चमत्कारचिन्तामणि

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[

॥ श्रीः ॥

चमत्कारचिन्तामणि

ज्यौतिषाचार्यनारायणभट्टविरचितः

व्याकरणाचार्यपण्डितमदनमोहन पाठक-

कृत-

अन्वयभाषानुवादसहितः।

स च

भार्गवपुस्तकालयाध्यक्षेण

मुम्बई

भवसीसकाक्षरैः

काश्यां वागेश्वरीमुद्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितः।

सन् १६२४
__________

(अस्य सर्वेधिकाराः प्रकाशकायत्ताः)

ग्रन्थावतरणिका

कभी कभी ऐसा देखने में आया है कि कोई कोई ज्योतिषी जन्मकुण्डली देखकर ऐसा ऐसा विचित्र फल कहते हैं कि मनुष्य आश्चर्य से ज्योतिषी का मुंह देखते रह जाता है । उसें श्रम होता है कि शायद ज्योतिषी ने किसी भांति से मेरे गृह का समाचार जान लिया है। परंतु वात कुछ और ही रहती है । ज्योतिषी अपने शास्त्र के बल से यह सब कहने में समर्थ होता है । ज्योतिष शास्त्र में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके द्वारा सहज में भूत भविष्य और वर्त्तमान का हाल ठीक ठीक ऐसा लिखा रहता है, मानो ग्रन्थकार ने गृह पर बैठ कर ग्रन्थ रिचा था, जिनकी कुण्डली का फल ग्रन्थ में लिखा है । इन्हीं ग्रन्थों के सहारे ज्योतिषी लोग मरण जीवन, हानि लाभ, विपत्ति संपत्ति और पुत्रादि सुख दुःख का फल कहने में समर्थ होते हैं ।

उन्हीं विचित्र चमत्कारे वाले ग्रन्थों में “चमत्कारचिन्ताणि” भी एक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ के देखने से मनुष्य ग्रहकुण्डली का फल बताने में सिद्ध सा हो जाता है । ग्रन्थकारने इस ग्रन्थको ऐसा सुलभ बनाया है कि थोड़े परिश्रम से बहुत उपकार होता है। कारण इसका यह है कि तनु सहज सुख सुतरिषु जाया मृत्यु धर्म कर्म श्राय और व्यय भावों का सूर्य आदि नव ग्रहों का फल उनके स्थान के अनुसारअलग

अलग इस उत्तमता से लिखा गया है कि इस ग्रन्थ को खिलवाड़ में भी देख कर फलांश में जानकारी हो जाता है। जो कुछ हा मेरा पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ में ग्रहकुण्डली के फल उत्तम और यथेष्ट जाने जा सकते हैं और वह भी सहज परिश्रम करने से। इस ग्रन्थ की चमत्कारिता पर मोहित होकर भार्गव पुस्तकालय के मैनेजर ने मुझे इसका भाषानुवाद औरसांग्रही साथ अन्वय करने की प्रेरणा की। उक्त मैनेजर की प्रेरणा से मैंने इसका भाषानुवाद और अन्वय किया। इससेभाषा कहां तक सरल और लोकोपकारक हुई इस विषय मैंकुछ कहने का साहस नहीं करता । यह बात विज्ञपाठक गणों के लिये छोड़ देता हूँ। तब भी मुझे आशा है कि इसके द्वाराकुछ लोकोपकार आवश्य होवेगा, और लोक में ज्योतिष शीघ्र का चमत्कार चमकेगा ।

मुझे आशा है कि, ज्योतिषिवर्य नारायण भट्ट के इस ग्रन्थकाआदर अबभी लोक में है, यह भी अनुवाद में एक कारणहो सकता है। अबमैं पाठक और विद्वानों से यह प्रार्थना कर चूप होता हैं कि वे मेरी ढिठाई पर ध्यान न देकर भूल चूक सम्हाल देवें इतिशुभम्—

२७। ६। १६। }

विद्वज्जन किंकर—
पं० मदन मोहन
गायघाट, वङ्गालीवाडा, काशा

श्रीगणेशाय नमः।

अथ

चमत्कारचिन्तामणिः।

सान्वयभाषाटीकासहितः
__________

नमस्कृत्य परेशानं जगन्मङ्गल कारणम् ॥
नारायणकृते ग्रन्थे भाषाटीकां करोम्यहम् ॥१॥

ग्रन्थ को समाप्ति और उनके प्रचार को रोकने वाला विघ्न होता है। मंगलाचरण से विघ्नका नाश हो जाता है । अब ग्रन्थ की समाप्ति और उनके प्रचार में सुलभता होती है, और मंगलाचरण के उतरार्थ से ग्रन्थ का नाम और उसका विषयमालूम हो जाता है। इन्हीं तात्पर्यों से नारायण ज्योतिर्वित्अपने चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थ के आदि में कृष्णभगवान् कोप्रणाम करते हैं ।

लसत्पीतपट्टाम्बरं कृष्णचन्द्रं मुदा राधयालिङ्गितं विद्यते ॥ घनं सम्प्रणम्यात्र नारायणा-

ख्यश्चमत्कारचिन्तामणिंसम्प्रवक्ष्ये ॥ १ ॥

अन्वयः– अत्रहि नारायणनामा लसत्पीनपट्टाम्बरं विद्युताआलिंगितं घनमिव मुदा राधया आलिंगितं कृष्णचन्द्रं सम्प्र-णम्य चमत्कारचिन्तामणिं ( ग्रन्थं ) सम्प्रवक्ष्ये ॥ १ ॥

अर्थ– ग्रन्थ के आरम्भ में मैंनारायण, पीताम्बर धारण किये हुए विजुली वाले काले मेघ के समान प्रेम, पूर्वक श्री राधिका से आलिंगन किये गये श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम करके, चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थ का उत्तम व्याख्यान करूँगा ॥ १ ॥

तनुस्थो रविस्तुङ्गयष्टिं विधत्ते मनः सन्तपेद्दारदायादवर्गात्॥ वपुः पीड्यते वातपित्तेन नित्यंस वै पर्यटन् ह्रासवृद्धिं प्रयाति॥ २॥

अन्वयः– तनुस्थः रविः तुङ्गयष्टिं विधत्ते, दारदायादुवर्गात्मनः सन्तपेत् वात पित्तेन नित्यं वपुः पीड्यते; वै सः नित्यं पर्यटन् ह्रासवृद्धिं प्रयाति ॥ २ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के लग्न में सूर्य रहता है, उस पुरुष का शरीर नाक और ललाट आदि ऊँचे होते हैं स्त्री पुत्र भाई और कुटुबियों से उसका मन पीड़ित रहता है वायु और पित्त से सदा उसका शरीर पीड़ित रहता है। वह पुरुष सदा परदेश घूमा करता है। उसका धन सदा समान नहीं रहता, किंतु कभी घटता है और कभी बढ़ जाता है ॥ २ ॥

धने यस्य भानुः स भाग्याधिकः स्याच्चतुष्पात्सुखं सदूव्यये स्वं च याति ॥ कुटुम्बे

कलिर्जायया जायतेऽपि क्रिया निष्फला यातिलाभस्य हेतोः ॥ ३ ॥

अन्वयः– यस्य धने भानुः स्यात्, सः भाग्याधिकः स्यात् [ तस्य ] चतुष्पात्सुखं स्यात् स्वं सद्व्यये याति, कुटुम्बेऽपि कलिर्जायते; लाभस्य हेतोः क्रिया निष्फला याति ॥ ३ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के धनस्थान अर्थात् द्वितीयस्थान में सूर्य रहता है वह पुरुष बड़ा भाग्यवान् होता है। गौ घोड़ा और हाथी आदि चौपाए पशुओं का पूर्ण सुख उसे होता है । उसका धन उत्तम कार्यों में खर्च होता है । स्त्री के लिये कुटुम्ब वालों से भगड़ा होता है। लाभ के लिये वह जो कुछ उपाय करता है वह उपाय वृथा जाता है ॥ ३ ॥

तृतीये यदाऽहर्मणिर्जन्मकाले प्रतापाधिकं विक्रमं चातनोति ॥ तदा सोदरस्तप्यते तीर्थचारी सदारि-क्षयः संगरे शं नरेशात् ॥ ४ ॥

**अन्वयः–**अहर्मणिः यदा जन्मकाले तृतीये भवेत्तदा प्रतापाधिकंच विक्रमं आतनोति । सौदरैः तप्यते, तीर्थचारी [ जायते ] संगरे सदा अरिक्षयः [ स्यात् ] नरेशात् शं [ च त्स्यात् ] ॥ ४ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के जन्मलग्न से सूर्य तृतीय स्थान में रहता है वह बड़ा प्रतापी और पराक्रमी होता है सगे भाइयों से वह पीड़ा पाता है । तीर्थ यात्राबहुत करता है ।युद्ध में सदा शत्रुओं को पराजित करता है। और राजा के द्वारा उसे सुख मिलता है ॥ ४॥

तुरीये दिनेशेऽतिशोभाधिकारी जनः सल्ँलभेद्विग्रहं बन्धुतोपि ॥ प्रवासी विपक्षाहवे मानभंगं कदा-चिन्न शान्तं भवेत्तस्य चेतः ॥ ५ ॥

अन्वयः– दिनेशे तुरीये जनोऽतिशोभाधिकारी [ भवति ] अपि बन्धुतो विग्रहं संल्लभेत्, प्रवासी [ स्यात् ] विपक्षाहवे मानभंगं [ लभते ] तस्य चेतः कदाचिन्न शान्तं भवेत् ॥ ५ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के जन्मलग्न में सूर्य चौथे स्थान में होवे, वह परम सुन्दर होता है। भाई बन्धु से भी वैर होता है। वह सदा विदेश में रहता है । शत्रु से युद्ध होने पर उसका अपमान होता है । उसका चित्त कभी शांत नहीं होता ॥ ५

सुतस्थानगे पूर्वजापत्यतापी कुशाग्रा मतिर्भास्करे मन्त्रविद्या ॥ रतिर्वञ्चनेसञ्चकोपि प्रमादी मृतिः क्रोडरोगादिजा भावनीया ॥ ६ ॥

अन्वयः– भास्करे सुतस्थानगे [ पुरुषः ] पूर्वजापत्यतापी [ भवति ] मतिः [ तस्य ] कुशाग्रा [ भवति ] मन्त्रविद्या [ च भवेत् ] वञ्चने रतिः [ स्यात् ] [ सः ] प्रमादी सञ्चकोऽपि [ स्यात् ] मृतिः [ च तस्य ] क्रोडरोगादिजा भावनीया ॥ ६ ॥

**अर्थ–**जिस मनुष्य के पंचम स्थान में सूर्य होवे, उसे ज्येष्ठपुत्र के मरण का दुःख होता है। उसकी बुद्धि बहुत तीव्र होती है । वह मंत्र शास्त्र में, अथवा गुप्त मंत्र [ सलाह ] में प्रवीण होता है वह बहुधा लोगों को धोखा देने का उद्योग

किया करता हैं। वह धन बटोरता है, और उसकी मृत्यु कांख की व्याधि से होती है ॥ ६ ॥

रिपुध्वंसकृद्भास्करो यस्य षष्टे तनोति व्ययं राजतो मित्रतो वा ॥ कुले मांतुरापच्चतुष्पादतों वा प्रवाणे निवादैर्विषादं करोति ॥ ७ ॥

अन्वयः– भास्करः यस्य षष्टे (स्यात्) [ असौ ] रिपु -ध्वंसकृत् [ भवति ] राजतः वा मित्रतः व्ययं तनोति, मातुः कुले [कुलात् ] चतुष्पादतः वा आपत् [ भयति,प्रयाणै ]निनादैः विषादं करोति ॥ ७ ॥

**अर्थ–**जिस मनुष्य के षष्ठः स्थान मेंसूर्य होता है,वह शत्रुओंको नष्ट कर देताहै। उसका धन राजा के संबंध से;वा मित्र के प्रयोजन से खर्च होताहै। माता अर्थात् नाना के कुल् से, वा चौपाये पशुओं से उसे पीड़ा होती है । यात्रा में भीलों के हाथ से कष्ट पाता है ॥ ७ ॥

द्युनाथो यदा द्यूनजातो नरस्य प्रियातापनं पिण्डपीडा च चिन्ता ॥ भवेत्तुच्छलब्धिः क्रयेविक्रऽपि प्रतिस्पर्धया नैति निद्रां कदाचित् ॥ ८ ॥

अन्वयः– यदा द्यु नायः द्यू नजातः [भवेत्] [ तदा] नरस्य प्रियातापनं पिण्डपीड़ा च [ भवेत् ] क्रये विक्रये अपि तुच्छ-लब्धिः भवेत्, कदाचित् [ अपि ] प्रतिस्पर्धया निद्रां नएति ॥ ८ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के सप्तम स्थान में सूर्य होवे, तो उसे स्त्री का कष्ट होता है । शरीर में पीड़ा होती है । मन में सदा

चिंता बनी रहती है । और व्यापार में थोड़ा लाभ होता है। दूसरे की डाह से कभी भी सुख से निद्रा नहीं आती ॥ ८ ॥

क्रियालम्पटं त्वष्टमे कष्टभाजं विदेशीयदारान् भजैद्वाप्यवस्तु ॥ वसुक्षीणता दस्युतो वा विलम्वादि-पद्गुह्यता भानुरूग्रं विधत्ते ॥ ९ ॥

अन्वयः– अष्टमे तु भानुः क्रियालम्पटं उग्रंकष्ठभाजं [ चपुरुषं ] विधत्ते [ सः ] विदेशीयदारान् अवस्तु वापि भजेत् [ तस्य ] दस्युतः वा विलम्बात् वसुक्षीणता [ भवेत् ] [ च] विपद्गुह्यता [ भवेत् ] ॥६॥

अर्थ– जिस पुरुष के अष्टम स्थान में सूर्य होता है, वह काम करने में तत्पर रहता है, स्वभाव से क्रूर होता है, सदा कष्ट भोगता रहता है । उसका विदेशी स्त्रियों से बराबर संबंध रहता है, और वह मद्य आदि बुरे पदार्थों का सेवन करता है । उसका धन चोरी जाता है, वा उसके आलस्य से नष्ट होता है। और गुप्त इद्रियों में रोग की पीड़ा भी रहती है ॥ ९ ॥

दिवानायके दुष्टता कोणयाते न चाप्नोति चिन्ताविरामोस्य चेतः ॥ तपश्चर्ययाऽनिच्छयापि प्रयाति क्रियातुङ्गतां तप्यते सोदरेण ॥ १० ॥

अन्वयः– दिवानायके कोणयाते दुष्टता [ जायते ] अस्य चेतः चिन्ताविरामं चन आप्नोति अनिच्छयापि तपश्चर्यया क्रियातुङ्गतां याति, सोदरेण तप्यते च ॥ १०॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के नवम स्थान में सूर्य रहता है, यहदुष्ट होता है। उसके मन में सदा चिन्ता रहती है । इच्छा न

रहने पर भी वह उग्र तपस्या करता है । उनको अपने सगे भाई से पीड़ा होती है ॥ १० ॥

प्रयातोंऽशुमान्यस्य मेषूरणेऽस्य श्रमः सिद्धिदो राजतुल्योनरस्य ॥ जनन्यास्तथा यातनामा तनोति क्लमः संक्रमेद्वल्लभैर्विप्रयोगः ॥ ११ ॥

अन्वयः– अंशुमान् यस्य नरस्य मेषूरणे प्रयातः अस्य [ नरस्य ] श्रमः राजतुल्यः सिद्धिदः [ संपद्यते ] जनन्या यातनां आतनोति [तस्य ] वल्लभैः विप्रयोगः तथा क्लमः संक्रमेत् ॥ ११ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के दशवें स्थानं में सूर्य रहता है उसका परिश्रम राजा के समान फल देने वाला होता है। माता को पीड़ा देता है । उसके प्रिय लोगों से उसका वियोग कराता है उसका मन दुःखी रहती है ॥ ११ ॥

रवौ संल्लभेत्स्वं च लाभोपयाते नृपद्वारतो राजमुद्राधिकारात् ॥ प्रतापानले शत्रवः सम्पतन्ति श्रियोऽनेकधा दुःखमङ्गोद्भवानाम् ॥ १२ ॥

**अन्वयः–**रवौ लाभोपयाते [ संति नरः ] नृपद्वारतः स्वं संलभेत्, राजमुद्राधिकारात् च अनेकधा श्रियः [संलभेत् ] [अस्य ] प्रतापानले शत्रवः संपतन्ति, अंगोद्भावानां दुःखं [ च स्यात् ] ॥ १२ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के एकादश स्थान में सूर्य होवे, तो उस पुरुष को राजा के यहां से धन मिलता है, और राजा के दिये से अनेक प्रकार की संपत् होती है, उसके प्रताप्र में शत्रु

झुलसजाते हैं । परंतु संतान की ओर का दुःख अर्थात् संतान का न होना सताता रहता है ॥१२॥

रविर्द्वादशे नेत्रदोषं करोति विपक्षाहवे जायतेऽसौ जयश्रीः ॥ स्थितिर्लब्धया लीयते देहदुःखं पितृ-व्यापदो हानिरध्वप्रदेशे ॥ १३ ॥

**अन्वयः–**असौ रविः द्वादशे [ स्थितः सन् ] नेत्रदोषं करोति, विपक्षाहवे जयश्रीः जायते, लब्धया स्थितिः संपद्यते देहदुःखं लोपते, पितृव्यापदः [ जायन्ते ] अध्वप्रदेशे हानिः [ च भवति ] ॥ १३ ॥

अर्थ– यह सूर्य यदि द्वादश स्थान में रहे, तो पुरुष के नेत्र में पीड़ा उत्पन्न करता है । इस पुरुष को युद्ध में जयलाभ होता है। लाभ की इच्छा से किसी एक स्थानपर सदा रहना होता है । शरीर को पीड़ा नष्ट होती है । चाचा को और से विपत्तियाँ उठती हैं । और मार्ग में धन की हानि होती है ॥१३॥

इति रवेस्तन्वादि भाव फलम् ॥

विधुर्गोकुलीराजगः सन्वपुस्थो धनाध्यक्षलावण्यमानन्दपूर्णम् । विधत्तेऽधनं क्षीणदेहं दरिद्रंजडं श्रोत्रहीनं नरं शेषलग्ने ॥ १ ॥

अन्वयः– गोकुलीराजगः सन् वपुस्थः विधुः धनाध्यक्ष लावण्यं आनन्दपूर्ण नरं विधत्ते । शेषलग्नेनरं अवनं क्षीणदेहं दरिद्रंजड़ श्रोत्रहीनं [ च विधत्ते ॥ १ ॥

**अर्थ–**वृष कर्क और मेष राशि का होकर यदि चंद्रमा जन्मलग्न में रहे, तो वह पुरुष का धन को अधिकारी, सलोना और पूर्ण आनन्द वाला करता है । मिथुन सिंह कन्या तुला वृश्विक धनुमकर कुम्भ और मीन राशि का होकर यदि जन्म में रहे, तो पुरुष को निर्धन दुर्बल दरिद्र मूर्ख और बधिर बना देता है ॥ १ ॥

हिंमाशौ वसुस्थानगे धान्यलाभः शरीरेऽतिसौख्यं विलासोऽङ्गनानाम् ॥ कुटुम्बे रतिर्जायते तस्य तुच्छं वशं दर्शने याति देवाङ्गनापि ॥ २ ॥

अन्वयः– हिंमांशौ वसुस्थानगे धान्यलाभः [ भवति ] शरीरे अतिसौख्यं [ स्यात् ] अंगनानां विलासः [चस्यात् ] कुटुम्बे रतिः जायते, [ तस्य ] दर्शने देवांगना अपि वशं याति ( इति अति ) तुच्छम् ॥ २ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के धन स्थान में चंद्रमा रहता है उस पुरुष को धान्यलाभ होता है । उसका शरीर अति सुखी रहता है वह स्त्रियों के साथ विलास करता है । अपने कुटुम्ब के लोगों पर उसका प्रेम रहता है उसको देखकर देवता की स्त्री भी मोहित हो जाती है यह एक छोटी बात है ॥ २ ॥

विधौ विक्रमे विक्रमेणैति वित्तं तपस्वी भवेद्भामिनीरञ्जितोपि ॥ कियच्चिन्त येत्साऽहजं तस्य शर्म प्रतापोज्ज्वलो धर्मिणो वैजयंत्या ॥३॥

अन्वय– विधौ विक्रमे[ सति ] विक्रमेण वित्तं एति, [ सः ] भामिनीरञ्जितः अपि तपस्वी भवेत्, [तस्य ] धर्मिणः

वैजयन्त्या प्रतापोज्ज्वलः [ स्यात्] तस्य साहजं शर्म यत् चिन्तयत् ॥ ३ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के तृतीय स्थान में चन्द्रमा होवे, तो उसको पराक्रम से धन प्राप्त होता है। अनेक स्त्रियों के लुभाते रहने पर भी वह तपस्त्री होता है । उस धार्मिक पुरुष की धर्म पताका से उसका यश उज्ज्वल होताहै। उसे सहोदर ( सगे ) भाइयों से अति सुख मिलता है ॥ ३ ॥

यदा बन्धुगो बान्धवैरत्रिजन्मा नृपारिसर्वाधिकारी सदैव ॥ वयस्यादि तादृशं नैव सौख्यं सुतस्त्रीग-णात्तोपमायाति सम्यक् ॥ ४ ॥

अन्वयः– यदा अत्रिजन्मा बन्धुगः स्यात् ( तदा स पुरुषः ) नृपद्वारि सर्वाधिकारी सदा एव (भवति) (सः) सुतस्त्रीगणात् सम्यक्तोपं आयाति, आदिमे वयसि तादृशं सौख्यं नैव ( जायते ) ॥ ४ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के चतुर्थ स्थान में चन्द्रमा रहता हैवह पुरुष राजा के यहां सबसे बड़ा अधिकारी रहता है । पुत्र और स्त्रियों का सुख उसे पूर्ण मिलता है। यह फल पहिली ( बाल ) अवस्था में नहीं होता ॥ ४ ॥

यदा पञ्चमों यस्य नक्षत्रनाथो ददातीह सन्तानसन्तोषमेव ॥ मति निर्मला रत्नलाभं च भूमिं कुसीदेन नानाप्तयो व्यावसायात् ॥ ५ ॥

अन्वयः– यदा नक्ष‍त्र ……पञ्चमः एव (स्यात् )

( तदा तस्य ) इह सन्तानसन्तोषं ददाति, निर्मलां मतिरत्नलाभं भूमिं च ( ददाति ) कुसीदेन व्यवसायेन (च ) नानां आप्तयः ( जायन्ते ) ॥ ५ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के पंचम स्थान में चन्द्रमा होवे, तो उसे संतान सुख उत्तम होता है । उसकी बुद्धि निर्मल होती है । उत्तम रत्नो का लाभ होता है, और भूमि सुखभीव्याज और व्यवहार से नाना प्रकार का लाभ होता है ॥ ५ ॥

रिपौ राजते विग्रहेणापि राजा जितास्तेऽपि भूयो विधौ सम्भवन्ति ॥ तदग्रेऽश्यो निष्प्रभा भूयसो-ऽपि प्रतापोज्ज्वलो मातृशीलो न तद्वत् ॥ ६ ॥

अन्वयः– विधौ रिपौ [ स्थिते ] राजविग्रहेण अपि प्रजापोज्ज्वलः (सन् ) राजते, अरयः जिता अपि तदग्रेभूयः भूयः अपि निष्प्रभा भवन्ति, तद्वत् मातृशीलः न भवति ॥ ६ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के षष्ठ स्थान में चन्द्रमा रहता, है वह पुरुष राजा से वैर करके भी अपने प्रताप से चमकता रहता है । वह अपने शत्रुओं को जय करता है वे शत्रु बार बार उसके सामने फिट्ट होते हैं । परंतु वह पुरुष माता का भक्त नहीं होता ॥ ६ ॥

ददेद्दारशं सप्तमे शीतरश्मिर्धनित्वं भवेदध्ववाणिज्यतोऽपि ॥ रतिं स्त्रीजने मिष्टंभुग्लुब्धचेताः कृशः कृष्णपक्षे विपक्षाभिभूतः ॥ ७ ॥

अन्वयः– ( सप्तमे ) विद्यमानः ( शीतरश्मिः ) दारशं

ददेत्अध्ववाणिज्यतः अपि धनित्वं भवेत्, स्त्रीजने कृष्णपक्षेरतिं ( लभेत् ) मिष्टभुक् लुब्धचेताः कृशः विपक्षाभिभूतः (च भवनि ) ॥ ७ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के सप्तम स्थान में चन्द्रमा रहता है, उसे स्त्री का पूर्ण सुख देना है। स्थल कीसौदागरी से वह धनी होता है। कृष्णपक्ष में स्त्रियों पर अधिक प्रेम रखता है। मधुर भोजन उसे अच्छा लगता है उसका चित्त लोभसे भग रहता है, वह दुर्बल रहता है, और शत्रुओं से पराजित होता है ॥ ७ ॥

सभा विद्यते भैषजी तस्य गेहे पचेत्कर्हिचित् क्वाथमुद्रोदकानि ॥ महाव्याधयो भीतयो वारिभूताः शशी कजेशकृत्संकटान्यष्टमस्थः ॥ ८ ॥

अन्वयः–( यस्य ) शशी श्रष्टमस्थः (स्यात्) तस्य गेहं भपजी सभा विद्यते, कर्हिचित् क्वाथमुद्गोदकानि पचेत् महाव्याधयः अरि भूताः भीतयः संकटानि वा (स्युः) शशी क्लेशकृत् ( च भवति ) ॥ ८ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के अष्टम स्थान में चन्द्रमा रहता है, उसके गृह में वैद्यों की सभा होती है । वह कंदाचित् क्वाथ काढ़ा और मूंग जल पकाता है। बड़ी बड़ी व्याधियां, शत्रु, ओका भय, और बड़े २ संकट होते हैं। और अष्टम चन्द्रमा इस प्रकार कष्ट देता है ॥ ८ ॥

तपो भावगस्तारकेशो जनस्य प्रजाश्च द्विजा बन्दिनन्तंस्तुवन्ति ॥ भवत्येव भाग्याधिको

यौवनादेः शरीरे सुखं चन्द्रवत्साहसं च ॥ ९ ॥

**अन्वयः–**यस्य जनस्य तारकेशः तपो भावगः तं प्रजाः द्विजाः वन्दिनः च स्तुवन्ति, यौवनादेः भाग्याधिकः भवतिएवं शरीरे सुखं चन्द्रवत्तु साहसं च (भवति) ॥ ९॥

अर्थ– जिस पुरुष के नवम स्थान में चन्द्रमा रहता है, उसकी स्तुति प्रजा ब्राह्मण और वंदी लोग करते हैं । वें वन आदि होने से वह भाग्यवान होता ही है । उसे शरीर सुख पूर्ण मिलता है । वह चन्द्रमा के समान साहसी होता है ॥६॥

सुख बान्धवेभ्यः खगे धर्मकर्मा समुद्राङ्गजेशं नरेशादितोऽपि ॥ नवीनाङ्गनावैभवे सुप्रियत्वं पुरो जातके सौख्यमल्पंकरोति ॥ १०॥

अन्वयः– समुद्राङ्गजेखगे [ स्थिते ] धर्मकर्मा बान्धवेभ्यः मुखं नरेशादितः अपि शं नवीनांगनावैभवे सुप्रियत्वं [च लभते] पुरो जातकं अल्पं सौख्यं करोति ॥ १० ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के दशम स्थान में चन्द्रमा रहता है, वह बड़ा धर्मात्मा होता है उसे अपने भाई बंधुओंसे सुख होता है, राजा और धनिकों से भी कल्याण होता है, नवीन स्त्री और विभव पाता है, और सदा ही प्रिय समाचार उसे घेरे रहते हैं । परंतु प्रथम संतति से उसे बहुत स्वल्प सुख होता है ॥ १० ॥

लभेद्भूमिपादिन्दुना लाभगेन प्रतिष्ठाधिकाअम्बराणि क्रमेण ॥ श्रियोऽथ स्त्रियोऽन्तः पुरे विश्रमन्ति क्रिया वैकृती कन्यका वस्तुलाभः ॥ ११ ॥

अन्वयः– लाभगेन इन्दुना भूमिपात् क्रमेण प्रतिष्ठाधिकांराम्बराणि लभेत् अथ अन्तःपुरे श्रियः स्त्रियः [ च ] विश्रमन्ति क्रिया वैकृती [ जायते ] कन्यका [ उत्पद्यते ] वस्तुलाभः [ च संजायते ] ॥ ११ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के एकादश स्थान में चन्द्रमा रहता है, उसे राजा की ओर से प्रतिष्ठा अधिकार और उत्तम वस्त्र क्रम से मिलते हैं। उसके महल में लक्ष्मी और उत्तम स्त्रियां रहती हैं। उसका काम प्रायः पूरा नहीं उतरता उसे कन्या सन्तान ही होती है और उसे उत्तम २ वस्तु मिलती है ॥११॥

शशी द्वादशे शत्रुनेत्रादिचिन्ता विचिन्त्या सदासद्व्ययो मङ्गलेन ॥ पितृव्यादि मात्रादितोऽन्तर्विषादो न चाप्नोति कामं प्रियाल्पप्रियत्वम् ॥ १२ ॥

अन्वयः– शशीं द्वादशे [ स्थितः चेत्तदा ] शत्रुनेत्रादिचिन्ता विचिन्त्या, सदा मङ्गलेन सद्व्ययः [ विचिन्त्यः ] पितृव्या- दिमात्रादितः अन्तः विषादः [ विचिन्त्यः ] प्रियाल्यप्रियत्वं [ विचिन्त्यम् ] कामं च न आप्नोति ॥१२॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के द्वादश स्थान में चन्द्रमा रहता है, उसे सदा शत्रु को और नेत्र आदि अङ्गों की चिंता बनी रहती है । उसका धन सदा मङ्गल कार्य में खर्च होता है चाचा आदि और माता आदि से मन में क्लेश रहता है। स्त्रियों से प्रेम थोड़ा रहता है । और इसका मनोरथ पूर्ण नहीं होता ॥ १२ ॥

इति चंद्रफलानि ॥

विलग्ने कुजे दण्डलोहाग्निभीतिस्तपेन्मानसं कैंसरी किं द्वितीयः ॥ कलत्रादिघातः शिरोनेत्रपीड़ा वि-पाके फलानां सदैवोपसर्गः ॥ १ ॥

अन्वयः– कुजे विलग्ने [ स्थिते ] दण्डलोहानिभीतिः [ भवेत् ] मानसं तपेत्, कलत्रादिधातः शिरोनेत्रपीड़ा फलानां विपाके सदा एवं उपसर्गः [ च स्यात् ] [ अपि च सः ]किं द्वितीयः केसरी [ स्यात् ] ॥ १ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के जन्म स्थान में मङ्गल होता है, उसे दण्ड लोहा और अग्नि से प्राण बाधा का भय रहता है । उस का मन चिंतित रहता है। स्त्री पुत्र आदि के नष्ट होने से कष्ट होता है नेत्र आदिअङ्ग में पीड़ा रहती है । कोई कार्य करे परिणाम में ( आखिर ) उसका फल खराब होता है । चाहे वह पुरुष दूसरा सिंह ही क्यों न हो ॥ १ ॥

भवेत्तस्य किं विद्यमाने कुटुम्बे धनेऽङ्गारको यस्य लब्धे धने किम् ॥ यथा त्रायते मर्कटः कण्ठहारं पुनः सम्मुखं को भवेद्वादभग्नः ॥ २॥

**अन्वयः–**यस्य धने अङ्गारकः भवेत् तस्य कुटुम्बे विद्यमाने किम् ? धने लब्धे किम् । यथा मर्कटः कण्ठहारं त्रायते [तथा सु धनं त्रायते ] वादभग्नः कः पुनः सम्मुखं भवेत् ॥ २ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के द्वितीय स्थान में मङ्गल रहता है, उसके बहुत कुटुम्ब होने से क्या लाभ है, और बहुत सा धन मिलने से क्या प्रयोजन है ? जिस भाँति वानर अपने गले में पड़े हुए हार की रखवाली करता है वैसे ही यह भी धन की

रखवाली करता है ( एक कौड़ी भी खर्चता नहीं ) युद्धमें पराजित होने पर कोई पुरुष फिर उसका सामना नहीं करता ॥२॥

कुतो बाहुवीर्यं कुतो बाहुलक्ष्मीस्तृतीयो नचेन्मंगलो मानवानाम् ॥ सहोत्थव्यथा भण्यतेकेन तेषां तपश्चर्यया चोपहास्यः कथं स्यात् ॥ ३ ॥

अन्वयः– मङ्गलः तृतीयः न चेत् [ तर्हि ] मानवानांवाचे। वीर्यं कुतः ? बाहुलक्ष्मीः [ वा ] कुतः ? तेषां सहोत्थव्यथा केन भण्यते, तपश्चर्यया च उपहास्यः, कथं स्यात् ॥ ३ ॥

**अर्थ–**यदि पुरुषों के तृतीय स्थान में मङ्गल न होवे तो अपनी भुजा का पराक्रम कहां से होवे, और अपनी भुजा से उपार्जित लक्ष्मी कहां से आवे, सहोदर भाइयों की ओर से आनेवाली उसकी आपत्तियों का वर्णन कौन करे ! और तपस्या करने से उसका उपहास किस प्रकार होवे ! अर्थात् मङ्गल तृतीय स्थान में रहने से ही पराक्रम लक्ष्मी सगे भाइयों पर प्रभाव होता है और तपस्या करने में हँसी होती ॥ ३॥

यदा भूसुतः सम्भवेत्तुर्यभावे तदा किं ग्रहाः सानुकूला जनानाम् ॥ सुहृद्वर्गसौख्यं न किञ्चिद्विचिंत्यकृपावस्त्रभूमीलभेद्भूमिपालात्॥ १४ ॥

अन्वयः– भूसुतः यदा तुर्यभावे सम्भवेत् तदा जनानां ग्रह्यसानुकूलाः इति किम् ? सुहृद्वर्गसौख्यं किञ्चित् न विचित्यम् भूमिपालात् कृपावस्त्रभूमी लभेत् ॥ ४ ॥

**अर्थ–**यदि मङ्गल चतुर्थ स्थान में होवे तो मनुष्यों के ओर ग्रह अनुकूल होवें तो भी क्या प्रयोजन ! ( सब की

अनुकूलता को चतुर्थ मङ्गल नष्ट कर देता है ) पिता माता भ्राता और स्त्री पुत्र आदि से उसे सुख होवेगा यह वार्ताविचार नाहीं, नहीं अर्थात् यह सुख उसके प्रारब्ध में नहीं होता । हाँ राजा की कृपां उसपर अवश्य होती है और इसी से वस्त्र और भूमि मिलती है ॥ ४ ॥

कुजे पञ्चमेजाठराग्निर्वलीयान्नजातं नु जातं र्निहंत्येक एव ॥ तदानीमनल्पा मतिः किल्विषेपि स्वयं दुग्धवत्तप्यतेऽन्तः सदैव ॥ ५ ॥

अन्वयः– कुजे पञ्चमस्ये जाठराग्निः वलीयान् (भवति) तदानीं किल्विषेअपि अनल्पा मतिः ( भवेत् ) सदा एव स्वयं दुग्धवत् अन्तः तप्यते, एक एव अजातं जातं (च सुतं ) निहन्ति नु ॥ ५ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के पञ्चम स्थान में मङ्गल रहता है उसकी जाठर ( पेट की ) अग्नि बड़ी तेज हो जाती है मङ्गल के पश्चम स्थान में रहने से उसका मन पाप करने की ओर अधिक रहता है । वह सदा ही तपे दूध के समान अन्तः करण में तपा करता है । एक मङ्गल ही उसके न पैदा हुए और पैदा हुए सन्तान की नष्ट कर देता है ॥ ५ ॥

न तिष्ठंति षष्ठोऽरयोङ्गारके वै तदंगैरिताः संगरे शक्तिमंतः ॥ मनीषा सुखी मातुलेयो न तद्वद्विलीयेत वित्तं लभेतापि भूरि ॥ ६ ॥

अन्वयः– अङ्गार के षष्ठे ( स्थिते ) शक्तिमंतः ( अपि ) अरयः तदंगैः इताः संगरे न तिष्ठन्ति, मनीषादान् (भवति)

तद्वत् मातुलेयः न सुखी ( स्यात् ) चित्तं विलीयेतअपि भूरि लभेत ॥ ६ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के षष्ठस्थान में मङ्गल रहता है, उसके बली शत्रु भी युद्ध में उसके सहायकों के आगे नहीं ठहर सकते। वह बड़ा बुद्धिमान् होता है । उसको मामा के भाई का सुख नहीं रहता । उसका धन नष्ट हो जाता है । और फिरभीअधिक धन मिलता है ॥ ६ ॥

अनुद्धारभूतेन पाणिग्रहेण प्रयाणेन वाणिज्यतो नो निवृत्तिः ॥ मुहुर्भंगदः स्पर्धिनां मेदिनीनः प्रहारार्दनैः सप्तमे दम्पतिघ्नः ॥ ७ ॥

अन्वयः– ( यदि ) मेदिनीजः सप्तमे ( स्थितः स्यात् ) तर्हि अनु द्वारभूतेन पाणिग्रहेण वाणिज्यतः प्रयाणेन निवृत्तिः नो स्वधिनां प्रहारार्दनैः मुहुर्भङ्गदः दम्पतिघ्नः (च भवेत् ) ॥ ७ ॥

**अर्थ–**यदि पुरुषके सप्तम स्थान में मङ्गल होवे, तो निश्चय किये हुए विवाह के कारण, या व्यापार के कारण उसक परदेश से घर पर लौटना नहीं होवे । शत्रुओं की भार से या पौड़ा से बारबार उसका पराजय होता है। और उसकी स्त्री भी नहीं जीती ॥ ७ ॥

शुभा तस्य किं खेचराः कुयुर्रन्ये विधाने पिचेष्टमे भूमिसूनुः ॥ सखा किं न शत्रूयते सत्कृतो पि प्रयत्ने कृते भूयते चोपसर्गैः ॥ ८॥

अन्वयः– भूमिसुनुः अष्टमः चेत् ( तर्हि ) विधाने ( विद्यमानाः अपि अन्ये शुभाः खेचराः तस्य किं कुर्युः सत्कृतः अपि सखा ( तस्य ) शत्रूयते किम् ! प्रयत्ने कृते च उपसर्गैः भूयते ॥ ८ ॥

अर्थ– मनुष्य के अष्टम स्थान में यदि मङ्गल होवे तो नवम स्थान में रहने वालों और शुभग्रह उसका क्या उपकार कर सकते हैं ? ( कुछ नहीं ) आदर सत्कार करने पर भी या उसका मित्र उसका शत्रु नहीं हो जाता ? (हो जाता है) उपाय करने पर भी उसके कार्य में विघ्न होते ही हैं ॥ ८ ॥

महोग्रा मतिर्भाग्यवित्तं महोग्रं तपो भाग्यगो मङ्गलस्तं करोति ॥ भवेन्नादिमः श्यालकः सोदरो वा कुतो विक्रमस्तुच्छलाभो विपाके ॥ ९ ॥

अन्वयः– भाग्यगः मङ्गलः तं भाग्यवित्तं महोग्रं करोति ( तस्य ) मतिः महोग्रा (स्यात्) आदिमः श्यालकः भ्राता वा न भवेत् कुत विक्रमो विपाके तुच्छलाभो भवति ॥ ९ ॥

**अर्थ–**नवम स्थान में पुरुष के मङ्गल होवे, तो वह पुरुषधनीभाग्यमान् और तेजस्वी होता है । उसकी बुद्धि क्रूर होती है उसका जेठा साला वा भाई नहीं रहता। उसका पराक्रम व्यर्थ होता है। केवल परिणाम में कुछ फल हो जाताहै ॥ ९ ॥

कुले तस्य किं मङ्गलं मङ्गलो नो जनैर्भूयते मध्यभावे यदिस्यात् ॥ स्वतः सिद्ध एवावतंसीयतेऽसौ वकारो पिऽकण्ठीरवः किं द्वितीयः ॥१०॥

अन्वयः– यदि मङ्गलः मध्यभावे नो स्यात् तस्य कूले मङ्गलं किम् । [ सः] जनै भूयते, वराकः अपि असौ स्वतः सिद्धएव अवतंसीयते, (सः) किं द्वितीयः कण्ठीरवः ॥ १० ॥

**अर्थ–**यदि पुरुष के दशम स्थान में मङ्गल होवे, तो क्या उस पुरुष के गृह में विवाह अदि मङ्गल कार्य कभी हो सकता ? ( कभी नहीं हो सकता ) लोग उसकी सेवा किया करते । छोटे कुल का होने पर भी वह अपने पराक्रम से सब को दवा लेता है । क्या वह दूसरा सिंह है अर्थात् ऐसा हीहै ॥ १० ॥

कुजः पीडयेल्लाभगोऽपत्यशत्रून् भवेत्संमुखो दुर्मुखोऽपि प्रतापात् धनं वर्धते गोधनैर्वाहनैर्वा सकृच्छून्यतांते च पैशून्यभावात् ॥ ११ ॥

अन्वयः– लाभगः कुजः अपत्यशत्रून् पीडयेत्, दुर्मुखःअपि प्रतापात् संमुखः भवेत्, गोधनैः वा। धनं वर्धते, पैशुन्यभावात् च अन्ते सकृत् शून्यता ( स्यात् ) ॥ ११ ॥

**अर्थ–**पुरुष के एकादश स्थान में रहनेवाला मङ्गल उस के शत्रु और सन्तानों को पीड़ा देता है । वह पुरुष स्वयं दुर्मुख अर्थात् अभागा होनेपर भी प्रताप से अच्छा मुँहवाला समझा जाता है। गौ और हाथी घोड़ा और रथ आदि के व्यापार से उसका धन बढ़ता है। कृपणता वा खलता से, एक बार धन नष्ट हो जाता है ॥ ११ ॥

शताक्षोऽपि तत्संक्षतो लोहघातैः कुजो द्वादशोऽर्थस्य नाशं करोति॥ मृषा किंवदन्ती भयं

दस्युतो वा कलिं पारधीहेतु दुखं विचिन्त्यम् ॥ १२ ॥

अन्वयः– द्वादशः कुजः अर्थस्य नाशं करोति, शताज्ञः अपि तत् लोहघातैः सक्षतः ( भवेत् ) ( तस्य ) मृषा किंवदन्ती (स्यात्) दस्युतः भयं वा ( भवेत् ) ॥ १ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के द्वादश स्थान में मङ्गल रहता है, उसका धन नष्ट हो जाता है । उसके शस्त्रों से इन्द्र भी घायल हो जाता है, उसे झूठा अपवाद लगता है । चारों के भय और कलह होता है। दूसरे के कारण उसे कष्ट होता है ॥ १२॥

इति भौमभावफलानि ।

व धो मूर्तिगो मार्जयेदन्यरिष्टं गरिष्ठा धियो वैखरी वृत्तिभाजः ॥ जना दिव्यचामीकरी भूतदेहाश्चिकि-त्साविदो दुश्चिकित्स्या भवंति॥ १ ॥

अन्वयः– मूर्तिगः बुधः अन्यरिष्टं मार्जयेत् ( तेषां ) गरिष्ठा धियः ( जायन्ते ) (ते) जनाः बैखरीवृतिभाजः दिव्यचामीकरी-भूतदेहा चिकित्साविदोदुश्चिकित्स्या (च ) भवन्ति ॥ १ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के धन स्थान में बुध रहता है, और ग्रहोंसे उत्पन्न अरिष्ट उनका नष्ट हो जाता है । उनकी बुद्धि श्रेष्ठ होती है । वे लोग लिखाई करके जीविका करते हैं। उनके शरीर सुवर्ण के समान दिव्य होते हैं। वे वैद्यके जानकार होते हैं । परन्तु स्वयं रोगी होनेपर उनकी चिकित्सा कठिनता से हो सकती है ॥ १ ॥

धने बुद्धिमान् बोधने बाहुतेजा सभासंगतो

भासते व्यास एव ॥ पृथूदारता कल्पवृक्षस्य यंद्वद्बु धैर्भण्यतेभोगतः षट्पदोऽयम् ॥ २ ॥

**अन्वयः–**यस्य बुधः बोधने ( स्यात् ) सः बुद्धिमान् वाहुतेजाः ( जायते ) समासङ्गतो व्यास एव भासते तद्वत् कल्पवृक्षस्य [ इव ] ] [ अस्य ] पृथूदारता बुधै भण्यते अयं भोगतः षट्पदः (अस्ति ) ॥ २ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के द्वितीय स्थान में बुध होना है, वह बुद्धिमान् और अपने भुजबल से प्रसिद्ध होता है । वह सभा में साक्षात् व्यास भगवान् के समान चमकता है। इसकी उदारता कल्पवृक्ष के समान लोगों में कही जाती है । वहविषय भोग करने में भँवरे के समान समझा जाता है ॥ २ ॥

वणिङ्मित्रता पण्यकृद्वृत्तिशीलो वशित्वं धियो दुर्वशानामुपैति ॥ विनीतोऽतिभोगं भजेत्संन्यसेद्वा तृतीयेऽनुजैराश्रितो ज्ञे लतावान् ॥ ३ ॥

**अन्वयः–**ज्ञे तृतीये (सनि) वणिङ्मित्रतापण्यकृद्रवृत्तिः शीलः जायते दुर्वशानां धियोवशित्वं उपैति, विनीतः (भवति ) अतिभोगं भजेत् वा संन्यसेत् लतावान्, ( वृक्ष इव ) अनुजैः आश्रितः (भवति) ॥ ३ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के तृतीय स्थान में बुध रहता है, वह पुरुष की वैश्य की भिन्नता से दुकान दारी करनेवाला होता है। वह उस पुरुष के वरा में रहता है जो और किसी के वश मेंन रहना होवे । वह, नम्रहोता है । वह महाविषयीहोता

है, वा संन्यासी होता है। जैसे वृक्ष पर लता चढ़ती है, वैसे ही छोटे भाई उसके आश्रय में रहते हैं ॥ ३ ॥

चतुर्थे चरेच्चन्द्रजश्चारुमित्रो विशेषाधिकृद्भू मिनाथाङ्गणस्य ॥ भवेल्लेखको लिख्यते वा तदुक्तं तदाशापरैः पैतृकं नो धनं च ॥ ४ ॥

**अन्वयः–**चन्द्रजः चतुर्थे ( स्यात् चेत् ) [ तर्हि ] चारुमित्रः चरेत्, भूमिनाथांगणस्य विशेषाधिकृत् लेखकः भवेत्, तदा शापरैः तदुक्तं लिख्यते वा पैतृकं धनं च न प्राप्नोति ॥ ४ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के द्वितीय स्थान में बुध रहता है, वह बुद्धिमान् और अपने मित्र के साथ आनन्द से विचरता है । वह राजद्वार का प्रधान लेखाधिकारी होता हैं, वा उसके अनुचर उसका कथन लिखें। उसे पिता का धन नहीं मिलता ॥ ४॥

वयस्यादिने पुत्रगर्भो न तिष्ठोद्भवेत्तस्य मेधार्थसम्पादयित्री ॥ बुधैर्भण्यते पंचमे रौहिणेये कियद्विद्यते कैतवस्याभिचारम् ॥ ५ ॥

अन्वयः– रौहिणेये पञ्चमे स्थिते आदिमे वयसः पुत्रगर्भः न तिष्ठेत्, तस्य मेधा अर्थसम्पादयित्री भवेत्, कियत् साभिचारं कैतवं विद्यते एवं बुधैः भण्यते ॥ ५ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के पञ्चम स्थान में बुध होता है, उसकी पहली अवस्था पुत्र का गर्भ नहीं ठहरता। उसकी बुद्धि अपना प्रयोजन सिद्ध करनेवाली होती है । वह मारण मोहन

आदि कितना ही छल कपट जानता है। यह ज्योतिषियों का कहना है ॥ ५ ॥

विरोधोजनानांनिरोधो रिपूणां प्रबोधो यतीनां च रोधो-निलानाम् ॥ बुधे सद्व्यये व्यावहारो निधीनां बलादर्थकृत्सम्भवेच्छत्रुभावे ॥ ६ ॥

**अन्वयः–**बुधे शत्रुगावे स्थिते जनानां विरोध रिपूणां निरोब यतीनां प्रबोध, अनिलानां रोधः, सद्व्यये निधानां व्यवहार, बलात् अर्थकृत्सम्भवेत् ॥ ६ ॥

**अर्थ–**यदि षष्ट स्थान में बुध होवे, तौ मनुष्यों के साथ विरोध शत्रुओंके वश में होना, प्राण आदि वायुओं की रोक यतियों का ज्ञान और उत्तम कार्य में धन का व्यय होता है। वह पुरुष बल से धन एकत्रित करता है ॥ ६ ॥

सुतः शीतगोः सप्तमेशं युवत्या विधत्ते तथा तुच्छवीर्यं च भोगे ॥ अनस्तंगतो हेमवद्दोहशोभां न शक्नोति तत्सम्पदो वानुकर्तुम् ॥ ७ ॥

**अन्वयः–**अनस्तं गतः शीतगो सुतः सप्तमे स्थितः सन् युवत्या शं विद्यते, तथा भोगे तुच्छवीर्यं च विधत्ते हेमवत् देहशोभां तत् स पदः वा अनुकर्तुं ( कश्चित् ) न शक्नोति ॥ ७ ॥

अर्थ– उदय हुआ बुध यदि सप्तम स्थान में होवे तो वह- स्त्री को सुख देनेवाला होता है, और रति समय थोड़ा वीर्य करता है सुवर्ण के समान उसकी देह शोभा की, और उसकी सम्पत्ति की कोई बराबरी नहीं कर सकता ॥ ७ ॥

शतंजीवनो रन्ध्रगे राजपुत्रे भवंतीह देशांतरे विश्रु तास्ते ॥ निधानं नृपाद्विक्रयाद्वालभन्ते युवत्युद्भवं क्रीडनं प्रीतिभाजः ॥८ ॥

**अन्वयः–**राजपुत्रे रंध्रगे शतञ्जीविनः इह देशांतरे (च ) विश्रुताः भवन्ति, ते प्रीतिमंतो नृपात् क्रयात् वा निधानं, युवत्यु-द्भवं क्रीडनं च लभते ॥८ ॥

अर्थ– जिनके अष्टम स्थान में बुध रहता है वे सौ वर्ष जीनेवाले इस देश में और दूसरे देश में प्रसिद्ध होते हैं। राजा सेवा व्यापार से धन कमाते हैं । उन्हें स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करना बदा रहता है ॥ ८ ॥

बुधे धर्मगे धर्मशीलोऽतिधीमान् भवेद्दीक्षितः स्वर्धुनी स्नातको वा ॥ कुलोद्योतकृद्भानुवद्भूमि पा-लात्प्रतापाधिको बाधाको दुर्मखानाम् ॥ ९ ॥

अन्वयः– बुधे धर्मगे, धर्मशीलः अतिधीमान्, दीक्षितः वास्वर्धुनी स्नातकः, भानुवत् कुलोद्योतकृत्, भूमिपालात् प्रता-पाधिकः दुर्मुखानां बाधकः च भवेत् ॥ ९ ॥

**अर्थ–**यदि पुरुष के नवम स्थान में बुध होवे तो यह पुरुष धर्मात्मा बड़ा बुद्धिमान्, सोम यज्ञ करने वाला, वा गङ्गा स्नान करनेवाला सूर्य के समान अपने कुल का प्रकाश करनेवाला, राजा से भी अधिक प्रतापी, और दुर्जनों को दमन करनेवाला होता है ॥९ ॥

मितं संवदेन्नो मितं संलभेत प्रसादादिवैकारि-

सौराजवृत्तिः ॥ बुधे कर्मगे पूजनीयो विशेषात्यितुः सम्पदो नीतिदण्डाधिकारात् ॥ १० ॥

**अन्वयः–**बुधे कर्मगे सति पितुः सम्पदः विशेषात् पूजनीनः नीतिदण्डाधिकारात प्रसादादिवैकारि सौराजवृत्तिः (स्यात्) मितं सम्वदेत्, न मितं संलभेत् ॥ १० ॥

**अर्थ–**जिस के दशम स्थान में बुध होता है, वह पिताधन पता है, अधिकपूजनीय होता है नीति और दण्ड शास्त्र पर अधिकार रखने से राजा के समान दण्डदेने काऔर दया करने का अधिकारी होता है, स्वल्प बोलता है, उसे लाभ अधिक होता है ॥ १० ॥

विना लाभभावेस्थितं भेशजातं न लाभो न लावण्यमानृण्यमस्ति ॥ कुतः कन्यकोद्वाहनं च देयं कथं भूसुरास्त्यक्ततृष्णा भवंति॥ ११ ॥

अन्वयः– भेशजातं लाभभावे स्थितं विना न लाभ न लावण्यं आनृण्यं (च) (न) अस्ति कन्यकोद्वाहदानं देयं कुत भूसुरा कथं त्यक्ततृष्णा भवन्ति ॥ ११ ॥

**अर्थ–**यदि बुध एकादश स्थान में न होवे, तो लाभ न होता, लावण्य सुन्दराई नहीं होती, और ऋणसे पार नहीं होता, कन्या के विवाह में दहेज देने की सामग्री कहां से वे और उसकी ओर से ब्राह्मण लोग तृष्णा किस प्रकार त्याग करें ॥ ११ ॥

न चेद्द्वादशे यस्य शीतांशुजातः कथं तद्गृहं

भूमिदेवा भजन्ति ॥ रणे वैरिणो भीतिमायान्ति कस्माद्धिरण्यादिकोशं शठः को नु भूयात् ॥ १२॥

**अन्वयः–**शीतांशुजातः यस्य द्वादशे न चेत् भूमिदेवा कथं नद्गृहं भजन्ति, वैरिणः रणे कस्मात् भीतिः आयान्ति, हिर ण्वादिकोषं कः शठः अनुभूयात् ॥ १२ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के द्वादश स्थान में बुध नही होवे तो ब्राह्मण लोग कैसे उसके गृह में आवें ? उसके शत्रु लोग रण में किससे भय करे ? सुवर्ण आदि धन भला कौन शठ भोग सहता है । अर्थात् बुध के द्वादश स्थान में होने से ही गृह ब्राह्मण आते हैं, रण में शत्रु लोग भाग जाते हैं, और उसके खजाने को दुष्ट लोग हड़प नहीं सकते ॥ १२ ॥

इति बुधभावफलानि।

गुरुत्वं गुणैर्लग्नगे देवपूज्ये सुवेषी सुखी दिव्यदेहोऽल्पवीर्यः ॥ गतिर्भाविनी पारलोकी विचिन्त्या वसूनि व्ययं सम्बलेन व्रजन्ति ॥१ ॥

अन्वयः– देवपूज्ये लग्नगे गुणैः गुरुत्वं ( भवेत् ) सुवेषी सुखी दिव्यदेह स्वल्पवीर्य ( च स्यात् ) भाविनी पारलोकी गतिः विचिन्त्या, वसूनि सम्वलेन व्ययं व्रजन्ति ॥ १ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के जन्म लग्न में बृहस्पति रहता है, वह अपने गुणों से बड़ा माननीयं होता है, उसका वेश सुन्दर होता है, वह सुखी रहता है, उसका शरीर दिव्य होता और वह अल्पवीर्य वाला होता है । शरीर त्यांगने पर उसकी

शुभ गति होती है। उसका सुख भोग के विषय में खर्च होता है ॥ १ ॥

कवित्वेमतिर्दण्डनेतृत्वशक्तिर्मुखेदोषधृक् शीघ्रभोगार्त एव ॥ कुटुम्बे गरौ कष्टतो द्रव्य लब्धिः सदा नो धनं विश्रमेद्यत्नतोऽपि ॥ २ ॥

**अन्वयः–**गुरौ कुटुम्बे (स्थिते सति ) कवि के मत्ति दण्डनेतृत्वेशक्तिः, मुखे दोषधृक्, शीघ्रभोगार्तः एव (स्पात् ) यत्नतः अपि धनं न विश्रमेत् ॥ २ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के द्वितीय स्थान में बृहस्पति रहता है वह पुरुष कविता करने से प्रसन्न रहता है । उसमें राज्य प्रबन्ध करने की शक्ति रहती है। उसके मुख में रोग होवे, वा अधिक बोलने वाला होवे । कष्ट से द्रव्य लाभ होता है और बड़ा प्रयत्न करने पर भी पासमें धन नहीं ठहर सकता, है॥ २ ॥

भवेद्यस्य दुश्चिक्यगो देवमन्त्री लघूनां लधीयान् सुखं सोदराणाम् ॥ कृतघ्नोभवेन्मत्रसार्थेन मैत्रीललाटोदयेऽव्यर्थलाभो न तद्वत् ॥ ३ ॥

अन्वयः– देवमन्त्री यस्य दुश्चिक्यगः भवेत् ( सः ) लघूनां लघीयान्(तस्य) सोदराणां सुखं ( भवेत् ) (सः) कृतघ्नः ( च स्यात् ) ( तस्य) मित्रसार्थे मैत्री न [ भवेत् ] ललाटोदये अपि तद्वत् अर्थलाभः न [ भवेत् ] ॥ ३॥

अर्थ– जिस पुरुष के तृतीय स्थान में बृहस्पति होता है वह छोटों में छोटा होता है। उसे सहोदर भाईयों का पूर्ण

सुख होता है। वह कृतघ्नहोता है। मित्रोंके साथ उसकी मित्रता नहीं होती । भाग्य उदय होने पर भी उतना धन नहीं मिलता तितना वैसे भाग्यवान को मिलना चाहिये ॥ ३॥

गृहद्वारतः श्रूयते वाजिह्रोषाद्विजोच्चारितो वेदघोषोऽपि तद्वत् ॥ प्रतिस्पर्धितः कुर्वते पारिचर्धंचतुर्थे गुरौ तप्तमन्तर्गतं च ॥ ४ ॥

**अन्वयः–**चतुर्थे गुरौ [ स्थिते ] गृहद्वारतः वाजिह्येषा,तद्वतद्विजाच्चेरितो वेदघोषः अपि श्रूयते,प्रतिस्पर्धिनः परिचर्यंकुर्वते एवं अपि च अन्तगतं तप्तम् [ भवति ] ॥ ४ ॥

**अर्थ–**यदिबृहस्पतिःचतुर्थस्थान में होवे, तो उस पुरुष के गृहद्वार पर घोड़ोंका हिनहिना, और ब्राह्मणों के वेद मन्त्रकाशब्द सदा सुन पड़ता है। उसके शत्रु लोग उसकी सेवा करते हैं । तब भी उसका मन भीतर भीतर तपा करता है ॥ ४ ॥

विलासे मतिर्बुद्धिगे देवपूज्ये भवेज्जल्पकः कल्पको लेखको वा ॥ निदाने सुते विद्यमानेऽतिभूतिः फलोपद्रवः पक्वकालेफलस्य ॥ ५ ॥

अन्वयः– देवपूज्ये बुद्धिगे विलासे मतिः भवेत्, ( सः ) जल्पकः कल्पकः लेखकः वा ( भवेत् ) फलस्य पक्वकाले फलोपद्रवः (स्यात्) सुते विद्यमाने अपि निदाने अतिभृतिः ( स्यात् ) ॥ ५ ॥

**अर्थ–**जिसके पञ्चम स्थान में बृहस्पति होता है, उसको

बुद्धिविलास की ओर रहती है।वह उत्तम वक्ता ,वा कल्पना करने वाला ,लेखक होता है । फल के पकने के समय उसके फल पर आपत्ति आंतीहै । पुत्र कि सहायता से भी कुछ धनलाभ होता है॥ ५ ॥

रुजातो जनन्या रूजः सम्भवेयू रिपौ वाक्पतौ शत्रुहन्त्रुत्वमेति॥ बालादुद्धतः कोरणे तस्य जेतामहिष्यादिशर्मा न तन्मातुलानाम्॥६॥

**अन्वयः–**वाक्पतौ रिपौ [ वीद्यमाने ] राजा आर्तः [ भवति] शत्रुहन्त्रुत्वम् एति, बलादुद्धतः [ भवति] तस्य रणे कः जेताः?महिष्यादिशर्मा ( भवति ) तत् मातुलानां न [ भवेत् ] [ च ] जनन्या रूजः[ सम्भवेयुः] ॥६॥

**अर्थ–**जिस के षष्ठस्थान में बृहस्पति रहता है, वह सदा रोगीरहता है। वह शत्रुओं का नाश करने वाला होताहै बल से उद्धता रहता है ।रण मे उसे कोई जीत नहीं सकता। उसके भार्या आदि सुख पूर्ण होता है परंतु मामा का नहीं होता।और उसकीमाता को भी पीड़ा होती है॥६॥

मतिस्तस्य बव्ही विभूतिश्चा बव्ही रतिर्वै भवेद्भामिनीनामबव्ही॥ गुरुर्गर्वकृद्यस्य जामित्रभावेसपिण्डाधिकोखण्डकन्दर्प एव॥ ७ ॥

**अन्वयः–**यस्य जामित्रे गुरुः [ स्यात् ] तस्य मतिः बव्ही विभूतिः च बह्वी [ भवेत्] वै भामिनीनां रतिः अबव्ही [भवेत्]

मर्धकृत् सपिण्डाधिकः अखण्डकन्दर्पः एव [भवेत्]॥ ७ ॥

**अर्थ–**जिसके सप्तम स्थान में बृहस्पति होवें, तो उसकी बुद्धि और विभूतिबड़ी होती है, उसकी स्त्रियों में प्रीति कम होती है। वह अपने सपिंडों से बलवान होता है। ऐसा सुन्दर होता है मानो साक्षात् कामदेव ही है ॥ ७ ॥

चिरं नो वसेत्पैतृके चैव गेहे चिरस्थायिनो तद्गृहं तस्य देहम्॥ चिरं नो भवेत्तस्य नीरोगमङ्गं गुरुर्प्रुत्युगो यस्य वैकुण्ठगन्ता ॥ ८ ॥

अन्वयः– गुरुः यस्य मृत्युगः [ सः ] पैतृके गेहे चिन व वसेत् तद्गृहं [ च] तस्य देहं चिरं न एव वसेत्, तद्गृहं [ च ] चिरस्थायि न तस्यअंगं चिरं निरोगं न, (सः) वैकुण्ठगन्ता स्यात् ॥८ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के अष्टम स्थान में गुरु रहता है, वह बहुत काल तक अपने पिता के गृह में वास नहीं करता । उसका पिता का गृह और उसका शरीर भी बहुत काल तक नीरोग नहीं रहना । वह अवश्य वैकुण्ठ जाता है ॥ ८ ॥

चर्तुभूमिकं तद्गृहं तस्य भूमिपतेर्वल्लभो वल्लभा भूमिदेवाः॥ गुरौ धर्मगे बांधवाःस्युर्वि नीताः सदाऽऽलस्यता धर्मवैगुण्यकारी ॥ ९॥

अन्वयः– गुरौ धर्मगे तद्गृहं चतुर्भूमिकं (स्यात्) (सः) भूमिपतेः वल्लभः (स्यात्) तस्य भूमिदेवाः वल्लभाः (स्युः ) बान्धवाः विनीताः स्युः आलस्यतः सदा धर्मवैगुण्यकारी (भवति) ॥९॥

**अर्थ–**जिसके नवम स्थान में बृहस्पति रहता है, उसका गृह चार खण्ड का होता है वह राजा का प्रिय होता है, उसे ब्राह्मणों पर बड़ा प्रेम होता है । उसके भाई बन्धु उससे नम्ररहते है \। वह सदा आलस्य से धर्म कार्य में दिलाई करती है॥ ९ ॥

ध्वजा मण्डपे मन्दिरे चित्रशाला पितुः पूर्वजेभ्योऽपि तेजोधिकत्वम् ॥ न तुष्टो भवेच्छर्मणाः पुत्रका-णांपचेत्प्रत्यहं प्रस्थसामुद्रमन्नम् ॥१०॥

अन्वयः–(देवाचार्येकर्मगे सति) मण्डपे ध्वजा, मंन्दिर चित्रशाला, पितुः पूर्वजेभ्यः अपि तेजः अधिकत्वं भवेत् पुत्रका-णांशर्मणा तुष्टः न भवेत् प्रत्यहं प्रस्थसामुद्रं अन्नं चेत् ॥ २० ॥

अर्थ– जिसके दशम स्थान में गुरु रहता है, उसके मन्दिर पर ध्वजा फहराती है, और उसका मन्दिर चित्रों से पूर्ण रहता है। वह अपने पुत्रों के सुख से सन्तुष्ट नहीं होता, प्रति दिन ऐसा भोजन करता है तिसमें समुद्र का लवण अधिकरहे, और वह सेर भर होवे ॥ १० ॥

अकुप्यं च लाभे गरौ किं न लभ्यं वदत्यष्ट धीयन्तमन्ये मुनीन्द्राः ॥ पितुर्भारभृत्स्वाङ्गजास्तस्य पंच परार्थस्तदर्थो न चेद्वैभवाय ॥११॥

अन्वयः– गुरौ लाभे [ स्थिते ] किं अकुप्यं न लभ्यं अन्ये अष्टभुनोन्द्राः [ तं ] धीमन्तं वदन्ति [ सः ] पितु भारभृत्,

तस्य स्वांगजाः पञ्च [ भवन्ति ] तदर्थः परार्थः न च वैभवाय [ भवति ] ॥ ११ ॥

**अर्थ–**जिसके एकादश स्थान में बृहस्पति रहता है, उसे क्या सुवर्ण और चाँदी आदि धन नहीं मिलते? ( अवश्य मिलते हैं) और आठ मुनि उसे बुद्धिमान् बताते हैं । वह अपने पिता का बोझासम्हालने वाला होताहै। उसे पांच गुणहोते हैं। उसका धन परार्थ के लिये होता है, धनिक होने वा भोग करने के लिये नहीं होता ॥ ११ ॥

यशः कीदृशं सद्व्यये साभिमाने मतिः की शीनावञ्चनाचेत्परेषाम् ॥ विधिः कीदृशोर्थं स्य नाशो हि येन त्रयस्ते भवेयुर्व्यये यस्य जीवः॥ १२॥

अन्वयः– [ यस्य व्यये जीवः तस्य ] साभिमाने सद्व्यये यशः कीदृशं [ भवेत् ] परेषां वञ्चना चेत् मतिः कीदृशी [भवेत् ]येन अर्थस्य नाशः [ सः ]विधिः कीदृशः [ स्यात् ] यस्य व्यये जीवः (तस्त्र ) वे त्रयः भवेयुः ॥ १२ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के द्वादश स्थान में बृहस्पति रहताहै उसे अभिमान के साथ उत्तम कार्य में व्यय करने पर भी यश कैसे होवे ? दूसरों की वञ्चना करने से उसकी बुद्धिकैसी समझी जावे?जिससे धन नष्ट हो वह विधि( कार्य ) कैसा होवे ? अर्थात् जिसके द्वादश में बृहस्पति रहताहै उसके ये तीनों कार्य करने पर भी निष्फल समझे जाते हैं ॥ १२ ॥

इति गुरुभावफलानि ।

समीचीनमङ्ग समीचीनसङ्गः समीचीनवह्वङ्ग-

नाभोगयुक्तः ॥ समीचीनकर्मा समीचीनशर्मा समीचीनशुक्रोयदा लग्नवर्ती ॥ १ ॥

अन्वयः– यदा समीचीनशुक्रः लग्नवर्ती [ तदा ] समीचीनं अंगं, समीचीनसङ्गः समाचीनबह्वङ्गरूनाभोगयुक्तः, समीचीन कर्मा, समीचीनशर्मा[ च ] स्यात् ॥ १ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के लग्न स्थान में समीचीन अर्थात् छहप्रकार के बलवाला शुक्र रहता है। उसका अङ्ग सुन्दर होता हैं, वह उत्तम पुरुषों से सङ्ग करता है, वह बहुतसी उत्तम २ स्त्रियों का भोग करता है । वह उत्तम २ कार्य करता है, उसको उत्तम सुख मिलता है ॥ १ ॥

मुखं चारुभाषं मनीषापि चार्वी मुखं चारु चारूणि वासांसि तस्य ॥ कुटुम्बे स्थितः पूर्वदेवस्य पूज्यः कुटुम्बेन किं चारुचार्वङ्गिकामः ॥ २ ॥

अन्वयः– पूर्वदेवस्य पूज्यः कुटुम्बे स्थितः [ स्यात् तर्हि ] मुखं चारुभाषं, मनीषा अपि चार्वी, तस्य मुखं चारु वासांसि चारुणिचार्वङ्गिकामः [ च स्यात् ] कुटुम्बेन चारू, किम् ॥२॥

अर्थ– जिस पुरुष के तृतीय स्थान में शुक्र रहता है, उसके मुख से सुन्दर वाणी निकलती है। उसकी बुद्धि सुन्दर होती है। उसका मुख सुन्दर होता है । उसके वस्त्र सुन्दर होते हैं। उसकी चाह सुन्दर स्त्री पाने की रहती है। वह अपने कुटुम्ब से क्या सुन्दर होता है ? ( अर्थात् नहीं होता ) ॥ २ ॥

रतिः स्त्रीजने तस्य नो बन्धुनाशोगुरुर्यस्यदुश्चि

क्यगोदानवानाम् । न पूर्णो भवेत्पुत्रसौख्येऽपि सेनापतिः कातरोदानसङ्ग्रामकाले ॥ ३ ॥

अन्वयः– दानवानां गुरुः यस्य दुश्चिक्यगः तस्य स्त्री जनेरतिः न बन्धुनाशः [न ] पुत्रसौख्ये [ सत्यपि ] पूर्णः ( पूर्ण- मनोरथः न, सेनापतिः अपि दानसङ्ग्रामकाले ( दानकाले संग्रामकाले च ) कातरः ( भवति ) ॥ ३॥

अर्थ– जिस पुरुष के तृतीय स्थान में शुक्र रहता है, वह पुरुष स्त्रियों से प्रेम नहीं करता उसके भाई बन्धु नष्ट नहीं होते । पुत्र सुख रहने पर भी उसका मनोरथ पूर्ण नहीं होता । सेनापति होकर भी दान करने के समय और युद्ध के समय कातर हो जाता है ॥ ३ ॥

महित्वेऽधिको यस्य तुर्येऽसुरेज्यो जनैः किं जनैः श्चापरैरुष्टतुष्टैः ॥ कियत्पोषयेज्जन्मतःसञ्जनन्या अधीनार्पितोपायनैरेव पूज्यः ॥ ४ ॥

अन्वयः– असुरेज्यः यस्य तुर्ये ( स्यात् सः ) जनैः महित्वे अधिकः [ स्यात् ] अपरैः रुष्टतिष्टैः तस्य जनैः किम् ? अधीनार्पितोपायनः एव पूर्णः ( भवति इति कियत् ) जन्मतः संजनन्याः पोषेयत् ॥ ४ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के चतुर्थ स्थान में शुक्र रहता है, वह और मनुष्यों से अधिक महान् होता है औरों के क्रोध से और संतोष से उसकी क्या हानि ? अनेक वश में रहने वाले पुरुषों की चढ़ाई भेंट से ही उसका गृह पूर्ण रहता है यह बात ही कितनी है ? यह जन्म से ही अपनी माता का पालन करता है ॥ ४॥

सपुत्रेऽपि किं यस्य शुक्रो न पुत्रेप्रतापेन किंयत्नम्पादितार्थः ॥ व्युदर्कंविनामंत्रमिष्टाप्राशनाभ्या- मधीते न किं चेत्कवित्वे न शक्तिः ॥ ५ ॥

**अन्वयः–**शुक्रः यस्य पुत्रे न ( तस्मिन् ) सपुत्रे अपि किं ( फलम् ) ( येन ) अर्थः सम्पादितः ( तेन ) प्रयासेन किं( फलम् ) व्युदर्कं दिन मन्त्रमिष्टशनाभ्यां किं प्रयोजनमकवि वे शक्तिः न चेत् (तर्हि ) अधीतेन किं (फलम् ) ॥ ५ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के पञ्चम स्थान में शुक्र न होवे, तो उसके पुत्र होने से क्या फल ? जिस उपाय से प्रयोजन सिद्ध होता है उस परिश्रम से क्या फल ? उत्तम फल होने विना मन्त्र और मिष्ट अन्न भोजन करने से क्या प्रयोजन ? उस विद्या से भी क्या फल जिसके होने पर भी कविता शक्ति नहीं होती? तात्पर्य यह है कि पञ्चम स्थान में शुक्र के होने, से ही पुत्र का होना, प्रयोजन सिद्ध होता उत्तम फल होता और कविता शक्ति होती है ॥ ५ ॥

सदा दानवेज्ये सुधासिक्तशत्रुर्व्ययः पूज्यगे चोत्तमौ तौ भवेताम् ॥ विपद्येत सम्पादितं चापि कृत्थं सपेन्मन्त्रतः पूज्यसौख्यं न धत्ते ॥ ६ ॥

अन्वयः– दानवेज्ये शत्रुगे सुवासिक्तशत्रुः व्ययः च तौ उतमौ भवेताम्, सम्पादितंच अपि कृत्यं सदा विपद्येत मन्त्रतः तपेत् पूज्यसौख्यं (च) न धत्ते ॥ ६ ॥

अर्थ– जिसके षष्ठ स्थान में शुक्र होता है, उसको प्रबल शत्रु और व्यय दोनोंफल होते हैं। उसका भली भाँति कियाहुआ कार्य भी सदा बिगड़ जाता है । वह खराबसलाह से दुखी होता है, और उसे पिता गुरु आदि का सुख नहीं होता॥ ६ ॥

कलत्रेकलत्रात्सुखं नो कलत्रात् कलत्रं तु शुक्रे भवेद्रत्नगर्भंम् विलासाधिको गण्यते च प्रवासी प्रयासाल्पकः केन मुह्यन्ति तस्मात् ॥ ७॥

**अन्वयः–**शुक्रोकलत्रे (स्थिते ) कलत्रात् सुखं नो भवेत् कलत्रात् तु कलत्रं रत्नगर्भः भवेत्, विलासाधिकः प्रवासी प्रया-ताल्पकःच गण्यते तस्मात् केन मुह्यन्ति ॥ ७ ॥

अर्थ– जिसके सप्तम स्थान में शुक्र रहता है, उस पुरुष को कमर में पीड़ा रहती है। उसकी स्त्री को सुन्दर पुत्र रत्न होता है पुरुष बड़ा विलासी, प्रवास करने वाला और स्वस्य उद्योग करने वाला होता है । उसे देख कौन मोहित नहीं होता ? ॥ ७ ॥

जनः क्षुद्रवादी चिरं चारुजीवेच्चतुष्पात्सुखं दैत्यपूज्यौ ददाति ॥ जनुष्यष्टगे कष्टसाध्योजयार्थः पुनर्व-र्द्धते दीयमानं धनर्णम् ॥ ८ ॥

अन्वयः– जनुषि श्रष्टमे [ स्थितः ] [ दैत्यपूज्यः चतुष्पात् सुखं ददानि, क्षुद्रवादी [ जनः ] चिरं चारु जीवेत् [ तस्य ]

जयार्थः कष्टसाध्यः [ स्यात् ] धनर्ण दीयमानं [ सत् ] पुनः २वर्धते ॥ ८ ॥

अर्थ– अष्टम स्थान में रहने वाला शुक्र मनुष्य को गो घोड़ा और हाथी आदि का पूर्ण सुख देता है । वह पुरुष कठोर बोलने वाला होकर चिरंजीवी होता है। उसका कार्य और जय बड़े कष्ट से सिद्ध होता हैं। ऋण लिया हुआ धन देने पर भी फिर फिर बढ़ता ही रहता है ॥ ८ ॥

भृगौ त्रित्रिकोणे पुरे के न पौराः कुसीदेन ये वृद्धिमस्मै ददीरन् \। गृहं ज्ञायते तस्य धर्मध्व जादेः सहोत्थादिसौख्यं शरीरे सखं च ॥ ९॥

**अन्वयः–**भृगौ त्रित्रिकोणे ( स्थिते सति ) (ते के पौराः ये कुसीदैन वृद्धिं अस्मै न ददीरन् तस्य गृहं धर्मध्वजादे शायते, सहोत्थादिसौख्यं शरीरे सुखं च ( जायते ) ॥९ ॥

अर्थ– नवम स्थान में यदि शुक्र होवे तो कौन से नगरवासीहैं जिन्होंने इसे व्याज की बढ़ती के रुपये न दिये हों । अर्थात् जिस नगर में ऐसा पुरुष रहेगा उस नगर के सथ ही उसके ऋणी होते हैं। धर्म की पताका आदि पखण्ड के कारण उसका गृह प्रसिद्ध होता । उसे सगे भाइयों का सुख पूर्ण होता है, और उसे शरीर सुख भी पूर्ण होता है ॥ ९॥

भृगुः कर्मगो गोत्रवीर्यं रुणद्धि क्षयार्थो भूमः किं न आत्मीय एव ॥ तुलामानतो हाटकं विप्रवृत्या जनाडम्बरैः प्रत्यहं वा विवादात् ॥१०॥

अन्वयः– कर्मगः भृगुः गोत्रवीर्यं रुणद्धि, आत्मीयः एवभ्रमः किं क्षयार्थः न स्यात् ? प्रत्यहं विप्रवृत्या जनाडम्बरैः विवा-दात् वा तुलामानतः हाटकं [ न स्यात् किं ] अपितु स्यात् ( एव ) ॥ १० ॥

**अर्थ–**दशम स्थान में रहने वाला शुक्र वंश के उत्पन्न करने वाले वीर्य को रोक देता है। उसका अपनाही भ्रम क्या उनका नाश करने वाला नहीं होता ? (होता है) सदा ब्राह्मण की वृत्ति से, या अपनी बड़ाई के लिये दूसरों कीधरी हुई धरोहर से या किसी से विवाद करके वह अपने पास सौपल ( सुवर्ण नहीं रखता क्या ) किंतु अवश्य रखता है ॥ १०

भृगुर्लाभदो लाभदोयस्य लग्नात्सुरूपं महीपं च कुर्याच्च सम्यक् ॥ लसत्कीर्तिसत्यानुरक्तं गुणाढ्यं महा भोगमैश्बर्ययुक्तं सुशीलम् ॥ ११ ॥

**अन्वयः–**यस्य लग्नात् लाभगः भृगुः ( तस्य ) लाभदः ( भवति ) ( तम् ) सुरूपं सुशीलं लसत्कीर्तिसत्यानुरक्तं गुणाढ्यं महाभोगं ऐश्वर्ययुक्तं सम्यक् महीपं च कुर्यात् ॥ ११॥

अर्थ– जिस पुरुष के लग्न से एकादश स्थान में शुक्र रहता है, वह उस पुरुष को लाभ कराता है उसे सुन्दर सुशील कीर्तिवाला सत्य प्रेम करने वाला गुणी बड़ा भोगी धनवान्, ,और पूर्ण राजा बना देता है ॥ ११ ॥

कदाप्येति वित्तं विलीयेत पित्तं सितो द्वादशे केलिसत्कर्मशर्मा ॥ गुणानां च कीर्तेः क्षयं

मित्रवैरं जनानां विरोधं सदाऽसौ करोति ॥ १२ ॥

अन्वयः– यदि, असौ सितः द्वादशे[ तिष्ठति तर्हि ] का अपि वित्तं एति, (च) विलीयेत केलि सत्कर्म शर्मा (भवति )गुणानांकीर्तेः करोति क्षयम् सदा मित्रवैरं जनानां निरोधं (च)करोति॥ १२ ॥

**अर्थ–**यदि शुक्र द्वादश स्थान में रहता है, तो कभी धन, आता है, और पित्त शांत हो जाता है। कोड़ा और उत्तम कार्यों से वह पुरुषसुखी होता है । गुण और कीर्ति का नाश करता है। मित्र से और अन्य लोगोंसे वैर करता है ॥ १२ ॥

इति शुक्रभावफलानि ।

धनेनोतिपूर्णोऽतितृष्णो विवादी तनुस्थेर्कजे स्थूलदृष्टिर्नरः स्यात् ॥ विषं दृष्टिजं त्वाधि कृद्रयाधि-वाधाः स्वयं पीडितो मत्सरावेश एव ॥ १ ॥

**अन्वयः–**अर्कजे तनुस्थे नरः धनेन अतिपूर्णः अतितृष्णः, विवादी, स्थूलदृष्टिः, दृष्टिजं विषं अधिकृत्, व्याधि, बाधाः, मत्सरोगशः एव स्वयं न पीड़ितः [ न स्यात् ] ॥ १ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के जन्मस्थान में शनिश्चर रहता हैवह पूर्ण धनी, बड़ी तृष्णावाला शोक करनेवाला, और स्थूल दृष्टि (छोटी आँख वाला ) होता है। उसके नेत्र मानो विषकोपैदा कर शत्रु का नाश कर देते हैं। उसके मन में चिंता होती है। रोगों की बाधा भी होती है वह दूसरे की डाह में अपने आप ही पीड़ा पाता है ॥ १ ॥

मखापेक्षाया वर्जितोऽसौ कुटुम्बनकुटुम्बे शनौ वस्तु किं किं न भुङ्क्ते । समवक्ति मित्रेण तिक्तं वचोऽपि प्रसक्तिं बिना लोहकं को लभेत ॥ २ ॥

**अन्वयः–**शनौकुटुम्बे ( सति ) मुखापेक्षया कुटुम्बति गर्जितः असौ किं किं वस्तु न भुङ्क्ते? प्रसक्तिं बिना मित्रेणसमं तिक्तं६ चःअपि व्यक्ति, लोहकं कः लभेत ? ॥ २ ॥

अर्थ– जिस के द्वितीय स्थान मेंशनि रहता है, वहसुखकी लालसा से अपने कुटुम्ब कोछोड़ कर विदेश में जाकर सबवस्तुओंका सुख भोगता हैअवसर के विना हीमित्र को कठोर वाक्य कहता है। उसको छोड़कर सुवर्ण आदि आठों धातुओं को कौन पा सकता है ? नहीं पाता है ॥ २ ॥

तृतीये शनौ शीतलं नैव चित्तं जनादुद्यमाज्जायते युक्तभाषी ॥ अविघ्नं भवेत् कर्हिचिन्नैवभाग्यं दृढा-शः सुखी दुर्मुखः सत्कृतोऽपि ॥ ३॥

अन्वयः– शनौ तृतीये ( स्थिते ) जनात् उद्यमात् [च ] चित्तं शीतलं न एव जायते, (सः) दृढशःसुखी युक्त भाषी ( भवेत् ) ( तस्य) भाग्यं कर्हिचित्अविघ्नं न एव भवेत्, (असौ) सत्कृतः अपि दुर्मुखः [भवति ] ॥३॥

अर्थ– जिस पुरुष के तृतीय स्थान में शनि होता है, उसका चित्त भ्राता आदि के होने से, और उद्योग से शीतल नहीं,

होता । यह दृढ आशा वाला सुखी और युक्ति पूर्ण बात करने वाला होता है, उसका भाग्य कभी भी बिना विघ्न के नहीं रहता वह सत्कार करने पर भी मुहँ फुलाये रहता है ॥ ३ ॥

चतुर्थे शनौ पैतृकं याति दूरं धनं मन्दिरं बन्धुवर्गापवादः ॥ पितुश्चापि मातुश्चंसन्तापकारी गृहं वाहने हानयो वातरोगी ॥ ४ ॥

अन्वयः– शनौ चतुर्थेपैतृकं धनं मंदिरं [का] दूरं याति बन्धुवर्गापवादः [ जायते ] गृहे वाहने [का] हानयः [भगति ] पितुः मातु का संतापकारी [ भवति ] च वातरोगी [ जायते ] ॥ ४ ॥

अर्थ– जिस मनुष्य के चतुर्थ स्थान में शनि रहता हउसका पिता का धनऔर गृह छूट जाता है । उसे भाई बंधुओं की ओर से अपवाद लगता है । गृह में और घोड़े आदि पर से हार्नियाँ होती हैं। वह पिता माता को दुख देने वाला होता है। और उसे वायु रोग हो जाता है ॥ ४ ॥

शनौपञ्चमे च प्रजाहेतुदुःखी विभूतिश्वलातस्य बुद्धिर्न शुद्धा ॥ रतिर्दैवते शब्दशास्त्रेन तद्रत्कलि-र्मित्रतो मन्त्रतः क्रोडपीड़ा ॥ ५ ॥

अन्वयः– पञ्चमे शनौ [सति] प्रजाहेतु दुःखी [ स्यांत्]तस्यविभूतिः चला मतिः च शुद्धा न (भवति) दैवते तद्वत्शब्द-शास्त्रेच रतिः न ( जायते ) मित्रतः कलिः ( उत्पद्यते ) मंत्रः क्रोडपीड़ा [सञ्जायते ] ॥५॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के पञ्चम स्थान में शनि रहता है, वह पुत्र आदि के न होने से दुखी होता है । उसका धन और बुद्धि चञ्चल होती है । उसकी श्रद्धा देवता और व्याकरण पर नहीं होती । मित्र से वैंर होता है। मंत्र जप के कारण काँख में पीड़ा होती है ॥ ५ ॥

अरेर्भूपतेश्चोरतो भीतयः किं यदीनस्य पुत्रो भवेद्यस्य शत्रौ ॥ न युद्धेभवेत्सम्मुखेतस्ययोद्धा महिष्यादिकं मातुलानां विनाशः ॥ ६ ॥

**अन्वयः–**यस्य शत्रौ ( स्थाने ) यदि इनस्य पुत्रः भवेत्, ((तस्य) अरेः भूपतेः चोरतः [ च ] भीतयः किम् ! तस्य सम्मुखे, युद्धेयोद्धा न भवेत्, महिष्यादिकं, ( भवेत् ) मातुलानां विनाशः (स्यात्) ॥ ६ ॥

अर्थ– किसी पुरुष के षष्ठ स्थान में यदि शनि होवे, तो उसे शत्रु से राजा से और चोर से भय क्यों होवें ? (नहीं होवे ) युद्ध में उसके सम्मुख कोई योद्धा नहीं ठहरता। उसे भैंस और गौ आदि का सुख होता है । उसके मामा नहीं बचते ॥ ६ ॥

सुदारा न मित्रं चिरं चारु वित्तं शनो द्यूनगे दम्पतीरोगयुक्तौ ॥ अनुत्साहसन्तप्रकृद्धीन चेताः कुतो वीर्यवान्विह्वलो लोलुपः स्यात् ॥ ६ ॥

**अन्वयः–**शनौ द्यूनगे सुदाराः मित्रं चारु चित्तं (च) चिरं न (स्यात्) दम्पती रोगयुक्तौ ( भवेताम् ) अनुत्साहः

संन्तान्कृत् हीन वेः विह्वलः लोलुपः (च) स्थान वीर्यवान् कुतः ( स्यात् ) ॥ ७ ॥

**अर्थ–**यदि पुरुष के सप्तम स्थान में शनि होवे, तो सुन्दर स्त्री मित्र और उत्तम धन बहुत दिन तक उसके पास नहीं रहता, स्त्री और पुरुष सदा रोगी बने रहते है । वह उत्साही महीं होता, उसका चित्त छोटा होता है। घबडालू और लोग होता है। वह पराक्रमी कहां से होवेगा ? ॥ ७ ॥

वियोगो जनानां त्वनौपाधिकानां विनाशो धनानां स को यस्य न स्यात् ॥ शनौ रन्ध्रगे व्याधितः क्षुद्रदर्शी तदग्रेजनः कैतवं किं करोतु॥ ८ ॥

**अन्वयः–**शनौ रन्ध्रगे [ सति ) यस्य अनौपाधिकानां जनानां वियोगः न स्यात् धनानां (च) विनाशः न‍ सः कः? व्याधितः(भवेत् ) क्षुद्रदर्शी जनः तदग्रेकिं कैतवं करोतु ? ॥ ८ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के नवम स्थान में शनि रहता है। उसके विना कारण के मित्र और भाई आदि का वियोग नहीं होता, और धन का नाश नहीं होता, ऐसा कौन पुरुष है ? (कोई नहीं ) यह रोगी होवे । क्षुद्र पुरुष उसके सामने वयाधर्तता कर सकेगा ? ॥ ८ ॥

मतिस्तस्य तिक्ता न तिक्तं तु शीलं रतिर्योगशास्त्रे गुणो राजसः स्यात् ॥ सुहृद्वर्गतो-

दुःखितो दीनबुद्ध्या शनिर्धर्मगः कर्मकृत्संन्यसेद्वा ॥ ९ ॥

अन्वयः– (यस्य ) धर्मगः शनिः (स्यात्) तस्य मतिः तिक्ता, शीलं तु न तिक्तं, योगशास्त्रे रतिः राजसः (च) गुणः स्यात्, दीनबुद्ध्या सुहृद्वर्गतः दुःखी ( भवेत् ) कर्मकृत (वा स्वात् ) संभ्यसेत् वा ॥ ९॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के नवम स्थान में शनि रहता है, उसकी बुद्धि कडुई होती है, परंतु स्वभाव कड़वा नहीं होता । उसकी श्रद्धा योग शास्त्र पर होती है, और रज गुण वाला होता है । वह अपनी छोटी बुद्धि के कारण मित्रों की ओर से दुःखी होता है । वह कार्य करे, या संन्यासी हो जावे ॥ ९ ॥

अजा तस्य माता पिता बाहुरेव वृथा सर्वतोदुष्टकर्माधिपत्यात् ॥ शनैरेधते कर्मगे शर्म मन्दो जयो विग्रहे जीविकानां तु यस्य ॥ १० ॥

अन्वयः– मन्दः यस्य कर्मगः तस्य अजा माता पिता बाहु पत्र (स्यात्) अधिपत्यात् एवसर्वतः दुष्टकर्म ( आचरेत् ) शनैः एधते विग्रहे जयः (स्यात्) जीविकानां तु ( अतिअल्पता) भवेत् ॥ १० ॥

अर्थ– जिस पुरुष के दशम स्थान में शनि रहता है, उसकी माता बफरी होती है, और पिता अपने दोनों हाथ ही होने हैंअर्थात् बाल्य काल में ही उसके माता पिता परलोक वासी हो जाते हैं, और वह बकरी के दूध से और अपने भुज बल सें पलता है। अधिकार के गर्व में आकर वृथा सदा दुष्ट कर्म

किया करता है, उसका सुख धीरे धीरे बढ़ता है। युद्ध मेंउसका विजय होता है। उसकी जीविका बहुत न्यून होतीहै ॥ १०॥

शनौ व्योमगे विन्दते किं च माता सुखं शैशवं दृश्यते किन्तु पित्रा ॥ निधिःस्थापितो वापितो वा कृषिश्च प्रणश्येद्ध्रुवं दृश्यतोदैवतोवा ॥ ११ ॥

अन्वयः– व्योमगे शनौ माता किं च सुखं विन्दते, पित्रा किं शैशवं दृश्यते ( पित्रा ) स्थापितः निधिः वापितः किंतु कृषिः च दृश्यतः वा धैवतः ध्रुवं प्रणश्येत् ॥ ११ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के दशम स्थान में शनि रहता है उस की माता कौन सा शुभ पाती है । उसका पिता क्या उसे वालकपन में देखता है ? अर्थात् वे दोनों बालक के जन्मके बाद शीघ्र ही चल बसते हैं। पिता का गाड़ा खजाना, वा उसकी कोई खेती किसी प्रत्यक्ष आपत्ति से या चल अग्नि के कोप से अवश्य नष्ट हो जाती है। दशम भाव के विषय में यह दूसरे आचार्य्यका मत है ॥ ११ ॥

स्थिरं वित्तमायुः स्थिरं मानसं च स्थिरानैव रोगादयो न स्थिराणि ॥ अपत्यानि शूरःशतादेक एव प्रपञ्चाधिको लाभगे भानुपुत्रे ॥ १२ ॥

अन्वयः– भानुपुत्रे लाभगे वित्तं स्थिरं, आयुः स्थिरं मानसं (च) रोगादयः स्थिरा न एवं अपत्यानि स्थिराणि न शतात् प्रपञ्चाधिकः एकएव शूरः (च ) ( भवेत् ) ॥ १२ ॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के एकादश स्थान में शनि रहता है उसका धन स्थिर रहता है । आयुष्य स्थिर रहती है। मन स्थिर रहता है । रोग आदि स्थिर नहीं रहते । संतति स्थिर नहीं रहती । प्रपञ्च में सौ पुरुषों से अधिक होता है, वह बिन जोड़ी का शूर होता है ॥ १२ ॥

व्ययस्थे यदा सूर्यसूनौ नरः स्यादशूरोऽथवानिस्त्रयो मन्दनेत्रः ॥ प्रसन्नो बहिर्नो गृहे लग्नपञ्च व्यय-स्थो रिपुध्वंसकृद्यज्ञभोक्ता ॥ १३ ॥

अन्वयः– सूर्यसूनौ व्ययस्थे नरः अशूरः अथवा निस्त्रपः मन्दनेत्रः ( च स्यात् ) बहिः नो गृहं (स्यात्) यदा लग्नपाव्ययस्यः (तदा नरः) रिपुध्वंसकृत् च यज्ञभोक्ता(स्यात्) ॥ १३॥

अर्थ– जिस पुरुष के द्वादश स्थान में शनि रहता है, वह पुरुषनिर्लज्ज और छोटे नेत्रं वाला होता है । वह विदेश जाने में प्रसन्न रहता है, वह पुरुष शत्रु का नाश करने वाला, और यज्ञफल का भोगने वाला होता है ॥ १३ ॥

इति शनिभावफलानि ।

स्ववाक्येऽसमर्थः परेषां प्रतापात्प्रभावान्समाच्छादयेत्स्वान्परार्थान् ॥ तमोयस्य लग्ने स भग्ना रिवीर्यः कलत्रेऽधृतिर्भूरि दारोऽपि यायात् ॥ १ ॥

अन्वयः–(यस्य ) लग्ने तमः ( भवति सः ) भग्नारिवीर्यः (स्यात्) प्रतापात् स्ववाक्ये असमर्थः (स्यात्) (परेषां) प्रतापात् स्यात् परार्थान्समाच्छादयेत्, भूरिदारः अपि कलत्रे अधृतःअपि यायात् ॥ १ ॥

अर्थ– जिस पुरुष के लग्न स्थान में राहु रहता है, वह पुरुष शत्रुओं के बल का नाश करने वाला होता है। वह दूसरों के प्रताप से दब कर अपने वाक्य के पालन में असमर्थहोता है और दूसरे के प्रभाव से अपने और दूसरों के कार्यो को साधन करता है। बहुत सी स्त्री होने पर भी स्त्रियों की औरसे संतुष्ट नहीं होता ॥ १ ॥

कुटुम्बोतमो नष्टभूतं कुटुम्बंमृषाभाषिता निर्भयो वित्तपालः॥ स्ववर्गप्रणाशो भयं शस्त्रतश्चेदवश्यं खलेभ्यो लभेत्यावश्यम् ॥ २ ॥

अन्वयः– ( चेत् ) तमः कुटुम्बे ( भवतितर्हि ) कुटुम्बम् नष्टभूतम् ( तस्य) मृषाभाषिता [ भवेत् ] [ सः ] निर्भयो वित्तपा-लस्वर्गप्रणाशः ( स्यात् तस्य ) शस्त्रतः भयं ( स्यात् ) अवश्यं खलेभ्यः पारवश्यं लभेत् ॥ २ ॥

**अर्थ–**यदि राहु द्वितीय स्थान में होवे तो उसका कुटुम्ब नष्ट हो जाता है । वह मिथ्यावादी होता है । वह निर्भय होता है। धन का रक्षक होता है, और अपने बन्धुओं का नाश करने वाला होता है । उसे शस्त्र से भय होता है, वहअवश्यदुष्ट के वश में रहता है ॥ २ ॥

न नागोऽथ सिंहो भुजो विक्रमेण प्रयातीह

सिंहीसुतेतत्समत्वम्॥ तृतीयेजगत्सोदरत्वंसमेति प्रयातोऽपि भाग्यं कुतो यत्नहेतुः॥ ३॥

**अन्वयः–**इह तृतीये सिंहसुते नागः अथ सिंह भुजो विक्रमेण तत्समत्वं न आयाति तस्य जगत् सोदरत्वं समे ते भाग्यं प्रयासः अपि कुतः यत्नहेतुः॥ ३॥

**अर्थ–**जन्म समय मे यदि रहु पुरुष के तृतीय स्थान में होवे, तो हाथीवा, सिंह पराक्रम मे उसकी बराबरीनहीं कर सकते। जगत् उस पुरुष का सहोदर भाई के समान हो जाता है।भाग्य उदय हेने पर भी उद्योग कौन फल करता है?कोई फल नहीं॥ ३॥

चतुर्थेकथंभातृनैरुज्यदेहो हृदि ज्वालाया शीतलं किं बहिः स्यात्॥ सचेदन्यथा मेषगो कर्कगो बुधर्क्षे-सरो भूपतेर्बंधुरेव॥ ४॥

**अन्वयः–**वेत्असुरः चतुर्थे [ तदा] भात्रुनैरुज्येहः कथं [ स्यात् ] हृदि ज्वालया बहिः शीतलं किं स्यात् मेषगः कर्कगः वा बुधर्क्षैः[ गतः] सः अन्यथा[ सम्पादयति सःनरः] भूपते बन्धुः एव[ भवेत् ]॥ ४॥

**अर्थ–**यदि चतुर्थ स्थान में राहु होवे तो माता का शरीर निरोग कैसे होवे ? हृदय में ज्वाला लगाने पर वह शीतल किस भाँति होवे यदि राहु मेष कर्क कन्याऔर मिथुन राशि में जावे तो पहले से उलटा फल अर्थात शुभकरता है वह पुरुष राजा का भ्राता ही हो जाताहै॥ ४॥

सुते तत्सुतोत्पत्तिकृत्सिंहिकायाः सुतो भामिनीचिन्तया चित्ततापः ॥ सति क्रोडरोगे कि माहारहेतुः प्रपञ्चेन किं प्रापकदृष्टवर्ज्यम् ॥ ५॥

**अन्वयः–**सुते [ स्थितः ] सिंहिकायाः सुतः सुतोत्पत्ति कृत् [ भवति ] भामिनीचिन्तया चित्ततापः [ स्यात् ] क्रोडरोगे सति आहारहेतुः किम् ? प्रापकादृष्टवर्ज्यं प्रञ्चेन किम् ॥ ५ ॥

अर्थ– जिसके पञ्चम स्थान में राहु होता है, उसे पुत्र उत्पन्न करता है । उसका चित्त स्त्री की चिन्ता से संतप्त रहता है काँख का रोग होने पर भोजन का कौनसा उपाय होवेगा ? लाभ देने वाले प्रारब्ध के सिवाय सब उपाय वृथा होता है ॥ ५ ॥

बलं बुद्धिवीर्यं धनं तद्वशेन स्थितो वैरि भावोऽपि येषां जनानाम् ॥ रिपूणामरण्यं दहेदेव राहुः स्थिरं मानसं तत्तुला नो पृथिव्याम्॥ ६ ॥

अन्वयः– राहुः येषां जनानां वैरिभावे स्थितः सः तेषां रिपूणां अरण्यंअपि दहेत् एव तद्वशेन बलं बुद्धिवीर्यं धनं स्थिरमा-नसं [ च स्यात् ] पृथिव्यां तत्तुला नो अस्ति ॥ ६ ॥

अर्थ– जिसके पष्ठ स्थान में राहु रहता है, वह उनके शत्रु के बन को भी जला ही देता है। उसके प्रभाव से उनका बल बुद्धिवीर्य धन और स्थिर मन होता है । पृथिवी में उसके समान कोई नहीं होता जिसके षष्ठ स्थान में राहु रहता है ॥ ६ ॥

विनाशं लभेयुर्द्युने यद्युवत्यो रुजा धातुपाकादिना चन्द्रमर्दी ॥ कटाहे यथा लोडये ज्जातवेदा वि-योगापवादाः शमं न प्रयान्ति ॥ ७ ॥

अन्वयः– [ यदि ] चन्द्रमाद्यु ने [ स्यात्तर्हि ] तद्युवत्यः धातु लोडयंति पाकादिना रुजा विनाशं लभेयुः, जातवेदा यथा कटाहे तथा नरः लोड्यते [ तस्य ] विनोदापवादाः शमं न प्रयान्ति ॥ ७ ॥

**अर्थ–**यदि सप्तम में राहु होवे तो उस पुरुष की स्त्रियाँ धातुपाक आदि रोग से नष्ट हो जाती हैं। जैसे कड़ाहे में अग्नि जलती है वैसेही मनुष्य संतप्त होता, उसका वियोग और लोक निंदाशांत नहीं होती॥७॥

नृपः पण्डितैर्वन्दितै निन्दितः स्वैः सकृद्भाग्यलाभोऽसकृद्भभ्रंश एव॥ धनं जातकं तं जनाश्च त्यजन्ति श्रमग्रन्थिकृद्रन्ध्रगो ब्रध्नशत्रु ॥ ८॥

**अन्वयः–**रन्ध्रगः ब्रघ्नशत्रुः श्रमग्रन्थिकृत् [ जायेत ] तं जातकं धनं जनाः च त्यजन्ति, [ सः ] नृपैः पण्डितैः [च] वदन्तिः, स्वैः[ निन्दितः च भवति ] [ तस्य ] भाग्यलाभः सकृत् भ्रंशः एव [ स्यात् ] ॥ ८॥

अर्थ– जिस पुरुष के अष्टम स्थान में राहु रहता है, उसके उदर में परिश्रम से वायु गोला वारक्त गुल्म आदि रोग हो जाता है, उसे पिता का धन और कुटुम्ब के लोग त्याग देते हैं। राजा और पण्डित उसकी स्तुति करते हैं परंतु कुटुम्ब

और जाति के लोग निन्दा करते हैं। जन्म भर में एक बार ही लाभ होता है, परंतु हानि कितनी ही बार होती है ॥ ८ ॥

मनीषी कृतं न त्यजेद्भन्धुवर्गं सदा पालयेत्प्रजितः स्याद्गुणैः स्वः ॥ सभाद्योतको यस्य चेत्त्रित्रिकोणे समः कौतुकी देवतीर्थे दयालुः ॥९॥

**अन्वयः–**यस्य त्रित्रिकोणे तमः चेत् [ सः ] मनीषी, स्वै गुणैः पूजितः समाद्योतकः, कौतुकी देव तीर्थे, दयालुः [च] स्यात्, कृतं न त्यजेत्, सदाबन्धुवर्ग, पालयेत् ॥ ९ ॥

अर्थ– जिसके नवम स्थान में राहु रहता है वह पुरुष अपने गुणों से श्रेष्ठ सभारोशन देवतीर्थ का अनुरागी, और दयालु होता है। वह उपकार को नहीं भूलता। सदा अपने कुटुम्ब का पालन करता है॥९॥

सदा म्लेच्छसंसर्गतोऽतीव गर्वं लभेन्मानिनीकामिनी भोगमुच्चैः ॥ जनैर्व्याकुलोऽसौ सुखं नाधिशेते मदार्थव्ययी क्रूरकर्मा खगेऽगौ ॥ १०॥

अन्वयः– अगौ खगे (स्थिते) मदार्थव्ययी क्रूरकर्मा [च] असौ (भवति) जनैः व्याकुलः (सन् ) सुखं न अधिशेते, सदा म्लेच्छसंसर्गतः अतीव गर्व ( लभते ) मानिनीकामिनीभोगं उच्चैः लभेत्॥ १०॥

**अर्थ–**जिस पुरुष के दशम स्थान में सहु रहता है, वह नशे में द्रव्य खर्चने वाला, और क्रूर काम करने वाला होता है । अतः लोगों की फटकार, वा निन्दा से सुख से सो नहीं

नहीं सकता । सदा म्लेच्छों के सङ्ग से उसे महा घमण्ड होता है । वह सुन्दर स्त्री का भोग करता है ॥ १० ॥

सदाम्लेच्छतोऽर्थं लभेत्साभिमानश्चरेत् किंकरेण व्रजेत् किं विदेशम् ॥ परार्थाननर्थी हरेद्धूर्त बन्धुः सुतोत्पत्तिसौख्यं तमो लाभगश्चेत्॥ ११ ॥

अन्वयः–( यदि ) तमः लाभगः ( स्यात् तर्हि सदा ) म्लेच्छतः अर्थं लधेत्, साभिमानः किंकरेण (सह ) चरेत् : विदेशं किं व्रजेत्, (सः) धूर्तबन्धुः अनर्थीं परार्थान् हरेत् सुतोत्पत्तिसौख्यं च प्राप्नुयात् ॥ ११ ॥

**अर्थ–**यदि पुरुष के एकादश स्थान में राहु होवे, तो वह सदा म्लेच्छों से धन पावे, भृत्य ( नौकर ) के साथ अभिमान से फिरता रहे, विदेश क्यों जावे ? वह धूर्तों का मित्र, और अनर्थ करने वाला दूसरोंका धन ले लेवे, और पुत्रोत्पत्तिका सुख पावे ॥ ११ ॥

तमोद्वादशे दीनतां पार्श्वशूलं प्रयत्ने कृतेऽनर्थतामातनोति ॥ खलैर्मित्रतां साधुलोके रिपुत्वंविरामे म-नोवाञ्छितार्थस्य सिद्धिम् ॥ १२ ॥

अन्वयः– द्वादशे [ विद्यमानः ] तमा, दीनतां, पार्श्वशूलं, प्रयत्ने कृतेअपिअनर्थतां, खलैः मित्रतां, साधु लोके रिपुत्वं विरामे, मनः वाञ्छितार्थस्य सिद्धिं [ च ] आतनोति ॥ १२ ॥

**अर्थ–**द्वादश स्थान में रहने वाला राहु दीनता पसुली में शूल की पीड़ा, उद्योग करने से भी कार्य सिद्ध न होना

दुष्टों से मित्रता सज्जनों से वैर, मन में शांति, और मनोरथ की सिद्धि करता है ॥ १२ ॥

इति राहुभावफलानि ।

तनुस्थः शिखी वान्धवल्केशकर्ता तथा दुर्जनेभ्यो भयंव्याकुलत्वम् ॥ कलत्रादिचिन्ता सदो **द्वेगताच शरीरे व्यथा नैकधा मारुती स्यात् ॥ १॥ **

अन्वयः– तनुस्थः [सन्] शिखी वान्धवक्लेशकर्ता जायते तया दुर्जनेभ्यः भयं, व्याकुलत्वं, कलत्रादिचिन्ता सदा उद्वेगता, च शरीरे न एकधा मारुतीः व्यथा [ करोति ] ॥ १ ॥

अर्थ– पुरुष के जन्म स्थान में रहने वाला केतु बंधुओं को क्लेश करने वाला होता है, दुर्जनों सेभय, चित्तमें व्याकुलता, स्त्री पुत्र आदि की चिन्ता, सदा घबराहट, और शरीर में वायु की अनेक प्रकार की पीड़ा करता है ॥ १ ॥

धने केतुरव्यग्रता किं नरेशाज्जने धान्यनाशो मुखे रोगकृच्च॥ कुटुम्बाद्विरोधोवचः सत्कृतं वा भवे-त्स्वेगृहे सौम्यगेहे ति सौख्यम् ॥ २ ॥

अन्वयः– धने [ स्थितः ) केतुःमुखे रोगकृत्, जने नरेशात् अव्यग्रता, धान्यनाशः, कुटुम्बात् विरोधः [ च] भवेत । व सत्कृतं वा किम् ? स्वे गृहे सौम्यागेहे [ च केतौ ] अतिसौख्यं [ भवेत] ॥ २ ॥

**अर्थ–**द्वितीय स्थान में रहने वाला केतु पुरुष के मुख में रोग उत्पन्न करता है, और राजा की ओर से जन में मेल नहीं करता । धान्य का नाश करता है, और कुटुम्ब से विरोध

कराता है। सत्कार से युक्त वाक्य बोलने की क्या बात ? अर्थात् कोई उससे सत्कार के साथ बोलते भी नहीं । परन्तु यदि केतु मेष वा मिथुन, वा कन्या राशिका होवें, तो अत्यन्त सुखी करता है ॥ २ ॥

शिखी विक्रमे शत्रुनाशं विवाद धनं भोगमै श्वर्यतेजोऽधिकं च ॥ सुहृद्वर्गनाशं सदा बाहुपीड़ाभयो-द्वोगचिन्ताकुलत्वं विधत्ते ॥ ३ ॥

अन्वयः– शिखी विक्रमे [ स्थितः सन् ] शत्रुनाशं विवाद, धनं, भोगं, ऐश्वर्यं, अधिकं च तेजः सुहृद्वर्गनाशं, सदा बाहुपीड़ां , भयोद्वेगचिन्ताकुलत्वं [ च ] विधत्ते ॥ ३ ॥

**अर्थ–**तृतीय स्थान में रहने वाला केतु पुरुष के शत्रु का नाश विवाद, धन भोग ऐश्वर्य और तेज की अधिकता, मित्र म-ण्डलीका ह्रास, भुजा में सदा पीड़ा, और भय घबराहट तथा चिन्ता से व्याकुल करता है ॥ ३ ॥

चतुर्थे च मातुः सुखं नो कदाचित्सुहृद्वर्गतः पैतृकं नाशमेति ॥ शिखी बन्धुवर्गात्सुखं स्वोच्चगेहे चिरं नो वसेत्स्वे गृहे व्यग्रताचेत् ॥ ४॥

**अन्वयः–**शिखी चतुर्थे [ स्यात् तर्हि ] मातुः सुहृद्वर्गतः च सुखं कदाचित् नो एति । पैतृकं ( धनं ) नाशं एति । स्वे गृहे चिरं नो वसेत् । व्यग्रता ( स्यात् चेत् ) स्वोच्चगेहे (तर्हि ) बन्धुवर्गात् सुखं [ एति ] ॥ ४ ॥

अर्थ– यदि चतुर्थ स्थान में केतु रहे, तो पुरुषको माताका और मित्रों का सुख कभी नहीं मिलता । उसके पिता का धन नष्ट हो जाता है । वह अपने निज गृह में बहुत नहीं रहता ।

वह व्यग्र रहता है । यदि केतु अपने उच्च स्थान का होवे, बन्धुओं से सुख होता है ॥ ४ ॥

यदा पंचमे राहुपुच्छं प्रयाति तदा सोदरे घातवातादिकष्टम् ॥ स्वबुद्धिव्यथा सन्ततः स्वल्पपुत्रः स दासोभवेद्वीर्ययुक्तो नरोऽपि ॥५॥

**अन्वयः–**राहुपुच्छं यदा पञ्चमे प्रयाति तदा सोदरं घातवातादिकष्ट, स्वबुद्धिव्यथा, सन्ततः (च ) भवेत् । वीर्ययुक्तःअपि सः नरः दासः भवेत् ॥ ५ ॥

अर्थ– जब केतु पुरुष के पञ्चम स्थान में जाता है, तब उसके सहोदर भ्राता शस्त्र से और वायु रोग से कष्ट पाते हैं। उसे अपनी बुद्धि से ही पीड़ा होती है । उसे सदा दो वा एक पुत्र रहते हैं। यह महा पराक्रमी हो कर भी दूसरे का ….बना रहता है ॥ ५ ॥

तमः षष्ठभागे गते षष्ठभावे भवेन्मातुलान्मानभङ्गो रिपूणाम् ॥ विनाशश्चतुष्पात्सुखं तुच्छचित्तं शरीरे सदानामयं व्याधिनाशः ॥ ६ ॥

अन्वयः– तमः षष्ठ भागे षष्ठभावे गते ( सति ) मातुलात् मानभङ्गो, रिपूणः विनाशः चतुष्पात्सुखं तुच्छचित्तं, शरीरे सदा अनामयं व्याधिनाशः [ च ] भवेत् ॥ ६ ॥

**अर्थ–**राहु का छठवाँ भाग अर्थात् केतु यदि पुरुषकेछठवेंस्थान में होवेतो उसका मामा से मानभङ्ग होता है,

शत्रुओं का नाश होता है, गौ आदि पशुओं का सुख होता है, मन छोटा होताहै, शरीर में रोग नहीं होता और व्याधियों का नाश होता है ॥ ६ ॥

शिखी सप्तमें भूयसी मार्गचिन्ता निवृत्तः स्वनाशोऽथवा वारिभीतिः ॥ भवेत्कीटगः सर्वदा लभका-रीकचत्रादिपीड़ा व्ययो व्यग्रता चेत् ॥७॥

अन्वयः– चेत्शिखी सप्तमे ( तर्हि ) मार्गचिन्ता भूयसी भवे । निवृतः स्वनाशः अथवा वारिभीतिः भवेत् । कलत्रादि पीड़ा, व्ययः व्यग्रता [ च ] भवेत् कीटगः लाभकारी भवेत् ॥७॥

**अर्थ–**यदि केतु सप्तम स्थान में होवे, तो पुरुष मार्ग चलने की चिन्ता अधिक होती है। उसके धन का नाश होवेवा जल में प्राण का भय होवे । उसकीस्त्री पुत्र आदि को पीड़ा होवे । उसका चित्त व्यग्र होवे । यदि सप्तम केतुकीटग अर्थात् वृश्चिक राशिका होवे तो सदा लाभ करता है ॥ ७॥

गुदं पीड्यतेऽर्शादिरोगैरवश्यं भयं वाहनादेः स्वद्रव्यस्य रोधः । भवेदष्टमे राहुपुच्छेऽर्थलाभः सदा कीटकन्याजगो युग्मगे तु ॥ ८ ॥

**अन्वयः–**राहुपुच्छे अष्टमगे गुदं अर्शादिरोगैः अवश्यं पीड्यते । वाहनादेः भयं द्रव्यस्य रोधः [ च] भवेत् । कीटकन्याज-गः युग्मगे तु सदा अर्थलाभः (स्यात्) ॥ ८ ॥

**अर्थ–**पुरुष के अष्टमं स्थान में के होवे, तो पुरुष बवासीर

भगन्दर आदि रोग से पीड़ा पाता है । उसे घोड़े आदि पर से गिरने का भय होता है, और उसके निज धन में रोक होती है । परन्तु यदि अष्टम केतु वृश्चिक कन्या और मेष राशि का होवे, तो सदा धन लाभ होता है ॥ ८ ॥

शिखी धर्मभावे यदा क्लेशनाशः सुतार्थी भवेन्म्लेच्छतो भाग्यवृद्धिः ॥ सहोत्यन्यथां बाहु रोगं विधत्ते तपो–दानतो हास्यवृद्धिं तदानीम् ॥ ९॥

**अन्वयः–**यदा धर्मभावे शिखी ( तदा ) क्लेशनाशः भवेत् सुतार्थी भवेत्, म्लेच्छतः भाग्यवृद्धिः (च) विधत्ते ॥ ९ ॥

अर्थ– जब केतु पुरुष के दशम स्थान में रहता है, तव उस पुरुष को क्लेश नष्ट हो जावे, वह पुत्र की इच्छा करे, और म्लेच्छ के द्वारा उसके भाग्य की वृद्धि होवे । उसे सहोदर भ्राताओं से भय होता है, बाहु रोग होता है, तपस्या और दान को लेकर लोग उसकी अधिक हँसी करते हैं ॥ ९ ॥

पितुर्नो सुखी कर्मगो यस्य केतुर्यदा दुर्भगं कष्टभाजं करोति ॥ तदा वाहने पीडितं जातु जन्म वृषा-जालिकन्यासु चेच्छत्रुनाशम् ॥ १०॥

**अन्वयः–**यदा यस्य कर्मगः केतुः तदा ( तं) दुर्भगं कष्ट भाजं (च) करोति । ( तस्य ) पितुः सुखं न करोति। वाहने पीडितं करोति । जातु चेत् जन्म वृषाजालिकन्यासु ( तर्हि ) शत्रुनाशं करोति ॥ १०॥

**अर्थ–**जब जिस पुरुष के दशम स्थान में केतु रहता है, तब उसे अभागा और कष्ट भोगने वाला करता है। उसके पिता का सुख नहीं होने देता। उसे घोड़े आदि पर चढ़ कर गिरने से पीड़ा देता है । यदि कदाचित् उसका जन्म वृष मेष वृश्चिक और कन्या राशि में होवे, तो उसके शत्रु का नाश करता है ॥१०॥

सुभाग्यः सुविद्याधिको दर्शनीयः सुगात्रः सुवस्त्रं सुतेजोऽपि तस्याः॥ दरे पीड्यते सन्ततिर्दर्भगा च शिखी लाभगः सर्वलाभं करोति ॥ ११॥

अन्वयः– लाभगः शिखी सर्वलाभं करोति । सुभाग्यः, सुविद्याधिकः, दर्शनीयः, सुगात्रः, सुवस्त्रः, सुतेजः, ( च भवति) तस्य सन्ततिः दुर्भगा (भूत्वा ) दरे पीड्यते ॥ ११ ॥

अर्थ– एदादश स्थान में रहने वाला केतु सब लाभ देता। ऐसे केतु वाला पुरुष भाग्यवान्, विद्वान् सुन्दर, उत्तम वस्त्र वाला, और बड़ा तेजस्वी होता है । उसकी सन्तान अभागी होकर पेट की पीड़ा पाती है॥११॥

शिखी रिष्फगोवस्तिगुह्यांघ्रिनेत्रेरुजा पीडनं मातुलान्नैव शर्म ॥ सदा राजतुल्यं नरे सद्व्ययं तद्रिपूणां विनाशं रणेऽसौकरोति ॥ १२ ॥

अन्वयः– असौ रिष्कगः शिखी नरं सदा राजतुल्यं सद्व्ययं रणे तद्रिपूणांविनाशं, वस्तिगुह्यांघ्रिनेत्रे रुजा पीड़नं, (च) करोति । मातुलात् ( तस्य ) शर्म न एवं करोति ॥ १२ ॥

**अर्थ–**मनुष्य के द्वादश स्थान में रहने वाला केतु मनुष्य को सदा राजा के समान करता है, उत्तम कार्य में उसका धन खर्च करता है, युद्ध में उसके शत्रुओं का नाश करता है और वस्ति ( मेढू) गुप्त इन्द्रिय पैर और नेत्र रोग से पीड़ा करता है उसको मामा से सुख नहीं होने देता ॥ १२ ॥

इति केतुभावफलानि ॥

चमत्कार चिन्तामणौ यत्खगानां फलं कीर्तितं भट्टनारायणेन ॥ पठेद्यो द्विजस्तस्य राज्ञां समक्षे प्रवक्तुं न चान्ये समर्था, भवेयुः ॥ १ ॥

अन्वयः– भट्टनारायणेन चमत्कारचिन्तामणौ खगानां यत फलं कीर्तितं ( तत् यः द्विजः पठेत् राज्ञां ( पुरतः ) तस्य समक्षे अन्ये च प्रवक्तुं न समर्था भवेयुः ॥ १ ॥

अर्थ– भट्टनारायण ने चमत्कारचिन्तामणि में ग्रहों का जो फल कहा है उसे जो ब्राह्मण पढ़ता है राजाओं के आगे उसके सम्मुख कोई दूसरा बोल नहीं सकता ॥ १ ॥

* इति भाषानुवादसहितः चमत्कारचिन्तामणिः समाप्तः *

शुभं भूयात् ॥

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रामदेव प्रसाद जी द्वारा बागेश्वरी प्रेस,
दारानगर बनारस में मुद्रित ।

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