लघुपाराशरी (उदुदायप्रदीपः)

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॥श्रीः॥

श्रीमन्महार्षिपराशरमुनिप्रणीता.

लघुपाराशरी

(उडुदायप्रदीपः)

आगरानगरवास्तव्यज्योतिर्विद्वालमुकुन्दभट्ट-
सूरिसूनुपण्डित

रामेश्वरभट्ट विरचित-

सान्वय (हिन्दीटीकासहिता)

गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास.
मालिक

“लक्मीवेंकटेश्वर” स्टीम्-प्रेस,

कल्याण-मुंबई.

संवत् २०४३, शकाब्दाः१९०८

1986

संस्करण १९८६

प्रकाशक

सूची मूल्य ३ रुपये मात्र

मुद्रक वप्रकाशकः

मेसर्स खेमराज श्रीकृष्णदास,
अध्यक्षःश्रीवेंकटेश्वर प्रेस,
बम्बई-४०० ००४ के लिए
दे. स. शर्मा मैनेजर द्वारा
श्रीवेंकटेश्वरप्रेस, खेतवाड़ी, बम्बई४ में मुद्रित.

प्रस्तावना

__________

संपूर्ण ज्योतिषविद्यानुरागी जानते हैं कि, ज्योतिषमें पाराशरी के समान कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है कि जिससे कारक मारक अच्छे प्रकारसे मिलता हो. जो कुछ महर्षि पराशरजीने लिखा है वह मानो विधाताके अंक है। श्लोक तो ४२ ही है, परंतु भीतर जैसी जैसी क्लिष्टता कर दी है, उसको पण्डितही जानते हैं. बडा भारी विचारका काम है. शतरंजका सा हिसाब है. बारह घर और नव गोटे हैं, इसको पंडितजन अपनी अपनी बुद्धिके अनुसार विचार कर खेलते और फल बतलाते हैं। ज्योतिषके विचारमें कुशाग्रबुद्धिकी परम आवश्यकता है और किसी देवताका इष्ट भी हो तब काम चले, कोरे ज्योतिषीकी विध मिलना बडा दुष्कर है, फिर ज्योतिषी भी ऐसा हो कि जैसा शास्त्रमें कहा है॥यथा-

द्विविधगणितमुक्तं व्यक्तमव्यक्तसंज्ञंतदवगमननिष्ठःशब्दशास्त्रोपटिष्ठः। यदि भवति तदेदं ज्योतिषं भूरिभेदं प्र-पठितुमधिकारी सोऽन्यथा नामधारी॥

बहुतसे शुष्क ज्योतिषी कारक मारक तो बतलाते हैं परंतु वे समयका विचार पूर्ण रीतिसे नहीं करते। ज्योतिषियोंको यह वात अवश्य चाहिये कि, जिसको कारक मारक बतावें, उस पर कुछ दृष्टि भी रक्खें कि, जो बताया है वह होता भी है वा नहीं? तब अभ्यास बढेगा और फिर राजयोगके विचार में यह देखें कि; अमुक मनुष्य किस कुलका है? क्योंकि राजा वही हो सकता है जो राजकुलमें होगा, अन्यथा राजाके यहां आजीविका मिलेगी। इसी प्रकार मारकके विचारमें भी दूसरे सातवें घरकी दशा देखतेही सहसा यह न कह देना चाहिये कि, अमुक मनुष्य मरही जायगा। प्रथम आयुका निश्चय करे कि, पूर्णायु मध्यायु वा अल्पायुमेंसे कौनसी है। यदि मध्यायु वा पूर्णायु है और अल्पायु में ही मारकेश की दशा आ लगी तो केवल कष्ट देकर निकल जायगी । इस प्रकार अनेक प्रकारके

विचार ज्योतिषीको विचारना चाहिये । कहां तक लिखें ? जहां तक हो विचार करे आगे ईश्वरकी माया वही जाने।

 उडुदायप्रदीपकी हिन्दीटीका कई छप चुकीं, परंतु लक्ष्मीवेंकटेश्वर यंत्रालयमें भी इसके छपनेकी आवश्यकता समझ वहांके अध्यक्ष धर्मिष्ठ ब्रह्मनिष्ठ श्रीयुत सेठजी गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदासजीने कुछ अधिक विचारके साथ इसके भाषांतर करनेका मुझसे अनुरोध किया, तदनुसार यथामति इसको समाप्त कर इसका संपूर्ण अधिकार उनको समर्पण करता हूं। पाठकजन ! जहां कहीं भ्रमादि वा छापेका दोष पावें तो उसे ठीक कर मुझे कृतार्थ करें।

रामेश्वर भट्ट,

हेड पण्डित, आगरा कालेज.

॥श्रीः॥

लघुपाराशरी

(उडुदायप्रदीपः)

सान्वय-हिन्दी टोकासहिता

श्रीलक्ष्मीवेंकटेश्वराय नमः

सिद्धांतमौपनिषदं शुद्धान्तं परमेष्ठिनः ।
शोणाधरं महः किञ्चिद्वीणाधरमुपास्महे ॥१॥

नत्वा विश्वेशचरणौनृभाषां तत्त्वबोधिनीम् ।
उडुदायप्रदीपस्य कुर्वे दिष्टविदां मुदे॥१॥

अन्वयः (औपनिषद सिद्धान्तं । परमेष्ठिनः शुद्धान्तं वीणाधरं शोणाधरं किञ्चित् महः उपास्महे ॥१॥
अर्थ-वेदान्त वाक्य जो उपनिषद् है, उनसे प्रतिपादन किया गया अर्थात् ब्रह्मस्वरूप ब्रह्माजीका शुद्धान्त (वाणीरूप) जिसने वीणाको धारण किया है और जिसका रक्त अधर है; ऐसे किसी अनिर्वचनीय तेज की उपासना करते हैं ॥१॥

वयं पाराशरीं होरामनुसृत्य यथामति ।
उडुदायप्रदीपाख्यं कुर्मो दैवविदां मुदे ॥२॥
वयं दैवविदां मुदे पाराशरीं होराम् अनुसृत्य यथामति उडुदायप्रदीपाख्यं कुर्मः॥२॥

  हम पाराशरीहोराके अनुसार ज्योतिषियोंकी प्रसन्नताके लिये नक्षत्रोंकेफलको प्रकट करनेवाले ग्रंथको यथामति रचते हैं ॥२॥

फलानि नक्षत्रदशाप्रकारेण विवृण्महे ।
दशा विंशोत्तरी चात्र ग्राह्या नाष्टोत्तरी मता ॥३॥

  नक्षत्रदशाप्रकारेण फलानि विवृण्महे, अत्र विंशोत्तरी दशा ग्राह्या, अष्टोत्तरी न मता ॥३॥

  नक्षत्रदशाके प्रकारसे पुत्र कलत्र धन आदिके फलोंको विचार कर प्रगट करते हैं। यहां [विंशोत्तरीदशा[^1]का ग्रहण है, योगिनीदशाका ग्रहण नहीं है ॥३॥

रसदशाद्रिपुराणमहीभृतो विधुविहीननखा अगभूमयः।
गिरिनखा रविचन्द्रकुजायुयुग्गुरुशनिजककेतुसिताब्दकाः॥

  रस ६, दश १०, अद्रि ७, पुराण १८, महीभृत् १६, विधुविहीनख १९ अगभूमिः १७, गिरि ७, नख २० ये नव ग्रहोंकी दशाका प्रमाण हैं, और इसके स्वामी इस प्रकार हैं कि-सूर्य, चंद्र, भौम, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु, शुक्र यंत्रमें स्पष्ट देखो.
ग्रहाः सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. योग
दशावर्षाः १० १८ १६ १९ १७ २० १२०

अथ दशा जाननेका प्रकार कहते हैं।

कृत्तिकादिनवकत्रिकक्रमात्सूर्यचन्द्रकुजराहुमन्त्रिणः।
सौरिसोमसुतकेतुभार्गवा भप्रवतितदशाब्दनायकाः॥

  कृत्तिकानक्षत्रसे अपने जन्मके नक्षत्रतक गिने और नवका भाग देनेसे क्रमपूर्वक सूर्य, चन्द्र, मङ्गल, राहु, जीव, शनि, बुध, केतु और शुक्रकी दशा होती है। जैसे-जन्मनक्षत्र अनुराधा है, तो कृत्तिकासे १५ नक्षत्र भये. इनमें ९ का भाग दिया, ६ बचे, शनिको दशा भई । यंत्रमें स्पष्ट देखो.  

दशाज्ञानचक्र

[TABLE]

अब विंशोत्तरी दशा बनानेका प्रकार लिखते हैं-

  गते[^2]र्क्षकी घटियोंको ६० गुणा करके फल जोड़ो और स[^3]र्वर्क्षकी घडियोंको ६० से गुणाकरके पल जोड़कर एक राशि करलो, फिर गतर्क्षको जिस ग्रहकी दशा हो उससे गुणाकार सर्वर्क्षका भाग दो, जो मिलें वे वर्ष भये. फिर शेषको बारहसे गुणा कर सर्वर्क्षका भाग दो, मास मिलेंगे, फिर शेषको ३० गुणा कर सर्वर्क्षका भाग दो, दिन मिलेंगे, फिर शेषको ६० गुणा करके सर्वर्क्षका भाग दो, घड़ी मिलेंगी, फिर शेषको ६० गुणा करो, सर्वर्क्षका भाग दो, पल मिलेंगे, इस प्रकार वर्ष, मास, दिन, घड़ी, पल पूर्वजन्मके भुक्त आवेंगे, फिर जिस ग्रहकी दिशा हो, उसमेंसे घटानेसे इस जन्मका भोग्य रहेगा।  
  **उदाहरण-**कल्पना किया कि, गतर्क्ष४६।४ है और सर्वर्क्ष५७।२२ है, प्रथम गतर्क्ष४६ को ६० गुणा किया तो २७६० भये, इनमें ४ पल जोड़े २७६४ भये, अब यहां कल्पना किया कि, शुक्रकी दशा २० वर्षकी है, इससे गुणा किया तो ५५२८० हुए, फिर सर्वर्क्षकी ५७ घड़ीको ६० से गुणा किया तो ३४२० भये । इनमें २२ पल जोडे तो ३४४२ भये। अब २० गुणित गतर्क्ष५५२८० में सर्वर्क्ष ३४४२ का भाग दिया तो दो भाग हैं, प्रथम एक आया और२०८६ बचे, फिर ३४४२ का भाग दिया ६ आये, अर्थात् १६ वर्ष आये और शेष २०८ बचे, इनको १२ बारह गुणा किया तो २४९६ भये, इनमें फिर ३४४२ का भाग दिया तो भाग नहीं लगता, इसलिये मासकी जगह शून्य आया, अब २४४९ को तीससे गुणा किया तो ७४८८० भये, इनमें ३४४२ का भाग दिया प्रथम दो वार गये, फिर शेष ६०४० में ३४४२ का भाग दिया तो एक आया अर्थात् २१ दिन मिले और शेष २५५८ रहे, इनको ६० से गुणा किया तो १५५७८८० भये, इनमें ३४४२ का भाग दिया तो प्रथम ४ घड़ी आई, शेष १८२०० में फिर ३४४२ का भाग दिया तो ५ आये  

अर्थात् ४५ घड़ीमिलीं और शेष ९९० रहे, इन्हें फिर ६० से गुणा किया तो ५९४०० भये, इनमें फिर ३४४२ का भाग दिया, प्रथम एक वार गया शेष २४९८० बचे इनमें फिर ३४४२ का भाग दिया ७ मिले अर्थात् १७ पल मिले और शेष ८८६ बचे, इन्हें जाने दो, इस प्रकार १६ वर्ष, शून्य मास, २१ दिन, ४५ घड़ी, १७ पल मिले । यह पूर्वजन्मका भुक्त हुआ। अब इसे शुक्रकी २० वर्षकी दशामें घटाया तो शेष ३।११।८।१४।४३ इस जन्मका भोग हुआ।
पाराशरजीने जो विंशोत्तरीदशाका ग्रहण किया है, उसकी पांच प्रकारकी भुक्ति कही है। यथा-

“दशा चान्तर्दशा चैव तत्तदन्तर्दशा तथा।
सूक्ष्मभुक्तिः प्राणदशाप्येवं पञ्च दशाः स्मृता॥”

अब उनमेसे प्रथम अंतर निकालनेका प्रकार कहते हैं-
“स्वदशा रामगुणिता दद्दशागुणिता पुनः।
स्वरामभागतो लब्धं वर्षमासादिकं भवेत्”॥

अपनी मूलदशाकी संख्याको तीनसे गुणा करे, जो गुणन फल आवे उसे पिंड मानो. फिर इसको अपनी दशासंख्यांसे गुणा करना, फिर ३० के भाग देनेसे जो लब्ध हो, वह वर्ष मासादि होते हैं।  
 **उदाहरण-**जैसे जन्ममें सूर्यकी दशा है, इसकी संख्या ६ को तीन गुणा किया तो १८ भये, इसे पिंड मानो (यह सूर्यकी दशाके सब ग्रहोंके अंतरमें काम आवेगा.) फिर इसको दश संख्या ६ से गुणा किया तो १०८ भये, इसमें ३० का भाग दिया तो ३ मास मिले और शेष १८ दिन रहे, आगे चंद्रमा का अंतर निकालने में पिंडको १० गुणा और मंगलकेमें ७ गुणा करेंगे । इत्यादि जानो ॥  
                    अब प्रत्यंतरकी रीति लिखते हैं-  
 अंतरमें जो मास दिनहों उनको एक राशिकरके जिसमें जिस ग्रहका प्रत्यन्तर निकालना हो उसकी दशाके प्रमाण वर्षोंके आधेसे गुणा करो, ६० का भाग दो तो प्रत्यन्तर हो जायेगा।  

** उदाहरण-**सूर्यका अंतर ३ मास १८ दिन हैं, इनके दिन किये तो १०८ भये, इनको सूर्यकी दशाके ६ वर्षके आधे ३ वर्षसे गुणा किया ३२४ भये, इनमें ६० का भाग दिया तो ५ दिन आये और २४ घडी रही, यही सूर्यके अन्तरमें सूर्यका प्रत्यंतर हुआ । ऐसेही चन्द्रमाका करो। सूर्यमें चन्द्रमा ६ महीनेका है, इसके दिन

१८० इनको ३ गुणा किया ५४० हुए, ६० का भाग दिया ९ दिन आये। इत्यादि जानो।

[TABLE]

सूक्ष्म निकालनेकी रीति लिखते हैं-

   प्रत्यन्तरके दिन घटी आदिकी घडियाँ कर लो, फिर जिसमें जिस ग्रह को सूक्ष्म निकालना है उसकी दशाके प्रमाण वर्षों के आधेसे गुणाकर ६० का भाग दो सूक्ष्म होगा।  

** उदाहरण-**सूर्यका प्रत्यन्तर ५ दिन २४ धडी है, इनकी घडी करीतो ३२४ हुई, फिर इनको सूर्यकी दशाके आधे ३ वर्षसे गुणा किया तो ९७२ हुए, ६०, का भाग दिया तो १६ घडोमिलीं और १२ पल रहे, यह सूर्यका सूक्ष्म हुआ ऐसे ही और जानो।

[TABLE]

अब प्राण निकालनेकी विधि लिखते हैं-

  सूक्ष्मके पल कर लो, फिर जिसमें जिस ग्रहका प्राण निकालना हो उसकी दशाके प्रमाण वर्षोंके आधेसे गुणा करो और ६० का भाग दो, प्राण निकलेगा।  

** उदाहरण-**सूर्यका सूक्ष्म १६ घडी १२ पल है, इनके पल किये ९७२ हुए इनको सूर्यकी दशाके आधे ३ वर्षसे गुणा किया तो २९१६ हुए, साठका भाग दिया ४८ पल आये, ३६ विपल रहे. यही सूर्यका प्राण हुआ। अथवा प्राण जो कुछ हो उसे केवल तिगुणा कर दो, सूक्ष्म हो जायेगा।

[TABLE]

अब अंतरदशा आदि निकालनेकी बहुत सीधी रीति लिखते हैं-

“रामैर्हताश्चार्कमुखग्रहाणां दशाम्बकास्ते दिवसा भवन्ति ।

दशासमानां खलु षष्ठभागः शुक्रस्य भुक्तिः सकलग्रहेषु ॥

दशेश्वरदिनैर्हीना शुक्रभुक्तिर्भवेच्छनेः।

सैव हीना दशानाथदिनैश्चागोः स्मृता हि सा॥

रहिता चैव सा ज्ञेया चन्द्रजस्य तु तैर्दिनैः।

एवं हीना च सा ज्ञेया दशानाथदिनैर्गुरोः॥

अगोस्त्रिभागं रविभुक्तिमाहुः शुक्रस्य चार्द्धंं हिमगोर्भवेत्सा॥

युता दशानाथदिनै रवेस्तु भुक्तिर्भवेच्चैव कुजस्य केतोः॥

एवं समस्तग्रहभुक्तयस्तु कार्या दिनेशादिखगेश्वराणाम्॥”

** **सूर्यादि ग्रहोंकी दशाके वर्षोंको तिगुना करनेसे दिन होते हैं और दशाके वर्षोंका छठा भाग सब ग्रहोंमें शुक्रका अंतर होता है और उसमें दशानाथ के दिन घटानेसे शनिका अंतर होता है, फिर इसमें दशानाथके दिन घटानेसे राहु की अंतर्दशा होती है, फिर इसमें दशानाथके दिन घटानेसे बुधका अंतर होता है, फिर इसमें दशानाथके दिन घटानेसे गुरुका अंतर होता है। फिर राहुका तीसरा भाग सूर्यका अंतर होता है;शुक्रका आधा चंद्रमाका अंतर होता है, सूर्यमें दशानाथके दिन जोड देनेसे भौमका अंतर होता है। भौमके समान ही केतुका होता है।
**उदाहरण-**सूर्यकी दशामें सूर्यकाही अंतर लगाना है। ६ वर्षका छठा हिस्सा लिया तो १ वर्ष मिला, यह शुक्रकी अंतर्दशा हुई, अब इसमेंसे दशेश्वर सूर्यके १८ दिन घटाये ( क्योंकि सूर्य अपने अंतरमें ३ मास १८ दिनका है) तो २१ महीने १२ दिन रहे. यह शनि भया, इसमें फिर १८ घटाये तो १० मास, २४ दिन रहे

यह राहुभया फिर १८ घटाये तो १० मास, ६ दिन रहे. यह बुध हुआ. फिर १८ घटाये तो ९ मास १८ दिन रहे, यह बृहस्पति हुआ। अब राहु है १० मास २४ दिन, इसका तीसरा भाग ३ मास १८ दिन सूर्य हुआ, शुक्र है १ वर्षका, इसका आधा ६ मासका चद्रमा हुआ, अब सूर्य ३ मास १८ दिनका, इसमें सूर्यके १८ दिन जोडे तो ४ मास ६ दिनका मङ्गल हुआ, और यही केतु भया। अथवा जिसका अंतर निकालना हो उसकी दशाको वर्षसंख्यासे गुणा कर दो, प्रथम अंक मास होगा और दूसरा अंक बचे उसे तिगुना कर दो, दिन होंगे । जैसे-सूर्यकी दशा ६ वर्षकी है इसको ६ वर्षोंसे गुणा किया ३६ भये, प्रथम अंक ३ मास भये और शेष दूसरा अंक ६ है, इसे तिगुना किया १८ भये, ये दिन आये अर्थात् ३ मास १८ दिनका सूर्य हुआ।

विंशोत्तरीदशाका जोड

  विशोत्तरीदशामें जब साधारण अंतर लगाने होते हैं। उसके जोडमें तो कुछ कठिनता नहीं, परंतु जब जिस ग्रहकी दशा हो और उसीके भोग्यको काटकर जब अंतर लगाना होता है तब विद्यार्थियोंको हलचल पडती है इसलिये एक उदाहरण लिखे देते हैं-शुक्रकी दशाका जन्म है। पूर्वजन्मनि भुक्त १६।०।२१।४५।१७ है,तो इह जन्मनि भोग्य ३ ११।८।१४।४३ हुआ, सूर्य है ४।५।९।२७।

[TABLE]

   अब शुक्रांतर लगाना है, तो शुक्रके अंतरमें बुधतक १८ वर्ष, १० मास हुए, इनमें से पूर्वजन्मनि भुक्त १६।०।२१। ४५।१७ घटाये तो २।९।८।१४।४३ यह बुधका शेष बचा और इसमें केतुका एक वर्ष दो मास जोडनेसे ३।११। ८।१४।४३ होगा और यही इह जन्मनि भोग्य था, अब चक्रमें बुधका शेष २।९।८।१४।४३ और केतुका १।२।०।०।०धरकर जोड दो- यथा यंत्रमें॥

शुक्रान्तरम् ।

[TABLE]

नोट-

   बहुतसे ज्योतिषी इह जन्मनि भोग्यमें नवग्रहोंकी अंतर्दशा लगा देते हैं, परंतु मेरी सम्मतिमें यह नहीं बैठता, कारणजब दशा पूर्व जन्मभुक्त हुई तो अंतरदशा भी अवश्यबीतेगी॥

बुधैर्भावादयः सर्वे ज्ञेयाः सामान्यशास्त्रतः ज्ञेयः ।
एतच्छास्त्रानुसारेण
संज्ञां ब्रमो विशेषतः ॥४॥

   बुधैः सर्वे भावादयः सामान्यशास्त्रतः ज्ञेयाः, एतच्छास्त्रानुसारेण संज्ञां विशेषतः ब्रूमः ॥४॥  
 पण्डितोंको संपूर्ण भावादिक अर्थात् मेषादि राशि और उनके स्वभावादि लघुजातक बृहज्जातक आदिसे जानने चाहिये, इस शास्त्रके अनुसार तो केवल संज्ञा कहते हैं ॥४॥

दृष्टिविचार

पश्यन्ति सप्तमं सर्वे शनिजीवकुजादयः ।
विशेषतश्च त्रिदशत्रिकोणचतुरष्टमान् ॥५॥

   सर्वे सप्तमं पश्यन्ति । शनिजीवकुजादयः पुनः त्रिदशत्रिकोणचतुरष्टमान् विशेषतः पश्यन्ति ॥५॥  

संपूर्ण ग्रह जिस स्थानमें बैठे हों, उससे सप्तम स्थानको देखते हैं। इनमें शनि, बृहस्पति और मंगल ये क्रमसे तीसरे, दशवें, नववें, पांचवें और चतुर्थ,

अष्टम इन स्थानोंको विशेष करके देखते हैं अर्थात् शनि तीसरे, दशवें, गुरु नवम पंचम और मंगल चतुर्थ,अष्टम ॥५॥

सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहाः शुभफलप्रदाः ।
पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदाः ॥६॥

  त्रिकोणनेतारः सर्वे ग्रहाः शुभफलप्रदाः भवन्ति। यदि तु सप्त एव ग्रहाः त्रिषडायानां पतयः, तर्हि पापफलप्रदाः भवन्ति ॥६॥  
  संपूर्ण ग्रह त्रिकोण अर्थात् नवम पंचमके स्वामी होनेसे शुभ फल देते हैं और जो तीसरे, छठे और एकादशके स्वामी हों तो अशुभ फल देते हैं ॥६॥

न दिशन्ति शुभं नणां सौम्याः केन्द्राधिपा यदि ।
क्रूराश्चेवशुभंह्येते प्रबलाश्चोत्तरोत्तराः ॥७॥

   सौम्याः यदि केन्द्राधिपाः तर्हि नृणां शुभं न दिशन्ति, चेत् क्रूराः केन्द्राधिपाः, तर्हि अशुभं न दिशन्ति । हि एते उत्तरोत्तराः प्रबलाः॥७॥  
   जो केन्द्रके स्वामी^(१)शुभग्रह हों तो मनुष्योंको शुभ फल नहीं देते हैं और पापग्रह[^4]हों तो शुभ फल देते हैं, और या त्रिकोण, केन्द्र तथा तीसरे, छठे और एकादशके स्वामी उत्तरोत्तर प्रबल है अर्थात् पंचमेशसे नवमेश, तृतीयेशसे षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश प्रबल है और लग्नेशसे चतुर्थेश, चतुर्थेशसेसप्तमेश और सप्तमेशसे दशमेश प्रबल है।  

१–मेषवृश्चिकयोर्भौमः शुक्रोवृषतुलाधिपः।
बुधः कन्यामिथुनयोः कर्काधीशस्तुचन्द्रमाः ॥
धनुर्मीनाधिपो जीवः शनिर्मकरकुंभयोः।
सिंहस्याधिपतिः सूर्यो राश्यधीशा इमे स्मृताः॥

राशि १० ११ १२
स्वामी मं. शु. बु. चं. सू. बु. शु. मं. बृ. श. श. बृ.
 केन्द्र त्रिकोणके स्वामी कहनेसे यह स्पष्ट हुआ, कि राहुकेतुका ग्रहण नहीं किया गया, कारण उनका फल राशिपरत्वे और अन्य ग्रहों के संबंधानुसार होता है।

संबंधसे भी ग्रहोंका शुभाशुभ फल होता है, सो कहते हैं-

लग्नाद्व्

^(१)

यद्वितीयेशौ परेषां साहचर्यतः।

स्थानान्तरानुगुण्येन भवतः फलदायकौ॥८॥

  लग्नात् व्ययद्वितीयेशौ परेषां साहचर्यतः स्थानान्तरानुगुण्येन फलदायकौभवतः ॥८॥  
  लग्नसे दूसरे और बारहवें स्थानके स्वामी दूसरे प्रकारके ग्रहोंके साथ बैठनेसे और अपने मित्र शत्रुके स्थानमें बैठनेसे शुभाशुभ फलदायक होते हैं ॥८॥

  अपने जन्मलग्नसे अष्टमेशका शुभाशुभ फल कहते है।

भाग्यव्ययाधिपत्येन रन्ध्रेशो न शुभप्रदः
स एव शुभसन्धाता लग्नाधीशोऽपि चेत्स्वयम्॥९॥

  रन्ध्रेशः भाग्यव्ययाधिपत्येन शुभप्रदः न भवति । चेत् सः एव स्वयं लग्नाधीश अपि तर्हिशुभसन्धाता भवति॥९॥

१ जो ग्रह अपने दीप्तांशकमें हो, वह भी अच्छा फल करता है।
ग्रहोंके प्रदीप्तादि गुण कहते हैं-
“दीप्तः स्वस्थः प्रमुदितः शान्तो दीनोऽतिदुःखितः ।
विकलश्च खलः कोपी नवधा खेचरो भवेत् ॥१॥”

अर्थात् ग्रह नौ प्रकारके होते हैं, यथा-१ दीप्त, २ स्वस्थ, ३ प्रमुदित, ४ शांत, ५ दीन, ६ अतिदुःखित, ७ विकल, ८ खल और कोपकारक॥१॥
अब उनके दीप्तादि होनेका प्रकार कहते हैं-
“उच्चस्थः खेचरोदीप्तः स्वस्थः स्वपतिमित्रभे ।
मुदितो मित्रभे शांतः समभे दीन उच्यते ॥२॥
शत्रुभे दुःखितोऽतीव विकलःपापसंयुतः ।
खलःखलगृहे ज्ञेयः कोपी स्यादर्कसंयुतः ॥३॥
उच्चका ग्रह दीप्त है, अपने स्वामी और मित्रकी राशिका हो तो स्वस्थ, मित्रकी राशिका प्रमुदित और शांत कहाता है, समकी राशि होनेसे दीन, शत्रुकी राशिका अतिदुखित, पापग्रहके साथ होनेसे विकल, खलग्रहके संगसे खल और सूर्य के साथ पड़नेसे कोपी होता है ॥२-३॥

  भाग्य जो नवमस्थान उससे द्वादश स्थानका स्वामी अर्थात् लग्नसे अष्टम घरका स्वामी शुभ फल नहीं देता है। परंतु वही अष्टमेश लग्नेश भी हो तो अच्छा फल देता है, जैसे मेष लग्नमें मंगल और तुला लग्नमें शुक्र ॥९॥  

 अथ दीप्तादि अवस्थाफल कहते हैं-  
 -पाके प्रदीप्तस्य धरा धिपत्यमुत्साहशौर्यंधनवाहने च ।  
 स्त्रीपुत्रलाभं शुभबंधुपूज्यं क्षितीश्वरान्मानमुपैति विद्यात् ॥१॥  

अपने दीप्तांशकमें जो ग्रह हो, उसकी दशाके परिपाकके समय राज्य, उत्साह, शौर्य, धन, वाहन, स्त्री-पुत्रका लाभ, बंधुओंमें मान और राजासे प्रतिष्ठा मिले, ऐसा जानना ॥१॥
स्वस्थस्य खेटस्य दशाविपाके स्वास्थ्यं नृपाल्लब्धधनादिसौख्यम् ।
विद्यां यशःप्रीतिमहत्त्वमाराद्दारार्थभूम्यादिजधर्ममेति ॥२॥
स्वस्थ ग्रहकी दशाके परिपाक होनेके समय धीरजता, राज्य,धनके लाभसे सुख,विद्या, यश, प्रीति और बडे आदर-पूर्वक स्त्री, धन, भूमि और धर्मका लाभ होता है ॥२॥
मुदाऽन्वितस्यापि दशाविपाके वस्त्रादिभूगन्धसुतार्थधैर्यम्॥
पुराणधर्मश्रवणादिलाभं शस्त्रादियानाम्बरभूषणाप्तिम् ॥३॥
जो ग्रह प्रमुदित होता है उसकी दशाके परिपाकके समय वस्त्र भूमि, सुगंध, पुत्र,धन,धैर्य, पुराणका श्रवण, शस्त्र आदि, सवारी,शाले दुशाले और आभूषणोंकी प्राप्ति होती है ॥३॥
दशाविपाके सुखधैर्यमेति शान्तस्य भूपुत्रकलत्रयानम् ॥
विद्याविनोदान्वितधर्मशास्त्रं बह्वर्थदेशाधिपपूज्यतां च ॥४॥
जब शांतग्रहकी दशाकापरिपाक समय आवे उस समय सुख, धीरज, पुत्र, भूमि, स्त्री, सवारी, विद्याका विनोद, धर्म-शास्त्र, बडे धनवान् राजासे आदरसत्कार ये फल होते हैं ॥४॥
-स्थानच्युतिर्बन्धुविरोधिता च दीप्तस्य खेटस्य दशाविपाके ।
जीवत्यसौकुत्सितहीनवृत्त्या त्यक्तो जनै रोगनिपीडितःस्यात् ॥५॥
प्रदीप्त ग्रहकी दशाके परिपाकसमय स्थानका छूटना, कुटुम्बके लोगोंसे झगडा, कुत्सित और हीनवृत्तिसे जीविका कर जीना, अपने जनोंसे छूटना और रोगी होना, यह होता है ॥५॥

केन्द्राधिपत्यदोषस्तु बलवान् गुरुशुक्रयोः ।
मारकत्वेऽपि च तयोर्मारकस्थानसंस्थितिः ॥१०॥

 गुरुशुक्रयोः केन्द्राधिपत्यदोषः बलवान् अपि च तयोः मारकस्थानसंस्थितिः मारकत्वे बलवती ॥१०॥  
 बृहस्पति शुक्रको केन्द्रका स्वामी होना अत्यन्त दोषकारक है और जो वेही गुरु शुक्र मारक स्थानमें बैठे हों तो मारक फल देनेमें बलवान होते हैं ॥१०॥  
 पूर्वश्लोकसे यह निश्चित हो गया कि, बुध और चंद्रमाको केन्द्रका दोष नहीं, तथापि विशेष कहते हैं-

बुधस्तदनु चन्द्रोऽपि भवेत्तदनु तद्विधः ।
न रन्ध्रेशत्वदोषस्तु सूर्याचन्द्रमसोर्भवेत् ॥११॥


दुःखार्दितस्यापि दशाविपाके नानाविधं दुःखमुपैति नित्यम् ।
विदेशगो बंधुजनैर्विहीनश्चौराग्निभूपैर्भयमातनोति ॥६॥
अतिदुःखित ग्रहकी दशाका जिस समय परिपाक हो, तब अनेक प्रकारका दुःख होता है, विदेशकीयात्रा, कुटुम्बका वियोग और चोर अग्नि और राजासे भयहोता है ॥६॥
वैकल्यखेटस्य दशाविपाके वैकल्यमायाति मनोविकारम् ।
मित्रादिकानां मरणं विशेषात्स्त्रीपुत्रयानाम्बरचोरपीडाम् ॥७॥
विकल ग्रहकी दशाके परिपाकमें विकलता, मनका विकार, मित्रोंका मरण और स्त्री, पुत्र, सवारी तथा वस्त्र इनका विशेष दुःख और चोरसे पीडा होती है ॥७॥
दशाविपाके कलहं वियोगं खलस्य खेटस्य पितुर्वियोगम् ।
शत्रोर्जनानां धनभूमिनाशमुपैति नित्यं स्वजनैश्च निन्दाम् ॥८॥
खलग्रहकी दशाके विपाकमें कलह हो, वियोग हो, पिताका मरण हो, शत्रु स्वजन, धन पृथ्वी इनका नाश हो और अपने कुटम्बके लोगोंसे निन्दा की जाय॥८॥
कोपान्वितस्यापि दशाविपाके पापाःसमायान्ति बहु प्रकारैः॥
विद्याधनस्त्रीसुतबंधुनाशं पुत्रादिकृच्छं त्वथ नेत्ररोगम् ॥९॥
कोपग्रहकी दशाके विपाकमें बहुत प्रकारके पाप लगे, विद्या, धन, पुत्र, बंधु इनका नाश हो, संतति कष्ट हो और नेत्र-पीडा होय ॥९॥

   तदनु बुधः तद्विधः तदनु चंद्रः अपि तद्विधः भवेत् । सूर्याचन्द्रमसोः तु रन्ध्रेशत्वदोषः न भवेत् ॥११॥  
  बृहस्पति शुक्रकी अपेक्षा बुधको कुछ कम दोष है और उसी प्रकार बुधसे चन्द्रमा थोड़े दोषका भागी है, “भाग्यव्ययाधिपत्येन" जो अष्टमेशके विषयमें कह आये हैं उसका अपवाद कहते हैं कि, सूर्य और चन्द्रमाको अष्टमेशका दोष नहीं है ॥११॥  
    सप्तमश्लोकमें पापग्रहोंको केन्द्रका स्वामी होना अच्छा कहा  
               परंतु यहां मङ्गलके विषयमें अधिक कहते हैं-

कुजस्य कर्मनेतृत्वे प्रयुक्ता शुभकारिता।
त्रिकोणस्यापि नेतृत्वे न कर्मेशत्वमात्रतः ॥१२॥

   कुजस्य त्रिकोणस्य अपि नेतृत्वे कर्मनेतृत्वे प्रयुक्ता शुभकारिता भवति कर्मेशत्वमात्रतः शुभकारिता न भवति ॥१२॥  
  मङ्गल दशमस्थानका स्वामी हो तो शुभ फल देता है, परंतु वह त्रिकोणका भी स्वामी होगा तो शुभ फल देगा, केवल दशमेश हीहोनेसे नहीं देगा, यह योग केवल कर्क लग्नमें मिलेगा ॥१२॥

यद्यद्भावगतौवापि यबद्भावेशसंयुतौ।
तत्तत्फलानि प्रबलो प्रदिशेतां तमोग्रहौ॥१३॥

   तमोग्रहौयद्यद्भावगतौयद्यद्भावेशसंयुतौतत्तत्फलानि प्रबलौ(सन्तौ) प्रदिशेताम् ॥१३॥  
 राहु केतु जिस जिस ग्रहके भावमें बैठे होंय, अथवा जिस जिस भावके स्वामीके साथ बैठे होय, उसीके अनुसार विशेष करके फल देते हैं ॥१३॥

इति श्रीपंडितरामेश्वरभट्टकृतायामुडुदायप्रदीपभाषाटीकायां प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
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अथ राजयोगाध्यायः

अब राजयोग कहते हैं।

केन्द्रत्रिकोणपतयः संबंधेन परस्परम् ।
इतरैरप्रसक्ताश्चेद्विशेषफलदायकाः ॥१४॥

    केन्द्रत्रिकोणपतयः चेत् इतरः अप्रसक्ताः तर्हि परस्परं संबंधेन विशेषफलदायकाः भवन्ति ॥१४॥  



    केन्द्र और त्रिकोणके स्वामी आपसमें संबंध'^(१) करते हों और तृतीय^(२) षष्ठ एकादश स्थानोंके स्वामियोंसे संबंध न हो, तो विशेष फलके देनेवाले होते हैं ॥१४॥

केन्द्रत्रिकोणनेतारौ दोषयुक्तावपि स्वयम् ।
संबंधमात्राद्बलिनौ भवेतां योगकारकौ॥१५॥

    केन्द्रत्रिकोणनेतारौस्वयं दोषयुक्तौ अपि संबंधमात्रात् बलिनौसंतौयोगकारकौभवेताम् ॥१५॥  
    केन्द्र और त्रिकोणके स्वामी दोषयुक्त भी हों, तो भी केवल संबंधसे योगकारी होते हैं ॥१५॥  
                  अब प्रबल राजयोग कहते हैं-

निवसेतां व्यत्ययेन तावुभौ धर्मकर्मणोः।

एकत्रान्यतरो वापि वसेच्चेद्योगकारको ॥१६॥

  तौउभौव्यत्ययेन धर्मकर्मणोः निवसेतां (तदा योगो भवति) । वा एकत्र निवसेतां (तदापि योगो भवति) (अपिवा एक एव निजस्थाने निवसेत् तदा) योगकारकौभवतः ॥१६॥  
   नवम और दशमके स्वामी इस प्रकार बैठे हों कि, नवमेश दशवें और दशमेश नवममें हो तो एक राज-योग हुआ, अथवा दोनों नवमस्थान में बैठे हों, तो यह भी दूसरा राजयोग हुआ, अथवा दोनों दशमस्थानमें बैठे हों, तो यह तीसरा  

१-संबंध चार प्रकारका है -१ अन्योन्यराशिस्थित अर्थात् क्षेत्रसंबंध २-परस्परदृष्टिसंबंध, ३ अन्यतरदृष्टि-संबंध, ४ सहावस्थानलक्षण । १ अन्योन्यराशिस्थित संबंध उसे कहते हैं कि, जैसे मेषका वा वृश्चिकका सूर्य हो और भौम सिंहका होय तो सूर्य भौमका क्षेत्र संबंध हुआ। २ ‘परस्परदृष्टिसंबंध’ वह है जैसे-मेषमें मंगल हो और तुलाका सूर्य हो अर्थात् प्रत्येक ग्रहका सप्तम देखना । ३ ‘अन्यतरदृष्टि संबंध’ वह है, जैसे सिंहका मंगल हो और मीनराशि पर स्थित सूर्यको पूर्ण देखता हो और सूर्य भौमको न देखे अर्थात् एक ग्रह देखता हो एक न देखता हो। ४ ‘सहावस्थानलक्षण’ वह है कि, एक राशिमें हो ग्रह मिले बैठे हों जैसे सूर्य भीम दोनों वृषराशिके हों। ये चारों संबंध पूर्व बली हैं।
२-(३।६।११) इन स्थानोंके स्वामियों करके युक्त हों अथवा संबंध रखते हों.

राजयोग हुआ, अथवा दोनोंमेंसे एकही अपने स्थानमें बैठे हों तो योग कारक होता है ॥१६॥
अब दूसरा राजयोग कहते हैं-

त्रिकोणाधिपयोर्मध्ये संबंधो येनकेनचित ।
केन्द्रनाथस्य बलिनौ भवेद्यदि सुयोगकृत ॥१७॥

    चेत् त्रिकोणाधिपयोः मध्येयेनकेनचित् बलिनः केन्द्रनाथस्य संबंधः भवेत् तर्हि सुयोगकृत भवति ॥१७॥  
   त्रिकोणके स्वामियोंमेंसे किसी एकके साथ बली केन्द्रनाथका दशमस्थानके स्वामीका संबंध हो, तो राज-योग करता है ॥१७॥

दशास्वपि भवेद्योगः प्रायशो योगकारिणोः ।
दशाद्वयोमध्यगतस्तदयुक् शुभकारिणाम् ॥१८॥

     प्रायशः योगकारिणोः दशाद्वयीमध्यगतः तदयुक् सुभकारिणां दशासु अपि योगः भवेत् ॥१८॥  
   राजयोग करनेवाले केन्द्रत्रिकोणेशोंकी अर्थात् नवम दशमेशोंकी मूलदशामें योगकारक ग्रहोंसेसंबंध नहीं रखनेवालेभी ग्रहोंके अंतर में शुभफल होता है ॥१८॥  
                  अब पापग्रहोंसे भी योग कहते हैं-

योगकारकसंबंधात्पापिनोऽपि ग्रहाः स्वतः
तत्तद्भुक्त्यनुसारेण दिशेयुर्योगजं फलम् ॥१९॥

    स्वतःपापिनः अपि ग्रहाः योगकारकसंबंधात् तत्तद्भुक्त्यनुसारेण योगजं फलं दिशेयुः ॥१९॥  
   जो पापी ग्रह है अर्थात् तीसरे, छठे, एकादश स्थानके स्वामी है, वे योगकारक ग्रहके साथ संबंध करनेसे योगकारक ग्रहकी दशाके अंतरमें शुभ फल देते हैं ॥१९॥

केन्द्रत्रिकोणाधिपयोरकत्वे योगकारकौ।
अन्यत्रिकोणपतिना संबंधो यदि किं परम् ॥२०॥

    केन्द्रत्रिकोणाधिपयोः एकत्वे तौउभौ योगकारकौभवतः।  

यदि तु अन्य त्रिकोणपतिना संबंधः, तदा ततःपरं किं स्यात्॥२०॥
केन्द्रत्रिकोणके स्वामियोंके आपसमें संबंध करनेसे राजयोग होता ही है और जो इसमें दूसरे त्रिकोणेशके साथ सबंध हो तो फिर क्या कहना है अर्थात परमोत्तम राजयोग होता है ॥२०॥

                अब राहुकेतुके राजयोग करने का प्रकार कहते हैं-

यदि केन्द्र त्रिकोणे वा निवसेतां तमोग्रहौ।
नाथेनान्यतरेणापि संबंधाधोगकारकौ॥२१॥

    यदि तमोग्रही केन्द्रे वा त्रिकोणे निवसेतां, तदा अन्यतरेण अपि नाथेन संबंधात् योगकारकौभवतः ॥२१॥  
   राहु, केतु यदि केन्द्रमें बैठे होंय और त्रिकोणेशसे संबंध करते हों और त्रिकोणमें बैठकर केन्द्रेशसे संबंध करते हों तो राजयोग करते हैं ॥२१॥  
                       अब राजयोगभंग कहते हैं-

धर्मकर्माधिनेतारौ रन्ध्रलाभाधिपौयदि।
तयोः संबंधमात्रेण योगं न लभते नरः ॥२२॥

    यदि धर्मकर्माधिनेतारौरन्ध्रसगरलाभाधिपो स्यातां, तदा तयोः संबंधमात्रेण नरः योगं न लभते॥२२॥  
  धर्म और कर्मके स्वामी अष्टम और एकादशके स्वामी हों अर्थात् जो नवमेश है वही अष्टमेश हो और जो दशमेश है वही एकादशेश हो, तो राजयोग नष्ट हो जाता है। जैसे-मेष और मिथुन लग्नोंमें शनि और इसी प्रकार नवमेश अष्टमेशसे संबंध करता हो और दशमेश लाभेश से संबंध करता हो, तो राजयोग भंग करता है ॥२२॥

इति श्रीपंडितरामेश्वरभट्टकृतायामुडुदायप्रदीप भाषाटीकायां राजयोगाध्यायो द्वितीयः ॥२॥
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अथायुर्दायाध्यायः

अब आयुर्दायाध्याय लिखते हैं-

अष्टमं ह्यायुषः स्थानमष्टमावष्टमं च यत् ।
तयोरपि व्ययस्थानं मारकस्थानमुच्यते ॥२३॥

   अष्टमं यत् च अष्टमात् अष्टमं तत् आयुषः स्थानम् उच्यते। अपि च तयोः व्यवस्थानं मारकस्थानम् उच्यते॥२३॥  
   लग्नसे आठवां स्थान आयु है और आठवेंसे आठवां स्थान अर्थात् लग्नसे तीसरा भी आयुस्थान है और इन दोनों अष्टम और तीसरे स्थानोंसे बारहवें स्थान अर्थात् लग्नसे सप्तम और दूसरा ये मारकस्थान कहे है ॥२३॥

तत्राप्यायव्ययस्थानाद्वितीयंबलवत्तरम् ॥
तदीशितुस्तत्र गताः पापिनस्तेनं संयुताः॥२४॥
तेषां दशाविपाकेषु संभवे निधनं नृणाम्।
तेषामसम्भवे साक्षाद्वघयाधीशदशास्वपि ॥२५॥

   तत्र अपि आद्यव्ययस्थानात् द्वितीयं बलवत्तरं भवति । तदीशितुः तथा तेन संयुताः तत्र गताः ये पापिनः तेषां च संभवे दशाविपाकेषु नृणां निधनं वाच्यं तेषाम् असंभवे व्ययाधीशदशासु अपि नृणां मरणं वाच्यम् ॥२४॥ २५॥  
 अब सप्तमस्थानकी अपेक्षा दूसरा घर बली है, इसका विचार लिखते-हैं सप्तम और दूसरा इन दोनोंमें सप्तमस्थानसे दूसरा स्थान अधिक बली है, इसलिये द्वितीयेशकी दशामें जो संभव[^5]हो तो मनुष्योंका मरण कहना चाहिये। अथवा दूसरे स्थानमें बैठे हुए पापीग्रह[^6]द्वितीयेश करके युक्त हों, तो उनकी दशामें मरण कहना चाहिये। अथवा द्वितीयेशसे संबंध करनेवाले पापी ग्रहोंकी अंतरदशामें प्राणियोंका मरण कहना और जो संभ^(१)व न हो तो लग्नसे द्वादश स्थानके स्वामीकी दशामें, अथवा व्ययाधीशसे संबंध करनेवाले जो पापी ग्रह है उनकी दशामें मरण कहना चाहिये ॥२४॥२५॥  

**१-संभवलक्षणम्-**आयु तीन प्रकारकी जो कही है, उसका प्रमाण कहते है। यथा-

“त्रिविधश्चायुषां योगः स्वल्पायुर्मध्यमुत्तमम् ।
द्वात्रिंशत्पूर्वमल्पं तु तदूर्ध्वंमध्यमं भवेत् ॥१॥
आसप्ततेस्तदूर्ध्वं, तु दीर्घायुरिति संमतम् ।
उत्तमायुः शतादूर्ध्वं, मुनीशाः संति तद्विदः ॥२॥

अर्थात्-आयु तीन प्रकारकी स्वल्पायु मध्यायु और पूर्णायु. बत्तीस वर्षसे पहिले अल्पायु है और उसके पीछे मध्यायु ७० वर्ष तक, फिर दीर्घायु, फिर १००वर्षके अनन्तर हो तो उत्तमायु कही जाती है। अब जैसे माना कि, अल्पायु है और

अलाभे पुनरेतेषां संबंधेन तदीशितुः ।
क्वचिच्छुभानांच दशास्वष्टमेशदशासुच ॥२६॥

 पुनः एतेषाम् अलाभे तदीशितुः संबंधेन शुभानां च दशासु मरणं वाच्यम्। क्वचित् तेषाम् अपि अलाभे अष्टमेशदशासु मरणं वाच्यम्॥२६॥  
  जो व्ययाधीशकी अथवा द्वादशेशसे संबंध करनेवाले पापो ग्रहोंकी दशाका भी अलाभ हो तो द्वादशेशसे संबंध करनेवाले शुभग्रहोंकी दशामें मरण कहना चाहिये और जो व्ययेश संबंधी शुभग्रहकी दशा भी न हो, तो कभी कभी अष्टमेशकी दशामें मरण कहना चाहिये ॥२६॥

-उसके मध्यमें मारकेशकी दशा आई अथवा मारक स्थानमें स्थित पापग्रह कहिये ३।६।११ वें स्थानके स्वामीकीदशा आई, अथवा मारकेशमें संबंधकर्त्ताकी दशा आई, तो उसमें मरण अवश्य कहना। इसी प्रकार मध्यायु और पूर्णायुमें विचार करना चाहिये जो जैमिनीसूत्रमें कहा है सो कहते हैं-“प्रथमयोरुत्तरयोर्वा दीर्घमिति” अयमर्थः-चरराश्योर्यदि लग्नेशाष्टमेशौ भवतस्तदा दीर्घमायुः। स्थिरद्विस्वभावयोर्वा लग्नेशाष्टमेशो यदि तदापि दीर्घमायुः। अर्थात् चरराशियोंके लग्नेश और अष्टमेश होंय तो दीर्घ आयु हो, अथवा स्थिर और द्विस्वभाव राशिके लग्नेश अष्टमेश हों. तो भी दीर्घायु कहना। अथ मध्यायुराह- प्रथमद्वितीययोरन्त्ययोर्वा मध्यमिति । चरस्थिरयोर्यदि लग्नेशाष्टमेशौतदा मध्यमायुः। द्विस्वभावयोर्वा लग्नेशाष्टमेशौयदि तदापि मध्यमायुरियत्यर्थः॥ यदि लग्नेश, अष्टमेश चर और स्थिर राशिमें होय तो मध्यमायु कहना. अथवा लग्नेश, अष्टमेश द्विस्वभावराशिके हों तो भी मध्यमायु कहना। अथाल्पायुराह-मध्ययोराद्यन्तयोर्वा हीनमिति। स्थिरयोर्यदि लग्नेशाष्टमेशौतदाप्यल्पनायुरिति। अर्थात् यदि लग्नेश अष्टमेश स्थिर राशिके ही हों तो अल्पायु कहना। अब माना कि, किसीकी अल्पायु निश्चय करी और उस समय मारकेशकी दशा ही नहीं तो कैसे मारक बताना। यह संशय भया और यह जो कहा कि, “तेषामसंभवे” सो यहां घटा कि, पूर्वोक्त जो मारकेश निश्चय किये उनका असंभव भया. तो ऐसी जगह जन्मलग्नसे द्वादशस्थानकी दशामें वाअंतरदशा में मरण कहना। ’अपि’ शब्दसे यह भी भावार्थ निकलता है कि, व्ययाधीशके संबंधी जो पापी ग्रह है, उनकी दशामें भी मरण कहना चाहिये।

केवलानां च पापानां दशासु निधनं क्वचित् ।
कल्पनीयं बुधैर्नृणां मारकाणामदर्शने ॥२७॥
कचित् सर्वेषां मारकाणाम् अदर्शनेःबुधैकेवलानां पापनांदशासु च नृणां निधनं कल्पनीयम् ॥२७॥

   जो मारकका असंभव हो, तो मारकेश के संबंधसे रहित भी तीसरे छठे ग्यारहवें स्थानके स्वामियोंकी दशामें ही ज्योतिषियोंको मरण कल्पना करनी चाहिये ॥२७॥  

ग्रंथान्तरे आयुनिर्णयः ।

आयुःस्थानाधिपः पापैःसहैव यदि संस्थितः ।
करोत्यल्पायुषं जातं लग्नेशोऽप्यत्र संस्थितः ॥१॥
जो अष्टमेश पापग्रहोंके साथही बैठा हो और वहां ही लग्नेश भी बैठा हो, तो मनुष्यको अल्पायु करता है ॥१॥
षष्ठे व्ययेऽपि षष्ठेशो व्ययाधीशो रिपो व्यये ।
लग्नेऽष्टमे स्थितौ वापि दीर्घमायुः प्रयच्छति ॥२॥
-षष्ठेश छठे हो वा द्वादश हो और द्वादशेश द्वादश हो वा छठे हो अथवा षष्ठेश और द्वादशेश लग्नमें वा अष्टमस्थित हों, तो दीर्घ आयु करते हैं ॥२॥
एवं हि शनिना चिन्ता कार्या तर्कैविचक्षणैः॥
कर्माधिपेन च तथा चिन्तनं कार्यमायुषः ॥३॥
इसी प्रकार पण्डितोंको आयुके देखनेमें शनि और दशमेशसे विचार करना चाहिये अर्थात् अष्टमेश पापग्रहोंके साथहो उसके साथ शनि हो वा दशमेश हो ॥३॥
स्वस्थाने स्वांशके वापि मित्रांशे मित्रमंदिरे।
दीर्घायुषं करोत्येव लग्नेशोऽष्टमपः पुनः ॥४॥
लग्नेश वा अष्टमेश अपनी राशिका हो अपने नवांशकका होय वा मित्रके नवांशकका हो वा मित्रकी राशिका हो, तो दीर्घायु करता है ॥४॥
लग्नाष्टमपकर्मेशमन्दाः केन्द्रत्रिकोणयोः॥
लाभे वा संस्थितास्तद्वद्दिशेयुर्दीर्घमायुषम् ॥५॥
लग्नेश, अष्टमेश, और शनि ये केन्द्र त्रिकोण अथवा लाभमें बैठे हों, तो दीर्घायु करते हैं ॥५॥इस प्रकार अनेक योग है, सो ग्रन्थान्तरोंसे जानना॥

शनिके मारकत्वमें विशेषता।

मारकैःसह संबंधान्निन्हता पापकृच्छनिः ।
अतिक्रम्येतरान् सर्वान् भवत्येव न संशयः ॥२८॥

    पापकृत् शनिः मारकैः सह संबंधात् इतरान् सर्वान् अतिक्रम्य निहन्ता भवति एव, अत्र संशयः न ॥२८॥  

पापकारक1 शनि जब मारकेशोंसे संबंध करता हो, तब संपूर्ण मारकेशोंको अतिक्रमण करके निःसंदेह मारक होता है ॥२८॥

ग्रहोंके शुभाशुभ फल देनेका समय-

न दिशेयुर्ग्रहाः सर्व स्वदशासु स्वभुक्तिषु ।
शुभाशुभफलं नृृणामात्मभावानुरूपतः ॥२९॥

    सर्वे ग्रहाः स्वदशासु स्वभुक्तिषु च आत्मभावानुसारतः नृणां शुभाशुभफलं न दिशेषुः ॥२९॥  
    सूर्यादि संपूर्ण ग्रह अपनीमुलदशा और अपने ही अंतरमें मनुष्योंको अपने सिंहादि भावोंके अनुरूप फल नहीं देते हैं ॥२९॥

आत्मसंबंधिनो ये च ये वा निजसर्मिणः।
तेवामन्तर्दशास्वेव विशन्ति स्वदशाफलम् ॥३०॥

    ये आत्मसंबंधिनः वा ये निजसवर्मिणःच तेषाम् अन्तर्दशासु एवं स्वदशाफलं दिशन्ति ॥३०॥  
   जो ग्रह चार प्रकारके संबंधके अनुसार अपने संबंधी है, अथवा जो अपने सहधर्मी है अर्थात् आपसमें संबंध न रखनेपर भी शुभ अशुभ स्थानके स्वामी होनेसे समान है, उनकी अन्तर्दशामें हीअपनी दशाका फल करते हैं॥३०॥

जो अपने संबंधी और समानधर्मवाले ग्रहोंका अभाव हो तो
दशाके फलका प्रकार लिखते हैं-

इतरेषां दशानाथविरुद्धफलदायिनाम् ।
तत्तत्फलानुगुण्येन फलान्यूह्यानि सूरिभिः ॥३१॥

    सुरिभिः दशानाथविरुद्धफलदायिनाम् इतरेषां फलानि तत्तत्फलानुगण्येन ऊह्यानि ॥३१॥  
    ज्योतिषियोंको चाहिये कि, दशानाथके विरुद्ध फल देनेवाले जो दूसरेग्रह हैं उन्हींका फल अंतरदशाओंके स्वामियोंके फलोंके अनुसार जाने॥३१॥

स्वदशायां त्रिकोणेशभुक्तौ केन्द्रपतिः शुभम् ।
दिशेत्सोऽपि तथा नो चेदसंबंधेन पापकृत् ॥३२॥

   केन्द्रपतिः स्वदशायां त्रिकोणेशभुक्तौ च शुभं दिशेत् नो चेत् असंबंधेन पापकृत् भवति। तथा सः अपि॥३२॥  
   केन्द्रका स्वामी अपनी दशामें और त्रिकोणेशकी अंतरदशामें शुभ फल देता है (परंतु आपसमें सबंध होना मुख्य है)और जो संबंध न हो तो बुरा फल देता है और इसी प्रकार त्रिकोणेशको जानो अर्थात् त्रिकोणेशके स्वामीकी दशामें केन्द्रके स्वामीकी अंतरदशामें आपसमें संबंध होनेसे शुभ फल होगा, अन्यथा अशुभ होगा॥३२॥  
    मारकेशके अंतरमें राजयोगका आरंभ होवे, उसका फल कहते हैं-

आरंभोराजयोगस्य भवेन्मारकमुक्तिषु ।
प्रथयन्ति तमारभ्य क्रमशः पापमुक्तयः ॥३३॥

   यदि मारकभुक्तिषु राजयोगस्य आरंभः भवेत्, तदा पापभुक्तयः तम् आरभ्य क्रमशः प्रथयन्ति ॥३३॥  
 जो मारकेशके अंतरमें राजयोगका आरंभ हो, तो पाप ग्रहोंकी अन्तरदशा उस मनुष्यको राज्याधिकारसे केवल प्रसिद्ध कर देती है। पूर्ण सुख नहीं कराती है ॥३३॥

तत्संबंधिशुमानां तु तथा पुनरसंयुजाम् ।
शुभानां तु समत्वेन संयोगो योगकारिणाम् ॥३४॥

   तत्सम्बन्धिशुभानां भुक्तिषु तथा पुनः असंयुजां योगकारिणां शुभानां तु भुक्तिषु यदि संयोगः तदा समत्वेन  

तथा॥३४॥

  जो राजयोग करनेवाले ग्रहोंके संबंधी शुभग्रहोंकी अंतरदशामें राजयोगका आरंभ होवे, तो राज्यसे सुख और प्रतिष्ठा बढती है, और जो राजयोग करनेवाले ग्रहोंके संबंध न करनेवाले शुभग्रहोंकी अंतरदशामें राजयोगका आरंभ होवे, तो समान फल कहना, कमती बढती न होगा। जैसा है वैसा ही बना रहेगा ॥३४॥

राजयोगकारककी ही दशामें विशेष फल कहते हैं-

शुभस्यास्य प्रसक्तस्य दशायां योगकारकाः ।
स्वभुक्तिषुप्रयच्छन्ति कुत्रचिद्योगजं फलम् ॥३५॥

   प्रसक्तस्य अस्य शुभस्य दशायां योगकारकाः स्वभुक्तिषु योगजं फलं कुत्रचित प्रयच्छन्ति ॥३५॥  
 इस योगकारक शुभ ग्रहसे संबंध करनेवाली दगामें योगकारक ग्रह अपनी अंतरदशामें भी कभी कभी राजयोगका फल देते हैं, अर्थात् राजयोगकारक ग्रहकी दशामें जब योगकारक ग्रहका अंतर लगेगा, तब फल होगा॥३५॥

अब राहुकेतुके विषयमें विशेष कहते हैं-

तमोग्रहौशुमारूढावसंबंधेन केनचित् ।
अंतर्दशानुसारेण भवेतां योगकारको ॥३६॥

   केनचित् असंबन्धेन शुभारूढौतमोग्रहौअंतर्दशानुसारेण योगकारकौभवेताम् ॥३६॥



 राहु केतु ये दोनों किसी योगकारक ग्रहके संबंधी न होनेपर भी केवल शुभ स्थानोंमें अर्थात् केन्द्र औरत्रिकोण स्थानमें से किसी स्थानमें बैठनेसे अंतरदशाके अनुसार योगकारक होते हैं ? सार यह निकला कि, राहु केतु विनाही किसीके संबंधके केन्द्र त्रिकोणमें उत्तम है, परंतु जब राजयोगकारकका अंतर आवेगा, तब उत्तम फल होगा, उसमें भी जब शुभका होगा, तब परमोत्तम फल करेगा, अशुभका होगा, तो हीन फल करेगा ॥३६॥

अब पापग्रहोंकी दशाओंमें अंतरदशाका विशेष फल कहते हैं-

पापो यदि दंशानाथाः शुभानां तदसंयुजाम् ।
भुक्तयः पापफलदास्तत्संयुक्शुभभुक्तयः ॥३७॥
भवन्ति मिश्रफलदा भुक्तयो योगकारिणाम् ।
अत्यन्तपापफलदा भवन्ति तदसंयुजाम् ॥३८॥

  दशानाथाः यदि पापाः स्युः, तदसंयुजां सुभानां भुक्तयः पापफलदाः भवन्ति। तत्संयुक्शुभभुक्तयः मिश्रफलदाः भवन्ति । तदसंयुजां योगकारिणां भुक्तयः अत्यन्त पापफलदाः भवन्ति॥  
जो दशाके स्वामी अशुभ ग्रह हों, तो दशाके स्वामीके संबंधरहित शुभग्रहों की अंतरदशा अशुभ फलको देनेवाली होती है, और पापी दशानाथ हो और उसके संबंधी शुभ ग्रह हो, तो उनकी अंतरदशा मिश्रफल कहिये भला बुरा फल देती है और पापी दशानाथसे संबंध रखनेवाले योगकारक ग्रहोंकी अंतरदशा बहुत बुरे फलको देनेवाली होती है, भाव यह है कि, पापी ग्रहकी दशा सब प्रकार निषिद्ध ही है ॥३७॥३८॥

अंतरदशाके योगसे जो मारक है, उसके मारकत्वको कहते हैं-

सत्यपि स्वेन संबंधे न हन्ति शुभमुक्तिषु ॥
हन्ति सत्यप्यसंबंधे मारकः पापभुक्तिषु ॥३९॥

     स्वेन संबंधे सत्यपि मारकःशुभमुक्तिषु न हन्ति । असम्बन्धे सति अपि पापमुक्तिषु हन्ति ॥३९॥  
    अपना संबंध होवे तो भी मारक ग्रह शुभ ग्रहोंकी अंतर दशाओंमें नहीं मारता है और जो अपना संबंध न भी हो और पापग्रहोंका अंतर हो तो मारक मृत्युको देता है ॥३९॥

परस्परदशायां स्वभुक्तौ सूर्यजभार्गवौ ।
व्यत्ययेन विशेषेण प्रदिशेतां शुभाशुभम् ॥४०॥

     सूर्यजभार्गवौ परस्परदशायां स्वभुक्तौ व्यत्ययेन विशेषेण शुभाशुभं प्रदिशेताम् ॥४०॥  
   शनि और शुक्र परस्पर दशाओंमें और अंतरदशामें विशेष करके विपरीत ही शुभ अशुभ फल देते हैं, अर्थात् शनिको मूलदशामें जब शुक्रकी अंतरदशा आवेगी, तब शनिकाही विशेष शुभ अशुभ फल देगा, इसी प्रकार जब शुक्रकी दशा होगी, तो शनि अपनी अंतरदशामें शुक्रका फल विशेष करके देगा ॥४०॥

अब प्रसिद्धकारक राजयोग कहते हैं-

कर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ ।
राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत् ॥४१॥

   कर्मलग्नाधिनेतारौअन्योन्याश्रयसंस्थितौ राजयोगौभवतः इति प्रोक्तम्। (अस्मिन् योग जातः पुरुषः इत्यध्या-हारः) विख्यातःविजयी च भवेत् ॥४१॥  
  जो दशम घरका स्वामी और लग्नका स्वामी अन्योन्य स्थानमें बैठे हों, अर्थात दशमेश लग्नमें और लग्नेश दशवें घरमें हों तो ये दोनों राजयोग करनेवाले होते हैं, इस योगमें उत्पन्न हुआ मनुष्य बडा प्रसिद्ध और युद्धमें विजय पानेवाला होता है ॥४१॥

धर्मकर्माधिनतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ।
राजयोगाविति प्रोक्त विख्यातो विजयी भवेत् ॥४२॥

   धर्मकर्माधिनेतारौ अन्योन्याश्रयसंस्थितौ राजयोगौभवतःइति प्रोक्तम् (अस्मिन् योगे जातः) विख्यातः विजयी च भवेत् ॥४२॥  
 धर्म और कर्मके स्वामी अन्योन्याश्रित हो अर्थात् नवमका स्वामी दशम और दशमका स्वामी नववें हो तो राजयोग करते हैं, जो मनुष्य इसमें उत्पन्न होता है, वह बडा विख्यात और युद्धमें विजयशील होता है ॥४२॥

वेदेष्वङकधरा वर्षे भाद्रमास्यसित दले ॥
दशम्यां भास्करदिने टोकेषा पूर्णतामगात् ॥

इति श्रीमदागरानगरवास्तव्यगुर्जरविप्रकुलोद्भवज्योतिर्विद्वालमुकुन्दभट्टसूरिसूनुरामेश्वरभट्टविरचितायामुडुदायप्रदीपतत्त्वबोधि-नीभाषाटीकायामन्तर्दशाध्यायः ॥३॥

चन्द्रेचन्द्रान्तरम् चन्द्रे जोवान्तरम्. चन्द्रे केत्वन्तरम्.
च. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो.
१०मा. १६.मा ७मा.
१५ १० १७ १२ १७ २० १५ यदि. १६ २८ २० २४ १० २८ १२ दि. १२ १० १७ १२ २८ २९ दि.
३० ३० ३० घ. घ. १५ ३० ३० १५ ३० १५ ४५ घ.
चन्द्रेभौमान्तरम् चन्द्रे शन्यन्तरम् चन्द्रेशुक्रान्तरम्
मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो. शु, सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो.
७मा. १९मा. २०मा.
२८ २९ १२ १० १७ दि. २० २८ १७ २५ १६ दि. १० २० २० ५२ दि.
१५ ४५ १५ ३० ३० घ. १५ ४५ १५ ३० ३० १५ ३० घ. घ.
चन्द्रे राह्वन्तरम् चन्द्रे बुधान्तरम् चन्द्रे सूर्यान्तरम्
रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. यो. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. यो. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो.
१८मा. १७मा. ६मा.
२५ १६ २७ १५ दि. १२ २९ २५ २५ १२ २९ १६ २० दि. १५ १० २७ २४ २८ २५ १० दि.
३० ३० ३० ३० घ. ४५ ४५ ३० ४५ ३० ४५ घ. ३० ३० ३० ३० घ.
भौमे भौमान्तरम्. भौमे शन्यन्तरम्. भौमे शुक्रान्तरम्.
मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं यो. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ यो. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो.
४मा. १३मा. १४मा.
१९ २३ २० २४ १२ २७दि.. २६ २३ १९ २३ २९ २३ ९दि. १० २१ २४ २६ २९ २४ दि.
३६ १६ ४९ ३४ ३० २१ १५ घ. १० ३१ १६ ३० ५७ १५ १६ ५१ १२ घ. ३० ३० ३० ३० घ.
३० ३० ३० म. ३० ३० ३० प.
भौमे राह्वन्तरम्. भौमे बुधान्तरम्. भौमे सूर्यान्तरम्.
रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं मं. यो. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बु. श. यो. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो.
१२मा. ११मा. ४मा.
२९ २३ २२ १८ २२ १८दि. २० २० २९ १७ २९ २० २३ १७ २६ २७दि. १० १८ १६ १९ १७ २१ ६दि.
५१ ३३ ६४ ३० घ. ३४ ४९ ३० ५१ ४५ ४९ ३३ ३६ ३१ घ. १८ ३० ३१ ५४ ४८ ५७ ३१ ३१ घ.
प. ३० ३० ३० ३० प.
भौमे जीवान्तरम्. भौमे केत्वन्तरम्. भौमे चन्द्रान्तरम्.
बृ. श. बु. के. शु. सु. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो.
११मा. ४मा. ७मा.
१७ १९ २६ १६ २८ १९ २० ६दि. २४ १२ २२ १९ २३ २० २७दि. १७ १२ २९ २८ १२ १० दि.
३६ ३६ ४८ ३६ २४ घ. ३४ ३० २१ १५ ३४ ३६ १६ ४९ ३९ १५ ३० १५ ४५ १५ ३० घ.
प. ३० ३० ३० ३० प.
राहौ राह्वन्तरम्. राहौ बुधान्तरम्. राहौ सूर्यान्तरम्.
रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. यो. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. यो. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो.
३२मा. ३०मा. १०मा.
१७ २६ १२ १८ २१ २६ १२दि. १० २३ १५ १६ २३ १७ २५ १८दि. १६ २७ १८ १८ १३ २१ १५ १८ २४ २४दि.
५४ ४२ ४२ ३६ ४२ घ. ३३ ५४ ३३ ४२ २४ २१ घ. १२ ५४ ३६ १२ १८ ५४ ५४ घ.
राहौ जीवान्तरम्. राहौ केत्वन्तरम्. राहौ चन्द्रान्तरम्.
बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो.
२८मा. १२म. १८मा.
२० २४ १३ १२ २० २२दि. २२ १८ २२ २६ २९ २३ १८दि. १५ २१ १२ २५ १६ २७ दि.
२४ २४ १२ २४ ३६ घ. ५४ ३० ४२ २४ ५१ ३३ घ. ३० ३० ३० ३० घ.
राहौ शन्यन्तरम्. राहौ शुक्रान्तरम्. राहौ भौमान्तरम्.
श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो. मं रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो.
३४मा. ३६मा. १२मा.
२९ २१ २१ २५ २९ ३१ ६दि. २४ १२ २४ २१ दि. २२ २६ २० २९ २३ २२ १८ ११ ८दि.
५१ १८ ३० ५१ ५४ ४८ घ. घ. ४२ ४५ ३३ ५४ ३० घ.
चन्द्रे जीवान्तरम्. जीवे केत्वन्तरम्. जीवे चन्द्रान्तरम्.
बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो.
२५मा. ११मा. १६मा.
१८ १६ ४१ २५ १८दि. १९ २६ १६ २८ १९ २० १४ २३ १७ ६दि. १० २८ १२ ४१ ८२ ८२ २४ दि.
४८ ४८ २४ ४८ १२ घ. ३६ ४८ ३६ २४ ४८ १२ ३६ घ. घ.
प.
जीवे शन्यन्तरम्. जीवे शुक्रान्तरम्. जीवेभौमान्तरम्.
श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो. मं रा. वृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो.
३०मा. ३२मा. ११मा.
२३ १५ १६ २३ १६ १२दि. १० १८ २० २६ २४ २१ ६२ दि. १९ १० १४ २३ १७ १९ २६ १६ २८ ६दि.
१२ ३६ १२ ४८ ३६ घ. घ. ३६ २४ ४८ १२ ३६ ३६ ४८ घ.
प.
जीवे बुधान्तरम्. जीवे सूर्यान्तरम्. जीवे राह्वन्तरम्.
बु. के. शु. सु. चं. मं. रा. बृ. श. यो. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. यो.
२७मा. ९मा. २८मा.
१६ १० १७ १८ ६दि. २४ २४ १६ १३ १५ १० १६ १८ दि. २५ १६ २० २४ १३ १२ २० २४दि
४८ ३६ २४ ४८ १२ घ. २४ ४८ १२ २४ ३६ ४८ ४८ घ. ३६ १२ ४८ २४ २४ १२ २४ घ.
प.
शनौ शन्यन्तरम्. शनौ शुक्रान्तरम्. शनौ भौमान्तरम्.
श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो. म. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो.
३६मा. ३८मा. १३मा.
२१ २४ १२ २४ ३दि. १० २७ २१ ११ दि. २३ २९ २३ २६ २३ १९ ९दि.
२८ २५ १० ३० १५ १० २७ २४ घ. ३० ३० ३० ३० घ. १६ ५१ १२ १० ३१ ३० ५७ १५ घ.
३० ३० ३० ३० प. प. ३० ५१ ३० ३० ३० प.
शनौ बुधान्तरम्. शनौ सूर्यान्तरम्. शनौ राह्वन्तरम्.
बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. यो. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो. रा. बु. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. यो.
३२मा. ११मा. ३४मा.
१७ २६ ११ १८ २० २६ २५ ९दि. १७ २८ १९ २१ १५ २४ १८ १९ २७ १२दि. १६ १२ २५ २९ २१ २१ २५ २९ ६दि.
१६ ३१ ३० २७ ४५ ३१ २१ १२ २५ घ. ३० ५७ १८ ३६ २७ ५७ घ. ५४ ४८ २७ २१ ५१ ३० ५१ घ.
३० ३० ३० ३० ३० प. प. प.
शनौ केत्वन्तरम्. शनौ चन्द्रान्तरम्. शनौ जीवान्तरम्.
के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो.
१३मा. १९मा. ३०मा.
२३ १९ २३ २९ २३ २६ ९दि. १७ २५ १६ २० २८ दि. २६ २३ १५ १६ २१ १८ १२दि.
१६ ३० ५७ १५ १६ ५१ १२ १० ३१ घ. ३० १५ ३० १५ ४५ १५ ३० घ. ३६ २६ १२ १२ ३६ १२ ४४ घ.
३० ३० ३० ३० प. प. प.
बुधै बुधान्तरम् बुधै सूर्यान्तरम्. बुधै राह्वन्तरम्
बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. यो. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. यो.
४३ ३२मा. १०मा. ३०मा.
२० २४ १३ १२ २० १० २५ १७ ९दि. १५ २५ १७ १५ १० १८ १७ २१ ६दि. १७ २५ १० २३ १५ १६ २३ १८दि.
४९ ३४ ३४ २१ ३४ ३६ १६ घ. १८ ३० ५१ २४ ४८ २७ २१ ५१ घ. ४२ २४ २१ ३३ ५४ ३० ३३ घ.
३० ३० ३० ३० प. प. प.
बुधै केत्वन्तरम् बुधै चन्द्रान्तरम्. बुधै जीवान्तरम्
के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो.
११मा. १७मा. २७मा.
२० २९ १७ २९ २० २३ १७ २६ २० २७दि. १२ २९ १६ २० १२ २९ २५ २५ दि. १८ २५ १७ १६ १० १७ ६दि.
४० ३० ५१ ४५ ४९ ३३ ३६ ३१ ३४ घ. ४५ ३० ३० ४५ १५ ४५ ३० घ. ४८ १२ ३६ ३६ ४८ ३६ २४ घ.
३० ३० ३० ३० प. प. प.
बुधै शुक्रान्तरम् बुधै भौमान्तरम् बुधै शन्यन्तरम्
शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो.
३४मा. १मा. १३मा.
२० २१ २५ २९ १६ ११ २४ २९ १०दि. २० २३ १७ २६ २० २० २९ १७ २९ २७दि. १७ २३ ११ १८ २० २६ २५ १दि.
३० ३० ३० ३० घ. ४९ ३३ ३६ ३१ ३४ ४९ ३० ५१ ४५ घ. २५ १६ ३१ ३० २७ ४५ ३१ २१ १२ घ.
प. ३० ०३ ३० प. ३० ३० ३० ३० प.
केतौ केत्वन्तरम्. केतौ चन्द्रान्तरम्. केतौ जीवान्तरम्.
के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो. बृ. श. बु. के. श. सू. चं. मं. रा. यो.
४मा. ७मा. ११मा.
२४ १२ २२ १९ २३ २० ५७दि. १७ १२ १२ २६ १२ १० दि. २३ १७ १९ २६ १६ २८ १९ २० ६दि.
३४ ३० २१ १५ ३४ ३६ १६ ४९ घ. ३० १५ १५ ४५ १५ ३० घ. ४८ १२ ३६ ३६ ४८ ३६ २४ घ.
३० ३० ३० ३० प. प. प.
केतौ शुक्रान्तरम्. केतौ भौमान्तरम्. केतौ शन्यन्तरम्.
शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो. श. बु. के. श. सू. चं. मं. रा. बृ. यो.
१४मा. ४मा. १३मा.
१० २१ २४ २६ २९ २४ दि. २२ १९ २३ २० २४ १२ २७दि. २६ २३ १९ २३ २९ २३ ९दि.
३० ३० ३० ३० घ. ३४ ३६ १६ ४९ ३४ ३० २१ १५ घ. १० ३१ १६ ३० ५७ १५ १६ ५१ १२ घ.
प. ३० ३० ३० ३० प. ३० ३० ३० ३० प.
केतौ सूर्यान्तरम्. केतौ राह्वन्तरम्. केतौ बुधान्तरम्.
सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. यो. बु. के. शु. सु. चं. मं. रा. बृ. श. यो.
४मा. १२मा. ११मा.
१० १८ १६ १२ १७ २१ ६दि. २६ २० २९ २३ २२ १८ २२ १८दि. २० २० २९ १७ २९ २० २३ १७ २६ २७दि.
१८ ३० २१ ५४ ४८ ५७ ५१ २१ घ. ४२ २४ ५१ ३३ ५४ ३० घ. ३५ ४९ ३० ५१ ४५ ४९ ३३ ३६ ३१ घ.
प. प. ३० ३० ३० ३० प.
शुक्रे शुक्रान्तरम्. शुक्रे भौमान्तरम्. शुक्रे शन्यन्तरम्.
श. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो.
४०मा. ११ ४मा. ३८मा.
२० १० १० १० १० २० १० दि. २४ २६ २९ २४ १० २१ दि. ११ १० २७ २१ दि.
प. ३० ३० ३० ३० घ. ३० ३० ३० ३० घ.
शुक्रे सूर्यान्तरम्. शुक्रे राह्वन्तरम्. शुक्रे बुधान्तरम्.
सू. चं मं. रा. बृ. श. बु. के. श. यो. रा. बृ. श. बु. के. श. सू. चं. मं. यो. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बु. श. यो.
१२मा. ३६मा. ३४मा.
१८ २१ २४ १८ २७ २१ २१ दि. १२ २४ २१ २४ दि. २४ २९ २० २१ २५ २९ १६ ११ दि.
घ. घ. ३० ३० ३० ३० घ.
शुक्रे सूर्यान्तरम्. शुक्रे जीवान्तरम्. शुक्रे केत्वन्तरम्.
चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. श. सू. यो. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. रा. बु. यो.
२०मा. ३२मा. १४मा.
२० २० २५ १० दि. १६ २६ १० १८ २० २६ २४ दि. २४ १० २१ २४ २६ २९ दि.
घ. घ. ३० ३० ३० ३० घ.
सूर्यान्तरम्. राह्वन्तरम्. बुधान्तरम्.
सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो. रा. बृ. श. बु. के. श. सू. च. मं. यो. बु. के. श. सू. चं. मं. रा. बृ. श. यो.
६व. १८व. १७व.
१० ११ १० मा. १० १० मा. ११ १० १० ११ मा.
१८ २४ १८ १२ दि. १२ २४ १८ १८ २४ १८ दि. २७ २७ २७ १८ दि.
चन्द्रान्तरम्. जीवान्तरम्. केत्वन्तरम्.
चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. यो.
१०व. १६व. ७व.
१० मा. ११ ११ मा. ११ ११ मा.
दि. १८ १२ १८ २४ दि. २७ २७ १८ २७ दि.
भौमान्तरम्. शन्यन्तरम्. शुक्रान्तरम्
मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. चं. यो. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो.
७व. १९व. २०व.
११ ११ मा. ११ १० मा. १० मा.
२७ १८ २७ २७ दि. १२ १२ दि. दि.
सूर्ये सूर्यान्तरम्. सूर्ये राह्वन्तरम्. सूर्ये बुधान्तरम्.
सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. यो. रा. व. श. बु. के. बृ. पू. चं. मं. यो. बु. के. शु. सू. चं. मं. प. बृ. श. यो.
३मा. १०मा. १०मा.
१६ १४ १७ १५ १८ ८दि. १८ २१ १५ १८ २४ १६ २४ १८ २४दि. १३ १७ २१ १५ २५ १७ १५ १० १८ ६दि.
२४ १८ १८ २४ १८ १८ घ. ३६ १२ १८ ५४ ५४ १२ ५४ घ. २१ ५१ १८ ५१ ५४ ४८ २७ घ.
सूर्ये चन्द्रान्तरम्. सूर्ये जीवान्तरम्. सूर्ये केत्वन्तरम्.
चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. सू. यो. बु. श. बृ. के. शु. सू. चं. मं. रा. यो. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श, बु. यो.
६मा. ९मा. ४मा.
१५ १० २७ २४ १८ २५ १० दि. १५ १० १६ १८ १४ २४ १६ १३ १८दि. २१ १० १८ १६ १९ १७ ६दि.
३० ३० ३० ३० घ. १४ ३६ १८ ४८ २४ ०४ ८१ घ. २१ १८ ३० २१ ५४ ४८ ५७ ५१ घ.
सूर्ये भौमान्तरम्. सूर्ये शन्यन्तरम्. सूर्ये शुक्रान्तरम्.
मं. रा. बृ. श. बु. के. शु. चं. सू. यो. श. बु. के. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. यो. शु. सू. चं. मं. रा. बृ. श. बु. के. यो.
४मा. ११मा. १२मा.
१८ १६ १८ ९७ २१ १० ६दि. २४ १८ १९ २७ १७ २८ १९ २१ १५ १२दि. १८ २१ २४ १८ २७ २४ २१ ६दि.
२१ ५४ ४८ ५७ ५१ ११ १८ ३० घ. २७ ५७ ३० ५७ १८ ३६ घ. घ.

श्रीवेंकटेश्वर स्टीम् प्रेस बम्बई

लक्ष्मीवेंकटेश्वर स्टीम् प्रेस कल्याण

लगभग एक शताब्दि से सद्ग्रन्थों का प्रकाशन करते हुए सत्साहित्य प्रसार के कार्य में संलग्न हैं। हमारे यहाँ से वेद, वेदान्त, न्याय, योग, धर्मशास्त्र, कर्मकाण्ड, व्याकरण, छन्द, कोश, पुराण, काव्य, नाटक, अलंकार, वैद्यक, ज्योतिष मन्त्र, स्तोत्रादि संस्कृत व हिन्दी भाषा के सहस्रों ग्रन्थों का प्रकाशन होता है । शुद्धता स्वच्छता कागजकी उत्तमता, तथा जिल्वकी बँधाई सुविख्यात है। विशेष जानकारी के लिये पचीस नये पैसे का टिकट भेजकर बृहत् सूचीपत्र मँगादेखिये।

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१. गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, लक्ष्मीवेंकटेश्वर प्रेस व बुकडिपो, अहिल्याबाई चौक, कल्याण (जि. ठाणे-महाराष्ट्र).

२. खेमराज श्रीकृष्णदास, श्रीवेंकटेश्वर स्ट्रीम् प्रेस, खेमराज श्रीकृष्णदास मार्ग, ७ वीं खेतवाडी, बम्बई-४००००४.

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  1. “तीसरे, छठे, एकादश स्थानके स्वामीके साथ हो, वा संबंध करता हो” ↩︎