसहजरिपुच्छिद्रगः कन्यकानां
पुत्रारोग्यप्रवृद्धिं निधनभवनगो रोगकृद्भूमिपुत्रः॥
जामित्रे विधवा सूर्ये चन्द्रे पुत्रविनाशिनी।
कुजे दुष्टा बुधे वन्ध्या दुर्भगा च बृहस्पतौ।
कुलटा भार्गवे सौरे गर्भपातनतत्परा।
दुश्चरित्रा भवेद्राहौ तद्वत्केतुस्थिते फलम्॥
इति।राशिफलमाह—
गोनक्रयमहृद्रोगतौक्षिकाख्येषु राशिषु।
शुभं विन्दत्यृतुमती कन्यायां कन्यका प्रजा॥१॥
वृषमकरमिथुनकुम्भधनूराशिष्वृतुमती कन्या शुभं फलं विन्दति। कन्यायां राशौ ऋतुमत्याः कन्यका प्रजा भविष्यति। रत्नदीपे—
त्रीणि त्रीणि त्रयं त्रीणि पञ्चकं सप्तकं त्रयम्।
उत्तराषाढमारभ्य प्रथमर्तौ यथाक्रमम्॥
अर्थसिद्धिः पुत्रसिद्धिःवेश्यात्वं प्रियवादिता।
अनर्थः पतिभक्तिश्च वैधव्यं चोपजायते॥
नारदेन त्वश्विनीरोहिणीसौम्यपुनर्वसुपुष्यमैत्ररेवत्युत्तराषाढोत्तराचतुष्टयोत्तराभाद्राः षोडशताराः शुभफलदा इत्युक्तम्।मघामूले द्वे मध्ये इति।
श्रीयुता सुभगा पुत्रवती सौख्यान्विताकुला।
कुलाधिका मानवती त्वश्विन्यां प्रथमार्तवे॥
इत्यादि। एवं मुनिमतविप्रतिषेधे साध्विदमिति नैकमुररीकुर्यादिति स्थिते
‘द्वैधे बहूनां वचनम्’ इति बहुमुन्यभिमतं मतमाश्रित्य आचार्येणोक्तमिदं वस्वादित्येत्यादि अन्तरङ्गेष्विति च॥ गण्डान्तांशेष्वार्तवमशुभमित्याह—
आद्यंशे दस्रमखामूलानां सार्पशाक्रपौष्णानाम्। चरमे यदि पुष्पवती कुलटा वन्ध्या मृतप्रजा भवति॥४॥
अश्विनीमखामूलानां प्रथमांशे आश्लेषाज्येष्ठारेवतीनामन्त्यांशे पुष्पमार्तवं तद्वती पुष्पवती कन्या यदि स्यात् सा कुलटा असती वन्ध्या अप्रजा मृतप्रजा प्रजातमृतापत्या वा भवति। तत्र गण्डान्तत्वादिदमुक्तम्। शुभाशुभकाला ज्योतिषार्णव उक्ताः—
पूर्वमध्यान्तभागेषु दिनस्योत्तममध्यमम्।
अधमं स्यात्तथा रात्रिंकेचित् सौम्यदिने शुभम्॥
शुष्कजाततुषैः शूर्पमार्जन्याद्यशुभैर्युते।
अशुभैस्संयुते देशे त्वशुभं प्रथमार्तवम्॥
भुक्तौ च तल्पे या भे च तपनीये च धान्यके।
सत्पुत्रं सुखमारोग्यं श्रियमायुष्यमेव च॥
शुभो करणैर्युक्ते शुभदेशे शुभैर्युते।
स्यादनुकूलशुभं र्क्षेराशौ सत्कर्मसंयुते॥
चन्द्रे शुभकरं हेयं दिवसेन समेन तु।
इति। दुष्टतारावारादिषु यदि प्रथमार्तवं स्यात् तदा तद्दोषप्रशमाय शान्तिः कर्तव्या। तथाच नारदः—
निन्द्यर्क्षतिथिवारेषु यदि पुष्पं प्रदृश्यते।
तत्र शान्तिं प्रकुर्वीत्घृतदूर्वातिलाक्षतैः॥
प्रत्येकं शतमष्टौ च गायत्र्या जुहुयात्ततः।
स्वर्णगोभूतिलान् दद्यात् सर्वदोषापनुत्तये॥
भर्ता तत्राभिगमनं वर्जयेच्छान्तिदर्शनात्।
तिथ्यृक्षवारा निन्द्याश्चेत् शेषकर्म न कारयेत्॥
दोषाधिक्ये गुणाल्पत्वे तत् तथापि न कारयेत्।
दोषाल्पत्वे गुणाधिक्ये शेषकर्म तु कारयेत्॥
शान्तिश्च पञ्चमेऽह्नि कर्तव्या। यत आह नारदः—
रजोदर्शनतोऽस्पृश्या नार्यो दिनचतुष्टयम्।
ततः शुद्धाः क्रियास्वेताः ततः कर्मस्वयं विधिः॥
अथ ग्रहाणां शुभाशुभगोचरफलं संक्षेपेण विवक्षुराह—
पुंसो जन्मादिभावेषु यत्फलं ग्रहचारतः।
वराहमिहिरेणोक्तं तत्संक्षेपादिहोच्यते॥५॥
पुंग्रहणमुपलक्षणं स्त्र्यादीनां, पुंसोऽन्यस्य वा जन्मादिद्वादशभावेषु सूर्यादिग्रहाणां चारनिबन्धनं यत्फलं वराहमिहिरेण स्वसंहितायामुक्तं तदिह संक्षेपादुच्यते, मयेति शेषः। अत्र तावत्सूर्यभौमयोः प्रायेण फलसाम्यात् युगपत् गोचारफलमाह—
आयभ्रातृद्विषदुपगतौ स्थानमानादिलाभं वित्ते वित्तक्षयमथसुहृत्पुत्रगौ क्लेशभीतिम्।
कामे रोगान् व्यसनमतुलं धर्मगौ सूर्यभौमौ भौमो भङ्गं दिशति दशमे कर्मसिद्धिंच सूर्यः॥६॥
सूर्यकुजावेकादशतृतीयषष्ठगतौ जन्मिनां स्थानादिलाभं दिशतः स्थानमावासः, मानो राजपूजादिः, आदिशब्देन धनशत्रुक्षयलाभादि–
र्गृह्यते। वित्ते द्वितीये वित्तक्षयं वित्तहानिं, चतुर्थपञ्चमगौ क्लेशभीति देहायासभयं, यद्वा दैन्यावमाननारिपीडादिदुःखज भयं, कामे सप्तमे स्थितौ नानारोगान् नवमगौ महद्व्यसनं कृच्छ्रं दिशतः। दशमे तु भौमो भङ्गं शत्रुपराभवं दिशति। दशमे सूर्यः कर्मसिद्धिंदिशति। शिष्टेषु जन्मष्टमाद्वादशेषु गतयोः फलं परस्ताद्वक्ष्यति॥ चन्द्रस्य सामान्यं गोचरफलमाह—
क्रमेण भोगोदयमर्थनाशं जयं भयं रोगमरातिभङ्गम्।
सुखान्यनिष्टंरुजमिष्टसिद्धिं मुदं व्ययं च प्रददाति चन्द्रः॥७॥
चन्द्रः क्रमेण जन्मादिद्वादशभावेषु भोगोदयादिफलानि ददाति। भोगाःसुवस्त्रान्नगन्धस्रगादयस्तेषामुदयं सम्पत्तिं जन्मनि ददाति। द्वितीये अर्थस्य धनस्य कार्यस्य वा नाशं, तृतीये जयं परेभ्य उत्कर्षवृत्तिं, चतुर्थे मानक्षयादिभयं शत्रुभयं वा, पञ्चमे रोगंज्वराजीर्णादिकं, षष्ठे अरातीनां शत्रूणां क्षयं, सप्तमे धनभोगादिसुखानि, अष्टमे अनिष्टं असुखं रोगायासकलहादिभिः, नवमे रुजं राजादिकोपकृतां दशां, दशमे इष्टस्य कार्यस्य सिद्धिं, एकादशे मित्रधनागमादिभिर्मुदं, द्वादशे नृपारिप्रमादादिभिर्धनादेः व्ययं ददातीत्यर्थः। बुधस्य गोचरफलमाह—
अर्थक्षयं श्रियमरातिभयं धनाप्तिं भार्यासुतादिकलहं विजयं विरोधम्।
पुत्रार्थलाभमथ विघ्नमशेषसौख्यं पुष्टिं पराभवभयं च ददाति चान्द्रिः॥
चान्द्रिर्बुधः जन्मादिद्वादशसु भावेषु गतः एतानि द्वादशपदमितानि फलानि ददाति। विजयं शत्रुजयं, विरोधं सर्वजनद्वेषं, विघ्नंकर्मविघातं पुष्टिं धनसम्पत्तिं पराभवभयं शत्रुभिरिति शेषः जीवस्याह—
नानादुःखं वित्तसमृद्धिं स्थितिनाशं बन्धुक्लेशं पुत्रधनाप्तिं रिपुबाधाम्। भोगान् रोगाव वित्तसुखाप्तिं धनहानिं स्थानप्राप्तिं नाशभयं यच्छति जीवः ॥ ९ ॥
जन्मादिद्वादशभावेष्वेतानि द्वादशफलानि ददातीत्यर्थः ॥
शुक्रस्याह—
अखिलविषयभोगं वित्तसिद्धिंविभूतिं सुरुसुहृदभिवृद्धिं पुत्रलब्द्धिं विपत्तिम्। युवतिजनितबाधां संपदं श्रीसुखाप्तिं कलहमुदयमाप्तिंदैत्यमन्त्री विधत्ते ॥ १० ॥
** **शुक्रः जन्मादिद्वादशभावेष्वेतानि फलानि पोषयति। अन्नसुगन्धयोषादयो विषयाः, तेषां उपभोगं, वित्तसिद्धिं धनलाभं, विभूतिं धनादिसम्पत्तिं, विपत्तिं शात्रवादिकृतं व्यसनं, सम्पदं देहधनादिपुष्टिं, कलहं शत्र्वादिभिः, उदयमभिवृद्धिं, आप्तिं धनागमम् ॥
मन्दस्याह—
नानारोगशुचं सुखार्थविहतिं स्थानार्थभृत्योदयं स्त्रीबन्ध्वर्थसुखज्युतिं धनसुतभ्रंशं सपत्नक्षयम्।
मार्गासक्तिमनन्तदुःखनिचयं धर्मप्रणाशामयं दारिद्र्यं धनलाभमर्थविहतिं धत्ते क्रमादर्कजः॥११॥
** **जन्मादिद्वादशभावेष्वेतानि फलानि पदक्रमादुक्तानि पोषयति। मार्गासक्तिं प्रवासं, धर्मप्रणाशामयं नित्यकर्मादिधर्माणां प्रणाशं आमयं रोगं च, दारिद्र्यं धनहानिमित्यर्थः। वराहमिहिरः—
जन्मन्यायासदोऽर्कः क्षपयति विभवं कोष्ठरोगाध्वदाता
वित्तभ्रंशं द्वितीये दिशति च न सुखं बञ्चनं दृग्रुजं च।
स्थानप्राप्तिं तृतीये धननिचयमुदाकल्पकृच्चारिहन्ता
रोगान् धत्ते चतुर्थे जनयति च मुहुः स्रग्धराभोगविघ्नम्॥
पीडा स्यात् पञ्चमस्थे सवितरि बहुशो रोगारिजनिता
षष्ठेऽर्कोहन्ति दोषान् क्षपयति च रिपून् शोकां श्च नुदति।
अध्वानं सप्तमस्थो जटरगदभयं दैन्यं च कुरुते
तिग्मांशौ चाष्टमस्थे भवति सुवदना न स्वाऽपि वनिता॥
कुजोभिघातं19 प्रथमे द्वितीये
नरेन्द्रपीडाकलहारिदोषैः।
कृशश्च चिन्तानलचोररोगैः
** उपेन्द्रवज्रप्रतिमोपमेयः॥**
तृतीयगश्चोरकुमारकेभ्यो
** भौमः सकाशात् फलमादधाति।**
प्रदीप्तिमाज्ञां धनमोक्तिकानि
** धात्वाकराख्यानि किलापराणि॥**
भवति धरणिजे चतुर्थगे
** ज्वरजठरगदासृगुद्भवः।**
कुपुरुषजनिताच्च सङ्गमात्
** प्रसभमपि करोति वा शुभम्॥**
रिपुगदरोगभयानि पञ्चमे
** तनयकृताश्च शुचो महीसुते।**
द्युतिरपि नास्य चिरं भवेत् स्थिरा
** शिरसि कपेरिव मालती कृता॥**
रिपुभयकलहैर्विवर्जितः
** सकनकविद्रुमताम्रकागमः।**
रिपुभवनगते महीसुते
** किमपरवक्तृविकारमीक्षते॥**
कलत्रकलहाक्षिरुग्जठररोगकृत् सप्तमे
** ज्वरक्षतजरूषितक्षपितपित्तमानोऽष्टमे।**
कुजे नवमसंस्थिते परिभवोऽर्थनाशादिभिः
** विलम्बितगतिर्भवत्यबलदहेधातृक्लमैः॥**
दशमगृहगतेऽश्रमो महीजे
** विविधधनाप्तिरुपान्त्यगे जयश्च।**
जनपदमुपरि स्थिरे च भुङ्क्ते
** वनमिव षट्चरणः सुपुष्पिताग्रम्॥**
नानाव्ययैर्द्वादशगे महीसुते
** सन्तप्यतेऽनर्थशतैश्च मानवः।**
स्त्रीकोपचित्तैश्च सनेत्रवेदनैः
** योऽपीन्द्रवंशाभिजनेन गर्वितः॥**
शशी जन्मन्यन्नप्रचुरशयनाच्छादनकरो
** द्वितीये मानार्थं श्लथयति सविघ्नश्च भवति।**
तृतीये वस्त्रस्त्रीधननिचयसौख्यानि लभते
** चतुर्थे विश्वासं शिखरिणि भुजङ्गेन सदृशम्॥**
दैन्यं लाभं शुचमपि शशी पञ्चमे मार्गविघ्नं
** षष्ठे वित्तं जनयति सुखं शत्रुरोगक्षयं च॥**
यानं मानं शयनमशनं सप्तमे वित्तलाभं
** मन्दाक्रान्ते फणिनि हिमगौ चाष्टमे भीर्नरस्य।**
नवमगृहगो बन्धोद्वेगश्रमोदररोगकृत्
** दशमभवने राज्ञां कर्मप्रसिद्धिकरश्शशी**
उपचयसुहृत्संयोगार्थप्रमोदमुपान्त्यगः
** वृषभचरितान् दोषानन्त्ये करोति च सव्य0यान्॥**
दुष्टवाक्यपिशुनाहितभेदैः
** बन्धनैः सकलहैश्च हृतस्वः।**
जन्मगे शशिसुते पथि गच्छन्
** स्वागतेऽपि कुशलं न शृणोति॥**
परभवाधनगते धनलब्धिः
** सहजगे शशिसुते सुहृदार्तिः।**
नृपतिदस्युभयशङ्कितचित्तो
** द्रुतपदं व्रजति दुश्चरितैः स्वैः॥**
चतुर्थगे स्वजनकुटुम्बवृद्धयो
** धनागमो भवति च शीतरश्मिजे।**
सुतस्थिते तनयकलत्रविग्रहो
** निषेवते न च रुचिरामपि स्त्रियम् ॥**
सौभाग्यं विजयमनोन्नतिं च षष्ठे
** वैवर्ण्यंकलहमतीवसप्तमे ज्ञः।**
मृत्युस्थे सुतजयवस्त्रवित्तलाभो
** नैपुण्यं भवति मतिप्रभाषिणी च॥**
विघ्नकरो नवमे शशिपुत्रः कर्मगतो रिपुबन्धनदश्च।
सप्रमदं शयनं च विधत्ते तद्गृहतोऽथ कुथास्तरणं च।
धनसुतसुखयोषिन्मित्रवाहाप्तितुष्टिः
** तुहिनकिरणपुत्रे लाभगे मृष्टवाक्यः।**
रिपुपरिभवरोगैः पीडितो द्वादशस्थे
** प्रभवति च न भोक्तुं मालिनीभोगसौख्यम्॥**
जीवे जन्मन्यपगतधनधीः
** स्थानभ्रष्टो बहुकलहयुतः।**
प्राच्यार्थेऽर्थान्मुनिरपि कुरुते
** कान्तास्याब्जे भ्रमरविलसितम्॥**
स्थानभ्रंशं कार्यविघातश्च तृतीये
** नैकक्लैशैर्बन्धुजनार्यैश्च चतुर्थे।**
जीवे शान्तिं पीडितचित्तश्च स विन्देत्
** नैव ग्रामे नापि वने मत्तमयूरे॥**
जनयति च तनयभवनमुपगतः
** परिजनशुभसुतकरितुरगवृषान्।**
सकनकगृहपरयुवतिवसनकृत्
** गुणमणिनिकरकृदपि विबुधगुरुः॥**
न सखीवदनं तिलकोज्जुलितं
** न च वनं शिखिकोकिलनादितम्।**
हरिणप्लुतशब्दविचित्रितं
** रिपुगते मनसः सुखदं गुरौ॥**
त्रिदशगुरुः शयनं रतिभोगं
** धनमशनं कुसुमान्युपवाह्यम्।**
जनयति सप्तमराशिमुपेतो
** ललितपदां च गिरं धिषणां च॥**
बन्धं व्याधिं त्वष्टमे शोकमुग्रं
** मार्गक्लेशं मृत्युतुल्यांश्च रोगान्।**
नैपुण्याज्ञापुत्रकामार्त्थसिद्धिं
** धर्मे जविः शालिनीनां च लाभम्॥**
स्नानकल्यधनहा दशर्क्षगः
** तत्प्रदो भवति लाभगो गुरुः।**
द्वादशेऽध्वनि विलोलदुःखभाक्
** याति यद्यपि मनोरथोद्धतः॥**
प्रथमगृहोपगो भृगुसुतः स्मरोपकरणैः
** सुरभिमनोज्ञगन्धकुसुमाम्बरैरुपचयम्।**
शयनगृहासनाशनयुतस्य चानु कुरुते
** समदविलासिनीमुखसरोजषट्चरणताम्॥**
शुक्रे द्वितीयगृहगे प्रसवार्थधान्य
** भूपालसङ्गतिकुटुम्बहितान्यवाप्य।**
संसेवते कुसुमरत्नविभूषितश्च
** कामं वसन्ततिलकद्युतिमूर्धजोऽपि॥**
आज्ञार्थमानात्मजभूमिवस्त्र-
** शत्रुक्षयं दैत्यगुरुस्तृतीये।**
धत्ते चतुर्थे स सुहृत् समाजं
** रुद्रेन्द्रवज्रप्रतिमां च शक्तिम्॥**
जनयति शुक्रः पञ्चमसंस्थो
** गुरुपरितोषं बन्धुजनाप्तिम्।**
सुतधनलब्धिं मित्रधनाना-
** मनवसितत्वं चारिबलेषु॥**
षष्ठे भृगुः परिभवरोगताप्रदः
** स्त्रीहेतुकं जनयति सप्तमेऽशुभम्।**
यातोऽष्टमे भवनपरिच्छदप्रदो
** लक्ष्मीवतीमुपनयति स्त्रियं च सः॥**
नवमे तु धर्मवनितासुखभाक्
** भृगुणाऽर्थवस्त्रनिचयश्च भवेत्।**
दशमे च मानकलहं नियमात्
** प्रमिताक्षराण्यपि वदन् लभते॥**
उपान्त्यगो भृगोः सुतः सुहृद्धनान्नगन्धकृत्।
धनाम्बरागमोऽन्त्यगे प्रमाणिका प्रियायुतिः॥
प्रथमे रविजे विशवह्निहतः
** स्वजनैर्वियुतः कृतबन्धवधः।**
परदेशमुपेत्य सुहृद्भवनो
** विसुखार्थसुतोऽटकदीनमुखः॥**
चारवशाद्द्वितीयगृहगे दिनकरतनये
** रूपसुखापवर्जिततनुर्विगतमदबलः।**
अन्यगुणैः कृतं च वसु यत्तदपि खलु
** भवत्यम्ब्विव वंशपत्रपतितं न भवति चिरम्॥**
सूर्यसुते तृतीयगृहगे धनानि लभते
** दासपरिच्छदोष्ट्रमहिषाश्वकुञ्जररथान्।**
सद्मविभूतिसौख्यममितं गदव्युपरमं
** भीरुरपि प्रशास्यति रिपूंश्च धीरललितैः॥**
चतुर्थं गृहे सूर्यपुत्रेऽभ्युपेते
** सुहृद्वित्तभार्यासुतैर्विप्रयुक्तः।**
भवत्यस्य सर्वत्र चासाधु दुष्टं
** भुजङ्गप्रयातानुकारं च वृत्तम्॥**
धनसुतपरिहीनः पञ्चमस्थे
** प्रचुरकलहयुक्तश्चार्कपुत्रे।**
विनिहतरिपुयोगः षष्ठयाते
** पिबति च वनितास्यं श्रीपुटोष्ठम्॥**
गच्छत्यध्वानं सप्तमे चाष्टमे च
** स्त्रीभिः पुत्राद्यैः सूर्यजे दीनचेष्टः।**
तद्वद्धर्मस्थे वैरहृद्रोगबन्धैः
** धर्मोऽप्युत्सीदेद्वैश्वदेवक्रियाद्यः॥**
कर्मप्राप्तिर्दशमेऽर्थक्षयश्च
** विद्याकीर्त्योःपरिहारश्च सौरेः।**
तैक्ष्ण्यं लाभे परयोषार्थलाभां
** श्चान्ते प्राप्नोत्यपि शोकोर्मिमालाम्॥**
इति । शुभाशुभफलान्याचार्येणोक्तानि द्रष्टव्यानि।
अथ रविगुरुमन्दकुजानां केषुचित्स्थानेषु फलविशेषमाह—
द्वादशजन्माष्टमगाः पुंसां दिननाथजीवशनिभौमाः। वित्तक्षयं प्रवासं रोगान् जनयन्ति मरणभीतिं वा॥१२॥
पुरुषाणां द्वादशजन्माष्टमेषु गताः रविगुरुमन्दभौमास्तजन्मवतां पुंसां वित्तक्षयं प्रवासं रोगान् जनयन्ति। बहवो युगपत्तेषु गताश्चेन्मरणभयं च कुर्वन्ति । तथाचाहु—
द्वादशाष्टमजन्मस्थाः शन्यर्कगुरुभूमिजा।
कुर्वन्ति प्राणसन्देहं स्थाननाशं धनक्षयम्॥
इति। स्त्र्यादीनां स्वामिवल्लभतया गोचरं फलं न सम्यगायातीति पुंसामित्युक्तम्। वारशब्देन वेधाष्टवर्गाद्यानुकूल्ये शुभमशुभं च सम्यगायाति, तद्विरोधे न सम्यग्भवतीति। तथाच श्रीपतिः—
सर्वे लाभगृहस्थिताः त्रिखरिपुष्वर्कः कुजार्की त्रिषट्-
प्राप्तौ त्र्यादिखमन्मथारिषु शशी खास्तारिवर्जं भृगुः।
धीधर्मास्तधनेषु वाक्पतिररिस्वाष्टाम्बुखम्थो बुधः
श्रेष्ठो जन्मगृहाधिगोचरविधौ विद्धो न चेत् स्याद्गृहैः॥
इति। अत्र वेधो नाम जन्मतः स्थानविशेषगतग्रहस्य जन्मतत्स्थानान्तरीस्थतेन ग्रहेण प्रोक्तफलापवादः तद्विपरीतफलप्राप्तिश्च**।**एवं गोचरफलस्य वेधस्थानस्थो ग्रहो बाधकः। वामवेधे तु वेधस्थानस्थस्य ग्रहस्य
गोचरोक्तस्थानस्थग्रहान्तरेण वेधाच्छुभफलत्वम्।यथाऽऽह रल्लः—
एकादशे तृतीये दशमे षष्ठे च भास्करः शुभदः।
यदि च ग्रहैर्न विद्धः पञ्चमनवमार्णवान्त्यगतैः॥
जन्मानलर्तुसप्तमदशमैकादशगतः शशी शुभदः।
यदि विषयनवद्वादशपक्षसमुद्राष्टगतैर्गृहतः॥
भ्रातृरसरुद्रसंस्थावङ्गारकसूर्यजौ शुभफलौ स्तः।
यदि विद्धौ न स्यातां द्वादशनवपञ्चमोपगतैः॥
पक्षसमुद्रषडष्टमदशरुद्रगतः शुभावहः सौम्यः।
यदि न हतो विषयानलनवाद्यवस्वन्त्यगैः खचरैः॥
जीवोऽप्येकादशनवपञ्चमद्वितीयगः श्रेष्ठः।
यदि न हतोऽष्टमदशमभ्रातृचतुर्थान्त्यगैः खेटैः॥
रुद्रान्त्यपक्षवस्वेकवेदशिखपञ्चनवमगः शुक्रः।
यदि न हतोऽग्निरसाच्चलविषयाष्टदिगेकनवभवगैः॥
एभिर्वेधैर्विद्धा विफलाः स्युर्गोचरे ग्रहाः सर्वे।
विपरीतवेधविद्धाः पापा अपि सौम्यतां यान्ति॥
इति । एवमविशेषेण सर्वस्य सर्वेण वेधप्रसङ्गे सूर्यसौरयोः सोमसौम्ययोः न वेध इत्याहुः। यवनाचार्येण–
न शनैश्चरो दिनकरं दिवसकरो वा न वेधयेत्सौरम्।
एवं चन्द्रबुधावपि निर्दिष्टौ वेधतत्वज्ञैः॥
इति। अत्र केचित् जन्मतः स्थानविशेषगतस्य ग्रहात् स्थानान्तरगतेन वेध इत्याहुः। तदसत्, यत आह वसिष्ठः—
जन्मराशिगतश्चन्द्रो जन्मतः पञ्चमे स्थितः।
ग्रहो यदाऽन्यो मुनिभिर्वेधगोऽनिष्टदः स्मृतः॥
इत्यादि। इदं जन्मराशिमधिकृत्य ग्रहगोचरज्ञानम्**।जन्मलग्नमधिकृत्य तु शास्त्रान्तरस्थम्।**यथा—
तिग्मांशुर्दशषड्व्ययत्रिसुखगश्चन्द्रस्त्रिषट्कर्मगो
वक्रोऽपि त्रिदशारिपुत्रगृहगः सर्वेऽप्युपान्त्ये शुभाः।
सौम्यस्त्र्याद्यदशाम्बुषष्ठसहितो जीवोत्रिरन्ध्रान्त्यगो-
षट्खास्तान्त्यगतः सित सुखदशत्र्याद्यारिगः सूर्यजः॥
इति । कदाचित् ग्रहस्य अन्यदृष्टियोगेन गोचरे नैफल्यं भवति।
यथोक्तम्—
अगुमेक्षितः शुभफलो शुभफलदश्शुभनिरीक्षितश्चापि।
द्वावप्यफलौ स्यातां रिपुणा च विलोकितो विफलः॥
इति। नीचारिस्थाः शुभानि नाशयन्ति, पापानि वर्धयन्ति। तथाच
यवनेश्वरः—
द्विद्मेष्मगा नीचगृहे स्थिता वा
दुर्मार्गगाः सूर्यमनुप्रविष्टाः।
उक्तं विनिघ्नन्ति शुभानि चैते
फलान्यनिष्टान्यपि वर्धयन्ति॥
मन्दस्यास्तं गतस्य सूर्यवत् फलम्। यथोक्तं रत्नकोशे—
रविजोऽर्कसमफलः स्यात् चन्द्रसुतश्चन्द्रसमफलः सहितः
अस्तंगतोऽपि रविजो निजं फलं नैव हापयति॥
चन्द्रस्तु यादृशेन युक्तः तादृक्फलः। यथोक्तम्—
यादृशेन ग्रहेणेन्दु युक्तस्तादृग्भवेत्सोऽपि।
मनोवृत्तिसमायोगाद्विकार इव वक्रस्य॥
ग्रहगोचरदौस्थित्ये कृतं कर्म शुभं न फलाय कल्पते। ग्रहमौस्थित्येकृतमल्पमपि कर्म महते फलाय कल्पते। यथोक्तम्—
प्रारब्धमसुस्थितैर्ग्रहैः यत् कर्मात्मविवृद्धये बुधै।
विनिहन्ति तदेव कर्म तद्वैतालीयमिव यथाकृतम्॥
सौस्थित्यमपेक्ष्य यो ग्रहाणां काले प्रक्रमणं करोति राजा।
अपि स पौरुषेण वृत्तत्यौपच्छन्दसिकस्य याति पारम्॥
इति। ग्रहराशिसंक्रमे ताराबलमस्ति चेत् शुभम्.अन्यथा कष्टम्। अथोक्तगोचरफलपाककालस्य व्यवस्था वराहमिरेणोक्ता।
दिनकररुधिरौ प्रवेशकालेगुरुभृगुजौ भवनस्य मध्ययातौ।
रविसुतशशिनौ विनिर्गमस्थौ शशितनयः फलदस्तु सार्वकालम्॥
इति। वक्रातिचारराशिसन्धिषु फलविशेषो रत्नकोशेऽभिहितः—
झषसन्धिगताः खेटा राशिसन्धिगतास्तथा।
एप्यराशेः फलं दद्युर्वक्रे तु विपरीतकम्॥
सर्वे ग्रहा विकृतिजं दध्युः सांदृष्टिकं फलम्।
अतिचारे च वक्रे च दध्युः पूर्वफलं ग्रहाः॥
तत्र च—
पक्षं दशाहानि तथैव सार्धं
मासं दशाहं खलु षट्च मासान्।
भौमादिखेटान्त्वतिचारवक्रे
दध्युः फलं पूर्वगृहे यदुक्तम्॥
इति। एवमुक्तं गोचरफलं ग्रहाणां तत्तद्राशिसङ्क्रमणकालचन्द्रताराबलानुगुण्येन योज्यम्। तच्च वेधाष्टकवर्गाभ्यां तदनुगुणमवसेयम्। तदपि शुभाशुभदृष्टियोगेन नीचोच्चादिस्थित्या च तदनुगुणं चिन्तनीयम्। तत्रापि पाकेशमित्रारित्वादिवशेन फलं वाच्यम्। योगीन्द्रेण—
गोचरोक्तमफलं सति वेधे
सोऽष्टवर्गकविधौ स समाद्यैः।
तच्च पाकजफले तदशक्यं
शक्तिमत्तमदशासु विरोधे॥
जातिवंशपितृवासरदेशकालसदृशं देशोचितं जन्मकालिकदशाऽष्टवर्गकं तत्कालशक्तिसदृशैः फलं वदेदिति।
इह प्राणिनां प्राचीनकर्मपाकसूचकग्रहराशिकृतं फलं त्रिविधं—स्थिरमस्थिरं मिश्रं च। तत्र दशापाकादिजं स्थिरं‚ गोचराष्टवर्गाध्यत्थिरंदशारिष्टादि मिश्रम्। तत्र स्थिरमवश्यं भोक्तव्यं शान्याद्यसाध्यम्। मिश्र तु शुभयोगदर्शनाद्यनुग्रहे सति शान्त्यादिसाध्यं भवति। अस्थिरंतु शान्त्यादिसाध्यं भवति। तस्मात् गोचरेणानिष्टो ग्रहः स्वपूजादिभिःशान्तमिष्टं ददातीत्याह—
** इत्थं समस्तजगतामशुभं शुभं च संजायते हि निखिलग्रहचारयुक्त्या। पूजास्तुतिप्रणतिभिर्मुदिता ग्रहास्ते कुर्वन्त्यनिष्टगतयोऽपि जनस्य लक्ष्मीम्॥ १३॥**
** **इत्थमुक्तप्रकारेण ग्रहचारसामन सर्वेषां जगतां द्विपाच्चतुप्पदादीनां मनुजादीनां च प्राचीनकर्मपाकजमशुभं शुभं च फलं संजायतेसम्यग्वर्णितं प्रकाशितं जायते\। हि हेतौ यत इत्यर्थः पूजास्तुतिप्रणतिभिः ग्रहपूजास्तवननमस्कारैर्मुदितास्तुष्टास्ते ग्रहाः जनम्याऽनिष्टस्थानगता अपि लक्ष्मीश्रियं कुर्वन्ति। अत्र गुरुः—
ग्रहाधीनं जगत्सर्व ग्रहाधीनाः सदाऽमरा।
कालज्ञानं ग्रहाधीनं ग्रहाः कर्मफलप्रदाः॥
सृष्टिरक्षणसंहारी सर्वेशोऽपि ग्रहानुगः।
कर्मणां फलदातारः सूचकाश्च ग्रहाः सदा॥
इति —
ग्रहाधीना नरेन्द्राणां उच्छ्रायाः पतनानि च।
भावाभावौ च जगतां तस्मात् पूज्यतमा ग्रहा॥
इति। श्रीपतिश्च —
देवब्राह्मणवन्दनात् गुरुवचस्संपादनात् प्रत्यहं
साधूनामभिभाषणात् श्रुतिरवश्रेयः कथाकर्णनात्।
भूमावध्वरदर्शनात् शुचिमनोभावात् जपात् दानतः
नो कुर्वन्ति फदाचिदेव पुरुषस्यैवं ग्रहा पीडनम्॥
इति। अन्ये त्वाहुः—
ग्रहा गावो नरेन्द्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषत।
पूजिताः पूजयन्त्येते निर्दहन्त्यवमानिता॥
अश्रद्दधानमशुचिमजपं त्यक्तमङ्गलम्।
ग्रहा नयन्ति सुव्यक्तं पुरुषं यमसादनम्॥
इति। ग्रहवैषम्ये सति प्रभुः स्वविभवानुसारेण तच्छान्तिकारिणां ग्रहयज्ञात्मिकां पूजां कारयेत् तद्विधिरुच्यते—स च बहुमुनिमतानि समाहृत्य योगीन्द्रेण प्रपञ्चित एवाऽस्माभिरभिधीयते॥
अथ प्रणम्येश्वरमश्विरात्मानां
विधिग्रहाणां यजनस्य वक्ष्यते।
स नित्यनैमित्तिककाम्यभेदतः
त्रिधाऽथ ते स्युर्वरमध्यमाधाः॥
स च दिनेदिने भानुवारे त्रिजन्मर्क्षे अष्टम्यमावास्यायां विष्कम्मादिनवदुर्योगेषु मासिमास्यूतावृतावने विषुवेऽर्के भौमजीवार्किराशिसङ्क्रान्तिपुग्रहणे व्यतीपातादिषु च नित्यः।यज्ञोपनयनोद्वाहपुत्रजन्माध्युत्सवप्रति–ष्ठाप्रवेशयात्रायुद्धारम्भग्रहपीडादुष्कर्मपाकभयरोगादिव्यसनोत्पातादिपुनैमित्तिकः।दैवभूतमानुपाद्युद्भवभयरोगशान्त्यर्थमायुर्वित्तपुत्रपश्चादिपुष्ट्यर्थं वृष्ट्यादीष्टप्राप्त्यर्थंपराभिचारार्थ च क्रियमाणः काम्यः॥ स च प्रतिद्रव्यमष्टोत्तरसहस्राहुतिसङ्ख्यो मुख्यः। अष्टोत्तरशतसङ्ख्यो मध्यमः।
अष्टाविंशतिसंक्यः कनीयान्। अत्र गुरु.—
अष्टोत्तरसहस्रेण शतेनाष्टोत्तरेण वा।
अष्टाविंशतिना वाऽपि मुग्व्यमध्याधमैहुतैः॥
क्रमादारभ्य सर्वेषां ग्रहागामर्कपूर्विणाम्।
नवानां यजनं कार्यं समिदन्नघृतैस्तथा॥
एकाग्नयेकाध्वरं नवाग्निनवाध्वरं वा एकाग्निनवाध्वरं कार्यम्। तत्र नवाध्वरेयथालाभं ग्रहशाखावयोरूपान्विता ऋत्विजः स्युः।
तथा च गुरुः—
वयसा रूपतश्चैव गुणेन कथितैः सम।
ग्रहस्य विप्रमुख्यो य स तस्यैवारभेत् बुधः॥
एकाध्वरे ऋत्विगेव आचार्यः। स च—
युवा सौम्यो द्विजो विद्वान् ग्रहचारादिकालवित्।
ग्रहभक्तः पटुर्धीमान् सदाचाररतः शुचि॥
अथ सर्वत्र नवाध्वरे ग्रहार्चनकलशस्थापनाभिषेकपूर्वोत्तरतत्रादिसाधारणकर्मार्थं पृथगाचार्यो वरणीय। सर्वत्र ब्रह्मा तत्राङ्गतो न नित्यः। एकाग्निनवाध्वरे तमेव केचिदाचार्यमिच्छन्तो न पृथग्वरणमाचरन्ति। नवाग्निपक्षे तत्तद्दत्विक्लर्तृकं तत्तत् ग्रहादिपूजनं तत्तदग्निपूर्वोत्तरतन्त्रादि च कलशस्थापनं ब्रह्मकर्तृकं मुख्यकर्तृकं वा एतच्च ग्रहाद्यर्चनं कुण्डेस्थण्डिले वा कार्यम्। अनुदिनहोमात्मकं तु कुण्ड एव। एकाग्नौ तु कुण्डं चतुरश्रं हस्तमितं तावत्खातं चतुस्त्रियङ्गुलत्रिमेखलं चतुरङ्गुलैकमेखलं वा स्यात्। अर्चनाय नव कोष्ठानि सकर्णिकमष्टदलं वा कार्यम्। तत्र स्वखदिक्षु ग्रहाणां स्तखवर्णौ स्वखमण्डलानि कुर्यात्। तद्यथा—
भानुभार्गवसोमारराहुभानुजकेतवः।
गुरुसौम्यौ च मध्यादिदिक्षु पूज्याः प्रदक्षिणम्॥
वर्णं कुण्डं स्थानं च तत्रैवैकैकस्मित् मण्डले गृहतदधिदैवत प्रत्यधिदवतैप्रतिमास्थापनार्थं मध्यदक्षिणसव्यभागेषु श्वेततण्डुलै त्रीणित्रीणि वृत्तमण्डलानि स्युः। नवाग्निपक्षे नव कुण्डाः होतृस्थानवेदिपर्याप्तस्थण्डिले मध्याद्युक्ततत् त्स्थानेषु उक्तवन्नवकूण्डानि स्थण्डिलानि वा कृत्वा तत्तत्पुरतः प्रादेशचतुरश्रपञ्चाङ्गुलोच्चवेध्युपयुक्तवृत्तादिनवमण्डलानि सान्तस्त्रिवृत्तानि स्युः। यद्वा होमकुण्डानि स्थण्डिलानि च वृत्ताद्याकाराणि कार्याणि तेपु मण्डलेषु वलयितताम्रस्फटिकरक्तचन्दनस्वर्णहेमरजतायः ससिकांस्यमय्यो बुधगुरुराहूणांशुक्तिमृत्सुवर्णमय्यो वा अलाभे सर्वेषां कर्षादिमाषावरमानस्वणर्मय्यो वा तत्तद्वर्णगन्धे वा पटे मण्डले वा लिखिता स्वमण्डलस्थदर्भक्कूर्चेषु व्यानमय्यो वा वक्ष्यमाणपद्मासनादिद्विभुजत्वादिमूर्तिध्यानसदृशाकारा अधि-दैवतप्रत्यधिदैवतयोश्च तत्तज्ग्रहोक्तद्रव्यमय्यः शिल्पशास्त्रादिसिद्धत्रिणेत्रचतुर्भुजशूलस्त्रुवादिहस्ता वृषमेषारूढत्वाद्याकाराः स्वोच्छ्रयासाष्टशताङ्गुलभृप्तिकल्पितमुखाद्यङ्गाः प्रतिमाः कार्याः। केचित्सुवर्णस्य सर्वदैवत्यार्थश्रुतेर्मुख्यगौरवाच्च गोणत्वायोगात् ग्रहाद्यर्चनासु सौवर्णत्वं मुख्यत्वेन आचरन्ति—
अग्निस्तु साग्निना ग्राह्यः सोऽन्यैः श्रोत्रियगेहतः।
अप्निनामानि—
कपिलः पिङ्गलो धूमकेतुः स्यात् जाठरः शिखी।
हाटकश्च महातेजा हुताशो रौद्र इत्यपि॥
नवानामग्नयः प्रोक्ताः ग्रहाणामर्कपूर्विणाम्॥
विधिश्च यजमानगृह्योक्तो विप्राणां। पुरोहितगृह्योक्तः क्षत्रियाणां विशां च । आचार्यगृह्योक्तोऽन्येषां। आचार्यो ग्रहर्त्विगेव। समिधः अर्काद्याः। एषामभावे पालाश्यः सर्वेषां स्युः सलक्षणाः प्रादेशमात्र्यः सत्वक्का
नात्यङ्गुष्ठस्थविष्ठकाः। खादिराः स्रुवः। पालाशी जुहूः। वैकङ्कती
प्रोक्षणपात्री।एपामन्यतमादश्वत्थाद्वा सर्वं प्रणीतादिपात्रम्॥ नवाग्नौप्रत्यग्नि स्त्रुवादिकं सर्वं बह्वध्वरे प्रतिहोतृ जुहूः स्रुवौ अधिदैवतंप्रत्यधिदैवताया रचिततत्तज्ग्रहवदर्चनद्रव्यादिसमिदादिकं। यद्वा—
पालाशवटरक्तकरवीरमधूकपिप्पलपनससालशमखदिरेभ्यः क्रमात् ग्रहाणां स्रुक् समिधः। राहो विभीतकाद्वा सूर्यादिपूजने गन्धान् योजयेत्।रक्तचन्दनं—
सुगन्धं मलयोद्भूतं रक्तचन्दनकुङ्कुमे।
प्रियन्गुकुम्कुभादीनि पीतश्रीखण्डकुङ्कुमे॥
श्वेतचन्दनपूर्वाणि शैले यमृगनाभिजे।
कृष्णं कालेयमुस्तादि उशीरं पञ्चवर्णकम्॥
यथालाभमम्नि स्युः ग्रहवर्णसमानि वा।
बकुलार्कपलाशादि कुमुदादि सितानि च॥
रक्तोत्पलजपादीनि चम्पकाशोकजातिकम्।
कल्हारशतपत्रादि जात्यादीनि सितानि च॥
कालाञ्जनादि कृष्णानि सिन्धुवारादि चासितम्।
वन्यानि चित्रपुष्पाणि सूर्यादीनां प्रपूजने॥
अन्यानि वा सुगन्धीनि ग्रहवर्णसमानि तु।
सूर्यादीनां कुन्दुरुकं गुडसर्पिश्च गुग्गुलुः॥
अगरुः स्यात् सर्जरसोऽगरुर्लाक्षा च गुग्गुलुः।
नवश्चेति क्रमाद्दपाः सर्वेषां वाऽथ गुग्गुलुः॥
नववर्त्या प्रदातव्यः प्रदीपो गोघृताक्तया।
गुडौदनं पायसान्नं रक्तान्नं क्षैरिकं तथा॥
दध्यन्नं च हविष्यान्नं तिलान्नं पिशितौदनम्।
चित्रान्नं चेति नैवेद्यं हौम्यं भोज्यं च सूर्यतः॥
भविष्यद्वापि सर्वेषां सर्वं होम्यादि गृह्यते।
अथवा कुजादीनां गन्धान पायसवटकघ्रूतान्नपैष्टिकतिलान्नमापान्नानि ग्रहभक्ष्याणि। द्राक्षेक्षु खर्जूरनारङ्गजम्बीरबीजपूर पिण्डग्वर्जूरनालिकेरकदलीफलानि। ग्रहभूषणानि माणिक्यं मुक्ताः विद्रुमं मरकतं पुण्यरागस्वर्णेवज्ररजते नीलं गोमेधिकं वैडूर्यमिति। एकाध्वरं प्रकृत्य प्रयोग उच्यते—
यजमानः शुचि स्नातः शुद्धवासाः स्वलङ्कृत।
संभृताखिल सम्भार कृतावश्यकनैत्यकः॥
सुभूमौ विधिवत् कृत्वा कुण्डस्थण्डिलपूर्वकम्।
यथासंभवतः काले ग्रहताराबलान्विते ॥
दर्भासनो दर्भपाणिः प्राङ्मुख कृतसंयमः।
कर्तुर्नाम च गोत्रं च नक्षत्रं जनकस्य च॥
नाम्ना सहाऽऽयुराद्यर्थमिति चोक्ताऽभिवृद्धये।
ग्रहयज्ञेन यक्ष्ये इति सङ्कल्प्य स्वस्ति;
पुण्याहं प्रोक्षणं कृत्वा सर्वतः प्रोक्षयेत् स्थलम्।
अमुष्मिन् ग्रहयज्ञे तु त्वमाचार्यो भवेत्यथ॥
कुलशीलवयोरूपवित्ताध्ययनसंयुतम्।
विधिज्ञं शुचिमार्चार्य वृत्वा तं कृतनैत्यकम्॥
अर्चयेद्गन्धपुण्यार्ध्यवस्त्राल्ङ्करणादिभिः।
कल्पितं ग्रहयज्ञार्थं द्रव्यजातमिदं मया॥
यथा दैवतमेतन्न मम विद्वन्नतस्त्विदम्।
यथा दैवतमाघेहि जुहुध्यर्च निवेदय ॥
इति—
आचार्यमनुजानीयात् अथाचार्यस्स्वयं सुधीः।
स्थण्डिलं प्रतिपद्याग्निं स्थानोल्लेखनपूर्वकं॥
विधायाग्निनिधानान्तं कर्म कुर्यात् ग्रहार्चनम्।
मध्ये तु वह्रिस्थानं स्यात् ग्रहस्थानं तु पूर्वतः॥
ऐशान्यां कलशस्थानमेवं स्थानानि कल्पयेत्।
मध्यादिदिक्स्थवृत्तादिमण्डलस्थानेष्वादित्यादीनां साधिदैवतप्रत्यधिदैवतानां प्रतिमां न्यसेत्।
रवीन्दू पश्चिममुखौ दक्षिणास्यौ कुजध्वजौ।
प्राङ्मुखाः पातविदछुकाः गुरुमन्दावुदङ्मुखौ॥
रवेरभिमुखाः सर्वे पूज्याः स्युरिति केचन।
अर्चकाभिमुखा इत्यन्ये। एवं तत्तद्दिच्युस्खीस्तत्तत्प्रतिमाः न्यस्य तासु तानावाहयेन। तच्च व्यस्तसमस्तव्याहृत्यन्ते तत्तन्मत्रान्ते च द्वितीयया तत्तन्नामोक्ताऽऽवाहयामीत्यावाहनं कार्यम्। तद्यथा—
ॐ भूरादित्यं भुव आदित्यं सुवरादित्यं ॐॐ भूर्भुवम्मुवरादित्यमावाहयामीति। ॐ आसत्येन• • • • विपश्यन्। आदित्यमावाहयामीति। एवं सोमाङ्गारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतूनामावाहनं। एवं सर्वत्र तत्तज्ग्रहावाहनानन्तरं तत्तदधिदेवताप्रत्यधिदेवतयोरावाहनं तद्यथा—
ॐ भूरदित्याधिदैवतमनिमावाहयामि इत्येवं व्याहृतिना अग्निन्दूतं• • • • • आदित्याधिदैवतमग्निमावाहयामि। ॐ मूरादित्यप्रत्यधि दैवतमीश्वरमावाहयामीति। ॐ भूर्भुवस्सुवरादित्यप्रत्यधिदैवतमश्वरमावाहयामीति। त्र्यम्बकं • • • • • आदित्यप्रत्यधिदैवतमीश्वरमावाहयामीति। एवमन्येषामूह्यम्। यद्वा–पूर्व नवग्रहाः ततो नवाधिदैवताः ततः प्रत्यधिदेवताः आवाह्याः।
अग्निरापो मही विष्णुरिन्द्रेन्द्राण्यौ प्रजापतिः।
सर्पा ब्रह्मेति सूर्यादिग्रहाणामधिदेवताः॥
प्रत्यिधिद्भेवतास्तु—
रुद्रा गौरी कुमारश्च विष्णुर्ब्रह्मा शचीपति।
यमः कालोऽग्निरित्येता ग्रहप्रत्यधिदेवताः॥
केचिद्रुद्रादीनधिदेवताः अग्नयादीन् प्रत्यधिदेवताः प्राहुः। होमाभा–वपक्षे अधिदेवताप्रत्यधिदेवतयो पृथक्स्थानार्चना वाहनादिकं नास्ति। ग्रहपूजाकाले ग्रहा एव तत्तद्देवतात्मतया ध्येयाः। मूर्तिध्यानादीनि कथ्यन्ते–व्याहृतीनां विश्वामित्रजमदग्निभरद्वाजाः क्रमादृषयः । गायत्री–तृष्टुबनुष्टुप्छन्दांसि । अग्निवायुसूर्या देवताः। समस्तानां प्रजापतिः बृहती आदित्यस्य ‘आसत्येने’ हिरण्यस्तूपस्तृष्टुप सविता। आकृण्णेनेति अधिदेवताग्ने ; ‘अग्निंदूतं’ मेधातिथिर्गायत्री अग्निमूर्तिध्यानं इत्येवं सूर्यादिग्रहानावाह्य सकलीकृत्य ध्यात्वा प्रत्युपचारं तारं व्याहृतीर्वोच्चार्य चतुर्थ्या ग्रहदेवतानामोक्त्वाइदं ददामीति क्रियामाणोपचा– राभिधानपूर्वमासनादिकं दद्यात्। इत्युपचारान् दत्वा आपोहिष्ठादि–भिरब्लिङ्गैर्मन्त्रैः स्नानं। ग्रहवर्णानि वस्त्राणि ग्रहरत्नमयान्याभरणानि सर्वेषां धूपः गुग्गुलुर्वा गोघृताक्तग्रहवर्णनववतिप्रदीपं ग्रहोक्तानि नैवेद्यानि हविष्यं वा सर्वेषां आचमनीयमक्ष्यमुखवासताम्बूलदानादिकं। ऐशान्यां कल्पितकलशे प्लक्षवटाश्वत्थजम्बूदुम्बरत्वग्रसं पल्लवानि तत्तन्मन्त्रसंयोजितं पञ्चगव्यं च पञ्चरत्नानि गन्धाक्षतपुष्पकुशफलानि कुष्ठमांसिहरिद्राद्वयमुराशैलेयचन्दनवचाकाचारमुस्ता समस्तौपधीश्च व्याह्रत्या गोगजाश्वशालारथ्यावल्मीकसङ्गमह्रदमृदो ‘बलित्थे’ त्यृचा क्षिप्त्वा अश्वत्थादिपल्लवैराच्छाद्य तस्मिन् समुद्रादीनावाहयेत्।
एहि गङ्गेऽत्र यमुने गोदावरि (नमोऽस्तु) सरस्वति।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
वरुणं चावाह्यव्याह्रत्यादिमन्त्रैरर्चयेत् । मार्जनपक्षे कलशस्थापनादि कार्यं। अग्नयन्वाधानाद्यग्निमुखान्तं कर्म कृत्वा ‘आसत्ये’ नादिग्रहमन्त्रैः पक्वं हुत्वा समिदाज्यचरूणामाज्यानां वा प्रत्येकमष्टसहस्रमष्टशतमष्टाविंशति वा प्रतिद्रव्यं जुहुयात् । द्रव्यान्तरेषु ‘मूर्धानं दिव’ इति पूर्णाहुतिं कुर्यात्। समिदनन्तरं तिलहोमोऽपि कैश्चिदुक्तः । एवं त्रिभिमन्त्रैत्सङ्कल्पिताष्टशताद्याहुतिसङ्ख्यासंम्पूरणं गुरुः—
प्रत्येकमेषां मन्त्रास्स्स्त्रयीसङघयास्त्रिभागशः ।
एक एवाऽथवा मन्त्रः समिदन्नघृतेषु च ॥
एवं कल्पिताहुति सङ्ख्यां त्रिधा विभज्य त्रिभिर्मन्त्रैर्होमः कर्तव्यः सर्वत्र समिदो घृताक्ता हस्तेन होतव्या । अत्र प्रस्थधान्यान्नेन तदर्धयवतिलेन तदर्धघृतेन च चतुष्टिराहुतष्टिां सप्पाद्या मा सर्वेषु होमेषु यजमानो द्रव्यप्रक्षेपकाले अमुष्मा इदं न मेमति प्रतिद्रव्याहृत्यनुसधानं विदध्यात् । ततश्चरुशेषं सकृत् सकृदवदाय ‘सोमं राजानमिति’ स्वगृह्योक्तस्विष्टकृन्मन्त्रेण वा जुहुयात् । प्रणीताप्रोक्षणान्ते यजमानस्य कलशोदकेन आचार्यः‘सुरात्वामित्यादि’ मन्त्रैरभिषेकं कुर्यात् । स्विष्टकृद्धोमान्ते मार्जनं कुर्वन्ति।
सुरास्त्वामभिषिञ्चन्तु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
वासुदेवो जगन्नाथः तथा सङ्कर्षणो विभु ॥
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भवन्तु विजयाय ते।
आखण्डलोऽग्निर्मंगवान् यमो वै निर्ऋतिस्तथा ॥
वरुणः पवनश्चैव धनाध्यक्ष तथा शिवः।
ब्रह्मणा सहितः शेषो दिक्पालाः पान्तु ते सदा ॥
कीर्तिलक्ष्मीधृतिर्मेधा पुष्टिः श्रद्धा क्रिया मतिः।
बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिः तुष्टिः कान्तिश्च मातरः।
एतास्त्वामभिषिञ्चन्तु धर्मपत्नयः समागताः ॥
आदित्यश्चन्द्रमा भौमो बुधो जीवः सितोऽर्कज।
ग्रहास्त्वामभिषिञ्चन्तु राहुः केतुश्च तर्पिता ॥
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः।
ऋषयो मनवो गावो देवता देवमातरः ॥
देवपत्नयो द्रुमा नागाः दैत्याश्चाप्सरसां गणाः।
अस्त्राणि सर्वंशस्त्राणि राजानो वाहनानि च।
औषधानि च रत्नानि कालस्यावयवाः शुभाः ॥
सरितः सागराः शैलाः तीर्थानि जलदा नदाः।
एते त्वामभिषिञ्चन्तु सर्वकामार्थसिद्धये ॥
इति। पौराणिका वैदिकाश्च समुद्रा आप………..। इत्यादयः \।प्रणीतोदकेनान्येन वा ‘आपोहिष्ठेति’ ‘हिरण्यवर्णाश्शुचयः’ पवमानस्सुवर्चनः’ इत्यनुवाकेन मार्जयेत् ।
अथ होमकर्तृभ्यो दक्षिणां दद्यात् । ब्राह्मण कपिलां धेनुमादित्याय ते ददामीति; ब्राह्मण शङ्खं सोमाय ते ददामीति; रत्नमनड्वाहमङ्गारकाय काञ्चनं बुधाय ते ददामि । पीतवस्त्रयुगं बृहस्पतये श्वेताश्चं शुक्राय ते रजतं वा।
यस्मात् त्वं पृतवी सर्वा धेनुः केशवप्तन्निमा ।
सर्वपापहरा नित्यमतरशान्तिंप्रयच्छ मे ॥
शनैश्चराय कृष्णां गां ते ददामि आयसं राहवे छागंकेतवे उक्तदक्षिणाभावेन गावो वा दक्षिणाः। सुवर्णभूषिता गाः आदित्यादिभ्यस्ते ददामि सुवर्णमुक्तदक्षिणामूल्यत्वेन आदित्यादिभ्यस्ते ददामीति दक्षिणावस्त्रादिभिराचार्यब्राह्मणौ पूज्यौ। पूर्वं यथा आवाहयामीति पठित्वा आवहिताः तथोद्वासयेत्। ब्राह्मणभोजनं बुह्मसाद्गुण्याय स्वस्तिवाचनं कुर्यात् ।
नवाम्मिनवाध्वरपक्षे तु—वृतार्चिताः ऋत्विज ।
स्वकुण्डस्य पश्चादुपविश्य अग्निं प्रणीय कपिलादिस्वस्वाग्नीनभ्यर्च्य तत्तद्वेद्यां ग्रहादीनामा वाहनाद्द्युपचारान् कुर्युः। आचार्यः कलशाद्यर्चनस्थापनवरुणाद्यर्चने कुर्यात् ।अग्न्य धानादिसमिदादिहोमान्तं कुर्युः। तदनन्तरमत्र केचित् सौराग्नेयरौद्रसूक्तैप्रत्यग्नया ज्येनोपहोमान् कुर्वन्ति । यथा तत्र मन्त्राः—‘सूर्या मेनादिव’ इति मुक्तस्य चक्षुर्गायत्री सूर्याः । ‘उदुत्यं प्रस्कण्वःगायित्री सूर्याः अन्यास्त्वृचोऽनुष्टुभः । नमोरुद्रस्येति सूक्तस्य अभितपसःजगतीसूर्याः। ‘चित्रं देवानां गृतं’, तृष्टप् सूर्याः ‘तद्रोद्यमा नाम इति त्रृर्चस्य वसिष्ठबृहस्पतिसूर्या ।‘उत्सूर्या’ वसिष्ठातृष्टुप् सूर्याः ‘द्वेति’ पञ्चर्चस्यापि एतानि सौराणि सूक्तानि॥
‘त्वमग्नेप्रथमः’ हिर . . . . . . . . . . . .त्यग्नयः’ त्वमग्नेद्युभि गृत्समदजगत्यग्नयः । एते आग्मये सूक्ते॥
कद्रुद्राय’ कण्वो गायित्री रुद्राः ‘इमा रुद्राय तपसे’ कुत्स-जगतीरुद्राः । ‘आ ते पिता’गृत्समदस्तृष्टुप् रुद्रा । एतानि रौद्राणि सूक्तानि॥
एते चोपहोमनामान नवाग्निनवाध्वरपक्ष एव । अथ विष्टकृतं प्रचार्याचार्यो यजमानमभिषिञ्चेत् मार्जयेद्वा॥ शेषमन्यत् प्राग्वादति ॥
अथ यो विशेषः स उच्यते। आचार्यः प्राग्वत् संकल्प्य अग्नयाघानादिकं सर्वं पूर्ववत्। वेद्यांविनायकादिप्रतिमाश्च न्यस्य तासु ग्रहादीनावाह्य विनायकादीन् व्यस्त समस्तव्याहृतिभिस्तत्तदृ ग्मिश्चावाह्यसमस्तन्याहृतिपूर्वकं चतुथर्यन्तं तत्तन्नाम्नैवासनादिकं दद्यात् विनायकस्य ‘आतून इन्द्र’ कुसीदो गायित्री विनायकाय ‘दुर्गाया जातवेदेस’ काश्यपस्तृप्टुप् । वायोः ‘काणाशिशुः’ त्रित उष्णिग्वायुः। आकाशस्य
‘आदित्प्रश्नस्य’ वत्सो गायत्र्याकाशः। अश्विनोः एषोउषा’ प्रस्कण्वो गायत्र्यश्विनौ। वस्त्रगन्धादीनि नैवेद्यतांबूलान्तानि सर्वंप्राग्वत्। पृथिव्यादिपञ्चतत्वान्यावाह्यार्चयन्ति। तन्मन्त्रा उक्ताः—पृथिव्या ‘भूमिभूर्म्ना’। अपां इमं मे वरुण’ अग्नेः अग्निं दूतं ‘काणाशिशुः’ ‘आदित्प्रश्नस्य अन्वाधानाद्यग्निमुखान्तं प्राग्वत्। अथर्त्विजःसमिदादि जुहुयुः। द्वात्रिंशद्देवतानां प्रत्येक मष्टाविंशतिः दधिमधुघृताक्तसमिद्धोमः। तावत्संख्या घृतहोमाः। चरुभक्ष्यफलैश्चप्रतिद्रव्यं दशसङ्ख्यो होमः सयवत्रीहितिलौ च। अत्र केचित्— ग्रहव्यतिरिक्तदेवानां समिदाज्ययोरपि दशसङ्ख्याहोममाचरन्ति। एता. सर्वाः आहुतीः सममृत्विजो विभज्य जुहुयुः। नवर्त्विक्पक्षे एकाग्निनवाध्वरवत्।तत्तदृत्विक्कर्तृकौ तत्तद्गपूजाहोमौ। विनायकादीनामाचार्योऽर्चक होता च। सर्वत्र आचार्यकर्मणि ब्रह्मणैव विनायकादीग्रहाद्यर्चंनं विनायकादिहोमं पूर्वोत्तरतन्त्रं च कारयन्ति। स्विष्टकृतं पूर्णाहुतिं च जुहुयात्।कलशोदकं द्विजैस्सार्धमाचार्यो यजमानमभिषिञ्चेत् मार्जयेद्वा ॥ आचार्याय दक्षिणां दद्यात् सर्वं प्राग्वत्। स एष ग्रहयज्ञः देवप्रतिष्ठादिकर्मस्वादौ विधेयः मात्सयपुराणे—
विवाहोत्सवयज्ञेषु प्रतिष्ठादिषु कर्मसु।
निर्विघ्नाय विधातव्यस्तत्तद्भुतहुतेषु च।
द्वादशाहः समस्तेषु नवग्रहमखः स्मृतः॥
तस्मान्न दक्षिणाहीनं कर्तव्यं भूतिमिच्छता।
संपूर्णया दक्षिणया तस्मादेकोऽपि तुप्यति॥
सर्वग्रहहोमाशक्तौ कतिपयग्रहानुकूल्ये वा सर्वान् ग्रहानावाहनाद्युपचारैदुःस्थग्रहं वस्त्रभूषणादिभिरभ्यर्च्य तस्य समिदादिद्रव्योमं सदक्षिणं कुर्यात्।
केचित् दुम्थं ग्रहं सूर्येण सहार्चयन्ति।
…………………..‘यंयं पूजितुमिच्छति’
सहैव भास्करेणासावर्चनीयां न केवलः॥
इति। होमाशक्तौ स्थण्डिले ग्रहानावाह्य आराध्य ग्रहादिमन्त्रान् होमद्विगुणसङ्ख्य वा जपित्वा यजमानमभिषिश्चेत्। स तस्मै प्रोक्तदक्षिणां दद्यात्। अर्चनाशक्तौ ग्रहबुध्या तत्समसङ्ख्यान्विप्रानमुष्मै नम इति तत्तन्नाम्नाभ्यर्च्य तत्तदुक्तद्रव्यं गवादि निष्कादि स्वर्णं वा दद्यात्।दानाशक्तौ यजमानः स्वसुहृद्वाऽमु तर्पयाम्यमुंतर्पयामीति तत्तन्मन्त्रैः गृहदेवतातर्पणं होमसमसङख्य कुर्यात्॥ ग्रहपूजादिफलमुक्तम्–
अनेन विधिना यस्तु ग्रहपूजां समाचरेत्।
सर्वान् कामानवानोति प्रेत्य स्वर्गे महीयते॥
एतत् पुण्यं कृतं येन तेन तद्धि महात्मना।
प्राप्यते महती लक्ष्मर्मुिच्यते चापदन्तत॥
रोगारिराजबाधाश्च भयान्यन्ये च मृत्यवः।
तुष्टग्रहप्रसादेन मुच्यन्ते नाऽत्र संशयः॥
लभ्यते महदायुश्च विजयश्च रणे सदा।
अभिगेतार्थसिद्धिश्च भवेत् तस्य न संशयः॥
यथोचिता प्रदेयाऽत्र दक्षिणा तोषिते ग्रहे।
अध्वर्युभ्यो न चेदेवं प्रत्येकं च दिने दिने॥
अवश्यं देयमेवाऽत्र चत्वारिश द्यवावरम्।
सुवर्णंफलमिच्छाद्भिर्नोचेदफलदा ग्रहाः॥
त्वयापीन्द्र ततः कार्य ग्रहयज्ञं दिने दिने।
किंपुनर्मानवैरन्यैः नृपैर्वा विजगीषुभिः ॥
यज्ञाशक्तौ तु सर्वेषां ग्रहाणां तु समन्त्रकैः।
जपेद्वा विप्रमुख्यैस्तु दत्वा चात्रोक्तदक्षिणाम्॥
अशक्तस्तु जपे दद्यात् अनुरूपोक्तदक्षिणाम्।
तदभावे तु तन्मन्त्रैः तर्पयेच्चपृथक् पृथक्॥
अतिपातिषु कार्येषु सर्वान् कृत्वा फलं लभेत्।
इति। यदेयं ग्रहपूजा राजादीनां विजययात्रायां क्रियते तदा यियासिततत्तद्दिगीशार्चनेन सह कार्या। यथा यियासितदिक्पालस्येन्द्रादेः स्वर्णमयीं प्रतिमां कृत्वा तद्दिशि न्यस्य व्याहृतिपूर्वकं तत्तदृग्भिरावाह्य पूजयेत्। मन्त्रा यथा–इन्द्रादीनां ‘इन्द्रं वो विश्वतः’ ‘अग्निन्दूतं’। ‘यमाय सोमं’ अष्टब्ययमः पराकलो गायित्री निरुऋतिः ‘त्वन्नो अग्नेवामदेवस्तृष्टब्वरुणः ‘तव वायो वसुनो’ गायित्री वसुः। ‘सोमोधेनुं’ गौतमस्तृष्टुप् सोम ………कृत्वा हेम्ना दारुणा वा तन्मन्त्रेणाकृतिं यजेत्। तद्वर्णगन्धवस्त्राद्यैरेव तत्तद्दिगीश्वरमिति \। स्नानविधिश्च रत्नकोशेऽभिहितः—
सुरदारुकुङ्कुमैलामनश्शिला मधुकपद्मकोशीरैः।
ताम्रैः कुसुमैश्च रवौ विषमस्थानस्थिते स्नानम्॥
शङ्खनवकुमुदाक्ता स्फटिकद्विपदन्तपञ्चगव्ययुता।
स्नानापः शस्यन्ते शशिवैकृतनाशने राज्ञाम्॥
केसरचन्दनबिल्वैः मांसिबलाहिङ्गुलीकपिलिनीभिः।
रक्तैकुसुमैश्च युतं भौमाशुभनाशनं स्नानम्॥
फलमूलकनकशुक्तिमधूकगोमयरोचनाक्षतामिश्रै।
स्नानं शशाङ्कतनये विषमस्थे शस्यते राज्ञाम्॥
मदयन्तिकापलाशैः सिद्धार्थकमधुकजातिकुसुमैश्च।
संयुक्तं वारि हितं विषमस्थानस्थिते जीवे॥
कुङ्कुममनश्शिलैलाफलमूलसमन्विताम्भसा स्नानम्।
विषमस्थिते भृगुसुते मुनिभिर्नृृणां समुद्दिष्टम्॥
कृष्णतिलाञ्जानलोघ्रैःशतपुप्पाभद्रमुस्तफललाजैः।
स्नानं दिनकरतनये शुभवैषम्यं समुत्सृजति॥
स्वानफलमुक्तं—
औषधैर्व्याधयश्शान्ति यान्ति यद्वच्छरीरिणाम्।
मन्त्रैश्च दुःखसन्त्रासात् स्नानैः तद्वत् सुखप्रदाः॥
अनपत्या च या नारी दुर्भगाऽपि च या भवेत्।
स्नानैरेतैर्भवेत् स्नाता सौभाग्यापत्यभागिनी॥
तत्तद्दव्यदा नैस्तत्तद्दोषशान्तिर्भवति—
कटकं कजकं धेनु काश्मीरं रक्तचन्दनम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यमर्कदोषं विमुञ्चति॥
चन्दनं कनकं वस्त्रं रजतं शङ्खमौक्तिके।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं चन्द्रदोषं विनश्यति॥
व्रीहितण्डुलफार्णसान् रक्तोक्षं कनकं मणिम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं वक्रदोषं विनश्याति॥
कर्पटं काकव्रीहीन् चन्दनागरुकुङ्कुमम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं सौम्यदोषं विनश्यति ॥
सुवर्णमणिशङ्खाश्वान् भूनिगाभरणं गृहम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं जीवदोषंविनश्यति॥
पानीयं वस्त्रमुकाश्वरजतं कांस्यमाढकम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं शुक्रदोषं विनश्यति ॥
व्रीहिमाषतिलान् लाजान् कृष्णधेन्वगरुं मणिम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं मन्ददोषं विनश्यति॥
सीसकं गन्धकं रज्जुं कर्पटं तिलमाषकम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं राहुदोषं विनश्यति॥
छागं माषतिलाद्यं च सीसं कासीसमायसम्।
दैवज्ञाय ददन्नित्यं केतुदोषं विमुञ्चति॥
तत्तद्गहतुष्टयै तत्तद्रत्नानि धारयेत्। श्रीपतिः—
माणिक्यं तरणेः सुजात्यममलं मुक्ताफलं शीतगोः
माहेयस्य च विद्रुमं मरकतं सौम्यस्य . . .. . .. . .
देवेऽड्यस्य तु पुष्यरागमसुराचार्यष्यवज्रं शनेः
नलिं निर्मलमन्ययोर्निगदिते गोमेधवैडूर्यके॥
भार्यं तुष्टयै विद्रुमं भौमभान्वो
** रूप्यं शुक्रेन्द्रोश्च हेमेन्दुजस्य।**
मुक्ता सौरेर्लोहमर्कात्मजस्य
** राजावर्तः कीर्तितः शेषयोश्च॥**
तत्तद्गहकृतदोषशान्त्यै धार्यमिति शेषः। प्रयोग एवं ग्रहदोषशान्तेः।
सुवस्त्रपरिधानं च गन्धमाल्यविभूषणम् \।
अञ्जनं मुख. . .. . .तर्पणं दन्तधावनम्॥
प्रियङ्गुसर्षपाज्यादिस्पर्शे कार्पासकादि च।
वेश्मालङ्कारशुद्धिश्चेत्याद्यैर्युक्तस्य मङ्गलैः॥
अहिंसकस्य दान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च।
नित्यं च नियमस्थस्य सदा सानुग्रहा ग्रहाः॥
पुसां जन्मा ……….रविसुतभोगमागतम्।
क्षितिनतभेदनवात्रदूषितमित्यादि (?) दोषोपगतेषु पीडास्य॥
इत्याहुः। तद्दोषफलं—
रोगानागमवित्तनाशकलहाः संपीडिते जन्मभे
सिद्धि कर्म न याति कर्मणि ……..भेदस्तु साङ्घातिके।
द्रव्यस्योप (रि) च…….के संजायते संक्षये
वैनाशे च भवन्ति कार्यविपदश्चिन्ता सुखं मानसे॥
इति। राज्ञां तु जातिदेशाभिषेकर्क्षोपघातेऽपि दोषः। तथा चोक्तम्
षडृक्ष एव सर्वस्स्यात् ऋक्षैस्तु नवभिर्नृपः।
** जातिदेशाभिषेकर्क्षैः त्रिभिः किल नृपोऽधिकः॥**
इति। तत्फलं च……..
जातिभेदिषु र्नृपाधिपीडनं
** देशभेदवति देशविप्लपः।**
स्थानहानिरभिषेकमे भवेत्
** पीडिते क्षितिभृतामशाभनं॥**
एषां नवानां भानां युगपदुपधाते नृपः; षण्णामेवान्योऽपि नश्यति
तथाचोक्तम्—
निरुपद्रुतभो निरामयः सुखभाङ्नष्टरिपुः……..।
षडुपद्रुतभोऽपि नश्यति त्रिभिरन्यैश्च सभावनीश्वरः॥
इति। तद्दोषशान्तिर्यथा—
सर्वेषां पीडायां दिनमेकमुपोषितोऽनलं जुहुयात्।
सावित्र्या क्षीरतरोः समद्भिरमरद्विजानुरतः॥
गोक्षीरसितवृषशकृन्मूत्रैः पात्रैश्च पूर्णकोशायाः।
स्नानं जन्मनि दुष्टे हरति……………………..॥
कर्मणि मधुघृतहोमोदशाहमक्षारमांसमद्याच्च।
दूर्वापियडुसर्षपशतावर्रासंयुतं स्नानं॥
साङ्घातिके तु तप्ते मांसमधुक्रौर्यमन्मथांस्त्यक्ता।
दान्तो दूर्वांजुहुयात् दानं दद्याद्यथाशक्ति॥
सामुदयिके तु दद्यात् काञ्चनकाद्युपद्रुते धिप्ण्ये।
वैनाशिकेऽन्नपानं वसुधां च गुणाधिकां दद्यात् ॥
मानसतापे होमः सरोरुहैः पायसैः द्विजाः पूज्याः।
गजमदशिरीषचन्दनबलातिबलवारिणा स्नानम् ॥
जन्मादिषु सूर्यसंक्रमे तद्दोषशान्तिरुक्ता यथा—
यस्य स्वजन्मराशौ वा नक्षत्रे वा त्रिचन्मनि।
भवेत् संक्रमणं भानोर्दौ भाग्यानर्थदोषदम्॥
तत्र स्नानं प्रवक्ष्यामि मन्त्रौषधविधानतः।
यत् कृत्वा सुभगः श्रीमानायुरारोग्यभाग्भवेत्॥
गोमयेनोपलिप्तायां भूमौ पुप्पं विकीर्य तु।
व्रीहीणामाढकेनात्र स्थडिलं कारयेद्बुधः॥
चतुरश्रं समं तत्र प्रागग्रान् संस्तरेत् कुशान्।
तत्रोदकेन संपूर्णान् कलशान् स्थापयेद्बुधः॥
वेष्टितान् सितसूत्रेण वस्त्रयुग्मेन संवृतान्।
क्षिप्ता तत्रौषधीन् पञ्च पञ्चभृङ्गमृदस्तथा॥
पञ्चमृदादयः—
नदीगोकूलवल्मीकदेवागारगृहादपि।
एताः पञ्चमृदः प्रोक्ताः सङ्क्रान्तिस्त्रानकर्मणि॥
सहदेवी यवा व्याघ्री बला चातिबला तथा।
पञ्चौषध्यः प्रशस्यन्ते स्नानादिषु च कर्मसु॥
पलाशाश्वत्थकापीतबिल्वोदुम्बरपल्लवाः।
पञ्च भृङ्गा इति ज्ञेयाः देवानां च हितावहाः॥
इति । ब्रह्मादयस्तथा देवा स्तीर्थानि20
** गोकर्णाद्दक्षिणस्यां ककुभि परिमिते योजनानां चतुष्के श्रीमान् श्रीकण्ठगुप्तो जयति गुण-**
वतीसंज्ञितो ग्रामवर्यः॥ तस्मिन्नस्ति प्रभूतैर्युतमखिलगुणैः रद्वितीयांद्वितीयस्थानंनीलालयाख्यं द्विजकुलपतिना वामदेवेन लब्धम्॥१४॥
** तत्र स्थाने तस्मिन् वसिष्ठगोत्रे महायतिश्रेष्ठौ21। जगति सुदर्शनतीर्थो रन्नगिरिश्चेति22 विश्रुतौ जयतः॥ तयोर्द्वयोर्भ्रातृतनूजपुत्रो बभूव नारायणपूज्यपादः। निषेदतुर्यत्र विमुक्तवैरे चिराय लक्ष्मीश्च सरस्वती च॥१५॥**
** स्वग्रामपो दक्षिणतस्समीपे पयोनिधे रोघसि मङ्कसंज्ञम् । निवेशयामास समृद्धियुक्तं23 स्वदेशमीशाहृतभागधेयम्॥ तस्यात्मजोऽभूद्भुवनप्रतीतो विद्यान्वितो माधवपण्डितेन्द्रः। महेश्वरं यो गुण- वत्यधीशमुपास्य विद्यामखिलामवाप्नोत्॥ १६॥**
** वेदव्याकरणास्पदं कविमहाराजस्सतर्कस्मृतिच्छन्दोलक्षणकाव्यनाटककलाविज्ञान संपन्निधिः॥ ज्योतिश्शास्त्रविदग्ध मानिजनतादुर्गर्वसर्वङ्कषो विद्यामाधवपण्डितो रचितवान् हृद्यं मुहूर्तागमम्॥**
** संज्ञाह्वयो दूषणलक्षणाख्यः दोषापवादो गुणलक्षणश्च॥ बलावबोधोऽथ निषेचनादिः द्वितीयजन्माध्ययनादिकश्च॥१८॥**
** करग्रहो वास्तुनिवेशनादि परस्तु कृष्यादिविधान (शंसी) संज्ञः। देवप्रतिष्ठापनकार्यशंसी24 यात्राधिकारः25 प्रविकीर्णनामा॥१९॥**
** तारादिलक्षणाख्यः पुष्पग्रहगोचरादिफलसंज्ञः। इति पञ्चदशाध्यायाः परिमितपद्याः क्रमेणोक्ताः॥**
** इत्थं26 पञ्चदशाध्यायनिबद्धं जयतु क्षितौ।मुहूर्तदर्शनं विद्यामाधवीयाह्वया चिरम्॥२१॥**
** ये लोके मत्सरान्धाः परगुणविमुखाः दोषसंदर्शनोत्काः तेषामेषां27 सकाशे न विशतु यदिमे विद्यते पुण्यलेशः॥ येचान्येऽश्लिष्टदोषाः28परगुणमधिकं मानयन्तो महान्तः निर्वैराः सन्ति तेषां व्रजतु ममकृतिस्सन्निधौ सन्निवेशम्॥**
** एतद्विद्यामाधवीयाभिधानं ज्योतिश्शास्त्रं येपठन्तीह मर्त्याः। प्रीतास्तेषामीश्वरांशाः ग्रहास्ते कुर्वन्यायुर्वित्तविज्ञानवृद्धिम्29 ॥२३॥**
** वदन् प्रसूनं ग्रहचारशास्त्रक्रमाढ्यख्यमाचायैसमुद्रवं च। अध्याय एष त्रिगुणाष्टसङ्ख्यैः श्लौकेः कृतः पञ्चदशोऽत्र पूर्णः ॥२४॥**
इति विद्यामाधवीये पञ्चदशः पुष्पग्रहगोचरफलाध्यायः।
समाप्तमिदं मुहूर्तदर्शनापराभिधानं
विद्यामाधवीयम्
]
-
“आदित्या” ↩︎
-
“सर्वे दशमे च चतुर्थे च न शुभा” ↩︎
-
“गुरु.” ↩︎
-
“चन्द्रौच.” ↩︎
-
“गुरु” ↩︎
-
“सिध्मलं” ↩︎
-
“अत्र कियानपि ग्रन्थो गलितः” ↩︎
-
“राहुभादि।” ↩︎
-
“अव्दागतश्च।” ↩︎
-
“शाकनीखेड.” ↩︎
-
“अन्त्येऽर्थहानि” ↩︎
-
“शत्रुभीति प्र.” ↩︎
-
“प्रारभ्यारियताशकम्।” ↩︎
-
“सन्नकरमातुरदानक्षा " ↩︎
-
“त्रितनुखाऽम्बुनगोर्किताञ्जः” ↩︎
-
“अर्थक्षयोऽरतिगरादन” ↩︎
-
“छेदकारोहणा। छेदकातरणा ॥” ↩︎
-
“‘शालोपमं च’ इति पाठो ग्रहगणिते दृश्यते” ↩︎
-
“अत्र “रवावापद्दैन्यं रुागति नवमे चित्तचेष्टाविरोधो जयं प्राप्नोत्युग्रं दशमगृहगे कर्मसिद्धि क्रमेण । जयं स्थानं मान विभवमपि चैकादशे रोगनाशं सुवृत्तानां चेष्टा भवति सफला द्वादशे नेतरेषाम् इतीदंनवमदशमैकादशस्थाननगरविग्रहगोचरफलविबोधनम् गद्यं लेखक प्रमादात्पतितमिति प्रतिभाति” ↩︎
-
“व्याख्थेयमेतावत्पर्यन्तैवोपलभ्यतेऽत्रत्येषु कोशेषु.” ↩︎
-
“महामुनिश्रेष्टे” ↩︎
-
“विश्रुतौ जाता.” ↩︎
-
“स्वदेशमासादित.” ↩︎
-
“देवप्रतिष्ठाऽथ नृपाभिषेकः” ↩︎
-
“यात्राविधानं” ↩︎
-
“इति पञ्चदशाध्यायैर्निबद्धं.” ↩︎
-
“येचान्यशिष्टवर्याः परगुण” ↩︎
-
“संनिवासम्.” ↩︎
-
“कुर्वन्तयायुः पुत्रपौत्राभिवृद्धिम्” ↩︎