[[सारावली Source: EB]]
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SÂRÂVALÎ
BY
KALYANAVARMAN
EDITED
BY
V. SUBRAHMANYA S’ASTRI, B. A.
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FIRST EDITION.
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PRINTED AND PUBLISHED
BY
TUKÂRÂM JAVAJÍ,
PROPRIETOR OF JAVAJÎ DÂDÂJI’S “NIRNAYA-SACARA” PRESS.
Bombay:
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1907.
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Price one Rupee and four Annas.
श्रीः ।
सारावली ।
श्रीमत्कल्याणवर्मविरचिता ।
इयं
वे० सुब्रह्मण्यशास्त्री बि. ए. इत्येतैः
पाठान्तरैः संस्कृता
मुम्बय्यां
तुकाराम जावजी
इत्येतैः स्वीये निर्णयसागराख्यमुद्रणयन्त्रालये
संमुद्र्य प्राकाश्यं नीता ।
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शाकः १८२९, सन १९०७.
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मूल्यं सपादं रूप्यम् ।
PREFACE.
** **IT was in the course of my study of Jatakaparijata five years ago that I became aware of the existence of the standard work on Astrology called Saravali.Vaidyanatha Dikshita,the learned compiler of Jatakaparijata expressly states that his astrological production is but an epitome of this great work.For he says:—संगृह्य सारावलिमुख्यततन्त्रंकरोम्यहं जातकपारिजातम्॥
In my attempts to make out the ambiguous portion of certain slokas in Jatakaparijata, I had to refer to Brihat Jataka and its commentary by Bhattotpala to decide upon the right interpretation of the dubious passages.I found that Bhattotpala who lived in the time of Emperor Jehangir supported his explanations of the passages in Varahamihira’s work by largely quoting from Saravali,because its authority on astrological points was undisputedly acknowledged in his time.Balabhadra who lived as a Court astrologer of Shah Shuja has embodied nearly one half of Saravali, in his work entitled Horaratna; for almost in every page, he says:—तथा च कल्याणवर्मा (the author of Saravali). Mallinatha, the celebrated commentator mentions Kalyanavarman and Varahamihira giving quotations from their works Saravali and Brihata Jataka to explain certain astrological references in the Kavya Sisupalavadha of Magha. These facts made me long for a copy of the eminent work in order to improve my knowledge of Astrology. I wrote to several well–known booksellers, but could not get any copy of the work-Manuscript or printed-from them. At last,it was my good fortune to get a loan of imperfect manuscripts of this work from the Government Oriental Library, Mysore,from Mr. Pandit Krishniengar of the Native College,Madura,from Mr.Narasimha Sastrial of Kankanhalli (Bangalore District) and from the Palace Library of His Highness the Maharaja of Mysore.And I take this opportunity of expressing my deep indebtedness to them all.From these four manuscripts I was able to piece out nearly the whole work.For in the colophon of the Kankanhalli manuscript, the last chapter is numbered
PREFACE.
the 56th.So the work must be in 56 chapters.But I could collect from these manuscripts only 54 chapters.The missing two chapters should be sought in some manuscripts yet to be found. From my perusal of the work,I am able to say that they should relate to Nashta Jataka.
The author Kalyanavarman appears to have flourished between the ages of Varahamihira and Bhattotpala.The style of the work is chaste and flowing.The information is certainly more copious and valuable than can be found in any of the current astrological works.
To such of us as believe in the doctrine of metempsychosis, astrology is irresistibly attractive.For, by its aid, we can trace our condition in our past births. It reveals to us the forces that help or retard our progress hereafter and enables us to estimate with some precision the amount of exertion to be put forth to attain the summumbonum of life.
Being but a learner in astrology, I am unable to treat of the subject adequately. If the stray remarks that I have made will create an interest in the work now presented to the public and make it widely read, I would feelamply rewarded for my trouble.
Chamarajendrapete,
Bangalore City. V. SUBRAHMANYA SASTRI.
15th February 1907.
सारावलीविषयानुक्रमः ।
| अध्यायः | विषयः | पृष्ठं. | श्लोकः | |||||
| १ | शास्त्रावतारः | … | … | … | … | … | १ | ६ |
| २ | होराशब्दार्थचिन्ता | … | … | … | … | … | २ | ५ |
| ३ | होराराशिभेदः | … | … | … | … | … | २ | ४१ |
| ४ | ग्रहयोनिभेदः | … | … | … | … | … | ५ | ३९ |
| ५ | मिश्रकाध्यायः | … | … | … | … | … | १० | ५२ |
| ६ | कारकाध्यायः | … | … | … | … | … | १४ | ६ |
| ७ | कारकाध्यायः | …. | … | … | … | … | १५ | १५ |
| ८ | आधानाध्यायः | … | … | … | … | … | १६ | ६२ |
| ९ | सूतिकाध्यायः | …. | … | … | … | … | २१ | ५० |
| १० | अरिष्टाध्यायः | … | … | … | … | … | २५ | ११७ |
| ११ | चन्द्रारिष्टभङ्गाध्यायः | … | … | … | … | … | ३४ | १७ |
| १२ | अरिष्टभङ्गाध्यायः | … | … | … | … | … | ३५ | १५ |
| १३ | चन्द्रविधि ( सुनफा, अनफा, दुरुधुरायोगाः) | … | … | … | … | … | ३७ | ३३ |
| १४ | वेशिवाश्युभयचरीयोगाः | … | … | … | … | … | ४० | १२ |
| १५ | द्विग्रहयोगाः | … | … | … | … | … | ४१ | २३ |
| १६ | त्रिग्रहयोगाः | … | … | … | … | … | ४३ | ३८ |
| १७ | चतुर्ग्रहयोगाः | … | … | … | … | … | ४६ | ३५ |
| १८ | पञ्चग्रहयोगाः | … | … | … | … | … | ४८ | २२ |
| १९ | षट्ग्रहयोगाः | … | … | … | … | … | ५० | ८ |
| २० | प्रव्रज्याध्यायः | … | … | … | … | … | ५१ | ३७ |
| २१ | नाभसयोगाः | … | … | … | … | … | ५४ | ८६ |
| २२ | आदित्यचारदृष्टियोगः | … | … | … | … | … | ५८ | २४ |
| २३ | चन्द्रचारदृष्टियोगः | … | … | … | … | … | ६६ | ६६ |
| २४ | अंशकदर्शनेचन्द्रचारः | … | … | … | … | … | ७१ | ६६ |
| २५ | अङ्गारकचारः | … | … | … | … | … | ७३ | ६६ |
| २६ | बुधचारः | … | … | … | .. | … | ७८ | ६६ |
| २७ | गुरुचारः | … | … | … | … | … | ८४ | ६६ |
| २८ | शुक्रचारः | … | … | … | … | … | ८९ | ६६ |
| २९ | सौरचारः | … | … | … | … | … | ९४ | ६६ |
| ३० | भावाध्यायः | … | … | … | … | … | १०० | ८७ |
| ३१ | यन्तरयोगाध्यायः | … | … | … | … | … | १०७ | ८७ |
| अध्यायः | विषयः | पृष्टं. | श्लोकः | |||||
| ३२ | भाग्यचिन्ता | … | … | … | … | … | ११३ | ११२ |
| ३३ | कर्मचिन्ता | … | … | … | … | … | १२१ | ८२ |
| ३४ | लोकयात्रा… | … | … | … | … | … | १२८ | ७८ |
| ३५ | राजयोगाध्यायः | … | … | … | … | … | १३४ | १८६ |
| ३६ | रश्मिचिन्ता | … | … | … | … | … | १५४ | २९ |
| ३७ | पञ्चमहापुरुषयोगाः | … | … | … | … | … | १५६ | ४४ |
| ३८ | राजयोगभङ्गाध्यायः | … | … | … | … | … | १६१ | २४ |
| ३९ | आयुर्दायाध्यायः | … | … | … | … | … | १६३ | २५ |
| ४० | मूलदशाफलम् | … | … | … | … | … | १६५ | ७५ |
| ४१ | अन्तर्दशाफलम् | … | … | … | … | … | १७१ | ६० |
| ४२ | दशारिष्टफलम् | … | … | … | … | … | १७६ | ४ |
| ४३ | दशारिष्टभङ्गाध्यायः | … | … | … | … | … | १७७ | ३ |
| ४४ | उच्चादिचिन्तनम् | … | … | … | … | … | १८० | ४५ |
| ४५ | स्त्रीजातकफलम् | … | … | … | … | … | १८३ | ३२ |
| ४६ | निर्याणफलम् | … | … | … | … | … | १८३ | ४५ |
| ४७ | नष्टजातके लग्नगुणाः | … | … | … | … | … | १८७ | ४९ |
| ४८ | " होरागुणाः | … | … | … | … | … | १९० | २५ |
| ४९ | " द्रेष्काणगुणाः | … | … | … | … | … | ११३ | ३७ |
| ५० | " नववर्गगुणचिन्ता | … | … | … | … | … | १९६ | १० |
| ५१ | नष्टजातकाध्यायः | … | … | … | … | … | १९६ | २० |
| ५२ | अष्टकवर्गाध्यायः | … | … | … | … | … | २०४ | १० |
| ५३ | वियोनिजन्माध्यायः | … | … | … | … | … | २०७ | ५६ |
| ५४ | उपसंहाराध्यायः | … | … | … | … | … | २१२ | १२ |
२५२९
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श्रीः ।
सारावली ।
श्रीमत्कल्याणवर्मसूरिविरचिता ।
प्रथमोऽध्यायः ।
श्रीगणेशाय नमः ।
यस्योदये जगदिदं प्रतिबोधमेति
मध्यस्थिते प्रसरति प्रकृतिक्रियासु
अस्तं गते स्वपिति चोच्छ्वसितैकमार्तं1
भाव2त्रये स जयति प्रकटप्रभावः ॥१॥
विस्तरकृतानि मुनिभिः परिहृत्य3 पुरातनानि शास्त्राणि ।
होरातन्त्रं रचितं वराहमिहिरेण संक्षेपात् ॥२॥
राशिदशवर्गभूपतियोगायुर्दायतो दशादीनाम्4 ।
विषयविभागं स्पष्टं कर्तुं न तु शक्यते यतस्तेन ॥३॥
अत एव विस्तरेभ्यो यवननरेन्द्रादिरचितशास्त्रेभ्यः ।
सकलमसारं त्यक्त्वा तेभ्यः5 सारं समुद्ध्रियते ॥४॥
देवग्रामपुरप्रपोषणबलाद्ब्रह्माण्डसत्पञ्जरे
कीर्तिर्हंसविलासिनीव सहसा यस्येह भात्यातता ।
श्रीमद्व्याघ्रपदीश्वरो रचयति स्पष्टां स सारावलीं
होराशास्त्रविनिर्मलीकृतमनाः कल्याणवर्मा कृती ॥५॥
होरातृष्णार्तानां शिष्याणां स्फुटतरार्थशिशिरजला।
कल्याणवर्मशैलान्नदीव सारावली प्रसृता ॥६॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां शास्त्रावतारो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥
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विधात्रा लिखिता यासौ ललाटेऽक्षरमालिका।
दैवज्ञस्तां पठेव्द्यक्तं होरानिर्मलचक्षुषा ॥१॥
आद्यन्तवर्णलोपाद्धोराशास्त्रं भवत्यहोरात्रम्6 ।
तत्प्रतिबद्धश्चायं ग्रहभगणश्चिन्त्यते यस्मात् ॥२॥
कर्मफललाभहेतुं चतुरा’‘‘‘‘‘‘‘‘‘वर्णयन्त्यन्ये ।
होरेति शास्त्रसंज्ञा लग्नस्य तथार्धराशेश्च ॥३॥
जातकमिति प्रसिद्धं यल्लोके तदिह कीते होरा
अथवा दैवविमर्शनपर्यायः खल्वयं शब्दः ॥४॥
अर्थार्जने सहायः पुरुषाणामापदर्णवे पोतः ।
यात्रासमये मन्त्री जातकमपहाय नास्त्यपरः ॥५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां होराशब्दार्थचिन्ता नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥
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तृतीयोऽध्यायः ।
तमसावृते समन्ताज्जलभूते भूतले ततोऽकस्मात् ।
उदितो भगवान् भानुः प्रकाशयन् स्वप्रकाशेन ॥१॥
व्यसृजज्जगत्समस्तं ग्रहर्क्षसंघातकल्पितावगतम्7 ।
द्वादश8भेदैश्चित्रः कालः संप्रस्तुतस्तस्मात् ॥२॥
मेषवृषमिथुनकर्कटसिंहाः कन्या तुलाथ9 वृश्चिककः ।
धन्वी मकरः कुम्भो मीनाविति राशिनामानि ॥३॥
कुम्भः कुम्भधरो नरोऽथ मिथुनं वीणागदाभृन्नरो
मीनौ मीनयुगं धनुश्च सधनुः पश्चाच्छरीरो हयः ।
एणास्यो मकरः प्रदीपसहिता कन्या च नौसंस्थिता
शेषो राशिगणः स्वनामसदृशो धत्ते तुलाभृत्तुलाम् ॥४॥
शीर्षास्यबाहुहृदयं जठरं कटिबस्तिमेहनोरुयुगम् ।
जानू10 जङ्घे चरणौ कालस्याङ्गानि राशयोऽजाद्याः ॥५॥
कालनरस्यावयवान्पुरुषाणां कल्पयेत्प्रसवकाले ।
सदसग्रहसंयोगात्पुष्टान् सोपद्रवांश्चापि ॥६॥
मेषादीनां क्रियतावुरुजुतुमकुलीरलेयपाथोनाः
संज्ञास्तु जूककौर्पिकतौक्षाकोकेरहृदयरोगान्त्याः ॥७॥
ऋक्षं भवननामानि राशिः क्षेत्रं भमेव वा ।
उक्तानि पूर्वमुनिभिस्तुल्यार्थप्रतिपत्तये ॥८॥
द्वादशमण्डलभ11गणं तस्यार्धे सिंहतो रविर्नाथः।
कर्कटकात्प्रतिलोमं शशी तथान्येऽपि तत्स्थानात् ॥९॥
भानोरर्धे विहगैः शूरास्तेजस्विनश्च साहसिकाः।
शशिनो मृदवः सौम्याः सौभाग्ययुताः प्रजायन्ते ॥१०॥
कुजभृगुबुधेन्दुरविशशिसुतसितरुधिरार्यमन्दशनिजीवाः।
गृहपा नवभागानामजमृगतुलकर्कटाश्चाद्याः ॥११॥
भवनाधिपैः समस्तं जातकविहितं विचिन्तयेन्मतिमान् ।
एभिर्विना न शक्यं पदमपि गन्तुं महाशास्त्रे ॥१२॥
वर्गोत्तमा नवांशास्तथादिमध्यान्तगाश्चराद्येषु ।
सूतौ कुलमुख्यकरा द्वादश भागाः स्वराश्याद्याः ॥१३॥
स्वर्क्षसुतनवमभेशाद्रेक्काणानां क्रमाच्चहोराणाम् ।
रविचन्द्राविन्दुरवी विषमसमेष्वर्धराशीनाम् ॥१४॥
शरपञ्चाष्टमुनीन्द्रियभागास्त्रिंशांशकास्तु विषमेषु।
युग्मेषूत्क्रमगण्याः कुजार्किजीवज्ञशुक्राणाम् ॥१५॥
मेषालिमिथुनमृगहरिमीनतुलावृषभचापधरकर्की ।
घटधरकन्यापूर्वाः सप्तांशानां भवन्तीशाः ॥१६॥
पष्टिर्होरात्रिंशच्चूडपदानां द्विसप्ततिसमेताः।
लिप्तानामष्टादशशतानि परिवर्तनैः स्वगृहात् ॥१७॥
लग्नादीनां लिप्ता ज्ञेयाः स्वगृहादिवर्गसंगुणिताः।
अष्टादशशतभक्ताल्लब्धः स्यादीप्सितो वर्गः ॥१८॥
एतेषां गुणदोषान् विस्तरतो नष्टजातके वक्ष्ये ।
एभिः स्पष्टतरं तत्प्रत्यक्षपरीक्षणं यस्मात् ॥१९॥
अजादितः क्रूरशुभौ पुमांस्त्री चरः स्थिरो मिश्रतनुश्च दृष्टाः।
कुलीरमीनालिगृहान्तसन्धिं वदन्ति गण्डान्तमिति प्रसिद्धम् २०
जातो न जीवति नरो मातुरपथ्यो भवेत्स्वकुलहन्ता।
यदि जीवति गण्डान्ते बहुगजतुरगो भवेद्भूपः ॥२१॥
ऐन्द्राद्यं परिवर्तैस्त्रितयं त्रितयं त्रिभिस्तु मेषाद्यैः।
एभिर्दिक्षु निबद्धैर्यात्रादि विकल्पयेत्का12र्ये ॥२२॥
नरपशुवृश्चिकजलजा यथाक्रमं प्राग्दिगादिगा बलिनः।
निशि दिवसे सन्ध्यायां पशवः पुरुषो मृगालिकर्किझषाः ॥२३॥
नक्तंबला मिथुनकर्किमृगाजगोश्वा
द्युःश्रेष्ठका हरितुलालिघटान्त्यकन्याः।
पृष्ठोदयाः समिथुना मिथुनं विहाय
शेषाः शिरोभिरुदयन्त्युभयेन मीनः ॥२४॥
आत्मीयनाथदृष्टः सहितस्तेनैव तत्प्रयैर्वापि।
शशिसुतजीवाभ्यामपि राशिर्बलवान्नचेच्छेषैः ॥२५॥
तन्वर्थसहजबान्धवपुत्रारिस्त्रीविनाशपुण्यानि।
कर्मायव्ययभावा लग्नाद्या भावतश्चिन्त्याः ॥२६॥
श13क्तिधनपौरुषगृहप्रतिभावणकामदेहविवराणि।
गुरुमानभवव्ययमिति कथितान्यपराणि नामानि ॥२७॥
संज्ञा वेश्माष्टमयोश्चतुरश्रं वै तपश्च नवमस्य।
होरास्तदशजलानां चतुष्टयं कण्टकं केन्द्रम् ॥२८॥
नामानि चतुर्थस्य तु सुखजलपातालबन्धुहिबुकानि।
कर्माज्ञामेषूरणगगनाख्यं कीर्त्यते दशमम् ॥२९॥
धर्मसुतयोस्त्रिकोणं सुतस्य धीस्त्रित्रिकोणमि14ति तपसः।
द्यूनं जायास्तमयं जामित्रं सप्तमस्याख्या ॥३०॥
षट्कोणं रिपुभवनं तृतीयमथ कीर्तयन्ति दुश्चिक्यम्।
रिःफं द्वादशभवनं द्वितीयसंज्ञं कुटुम्बं च ॥३१॥
केन्द्रात्परं पणफरमापोक्लिमसंज्ञितं तयोः परतः।
बालयुवस्थविरत्वे क्रमेण फलदा ग्रहास्तेषु ॥३२॥
षट्शभवदुश्चिक्यान्युपचयसंज्ञानि कीर्त्यन्ते।
स्वतनुसुखसुतास्ततपश्छिद्रव्ययसंज्ञितानिचान्यानि ॥३३॥
सिंहवृषमेषकन्या कार्मुकभृत्तौलिकुम्भधराः।
सूर्यादीनामेते त्रिकोणभवनानि कथ्यते ॥ ३४॥
सूर्यादीनामुच्चाः क्रियवृषमृगयुवतिकर्किमीनतुलाः।
स्वोच्चगृहकथितभागा यथाक्रमेणैव परमोच्चाः ॥३५॥
दिग्वन्ह्यष्टाविंशतितिथिबाणत्रिघनविंशतयः।
स्वोच्चात्सप्तमराशिर्नीचः स्यादंशकात्परमम् ॥३६॥
हस्वास्तिमिगोजघटा मिथुनधनुःकर्किमृगमुखाश्च समाः।
वृश्चिककन्यामृगपतिवणिजो दीर्घाः समाख्याताः ॥३७॥
एभिर्लग्नाधिगतैः शीर्षप्रभृतीनि वै शरीराणि।
सदृशानि विजायन्ते युतगगनचरैश्च तुल्यानि ॥३८॥
भवनाधिपदिङ्नाम प्लव इति यवनैः प्रयत्नतः कथितः।
तत्प्लवगो विनिहन्यादचिरेण महीपतिः शत्रून् ॥३९॥
लोहितसितशुकहरिताः पाटलपरिधूम्रपाण्डुचित्राश्च।
कृष्णकनकाभपिङ्गाः कर्बुरबभ्रूत्वजादिवर्णाः स्युः ॥४०॥
जन्मोदयगृहवर्णा तदधिपतेः पूजिता प्रतिमा।
हन्ति हरेरिह शत्रूनिन्द्रध्वजिनीव देवरिपून् ॥४१॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां होराराशिभेदो
नाम तृतीयोऽध्यायः॥
चतुर्थोऽध्यायः।
आत्मा रविः शीतकरस्तु चेतः सत्वं धराजः शशिजोऽथ वाणी।
ज्ञानं सुखं देवगुरुर्मदश्च शुक्रः शनिः कालनरस्य दुःखम् ॥१॥
आत्मादयो गगनगैर्बलिभिर्बलवत्तराः।
दुर्बलैर्दुर्बलास्ते तु विपरीतं शनेः फ15लम् ॥२॥
यथायथा लग्नगृहाश्रयाणां समुद्गमो भूरिविकल्पनानाम्।
तथातथा शैलनवाष्टसंख्याः क्रमेण कालावयवाः प्रसूताः ॥३॥
लग्नात्तक्षणमुदितं वा16माङ्गगमथाबलम्।
सव्यार्द्धादितर17त्तस्य नोद्गतं सं18बलं च तत् ॥४॥
मूर्धालोचनकर्णग19न्धवहनं गण्डौ हनुश्चाननं
ग्रीवास्कन्धभुजं तु पार्श्वहृदयक्रोडाश्च नाभिः पुनः।
बस्तिर्लिङ्गगुदे च मुष्कयुगलं चोरुद्वयं जानुनी
जङ्घे पादयुगं विलग्नभवनात्पार्श्वद्वये कल्पिताः ॥५॥
पापा व्रणं लाञ्छनमेषु20 सौम्याः स्वांशे स्वराशावथवा स्थितेषु।
कुर्वन्ति जन्मोत्थितमेषु चिह्नमेषु21 ग्रहास्तद्विपरीतसंस्थाः ॥६॥
राजा रविः शशधरस्तु22बुधः कुमारः
सेनापतिः क्षितिसुतः सचिवौ सितेज्यौ।
भृत्यस्तयोश्च रविजः सबला नराणां
कुर्वन्ति जन्मसमये निजमेव सं23त्वम् ॥७॥
भानुः शुक्रः क्षमापुत्रः सैंहिकेयः शनिः शशी।
सौम्यस्त्रिदशमन्त्री च प्राच्यादिदिगधीश्वराः ॥८॥
गुरुबुधशुक्राः सौम्याः सौरिकुजार्कास्तु निग24दिताः पापाः।
शशिजोऽशुभसंयुक्तः क्षीणश्च निशाकरः पापः ॥९॥
हेलिर्भानुः शशी चन्द्रः क्रूरा25क्षः क्षितिनन्दनः।
आरो रक्तस्तथा वक्रो हेम्नोविद् ज्ञोऽथ बोधनः ॥१०॥
ईड्येज्यावङ्गिरा जीव आस्फुजिच्च सितो भृगुः।
मन्दः कोणो यमः कृष्णो विद्यादन्यानि लोकतः ॥११॥
ताम्रसितारुणहरितकपीतविचित्रासिता इनादीनाम् ।
पावकजलगुहकेशवशक्रशचीवेधसः पतयः ॥१२॥
अर्कादिग्रहदैवतमन्त्रैः सम्पूज्य तामाशाम् ।
कनकगजवाहनादीन्प्राप्नोति गतोऽरितः शीघ्रम् ॥१३॥
स्त्रीणां चन्द्रसितौ नपुंसकपती सोमात्मजार्कात्मजौ
पुंसां जीवदिवाकरक्षितिसुता विप्रस्य शक्रोऽङ्गिराः।
राज्ञां सूर्यकुजौ विशां शशधरो मिश्रस्य मन्दो बुधः
शूद्राणां शिखिभूखतोयमरुतां भौमादयः कीर्तिताः ॥१४॥
कटुलवणतिक्तमिश्रितमधुराम्लकषायरसविशेषाणाम्।
सुरगृहकाग्निविहारार्थशयनपांसूत्कराणां च ॥१५॥
वस्त्राणां स्थूलाहतशिखिजलहतमध्यदृढसुजीर्णानाम्।
ताम्रमणिहेममिश्रितरूप्यकमुक्तायसां वाऽपि ॥१६॥
अयनक्षणदिवसर्तुकमासतदर्धशरदां दिनेशाद्याः।
शिशिरादीनामीशाः शनिसितभौमेन्दुबु26धजीवाः ॥१७॥
लग्नाधिपतेस्तुल्यः कालो लग्नोदितांशकसमाख्यः।
वक्तव्यो रिपुविजयो गर्भेषु च कार्यसंयोगे ॥१८॥
ऋग्वेदाधिपतिर्जीवो यजुर्वेदपतिः सितः।
सामवेदाधिपो वऋः शशिजोऽथर्ववेदराट् ॥१९॥
सुरपूज्यः शशिशुक्रौ दिनकरभौमौ बुधार्कजौ नाथाः।
विबुधमनुष्यपितॄणां तिर्यङ्नरकाधिवासानाम् ॥२०॥
स्वल्पाकुञ्चितमूर्धजः पटुमतिर्मुख्यस्वरूपस्वनो
नात्युच्चो मधुपिङ्गचारुनयनः शूरः प्रचण्डः स्थिरः।
रक्तश्यामतनुर्विगूढचरणः पित्तास्थिसारो महान्
गम्भीरश्चतुरश्रकः पृथुकरः कौसुम्भवासा रविः ॥२१॥
सौम्यः कान्तविलोचनो मधुरवाग्गौरः कृशाङ्गो युवा
प्रांशुः सूक्ष्मनिकुञ्चितासितकचः प्राज्ञो मृदुः सात्विकः।
चारुर्वातकफात्मकः प्रियसखो रक्तैकसारो घृणी
वृद्धस्त्रीषु रतश्चलोऽतिसुभगः शुभ्राम्बरश्चन्द्रमाः ॥२२॥
ह्रस्वः पिङ्गललोचनो दृढवपुर्दीप्ताग्निकान्तिश्चलो
मज्जावानरुणाम्बरः पटुतरः शूरश्च निष्पन्नवाक्।
हृ27स्वाकुञ्चितकेशदीप्ततरुणः पित्तात्मकस्तामस–
श्रण्डः साहसिको विघातकुशलः संरक्तगौरः कुजः ॥२३॥
रक्तान्तायतलोचनो मधुरवाक् दूर्वादलश्यामल-
स्त्वक्सारोऽतिरजोधिकः स्फुटवचाः स्फीतस्त्रिदोषात्मकः।
हृष्टो मध्यमरूपवान् सुनिपुणो वृत्तः शिराभिस्ततः
सर्वस्यानुकरोति वेषवचनैः पालाशवासा बुधः ॥२४॥
ईषत्पिङ्गललोचनश्रुतिधरः सिंहाच्छनादः स्थिरः
सत्वाढ्यः सुविशुद्धकाञ्चनवपुः पीनोन्नतोरस्थलः।
ह्रस्वो धर्मरतो विनीतनिपुणो बद्धोत्कटाक्षः क्षमी
स्यात्पीताम्बरधृ28क्कफात्मकतनुर्मेदःप्रधानो गुरुः ॥२५॥
चारुदीर्घभुजः पृथूरुवदनः शुक्लालिकः कान्तिमान्
कृष्णाकुञ्चितसूक्ष्मल29म्बिचिकुरो दूव30दिलश्यामलः।
कामी वातकफात्म31कोऽतिसुभगश्वित्राम्बरो राजसो
लीलावान्मतिमान्विशालनयनः स्थूलां32सदेशः सितः ॥२६॥
पिङ्गो निम्नविलोचनः कृशतनुर्दीर्घः सिरालोऽलसः
कृष्णाङ्गः पवनात्मकोऽतिपिशुनः स्नाय्वाततो निर्घृणः।
मूर्खः स्थूलनखद्विजोऽतिमलिनो रूक्षोऽशुचिस्तामसो
रौद्रः क्रोधपरो जरापरिणतः कृष्णाम्बरो भास्करिः ॥२७॥
मित्राणि सूर्याद्गुरुभौमचन्द्राः सूर्येन्दुपुत्रौ रविचन्द्रजीवाः।
भानुश्च शुक्रः शशिसूर्यभौमा मन्देन्दुजौ शुक्रबुधौ क्रमेण ॥२८॥
शुक्रार्कजौ चन्द्रमसो न कश्चित्सौम्यः शशी शुक्रबुधौ रवीन्दू ।
सोमार्कवक्रा रवितस्त्वमित्रा मित्रारिशेषो न सुहृन्न शत्रुः ॥२९॥
व्ययाम्बुधनखायेषु तृतीये सुहृदः स्थिताः।
तत्कालरिपवः षष्ठसप्ताष्टैकत्रिकोणगाः ॥३०॥
हितसमरिपुसंज्ञा ये निसर्गान्निरुक्ता
हिततमहितमध्यास्तेऽपि तत्कालमित्रैः।
रिपुसमसुहृदाख्याः सूतिकाले ग्रहेन्द्रा
अतिरिपुरिपुमध्याः शत्रुभिश्चिन्तनीयाः ॥३१॥
संप33श्यन्ति स्थानात् सदा ग्रहाश्चरणवृद्धितः सर्वे।
त्रिदशत्रिकोणचतुरश्रसप्तमानां फलं क्रमेणैव ॥३२॥
पूर्णंपश्यति रविजस्तृतीयदशमं त्रिकोणमपि जीवः।
चतुरस्रं भूमिसुतो द्युनं च सितार्कशशिबुधाः क्रमशः ॥३३॥
दिक्स्थानकालचेष्टाकृतं बलं सर्वनिर्णयविधाने ।
वक्ष्ये चतुष्प्रकारं ग्रहस्तु रिक्तो भवेदबलः ॥३४॥
लग्ने जीवबुधौ दिवाकरकुजौ व्योम्नि स्मरे भास्करि–
र्बन्धाविन्दुसितौ दिशाकृतमिदं स्खोञ्चस्वकोणे स्वभे।
मित्रस्वांशकसंस्थितः शुभफलैर्दृष्टो बलीयान् ग्रहः
स्त्रीक्षेत्रे शशिभार्गवौ नरगृहे शेषा बले स्थानजे ॥३५॥
जीवार्कास्फुजितोऽह्नि विच्च सततं मन्देन्दुभौमा निशि
होरामासदिनाब्दपाश्च बलिनः सौम्याः सितेऽन्येऽसिते।
सङ्ग्रामे जयिनो विलोमगतयः संपूर्णगावो ग्रहाः
सूर्येन्दू पुनरुत्तरेण बलिनौ सत्योक्तचेष्टाबले ॥३६॥
उत्तरमयनं प्राप्ताः शुक्रकुजार्केन्द्रमन्त्रिणो बलिनः।
याम्यं शशिरविपुत्रौ द्वयेऽपि शशिजः स्ववर्गस्थः ॥३७॥
स्त्री34पुंनपुंसकाख्याः क्षेत्रेष्वाद्यन्तमध्यसंप्राप्ताः।
सूर्यान्निर्गत्य सदा नवोदिता यवनराजमतम् ॥३८॥
प्राग्रात्रिभागेऽतिबलः शशाङ्कः शुक्रो निशार्धेऽवनिजो निशान्ते।
प्रातर्बुधो मध्यदिने च सूर्यः सर्वत्र जीवोऽर्कसुतो दिनान्ते ॥३९॥
कृष्णारबुधगुरुसिताः शशिसूर्यावुत्तरोत्तरं बलिनः।
सा35धारणबलमेतद्वलसाम्ये चिन्तयेत्प्राज्ञः ॥४०॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां ग्रहयोनिभेदो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥
पञ्चमोऽध्यायः।
राशिप्रभेदसंज्ञः कथितो ग्रहयोनिभित्तिरध्यायः।
सर्वव्यापकमधुना कथयिष्ये मिश्रकं नाम ॥१॥
दीप्तः स्वस्थो मुदितः शान्तःशक्तो नि36पीडितो भीतः।
विकलः खलश्च कथितो नवप्रकारो ग्रहो हरिणा ॥२॥
स्वोच्चेभवति च दीप्तः स्वस्थः स्वगृहे सुहृद्गृहे मुदितः।
शान्तः शुभवर्गस्थः शक्तः स्फुटकिरणजालश्च ॥३॥
विकलो रविलुप्तकरो ग्रहाभिभूतो37 निपीडितश्चैवम् ।
पापगणस्थश्च खलो नीचे भीतः समाख्यातः ॥४॥
दीप्ते विचरति पुरुषः प्रतापविषमाग्निदग्धरिपुव38र्गः।
लक्ष्म्यालिङ्गितदेहो गजमदसंसिक्तभूपृष्ठः ॥५॥
स्वस्थः करोति जन्मनि रत्नानि सुखानि कनकपरिवारान्।
नृपतेर्दण्डपतित्वं गृहधान्यकुटुम्बपरिवृद्धिम् ॥६॥
मुदिते विलसति मुदितो विलासिनीकनकरत्नपरिपूर्णः।
विजितसकलारिपक्षः समस्तसुखभाङ् न39रो भवति ॥७॥
शान्ते प्रशान्तचित्तः सुखधनभागी महीपतेः सचिवः।
विद्वान् परोपकारी धर्मपरो जायते पु40रुषः ॥८॥
स्त्रीवस्त्रमाल्यगन्धैर्विलसति पुरुषः सदा विततकीर्तिः।
दयितः सर्वजनस्य च शक्ताख्ये भवति विख्यातः ॥९॥
दुःखैर्व्याधिभिररिभिःप्र41पीड्यते पीडिताख्ये तु ।
देशाद्देशं विचरति बन्धुवियोगाभिसंतप्तः ॥१०॥
बहुसाधनोऽपि राजा प्रध्वस्तबलः प्रपीडितो रिपुणा।
नाशमुपयाति विजितो भीते दैन्यं परं प्राप्तः ॥११॥
स्वस्थानपरिभ्रष्टः क्लिष्टो मलिनः प्रयाति परदेशम्।
विध्वस्तब42लो विकले रिपुबलसंचकितचित्तश्च ॥१२॥
स्त्रीभरण43दुःखतप्तः समस्तधननाशकलुषितमनस्कः।
न जहाति शोकभारं कथमपि खलसंज्ञिते पुरुषः ॥१३॥
उच्चराशौ विलोमे च बलं44 नान्यैरिहेष्यते45 ।
कालस्यातिबहुत्वाच्च तस्मात्स्वोच्चेऽतिवक्रिते ॥१४॥
स्वोच्चाश्रिताः श्रेष्ठबला भवन्ति मूलत्रिकोणे स्वगृहे च मध्याः।
इष्टेक्षिता मित्रगृहाश्रिता वा वीर्यं कनीयः समुपोद्वहन्ति ॥१५॥
शुक्लप्रतिपद्दशके मध्यबलः कीर्त्यते यवनवृद्धैः।
श्रेष्ठो द्वितीयदशके स्वल्पबलश्चन्द्रमास्तृतीये च ॥१६॥
आहितकलासमूहः प्रसन्ननिजमण्डलः सुपरिपूर्णः।
अप्रतिहतमिह कुरुते भूतिबलमुडुगणाधिपतिः ॥१७॥
चन्द्राध्यासितराशेर्नाथो लग्नाधिपोऽपि46 वा यस्य।
केन्द्रे सुरगुरुमन्त्री47 वयसो मध्ये सुखं तस्य ॥१८॥
राशेस्तदीश्वरस्य च बलेन परिकल्प्यमृक्षभेदफलम् ।
युगपत्फलोपलब्धेरवधृतिरेकस्य कर्तव्या ॥१९॥
होराग्रहबलसाम्ये निसर्गजं चिन्तनीयमाचार्यैः।
लग्नाधिपतेस्तुल्यं48 बलमिह चूडामणिर्वदति ॥२०॥
उच्चबलं कन्यायां बुधस्य तुङ्गांशकैः सदा चिन्त्यम् ।
परतस्त्रिकोणजातं पञ्चभिरंशैः स्वराशिजं परतः ॥२१॥
उच्च भागत्रितयं वृष इन्दोश्च त्रिकोणमपरेंऽशाः।
द्वादशभागा मेषे त्रिकोणमपरे स्वभं तु भौमस्य ॥२२॥
दशभागा ईड्यस्य च त्रिकोणमपरे स्वभं चापे ।
शुक्रस्य तु त्रिकोणं पञ्चभिरपरे स्वभं जूके ॥२३॥
विंशतिरंशाः सिंहे त्रिकोणमपरे स्वभवनमर्कस्य।
कुम्भे त्रिकोणनिजभे रविजस्य यथा रवेःसिंहे ॥२४॥
स्वोच्चस्थितः शुभफलं प्रकरोति पूर्णं
नीचर्क्षगस्तु विफलं रिपुमन्दिरेऽल्पम्।
पादं शुभस्य हितभे स्वगृहे हितार्धं
पादत्रयं गगनगः स्थितवांस्त्रिकोणे ॥२५॥
नीचर्क्षगः सकलमेव करोति पापं
न्यूनं च किंचिदरिमे विफलं स्वतुङ्गे ।
पादत्रयं हितगृहे विहगोऽशुभस्य
स्वर्क्षे दलं च चरणं स्थितवांस्त्रिकोणे ॥२६॥
औत्पातिकाः सवितृलुप्तकरा विरुक्षा
नीचं गता रिपुगृहं च नभश्चरेन्द्राः ।
युद्धे जिताः शुभफलानि विनाशयन्ति
पापानि यानि सुतरां परिवर्धयन्ति ॥२७॥
उच्चबलेन समेतः परां विभूतिं ग्रहः प्रसाधयति ।
पुंसामथ साचिव्यं त्रिकोणबलवान् बलपतित्वम् ॥२८॥
स्वर्क्षबलेन च सहितः प्रमुदितधनधान्यसंपदाक्रान्तम् ।
मित्रबलेन च युक्तो जनयति कीर्त्यान्वितं पुरुषम् ॥२९॥
तेजस्विनमतिसुभगं सुस्थिरविभवं नृपाञ्च लब्धधनम् ।
निजहोराबलयुक्तो जनयति विक्रान्तमतिचिन्त्यम् ॥३०॥
स्वद्रेक्काणबलेनाहीनो गुणभाजनं ग्रहः कुरुते ।
स्वनवांशकबलयुक्तः करोति पुरुषं प्रसिद्धं च ॥३१॥
सप्तांशकबल49सहितः साहसिकं वित्तकीर्त्याढ्यम् ।
द्विरसांशबलसमेतः कर्मरतपरोपकारकं चैव ॥३२॥
त्रिंशांशबलेन तथा विकसत्सौख्यं गुणान्वितं कुर्यात् ।
शुभदर्शनफलसहितः पुरुषं कुर्याद्धनान्वितं ख्यातम् ।
सुभगं प्रधानमखिलं50 सुरूपदेहं सुसौख्यं च ॥३३॥
पुंस्त्रीभवनबलेन च करोति जनपूजितं कलाकुशलम्।
पुरुषं प्रसन्नचित्तं कल्यं परलोकभीरुं च ॥३४॥
स्थानबलेन समेतः स्थितिसौख्यं सुहृच्च भागाढ्यः।
धीरो निश्चलवित्तः स्वतन्त्रकर्मा भवेन्मनुजः ॥३५॥
आशाबलसमुपेतो नयति स्वदिशं नभश्चरः पुरुषम् ।
नीत्वा वस्त्रविभूषणवाहनसौख्यान्वितं कुरुते ॥३६॥
आयनबलसमुपेतो दद्याद्विविधार्थसङ्गमं स्वदिशि ॥३७॥
क्वचिद्राज्यं क्वजित्पूजां क्वचिद्रव्यं क्वचिद्यशः ।
ददाति विहगश्चित्रं चेष्टावीर्यसमन्वितः ॥३८॥
वक्रिणस्तु महावीर्याः शुभा राज्यप्रदा ग्रहाः ।
पापा व्यसनिनां51पुंसां कुर्वन्ति च वृथाटनम्52 ॥३९॥
स्वस्थशरीरसमागमसुकरोद्भवजयबलेन विदधाति ।
शुभमखिलं विहगेन्द्रो राज्यं च विनिर्जितारातिम् ॥४०॥
रात्रिदिवाबलपूर्णैर्भूगजलाभेन शौर्यपरिवृद्ध्या ।
मलिनयति शत्रुपक्षं भजति च लक्ष्मीं नभश्वरैः पुरुषः ॥४१॥
द्विगुणा द्विगुणं दद्युर्वर्षाधिपमासदिवसहोरेशाः।
क्रमपरिवृद्धया सौख्यं स्वदशासु धनं च कीर्ति च ॥४२॥
पक्षबलाद्रिपुनाशं रत्नाम्बरहस्तिसम्पदं दधुः।
स्त्रीकनकभूमिलाभान् कीर्तिं च शशाङ्ककरधवलाम् ॥४३॥
सकलकरभार53भारितनिर्मलकरजालभासुराः सततम् ।
राज्यं ग्रहाः प्रदद्युः सौख्यं च मनोरथातीतम्54 ॥४४॥
आचारसत्यशुभशौचयुताः सुरूषा–
स्तेजस्विनः कृतविदो द्विजदेवभक्ताः।
स्रग्वस्त्रगन्धजलभूषणसंप्रियाश्च
सौम्यग्रहैर्बलयुतैः पुरुषा भवन्ति ॥४५॥
लुब्धाः कुकर्मनिरता निजकार्यनिष्ठाः
साधुद्विषः सकलहाश्च तमोभिभूताः।
क्रूराः सदा वधरता मलिनाः कृतघ्नाः
पापग्रहैर्बलयुतैः पिशुनाः कुरूपाः ॥४६॥
स्वमित्रक्षेत्रसंस्थानां ग्रहाणां बालसंज्ञिका।
स्वत्रिकोणगतानां च कुमारो नामसंज्ञितः ॥४७॥
ग्रहाणां स्वोच्चसंस्थानां युवराज’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’।
शत्रुक्षेत्रगतानां च वृद्धो नाम तथेरितः ॥४८॥
नीचगानां ग्रहाणां च दशा मरणसंज्ञिता ।
तत्तत्फलसमायुक्ता ग्रहाणां तु दशा भवेत् ॥४९॥
बालैः55 सुखी सुशीलश्च56यौवनैर57वनीश्वरः ।
वृद्धै58र्व्याधिऋणे वृद्धिर्मरणे मरणं व्ययम् ॥५०॥
पुंराशिगैः शुभखगैर्धीराः59 सङ्ग्रामरक्षिणो बलिनः ।
निश्चेष्टैः सुकठोराः क्रूरा मूर्खाश्च जायन्ते ॥५१॥
युवतिभवनस्थितेषु च मृदवः सङ्ग्रामभीरुकाः पुरुषाः ।
जलकुसुमवस्त्रनिरताः सौम्याः कल्याः स्वजन60हृष्टाः ॥५२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां मिश्रकाध्यायः पञ्चमः ॥
———————
षष्ठोऽध्यायः।
स्वर्क्षत्रिकोणतुङ्गस्था यदि केन्द्रेषु संस्थिताः ।
अन्योन्यं कारकास्ते स्युः केन्द्रेष्वेव हरेर्मतम् ॥१॥
रवितनयो जूकस्थः कुलीरलग्ने बृहस्पतिहिमांशू।
मेषे कुजो गवि61 सितः परस्परं कारका एते ॥२॥
तुङ्गसुहृत्स्वगृहांशे स्थिता ग्रहाः कारकाः समाख्याताः ।
मेषूरणे च रविरिति विशेषतो वक्ति चाणक्यः ॥३॥
लग्नस्थः सुखसंस्थो दशमस्थश्चापि कारकाः सर्वे ।
एकादशेऽपि केचिद्वाञ्छन्ति न तन्मतं मुनीन्द्राणाम् ॥४॥
नीचकुले संभूतः कारकविहगैः प्रधानतां याति ।
क्षितिपतिवंशसमुत्थो भवति नरेन्द्रो न सन्देहः ॥५॥
कारकवेधो बलवान् मूलं योगेषु कीर्तितो हरिणा ।
तस्मात्फलनिर्देशः कारकवेधादि62भिर्वाच्यः ॥६॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां कारकाध्यायः षष्टः ॥
—————
** सप्तमोऽध्यायः।**
रविचन्द्रभौमबुधजीवशुक्रसौरा दिनादिपतयश्च63 ।
मासे चाश्वयुजादौ दिनेश्वरेऽदे दिनपतेश्च ॥१॥
अब्दाधिपाश्चतुर्थाः क्रमेण षष्ठस्तु कालहोरेशाः ।
द्विर्द्वादशहोराः स्युर्दिवसास्त्वेकाधिकास्त्रिंशत् ॥२॥
मासास्त्रिंशद्रुणिता गतैर्दिनैः सप्तभाजिता दिवसाः ।
अब्दाधिपात् प्रगण्या गते दिनाद्यः प्रयत्नस्तु ॥३॥
एकत्रिंशद्भागैर्युक्तश्चैत्रादीनां ग्रहादीनाम् ।
क्रमशो विज्ञातव्या शुक्लप्रतिपत्प्रसंख्यायाम् ॥४॥
यस्य ग्रहस्य भावो यस्तस्य गृहे प्रशस्यते कर्म ।
तस्मिंश्चोपचयस्थे तस्मिन् लग्ने ग्रहे चास्य ॥५॥
तत्कमर्ग्रहदिवसे तदेव होराब्दमासकालेषु ।
पादविवृद्ध्या वा स्यात्तेषां कालस्य संपाकः ॥६॥
सव्यालौर्निकशैल64स्वर्णशस्त्रविषदहनभेषजनृपाश्च ।
म्लेच्छाब्धितारकान्तारकाष्ठमंत्रप्रभुः सूर्यः ॥७॥
कविकुसुमभोज्यमणिरजतशंखलवणोदकेषुवस्त्राणाम् ।
भूषणनारीघृतकुजतैल’’’’’’’’’ निद्राप्रभुश्चन्द्रः ॥८॥
रक्तोत्पलताम्रसुवर्णरुधिरपारदमनःशिलाद्यानाम्
क्षितिनृपतिपतनमूर्च्छापैत्तिकचोरप्रभुर्भौमः ॥९॥
श्रुतलिखितशिल्पचैत्य (क?) नैपुणमत्रित्वदूतहास्यानाम् ।
खगयुग्मख्यातिवनस्पतिस्वर्णमयप्रभुः सौम्यः ॥१०॥
माङ्गल्यधर्मपौष्टिकमहत्वशिक्षानियोगपुरराष्ट्रम्।
यानासनशयनसुवर्णधान्य(वेश्म) पुत्रप्रभुर्जीवः ॥११॥
वस्त्रमणिरत्नभूपणविवाहगन्धेष्टमाल्ययुवतीनाम् ।
गोमयनिधानविद्याधनशुक्तिरजतप्रभुः शुक्रः ॥१२॥
त्रपुसीसकाललोहककुधान्यमृतबन्धभृतकानाम् ।
नीचस्त्रीपण्य65कदासवृद्धजन66दीक्षा प्रभुः सौरिः ॥१३॥
अर्कः कलिङ्गविषये यवनेषु च चन्द्रमाः ।
शुक्रः समतटे जातः सैन्धवेषु वृहस्पतिः ॥१४॥
मगधेषु बुधो जातः सौराष्ट्रेषु शनैश्वरः ।
अङ्गारकस्तूज्जयिन्यां राहुः केतुश्च द्राविडे ॥१५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां कारकाध्यायः सप्तमः ॥
——————
अष्टमोऽध्यायः।
राश्यादिफलविभागः कस्य विधेयो विना समुत्पत्तेः67 ।
आधानमथो68 वक्ष्ये कारणभूतं समस्तजन्तूनाम् ॥१॥
अनपचयराशिसंस्थे कुमुदाकरबान्धवे रुधिरदृष्टे ।
प्रतिमासं युवतीनां भवतीह रजो ब्रुवन्त्येके ॥२॥
इन्दुर्जलं कुजोऽग्निर्जलमसृगथवाग्निरेव पित्तं स्यात् ।
एवं रक्ते हीने69 पित्तेन रजः प्रवर्त्तते स्त्रीषु ॥३॥
एवं यद्भवति रजो गर्भस्य निमित्तमेव कथितं70 तत् ।
उपचयसंस्थे विपुलं71 प्रतिमासं दर्शनं तस्य ॥४॥
उपचयभवने शशभृदृष्टो गुरुणा सुहृद्भिरथवासौ ।
पुंसा करोति योगं विशेषतः शुक्रसंदृष्टः ॥५॥
चन्द्रे कुजेन दृष्टे पुष्पवती सह विटेन संयोगम्।
राजपुरुषेण रविणा रविजे नाप्नोति भृत्येन ॥६॥
एकैकेन फलं स्यादृष्टो नान्यैः कुजादिभिः पापैः ।
सर्वैः स्वगृहं त्यक्त्वा गच्छति वेश्यापदं युवती ॥७॥
द्विपदादयो विलग्नात् सुरतं कुर्वन्ति सप्तमे यद्वत् ।
तद्वत् स्त्रीपुरुषाणां गर्भाधाने समादेश्यम् ॥८॥
अस्तेऽशुभयुतद्दष्टे72 सरोषकलहं भवेद्ग्राम्यम् ।
सौम्यं सौम्यैः सुरतं वात्स्यायनसम्प्रयोगिकाख्यातम् ॥९॥
तत्र शुभाशुभमिश्रैः कर्मभिरधिवासिता विषयवृत्तिः ।
गर्भावासे निपतति संयोगः शुक्रशोणितयोः ॥१०॥
उपचयगौ रविशुक्रौ बलिनौ पुंसः समांशसम्प्राप्तौ ।
युवतेर्वा कुजचन्द्रौ यदा तदा गर्भसंभवो भवति ॥११॥
शुक्रार्कभौमशशिभिः स्वांशोपचयस्थितैः सुरेड्ये वा ।
धर्मोदयात्मजस्थे73 बलवति गर्भस्य संभवो भवति ॥१२॥
मिथुनस्य मनोभावो यादृक् मदलालसं भवति ।
श्लेष्मादिभिः स्वदोषैस्तत्तुल्यगुणो निषिक्तः स्यात् ॥१३॥
विषमे विषमांशगता होराशशिजीवभास्करा बलिनः ।
कुर्वन्ति जन्म पुंसां समा74समांशे युवति75नरजन्म ॥१४॥
ओजर्क्षे गुरुसूर्यौ बलिनौ पुंसः समे सितेन्दुकुजाः।
कन्यानां जन्मकरा गर्भाधाने स्थिता बलिनः ॥१५॥
मिथुने चापेऽर्कगुरू बुधदृष्टौ दारकद्वयं कुरुतः ।
स्त्रीयुग्मं कन्यायां सितशशिभौमा झषे च बुधदृष्टाः ॥१६॥
लग्नं मुक्त्वा विषमे शनैश्चरः पुरुष76जन्मदो भवति ।
योगे विहगस्य बलं संवीक्ष्य वदेन्नरं स्त्रियं वाऽपि ॥१७॥
अन्योन्यं रविचन्द्रौ विषमर्क्षगतौ निरीक्षेते ।
इन्दुजरविपुत्रौ वा दृष्टौ बलिनौ नपुंसकं कुरुतः ॥१८॥
पश्यति वक्रः समभे सूर्यंचन्द्रोदयौ77 च विषमर्क्षे ।
यद्येवं गर्भस्थः क्लीबो मुनिभिः समादिष्टः78 ॥ १९ ॥
ओजसमराशिसंस्थौ ज्ञेन्दू षण्डं कुजेक्षितौ कुरुतः ।
नरभे विषमनवांशे होरेन्दुबुधाः सितार्किदृष्टा वा ॥२०॥
लग्ने समराशिगते चन्द्रे च निरीक्षिते बलयुतेन ।
गगनसदा वक्तव्यं मिथुनं गर्भस्थितं नित्यम्79 ॥२१॥
समराशौ शशिसितयोर्विषमे गुरुवक्रसौम्यलग्नेषु ।
द्विशरीरे वा बलिषु प्रवदेत् स्त्रीपुरुषमत्रैव ॥२२॥
द्विशरीरांशकयुक्तान् ग्रहान् विलग्नं च पश्यतीन्दुसुते ।
मिथुनांशे कन्यैका द्वौ पुरुषौ त्रितय80मेवं स्यात् ॥२३॥
द्विशरीरांशकयुक्तान् ग्रहान् विलग्नं च पश्यतीन्दुसुते ।
कन्यांशे द्वे कन्ये पुरुषश्च निषिच्यते गर्भे81 ॥२४॥
मिथुने82 धनुरंशगतान् ग्रहान् विलग्नं च पश्यतीन्दुसुतः ।
मिथुनांशस्थश्च यदा पुरुषत्रितयं तदा गर्भे ॥२५॥
कन्यामीनांशस्थान्83 विहगानुदयं च युवतिभागगतः ।
पश्यति शिशिरगुतनयः कन्यात्रितयं तदा गर्भः84 ॥२६॥
दिवसे मातापितरौ शुक्ररवी शशिशनी निशायां च ।
मातृभगिनी85पितृव्यौ विपर्ययात् कीर्तितौ यवनैः ॥२७॥
लग्नाद्विषमर्क्षगतः पितुः पितृव्यस्य खेचरः शस्तः ।
मातृभगिनीजनन्योः समगृहगोऽन्ये तथा भेषु ॥२८॥
मासेष्वाधानादिषु गर्भस्य यथा क्रमेण जायन्ते ।
सप्तसु कलिलाण्डकशाखास्थित्वग्रोमचेतनताः ॥२९॥
मासेऽष्टमे च तृष्णा क्षुधा च नवमे तथोद्वेगः ।
दशमे त्वर्थं86 संपूर्णः पक्कमिव फलं पतति गर्भः ॥३०॥
शुक्रारजीवरविशशिसौरिबुधविलग्नपोडुपादित्याः ।
मासपतयः स्युरेतैर्गर्भस्य शुभाशुभं चिन्त्यम् ॥३१॥
उत्पातऋूरहते तस्मात् स्वस्याधिपे पतति गर्भः ।
लग्नगृहं वा हेतुर्योगेशो गर्भपतनस्य ॥३२॥
अथवा निषेककाले विलग्नसंस्थौ यथा87रुधिरमन्दौ ।
तद्गहगतेऽथवेन्दौ तदीक्षिते वा पतति गर्भः ॥३३॥
होरेन्दुयुतैः सौम्यैस्त्रिकोणजायार्थखाम्बुसंस्थैर्वा ।
पापैस्त्रिलाभयातैः सुखी तु गर्भो निरीक्षिते रविणा ॥३४॥
क्रूरान्तःस्थः सूर्यश्चन्द्रो वा युगपदेव मरणाय ।
सौम्यैरदृष्टमूर्तिर्युवतीनां गर्भसहितानाम् ॥३५॥
उदयास्तगतैः पापैः सौम्यैरनवेक्षितैश्च मरणं स्यात् ।
उदयस्थितेऽर्कजे वा क्षीणेन्दौ भौमसंदृष्टे ॥३६॥
व्ययगेऽर्के शशिनि88 कृशे पाताले लोहिते सगर्भा स्त्री।
म्रियते तस्मिन्नथवा शुक्रे पापद्वयान्तःस्थे ॥२७॥
चन्द्रचतुर्थैः क्रूरैर्विलग्नतो वा विपद्यते गर्भः ।
होराद्यूने क्षितिजे म्रियते गर्भः सह जनन्या ॥३८॥
हिबुकगते धरणिसुते रिःफगतेऽर्के क्षपाकरे क्षीणे ।
गर्भेण89 सह म्रियते पापग्रहदर्शनप्राप्ते ॥३९॥
लग्ने रविसंयुक्ते क्षीणेन्दौ वा कुजेऽथवा म्रियते ।
व्ययधनसंस्थैः पापैस्तथैव सौम्यग्रहादृट्टैः ॥४०॥
जामित्रे रवियुक्ते90 लग्नगते वा कुजे निषिक्तस्य ।
गर्भस्य भवति मरणं शस्त्रच्छेदैः सह जनन्या ॥४१॥
बलिभिर्बुधगुरुशुक्रैर्दृष्टेऽर्केण च विवर्धते गर्भः ।
मासाधिपबलतुल्यैस्तैस्तैः संयुज्यते भावैः ॥४२॥
मासि तृतीये स्त्रीणां दौहृदकं91 जायतेऽवश्यम् ।
मासाधिपस्वभावैर्विलग्नयोगादिभिश्चान्यत् ॥४३॥
निषेककाले चरराशिगेऽर्के गर्भप्रसूतिर्दशमे च92मासे ।
एकादशे च स्थिरराशिसंस्थे स्याद्द्वादशे मास्युभयाश्रिते च ॥४४॥
गर्भाधाने चरे राशौ दशमासैः प्रसूयते ।
स्थिरेणैकादशे मासे उभये द्वादशे भवः93 ॥४५॥
गर्भप्रसवविधानं तात्कालिकलग्नवर्गतश्चिन्त्यम्94 ।
आधानाजन्मर्क्षं95 दशमं वाञ्छन्ति केचिदाचार्याः ॥४६॥
आधानोदयशशिनोः सप्तमभं बादरायणो ब्रूते ।
तस्मान्नैकान्तोऽयं सर्वेषां संमतं वक्ष्ये ॥४७॥
यस्मिन् द्वादशभागे गर्भाधाने स्थितो निशानाथः ।
तत्तुल्यर्क्षे प्रसवं गर्भस्य समादिशेत्प्राज्ञः ॥४८॥
लग्ने शनैश्चरांशे शनैश्चरे द्यूनगे यदि निषेकः ।
वर्षत्रयेण सूतिर्द्वादशभिः स्याच्छशिनि चैवम् ॥४९॥
तात्कालिकदिवसनिशासंज्ञः समुदेति राशिभागो यः ।
यावानुदयस्तावान् वाच्यो दिवसस्य रात्रेर्वा ॥५०॥
मुनिभागे दिवसनिशोर्जन्मनि लग्नं वदेद्युत्त्क्या।
उदयगणात् प्रसवः स्याद्दिनपक्षमुहूर्तमाससंज्ञक्षत् ॥५१॥
इत्याधानं प्रथमं प्रसूतिकालं सुनिश्चितं कृत्वा ।
जातकविहितं च96 विधिं विचिन्तयेत्तत्र गणितज्ञः ॥५२॥
स्यातां यद्याधाने रविशशिनौ सिंहराशिगौ लग्ने ।
दृष्टौ कुजसौरिभ्यां जात्यन्धः सम्भवति तत्र ॥५३॥
आग्नेयसौम्यदृष्टौ रविशशिनौ बुद्बुदेक्षणं कुरुतः ।
नयनविनाशोऽपि यथा तथाधुना सम्प्रवक्ष्यामि ॥५४॥
व्ययभवनगतश्चन्द्रो वामं चक्षुर्विनाशयति हीनः ।
सूर्यस्तथैव चान्यच्छुभदृष्टौ याप्यतां नयतः ॥५५॥
क्रूरैर्गृहसन्धिगतैः शशिनि वृषे भौमसौरर97विदृष्टे ।
मूकः सौम्यैर्दृष्टे वाचं कालान्तरे वदति ॥५६॥
क्रूरेषु राशिसन्धिषु शशी न सौम्यैर्निरीक्ष्यते च जडः ।
बुधनवमभागसंस्थौ शशिभौमौ यदि सदन्तः स्यात् ॥५७॥
सौम्ये त्रिकोणसंस्थे लग्नाच्छेषग्रहैर्बलविहीनैः ।
द्विगुणास्यपादहस्तो योगेऽस्मिन्नाहितो भवति गर्भः ॥५८॥
वामनको मकरान्त्ये लग्ने रविचन्द्रसौरिभिर्दृष्टे।
शशिनि विलग्ने कर्किणि कुजार्क98दृष्टेऽथवा99 कुन्जः ॥५९॥
मीनोदये च दृष्टे कुजार्किशशिभिः100 पुमान् भवति पङ्गुः ।
व्यर्था भवन्ति योगाः सौम्यग्रहवीक्षिताः सर्वे ॥६०॥
क्रूरग्रहस्त्रिकोणे त्रिकोणलग्ने शुभेषु बलवत्सु ।
द्विशिरोङ्घ्रिबाहुयुग्मः शेषैरबलैर्भवति गर्भः ॥६१॥
इत्याधानविधानं प्रसूतिसमयेऽपि योजयेद्योग्यम् ।
आधाने यन्त्रोक्तं प्रसूतिविहितं तदपि चिन्त्यम् ॥६२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां आधानेऽष्टमोऽध्यायः ॥
** नवमोऽध्यायः।**
आधाने101 हि मयोक्तं प्रसूतिकालस्य निर्णयार्थपरम्102 ।
तस्मिन् सुपरिज्ञाते जन्माध्यायं प्रवक्ष्यामि ॥१॥
शीर्षोदये विलग्ने मूर्ध्ना प्रसवोऽन्यथोदये चरणैः ।
उभयोदये च हस्तैः शुभदृष्टे शोभनोऽन्यथा कष्टः ॥२॥
भवनांशसदृशदेशे प्रसवो ज्ञेयः सदात्र युवतीनाम् ।
मिश्रगृहांशे वर्त्मनि स्थिरराश्यंशे तथास्वगृहे103 ॥३॥
स्वगृहनवांशे लग्ने स्वगृहेऽन्यस्मिन्यदि104 प्रथमहर्म्ये ।
पितृमातृग्रहबलतस्त105त्तत्स्वजनगृहेषु बलयोगात् ॥४॥
प्राकारतरुनदीषु च सूतिर्नीचश्रितैः106 सौम्यैः ।
नेक्षन्ते लग्नेन्दू यद्यकेस्था ग्रहा महाटव्याम् ॥५॥
सलिलभवनं107 च चन्द्रो जलराशौ वीक्षते तथा पूर्णः ।
प्रसवं सलिले विद्यात् बन्धूदयदशमगश्च यदा ॥६॥
सौम्यैलने पूर्णे स्वगृहगते शशिनि सलिलसंयाते ।
पातालस्यैश्च शुभैर्जलजे लग्नेम्बुगेहगे शशिनि ॥७॥
वृश्चिककुलीरलग्ने सौरे चन्द्रेक्षिते त्ववटे ।
भवति प्रसवः स्त्रीणां वदन्ति यवनाः सह मणित्थैः॥८॥
रविजे जलजविलग्ने क्रीडोद्याने बुधेक्षिते प्रसवः ।
रविणा देवागारे तथोषरे चैव चन्द्रेण ॥९॥
आरण्यभवनलग्ने गिरिवनदुर्गे तथा रवौ लग्ने ।
रुधिरेक्षिते श्मशाने शिल्पकनिलयेषु सौम्येन ॥१०॥
सूर्येक्षिते गोनृपदेववासे शुक्रेन्दुजाभ्यां रमणीयदेशे ।
शक्रेड्यदृष्टे द्विजवह्निहोत्रे नरोदये सम्प्रवदन्ति सूतिम् ॥११॥
स्खोच्चेदशमे जीवे द्वित्रिचतुर्भूमिके गृहे प्रसवः ।
मन्दर्क्षांशे साले चतुर्थदशमस्थितैः सौम्यैः ॥१२॥
द्वौ द्वौ राशी मेषात् पूर्वादिषु संस्थितौ गृहविभागे ।
कोणेषु द्विशरीरा लग्नन्तु108 भवेद्धि तत्प्रमुखैः109 ॥१३॥
दिग्भागराशिमण्डलकेन्द्रेषु खगेषु तच्छाला ।
अथ110मृगहयबलवत्त्वे गृहं द्विशालं त्रिशालं च ॥१४॥
चित्रं नवं भृगुसुते च दृढं गुरौ च
दग्धं कुजे दिनकरे परिपूर्ण111काष्ठम् ।
चन्द्रे नवं च बहुशिल्पिकृतं बुधे च
जीर्णं भवेद्गृहमिहोष्णकरात्मजे च ॥१५॥
वासगृहे द्यूनगतात् द्वारो दिक्पालकात् बलोपेतात् ।
भवनग्रहसंयोगैः प्रतिवेश्मा चिन्तनीयाः स्युः ॥१६॥
देवालयाम्बुपावककोशविहारास्तथोत्करोभूमेः112 ।
निद्रागृहं च भास्करशशिकुजगुरुभार्गवार्किबुधयोगात् ॥१७॥
खट्वास्थितिर्भवनवद्युतविहगसमानि तत्र चिह्नानि ।
आस्तरणानि च विद्यात् शुभदृष्टिकृतानि दैवज्ञः ॥१८॥
प्राच्यादिगृहद्वितयं भद्वितयं राशयश्च गात्राणि ।
आजानुशिरःशयनं ग्रहतुल्यं लक्षणं तत्र ॥१९॥
ग्रहयुक्तं वा नियतं विनतत्वं च द्विमूर्तिराशिषु च ।
षट्त्रिनवान्त्याः पादाः पर्यऽङ्गानि113 राशयः शेषाः ॥२०॥
नीचस्थे भूशयनं चन्द्रेऽप्यथवा सुखे विलग्ने वा ।
शशिलग्नविवरयुक्तग्रहतुल्याः सूतिका ज्ञेयाः ॥२१॥
अनुदितचक्रार्द्धयुतैरन्तर्बहिरन्यथा वदन्त्येके ।
लक्षणरूपविभूषणयोगस्तासां शुभैर्योगात् ॥२२॥
क्रूरैर्विरूपदेहा लक्षणहीनाः सुरौद्रमलिनाश्च ।
मिश्रैर्मध्यमरूपा बलसहितैः सर्वमेवमवधार्यम् ॥२३॥
द्वादशभागच्छन्ने114 वासगृहेऽवस्थिते सहस्रांशौ ।
दीपश्चरस्थिरादिषु तथैव वाच्यः प्रसवकाले ॥२४॥
यावल्लग्नादुदितं वर्त्तिर्दग्धा तु तावती भवति ।
दीपः पूर्णे पूर्णः शशिनि क्षीणे क्षयस्तु तैलस्य ॥२५॥
बलवति सूर्ये दृष्टे बहून् प्रदीपान् वदेत् कुपुत्रेण ।
अन्यैरपि115 गतवीर्यैः सूतौ ज्योतिस्तृणैर्भवति ॥२६॥
सौरांशेऽथ जलांशे चन्द्रेऽर्कजसंयुतेऽथवा हिबुके ।
तद्दृष्टे वा कुर्यात्तमसि प्रसवं न सन्देहः ॥२७॥
होरामनीक्षमाणे शशिनि परोक्षस्थिते पितरि जातः ।
मेषूरणागते वा चरभे भानौ विदेशगते ॥२८॥
द्युनिशोरर्कासितयोः कुजेन सन्दृष्टयोः पिताप्यभवत् ।
चरराशौ परदेशे युक्तेक्षितयोस्तु तत्र मृतः ॥२९॥
पञ्चमनवमद्यूने पापैरर्कात्तु पापसंदृष्टैः ।
बद्धः पिताऽन्यदेशे राशिवशात् स्वेऽथवा मार्गे ॥३०॥
जायात्रिकोणसंस्थैः क्रूरैरानन्दवर्जितः प्रसवः ।
दशमचतुर्थोपगतैः सौम्यैः सम्पत्तयो विपुलाः ॥३१॥
पश्यति न गुरुः शशिनं लग्नं च दिवाकरं सेन्दुम्।
पापयुतं वा सार्कश्चन्द्रं यदि जारजातः स्यात् ॥३२॥
गुरुशशिरवयो नीचे सूतौ लग्नेऽथवार्कसूनुश्च ।
लग्नोडुपभृगुपुत्राः शुभैरदृष्टास्तथान्यजातश्च116॥३३॥
क्लेशो मातुः क्रूरैर्बन्ध्वस्तगतैः शशाङ्कयुक्तैर्वा ।
चन्द्रात् सप्तमराशौ पापा मरणाय वऋसन्दृष्टाः117 ॥३४॥
चन्द्राद्दशमे भानुर्मातुर्मरणं करोति पापयुतः ।
शुक्रात् पञ्चमनवमे118 सौरियुतस्तेन119 वा दृष्टः ॥३५॥
चन्द्रात्रिकोणराशौ रविजो मातुर्वधं दिशति रात्रौ ।
शुक्रात्तथैव दिवसे भौमः पापेन सन्दृष्टः ॥३६॥
कुजसौरयोस्त्रिकोणे चन्द्रेऽस्तगते वियुज्यते मात्रा ।
दृष्टे सुरेन्द्रगुरुणा सुखान्वितो दीर्घजीवी च ॥३७॥
म्रियते पापैर्दृष्टे शशिनि विलग्ने कुजेऽस्तगे त्यक्तः ।
लग्नात्स्वलाभगतयोर्वसुधासुतमन्दयोरेवम् ॥३८॥
पश्यति सौम्यो बलवान् यादृग्गृह्णाति तादृशो जातः ।
शुभपापग्रहदृष्टे परैर्गृहीतोऽथवा120 म्रियते ॥३९॥
एकांशस्थितयोर्वा121 यमारयोस्त्यज्यतेऽथवा मात्रा।
लग्नात्सप्तमभवने भौमे शनिवीक्षिते नियतम् ॥४०॥
यादृक्पश्यति सौम्यस्तत्तुल्यगुणं सुतः122 समाधत्ते ।
पितृजननीसादृश्यं रवेः शशाङ्कस्य बलयोगात् ॥४१॥
सिंहाजगोभिरुदये जातो नालेन वेष्टितो जन्तुः ।
लग्ने कुजेऽथ सौरे राश्यंशसमानगात्रश्च ॥४२॥
भौमशनिद्रेक्काणे पापे लग्ने स्थिते शशियुते123 वा ।
व्द्येकादशगैः सौम्यैरभिवेष्टितको भुजङ्गेन ॥४३॥
सूर्यश्चतुष्पदस्थः शेषा द्विशरीरसंस्थिता बलिनः।
कोरौर्वेष्टितदेहौ यमलौ खलु संप्रजयेते124 ॥४४॥
लग्ननवभागतुल्या मूर्तिर्बलसंयुताद्ग्रहाद्वापि ।
नवभागाद्वर्णोक्तिः शशियोगात्तत्र सूतस्य ॥४५॥
बहवो यदि बलयुक्ता मिश्रा मूर्तिस्तदा वाच्या।
कुलजातिदेशपुरुषान् बुड्ध्वाऽऽदेशं125 समादिशेत्तज्ज्ञः ॥४६॥
त्रिंशद्भागे भानुर्ग्रहस्य यस्य126 स्थितो भवति ।
तत्तुल्या प्रकृतिः स्यादेवं मुनयोऽध्यवस्यन्ति ॥४७॥
तत्कालसुहृदरित्वं बलं च नीचोच्चसंभृतं ज्ञात्वा ।
ज्ञात्वा ग्रहस्वभावान् तेभ्यः सञ्चिन्त्यमन्यदपि ॥४८॥
क्षीणे शशिनि सपापे माता म्रियते पिता रवौ तद्वत् ।
बलिभिर्दृष्टे मिश्रैर्व्याधिः सौम्यैः शुभं भवति ॥४९॥
विपुलविमलमूर्तिः स्वोच्चगो वा स्वराशौ
गुरुसितयुत इन्दुर्योधनेनानुदृष्टः ।
अतिशयशुभदाता पञ्चमे वाऽपि मातुः
पितुरपि खलु तद्वत् भास्करः सर्वदैव ॥५०॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां सूतिकाध्यायो नवमः॥
** दशमोऽध्यायः\।**
आयुर्ज्ञानाभावे सर्वंविफलं प्रकीर्तितं यस्मात् ।
तस्मात्तज्ज्ञानार्थे रिष्टाध्यायं प्रवक्ष्यामि ॥१॥
ओजे स्थिताः पुमांसः शुक्लेऽहनि सूरिभिः समाख्याताः ।
युग्मभवनेषु सर्वे कृष्णे निशि योषितो बलिनः ॥२॥
त्रिविधमिह शास्त्रकारा नियममनियमं127 च योगजं प्राहुः ।
योगसमुत्थं तावद्वक्ष्ये पश्चात्तु परिशेषौ ॥३॥
बृहस्पतिर्भौमगृहेऽष्टमस्थः सूर्येन्दुभौमार्कजदृष्टमूर्त्तिः ।
अब्दैस्त्रिभिर्भार्गवदृष्टिहीनो लोकान्तरं प्रापयति प्रसूतम् ॥४॥
वक्री शनिर्भौमगृहं प्रपन्नश्चन्द्रेऽष्टषष्ठेऽथ चतुष्टये वा ।
कुजेन सम्प्राप्तबलेन दृष्टो वर्षद्वयं जीवयति प्रजातम् ॥५॥
भास्करहिमकरसहितः शनैश्चरो मृत्युदः प्रसवकाले ।
वर्षेर्नवभिर्यातैरित्याह ब्रह्मशौण्डाख्यः ॥६॥
भौमदिवाकरसौराश्छिद्रे जातस्य भौमगृहे128 ।
म्रियतेऽवश्यं स नरो यमकृतरक्षोऽपि मासेन ॥७॥
एकः पापोऽष्टमगः शुक्रगृहे पापवीक्षितो वर्षात् ।
मारयति नरं जातं सुधारसो येन पीतोऽपि ॥८॥
रविशशिभवने शुक्रो द्वादशरिपुरन्ध्रगैः129 शुभैः सर्वैः ।
दृष्टः करोति षड्भिर्वर्षैर्मरणं किमत्र चित्रं हि ॥९॥
कर्कटधामनि सौम्यः षष्ठाष्टमसंस्थितो130 विलग्नर्क्षात्।
चन्द्रेण दृष्टमूर्त्तिर्वर्षचतुष्केण मारयति ॥१०॥
तीव्रफलराजयोगा यवनाद्यैर्ये विनिर्मितास्तेषु ।
जायन्ते खलु कुलजा रिष्टं तेषु प्रसूतानाम् ॥११॥
केतुर्यस्मिन्नृक्षेऽभ्युदितस्तस्मिन् प्रसूयते यो हि ।
मासद्वयेन मरणं विनिर्दिशेत्तस्य जातस्य ॥१२॥
गगनस्थो दिवसकरः पापैर्बहुभिर्निरीक्षितः सद्यः ।
मारयति भौमधामनि शनिभे च न संशयो भवति ॥१३॥
लग्ने यद्द्रेक्काणा निगडाहिविहङ्गपाशधरसंज्ञाः ।
मरणाय सप्तवर्षैः क्रूरयुता न स्वपतिदृष्टाः ॥१४॥
राहुश्चतुष्टयस्थो मरणाय निरीक्षितो भवति पापैः ।
वर्षैर्वदन्ति दशभिः षोडशभिः केचिदाचार्याः ॥१५॥
पापास्त्रिकोणकेन्द्रे सौम्याः षष्ठाष्टमव्ययगताश्च ।
सूर्योदये प्रसूतः सद्यः प्राणांस्त्यजति जन्तुः ॥१६॥
अंशाधिपजन्मपती लग्नपतिश्चास्तमुपगता यस्य ।
संवत्सरैस्तु मरणं निर्व्याजं कतिपयैरेव ॥१७॥
राशिप्रमितैवर्षैर्मारयति विलग्नपो रिपुस्थाने ।
मासैर्द्रेक्वाणपतिर्दिवसैरंशाधिपो हन्ति ॥ १८ ॥
मारयति षोडशाहाच्छनैश्चरः पापवीक्षितो लग्ने ।
संयुक्तो मासेन तु वर्षाच्छुद्धस्तु मारयति ॥१९॥
क्षीणशरीरश्चन्द्रो लग्नस्थः क्रूरवीक्षितः कुरुते ।
स्वर्गगमनं हि पुंसां कुलीरगोऽजान् परित्यज्य ॥२०॥
वर्षान्मारयति शशी षष्ठाष्टमराशिसंस्थितो लग्नात् ।
सद्यः क्रूरैर्दृष्टः सौम्यैरब्दाष्टंकाच्चैव ॥२१॥
अशुभ131शुभैः सन्दृष्टे वर्षचतुष्केण निर्दिशेदन्तम् ।
अनुपातः कर्तव्यः प्रोक्तादुनै132र्ग्रहैर्दृष्टे ॥ २२ ॥
सौम्याः षष्ठाष्टमगाः पापैर्वक्रोपसङ्गतैर्दृष्टाः ।
मासेन मृत्युदास्ते यदि न133शुभैस्तत्र सन्दृष्टाः ॥ २३ ॥
लग्नाद्वादशधनगैः क्रूरैम्रियते च रन्ध्ररिपुयुक्तैः ।
शुभसम्पर्कमयातैर्मासे षष्ठेऽष्टमे वाऽपि ॥ २४ ॥
लग्नाधिपजन्मपती षष्ठाष्टमरिःफगौ प्रसवकाले ।
अस्तमितौ मरणकरौ राशिप्रमितैर्वदेद्वर्षैः ॥ २५ ॥
होराधिपतिर्द्यूनेपापजितो मरणमेव विदधाति ।
मासेन जन्मनाथस्तद्वच्चन्द्रो न यदि शुभदृष्टः ॥ २६ ॥
चन्द्रः कुजरवि134युक्तः स्वसुतस्थाने न चापि शुभदृष्टः ।
मरणं शिशोः प्रयच्छति वर्षे नवमे न सन्देहः ॥२७॥
होरेश्वरस्तु मृत्यौ135 पापैः सकलैश्च दृश्यते बलिभिः।
मासि चतुर्थे मरणं जातस्य करोति मुनिवाक्यम् ॥२८॥
जन्माधिपतिः सूर्यः स्वपुत्रसहितोऽष्टमे भवति राशौ ।
वर्षैराशिप्रमितैर्मरणाय सितेन सन्दृष्टः ॥२९॥
व्ययाष्टषष्ठोदयगे शशाङ्के पापेन युक्ते शुभदृष्टिहीने ।
केन्द्रेषु सौम्यग्रहवर्जितेषु प्राणैर्वियोगं व्रजति प्रजातः ॥३०॥
चक्रस्य पूर्वभागे पापाः सौम्यास्तथेतरे चैव ।
वृश्चिकलग्ने जाता गतायुषो वज्रमुष्टियोगेऽस्मिन् ॥३१॥
क्षीणे शशिनि विलग्ने पापैः केन्द्रेषु मृत्युसंस्थैर्वा ।
भवति विपत्तिरवश्यं यवनाधिपते136र्मतं चैतत् ॥३२॥
राश्यन्तगतैः पापैः सन्ध्यायां तुहिनरश्मिहोरायाम्137।
मृत्युः प्रत्येकस्थैः केन्द्रेषु शशाङ्कपापैश्च ॥३३॥
द्यूनचतुरश्रसंस्थे138 पापद्वयमध्यगे शशिनि जातः ।
विलयं प्रयाति नियतं देवैरपि रक्षितो बालः ॥३४॥
पापद्वयमध्यगते होरासप्ताष्टमस्थिते चन्द्रे।
सौम्यैरबलैर्दृष्टे जातो म्रियते ध्रुवं ह्यत्र139 ॥३५॥
द्यूनाष्टमगैः पापैः क्रूरग्रहवीक्षितैः सह जनन्या ।
म्रियते शुभसंदृष्टैः सत्यस्य मताद्वदेव्द्याधिम् ॥३६॥
ग्रहणोपगते चन्द्रे सक्रूरे लग्नगे कुजेऽष्टमगे ।
मात्रा सार्धे म्रियते चन्द्रवदर्के च शस्त्रेण ॥३७॥
क्षीणे शशिनि विलग्ने कण्टकनिधनातैस्तथा पापैः ।
सौम्यादृष्टे मृत्युः सद्यः सत्यस्य निर्देशः140 ॥३८॥
द्यूनगतेऽर्के लग्ने यमे कुजे वा विपर्यये वाऽपि ।
अन्यतरयुते वेन्दावशुभैर्दृष्टेऽचिरान्मृत्युः ॥३९॥
होरानिधनास्तगतैः पापैः क्षीणे व्ययस्थिते141 चन्द्रे ।
जातस्य भवेन्मरणं सद्यः केन्द्रेषु चेद142शुभाः ॥४०॥
लग्नान्त्यनवमनैधनसंयुक्ताश्चन्द्रसूर्यसौराराः ।
जातस्य वधकृतः143 स्युः सद्यो गुरुणा न चेदृृष्टाः ॥४१॥
लग्ने चन्द्रेऽर्के वा पापा बलिनस्त्रिकोणनिधनेषु ।
सौम्यैरदृष्टयुक्ताः144 सद्यो मरणाय कीर्तिता यवनैः ॥४२॥
शुक्रो रविशनिसहितो मारयति नरं सदा प्रसवकाले ।
दृष्टोऽपि देवगुरुणा नवभिर्वर्षैन सन्देहः ॥४३॥
यत्रस्थस्तत्रस्थो रुधिरार्कशनैश्चरेक्षितश्चन्द्रः ।
जननीमृत्युं कुर्यान्नतु सौम्यनिरीक्षितः सद्यः ॥४४॥
रुधिरशनैश्चरदृष्टो दिवसकरो दिवसजन्मनि तु यस्य ।
पापयुतो वा हन्यात् पितरं निःसंशयं जातः ॥४५॥
रहितो बुधगुरुशुक्रैर्जन्मनि रुधिराङ्गसौरसहितोऽर्कः ।
कथयति पितरमतीतं पितुरपि च शरीरकर्तारम् ॥४६॥
पापग्रहमध्यगतो दिवसकरो दिवसजन्मनिरतस्य ।
पापयुतो वा हन्यात् पितरं निःसंशयं जातः ॥४७॥
सूर्यादष्टमराशौ145 यदि युक्तौ सौरलोहितौ प्रसवे ।
सौम्यादृष्टौ निधनं कुर्यातां सद्य एव पितुः ॥४८॥
पापग्रहसंयुक्तश्चरराशिगतो दिवाकरः प्रसवे ।
विषशस्त्रजलान्मृत्युं कथयत्यल्पायुषं पितरम् ॥४९॥
चन्द्रादष्टमराशौ नवमे वा सप्तमेऽपि वा पापाः ।
सर्वे तत्रान्यतमे हन्युर्जातं सह जनन्या ॥५०॥
चरराशिगते सूर्ये दिनजन्मनि वीक्षिते कुपुत्रेण146 ।
कथयति विदेशयातं जातस्य शरीरकर्तारम् ॥५१॥
चरराशिगतं सौरं यद्यर्को रात्रिजन्म वी (नी?) क्षेत ।
अत्रापि विदेशस्थं कथयति पितरं प्रसूतस्य ॥५२॥
रुधिरसहितस्तु सौरश्चरभवने रात्रिजन्मनिरतस्य ।
कथयति पितरमतीतं परदेशे नात्र सन्देहः ॥५३॥
यत्रस्थस्तत्रस्थस्वपुत्ररुधिराङ्गसङ्गतः सूर्यः ।
प्राग्जन्मनो निवृत्तं कथयति पितरं प्रसूतस्य ॥५४॥
जन्माष्टसप्तषष्ठद्वादशसंस्थेषु पापेषु ।
माता सुतेन सार्धं म्रियते नास्त्यत्र सन्देहः ॥५५॥
जीवति माता म्रियते सूनुः षष्ठाष्टमेषु147 पापेषु ।
जन्माष्टसप्तमेषु च जीवति सूनुर्म्रियेत तन्माता ॥५६॥
वक्रो वा सौरो वा द्वादशसंस्थो नयनहन्ता ।
दक्षिणनयनं सौरो वाममथाङ्गारको हन्यात् ॥५७॥
युगपच्चन्द्रादित्यौ द्वादशभे विष्ठितौ148 ग्रहौ स्याताम् ।
कुरुतः प्रसूतमन्धं पापः षष्ठेऽथवा निधने ॥५८॥
अथवाप्यन्यतरयुते द्वादशभे जायमानस्य ।
अत्रापि हरेन्नयनं दक्षिणमर्कः शशी सव्यम् ॥५९ ॥
स्वर्भानुनोपसृष्टा यदि होरा दिनकरश्च जामित्रे ।
जातस्तत्र मनुष्यो निःसन्दिग्धं भवत्यन्धः149 ॥६०॥
धनराशौ द्वादशभे चन्द्रः सूर्यश्च विष्ठितो150 यत्र ।
तत्रापि भवत्यन्धो यद्यष्टमषष्ठयोः पापौ ॥६१॥
रजनिकरः षष्ठगतो निधने सूर्यो खेः सुतस्तु151 शुभे ।
वऋः कुटुम्बराशौ अत्राप्यन्धो भवेज्जातः ॥६२॥
रुधिराङ्गसौरयुक्तश्चन्द्रो निधनेऽथवाऽपि षष्ठे वा ।
पित्तश्लेष्मविकारैर्दृष्टिं हन्यादशुभयुक्तः ॥६३॥
दक्षिणमष्टमसंस्थः सव्यं तु हरेत्समाश्रितः षष्ठम्।
सौम्यैर्न152 वीक्षिततनुः सद्यो नहरेत्तु153 पश्चाद्वा ॥६४॥
दिनकरसुतेन सहितो निधने चान्त्ये154 समाश्रितश्चन्द्रः ।
वातश्लेष्मविकारैर्दृष्टिं हन्यादशुभदृष्टः ॥६५॥
निधने दक्षिणनयनं त्यागे सव्यं हरेत्तु नियमेन ।
सौम्यैस्तु दृश्यमाने155 न हरेदथवा हरेत्पश्चात् ॥६६॥
एतेनैव तुं विधिना सौरारदिवाकराश्रितश्चन्द्रः ।
कुर्यादृष्टिविकारं नानारोगैर्ध्रुवं जन्तोः ॥६७॥
एकादशे तृतीये होरायां पापसंयुते शशिनि ।
कर्णविकलो नरः स्यात्पापग्रहवीक्षितः सद्यः ॥६८॥
नवमे पञ्चमराशौ पापग्रहवीक्षितौ ग्रहौ स्याताम् ।
श्रोत्रोपघातमतुलं कुर्यातां जातमात्रस्य ॥६९॥
नवमे दक्षिणकर्ण वामं वै पञ्चमे ग्रहो हन्यात् ।
अत्रैव सौम्यभे वा शुभदृष्टे वा शुभं वाच्यम् ॥७०॥
राशौ होरान्तरं प्राप्य यो यस्मिन् व्याधिमाप्नुयात् ।
तच्चास्य156 होराप्रसवे चन्द्रस्थानं च यद्भवेत् ॥७१॥
सव्यापसव्यभागे योगमथैव ग्रहास्तु सम्प्राप्ताः।
कुर्युर्नृणां च चिह्नं व्यङ्गभयं पापवीक्षिताः सौम्याः ॥७२॥
विदित्वा त्रितयं ह्येतत् कृत्स्नस्य तु विशेषतः ।
शुभाशुभौ तु विज्ञेयौ ग्रहसंयोगकारणौ ॥७३॥
चन्द्रादित्यौ तृतीयस्थौ मीनक्षेत्रं157 स यस्य तु ।
व्याधिं तत्र विजानीयात् त्रिरात्रं तस्य जीवितम् ॥७४॥
अतस्तृतीये नक्षत्रे समस्ते व्यस्तगेऽपि वा ।
रवौ रात्रिं परां जीवेच्चन्द्रे दशममाश्रिते ॥७५॥
सहितौ चन्द्रजामित्रे यस्याङ्गारकभास्करौ ।
जातस्य तस्य हि तदा भवेत्सप्ताहजीवितम् ॥७६॥
चतुरश्रस्थिताः पापा वामदक्षिणगा यदा ।
तदा यो व्याधिमाप्नोति दशरात्रं स जीवति ॥७७॥
त्रिकोणे दक्षिणे सूर्यश्चन्द्रो वामे यदा भवेत् ।
यस्तदा लभते व्याधिं द्वादशाहं स जीवति ॥७८॥
त्रिकोणस्थो यदा चन्द्रश्चतुरश्रेऽथ भास्करः ।
तदा दुर्व्याधिना पुत्रस्त्रिरात्रं नातिवर्तते ॥७९॥
यदा होरा चतुर्थस्थश्चन्द्रः षष्ठस्थितो रविः ।
अष्टादशाहं च नरस्तदा व्याधिसमन्वितः ॥८०॥
रविर्यदा चन्द्रमसस्त्रिकोणस्थानमाश्रितः ।
विंशतिं दिवसान् जीवेत्तदा व्याधिभयार्दितः ॥८१॥
होराष्टमस्थितः सूर्यः सौरभौमनिरीक्षितः ।
यः पुमान् प्राप्नुयाव्याधिं न स जीवेद्विपद्यते158 ॥८२॥
होरायां कण्टके भौमो भवेद्यस्य प्रजायतः ।
न च केन्द्रगतो जीवो जायते मृत एव सः ॥८३॥
अथ होरागतः सूर्यो न च केन्द्रे बृहस्पतिः ।
निधने वा परः कश्चित् जातमात्रो विनश्यति ॥८४॥
होरायां कण्टके चन्द्रो न च केन्द्रे बृहस्पतिः ।
निधने वा159 परः कश्चित् जातमात्रो विनश्यति ॥८५॥
द्रेक्काणजामित्रगतो यस्य स्याद्दारुणग्रहः ।
होरागतः शशाङ्कश्च सद्यो हरति जीवितम् ॥८६॥
ग्रहाः समेयुर्बहवो निधने यस्य जन्मनि ।
मासं वा सप्तरात्रं वा तस्यायुः समुदाहृतम् ॥८७॥
शनैश्चरश्च होरायां निधने च महीसुतः ।
न च देवगुरुः केन्द्रे मृतगर्भः प्रसूयते ॥८८॥
यः प्राग्विलग्ने द्रेक्काणस्तत्समानो यदा ग्रहः ।
भवेत्र्त्रिकोणगाः पापास्तत्समानफलो भवेत् ॥८९॥
सौरे व्याधिमवाप्नोति मरणं धरणीसुते ।
सूर्ये स्याव्द्याधिवैकल्यं मरणं नात्र संशयः ॥९०॥
अथ होरागतो भौमः केन्द्रस्थश्च भृगोः सुतः ।
स वै मरणमाप्नोति होरायां पुनरागते ॥९१॥
गुरुस्त्रिकोणे होरायां होरेशश्च महीसुतः ।
तस्यान्यतरकेन्द्रस्थः सद्यो जीवितनाशनः ॥९२॥
न नैधने ग्रहः160 कश्चित् पापो होरागतोऽथवा ।
केन्द्रे वान्यतरे161 जीवो जीवत्यष्टशतोत्तरम् ॥९३॥
न केन्द्रे कश्चिदाग्नेयो न त्रिकोणे न नैधने ।
गुरुशुक्रौ च केन्द्रस्थौ जीवेदष्टशताधिकम् ॥९४॥
यदि होरागतः शुक्रः केन्द्रे वान्यतमे गुरुः ।
नैधने न च पापः स्यात् सविंशं जीवते शतम् ॥१५॥
राशौ कर्कटहोरायां गुरुशुक्रौ समन्वितौ162 ।
गुरुश्चन्द्रयुतो वाऽपि निधने न च कश्चन ॥९६॥
न च केन्द्रगताः पापा न त्रिकोणे च जायते ।
तस्यायुरमरप्रख्यं निश्चयो (ये) न तु कीर्त्यते ॥९७॥
निधनास्तव्ययलग्नत्रिकोणगाः क्षीणचन्द्रसंयुक्ताः ।
पापा बलिनः शुभदैरदृश्यमाना गतायुषः163प्रायः ॥९८॥
योगे बलिनः स्थानं164 स्वं वा लग्नं गतेऽपि वा चन्द्रे ।
बलवति पापैर्दृष्टे वर्षान्ते मृत्युकालः स्यात् ॥९९॥
रविचन्द्रभौमगुरुभिः कुजगुरुसौरेन्दुभिस्तथैकस्यैः ।
रविशनिभौमशशाङ्कुैर्मरणं खलु पञ्चभिर्वर्षैः ॥१००॥
रविणा165 युक्तः शशिजः सौम्यैर्दृष्टो विनाशयति नूनम् ।
एकादशभिवर्षैर्देवाङ्केऽपि स्थितं जातम् ॥१०१॥
लग्ने रविमन्दकुजैः166 शुक्रगृहे सप्तमे शशी क्षीणः ।
दृष्टो न देवगुरुणा सप्तभिरब्दैर्विनाशयति ॥१०२॥
केन्द्रे रविमुषिततनुः क्षितिसुतमन्दावलोकितोऽथ युतः ।
वर्षचतुष्के चन्द्रो मारयति किमत्र गणितेन ॥१०३॥
लग्नाधिपतेश्चन्द्रो मरणपदस्थोऽतिकृष्णतां यातः ।
क्रूरैः सकलैर्दृष्टो न शुभैः सर्वैस्त्रिभिस्तु मारयति ॥१०४॥
लग्नाधिपतिः पापः शशिनोंशे रिःफगो यदि च चन्द्रात् ।
क्रूरैर्विलोक्यमानो मारयति शिशुं नवभिरब्दैः ॥१०५॥
दर्शनभागे सौम्याः क्रूराश्चादृश्यके प्रसवकाले ।
राहुर्लग्नोपगतो यमक्षयं नयति पञ्चभिर्वर्षैः ॥१०६॥
राहुः सप्तमभवने शशिसूर्यनिरीक्षितो न शुभदृष्टः ।
दशभिर्द्वाभ्यां सहितैरब्दैर्जातं विनाशयति ॥१०७॥
घटसिंहवृश्चिकोदयकृतस्थितिर्जीवितं हरति राहुः
पापैर्निरीक्ष्यमाणः सप्तमितैर्निश्चितं वर्षैः ॥१०८॥
केतोरुदयं पूर्वं पश्चादुल्कादिपवननिर्घाताः ।
रौद्रे सार्पमुहूर्ते167 प्राणैः सन्त्यज्यते जन्तुः ॥१०९ ॥
क्षीणं यदा शशाङ्क पश्येद्राहुः समागतं पापैः ।
मारयति तदा दिवसैर्निर्व्याजं कतिपयैरेव ॥११०॥
कुम्भे दिशति शशाङ्को भागे मृत्युं तथैकविंशाख्ये168।
सिंहे च पञ्चमेशे वृषे169 च नवमे तथैवोक्तः ॥१११॥
अलिनि त्रिविंशयुक्ते मेषे च तथाष्टमे दिशति मृत्युम् ।
कर्कटके द्वाविंशे तुलिनि चतुर्थे मृगे विंशे ॥११२॥
कन्यायां प्रथमेंशे धनुर्धरेऽष्टादशे झषे दशमे ।
मिथुने च द्वाविंशे शशी प्रसूतस्य मरणकरः ॥११३॥
ये भुक्ताः170 शशिनोंशा जन्मनि वर्षेगतैस्तु तावद्भिः।
मरणं हि जन्मभाजामप्यन्तकबद्धरक्षाणाम् ॥११४॥
एवं सर्वप्रयत्नेन जायमानस्य देहिनः ।
होरास्थानानि171 केन्द्राणि चिन्तनीयानि तद्यथा ॥११५॥
चिन्तयेज्जायमानस्य स्थानराशिषु नित्यशः ।
बृहस्पतिर्नृणां जीवः तस्य172नित्यं बृहस्पतेः ॥११६॥
पञ्चदशषट्समेतश्चत्वारिंशत्तथैकविंशच्च173 ।
शतमथ174चत्वारिंशत् षष्टिस्त्रिंशत्175 क्रमायु होरायाः ॥११७॥
तृतीय चतुर्थपश्चमसप्तमनवमदशमैकादशगृहेषु जीवस्थितौ176 वर्षाः177 ।
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अरिष्टाध्यायो दशमः ॥
** एकादशोऽध्यायः।**
संभूतारिष्टाख्या भङ्गस्तेषां यथा भवेद्योगैः ।
तानागमतो वक्ष्ये प्रधानभूता यतस्तेत्र178 ॥१॥
उडुपतिकृतरिष्टानां भङ्गस्तावन्निरूप्यते पूर्वम्179
सम्यक्180 शेषाणामपि यथामतं ब्रह्मपूर्वाणाम् ॥२॥
सर्वैर्गगनभ्रमणैर्दृष्टश्चन्द्रो विनाशयति रिष्टम् ।
आपूर्यमाणमूर्तिर्यथा नृपः सन्नयेद्वेषम्181 ॥३॥
चन्द्रः सम्पूर्णतनुः शुक्रेण निरीक्षितः सुहृद्भागे ।
रिष्टहराणां श्रेष्ठो वातहराणां यथा वस्तिः ॥४॥
परमोच्चेशिशिरतनुर्भृगुतनयनिरीक्षितो हरति रिष्टम् ।
सम्यग्विरेकवमनं कफवित्तानां182 यथादोषम् ॥५॥
चन्द्रः शुभवर्गस्थः क्षीणोऽपि शुभेक्षितो हरति रिष्टम् ।
फलमिव महातिसारं जातीफल183वल्कलक्कथितम् ॥६॥
सप्ताष्टमषष्ठस्थाः शशिनः सौम्या हरन्त्यरिष्टफलम् ।
पापैरमिश्रचाराः कल्याणघृतं यथोन्मादम् ॥७॥
युक्तः शुभफलदायिभिरिन्दुः सौम्यैर्निहन्त्य184रिष्टानि ।
तेषामेव त्र्यंशे लवणस्रुतिपूरवच्छ्रवणरोगम्185 ॥८॥
आपूर्यमाणमूर्तिर्द्वादशभागे शुभस्य यदि चन्द्रः।
रिष्टं नयति विनाशं तक्राभ्यासो यथा गुदजम् ॥९॥
सौम्यक्षेत्रे चन्द्रो होरापतिना विलोकितो हन्ति186 ।
रिष्टं न वीक्षितोऽन्यैः कुलाङ्गनाकुलमिवान्यगता ॥१०॥
क्रूरभवने शशाङ्को भवनेशनिरीक्षितस्तदनुवर्गे ।
रक्षति शिशुं प्रजातं कृपण इव धनं प्रयत्नेन ॥११॥
जन्माधिपतिर्बलवान् सुहृद्भिरभिवीक्षितः शुभैर्भङ्गम् ।
रिष्टस्य करोति सदा भीरुरिव प्राप्तसंग्रामः ॥१२॥
जन्माधिपतिर्लग्ने दृष्टः सर्वैर्विनाशयति रिष्टम् ।
घृष्टोषणविदलाभ्यां प्रत्येककृताञ्जनं यथा शुक्लम् ॥१३॥
स्वोच्च187स्थस्वगृहेथवापि सुहृदां वर्गे188ऽपि सौम्येऽथवा189
संपूर्णः शुभवीक्षितः शशधरो वर्गे स्वकीयेऽथवा ।
शत्रूणामवलोकने न पतितः पापैरयुक्तेक्षितो
रिष्टं हन्ति सुदुस्तरं दिनपतिः प्रालेयराशिं यथा ॥१४॥
शशिनोऽन्त्ये बुधसितयोराये क्रूरेषु वाक्पतौ गगने ।
दुरितं चातुर्थिकमिव नश्यति मुनिकुसुमरसनस्यैः ॥१५॥
लग्नेश्वरस्य चन्द्रः षट्त्रिदशायहिबुकेषु शुभदृष्टः ।
क्षपयति समस्तरिष्टान्यनुयाते190 नृपतिरोध इव ॥१६॥
एको जन्माधिपतिः परिपूर्णबलः शुभैर्दृष्टः191 ।
हन्ति निशाकररिष्टं व्याल इव मृगान् वने मत्तः192॥१७॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चन्द्रारिष्टभङ्गो नामैकादशोऽध्यायः ॥
द्वादशोऽध्यायः ।
सर्वातिशा193य्यतिबलः स्फुरदंशुमाली194
लग्ने स्थितः प्रशमयेत् सुरराजमन्त्री।
एको बहूनि दुरितानि सुदुस्तराणि
भक्त्या प्रयुक्त इव चक्र195धरे प्रणामः ॥१॥
सौम्यग्रहैरतिबलैर्विबलैश्च पापै–
र्लग्नं च सौम्यभवने196 शुभ197दृष्टियुक्तम्198 ।
सर्वापदा199विरहितो भवति प्रसूतः
पूजाकरः खलु यथा दुरितैर्ग्रहाणाम् ॥२॥
पापा यदि शुभवर्गे सौम्यैर्दृष्टा शुभांशवर्गस्थैः ।
निघ्नन्ति तदा रिष्टं पतिं विरक्ता यथा युवतिः ॥३॥
राहुस्त्रिषष्ठलाभे लग्नात् सौम्यैर्निरीक्षितः सद्यः ।
नाशयति सर्वदुरितं मारुत इव तूलसंघातम् ॥४॥
शीर्षोदयेषु राशिषु सर्वैर्गगनाधिवासिभिः सूतौ
प्रकृतिस्थैश्वारिष्टं विक्रियते200 घृतमिवाग्निष्ठम् ॥५॥
तत्काले यदि विजयी शुभग्रहः शुभे निरीक्षितो वर्गे ।
तर्जयति201 सर्वरिष्टं मारुत इव पादपान् प्रबलः ॥६॥
परिविष्टो गगनचरः क्रूरैश्च विलोकितो हरति पापम् ।
स्नानं सन्निहितानां202 कृतं यथा भास्करग्रहणे ॥७॥
स्निग्धमृदुपवनभाजो203 जलदा204श्च तथैव खेचराः शस्ताः205 ।
स्वस्थाः206 क्षणाच्च रिष्टं शमयन्ति207 रजो यथाम्बुधारौघः208 ॥८॥
उदये चागस्त्यमुनेः सप्तर्षीणां मरीचिपुत्राणाम्209 ।
सर्वारिष्टं नश्यति तम इव सूर्योदये जगतः ॥९॥
अजवृषकर्किविलग्ने रक्षति राहुः समस्तपीडाभ्यः ।
पृथ्वीपतिः प्रसन्नः कृतापराधं यथा पुरुषम् ॥१०॥
यत्तेन210 भङ्गमपरे सरोजजन्मातिविस्मयं कुरुते ।
तज्ज्ञः211 कष्टमनिष्टं समतटदेशे यथा किरटः212 ॥११॥
बहवो यदि शुभफलदाः खेटास्तत्रापि शीर्यते रिष्टम् ।
सूर्यात् त्रिकोण इन्दौ यथैव यात्रा नरेन्द्रस्य ॥१२॥
गुरुशुक्रौ च केन्द्रस्थौ जीवेद्वर्षशतं नरः ।
गृहानिष्टं हिनस्त्याशु213 चन्द्रानिष्टं तथैव च ॥१३॥
बन्ध्वास्पदोदयविलग्नगतौ कुलीरे
गीर्वाणनाथसचिवः सकलश्च चन्द्रः ।
जूके रवीन्दुतनयावपरे च लाभे
दुश्चिक्यशत्रुभवनेष्वमितं तदायुः ॥१४॥
एते सर्वे भङ्गा मया निरुक्ताः पुरातनाः सिद्धाः ।
यैर्ज्ञातैर्दैवविदो नरेन्द्रवाल्लभ्यमायान्ति ॥१५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अरिष्टभङ्गो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥
सुनफाऽनफादुरुधरा भवन्ति योगाः क्रमेण रविरहितैः ।
वित्तान्त्योभयसंस्थैः कैरववनबान्धवाद्विहगैः ॥१॥
ऐते न यदा योगाः केन्द्रग्रहवर्जितः शशाङ्कश्च ।
केमद्रुमोऽतिकष्टः शशिनि समस्त214ग्रहादृष्टे ॥२॥
सुनभानभासरूपास्त्रिंशद्योगा (३१) स्त्रिसंगुणा षष्टिः (१८०) ।
संख्या धौरुधुराणांप्रस्तारविधौ समाख्याताः ॥३॥
श्रीमान् स्वबाहुविभवो बहुधर्मशीलः
शास्त्रार्थविद्बहुयशाः215 स्वगुणा216भिरामः ।
शान्तः217 सुखी क्षितिपतिः सचिवोऽथ वा स्यात्
सूतः पुमान् विपुलधीः सुनभाभिधाने ॥४॥
वाग्मी प्रभुर्द्रविणवानगदः सुशीलो
भोक्तान्नपानकुसुमाम्बरभामिनीनाम्218 ।
ख्यातः समाहितगुणः सुखशस्तचित्तो219
योगे निशाकरकृते त्वनभे सुवेषः ॥५॥
वाग्बुद्धिविक्रमगुणैः प्रथितः पृथिव्यां
स्वातन्त्र्यसौख्यधनवाहनभोगभोगी220 ।
दाता221 कुटुम्ब222धनपोषणलब्धखेदः
सद्वृत्तवान् धुरुधुराप्रभवो धुरिस्थः ॥६॥
कान्तान्नपान223गृहवस्त्रसुहृद्विहीनः
दारिद्र्यदुःखगददैन्यमलैरुपेतः ।
प्रेष्यः खलः सकललोकविरुद्धवृत्तिः
केमद्रुमे भवति पार्थिववंशजोऽपि ॥७॥
केन्द्रादिस्थैर्ग्रहैर्योगाः कीर्तिता येऽनभादयः ।
तान् प्रधानान् समानान् स्वांश्चन्द्ररूपान्विचिन्तयेत् ॥८॥
भौमादीनां बलं देशं जातस्य च कुलं बुधः ।
विज्ञाय प्रवदेत् सम्यक् सुनभादिकृतं फलम् ॥९॥
विक्रमवित्तप्रायो निष्ठुरवचनश्चमूपतिश्चण्डः ।
हिंस्रो दम्भविरोधी सुनभायां भौमसंयोगे ॥१०॥
श्रुतिशास्त्रगेयकुशलो धर्मपरः224काव्यकृन्मनस्वी च ।
सर्वहितो रुचिरतनुः सुनभायां सोमजे भवति ॥११॥
विद्याचार्यं ख्यातं नृपतिं नृपतिप्रियं वाऽपि ।
सुकुटुम्बधनसमृद्धं सुनभायां सुरगुरुः कुरुते ॥१२॥
स्त्रीक्षेत्रवित्त225विभवश्चतुष्पदाढ्यः सुविक्रमो भवति ।
नृपसत्कृतः सुधीरो दक्षः शुक्रेण सुनभायाम् ॥१३॥
निपुणमतिर्ग्रामपुरैर्नित्यं संपूजितो धनसमृद्धः ।
सुनभायां रविपुत्रे क्रियासु गुप्तो भवेद्धीरः ॥१४॥
इति सुनभाप्रकारः226।
चोरस्वामी धृष्टः स्ववशो227 मानी रणोत्कटः क्रोधी ।
श्रेष्ठः228श्लाघ्यः सुतनुः कुजेऽनभायां सुलाभश्च229 ॥१५॥
गन्धर्व230लेख्यपटुः कविः प्रवक्ता नृपाप्तसत्कारः ।
रुचिरतनुस्त्वनभायां प्रसिद्धकर्मा बुधेन भवेत् ॥१६॥
गाम्भीर्यसत्वमेधास्थानरतो231 बुद्धिमान् नृपाप्तयशाः ।
अनभायां त्रिदशगुरौ संजातः सत्वविद्भवति232 ॥१७॥
युवतीनामतिसुभगः233 प्रणयी क्षितिपस्य ‘गोपतिः234 ख्यातः ।
कान्तः235 कनकसमृद्धस्त्वनभायां भार्गवे भवति ॥१८॥
विस्तीर्णभुजो नेता गृहीतवाक्यश्चतुष्पदसमृद्धः ।
दुर्वनिताया भक्तोः236 गुणसहितश्चार्कपुत्रेण ॥१९॥
इत्यनभाप्रकरणम् ।
आनृतिको बहुवित्तो निपुणोऽतिशठोऽधिको237 लुब्धः ।
वृद्धासतीप्रसक्तः कुलाग्रणीः शशिनि भौमबुधमध्ये ॥२०॥
ख्यातः कर्मसु विभवी बहुजनवैरस्त्वमर्षणो हृष्टः ।
कुलरक्षी कुजगुर्वोः सङ्ग्रहशीलः शशिनि मध्ये ॥२१॥
उत्तमरामः238 सुभगो विवादशीलः शुचिर्भवेद्दक्षः ।
व्यायामी रणशूरः सितारयोर्मध्यगे चन्द्रे ॥२२॥
कुत्सितयोषिद्रमणो239 बहुसंचयकारको व्यसनतप्तः ।
क्रोधी पिशुनो रिपुमान् यमारयोः स्याद्धुरुधरायाम् ॥२३॥
धर्मपरः शास्त्रज्ञो वाचालः सत्कविर्धनोपेतः ।
त्यागयुतो विख्यातो बुधगुरुमध्ये स्थिते चन्द्रे ॥२४॥
प्रियवाक् सुभगः कान्तः प्रनृत्तगेयादिषु प्रियो भवति ।
सेव्यः शूरो मन्त्री बुधसितयोर्धुरुधुरायोगे ॥२५ ॥
देशाद्देशं गच्छति वित्तपरो नातिविद्यया सहितः ।
चन्द्रेऽन्येषां पूज्यः स्वजनविरोधी ज्ञमन्दयोर्मध्ये ॥२६॥
धृतिमेधाशौर्यंयुतो नीतिज्ञः कनकरत्नपरिपूर्णः ।
ख्यातो नृपकृत्यकरो गुरुसितयोर्धुरुधुरायोगे ॥२७॥
सुखनयविज्ञानयुतः प्रियवाग्विद्वान् धुरंधरो नार्यः ।
शान्तो धनी सुरूपश्चन्द्रे गुरुभानुजान्तस्थे ॥२८॥
वृद्धचरितं कुलाग्र्यं निपुणं स्त्रीवल्लभं धनसमृद्धम् ।
नृपसत्कृतं बहुधनं कुरुते चन्द्रः सितासितयोः ॥२९॥
इति धुरुधुराप्रकरणम् ।
सूर्यात् केन्द्रादिगतो निशाकरः स्वल्पमध्यभूयिष्ठान् ।
कुर्यात्क्रमेण धनधीनैपुणविज्ञानविनयांश्च ॥३०॥
औत्पातिकः240 कृशतनुर्निशि चाप्यदृश्यो
दृश्यो241 दिवा शिशिरगुर्भयशोकदः स्यात् ।
एवं स्थितः समफलं पृथिवीपतित्वं
यातोऽन्यथा प्रकुरुते परिपूर्णमूर्तिः ॥३१॥
लग्नादुपचयसंस्थैः शुभैः समस्तैर्महाधनो द्वाभ्याम् ।
मध्यं चैकेनाधममेवं चन्द्रादपि तदूनः ॥३२॥
अधियोगादयोऽन्येऽपि242 मयात्रैव न कीर्तिताः ।
नृपयोगा यतस्ते हि वक्ष्ये तत्रैव तानहम् ॥३३॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चन्द्रविधिर्नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
चतुर्दशोऽध्यायः ।
सूर्यायव्द्यगैर्वाशि243र्द्वितीयगैश्चन्द्रवर्जितैर्वेशिः244।
उभयस्थितैर्ग्रहेन्द्रैरुभयचरी नामतः प्रोक्ता ॥१॥
मन्ददृशं स्थिरवचनं परिभूतपरिश्रमं नतोर्ध्वतनुम्।
कथयति यवनाधिपतिर्वैशिसमुत्थं तथा पुरुषम् ॥२॥
वसुसंचयवित्ससुहृत् स्याद्वेशौ सुरगुरौ भवति जातः ।
भीरुः कार्योद्विग्नो लघुचेष्टो भृगुसुते पराधीनः ॥३॥
परिकर्मको245 दरिद्रो मृदुर्विनीतो बुधे सलज्जश्च ।
मार्गलघुः246 क्षितिपुत्रे परोपकारी नरो वेशौ ॥४॥
परदाररतश्चण्डो वृद्धाकारः शठो घृणी ।
भवेन्मनुष्यः सधनो याते वेशिंशनैश्चरे ॥५॥
इति वेशिप्रकरणम् ।
उत्सृष्टवचाः स्मृतिमानुद्योगयुतो निरीक्षते तिर्यक् ।
पूर्वशरीरे पृथुलो नृपतिसमः सात्विको वाशौ ॥६॥
धृतिसत्वबुद्धियुक्तो भवति गुरौ वाशिके पवनसारः ।247
शूरः ख्यातो गुणवान्248 यशस्करो भार्गवे पुरुषः ॥७॥
प्रियभाषी रुचिरतनुर्वाश्यां स्याद्बोधने पराज्ञाकृत् ।
सङ्ग्रामे विख्यातो भूमिसुतेनान्यवाक्यश्च249 ॥८॥
वणिक् कुलस्वभावः250 स्यात् परद्रव्यापहारकः ।
गुरुद्वेषी सुनिस्त्रिंशो गते वाशिं शनैश्चरे ॥९॥
संनिरीक्ष्य रवेर्वींर्य ग्रहाणां चापि तत्वतः ।
राश्यंशसङ्गमात्सर्वं फलं ब्रूयाद्विचक्षणः ॥१०॥
सर्वंसहस्सुभद्रः251 समकायः सुस्थिरो विपुलसत्वः ।
नात्युच्चः परिपूर्णो252 विद्यायुक्तो भवेदुभयचर्याम् ॥११॥
सुभगो बहुभृत्यधनो बन्धूनामाश्रयो नृपतिकूल्यः।
नित्योत्साही हृष्टो भुङ्क्ते भोगानुभयचर्याम् ॥१२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां वेशिवाश्युभयचर्याध्यायश्चतुर्दशः ।
—————
पंञ्चदशोऽध्यायः ।
यवनाचार्यैर्वृद्धैर्द्विग्रहयोगेषु यत्फलं प्रोक्तम् ।
तदहमपहाय मत्सरमधुना वक्ष्ये विशेषेण ॥१॥
युवतीनां वशगः स्यादविनीतः कूटवित्253 पृथुलवित्तः ।
आसवविक्रयकुशलो रव्युडुपत्योः क्रियानिपुणः ॥२॥
ओजस्वी साहसिको मूर्खो बलसत्वसंयुतोऽनृतवाक् ।
पापमतिर्वधनिरतो254 रविकुजयोः स्यात् प्रचण्डश्च ॥३॥
सेवाकृदस्थिरधनो रविज्ञयोः प्रियवचा यशोर्थः स्यात् ।
आर्यः क्षितिपतिदयितः सतां च बलरूपवित्तविद्यावान् ॥४॥
बहुधर्मो ‘नृपसचिवः समृद्धि255मान्मित्रसंश्रयाप्तार्थः ।
सूर्ये बृहस्पतियुते भवेदुपाध्यायसंज्ञश्च ॥५॥
शस्त्रप्रहरणविद्याशक्तियुतो नेत्रदुर्बलश्चरमे256 ।
रङ्गज्ञो रविसितयोः स्त्रीसङ्गाल्लब्धबन्धुधनः257 ॥६॥
धातुज्ञो धर्ममयः स्व258धर्मनिरतः प्रणष्टसुतदारः ।
निजवंशगुणैः शुद्धः259 शनिरव्योरल्पशीलश्च ॥७॥
शूरो रणप्रतापी मल्लोऽसृग्वेदनार्त्त260देहश्च ।
मृच्चर्मधातुशिल्पी कूटज्ञश्चन्द्रकुजयोगे ॥८॥
काव्यकथास्वतिनिपुणः सधनस्त्रीसंमतः सुरूपश्च ।
स्मितवदनः शशिबुधयोर्धर्मरुचिः261 स्याद्विशिष्टगुणः ॥९॥
दृढसौहृदो विनीतः स्वबन्धुसंमानवर्ध262नेशश्च ।
गुर्विन्द्वोः शुभशीलः सुरद्विजेभ्यो रतो263 भवेत्पुरुषः ॥१०॥
स्रग्धौतां264बरयुक्तः क्रियाविधिज्ञः कुल265प्रियोऽत्यलसः ।
ऋयविक्रयेषु कुशलः शशिभार्गवयोः सदा योगे ॥११॥
जीर्णवधू266जनरमणो गजाश्वसम्पादको267 विगतशीलः ।
वश्यो विधनः पुरुषः पराजितः स्याच्छशाङ्कशनियोगे ॥१२॥
स्त्रीदुर्भगोऽल्पवित्तः सुवर्णलोहप्रकारकः स्थपतिः ।
दुष्टस्त्रीविधवानां कुजबुधयोरौषधक्रियानिपुणः ॥१३॥
शिल्प268श्रुतिशास्त्रज्ञो मेधावी वाग्विशारदो मतिमान् ।
अस्त्रप्रियप्रधानः सुरगुरुकुजयोः समागतयोः269 ॥१४॥
पूज्यो गणप्रधानो गणितज्ञः परयुवतिभी270 रतो धूर्त्तः ।
द्यूतानृतशाठ्यरतो विटश्च271 सितरुधिरसंयोगे ॥१५॥
धात्विन्द्रजालकुशलः प्रवश्च272कस्तेयकर्मकुशलश्च ।
कुजसौरयोर्विधर्मः शस्त्रविषघ्नः कलिरुचिः स्यात् ॥१६॥
नृत्तविधेर्विज्ञाता प्राज्ञोऽपि च गेयशास्त्र273विन्मनुजः ।
बुधगुरुयोगे मतिमान् सौख्ययुतो जायतेऽवश्यम् ॥१७॥
अतिशयधनो नयज्ञो बहुशिल्पो वेदवित्सुवाक्यः स्यात् ।
गीतज्ञो हास्यरतिर्बुधसितयोर्गन्धमाल्यरुचिः ॥१८॥
ऋणवान्274 डम्भप्रायः275 प्रपञ्चकः सत्कविर्गमनशीलः ।
निपुणः शोभनवाक्यो बुधशनियोगे पुमान् भवति ॥१९॥
जीवति विद्या276वादैर्विशिष्टधर्मस्थितः प्रमाणयुतः ।
जीवसितयोर्मनुष्यो विशिष्टदारो भवेन्म277तिमान् ॥२०॥
शूरो वित्तसमृद्धो नगराधिपति278र्यशस्वी च ।
शनिजीवयोः प्रधानः श्रेणिसभाग्रामसंघानाम् ॥२१॥
दारुविदारणदक्षः क्षुरचित्राश्मादिकर्मशिल्पी च ।
मल्लोऽटनः पशुपतिः शनिसितयोगे पुमान् भवति ॥२२॥
उक्तं फलंगगनगा यद्यन्योन्यगणस्थिताः ।
अधमादि विकल्पेन कुर्वन्ति विकृतिं तथा ॥२३॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां द्विग्रहयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥
——————
षोडशोऽध्यायः ।
निर्लज्जः पापरतो यन्त्रज्ञः शत्रुदारणे शूरः ।
अश्म279क्रियासु कुशलः सहस्थितैः सूर्यशशिभौमैः ॥१॥
तेजस्वी निपुणमतिः शास्त्रकलागोष्ठिपानरतः ।
नृपकृत्यकरो280 धीरो रविशशिशशिजैः सहैकस्थैः ॥२॥
क्रुद्धो मायानिपुणः सेवाकुशलो विदेशगमनरतः ।
मेधावी चपलमतिः सहस्थितैरर्कशशिजीवैः ॥३॥
परधनहरणे निपुणः परदाररतश्च शास्त्रनिपुणश्च।
रविचन्द्रदैत्यपूज्यैरेकस्थैर्जायते मनुजः ॥४॥
कामे281 विवादकुशलो मूर्खः परतन्त्रगो दरिद्रश्च ।
सूर्यनिशाकररविजैरेकस्थैर्जायते मनुजः ॥५॥
भवति ख्यातो मल्लः साहसिको निष्ठुरो विगतलज्जः ।
धनसुतकलत्ररहितः सहस्थितैरर्ककुजसौम्यैः ॥६॥
वचसि निपुणो महार्थः क्षितिपतिमन्त्री च282 भूपतिर्वाऽपि ।
सत्यवचनः प्रचण्डः सहस्थितैर्भौमगुरुसूर्यैः ॥७॥
नयनातुरः कुलीनः सुभगो वाक्शल्यसंयुतो मनुजः ।
भृगुभौमदिवसनाथैः सहस्थितैः स्याद्विभवयुक्तः ॥८॥
विकलाङ्गो धनरहितो नित्यं रोगान्वितो मनुजः ।
स्वजनरहितोऽतिमूर्खः क्षितिजार्कजभानुभिः सहितैः ॥९॥
नेत्रातुरोऽतिधनवान् मूर्खः283 शास्त्रादिशिल्पकाव्यरतः।
वाचस्पतिबुधसूर्यैरेकगतैर्लिपिकरः पुरुषः ॥१०॥
अतितप्तो284 वाचाटो भ्रमणरुचिः प्रोषितो गुरुभिः।
स्त्रीहेतोः सन्तप्तः शशिसुतरविभार्गवैः सहितैः ॥११॥
क्लीबाचारो द्वेष्यः सर्वजितो बन्धुभिः परित्यक्तः ।
सौरादित्येन्दुसुतैरेकस्थैर्जायते पुरुषः ॥१२॥
दुर्बलचक्षुः शूरः प्राज्ञो निःस्वश्च भूपतेः सचिवः ।
परकार्यरतो नित्यं भार्गवगुरुभास्करैः सहितैः ॥१३॥
असदृशकायः पूज्यः स्वजनद्वेष्यः सुदारसुतमित्रः ।
नृपतीष्टो विगतभयो जीवार्कजदिनकरैः सहितैः ॥१४॥
शत्रुभयात् सोद्वेगो मानकलाकाव्यवर्जितो मनुजः ।
कुत्सितचरितः कुष्ठी सितार्किरविसंयुतैर्भवति ॥१५॥
पापकरा जायन्ते नीचाचाराः सुहृत् स्वजनहीनाः ।
आजीविनश्च पुरुषाः शशाङ्कबुधभूमिजैः सहितैः ॥१६॥
विनताङ्गः285 स्त्रीलोलश्चोरः कान्तश्च संमतः स्त्रीणाम् ।
भौमशशाङ्कसुरेज्यैरेकस्थैश्चण्डरोषश्च ॥१७॥
दुःशीलायाः पुत्रः पतिश्च तस्याः सदैव निर्दिष्टः ।
कुजभृगुशशिभिः सहितैर्भ्रमणरुचिः शीतभीत286श्च ॥१८॥
बाल्ये मृतजननीकः क्षुद्रो विषमश्च लोकविद्विष्टः
जायेत नरो योगे भूसुतशशिभास्करसुतानाम् ॥१९॥
धनवान् कल्यो वाग्मी तेजस्वी ख्यातिमान्विपुलकीर्तिः ।
बहुपुत्रभ्रातृयुतो बुधेन्दुसुरपूजितैर्युक्तैः ॥२०॥
विद्यासंस्कृतमतिरपि नीचाचारः पुमान् भवेज्जातः ।
सौम्यो287 धनप्रलुब्धो बुधभार्गवचन्द्रसंयोगे ॥२१॥
अस्वस्थो288 विकलाङ्गः प्राज्ञो वाग्मी सुपूजितः क्षितिपः ।
भवति नरः संयोगे सौरेन्दुशशाङ्कपुत्राणाम् ॥२२॥
साध्वीतनयः प्राज्ञः कलास्वभिज्ञो बहुश्रुतः साधुः ।
भार्गवगुरुशशियोगे जातः सुभगो भवेत् पुरुषः ॥२३॥
शास्त्रार्थतत्त्वबुद्धिर्वृद्धस्त्रीसङ्गतो विगतरोगः289 ।
शशिवाचस्पतिसौरैरेकस्थैर्ग्रामवृन्दपतिः ॥२४॥
लिपिकरपुस्तकवाचकपुरोधसां भवति जन्मसुकृतैश्च ।
दैवविदां पुरुषाणां शशिभार्गवसौरिसंयोगे ॥२५॥
सुकविः क्षोणीनाथः सधुवतिपतिः परार्थ उद्युक्तः ।
गान्धर्ववेदकुशलः स्याद्बुधगुरुभूसुतैः सहितैः ॥२६॥
अकुलीनो विकलाङ्गश्चपलो दुष्टश्च जायते मनुजः ।
मुखरो नित्योत्साही कुजबुधभृगुनन्दनैः सहितैः ॥२७॥
प्रेष्यः श्यामलनेत्रः प्रवासशीलो भवेद्वदनरोगी ।
रमते प्रहसनशीलैर्बुधार्किरुधिरैः सहैकस्यैः ॥२८॥
नृपतीष्टः सत्सुतवान् विलासिनीभ्यः सदाप्तबहुसौख्यः ।
सकलजनानन्दकरो भार्गवगुरुभूमिजैः सहितैः ॥२९॥
नृपसंमतः क्षताङ्गो नीचाचारो विगर्हितो मित्रैः ।
भवति नरो विगतघृणः सुरेज्यकुजसौरिसंयोगे ॥३०॥
चारित्रविहीनायाः पुत्रो भर्ता भवेत् सुखविहीनः ।
नित्यं प्रवासशीलः संयुक्तैः सौरिकुजशुक्रैः॥३१॥
सुतनुः क्षपितारिगणो नृपतिः सुभगस्तथा पृथुलकीर्तिः290 ।
बुधगुरुशुक्रैःसहितैर्भवति नरः सत्यवचनश्च ॥३२॥
स्थान291धनैश्वर्ययुतं प्राज्ञं बहुभोगिनं स्वदाररतम् ।
धृतिसौख्यरतं292 सुभगं जनयन्ति बुधार्कजीवाख्याः ॥३३॥
मुखरो धूर्तोऽनृतवाक् परयुवतिरतो भवेद्विषमशीलः ।
बुधशुक्रसूर्यतनयैः कलाखभिज्ञः स्वदेशरतः ॥३४॥
न्यूने कुलेऽपि जातो भवति नरो भूपतिर्विपुलकीर्तिः ।
गुरुभार्गवदिनकरजैरेकस्थैःशीलसम्पन्नः ॥३५॥
पापैर्युक्ते चन्द्रे मातुरभावः प्रकीर्तितप्रायः ।
सूर्ये पितुस्तथान्यैः शुभं वदेन्मिश्रितैर्मिश्रम् ॥३६॥
प्रायः शुभाः समेता धनभूतियशोन्वितं नृपतिचेष्टम् ।
उत्पादयन्ति मनुजं भूमण्डलमण्डनं श्रेष्ठम् ॥३७॥
पापास्त्रयोऽपि मिलिताः कुर्वन्ति नरं सुदुर्भगं लोके ।
दारिद्र्यदुःखतप्तं गर्हितरूपं विनयहीनम् ॥३८॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां त्रिग्रहयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥
——————
सप्तदशोऽध्यायः।
लिपिकरतस्करमुखरो रोगी मायाप्रपञ्चकुशलश्च ।
बुधरविभौमशशाङ्कैरेकर्क्षगतैः पुमान् भवति ॥१॥
धनवान्वनितानिन्धंस्तेजस्वी नीतिमान् विगतशोकः ।
कर्मसमर्थो निपुणः शशिकुजगुरुभास्करैः सहितैः ॥२॥
आर्योचित293वाग्वृत्तिः सुखभाङ् निपुणोऽर्थसंग्रहणशीलः ।
विद्यासुतदारयुतः शशिकुजभृगुभास्करैः सहितैः ॥३॥
विषमशरीरो ह्रस्वो धनरहितो याचिताशनो मूर्खः ।
गम्यः सर्वस्य तथा रविशशिकुजसौरिसंयोगे ॥४॥
सौवर्णिकः294 प्लुताक्षः शिल्पकरो वा महाधनो धीरः295।
जातस्यान्नि296रुजतनुः शशिज्ञगुरुभास्करैः सहितैः ॥५॥
विकलः सुभगो वाग्मी ह्रस्वो297 नृपसम्मतो मनुजः ।
जातः स्यादेकस्थैरविशशिबुधभार्गवैः सहितैः ॥६॥
मातृपितृविप्रयुक्तो धनसौख्यविवर्जितो भ्रमणशीलः ।
भिक्षाशनोऽप्यनृतवाक् रवीन्दुसौम्यार्किभिर्नियतम् ॥७॥
सलिलमृगारण्यानां स्वामी स्यात्सौख्यभाक्298भवति पूज्यः ।
शुक्रर्कगुरुशशङ्कैरेकर्क्षगतैः पुमान् निपुणः ॥८॥
तामसनेत्रस्तीक्ष्णो बहुसुतवित्तो वराङ्गनासुभगः ।
सूर्येज्यचन्द्रसौरैरकस्थैर्जायते पुरुषः ॥९॥
वनितासदृशाचारः पुरःसरोऽत्यन्तदुर्बलशरीरः ।
भीरुः सर्वत्र भवेदर्केन्दुसितासितैः सहितैः ॥१०॥
शूरोऽथ सूत्रकारश्चक्रधरो299 वा विपन्नदारधनः ।
दुःखार्णवोऽटनपरः सुसङ्गतैरर्कजीवबुधभौमैः ॥११॥
परदाररतश्चोरो विषमाङ्गो दुर्जनो विगतसत्वः ।
भवति प्रसवे पुरुषो रविसितभौमेन्दुजैः सहितैः ॥१२॥
योद्धा300 प्राज्ञस्तीक्ष्णो नीचाचारः कविप्रधानश्च ।
मन्त्री च भूपतिर्वा बुधार्ककुजसौरिसंयोगे ॥१३॥
सुभगः पूज्यो लोके धनवान् नृपसंमतो भुवि ख्यातः ।
रविभौमजीवशुकैरेकस्थैर्नीतिमान् पुरुषः ॥१४॥
सोन्मादो गणमान्यः सिद्धार्थो बन्धुमित्रसंपृक्तः ।
भानुकुजजीवसौरैः संयुक्तैर्वा नृपाभिमतः ॥१५॥
विकलो नीचाचारो विषमाक्षो बन्धुविद्विष्टः ।
सूर्यकुजशुक्रसौरैः पराभवं सर्वतो याति ॥१६॥
धनवान् सुखप्रधानः सिद्धार्थो बन्धुमान् प्रकृष्टश्च ।
भानुबुधजीवशुक्रैर्भवति पुमानेकराशिगतैः ॥१७॥
क्लीबाचारो मानी कलहरुचिः सहजवाङ् निरुत्साहः ।
अर्कार्किबुधसुरेज्यैरेकस्थैर्जायते पुरुषः ॥१८॥
मुखरः सुभगः प्राज्ञो मृदुसौख्यः सत्वशौचसम्पन्नः ।
धीरो मित्रसहायो रविबुधसितसौरिसंयोगे ॥१९॥
लुब्धः कविः प्रधानः कारुकनाथोऽधिपश्च नीचानाम् ।
आदित्यार्किसितार्यैराज्ञां जातो भवेदिष्टः ॥२०॥
शास्त्रकुशलो नरेन्द्रः सुमहामन्त्रोऽथवा महाबुद्धिः।
शशिकुजसोमजजीवैरेकस्थैर्यः पुमान् जातः ॥२१॥
कलहरुचिर्निद्रालुर्नीचः स्याद्वर्धकीपतिः सुभगः ।
बन्धुद्वेष्टा न सुखी शशिकुजबुधभार्गवैः सहितैः ॥२२॥
शूरो विमातृपितृको दुष्कुलजो बहुकलत्रमित्रसुतः ।
भवति सुकर्माभिरतः शशिकुजबुधसौरिसंयोगे ॥२३॥
विकालङ्गः सुकलत्रः सकलसहोऽतीव मानसंयुक्तः ।
प्राज्ञो बहुमित्रसुखः शशिकुजगुरुभार्गवैः सहितैः ॥२४॥
बधिरो धनवान् शूरः सोन्मादो वाक्पटुः स्थिरप्रकृतिः ।
मतिमानुदारचित्तो भौमेन्दुशनैश्चरसुरेज्यैः ॥२५॥
कुलटापतिः प्रगल्भः सर्पाक्षो नित्यमेव सोद्वेगः ।
जातः पुरुषोऽवश्यं कुजेन्दुयमभार्गवैर्भवति ॥२६॥
विद्वान् विमातृपितृकः सद्रूपो धनयुतोऽतिसुभगश्च ।
भवति नरो विगतारिर्बुधगुरुशशिभार्गवैः सहितैः ॥२७॥
कृतधर्मकीर्तिरग्र्यस्तेजस्वी बन्धुवल्लभो मतिमान् ।
नृपसचिवः प्रवरकविः शशिबुधजीवार्किभिः सहितैः ॥२८॥
परदारगमनशीलो विशीलभार्यो विपन्नबन्धुश्च।
प्राज्ञो लोकद्विष्टः301 स्यादिन्दुबुधार्किभृगुपुत्रैः ॥२९॥
मात्रा रहितः सुभगस्त्वग्दोषी दुःखितो भ्रमणशीलः ।
बहुभाषी सत्यरतः शशिगुरुभृगुसौरिभिः सहितैः ॥३०॥
स्त्रीकलहरुचिर्धनभाक् पूज्यो लोके च शीलसम्पन्नः ।
भवति पुमान् निरुज302तनुर्बुधारगुरुभार्गवैः सहितैः ॥३१॥
शूरो विद्वान् वाग्मी धनरहितः सत्यशौचसम्पन्नः ।
वादी द्वन्द्वसहिष्णुर्मतिमान् सहितैर्बुधारगुरुसौरैः ॥३२॥
स्यान्मल्लः परपुष्टः कठिनाङ्गो युद्धदुर्मदः ख्यातः ।
रमते च सारमेयैर्बुधारयमभार्गवैः सहितैः ॥३३॥
तेजस्वी वित्तयुतः स्त्रीलोलः साहसप्रियश्चपलः ।
भौमगुरुशुक्रसौरैरेकस्थैर्जायते कितवः ॥३४॥
मेधावी श्राद्धरतो303 रामासक्तो304 विधेयभृत्यश्च ।
बुधजीवशुक्रसौरैरेकस्यैस्तीव्रसंयोगे ॥३५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चतुर्ग्रहयोगाध्यायः सप्तदशः॥
अष्टदशोऽध्यायः।
दुःखी बहुप्रपञ्चो जायाविरहेण तापितशरीरः ।
भवति पुमानेकस्थै रवीन्दुकुजजीवचन्द्रसुतैः ॥१॥
परकर्मरतो नित्यं बन्धुसुहृद्भिः305 कृतो विगतसत्वः ।
क्लीबैर्याति च सख्यं रवीन्दुकुजशुक्रसौम्यैश्च ॥२॥
अल्पायुर्बन्धनभाग्दीनो भवतीह सर्वसुखहीनः ।
अकलत्रोऽसुतवित्तः सौरदिवाकरबुधेन्दुकुजैः ॥३॥
जात्यन्धो बहुदुःखी मातृपितृभ्यां सदैव सन्त्यक्तः ।
भवति नरो गेयरुचिः कुजेन्दुगुरुभार्गवार्कैश्च ॥४॥
युद्धकुशलः समर्थः परवित्तहरः परोपतापी च ।
पिशुनश्चलश्च पुरुषः शनिशशिकुजजीवदिवसेशैः ॥५॥
मानार्थविभवहीनो मलिनांचारः पराङ्गनातिरतः।
पञ्चभिरेकस्थैः स्याद्दिनेशशशिशुक्रशनिभौमैः ॥६॥
यन्त्रज्ञो बहुविभवो नृपसचिवो दण्डनायको वा स्यात् ।
ख्यातः शुभकीर्तियुतो बुधेन्दुरविजीवशुक्रैश्च ॥७॥
भीरुः प्रियसन्त्यक्तः सोन्मादो वञ्चनासु निपुणश्च ।
उग्रः परान्नभोजी बुधेन्दुगुरुसूर्यरविपुत्रैः ॥८॥
दीर्घो रोमशगात्रो मरणोत्साही सुखार्थसुतहीनः ।
स्यात्पञ्चभिरेकस्थैरविचन्द्रबुधार्किभृगुपुत्रैः ॥९॥
वाग्मीन्द्रजालनिरतश्चलचित्तः स्त्रीषु वल्लभो मतिमान् ।
बहुशत्रुर्विगतभयो रवीन्दुगुरुशुक्रभानुसुतैः ॥१०॥
कामी बहुतुरगनरः स्वीकृत306सेनापतिर्विगतशोकः।
राजप्रियोऽतिसुभगो बुधाररविजीवशुक्रैःस्यात् ॥११॥
नित्योद्विग्नो रोगी भिक्षां भुङ्क्ते गृहद्गृहं गत्वा ।
जीर्णमलीमसवासा रविकुजबुधजीवरविपुत्रैः ॥१२॥
वधबन्धनरोगार्तो विद्वाल्ँलोके सुपूजितो भवति ।
निःखो विकलशरीरः कुजशशिबुधशुक्रमन्दैः स्यात् ॥१३॥
व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तः स्थानभ्रष्टोऽतिदुःखसन्तप्तः ।
भ्रमति क्षुभितः पुरुषः कुजार्किरविशुक्रशशितनयैः ॥१४॥
प्रेष्यो मूर्खः क्लीबो मलिनाचारोऽतिदुर्भगो विकलः ।
भवति नरो धनरहितः शशिकुजगुरुशुक्ररवितनयैः ॥१५॥
जलयन्त्रधातुपारदरसायनेष्वतिपटुः पुमान् भवति ।
एभिः प्रसिद्धकर्मा क्षितिसुतरविजीवसितसौरैः ॥१६॥
बहुशास्त्रज्ञानपटुर्मित्रहितः संमतो गुरूणां च ।
धर्मपरः कारुणिकः सूर्यासितशुक्रबुधजीवैः
साधुः कल्यशरीरो विद्याधनसत्यसौख्यसम्पन्नः।
बन्धुहितो बहुमित्रो बुधेन्दुकुजजीवभृगुपुत्रैः ॥१८॥
तिमिरामयी दरिद्रः परान्नमभियाचते सदा दीनः ।
मलिनयति बन्धुवर्ग कुजार्किबुधजीवहिमकिरणैः ॥१९॥
बहुशत्रुमित्रपक्षः परार्थहितकृद्विषमशीलः ।
एकस्थैरतिमानी बुधेन्दुकुजशुक्ररविपुत्रैः ॥२०॥
नृपमन्त्री नृपतिसमो गणनाथः सर्वलोकपूज्यश्च।
एकर्क्षे भवति नरश्चन्द्रेन्दुजजीवशनिशुक्रैः॥२१॥
सुमनस्कः सोन्मादो राज्ञामतिवल्लभो विगतशोकः ।
निद्रातुरो दरिद्रः कुजगुरुबुधशुक्ररविपुत्रैः ॥२२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां पञ्चग्रहयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥
——————
एकोनविंशोऽध्यायः ।
विद्याधनधर्मरतः क्षामो बहुभाषको विकृष्टमतिः307 ।
एकभवनोपयातैर्बुधेन्दुरव्यारगुरुशुक्रैः ॥१॥
दाता परकार्यकरश्चलस्वभावो विशुद्धसत्वश्च ।
रमते विजनोद्देशे रवीन्दुवऋज्ञगुरुरविजैः ॥२॥
चोरः परदाररतः कुष्ठी स्वजनैर्निराकृतो मूर्खः ।
स्थानभ्रष्टो विसुतो बुधेन्दुरव्यारशनिशुक्रैः ॥३॥
नीचः परकर्मरतः308 क्षयरोगी श्वासकास309परिभूतः ।
निन्द्यः स्याद्वन्धूनां सितेन्दुरव्यारगुरुरविजैः ॥४॥
मन्त्री नृपस्य सुभगः क्षान्तियुतो भवति शोकपरितप्तः ।
अकलत्रो धनरहितो रवीन्दुबुधजीवसितसौरैः ॥५॥
तीर्थेषु सदा रमते पुत्रैर्नित्यं धनेन रहितश्च ।
वनपर्वतोपसेवी बुधाररविजीवशनिशुक्रैः ॥६॥
नित्यं शुचिः प्रतापी बहुयुवतिरतो नृपप्रियो मन्त्री।
धनसुतसौभाग्ययुतः कुजार्किसितचन्द्रबुधजीवैः ॥७॥
प्रायो दरिद्रदुःखी मूर्खः षट्पञ्चसंयुतैर्विहंगैः ।
अन्योन्यदर्शनादपि फलमेतत्कन्दलाः प्राहुः ॥८॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां षट्ग्रहयोगो नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥
विंशोऽध्यायः ।
योगा विभक्ताश्चतुरादिसंस्थैर्व्यासाद्ग्रहैः कैरपि तापसानाम् ।
जन्मादि310 तेषामपरैर्मुनीन्द्रैः संवेदितं तत्कथयाम्यशेषात् ॥१॥
सूर्येन्दुशुक्रार्यमहीसुतेषु सूर्येन्दुसोमात्मजभूमिजेषु ।
एकस्थितेषु प्रभवेत्तपस्वी भान्वारमन्दज्ञसितेषु चैव ॥२॥
कुजेन्दुसूर्यज्ञपुरोहितैश्च तीक्ष्णांशुचन्द्रार्किशशाङ्कजैश्च ।
सूर्येन्दुभूपुत्रशनैश्चरैः स्यादेकर्क्षगैःप्रव्रजितो मनुष्यः ॥३॥
आदित्यगुर्वार्किशशाङ्कपुत्रा भौमार्कचन्द्रात्मजसूरयश्च311 ।
एकर्क्षसंस्थास्तपसि स्थितानां कुर्वन्ति जन्मप्रसवे ग्रहेन्द्राः ॥४॥
सितार्कभौमार्कसुता महाबलाः सुरेज्यभूपुत्रकसौरसूरयः ।
कुजेन्दुवागीशशनैश्चरा इमे समं गता वै जनयन्ति तापसम् ॥५॥
कुजार्किसोमात्मजदेववन्दितैः कुजार्किचन्द्रात्मजसूर्यभार्गवैः ।
रवीन्दुभौमासितदानवप्रियैर्भवन्ति सूता व्रतसंयुता नराः ॥६॥
सितारसूर्यात्मजजीवभास्करैः कुजेन्दुदेवेड्यबुधार्कनन्दनैः ।
सितेन्दुपुत्रार्किशशाङ्कभूमिजैर्भवेत्तपस्वी वनपर्वताश्रयः ॥७॥
चन्द्रेन्दुपुत्रारसुरेड्यभास्करैः शशाङ्कसूर्येन्दुजशुक्रभूमिजैः।
स्थितैरमीभिः सहितैर्नृसम्भवाः भवन्ति वन्द्या मुनयोऽत्र दूषकाः८
रवीन्दुभौमेन्दुजजीवभार्गवैः शशाङ्कभौमार्किबुधेड्यभास्करैः ।
कुजेन्दुसूर्यार्किसितेन्दुसम्भवैर्भवेदमीभिः सहितैर्नरो व्रती ॥९॥
सितेन्दुजीवार्कजसूर्यलोहितैः सितार्कभौमार्किशशाङ्कसोमजैः ।
एकत्रयातैर्गगनेचरैः सदा भवन्ति जाता मुनयो यशस्विनः ॥१०॥
कुजज्ञवागीशसितार्किभास्करैः सितार्किजीवेन्दुजचन्द्रभूमिजैः ।
बलप्रधानैः सहितैर्विहङ्गमैर्ब्रजेत्प्रजातः पुरुषस्तपस्विताम् ॥११॥
रवीन्दुवागीशशनैश्चरैश्च शनैश्चरेन्द्वर्कसितैरवश्यम् ।
रवीन्दुपुत्रक्षितिजेन्द्रपूज्यैस्तपस्विनः स्युः फलमूलभक्षिणः ॥१२॥
वक्रार्कसोमात्मजदानवेड्या भौमेन्दुवागीशशशाङ्कपुत्राः ।
एकर्क्षगा जन्मनि यस्य जन्तोर्भवेद्वती वल्कलचीरधारी ॥१३॥
शशीन्दुपुत्रक्षितिजार्कपुत्रा बुधक्षमापुत्रसुरेड्यसौराः ।
एकर्क्षगा जन्मनि यस्य सूतौ कुर्वन्ति तं तापसमेव शान्तम् ॥१४॥
चन्द्रार्कभार्गवशशाङ्कसुता बलस्था
भौमेन्दुपुत्रसितभास्करनन्दनाश्च ।
मन्देन्दुवाक्पतिसिता नियतं यतीनां
कुर्वन्ति जन्म फलपाककृताशनानाम् ॥१५
रविकुजशशिशुक्रैश्चन्द्रभौमज्ञसूर्यै–
र्गुरुसितरविमन्दैः शुक्रजीवेन्दुवक्रैः।
कुजबुधसितचन्द्रैरेभिरेकर्क्षयातै–
र्भवति गिरिवनौकास्तापसः सर्ववन्द्यः ॥१६॥
सितशशिकुजगुरुमन्दैश्चन्द्रेन्दुजभौमदेवगुरुशुक्रैः ।
रविशशिकुजबुधजीवैर्भवति यतिर्दुःखितो दीनः ॥१७॥
कुजार्किदेवेड्यसितेन्दुपुत्रैः शनीनसोमात्मजचन्द्रभौमैः ।
समं गतैः स्युः सबलैर्यथोक्तैर्जटाधरा वल्कलधारिणश्च ॥१८॥
भान्विन्दुजेन्दुकुजजीवसुरारिपूज्यैः
सूर्येन्दुभौमगुरुशुक्रशनैश्चरैश्च
प्राप्नोत्यवश्यमिह तापसरूपमेभिः
एकर्क्षगैर्गगनवासिभिरेव जातः ॥१९॥
प्रव्रज्येशे दिनकरगते312 भुक्तिमन्तोऽतिशक्ताः
प्रव्रज्यायाः सुबलसहितैः स्थैर्यमाहुर्ग्रहेन्द्रैः ।
सम्पूर्णानां वशमनुगतैः313 प्रच्युतैस्तै314र्बहुत्वे
वीर्योपेतैर्भवति बहुभिः सद्बलस्यानुपूर्व्याम् ॥२०॥
प्रव्रज्यायाः स्वामी रविमुषिततनुर्नि315रीक्षितो वाऽन्यैः ।
याचितदीक्षा भवति च यवनाधिपतेर्यथा वाक्यम् ॥२१॥
शशीद्दगाणे रविजस्य संस्थितः कुजार्कि316दृष्टः प्रकरोति तापसम् ।
कुजांशके वा रविजेन दृष्टो नवांशतुल्यं कथयन्ति तत्पुनः317 ॥२२॥
जन्माधिपः सूर्यसुतेन दृष्टः शेषैरदृष्टः पुरुषस्य सूतौ ।
आत्मीयदीक्षां कुरुते ह्यवश्यं पूर्वोक्तमत्रापि विचारणीयम् ॥२३॥
जन्मपतिर्विकलाङ्गः318 पश्यति सौरिं चतुष्टये प्रबलम् ।
यस्य स भाग्यविहीनः प्रव्रज्यां प्राप्नुयात् पुरुषः ॥२४॥
गुरुहिमगुरवीणामेक एवोदयस्थो
गगनतलगतो वा रिःफगश्वाल्पमूर्तिः ।
अविकलबलभाजा सूर्यपुत्रेण दृष्टो
जनयति खलु जातं तापसं दुःखभाजम् ॥२५॥
कुमुदवनसुबन्धुं सौम्यभागे बलस्थं
वियति गमनशीलान् स्वोच्चभस्थांश्च शेषान् ।
यदि दिनकरपुत्रः पश्यति प्राप्तवीर्यो
भवति भुवननाथो दीक्षितश्च स्वतन्त्रः ॥२६॥
अतिशयबलयुक्तः शीतगुः शुक्लपक्षे
बलविरहितरिक्तं प्रेक्षते लग्ननाथम् ।
यदि भवति तपस्वी दुःखितः शोकतप्तो
धनजनपरिहीनः कृच्छ्रलब्धान्नपानः ॥२७॥
सौरिः शुभभागस्थः पश्यति चन्द्रं ग्रहांस्तथैवान्यान् ।
कुम्भांशेषु319 प्राप्तान् जनयति दीक्षान्वितं पुरुषम् ॥२८॥
एकर्क्षगतैः सर्वैर्जन्माधिपतिर्निरीक्षितो यस्य ।
दीक्षा तस्यावश्यं भवतीति पुरातनैः कथितम् ॥२९॥
अग्नीनां परिचारका गिरिनदीतीराश्रमे तापसाः
सूर्याराधनतत्परा गणपतेर्भक्ता उमायाश्च ये ।
गायत्रीं जपतां वने नियमिनां गङ्गाभिषेकार्थिनां
कौमारव्रतमिच्छतामधिपतिस्तेषां सदा भास्करः ॥३०॥
वृद्धश्रावकभस्मधूलिधवलाः शैवव्रते ये स्थिताः
बाह्याः पातकितां गता भगवतीभक्ताश्च निःसङ्गिनः ।
सिद्धान्ते खलु सोमनाम्नि निरताः कापालिका निष्ठुरा–
स्तेषां नायकतां गतः शशधर : खट्वाङ्गपाणियुतिः ॥३१॥
उपासका बुद्धसमाश्रयं गताः शिखां गताः320 पाण्डरभिक्षवश्च ये ।
सुवाससो रक्तपटा जितेन्द्रियाः प्रभुः सदैषां क्षितिजः प्रकीर्तितः ॥३२॥
आजीविनां कुहकिनां समयाधिका ये321
ये दीक्षितास्तनुभृतः खलु गारुडे च ।
तन्त्रे मयूरपिशिताशनयोश्च युक्ता–
स्तेषां शशाङ्कतनयोऽधिपतिर्निरुक्तः ॥३३॥
एकं त्रीनथवा वहन्ति मुनयो दण्डान् कषायाम्बरा
वानप्रस्थमुपागताः फलपयोभक्षाश्च ये भिक्षवः322 ।
गार्हस्थ्येन तु संस्थिता नियमिनः सद्ब्रह्मचर्य गता–
स्तेषां दण्डपतिः सुरेन्द्रसचिवस्तीर्थेषु ये स्नातकाः ॥३४॥
पाशुपतयज्ञदीक्षा323व्रतेषु ये नित्यमेव संयुक्ताः ।
वैष्णवचरकाणामपि तेषां नेता प्रकीर्तितः शुक्रः ॥३५॥
पाषण्डव्रतनिरता दिगम्बरा भिक्षवो ये च ।
तेषामधिपतिरार्किः श्रावकतरुमूलिनश्च दुस्तपसः ॥३६॥
प्रकथितमुनियोगे राजयोगो यदि स्यात्
अशुभफलविपाकं सर्वमुन्मूल्य पश्चात् ।
जनयति पृथिवीशं दीक्षितं साधुशीलं
प्रणतनृपशिरोभिः स्पृष्ट324पादाब्जयुग्मम् ॥३७॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां प्रव्रज्यायोगो नाम विंशोऽध्यायः ॥
एकविंशोऽध्यायः।
यवनाद्यैर्विस्तरतः कथिता योगास्तु नाभसा नाम्ना ।
अष्टादशशतगुणितास्तेषां द्वात्रिंशदिह वक्ष्ये ॥१॥
नौच्छत्रकूटकार्मुकशृङ्गाटकवज्रदामनीपाशाः ।
वीणासरोजमुसला वापीहलशरसमुद्रचक्राणि ॥२॥
माला सर्पार्धेन्दू यवकेदारौ गदाविहगयूपाः ।
युगशकटशूलदण्डा रज्जुः शक्तिस्तथा नलो गोलः ॥३॥
सचराचरस्य जगतो योगैरेभिः प्रकीर्यते प्रसवः ।
आश्रयजातान् प्राहुर्माणिन्धा मुसलरञ्जुनलयोगान् ॥४॥
गोलयुगशूलपाशा वीणाकेदारदामनीसंज्ञाः ।
सप्तैते संख्याख्याः पूर्वाचार्यैः समुद्दिष्टाः ॥५॥
द्वे चार्धयोगसंज्ञे भुजङ्गमाले पराशरेणोक्ते ।
आकृतिजाता विंशतिरपरैः कथिताश्च सावित्रे325॥६॥
आश्रययोगे जाता अमिश्रिते सौख्यलाभगुणयुक्ताः ।
अन्योन्यमिश्रिताश्चेद्विगतफलाः स्युस्तदा योगाः ॥७॥
नन्दन्ति स्वैर्भाग्यैर्नृपलब्धधना नृपप्रियाः ख्याताः।
प्रायेण सौख्ययुक्ताश्चाकृतियोगेषु ये जाताः ॥८॥
परभाग्यलव्धसौख्या धनभाग्यैरेव जीवितास्तेषाम्326 ।
संख्यासंज्ञे जाता ये पुरुषाः सर्वतो विकलाः ॥९॥
क्वचित् स्वभाग्यैः क्वचिदेवमेवं क्वचित्पराद्भूपतितः फलं च ।
कचित्सुखं दुःखमतीव कष्टं समार्द्धयोगे पुरुषो लभेत॥१०॥
होरादिकण्टकेभ्यः सप्तर्क्षगतैः क्रमेण योगाः स्युः।
नौच्छत्रकूटकार्मुकनिर्देशाः पूर्वयवनेन्द्रैः ॥११॥
लग्नादिकण्टकेभ्यश्चतुर्गृहावस्थितैर्ग्रहैर्योगाः ।
यूपशरशक्तिदण्डाः सत्याचार्यप्रिया नित्यम् ॥१२॥
सप्तर्क्षगैर्ग्रहेन्द्रैः केन्द्रादन्यत्र कीर्तितोऽर्द्धशशी ।
केन्द्रप्रत्यासन्नैर्भवनद्वयगैर्गदा नाम ॥१३॥
लग्नास्तगतैः सौम्यैः पापैः सुखकर्मगैर्भवति वज्रम् ।
विपरीतैर्यवयोगो मिश्रैः पद्मं बहिःस्थितैर्वाऽपि ॥१४॥
होरास्तगतैः शकटं चतुर्थदशमाश्रितैर्भवेद्विहगः ।
उदयान्त्यगैस्त्रिकोणे हल इति शृङ्गाटकं सलग्ने तत् ॥१५॥
राश्यन्तरितैर्लग्नात् षट्भवनगतैर्भवेच्चक्रम् ।
अर्थात्तथैव यातैश्चक्राकारो भवेज्जलधिः ॥१६॥
इत्याकृतिजा एते विंशतिसंख्या मया समुद्दिष्टाः ।
आश्रयजातान् वक्ष्ये यथामतं वृद्धगार्ग्यस्य ॥१७॥
उभयस्थिरचरसंस्थैः सर्वैर्नलमुसलरज्जवः क्रमशः ।
केन्द्रेषु सौम्यपापैर्माला सर्पश्च दलयोगौ ॥१८॥
एकभवनादिसंस्थैः संख्याख्याः स्युर्यथाक्रमं योगाः।
गोलयुगशूलसंज्ञाः केदारः पाशदामनीवीणाः ॥१९॥
एतेषां फलयोगं कथयामि यथाक्रमं मुनिभिरुक्तम् ।
सर्वदशास्वपि फलदाः सकला एते बुधैश्चिन्त्याः ॥२०॥
सलिलोपजीवविभवाः बह्वायाख्यातकीर्तयो दृष्टाः ।
कृपणा बलिनो लुब्धा नौसम्भूताश्चलाः पुरुषाः ॥२१॥
आनृतिककितवबन्धनपाला निष्किञ्चनाः शठाः क्रूराः ।
कूटसमुत्था नित्यं भवन्ति गिरिदुर्गवासिनो मनुजाः ॥२२॥
स्वजनाश्रयो दयावान् दाता नृपवल्लभः प्रकृष्टमतिः ।
प्रथमेऽन्त्ये वयसि नरःसुखभाग्ययुतः सितातपत्रः स्यात् ॥२३॥
आनृतिकगुप्तिपालाश्चोराः कितवाश्च कानने निरताः ।
कार्मुकयोगे जाता भाग्यविहीना वयोमध्ये ॥२४॥
सुभगाः सेनापतयः कान्तशरीरा नृपप्रिया बलिनः ।
मणिकनकभूषणयुता भवन्ति योगेऽर्द्धचन्द्राख्ये ॥२५॥
आद्यन्तवयसि327 सुखिताः शूराः सुभगा विरोगदेहाश्च।
भाग्यविहीना वज्रे जाताः स्वजनैर्विरुद्धाश्च ॥२६॥
व्रतनियममङ्गलपरा वयसो मध्ये सुखार्थसंयुक्ताः ।
दातारः स्थिरवित्ता यवयोगभवाः सदा पुरुषाः ॥२७॥
स्फीतयशसो गुणाढ्याः स्थिरायुषो विपुलकीर्तयः कान्ताः ।
शुभयशसः पृथिवीशाः कमलभवा मानवा नित्यम् ॥२८॥
निधिकरणे निपुणधियः स्थिरार्थसुखसंयुताः सुरूपाश्च328 ।
नयनसुखसम्प्रदृष्टा वापीयोगे नरा जाताः ॥२९॥
रोगार्त्ताः कुकलत्रा मूर्खाः शकटानुजीविनो निःस्वाः ।
स्वजनैर्मित्रर्हीनाः शकटे जाता भवन्ति नराः ॥३०॥
भ्रमणरुचयो329 निकृष्टा दूताः सुरतानुजीविनो धृष्टाः ।
कलहप्रियाश्च नित्यं विहगे योगे सदा जाताः ॥३१॥
सततं मानार्थपरा यज्वानः शास्त्रयोग330कुशलाश्च ।
धनकनकरत्नसम्पत्संयुक्ता मानवा गदायान्तु ॥३२॥
प्रियकलहसमरसाहससुखिनो नृपतेः प्रियाः सुभगकान्ताः ।
आढ्या युवतिद्वेष्याः शृङ्गाटकसंभवा मनुजाः ॥३३॥
बह्वाशिनो दरिद्राः कृषीवला दुःखिताश्च सोद्वेगाः ।
बन्धुसुहृत्सन्त्यक्ताः331 प्रेष्याहलसंज्ञिते पुरुषाः ॥३४॥
प्रणताशेषनराधिपकिरीटरत्नप्रभाच्छुरितपादः ।
भवति नरेन्द्रो मनुजश्चक्रे यो जायते योगे ॥३५॥
बहुधनरत्नाः क्षितिपा भोगार्थयुता जनप्रियाश्चपि332 ।
उदधिसमुत्थाः पुरुषाः स्थिरचित्ताः सत्ववन्तश्च ॥३६॥
आत्मनि रक्षानिरतस्त्यागयुतो वित्तसौख्यसम्पन्नः ।
व्रतनियमसत्यनिरतो यूपे जातो विशिष्टश्च ॥३७॥
इषुकरणदस्युबन्धनमृगयावनसेवनेतिसोन्मादाः ।
हिंस्राः कुशिल्पनिरताः333 शरयोगे सम्प्रसूताः स्युः ॥३८॥
धनरहितविकलदुःखितनीचालसपेलवायुषः पुरुषाः ।
सङ्ग्रामयुद्धनिपुणाः शक्त्यां जाताः स्थिराः सुभगाः ॥३९॥
हतपुत्रदारनिःस्वाः सर्वजनैर्न्यकृताः स्वजनबाह्याः334।
दुःखितनीचाः प्रेष्या दण्डप्रभवा नराः335 सततम् ॥४०॥
नित्यं सुखप्रधाना वाहनवस्त्रार्थभोगसम्पन्नाः ।
कान्ताः सुबहुस्त्रीका मालायां सम्प्रसूताः स्युः ॥४१॥
विषमाः क्रूरा निःस्वा नित्यं दुःखार्दिताः सुदीनाश्च ।
परभुक्ताः336 पानरताः सर्पे जाता भवन्ति नराः ॥४२॥
अटनप्रियाः सुरूपाः परदेशेष्वर्थभागिनो मनुजाः।
क्रूराः खलस्वभावाः रज्जुप्रभवाः सदा कथिताः ॥४३॥
मानधनज्ञानयुताः कर्मोयुक्ता नृपप्रियाः ख्याताः ।
स्थिरचित्ता मुसलोत्था भवन्ति शूराः सदा पुरुषाः ॥४४॥
ऊनातिरिक्तदेहा धनसंचयभागिनोऽतिनिपुणाश्च।
बन्धुहिताश्च सुरूपा नलयोगे सम्प्रसूयन्ते ॥४५॥
दारिन्द्यालस्ययुता विद्याज्ञामानवर्जिता मलिनाः ।
नित्यं दुःखितदीना गोले योगे भवन्ति नराः ॥४६॥
पाषण्डभागिनो वा धनरहिता वा बहिष्कृता लोके ।
सुतमानधर्मरहिता युगयोगे मानवा जाताः ॥४७॥
तीक्ष्णालसधनरहिता हिंस्राः सुबहिष्कृता महाशूराः ।
सङ्ग्रामलव्धशब्दाः शूले रौद्राः प्रजायन्ते ॥४८॥
सुबहूनामुपयोज्याः कृषीवलाः सत्यवादिनः सुखिताः ।
केदारे सम्भूताश्चलस्वभावा धनैर्युक्ताः ॥४९॥
पाशे बन्धनभाजः कार्योद्युक्ताः प्रपञ्चकाराश्च ।
बहुभाषिणो विशीला बहुभृत्याः सम्प्रसूताः स्युः ॥५०॥
दामिन्यामुपकारी पशुगणयुक्तो धनेश्वरो मूढः ।
बहुसुतरत्नसमृद्धो धीरो विद्वान् प्रजातः स्यात् ॥५१॥
मित्रान्विताः सुवचसः शास्त्रपरा गेयवाद्यनिरताश्च।
सुखभाजो बहुभृत्या वीणायां कीर्तिता मनुजाः ॥५२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नाभसयोगो नामैकविंशोध्यायः ॥
द्वाविंशोऽध्यायः ।
सर्वस्य सर्वकालं ग्रहराशिसमुद्भवं फलं यस्मात्337 ।
कथयाम्यतः प्रयत्नात् शेषाचार्यान् समाश्रित्य ॥१॥
शास्त्रार्थकृतिकलाभिः ख्यातो युद्धप्रियः प्रचण्डश्च ।
उद्युक्तो भ्रमणरुचिर्दृढास्थिबन्धः क्रिये श्रेष्ठः ॥२॥
साहसकर्माभिरतः पित्तासृग्व्याधिकान्तिसत्वयुतः
सूर्ये भवति नरेन्द्रः स्वतुङ्गराशौ नरो जातः ॥३॥
दानरतो बहुभृत्यो ललितो युवतिप्रियो मृदुशरीरः ।
कुजभवनगते सूर्ये चन्द्रेण निरीक्षिते भवति ॥४॥
सङ्ग्रामोत्कटवीर्यः क्रूरः संरक्तनेत्रकरचरणः ।
भौमगृहे कुजदृष्टे भानौ तेजोबलोपेतः ॥५॥
प्रेष्यः परकर्मरतो मन्दधनः सत्वहीनबहुदुःखः ।
भानौ बुधसंदृष्टे कुजभवने मलिनकायश्च ॥६॥
भूरिद्रविणो दाता नृपमन्त्री दण्डनायको वाऽपि ।
तरणौ सुरगुरुदृष्टे कुजभवने जायते श्रेष्ठः ॥७॥
कुत्सितरामाभर्त्ता338 बहुशत्रुः क्षीणबान्धवो दीनः ।
भौमगृहे सितदृष्टे दिवाकरे जायते कुष्ठी ॥८॥
दुःखपरिप्लुतदेहः कार्योन्मादी भवेद्विमूढमतिः ।
भौमर्क्षे दिवसकरे रवितनयनिरीक्षिते मूर्खः ॥९॥
वदनाक्षिरोगतप्तः क्लेशसहिष्णुर्न339 चापि बहुशत्रुः ।
भक्तो व्यवहाररतो रतिमान्व340न्ध्याङ्गनाद्वेषी ॥१०॥
भोजनमाल्याच्छादनगन्धयुतो गेयवाद्यनृत्तज्ञः ।
दिवसकरे वृषसंस्थे भवति पुमान् सलिलभीरुश्च ॥११॥
वेश्यारतिर्मृदुवचाः बहुयुवतिसमाश्रयो भवति ।
दिननाथे सितभवने दृष्टे शशिना सलिलजीवी ॥१२॥
शूरः सङ्ग्रामरुचिस्तेजस्वी साहसाप्तधनकीर्तिः ।
दिननाथे सितभवने कुजसंदृष्टे पुमान् विकलः ॥१३॥
लिपिलेख्यकाव्यपुस्तकगेयादिविधावतीव निपुणमतिः ।
दिननाथे सितभवने बुधसंदृष्टे भवेत् सुतनुः ॥१४॥
बहुशत्रुमित्रपक्षो नृपसचिवश्चारुलोचनः कान्तः ।
दिननाथे सितभवने गुरुणा दृष्टे सुतोषितो341 नृपतिः ॥१५॥
नृपतिर्नृपमन्त्री वा स्त्रीधनबहुयोगसंयुतो मतिमान् ।
दिननाथे सितभवने सितसंदृष्टे भवेद्भीरुः ॥१६॥
नीचोऽलसो दरिद्रो वृद्धस्त्रीसंगतो विषमशीलः ।
दिननाथे सितभवने शनिदृष्टे व्याधिसन्तप्तः ॥१७॥
मेधावी वाङ्मधुरो वात्सल्यगुणैर्युतः श्रुताचारः ।
विज्ञानशास्त्रकुशलो बहुवित्त उदारचेष्टश्च ॥१८॥
निपुणो ज्योतिषवेत्ता मध्यमरूपो द्विमातृकः सुभगः ।
मिथुनस्थे दिनभर्त्तरि जातः पुरुषो विनीतः स्यात् ॥१९॥
रिपुबान्धवकृतपीडा विदेशगमनार्दितोबहुविलापी
बुधभवने दिनभर्तरि दृष्टे चन्द्रेण पुरुषः स्यात् ॥२०॥
रिपुभयकलहसमेतो रणापवादादिदुःखितो दीनः ।
बुधराशौ दिनभर्त्तरि कुजेक्षिते भवति सव्रीडः ॥२१॥
भूपतिचरितः ख्यातो बान्धवसहितोऽरिभिश्च संत्यक्तः ।
बुधराशौ दिनभर्तरि बुधदृष्टेऽक्ष्यामययुतः342 स्यात् ॥२२॥
बहुशास्त्रदारितमुखो राज्ञां दूतो विदेशगश्चण्डः ।
बुधराशौ दिनभर्तरि गुरुणा दृष्टे सदोन्मादः ॥२३॥
धनदारपुत्रसुखितो343 मन्दस्नेहस्त्वनामयः सुखितः40 ।
बुधराशौ दिनभर्त्तरि सितसंदृष्टे भवेच्चपलः ॥२४॥
बहुभृत्योद्विग्नमना बहुबन्धुविपोषणे सदा निरतः344 ।
बुधराशौ दिनभर्तरि सौरेण निरीक्षिते कितवः ॥२५॥
कर्मसु चपलः ख्यातो गुणैर्नृपाणां स्वपक्षविद्वेषी ।
स्त्रीदुर्भगः सुरूपः कफपित्तार्तः श्रमाभिसन्तप्तः ॥२६॥
मद्यरुचिः345 समधर्मा मानी वरवाक्यदेशदिग्वेत्ता।
सूर्ये कुलीरसंस्थे बहुस्थितिः पितृगणद्वेष्टा ॥२७॥
राजा राजसमो वा जल346पण्यधनस्थिरः347 क्रूरः।
कर्कटके तीव्रकरे दृष्टे शशिना भवेत्पुरुषः ॥२८॥
शोष348भगन्दररोगैः सन्तप्तो बन्धुभिः सह विरक्तः349 ।
कर्कटके दिननाथे भौमेन निरीक्षिते पिशुनः350॥२९॥
विद्यामानयशोभिः ख्यातो नृपवल्लभो भवेन्निपुणः ।
सूर्ये कुलीरराशौ बुधेन दृष्टे विगतशत्रः ॥३०॥
श्रेष्ठो राज्ञो मन्त्री सेनानाथोऽथ सुप्रसिद्धश्च ।
सूर्ये शशिभवनस्थे गुरुणा दृष्टे कलाभ्यधिकः ॥३१॥
स्त्रीसेवी युवतिधनः परकार्यकरो रणे प्रचण्डश्च351 ।
कर्कटकस्थे सूर्ये शुक्रेण निरीक्षिते प्रियालापः ॥३२॥
कफमारुतरोगार्तः परस्वहारी विलोममतिचेष्टः ।
कर्कटकस्थे भानौ स्वपुत्रदृष्टे पुमान् पिशुनः ॥३३॥
रिपुहन्ता क्रोधपरो विशिष्टचेष्टो वनाद्रिदुर्गचरः ।
उत्साही सच्छूरस्तेजस्वी मांसभक्षणो रौद्रः ॥३४॥
गम्भीरः स्थिरसत्वो बधिरः352 क्षितिपालको धनसमृद्धः ।
सिंहस्थे दिवसकरे ख्यातः पुरुषो भवेज्जातः ॥३५॥
मेधावी सुकलत्रः कफार्दितो भूपवल्लभो मनुजः ।
आदित्ये सिंहस्थे चन्द्रेण निरीक्षिते भवति ॥३६॥
परदाररतः शूरः साहसकारी कृतोद्यमो रौद्रः ।
दिवसकरे सिंहस्थे कुजेन दृष्टे प्रधानश्च ॥३७॥
विद्वान् लिपिलेख्यकरः कितवासेवी परिभ्रमतिहीनः ।
सिंहस्थे दिवसकरे बुधेन दृष्टे न बहुसत्वः ॥३८॥
देवारामतटाकान् करोति सत्वाधिको विजनशीलः ।
सिंहे सहस्ररश्मौ सुरगुरुदृष्टे महाबुद्धिः ॥३९॥
दुर्नामकुष्ठरोगैरभिभूतो निर्दयो विगतलज्जः
सिंहे तिमिरविनाशे शुक्रेण निरीक्षिते जातः ॥४०॥
कार्यविनाशनदक्षः पण्डो जातः परोपतापकरः ।
सिंहस्थे दिवसकरे स्वपुत्रदृष्टे पुमान् भवति ॥४१॥
स्त्रीतुल्यतनुमान् लिपिवेत्ता दुर्बलश्च वल्गुकथः ।
मेधावी लघुसत्वो विद्वान् शुश्रूषकः सुरगुरूणाम्353 ॥४२॥
संवाहनादिकर्मसु दक्षः श्रुतिगेयवाद्यपरितुष्टः ।
कन्यायां दिवसकरे जातो मृदुदीनवाक्यश्च ॥४३॥
भङ्ग354क्षयव्ययार्त्तोविदेशमार्गादिलम्पटो द्विष्टः ।
नीचोपहतप्रीतिर्हिरण्यलोहादिपण्यजीवी च ॥४४॥
द्वेष्यः परकर्मरतः परदाररतिः पुमान् भवेन्मलिनः।
सूर्ये तुलाधरस्थे नृपपरिभूतः प्रगल्भश्च ॥४५॥
अनिवारितरणवेगः श्रुतिधर्मरतो न सत्यवाङ्मूर्खः ।
प्रविनष्टदुष्टयुवतिः क्रूरः कुस्त्रीविधेयश्च ॥४६॥
क्रोधपरोऽसद्वृत्तो लोभिष्ठः कलहवल्लभोऽनृतवाक् ।
शस्त्राग्निविषग्रस्तः पितुर्जनन्याश्च दुर्भगः कीटे ॥४७॥
द्रव्यान्वितो नृपेष्टो जातः प्राज्ञः सुरद्विजानुरतः ।
शस्त्रास्त्रहस्तिशिक्षानिपुणो व्यवहारयोग्यश्च ॥४८॥
पूज्यः सतां प्रशान्तो धनवान् विस्तीर्णपीनचारुतनुः ।
बन्धूनां हितकारी सत्वयुतः कार्मुके सूर्ये ॥४९॥
वाक्बुद्धिविभवपुत्रैः समन्वितो नृपसमो विगतशोकः ।
वाक्पतिराशौ तपने दृष्टे चन्द्रेण सुशरीरः ॥५०॥
संग्रामे लब्धयशाः स्फुटवचनो वित्तसौख्यसम्पन्नः ।
सूर्ये वाक्पतिराशौ भौमेन निरीक्षिते चण्डः ॥५१॥
मधुरवचनो लिपिज्ञः काव्यकलागोष्ठियानधातुज्ञः ।
गुरुभे सवितरि दृष्टे बुधेन जनसंमतो भवति ॥५२॥
विचरति नरेन्द्रभवने नृपतिर्वा वारणाश्वधनयुक्तः ।
सुरगुरुगृहे विवस्वति गुरुणा दृष्टे सदा विद्वान् ॥५३॥
दिव्यस्त्रीभोगयुतः सुगन्धमाल्यादिभिः सहितः ।
सुरगुरुभवने भानौ शुक्रेण निरीक्षिते शान्तः ॥५४॥
अशुचिः परान्नकाङ्क्षी नीचानुरतः चतुष्पदक्रीडः ।
देवेज्यगृहे सूर्ये मन्देन निरीक्षिते भवति ॥५५॥
लुब्धः कुस्त्रीसक्तः कुकर्मसंवर्धितः सतृष्णश्च ।
बहुकार्यरतो भीरुर्विहीनबन्धुश्चलप्रकृतिः ॥५६॥
अटनप्रियोऽल्पसत्वः स्वपक्षविक्षोभनाशितसमस्तः।
मकरस्थे दिवसकरे जातो बहुभक्षकः पुरुषः ॥५७॥
मायापटुश्चलमतिः स्त्रीसङ्गान्नष्टधनसौख्यः।
मन्दगृहे तीव्रकरे चन्द्रेण निरीक्षिते भवति ॥५८॥
व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तः परकलहात् शस्त्रविक्षतशरीरः ।
मन्दगृहे तिमिररिपौ भौमेन निरीक्षिते विकलः ॥५९॥
शूरः षण्डप्रकृतिः परस्वहारी नसारसर्वाङ्गः।
नलिनीदयिते शनिभे बुधेन संवीक्षिते भवति ॥६०॥
शोभनकर्मा मतिमान् सर्वेषामाश्रयो विपुलकीर्तिः।
कोणगृहे दिनभर्तरि गुरुणा दृष्टे मनस्वी च ॥६१॥
शङ्खप्रवालमणिभिर्जीवति वेश्याङ्गनाधनसमृद्धः।
कोणभवने दिनपतौ भृगुणा दृष्टे सुखी जातः ॥६२॥
ध्वंसयति शत्रुपक्षं नरेन्द्रसन्मानवर्द्धिताश्वासः ।
मानौ शनैश्चरगृहे शनिदृष्टे सूयते योऽसौ ॥६३॥
हृद्रोगी बहुसत्वः सतां विगह्र्योऽतिरोषश्च ।
परदाराणां सुभगः कर्मस्विति निश्चितो भवति ॥६४॥
दुःखप्रायोऽल्पवनः शठश्चलितसौहदो मलिनमूर्तिः ।
कुम्भधरेऽर्केजातः पिशुनः स्यात् दुष्प्रलापश्च ॥६५॥
सुहृदां संग्रहशीलः स्त्रीप्रीत्या लब्धसौख्यसंभारः।
प्राज्ञो बहुशत्रुघ्नः क्षयोदयी355 भवति धनकीर्त्या ॥६६॥
सत्सुतभृत्याप्तयशा जलपण्यधनः सुवागनृतवादी।
ऊर्जितगुह्यरुगार्तो बहुसहजो मीनसंस्थेऽर्के ॥६७॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां आदित्यचारदृष्टियोगो नाम द्वाविंशोऽध्यायः ।
त्रयोविंशोऽध्यायः।
सौवर्णाङ्गः356 स्थिरस्वः सहजविरहितः साहसी मानभेद्रः357
कामार्त्तः क्षामजानुः कुनखतनुकचश्चञ्चलो मानवित्तः।
पद्माभैः पाणिपादैर्विततसुतजनो वर्तुलाकारनेत्रः
सस्नेहस्तोयभीरुर्व्रणविकृतशिराः स्त्रीजितो मेष इन्दौ ॥१॥
अत्युग्रतरो नृपतिः प्रणतानां मार्दवं भजति358 जातः ।
धीरः सङ्ग्रामरुची रविणा दृष्टे शशिनि मेषे ॥२॥
दन्ताक्षिरोगतप्तः शिखिवातादिक्षतशरीरः359 ।
माण्डलिकः स्यान्मेषे कुजदृष्टे शशिनि भूतार्तः360 ॥३॥
नानाविद्याचार्यः361 सद्वाक्यः स्यान्मनोभीष्टः ।
बुधदृष्टे मेषस्थे निशाकरे सत्कविर्विपुलकीर्तिः ॥४॥
बहुभृत्यधनसमृद्धो नृपतेः सचिवश्चमूपतिर्वाऽपि ।
मेषगृहे हिमरश्मौ दृष्टे गुरुणा पुमान् जातः ॥५॥
सुभगः सुतधनयुक्तो वरयुवतिविभूषणोऽल्पभोक्ता362 च ।
मेषे शिशिरमयूखे भृगुतनयनिरीक्षिते भवति ॥६॥
विद्विष्टो बहुदुःखो दारिद्यतनुर्मलीमसोऽनृतवाक् ।
मेषे शिशिरमयूखे रवितनयनिरीक्षिते भवति ॥७॥
व्यूढोरस्कोऽतिदाता घनकुटिलकचः कामुकः कीर्तिशाली
कान्तः कन्याप्रजावान् वृषसमनयनो हंसलीलाप्रचारः ।
मध्यान्ते भोगभागी पृथुकटि363चरणस्कन्धजान्वास्यजङ्घः
सांकः पार्श्वास्यपृष्ठे ककुदि364 शुभगतिः क्षान्तियुक्तो गवीन्दौ ॥८॥
कर्षकमतिकर्मकरं द्विपदचतुष्पदैः365 समृद्धं च ।
प्रायोगिकं प्रकुरुते वृषभे रविवीक्षितश्चन्द्रः ॥९॥
अतिकामं कुजदृष्टो युवतिकृते नष्टसारमित्रजनम् ।
हृदयहरं नारीणां मातुर्न366 शुभं शशी वृषे कुरुते ॥१०॥
प्राज्ञं वाक्यविधिज्ञं प्रमुदितमिष्टं समस्तभूतानाम् ।
जनयति बुधेन दृष्टः शशी वृषेऽनुपमगुणैर्युक्तम् ॥११॥
स्थिरपुत्रदारसुहृदं मातापितृभक्तिमन्तमतिनिपुणम्।
धार्मिकमतिविख्यातं गवि गुरुदृष्टः शशी कुरुते ॥१२॥
भूषणयानगृहाणां शयनासनगन्धवस्त्रमाल्यानाम् ।
भागिनमुपभोक्तारं सितेक्षितो यदि शशी कुरुते ॥१३॥
धनहीनमनिष्टकरं367 वृषभे द्वेष्यं सदा च युवतीनाम् ।
सुतमित्रबन्धुसहितं रविसुतदृष्टः शशी कुरुते368 ॥१४॥
पूर्वार्धे सम्भूतो जननीमृत्युं करोति न चिरेण ।
पश्चादर्द्धे वृषभे पितुर्वियोगं शशी कुरुते ॥१५॥
उन्नासश्यामचक्षुः सुरतविधिकलाकाव्यकृद्भोगभोगी
हस्ते मत्स्याधिपांको विषयसुखरतो बुद्धिदक्षः369 सिरालः ।
कान्तः सौभाग्यहास्यप्रियवचनयुतः स्त्रीजितो व्यायताङ्गो
याति क्लीबैश्च सख्यं शशिनि मिथुनगे मातृयुग्मप्रपुष्टः॥१६॥
प्रज्ञाधनं प्रकाशं मिथुने रूपान्वितं सुधर्मिष्ठम् ।
अतिदुःखितमल्पार्थं करोति सूर्येक्षितचन्द्रः ॥१७॥
अतिशूरमतिप्राज्ञं सुखवाहनविभवरूपसम्पन्नम् ।
कुरुते मिथुने चन्द्रो वक्रेण निरीक्षितोऽवश्यम् ॥१८॥
अर्थोत्पादनकुशलं कुरुते ह्यपराजितं सुधीरं च ।
पार्थिवमखण्डिताज्ञं मिथुने बुधवीक्षितश्चन्द्रः ॥१९॥
विद्याशास्त्राचार्यं विख्यातं सत्यवाचमतिरूपम् ।
मान्यं वाग्मिनमिन्दुः करोति गुरुवीक्षितो मिथुने ॥२०॥
वरयुवतिमाल्यवस्त्रैर्वरवाहनयानभूषणैर्मणिभिः ।
क्रीडां कुरुते पुरुषो भृगुदृष्टे शशिनि मिथुनस्थे ॥२१॥
कुरुते बान्धवरहितं युवतिसुखविभूतिवर्जितं चापि ।
अधनं लोकद्वेष्यं जितुमे शनिनेक्षितचन्द्रः ॥२२॥
युक्तः सौभाग्य370योगैर्गृहसुहृदटनज्योतिषज्ञानशीलैः
कामासक्तः कृतज्ञः क्षितिपतिसचिवः सत्प्रमाणः प्रवासी ।
सोन्मादः केशकल्पो जनकुसुमरुचिर्हानिवृद्धयानुयातः
प्रासादोद्यानवापीग्रियकरणरतः पीनकण्ठः कुलीरे ॥२३॥
नरपतिपुरुषमधन्यं धनरहितं क्लेशकारकं371 वाऽपि।
कुरुते स्वगृहे चन्द्रो रविदृष्टो दुर्गपालं च ॥२४॥
शूरं विकलशरीरं मातुरनर्थावहं प्रियं दक्षम् ।
क्षितितनयवीक्षिततनुर्जनयति चन्द्रो नरं स्वगृहे ॥२५॥
अविकलमतिं नयज्ञं जनयति बुधवीक्षितः शशी स्वगृहे ।
धनदारपुत्रवन्तं नृपसचिवं सौख्यवन्तं च ॥२६॥
नृपतिं नृपगुणयुक्तं जनयति चन्द्रः सुरेज्यसंदृष्टः ।
स्वगृहे सुखितसुभार्यंनयविनयपराक्रमाक्रान्तम् ॥२७॥
धनकनकवस्त्रयोषिद्रत्नानां भाजनं शशी कुरुते ।
कर्कटके सितदृष्टो वेश्याजननायकं कान्तम् ॥२८॥
अटनमसुखं दरिद्रं मातुरनिष्टं प्रियानृतं पापम् ।
शनिना दृष्टः स्वगृहे करोति चन्द्रो नरं नीचम् ॥२९॥
स्थूला372स्थिर्मन्दरोमा पृथुवदनगलो ह्रस्वपिङ्गाक्षियुग्मः
स्त्रीद्वेषी क्षुत्पिपासाजठररदरुजा पीडितो मांसभक्षः।
दाता तीक्ष्णो ह्यपुत्रो373 विपिननगरतिर्मातृवश्यः सुवक्षाः
विक्रान्तः कार्यलापी शशभृति रविभे सर्वगम्भीरदृष्टिः ॥३०॥
नृपतिसपत्नं कुरुते प्रोत्कृष्टगुणं महास्पदं374 वीरम्।
रविणा दृष्टः सिंहे पापरतं विश्रुतं चन्द्रः ॥३१॥
सेनापतिं प्रचण्डं नरयुवतिसुतार्थवाहनोपेतम् ।
जनयत्युत्तमपुरुषं कुजेक्षितश्चन्द्रमाः सिंहे ॥३२॥
स्त्रीसत्वं स्त्रीललितं स्त्रीवश्यं युवतिसेवकं सिंहे ।
कुरुते बुधेन दृष्टो धनसुखभोगान्वितं चन्द्रः ॥३३॥
अभिजातं कुलपुत्रं बहुश्रुतं गुणसमृद्धं च ।
कुरुते नरेन्द्रतुल्यं गुरुदृष्टश्चन्द्रमाः सिंहे ॥३४॥
प्रमदाविभवैर्युक्तं रोगिणमपि युवतिसेवकं कुरुते ।
सुरतविधिज्ञं प्राज्ञं शशी हरौ शुक्रसन्दृष्टः ॥३५॥
कर्षकमधनं कुरुतेऽनृतवाचं दुर्गपालकं सिंहे ।
रविजेन तथा दृष्टो युवतिसुखैर्हीनमल्पकं च शशी ॥३६॥
स्त्रीलोलो लम्बबाहुर्ललिततनुमुखश्चा375रुदन्ताक्षिकर्णो
विद्वानाचार्यधर्मा प्रियवचनयुतः सत्यशौचप्रधानः।
धीरः सत्वानुकम्पी परविषयरतः क्षान्तिसौभाग्यभागी
कन्याप्रायप्रसूतिर्बहुसुतरहितः376 कन्यकायां शशाङ्के ॥३७॥
नृपकोशकरं ख्यातं गृहीतवाक्यं विशिष्टकर्माणम् ।
कन्यायां रविदृष्टो भार्याहीनं शशी कुरुते ॥३८॥
शिल्पाचार्यं ख्यातं धनवन्तं शिक्षितं सुधीरं च ।
कन्यायां कुजदृष्टो मातुरनिष्टं शशी कुरुते ॥३९॥
ज्योतिषकाव्यविधिज्ञं विवादकलहेषु विजयिनं सुतराम्377 ।
सातिशयं कन्यायां जनयति निपुणं बुधेक्षितचन्द्रः ॥४०॥
बन्धुजनाढ्यं सुखिनं नृपकृत्यकरं गृहीतवाक्यं च ।
कन्यायां गुरुदृष्टो जनयति विभवान्वितं चन्द्रः ॥४१॥
कन्यायां बहुदारं विविधालङ्कारभोगिनमथाढ्यम् ।
सततमिहोर्जितमुदितं कुरुते भृगुणा निरीक्षितश्चन्द्रः ॥४२॥
अदृढस्मृतिं दरिद्रं सुखरहितममातृकं युवतिवश्यम् ।
कन्यायां यमदृष्टः स्त्रीभोग्यधनं शशी कुरुते ॥४३॥
उन्नासो व्यायताक्षः कृशवदनतनुर्भूरिदारो वृपाढ्यो
गोभूभ्यः378 शौचसारो वृषसमवृषणो विक्रमज्ञः क्रियेशः ।
भक्तो देवद्विजानां बहुविभवयुतः स्त्रीजितो हीनदेहो
धान्यादानैकबुद्धिस्तुलिनि शशधरे बन्धुवर्गोपकारी ॥४४॥
अधनं व्याधितमटनं परिभूतं भोगविप्रयुक्तं च ।
असुतमसारं जूके जनयति रविवीक्षितचन्द्रः ॥४५॥
तीक्ष्णं चोरं क्षुद्रं परयोषिद्गन्धमाल्यसंयुक्तम् ।
मतिमन्नयनातुरगं जनयति वक्रेक्षितचन्द्रः ॥४६॥
दृष्टो बुधेन चन्द्रः कलाविदग्धं प्रभूतधनधान्यम् ।
शुभवाक्यं विद्वांसं देशख्यातं तुलाधरे कुरुते ॥४७॥
जीवेक्षितस्तुलायां जनयति सर्वत्र पूजितं हिमगुः ।
क्रयविक्रयेषु कुशलं रत्नादिषु भाण्डजातेषु ॥४८॥
ललितमरोगं सुभगं समुपचिताङ्गं धनान्वितं प्राज्ञम्।
विविधोपायविधिज्ञं कुरुते भृगुवीक्षितः शशी तुलके ॥४९॥
कुरुते शशी धनाढ्यं प्रियवाक्यं वाहनैर्युतं जूके ।
विषयरतिं सुखरहितं भास्करिदृष्टो हितं मातुः ॥५०॥
लुब्धो वृत्तोरुजङ्घः कठिनतरतनुर्नास्तिकः क्रूरचेष्टः
चोरो बाल्ये रुगार्त्तो हृतचिबुकनखश्चारुनेत्रः समृद्धः ।
कर्मोद्युक्तः प्रदक्षः परयुवतिरतो बन्धुहीनः प्रमत्तः
चण्डो राज्ञा हृतस्वः पृथुजठरशिराः कीटभे शीतरश्मौ ॥५१॥
कुरुते लोकद्वेष्यं बुधमटनं च वित्तवन्तं च ।
दिनकरदृष्टोऽलिगतश्चन्द्रः सुखवर्जितं पुरुषम् ॥५२॥
अनुपमधैर्यं कुरुते नृपतिसमं वृश्चिके विभूतियुतम् ।
शूरमजय्यं समरे प्रभक्षणं भूमिजेन संदृष्टः ॥५३॥
अचतुरममृष्टवाक्यं यमलापत्यं च युक्तिमन्तं च ।
जनयति बुधेन दृष्टः कूटकरं वृश्चिके च गीतज्ञम् ॥५४॥
कर्मासक्तं कुरुते लोकद्वेष्यं च वित्तवन्तं च ।
गुरुणा दृष्टोऽलिगतो निशाकरो रूपवन्तं च ॥५५॥
अतिमदमतीव379 सुभगं धन380वाहनभोगललितमिह कीटे381।
युवतिविनाशितसारं जनयति भृगुवीक्षितश्चन्द्रः ॥५६॥
नीचापत्यं कृपणं व्याधितमधनं च सत्यहीनं च ।
जनयत्यन्तकदृष्टो नरमधनं चन्द्रमाः कीटे ॥५७॥
कुब्जाङ्गो वृत्तनेत्रः पृथुहृदयकटिः पीनबाहुः प्रवक्ता
दीर्घासो दीर्घकण्ठो जलतटवसतिः शिल्पविद् गूढगुह्यः ।
शूरो दृष्टोऽस्थिसारो वितत382बहुबलः स्थूलकण्ठोष्ठघोणो
बन्धुस्नेही कृतज्ञो धनुषि शशिधरे संहताङ्घ्रिः प्रगल्भः ॥५८॥
नृपतिमथाढ्यं कुरुते शूरं विख्यातपौरुषं चापे ।
भास्करदृष्टश्चन्द्रस्त्वनुपमसुखवाहनोपेतम् ॥५९॥
सेनापतिं समृद्धं सुभगं प्रख्यातपौरुषं पुरुषम् ।
जनयत्यनुपमभृत्यं क्षितिसुतदृष्टः शशी धनुषि ॥६०॥
बहुभृत्यं त्वक्सारं ज्योतिषशिल्पक्रियादिनिपुणं च ।
बुधदृष्टो हिमरश्चिमर्नग्नाचार्यं383 हये कुरुते ॥६१॥
अनुपमदेहं कुरुते पृथ्वीपालस्य मन्त्रिणं चापे।
त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्धनधर्मसुखान्वितं चन्द्रः ॥६२॥
सुखिनमतीव हि ललितं सुभगं पुत्रार्थकामवन्तं च।
चापे सुमित्रभार्यं भार्गवदृष्टः करोतीन्दुः ॥६३॥
प्रियवादिनं सुवाक्यं बहुश्रुतं सत्यवादिनं सौम्यम्।
अभिजातं नृपपुरुषं जनयति सौरेक्षितः शशी धनुषि ॥६४॥
गीतज्ञः शीतभीरुः पृथुलतरशिराः सत्यधर्मोपसेवी
प्रांशुः ख्यातोऽल्परोषो मनसि भवयुतो निर्घृणस्त्यक्तलज्जः।
चार्वक्षः384 क्षामदेहो गुरुयुवतिरतः सत्कविर्वृत्तजङ्घो
मन्दोत्साहोऽतिलुब्धः शशिनि मकरगे दीर्घकण्ठोतिकर्णः385 ॥६५॥
अधनं दुःखितमटनं परकर्मरतं मलीमसं कुरुते ।
मकरे कुवलयनाथः386 शिल्पमतिं वीक्षितो रविणा ॥६६॥
अतिविभवमत्युदारं सुभगं धनसंयुतं मृगे पुरुषम् ।
वाहनयुतं प्रचण्डं करोति वक्रेक्षितचन्द्रः ॥६७॥
मूर्खं प्रवासशीलं गतयुवतिं चञ्चलं मृगे तीक्ष्णम् ।
जनयति बुधेन दृष्टः सुखरहितं निर्धनं पुरुषम् ॥६८॥
भूपतिमनुपमवीर्यंनृपतिगुणैः संयुतं मृगे जातम् ।
बहुदारपुत्रमित्रं जनयति गुरुवीक्षितचन्द्रः ॥६९॥
(प) वरयुवतिधनविभूषणवाहनमालान्वितं नरं मकरे ।
सोपक्रोशमपुत्रं जनयति भृगुवीक्षितश्चन्द्रः ॥७०॥
अलसं मलिनं सधनं मदनार्तंपारदारिकमसत्यम्।
दिवसकरपुत्रदृष्टः करोति चन्द्रो नरं मकरे ॥७१॥
उद्घोणो रूक्षदेहः पृथुकरचरणो मद्यपानप्रसक्तः
सद्द्वेष्यो धर्महीनः परसुतजनकः स्थूलमूर्धा कुनेत्रः।
शाठ्यालस्याभिभूतो विपुलमुखकटिः शिल्पविद्यासमेतो
दुःशीलो दुःखतप्तो घटभमुपगते387 रात्रिनाथे दरिद्रः ॥७२॥
अतिमलिनमतिच शूरं नृपरूपं धार्मिकं कृषिकरं च।
कुरुते दिनकरदृष्टो घटधरसंस्थः क्षपानाथः ॥७३॥
कुम्भेऽतिसत्यवाक्यं मातृगुरुधनैर्वियुक्तमलसं च।
विषमं परकार्यरतं करोति भौमेक्षितश्चन्द्रः ॥७४॥
शयनो388पचारकुशलं गीतविधिज्ञं प्रियं च युवतीनाम् ।
तनुविभवसुखं पुरुषं करोति बुधवीक्षितः शशी कुम्भे॥७५॥
ग्रामक्षेत्रतरूणां वरभवनानां वराङ्गनानां च।
कुरुते भोगिनमार्यं साधुं गुरुवीक्षितः शशी कुम्भे ॥७६॥
नीचमपुत्रममित्रं कातरमाचार्यनिन्दितं पापम्।
कुरुते शशी कुयुवतिं सितेक्षितो घटधरेऽल्पसुखम् ॥७७॥
नखरोमधरं मलिनं परदाररतं शठं विधर्माणम् ।
स्थावरभागिनमाढ्यं शशी घटे सौरसंदृष्टः ॥७८॥
शिल्पोत्पन्नाधिकारो हितजयनिपुणः शास्त्रविच्चारुदेहो
गेयज्ञो धर्मनिष्ठो बहुयुवतिरतः सौख्यभाक्389 भूपसेवी।
ईषत्कोपो महत्कः सुखनिधिधनभाक् स्त्रीजितः सत्स्वभावो
यानासक्तः390 समुद्रे तिमियुगलगते शीतगौ दानशीलः ॥७९॥
तीव्रमदनं प्रकाशं सुखिनं सेनापतिं धनसमृद्धम् ।
जनयति दिनकरदृष्टः सुमुदितभार्यं शशी मीने ॥८०॥
परिभूतं सुखरहितं391 कुलटापुत्रं च पापनिरतं392 च।
जनयति नक्षत्रपतिः क्षितिसुतदृष्टो झषे शूरम् ॥८१॥
जनयति बुधेन दृष्टो मीनस्थश्चन्द्रमाः पुरुषम् ।
भूपतिमतीव सुखिनं वर393युवतिसमावृतं वश्यम् ॥८२॥
गुरुदृष्टो मीनस्थो ललितं चन्द्रोऽग्रमाण्डलिकम् ।
अत्याढ्यं सुकुमारं बहुभिः स्त्रीभिर्वृतं जनयेत् ॥८३॥
कुरुते शशी सुशीलं रतिमन्तं नृत्यवाद्यगेयरतम् ।
शुक्रेक्षितो झषस्थो हृदयहरं कामिनीनां च ॥८४॥
विकलमहितं जनन्याः कामार्तं पुत्रदारमतिहीनम् ।
कुरुते रविसुतदृष्टो नीचविरूपाङ्गनासक्तम् ॥८५॥
राशिपतौ बलयुक्ते राशौ च बलान्विते तथा चन्द्रे।
राशिफलं स्यात् सकलं नीचोच्चविधिना च संचिन्त्यम् ८६
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां चन्द्रचारो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
चतुर्विंशोऽध्यायः ।
भौमेंशे394 कुजदृष्टो निकर्त्तनश्च395न्द्रमाः प्रचण्ड396श्च ।
जनयति मायाबहुलं प्रवञ्चकं सूर्यजेन किल397 पुरुषम् ॥१॥
सूर्येण चोरघातकमथवाप्यारक्षकं शूरम् ।
जीवेन मनुजनाथं ख्यातं विद्वत्समाराध्यम् ॥२॥
शुक्रेण नृपतिसचिवं धनान्वितं स्त्रीविलेपनानुरतम्।
शीघ्रं वदन्ति चपलं सौम्येन निरीक्षिते चन्द्रे ॥३॥
सितभागे सितदृष्टे योषिद्वस्त्रान्नपानधनसौख्यम् ।
जनयति बुधेन चन्द्रो वाद्यज्ञं नृत्तगेयपरम् ॥४॥
गुरुणा कविप्रधानं नयशास्त्रविशारदं नृपसचिवम् ।
परदारदर्शन398परं कामिनमारेण399 बहुभृत्यम् ॥५॥
सूर्येण महामूर्खं प्रियंवदं सततमन्नपानरुचिम्।
सौरेण वर्धकीनां गुणैश्च सदृशं दिशति चन्द्रः ॥६॥
बुधभागे बुधदृष्टः शिल्पाचार्यं कविं शशी जनयेत् ।
शुक्रेक्षितो विशालं गेयज्ञं वचनसाराढ्यम् ॥७॥
नृपमन्त्रिणं गुणाढ्यं गुरुणा दृष्टः प्रतिष्ठितं कान्तम् ।
भौमेक्षितोऽतिचोरं विवादकुशलं नरं रौद्रम् ॥८॥
शास्त्रार्थकांव्य400बुद्धिं प्राज्ञं शिल्पिनमवेक्षितः शशिना ।
रङ्गचरं विख्यातं जनयति सूर्येक्षितश्चन्द्रः ॥९॥
स्वांशे दिनकरदृष्टः शशीकृशतनु401मविक्षतशरीरम्।
परधनरक्ष402णनिपुणंलुब्धं नितरां कुजेनापि ॥१०॥
सौरेणाकृत्यकरं वधबन्धविवादसन्तप्तम् ।
शुक्रेण स्त्रीद्वेष्यं जनयेदथवा नपुंसकाकारम् ॥११॥
नृपमन्त्रिणं नृपं वा जनयति गुरुणावलोकितश्चन्द्रः ।
सौम्येनाधर्मरतं निद्राबहुलं च सततमध्वरतम्403 ॥१२॥
रविभागे रविदृष्टे सुरोषणः समुपलब्धकीर्तिधनः ।
पापो निर्दय इन्दौ सौरेण प्राणिनां हन्ता ॥१३॥
भौमेन सुवर्णधनं ख्यातं नृपसत्कृतं प्रचण्डतरम् ।
गुरुणा दृष्टो जनयति चमूपतिं वानरेन्द्रं वा ॥१४॥
शुक्रेण दृष्टमूर्तिः सुतार्थिनं मृतसुतं404 वाऽपि ।
सौम्येन दैवचिन्तकमितिहासरतं च निधिभाजम् ॥१५॥
गुरुभागे गुरुदृष्टो विशदं नृपवल्लभं विपुलकीर्तिम् ।
जनयति शशी सितेन स्त्रीणां भोगैः सुसंयुक्तम् ॥१६॥
बुधदृष्टो हास्यकरं नृपप्रियं नायकं वरूथिन्याः।
अस्त्राचार्यंकुरुते कुजेक्षितः सर्वतः ख्यातम् ॥१७॥
दोषैर्विविधैः ख्यातं दिनकरदृष्टो नरं प्रमाणस्थम्405।
सौरेण वृद्धशीलं बलिभिश्च निराकृतं नीचम् ॥१८॥
सौरांशे शनिदृष्टः कृपणं रोगान्वितं मृतसुतं वा ।
सूर्येणाल्पापत्यं व्याधिग्रस्तं विरूपतनुम् ॥१९॥
भौमेन नरपतिसमं स्वाढ्यं स्त्रीदुर्भगं सुखैर्युक्तम् ।
शुक्रेण विषमशीलं युवतिभिरवधीरितं धीरम्406 ॥२०॥
सौम्येन पापनिरतं407 कुत्सितचरितं शशी सदा दृष्टः ।
गुरुणा स्वकर्मनिरतं कुरुते पुरुषं न चोदात्तम् ॥२१॥
वर्गोत्तमे स्वकीये परकीयनवांशके च दृष्टिफलम् ।
पुष्टं मध्यं स्वल्पं विपरीतं स्यादनिष्टफलम् ॥२२॥
राशिफलं यद् दृष्टं पूर्वैः कथितं ग्रहैः शशाङ्कस्य ।
तस्य निरोधो दृष्टो यद्यंशपतिर्बली भवति ॥२३॥
अंशपतेश्चन्द्रस्य च फलं विनिश्चित्य दर्शनकृतानि ।
कथितानि यवनवृद्धाः फलानि सम्यग्व्यवस्यन्ति ॥२४॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अंशकदर्शने चन्द्रचारो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
पञ्चविंशोऽध्यायः ।
तेजस्वी सत्ययुतः शूरः क्षितिपोऽथवा रणश्लाघी ।
साहसकर्माभिरतश्चमूपुरग्रामवृन्दपतिः ॥१॥
राभसिको दानरतः प्रभूतगोऽजाविधान्यकरः408 ।
भौमे किये प्रचण्डो बहुयुवतिरतो भवेत्पुरुषः ॥२॥
साध्वीव्रतभङ्गकरः409 प्रभाषणो410 मन्दधनपुत्रः ।
द्वेष्यो बहुभरणपरो विस्रम्भस्थितिविहीनश्च ॥३॥
प्रोद्धतवेषक्रीडो बहुदुष्टवचाः कुजे वृषभसंस्थे ।
सङ्गीतरतः पापो बन्धुविरुद्धः कुलोत्सादी ॥४॥
कान्तः क्लेशसहिष्णुर्बहुश्रुतः काव्यविधिनिपुणः ।
नानाशिल्पकलासु च निपुणो बहुशो विदेशगमनरतः ॥५॥
धर्मपरो निपुणमतिर्हितानुकूलः सुतेषु सुहृदां च ।
मिथुनस्थे क्षितिपुत्रे भवति प्रचुरक्रियासु रतः ॥६॥
परगृहनिवासशीलो वैकल्यरुगर्दितः कृषिधनश्च ।
बाल्ये च राजभोजनवस्त्रेप्सुः परगृहान्नाशी ॥७॥
वादितगीतविधिज्ञः सौभाग्ययुतः स्वबन्धुदयितश्च ।
शुक्रभवने क्षितिसुते दृष्टे गुरुणा भवेत् स्फीतः ॥३४॥
नृपमन्त्री नृपदयितः सेनानाथः प्रसिद्धनामा च ।
शुक्रगृहे भवति कुजे शुक्रेण निरीक्षिते सुखितः ॥३५॥
सुखभाक्411 ख्यातो धनवान् मित्रस्वजनैर्युतः कुजे विद्वान् ।
श्रेणिपुरग्रामाणामधिपः सितभे च शनिदृष्टे ॥३६॥
॥ इति भृगुभे दृष्टिः ॥
विद्याधनशौर्ययुतं गिरिवनदुर्गप्रियं महासत्वम् ।
बुधभवने रक्ताङ्गो जनयति दृष्टः सदा रविणा ॥३७॥
कन्यापुररक्षकरं412 युवतिपतिं सद्विनीतमतिसुभगम् ।
ज्ञगृहे नृपगृहपालं जनयति चन्द्रेक्षितो भौमः ॥३८॥
लिपिगणितकाव्यकुशलं बहुभाषिणमनृतमधुरवाक्यं च ।
दूतं बहुदुःखसहं जनयति वक्रो बुधेक्षितो ज्ञर्क्षे ॥३९॥
राजपुरुषं प्रकाशं दौत्येन413 विदेशगं नरं कुरुते ।
सर्वक्रियासु कुशलं बुधराशौ नायकं च गुरुदृष्टः ॥४०॥
शुक्रेण दृश्यमानः स्त्रीकृत्यकरं समृद्धसुभगं च ।
बुधभवने रक्ताङ्गः कुरुते वस्त्रान्नभोक्तारम् ॥४१॥
आकरगिरिदुर्गरतं कर्षकमतिदुःखभागिनं कुरुते ।
अतिशूरमति414 च मलिनं यमेक्षितो बुधगृहे विभवहीनम् ॥४२॥
॥ इति बुधभवने दृष्टिः ॥
पित्तरुगर्दितदेहस्तेजस्वी दण्डनायको धीरः ।
चन्द्रगृहस्थे भौमे दिनकरदृष्टे भवेत्पुरुषः ॥४३॥
बहुभिर्व्याधिभिरार्तो नीचाचारो विरूपदेहश्च ।
शशिराशौ भूतनये शशिना दृष्टे सशोकश्च ॥४४॥
मलिनः पापाचारः क्षुद्रकुटुम्बो बहिष्कृतः स्वजनैः ।
कर्कटके बुधदृष्टे क्षितितनये भवति निर्लज्जः ॥४५॥
विख्यातो नृपमन्त्री विद्वांस्त्यागान्वितो भवद्धेन्यः ।
गुरुदृष्टे शशिभवने भोगैश्च विवर्जितो वक्रे ॥४६॥
स्त्रीसङ्गाद्विमः415 परिभूतस्त्रीकृतैस्तथा दोषैः ।
कर्कटके क्षितिपुत्रे सितदृष्टे स्याद्विपन्नधनः ॥४७॥
जलसंयानो416 विधनः क्षितिपालसमान417ललितचेष्टश्च ।
शशिगृहसंस्थे भौमे यमेक्षिते स्यात् सदा कान्तः ॥४८॥
॥ इति चन्द्रगृहे दृष्टिः ॥
प्रणतानां हितकारी मित्रैः स्वजनैश्च संयुतश्चण्डः ।
गोकुलवनाद्रिचारी सिंहे भौमे तरणिदृष्टे ॥४९॥
मातुर्न शुभो मतिमान् कठिनशरीरो विपुलकीर्त्तिः ।
केसरिभवने भौमे शशिना दृष्टेऽङ्गनाप्रार्थ्यः418 ॥५०॥
बहुशिल्पज्ञो लुब्धः काव्यकलालम्पटो विषमशीलः ।
पञ्चमभवने भौमे बुधेन दृष्टेऽतिनिपुणश्च ॥५१॥
भूपतिसमीपवर्ती विद्याचार्यो विशुद्धबुद्धिश्च ।
अवनिसुते सिंहस्थे गुरुणा दृष्टे चमूनाथः ॥५२॥
विविधस्त्रीभोगयुतः स्त्रीसुभगो नित्ययौवनो हृष्टः ।
लेयगृहे रक्ताङ्गे सितेन दृष्टे भवेज्जातः ॥५३॥
वृद्धाकारो निस्वः परवेश्मभ्रमणशीलवान् दुःखी ।
दिनकरराशौ रुधिरे दिनकरतनयेन संदृष्टे ॥५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः ॥
लोकनमस्यं सुभगं वनगिरिदुर्गेषु लब्धगृहवासम्419 ।
सुरगुरुभवने भौमः करोति रविणेक्षितः क्रूरम्420 ॥५५॥
विकलं कलहप्रायं प्राज्ञं रुधिरः करोति शशिदृष्टः ।
विद्वांसं गुरुभवने नृपतिविरुद्धं सदा पुरुषम् ॥५६॥
मेधाविनं सुनिपुणं शिल्पाचार्यंबुधेन संदृष्टः ।
गुरुभवने क्षितितनयः करोति विद्वांसमत्यन्तम् ॥५७॥
अकलत्रं सुखरहितं रिपुभिरधृष्यं च वित्तवन्तं च ।
गुरुभवने गुरुदृष्टो व्यायामपरं कुजः कुरुते ॥५८॥
कन्यानामतिदयितं चित्रालङ्कारभागिनमुदारम् ।
विषयपरमतिच सुभगं गुरुभे काव्येक्षितः कुजः कुरुते ॥५९॥
गुरुभेऽसृक् शनिदृष्टः कुशरीरमुदारमाहवे पापम् ।
अटनं सुखलवरहितं421 परधर्मरतं कुजः कुरुते ॥६०॥
॥ इति गुरुभे दृष्टिः ॥
अतिकृष्णतनुं शूरं योषिदपत्यार्थविस्तरैर्युक्तम् ।
सूर्येक्षितोऽतितीक्ष्णः सौरगृहे भूमिजः कुरुते ॥६१॥
चपलमहितं जनन्या यमभेऽलङ्कारभागिनमुदारम् ।
अस्थिरसौहृदमाढ्यं जनयति चन्द्रेक्षितो वक्रः॥६२॥
अतिमधुरगमन422मधनं रवितनयगृहे न निर्वृतमसत्वम् ।
कापटिकमधर्मपरं जनयति बुधवीक्षितो भौमः ॥६३॥
अविरूपं423 मन्दगृहे नृपतिगुणसमन्वितं स्थिरारम्भम्।
दीर्घायुषं क्षमाजो गुरुसंदृष्टः करोति बन्ध्वाप्तम् ॥६४॥
विविधोपभोगमाढ्यं शनिभे स्त्रीपोषणानुरतमेव ।
शुक्रेण दृश्यमानो जनयति कलहप्रियं वक्रः॥६५॥
नृपतिमतिवित्तवन्तं युवतिद्वेष्यं बहुप्रजं प्राज्ञम् ।
सुखरहितं रंणशौण्डं करोति शनिभे शनीक्षितो भौमः॥६६॥
॥ इति शनिभे दृष्टिः ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अङ्गारकचारो नाम पञ्चविंशोध्यायः ॥
——————
षड्विंशोऽध्यायः ।
प्रियविग्रहस्तुवेत्ताचार्योविटधूर्त्तचेष्टकृशगात्रः ।
सङ्गीतनृत्तनिरतो न सत्यवचनो रतिप्रियो लिपिवित् ॥१॥
कूटकरोबह्वाशी बहुश्रमोत्पन्ननष्टधनः ।
बह्वृणबन्धनभागी चलस्थिरः स्यात् क्रिये बुधे कितवः ॥२॥
दक्षः प्रगल्भदाता ख्यातो विज्ञातवेदशास्त्रार्थः ।
व्यायामाम्बरभूषणमाल्याभिरतः स्थिरप्रकृतिः ॥३॥
स्फीतधनस्त्रीसहितः प्रियवल्गुकथो गृहीत424वाक्यश्च।
गान्धर्वहास्यशीलो रतिलोलो वैबुधे वृषभे ॥ ४ ॥
शुभवेषः प्रियभाषी प्रख्यातधनो विकत्थनो मानी ।
प्रोज्झितसुखकोल्परतिर्द्विस्त्रीपुत्रो विवादरतः ॥५॥
श्रुतिकल्पकलाभिज्ञः कविः स्वतन्त्रः प्रियः प्रदानरतः ।
कर्मठबहुसुतमित्रो नरमिथुनस्थे बुधे भवति ॥६॥
प्राज्ञो विदेशनिरतः स्त्रीरतिगेयादिसक्तचित्तश्च ।
चपलो बहुप्रलापी स्वबन्धुविद्वेषवादरतः ॥७॥
स्त्रीवैरान्नष्टधनः कुत्सितशीलो बहुक्रियाभिरतः ।
सुकविः कर्कटसंस्थे स्ववंशकीर्त्या प्रसिद्धश्च ॥८॥
ज्ञानकलापरिहीनो लोकख्यातो नसत्यवाक्यश्च ।
अल्पस्मृतिश्च धनवान् सत्वविहीनः सहजहन्ता ॥९॥
स्त्रीदुर्भगः स्वतन्त्रो जघन्यकर्मा बुधे भवति425 पुरुषः ।
प्रेष्योऽप्रजस्तु सिंहे स्वकुलविरुद्धो जनाभिरामश्च ॥१०॥
धर्मप्रियोऽतिवाग्मी चतुरः स्याल्लेख्यकाव्यज्ञः ।
विज्ञानशिल्पनिरतो मधुरस्त्रीष्वल्पवीर्यश्च ॥११॥
ज्येष्ठः पूज्यः सुहृदां नाना426विनयोपचारवाद427रतः ।
ख्यातो गुणैरुदारः कन्यायां सोमजे बलवान् ॥१२॥
शिल्पविवादाभिरतो वाक्चतुरोर्थार्थमीप्सितव्ययकृत् ।
नानादिक्पण्यरतिर्विप्रातिथिदेवगुरुभक्तः ॥१३॥
कृतकोपचारकुशलः सुसम्मतो देवभक्तश्च ।
सप्तमभवने शशिजे शठश्चलक्षिप्रकोपपरितोषः ॥१४॥
श्रमशोकानर्थपरः सद्वेष्योऽत्यन्तधर्मलज्जश्च428 ।
मूर्खो न साधुशीलो लुब्धो दुष्टाङ्गनारमणः ॥१५॥
पारुष्यदण्डनिरतः छलकृद्विद्विष्टकर्मसु निरुद्धः ।
ऋणवान्नीचानुरुचिः परवस्त्वादानवान् कीटे ॥१६॥
विख्यातोदारगुणः शास्त्रश्रुतिशौर्यशील429समधिगतः ।
मन्त्री पुरोहितो वा कुलप्रधानो महापुरुषः430 ॥१७॥
यज्ञाध्यापननिरतो मेधावी वाक्पटुर्व्रती दाता ।
लिपिलेख्यदान431कुशलः कार्मुकसंस्थे बुधे जातः ॥१८॥
नीचो मूर्खः षण्ढः परकर्मकरः कुलादिगुणहीनः ।
नानादुःखपरीतः स्वप्नविहारादिशीलश्च ॥१९॥
पिशुनस्त्वसत्यचेष्टो बन्धुविमुक्तोत्यसंस्थितात्मा च ।
मलिनो भयसञ्चलितो दिष्टो254 मकरे बुधे पुरुषः ॥२०॥
वाग्बुद्धिकर्मनिरतः432 प्रकीर्णधर्मार्थवर्ज433विहिता434र्थः ।
परपरिभूतो न शुचिः शीलविहीनस्तथा435ऽज्ञश्च ॥२१॥
अतिदुष्टदारशत्रुर्भोगैस्त्यक्तो घटे विवाग्भवति ।
अतिदुर्भगोऽतिभीरुः क्लीबो मलिनो विधेयश्च ॥२२॥
आचारशौचनिरतो देशान्तरगोऽप्रजो दरिद्रश्च ।
शुभयुवतिः कृतिसाधुः सतां च सुभगो विधर्मरतः ॥२३॥
सूच्यादिकर्मकुशलो विज्ञान436श्रुतिकलावियुक्तश्च ।
परधनसञ्चयदक्षो मीने शशिजेऽधनः प्रकीर्णश्च ॥२४॥
सत्यवचनं सुखाढ्यं भूपतिसत्कारसत्कृतं मनुजम् ।
कुरुते बुधोऽर्कदृष्टो बन्धुजने सुक्षमं कुजभे ॥२५॥
रजनीकरेण दृष्टो युवतिजनमनोहरं क्षितिजराशौ ।
अतिसेवकमतिमलिनं चन्द्रसुतो हीनशीलं च ॥२६॥
अनृतप्रियं सुवाक्यं कलहसमेतं च पण्डितं कुजभे ।
जनयति कुजेन दृष्टः प्रचुरधनं क्षितिपवल्लभं शूरम् ॥२७॥
सुखिनं कुजभे शशिजः स्निग्धाङ्गं रोमशं सुकेशं च ।
जीवेक्षितोऽतिधनिनं जनयत्याज्ञापकं437 पापम् ॥२८॥
नृपकृत्यकरं सुभगं गणनगरपुरोगमं चतुरवाक्यम्।
प्रत्ययिकं438 सितदृष्टः कुजभे स्त्रीसंयुतं439 शशिजः ॥२९॥
रुधिरगृहे शनिदृष्टो हिमकिरणसुतोऽतिदुःखितं जनयेत् ।
उग्रं हिंसाभिरतं कुलजनहीनं नरं नित्यम् ॥३०॥
॥ इति कुजभे दृष्टिः ॥
दारिद्र्यदुःखतप्तं व्याधितदेहं परोपचाररतम् ।
दिनकरदृष्टः सौम्यः कुरुते जनधिक्कृतं सितभे ॥३१॥
प्रत्ययितं धनवन्तं दृढभक्तिमरोगिणं दृढकुटुम्बम् ।
ख्यातं नरेन्द्रसचिवं ज्ञश्चन्द्रनिरीक्षितः सितभे ॥३२॥
व्याधिभिररिभिर्ग्रस्तं क्लिष्टं भूपावमानसन्तप्तम् ।
जनयति बुधो440ऽसृग्दृष्टो बहिष्कृतं सर्वविषयेभ्यः ॥३३॥
प्राज्ञं गृहीतवाक्यं देशपुरश्रेणिनायकं ख्यातम् ।
त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्जनयति सौम्यः सितगृहस्थः ॥३४॥
सुभगं ललितं सुखिनं वस्त्रालङ्कारभोगिनं सितभे ।
हृदयहरं कन्यानां कुरुते शुक्रेक्षितः सौम्यः ॥३५॥
शुक्रगृहेऽर्कजदृष्टः सुखरहितं बन्धुशोकसंक्लिष्टम् ।
व्याधितमनर्थबहुलं सौम्यः कुरुते नरं मलिनम् ॥३६॥
॥ इति शुक्रगृहे बुधस्य दृष्टिः ॥
अवितथकथनं मधुरं नृपवल्लभमीश्वरं ललितचेष्टम् ।
दयितं करोति लोके रविणा दृष्टो बुधः स्वगृहे ॥३७॥
सुमधुरमतिवाचाटं कलहरतं शास्त्र441वत्सलं सुदृढम् ।
जनयति शशिना दृष्टो बुधः शुभं सर्वकार्येषु ॥३८॥
विक्षतगात्रं442 मलिनं प्रतिभायुक्तं नरेन्द्रभृत्यं च ।
वल्लभमतीव कुरुते स्वगृहे रुधिरेण सन्दृष्टः ॥३९॥
पार्थिवमन्त्रिणमग्य्रंप्रतिरूपमुदारविभवपरिवारम् ।
यूपध्वजेन दृष्टो जनयति शूरं स्वभे सौम्यः ॥४०॥
प्राज्ञं नरेन्द्रभृत्यं दूतं वा सन्धिपालकं शशिजः ।
स्वगृहे सितेन दृष्टो जनयति नीचाङ्गनासक्तम् ॥४१॥
सततोत्थितं विनीतं सफलारम्भं परिच्छदसमृद्धम् ।
सौम्यः स्वगृहे दृष्टो रविजेन नरं सदा कुरुते ॥४२॥
॥ इति स्वगृहे दृष्टिः ॥
रजकं मालाकारं ग्रहवास्तुज्ञं तथा च मणिकारम् ।
जनयति रविणा दृष्टो बुधो गृहं शिशिरगोश्च गतः ॥४३॥
युवतिविनाशितसारं युवतिनिमित्तं च दुःखितशरीरम् ।
कर्कटके शशिदृष्टो जनयति सुखवर्जितं सौम्यः ॥४४॥
स्वल्पश्रुतमतिमुखरं443 प्रियानृतं कूटकारिणं चोरम् ।
वक्रेक्षितः शशिगृहे कुरुते सौम्यः प्रियालापम् ॥४५॥
मेधाविनमतिदयितं भाग्ययुतं वल्लभं नरेन्द्राणाम् ।
गुरुणा दृष्टः शशिभे विद्यानां पारगं बुधः कुरुते ॥४६॥
कन्दर्पसदृशरूपं प्रियंवदं गीतवादनविधिज्ञम् ।
सुभगं शशिभे ललितं कुरुते शुक्रेक्षितः सौम्यः ॥४७॥
दम्भरुचिं पापरतं बन्धनभाजं गुणैर्वियुक्तं ज्ञः ।
द्वेष्यं सहजाचार्यैः कुरुते सौरेक्षितः शशिभे ॥४८॥
॥ इति कर्कटके दृष्टिः ॥
सेव्यं दिनकरदृष्टो धनगुणवृद्धं नरं बुधः कुरुते ।
हिंस्रं क्षुद्रं सिंहे चञ्चलभाग्यं444 विगतलज्जम् ॥४९॥
रूपान्वितमतिचतुरं काव्यकलागेयनृत्तरतिमिनभे ।
धनिनं सुशीलवेषं कुरुते चन्द्रेक्षितः सौम्यः ॥५०॥
ज्ञो नीचं रविभवने दुःखार्त विक्षता445ङ्गसमरूपम् ।
अचतुरलीलाकान्तं नपुंसकं भौमसन्दृष्टः ॥५१॥
सुकुमारमतिप्राज्ञं रविभे वागीश्वरं त्वतिख्यातम्446 ।
परिचारवाहनयुतं कुरुते गुरुवीक्षितः सौम्यः ॥५२॥
अतिशयरूपं ललितं प्रियंवदं वाहनाढ्यमतिधीरम् ।
जनयति सितेन दृष्टो मन्त्रिणमथ पार्थिवं सिंहे ॥५३॥
व्यायतगात्रं रूक्षं सुविरूपं447 स्वेदनोग्रगन्धं च ।
अतिदुःखितं रविगृहे जनयति सुखवर्जितं रविजदृष्टः ॥५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः॥
शूरं प्रमेहपीडितमश्मर्योपहतमातुरं शान्तम् ।
जनयति रविणा दृष्टो जीवगृहे चन्द्रजः पुरुषम् ॥५५॥
लेखकमतिसुकुमारं प्रत्ययितं448 संमतं गुरुगृहस्थः ।
सुखभागिनमत्याढ्यं कुरुते चन्द्रेक्षितः सौम्यः ॥५६॥
श्रेणीभृतिनगराणां चोराणां विपिनवासिनां चापि ।
कुरुते लिपिकरमधिपं सौम्यो गुरुमन्दिरे रुधिरदृष्टः ॥५७॥
स्मृतिमतिकुलसम्पन्नं गुरुभे प्रतिरूपमार्यविज्ञानम् ।
नृपमन्त्रकोशपालं लिपिकरमिह वीक्षितो गुरुणा ॥५८॥
कन्याकुमारकाणां लेख्याचार्यंधनान्वितं कुरुते ।
गुरुभे भृगुसुतदृष्टः सुकुमारं शौर्यसंयुतं शशिजः ॥५९॥
दुर्गारण्याभिरतं बह्वशनं दुष्टशीलमतिमलिनम् ।
कुरुते रविसुतदृष्टो बुधो नरं सर्वकार्यविभ्रष्टम् ॥६०॥
इति गुरुभे दृष्टिः ॥
मल्लमतिसारयुक्तं बहुभक्षं निष्ठुरं प्रियालापम् ।
जनयति रविणा दृष्टः सौरगृहे बोधनः ख्यातम् ॥६१॥
जलजीविनं समृद्धं पुष्पसुराकन्दवणिजं वा ।
भीरुस्वरूपमचरं शनिभे चन्द्रेक्षितः कुरुते ॥६२॥
वाक्चपलमतिसुसौम्यं व्रीडालसमन्थरं सुखाधारम्449 ।
कुरुते भूसुतदृष्टो रवितनयगृहे बुधः पुरुषम् ॥६३॥
बहुधनधान्यसमृद्धं ग्रामपुरश्रेणिपूजितं सुखिनम् ।
कुरुते गुरुणा दृष्टः सौरगृहे बोधनः ख्यातम् ॥६४॥
नीचापतिं विरूपं बुद्धिविहीनं च कामवश्यं च ।
अतिसुतजननं कुरुते भार्गवदृष्टो बुधः शनिभे ॥६५॥
पापकरं सुदरिद्रं कर्मकरं चातिदुःखितं दीनम् ।
कुरुते शनिना दृष्टः सौरगृहे बोधनः पुरुषम् ॥६६॥
॥ इति शनिभे दृष्टिः ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां बुधचारो नाम षड्विशोऽध्यायः ॥
सप्तविंशोऽध्यायः ।
वादिगुणैः सम्पन्नः प्रयत्नरत्नाभरणसंसर्गः450 ।
सत्वात्मजार्थबलयुक् प्रगल्भविख्यातकर्मा च ॥१॥
ओजस्वी बहुशत्रुः बहुव्ययार्थः क्षताङ्कितशरीरः ।
चण्डोग्रदण्डनाथो जीवे क्रियगे भवेत्पुरुषः ॥२॥
पीनो विशालदेहः सुरद्विजगवां च भक्तिमान् कान्तः ।
सुभगः स्वदारनिरतः सुवेषकृषिगोधनाढ्यश्च ॥३॥
सद्वस्तुभूषणयुतो विशिष्टवाङ्मतिगुणो नयज्ञश्च ।
वृषभे गुरौ विनीतो भिषक् प्रयोगाप्तकौशलकः ॥४॥
आहितधनः सुमेधाः विज्ञानविशारदः सुनयनश्च।
वाग्मी दाक्षिण्ययुतो निपुणः स्याद्धर्मशीलश्च ॥५॥
मान्यो गुरुबन्धूनां मण्डनमाङ्गल्यलब्धवरशब्दः ।
मिथुनस्थे देवगुरौ क्रियारतिः सत्कविश्चैव ॥६॥
विद्वान् सुरूपदेहः प्राज्ञः प्रियधर्मसत्स्वभावश्च ।
सुमहद्वलो यशस्वी प्रभूतधान्याकरधनेशः ॥७॥
सत्यसमाधिसुयुक्तः451 स्थिरात्मजो लोकसत्कृतः ख्यातः ।
नृपतिर्जीवे शशिभे विशिष्टकर्मा सुहृज्जनानुरतः ॥८॥
दृढवैरसत्वधीरः सुबहुस्नेहसुहृज्जने विद्वान् ।
आढ्यः शिष्टाभिजनो नृपो नृपतिपौरुषः सभालक्ष्यः ॥९॥
त्रिदशगुरौ सिंहस्थे समस्तरोषोद्धृतारिपक्षश्च ।
सुदृढव्यस्तशरीरो गिरिदुर्गवनालये जातः ॥१०॥
मेधावी धर्मपरः क्रियापटुर्धर्मवान्युवतिराशौ ।
प्रियगन्धपुष्पवस्त्रः कृत्येषु विनिश्चितार्थश्च ॥११॥
शास्त्रार्थशिल्पकार्यैर्धनवान् दाता विशुद्धशीलश्च ।
स्याद्देवगुरौ निपुणः चित्राक्षरविद्धनसमृद्धः ॥१२॥
मेधावी बहुपुत्रो विदेशचर्यागतः प्रभूतधनः ।
भाषाप्रियो452 विनीतो नटनर्त्तकसंगृहीतधनः ॥१३॥
कान्तः श्रुताभिनिरतो महत्तरः सार्थवाहवणिजां हि ।
वणिजीन्द्रमन्त्रिणि गते सुरातिथीज्यारतः प्राज्ञः ॥१४॥
बहुशास्त्राणां कुशलो नृपतिर्थहुभाष्य453कारको निपुणः ।
देवालयपुरकर्ता सद्बहुदारोऽल्पपुत्रश्च ॥१५॥
व्याध्यार्तश्रमबहुलः प्रसक्तदोषो454 गुरौ भवत्यलिनि ।
दम्भेन धर्मनिरतो जुगुप्सिताचारनिरतश्च ॥१६॥
आचार्यो व्रतदीक्षायज्ञादीनां455 स्थिरार्थश्च ।
दाता सुहृत्स्वपक्षः प्रियोपकार456श्रुताभिरतः ॥१७॥
माण्डलिको मन्त्री वा धनुर्धरस्थे भवेत्सदा जीवे ।
नाना457देशनिवासी विविक्ततीर्थायतनबुद्धिः ॥१८॥
लघुवीर्यो मकरस्थे बहुश्रमक्लेशधारको जीवे ।
नानाचारो मूर्खो दुरन्तनिःस्वः परप्रेष्यः ॥१९॥
माङ्गल्यदयाशौचस्वबन्धुवात्सल्य धर्मपरिहीनः
दुर्बलदेहो भीरुः प्रवासशीलो विषादी च ॥२०॥
पिशुनो न साधुशीलः कुशिल्पतोयाश्रमेषु कर्मरतः ।
मुख्यो गणस्य सुतरां नीचाभिरतो नृशंसश्च ॥२१॥
लुब्धो व्याधिग्रस्तः स्ववाक्य458दोषेण नाशितार्थश्च ।
प्रज्ञादिगुणैर्हीनो घटे गुरौ स्याद्गुरुस्त्रीगः459 ॥२२॥
वेदार्थशास्त्रवेत्ता सुहृदां पूज्यः सतां च नृपनेता ।
श्लाघ्यः460सधनोऽधृष्योऽह्यहीनदर्पस्थिरारम्भः ॥२३॥
राज्ञः सुनीतिशिक्षाव्यवहाररणप्रयोगवेत्ता च ।
ख्यातः प्रशान्तचेष्टो स्थिर461सत्वयुतश्च मीनगे जीवे ॥२४॥
धर्मिष्ठमनृतभीरुं विख्यातसुतं महाभाग्यम् ।
भौमगृहे रविदृष्टो ह्यतिरोमचितं गुरुः कुरुते ॥२५॥
इतिहासकाव्यकुशलं बहुरत्नं स्त्रीषु भाजनं कुरुते ।
कुजगेहे शशिदृष्टस्त्रिदशगुरुः पार्थिवं प्राज्ञम् ॥२६॥
नृपपुरुषशूरमुग्रं नयविनयसमन्वितं च विधनं462च ।
अविधेयभृत्यदारं जनयति वक्रेक्षितो जीवः ॥२७॥
अनृतं वञ्चनपापं परविवरान्वेषणेषु निपुणं च ।
सेवाविनयकृतज्ञं कापटिकं सौम्यसंदृष्टः ॥२८॥
गृहशयनवसनगन्धैर्माल्यालङ्कारयुवतिभिर्विभवैः ।
समुचितमतीव भीरुं कुरुते शुक्रेक्षितो जीवः ॥२९॥
मलिनं लुब्धं तीक्ष्णं साहसिकं संमतं च सिद्धं च ।
अस्थिरमित्रापत्यं त्रिदशगुरुः सौरसंदृष्टः ॥३०॥
॥ इति जीवस्य कुजभे दृष्टिः ॥
द्विपदचतुष्पदभागिनमत्य463टनं व्यायताङ्ग464मिह पुरुषम् ।
प्राज्ञं नरेन्द्रसचिवं करोति सूर्येक्षितो जीवः ॥३२॥
अतिधनमतीव मधुरं जननीदयितं प्रियं च युवतीनाम् ।
अत्युपभोगं कुरुते चन्द्रेण निरीक्षितो जीवः ॥३२॥
दयितं बालस्त्रीणां प्राज्ञं शूरं च धनसमृद्धं च ।
सुखिन नरेन्द्रपुरुषं भृगुभे जीवो रुधिरदृष्टः ॥३३॥
प्राज्ञं चतुरं मधुरं सुधनं465 विभवान्वितं गुणसमृद्धम् ।
सुरुचिरशीलं कान्तं जनयति बुधवीक्षितो जीवः ॥३४॥
अतिललितमति च धनिनं परभूषणधारिणं मृजाशीलम् ।
वरशयनं वरवसनं भृगुभे भृगुवीक्षितो जीवः ॥३५॥
प्राज्ञं बहुधनधान्यं महत्तरं ग्रामनगरपुरुषाणाम् ।
मलिनमरूपमभार्यं कुरुते सौरेक्षितो जीवः ॥३६॥
॥ इति जीवस्य भृगुभे दृष्टिः ॥
आर्यंग्रामश्रेष्ठं कुटुम्बिनं दारपुत्रधनयुक्तम्466 ।
बुधभे दिनकरदृष्टस्त्रिदशगुरुर्मानवं कुरुते ॥३७॥
चन्द्रेक्षितस्तु कुरुते वसुमन्तं मातृवल्लभं467 धन्यम् ।
सुखयुवतिपुत्रवन्तं सुरगुरुरतिरूपमनुपमं बुधभे ॥३८॥
शाश्वतसुलब्धविषयं468 चित्रितगात्रं469 धनान्वितं कुरुते ।
धरणिसुतेक्षितदेहस्त्रिदशगुरुः संमतं लोके ॥३९॥
कुरुते ज्योतिषकुशलं बहुसुतदारं च सूत्रकारं च ।
अतिशयविरूपवाक्यं बुधभे सौम्येक्षितो जीवः ॥४०॥
देवप्रासादानां470 कृत्यकरं वेशदारभोक्तारम् ।
हृदयहरं नारीणां कुरुते शुक्रेक्षितो जीवः ॥४१॥
श्रेणी गणराष्ट्राणां पुरोगमं ग्रामपत्तनानां च ।
जनयति शनिना दृष्टः सुतनुं जीवो नरं बुधभे ॥४२॥
॥ इति जीवस्य बुधभे दृष्टिः ॥
रविदृष्टः शशिभवने विख्यातं ह्यग्रगं समूहानाम् ।
सुखधनदारविहीनं पश्चादाढ्यं गुरुः कुरुते ॥४३॥
अत्यर्थं द्युतिमन्तं नृपतिं बहुकोशवाहनसमृद्धम् ।
उत्तमयुवतीपुत्रं जनयेच्छशिभे गुरुर्हिमगुदृष्टः ॥४४॥
कौमारदारमाढ्यं हेमालङ्कारभागिनं प्राज्ञम् ।
शूरं सव्रणगात्रं रुधिराङ्गनिरीक्षितो गुरुः कुरुते ॥४५॥
बान्धवमात्रनिमित्तं धनिनं कलहान्वितं विगतपापम् ।
जनयति बुधेन दृष्टः प्रत्ययिनं471 मन्त्रिणां जीवः ॥४६॥
बहुदारं बहुविभवं नानालङ्कारभागिनं सुखिनम्।
भृगुतनयदृष्टमूर्तिः सुभगं पुरुषं गुरुः कुरुते ॥४७॥
सौरेण दृष्टमूर्तिर्महत्तरं ग्रामसैन्यनगराणाम् ।
वाचाटं बहुविभवं वार्द्धक्ये भोगभागिनं जीवः ॥४८॥
॥ इति कटके जीवदृष्टिः ॥
सिंहे दयितं ख्यातं सतां च नृपतिं महाधनसमृद्धम् ।
जनयति दिनकरदृष्टः त्रिदशगुरुर्नरमतिसुशीलम् ॥४९॥
अतिसुभगमति च मलिनं स्त्रीभाग्यैरति472सुभगमत्याढ्यम् ।
लेये चन्द्रसुदृष्टो जितेन्द्रियं जनयति सुरेज्यः ॥५०॥
सत्यं सतां गुरूणां विशिष्टकर्माणमुग्र473मतिनिपुणम्।
शुद्धं शूरं क्रूरं गुरुरिह भौमेक्षितः सिंहे ॥५१॥
गृहवास्तुज्ञानरतं विज्ञानगुणान्वितं रुचिरवाक्यम्।
सिंहे मन्त्रिणमग्र्यं बुधेक्षितो विश्रुतं जीवः ॥५२॥
दयितं स्त्रीणां सुभगं भूपतिसत्कारसत्कृतं पुरुषम् ।
सितदृष्टः सुरपूज्यो जनयति सिंहे महासत्वम् ॥५३॥
बहुकथनमधुरवचनं सुखरहितं चित्रभागिनं तीक्ष्णम् ।
अमरस्त्रीतुल्यसुखं सिंहगुरुः सौरसन्दृष्टः ॥५४॥
॥ इति सिंहस्थजीवदृष्टिः ॥
नृपतिविरुद्धं जनयति विबुधगुरुः संस्थितः स्वगृहे।
रविदृष्टः परितप्तं धनबन्धुजनेन परिमुक्तम् ॥५५॥
नानाविधसौख्ययुतं स्वगृहे चन्द्रेक्षितो जीवः ।
अतिसुभगं युवतीनां मानधनैश्वर्यगर्वितं कुरुते ॥५६॥
सङ्ग्रामे विकृताङ्गं क्रूरं वर्धकं परोपकारपरम्474 ।
जनयति कुजेन दृष्टो देवगुरु475र्नष्टपरिवारम् ॥५७॥
मन्त्रिणमथनृपतिं वा सुतधनसौभाग्यसौख्यसम्पन्नम् ।
स्वगृहे बुधेन दृष्टः सकलानन्दं गुरुः कुरुते ॥५८॥
सुखिनं धनिनं प्राज्ञं व्यपगतदोषं चिरायुषं सुभगम् ।
स्वगृहे सितेन दृष्टो लक्ष्मीपरिवेष्टितं गुरुः पुरुषम् ॥५९॥
मलिनमतीव च सुभगं476 ग्रामपुरश्रेणिधिक्कृतं दीनम् ।
स्वगृहगुरुः शनिदृष्टो जनयति सुखभोगधर्मपरिहीनम् ॥६०॥
॥ इति स्वगृहे दृष्टिः ॥
प्राज्ञं पृथिवीपालं सौरगृहे भानुना च संदृष्टः ।
प्रकृतिसमृद्धं477 जनयति बहुभोग478समन्वितं सुविक्रान्तम् ॥६१॥
पितृमातृभक्तमार्यं कुलोद्भवं प्राज्ञमाढ्यमादेयम् ।
चन्द्रेक्षितस्तु जीवः सुशीलमतिधार्मिकं शनिभे ॥६२॥
शूरं नरेन्द्रयोधं गर्वितमोजस्विनं सुवेषं च ।
विख्यातमार्यमान्यं शनिभे वक्रेक्षितो जीवः ॥६३॥
कामरतिं479 गणमुख्यं मानवमथ सार्थवाहमाढ्यं वा ।
ख्यातमतिमित्रवन्तं बुधसंदृष्टो गुरुः शनिभे ॥६४॥
भोज्यान्नपानविभवं वरगृहशयनासनोत्तमस्त्रीकम् ।
आभरणवसनमन्तं शनिभे शुक्रेक्षितो जीवः ॥६५॥
अनुपमविद्यावृत्तं महत्तरं देशपार्थिवं शनिभे ।
द्विपदचतुष्पदमाढ्यं भोगिनमथ सौरवीक्षितो जीवः ॥६६॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां गुरुचारो नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥
अष्टाविंशोऽध्यायः ।
नैशान्धो बहुदोषो विरोधशीलः पराङ्गनाचोरः ।
वेश्यावनाद्रिचारी स्त्रीहेतोर्बन्धनं प्राप्तः ॥१॥
क्षुद्रः कठोरचोरश्चमूपुरश्रेणिवृन्दनाथश्च ।
मेषे स्याद्भृगुतनये नो विश्वासी प्रगल्भश्च ॥२॥
बहुयुवतिरत्नसहितः कृषीवलो गन्धमाल्यवस्त्रयुतः ।
गोकुलजीवी दाता स्वबन्धुभर्ता सुमूर्तिश्च ॥३॥
आढ्यस्त्वनेकविद्यो बहुप्रदः सत्वहितकारी ।
वृषभे गुणैः प्रधानः परोपकारी सिते भवति जातः ॥४॥
विज्ञानकलाशास्त्रः480 प्रथितः सततं सुमूर्तिगः कामी ।
आलेख्यलेख्यनिरतः काव्यकरः स्यात् प्रियः साधुः ॥५॥
धृत481गीतनृत्तविभवः सुहृज्जनाढ्यः सुरद्विजानुरतः ।
संरूढस्नेहो वै मिथुनस्थे भार्गवे भवति ॥६॥
रतिधर्मरतः प्राज्ञो बली मृदुर्गुणवतां प्रधानश्च ।
आकाङ्क्षितैः सुखार्थैर्युक्तः प्रियदर्शनः सुनीतिश्च ॥७॥
योषित्पानप्रभवैर्व्याधिभिरधिकं प्रपीडितो मनुजः ।
शुक्रे कर्कटसंस्थे स्ववंशभवदोषसन्तप्तः ॥८॥
युवतिजनोपासनको482 लब्धसुखद्रविणसम्प्रमोदश्च ।
लघुसत्वप्रियबन्धुर्विचित्रसौख्यश्च दुःखी च ॥९॥
उपकारी च परेषां गुरुद्विजाचार्यसंमतो निरतः ।
सिंहस्थे भृगुतनये बहुचिन्तास्वनभियोगः स्यात् ॥१०॥
लघुचिन्तो मृदुनिपुणः परोपसेवी कलाविधिज्ञश्च ।
स्त्रीसम्भाषणमधुरः प्रणयनगणनार्थकृतयत्नः॥११॥
नारीषु दुष्टरतिषु प्रणयी दीनो न सौख्यभोगयुतः ।
कन्यायां भृगुतनये तीर्थसभापण्डितो जातः ॥१२॥
श्रमलब्धवित्तशूरो विचित्रमाल्याम्बरो विदेशरतः ।
नैपुणरक्षणकुशलः कर्मसु चपलः सुदुष्करेषु तथा ॥१३॥
आढ्यो रुचिरसुपुण्यो द्विजदेवार्चनविलब्धकीर्तिश्च ।
शुक्रे तुलाधरगते भवति पुमान् पण्डितः सुभगः ॥१४॥
विद्वेषरतिनृशंसो विमुक्तधर्मा विकत्थनोऽतिशठः ।
सहजविरक्तो धन्यो विपन्नशत्रुस्तथा पापः ॥१५॥
आर्यः कुलटाद्वेषी वधनिपुणो बह्वृणो दरिद्रश्च ।
अलिनि सिते भवति पुमान् गर्हितशीलः सुगुह्यगदः ॥१६॥
सद्धर्मकर्मधनजैः फलैरुपेतो जगत्प्रियः कान्तः ।
आर्यः कुलब्ध483शब्दो विद्वान् गोमानलंकरिष्णुश्च ॥१७॥
सद्वित्तसार427सुभगो नरेन्द्रमन्त्री सुचतुरोऽपि ।
पीनोच्चतनुः पूज्यः सतां समूहस्य धनुषि कवौ ॥१८॥
व्ययभयपरिसन्तप्तो दुर्बलदेहो जराङ्गनासक्तः ।
हृद्रोगी धनलुब्धो लोभानृतवञ्चनो निपुणः ॥१९॥
क्लीबो विपन्नचेष्टः परार्थचेष्टः सुदुःखितो मूढः ।
मकरे दानवपूज्ये क्लेशसहो जायते पुरुषः ॥२०॥
उद्वेगरोगतप्तः कर्मसु विफलेषु सर्वदाभिरतः ।
परयुवतिगो विधर्मा गुरुभिः पुत्रैश्च कृतवैरः ॥२१॥
स्नानोपभोगभूषणवस्त्रादिनिराकृतो मलिनः ।
कुम्भधरे भृगुपुत्रे भवति पुमान्नात्र सन्देहः ॥२२॥
दाक्षिण्यदानगुणवान् महाधनोधःकृतारिपक्षश्च ।
लोके ख्यातः श्रेष्ठो विशिष्टचेष्टो नृपतिदयितः ॥२३॥
वाग्बुद्धियुतोदारः सज्जनपरिलब्धविभवमानश्च ।
स्वादेयवचा मीने वंशधरो ज्ञानवान् शुक्रे ॥२४॥
स्त्रीहेतोर्दुःखार्त्तं युवतिनिमित्ताद्विनष्टधनसौख्यम् ।
कुजभवने रविदृष्टो जनयति शुक्रो नृपं प्राज्ञम् ॥२५॥
उद्बन्धनमतिचपलं कामातुरमधमयुवतिभर्त्तारम् ।
जनयति भृगोरपत्यं रजनीकरवीक्षितं कुजभे ॥२६॥
धनसौख्यमानरहितं परकर्मकरं मलिनचेष्टं ।
जनयति रुधिरक्षेत्रे रुधिरेण निरीक्षितः शुक्रः ॥२७॥
मूर्ख धृष्टमनार्यंस्वबन्धुपरिवादकं विनयहीनम्।
चोरं क्षुद्रं क्रूरं बुधदृष्टो भार्गवः कुरुते ॥२८॥
सुनयनमुदारदानं सुशरीरं व्यायतं बहुसुतं च ।
त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्जनयति रुधिरालये शुक्रः ॥२९॥
अतिमलिनमलसमटन484स्वभिमतजनसेवकं कुरुते ।
भृगुतनयो रुधिरगृहे दिनकरपुत्रेण वीक्षितश्चोरम् ॥३०॥
॥ इति कुजभे दृष्टिः ॥
दिनकरदृष्टः शुक्रो वरजायाभोगिनं धनसमृद्धम्।
जनयत्युत्तमपुरुषं स्त्रीहेतोर्निर्जितं स्वगृहे ॥३१॥
परमकुलीनापुत्रं सुखधनदानैः सुखैरुपेतं च ।
अत्यार्यमतिं485 कान्तं स्वगृहे चन्द्रेक्षितः शुक्रः ॥३२॥
दुःशीलाभर्त्तारं प्रमदाहेतोश्च नष्टगृहदारम् ।
जनयति भृगुनन्दकरो मदनवशं वक्रसन्दृष्टः ॥३३॥
कान्तं मधुरं सुभगं सुखधृतिमतिसंयुतं विपुलसत्वम् ।
जनयति बुधेन दृष्टः सर्वगुणसमन्वितं ख्यातम् ॥३४॥
प्रमदापुत्रगृहाणां भागिनमथ यानवाहनानां च।
स्वर्क्षै गुरुसन्दृष्टः कुरुते भृगुरिष्टचेष्टानाम् ॥३५॥
स्वल्पसुखं स्वल्पधनं दुःशीलं वर्धकीपतिं चैव ।
सौरेक्षितस्तु जनयेत् व्याधितदेहं नरं शुक्रः ॥३६॥
॥ इति स्वगृहे दृष्टिः ॥
नृपजननीपत्नीनां कृत्यकरं पण्डितं धनिनम् ।
दिनकरदृष्टः शुक्रो जनयति सुखभागिनं बुधभे ॥३७॥
कृष्णनयनं सुकेशं शयनासनयानभागिनं कान्तम् ।
सुकुमारमिन्दुदृष्टो जनयति शुक्रो नरं सुभगम् ॥३८॥
कामपरमति च सुभगं युवतिकृते चार्थनाशनं कुरुते ।
वक्रेक्षितस्तु शुक्रो बुधभवनमुपाश्रितः प्रसवे ॥३९॥
प्राज्ञं मधुरं धनिनं वाहनपरिवार486भागिनं सुभगम्।
गणपतिमर्थेशं487 वा बुधदृष्टो भार्गवो बुधभे ॥४०॥
बुधभवनगतः शुक्रस्त्रिदशगुरुनिरीक्षितः कुरुते ।
अतिसुखमतीव दीनं प्रतिरूपकरं ज्ञमाचार्यम् ॥४१॥
दिनकरसुतेन दृष्टो बुधभवनगतोऽतिदुःखिनं शुक्रः ।
जनयति खलु परिभूतं चपलं द्वेष्यं च मूर्खं च ॥४२॥
॥ इति बुधभवने दृष्टिः ॥
कर्मपरां शुद्धाङ्गीं488 नृपतिसुतां रोषणां धनोपेताम् ।
भार्यांददाति शुक्रः चन्द्रगृहे भानुसन्दृष्टः ॥४३॥
मातृसपत्नीजननं कन्यापूर्वप्रजं बहुसुतं च ।
सुखिनं सुभगं ललितं कुरुते चन्द्रेक्षितः शुक्रः ॥४४॥
सुकलाविदमत्याढ्यं स्त्रीहेतोर्दुःखितं सुभगम् ।
भौमेक्षितस्तु जनयेत् वृद्धिकरं बन्धुवर्गस्य ॥४५॥
पण्डितभार्यापतिकं बन्धुनिमित्तं च दुःखितं नित्यम् ।
अतिसुखधनिनं489 प्राज्ञं करोति शशिभे बुधेक्षितः शुक्रः ॥४६॥
भृत्यैर्धनैश्च पुत्रैर्वाहनभोगैश्च बान्धवैर्मित्रैः ।
कुरुते नरमिह युक्तं नरपतिदयितं च गुरुदृष्टः ॥४७॥
स्त्रीनिर्जितं दरिद्रं पतितमरूपं तथैव चपलं च ।
जनयति सुखैर्विहीनंशशिभे शनिवीक्षितः शुक्रः॥४८॥
॥ इति चन्द्रगृहे दृष्टिः ॥
सेर्ष्यं कन्यादयितं कामार्तं युवतिकारणं धनिनम् ।
भागिनमथ करभाणां जनयति सिंहे रवीक्षितः शुक्रः॥४९॥
मातृसपत्नीजननं युवतिकृते दुःखितं विभववन्तम् ।
सिंहे नानामतिकं करोति चन्द्रेक्षितः शुक्रः ॥५०॥
नृपपुरुषं विख्यातं युवतिकृते वल्लभं धनसमृद्धम् ।
सुभगं परदाररतं सिंहे वक्रेक्षितः शुक्रः ॥५१॥
संग्रहनिरतं लुब्धं स्त्रीलोलं पारदारिकं शूरम् ।
शठमानृतिकं धनिनं सिंहे बुधवीक्षितः शुक्रः ॥५२॥
वाहनधनभृत्ययुतं बहुदारपरिग्रहं रविक्षेत्रे ।
कुरुते नरेन्द्रमन्त्रिणमिन्द्रगुरुनिरीक्षितः शुक्रः ॥५३॥
नृपतिं नृपतिप्रतिमं विख्यातं कोशवाहनसमृद्धम् ।
रण्डापतिं सुरूपं दुःखयुतं सौरसन्दृष्टः ॥५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः ॥
अतिरौद्रमति च शूरं गुरुभे प्राज्ञं च धनिनमतिदयितम् ।
रविणा दृष्टो जनयति विदेशगमनं नरं शुक्रः ॥५५॥
ख्यातं नरेन्द्रपुरुपं भोगैरशनैः490 समन्वितं विपुलैः ।
कुरुते ह्यनुपमसारं गुरुभे चन्द्रेक्षितः शुक्रः ॥५६॥
अधिकद्वेष्यं स्त्रीणां विचित्रसुखदुःखमर्थवन्तं च ।
कुरुते गोधनमग्र्यं गुरुभे भौमेक्षितः शुक्रः ॥५७॥
आभरणभूषणानां भागिनमपि चान्नपानानाम् ।
बुधदृष्टो भृगुतनयः कुरुते गुरुभेऽर्थवाहनसमृद्धम् ॥५८॥
गजतुरगगोधनाढ्यं बहुपुत्रकलत्रमतिसुखिनम् ।
गुरुणा दृष्टो गुरुभे जनयति शुक्रो महाविभवम् ॥५९॥
नित्यं च धनप्रायं सुखिनं भोगान्वितं धनसमृद्धम् ।
गुरुभवने शनिदृष्टः कुरुते शुक्रो नरं सुभगम् ॥६०॥
॥ इति गुरभे दृष्टिः ॥
स्तिमितं वृषभं स्त्रीणां महाधनं सत्यसौख्यसम्पन्नम् ।
सौरगृहे रविदृष्टः कुरुते शुक्रो नरं शूरम् ॥६१॥
ओजस्विनमतिशूरं491 स्वाढ्यं वपुषान्वितं सुभगम्।
कुरुते शशिना दृष्टो रविजगृहे भार्गवः कान्तम् ॥६२॥
जायाविनाशकारणमनर्थबहुलं च रोगिणं शुक्रः ।
कुरुते श्रमाभितप्तं पश्चात्सुखिनं च कुजदृष्टः ॥६३॥
प्राज्ञं धनचयनिरतं निधानरुचिमतिशयेन विद्वांसम् ।
जनयति बुधेन दृष्टो भृगुतनयः सत्यसौख्यसम्पन्नम् ॥६४॥
प्रियवस्त्रमाल्यगन्धं सुकुमारं गीतवादितविधिज्ञम् ।
जनयति गुरुणा दृष्टो भृगुपुत्रः सत्कलत्रयुतम् ॥६५॥
सौरगृहे शनिदृष्टः शुक्रो नरवाहनार्थभोगयुतम् ।
मलिनं श्यामशरीरं सुरुचिरगात्रं महादेहम् ॥६६॥
॥ इति सौरगृहे दृष्टिः ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां शुक्रचारो नामाष्टाविंशोऽध्यायः
एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
व्यसनपरिश्रमतप्तः प्रचण्डशीलः492 स्वबन्धुपक्षघ्नः।
निष्ठुरधृष्टातिवचाविगर्हितो निर्धनः कुवेषश्च ॥१॥
मेषेऽर्कजे सुरोषो जघन्यकर्मा च लब्धदोषोऽपि ।
प्रियवैरो नैकृतिको नृशंसको सूयकः पापः ॥२॥
अर्थविहीनः प्रेष्यो न युक्तवाक्यो न सत्यकर्मा च ।
वृद्धस्त्रीहृदयहरः कुसुहृत् स्त्रीव्यसनसंसक्तः ॥३॥
सौरे वृषभं याते भवति च जातः पराङ्गनाप्रेष्यः ।
नैकृतिकः स्फुटदृष्टो बहुक्रियासङ्गतो मूढः ॥४॥
बह्वृणबन्धनतप्तः श्रमान्वितो डाम्भिकोनुमन्त्री च ।
शाट्यगुणैः सन्त्यक्तः सदैव गुह्यश्च493 कामशीलश्च ॥५॥
छलकृच्च मन्युदुष्टः क्रियातिशायी शठः कुशीलश्च494 ।
बन्धनविहारसक्तो बाह्यक्रीडानुगो मिथुने ॥६॥
सुभगान्वितो दरिद्रो बाल्ये रोगातिपीडितः प्राज्ञः ।
जननीरहितोऽतिमृदुर्विशिष्टनिरतः सदातुरश्चापि ॥७॥
परबाधको विशिष्टो बन्धुविरुद्ध विलोमशीलश्च।
मध्ये भूपतितुल्यः परिभोगविवर्धितः शशिभे ॥८॥
लिपिपाठ्यपरोऽभिज्ञो विगर्हितो विगतशीलश्च।
स्त्रीवियुतो भृतिजीवी स्वपक्षरहितो मुदा हीनः ॥९॥
नीचक्रियासु निरतो विवृद्धरोषो मनोरथैर्दान्तः495।
भाराध्वश्रमदुःखैः प्रकीर्णदेहो यमे सिंहे ॥१०॥
षण्डाकारोऽतिशठः परान्नवेश्यारतोऽल्पमन्त्रश्च।
शिल्पकथास्वनभिज्ञो विकृत्य496चेष्टो लसत्सुतार्थश्च ॥११॥
अधनः497 परोपकारी कन्याजनदूषकः क्रियानुरतः ।
कन्यायां रवितनये ह्यवेक्ष्यकारी पुमान् जातः ॥१२॥
अर्थपरश्चारुवचा नरो विदेशाटनाप्तमानधनः ।
नृपतिः सुवोधनो वा स्वपक्षगुप्तस्थितार्थः498 स्यात् ॥१३॥
वृन्दसभानां ज्येष्ठो वयःप्रकर्षात्कृतास्पदः साधुः ।
कुलटानटीविटस्त्रीरमणो रविजे तुलायाते ॥१४॥
द्वेषपरो विषमो वा विषशस्त्रघ्नः प्रचण्डकोपश्च ।
लुब्धो दृप्तोऽर्थयुतः परस्वहरणे समर्थश्च ॥१५॥
बाह्यो मङ्गलवाद्यैर्नृशंसकर्मा ह्यनेकदुःखः स्यात् ।
अष्टमराशौ रविजे क्षयव्ययव्याधिभिस्तप्तः ॥१६॥
व्यवहारबोध्यशिक्षाश्रुतार्थविद्याभिधानुकूलमतिः ।
पुत्रगुणैर्विख्यातः स्वधर्मवृत्तैश्च शीलैश्च ॥१७॥
अन्त्ये वयसि च लक्ष्मीं भुनक्ति परमां प्रलब्धमानस्तु ।
अल्पवचा बहुसंज्ञो मृदुर्यमे कार्मुकस्थे स्यात् ॥१८॥
परयोषित्क्षेत्राणां प्रभुः श्रुतिगुणैर्युतश्च बहुशिल्पः।
श्रेष्ठश्च वंशजातैः पूज्यः परवृन्दसत्कृतः ख्यातः ॥१९॥
स्नानविभूषणनिरतः क्रियाकलाज्ञः प्रवासशीलश्च ।
कोणे मृगमे जातः प्रजातशौर्योपचारः स्यात् ॥२०॥
बह्वनृतः सुमहान्स्यान्मद्यस्त्रीव्यसनसम्प्रसक्तश्च।
धूर्तो499 वश्चनशीलः कुसौहृदो ह्यतिदृढचण्डः ॥२१॥
ज्ञानकथास्मृतिबाह्यः पराङ्गनार्थः सुकर्कशाभाषी ।
रवितनये कुम्भस्थे बहुक्रियारम्भकृतयत्नः ॥२२॥
प्रिययज्ञशिल्पविद्यः स्वबन्धुसुहृदां प्रधानशान्तश्च ।
संवर्धितार्थसुनयो रत्नपरीक्षासु कृतयत्नः ॥२३॥
धर्मव्यवहाररतो विनीतशीलो गुणैः समायुक्तः ।
मीने भास्करतनये पश्चाद्भावास्पदं पुरुषः ॥२४॥
कर्षणनिरतमथाढ्यं गोमहिषाजाविसंयुतं धन्यम् ।
सूर्येण दृश्यमानो जनयति कर्मोद्यतं सौरिः ॥२५॥
चपलं नीचप्रकृतिं नीचविरूपाङ्गनासु संसक्तम् ।
शनिरिन्दुदृष्टमूर्तिः सुखधनरहितं नरं कुरुते ॥२६॥
प्राणिवधपरं क्षुद्रं कुरुते चोराधिपं सुविख्यातम् ।
प्रिययुवतिमांसपानं सौरो वक्रेक्षितः कुजभे ॥२७॥
आनृतिकमधर्मपरं बह्वाशं तस्करं प्रकाशं च ।
कौजे शनिर्ज्ञदृष्टः सुखविभवविनाकृतं पुरुषम् ॥२८॥
सुखधनसौभाग्ययुतं नृपमन्त्रिणमग्रगं च सचिवानाम् ।
गुरुदृष्टो रवितनयः कुजगेहे मानवं कुरुते ॥२९॥
अतिचपलमतिविरूपं पराङ्गनापण्ययुवतिसंसक्तम् ।
कुजभवने भृगुदृष्टो जनयति रविजो विवर्जितं भोगैः ॥३०॥
॥ इति कुजभवने दृष्टिः ॥
स्फुटवाक्यं विगतधनं विद्वांसं परगृहेषु भोक्तारम् ।
रविणा दृष्टः सौरिः सितभे परिपेलवं पुरुषम् ॥३१॥
युवतिजनजनितसारं नृपमन्त्रिपुरस्कृतं युवतिकान्तम् ।
शशिना दृष्टः सौरिः कुरुते500 सितभे कुटुम्बपरिवारम् ॥३२॥
संग्रामकथाभिज्ञं संग्रामपलायिनं सुबहुवाक्यम्।
भृगुभे कुजसन्दृष्टो जनधनपरिवेष्टितं सौरः ॥३३॥
नित्यं विहसनशीलं क्लीबतरं501 युवतिसेवकं नीचम् ।
बुधदृष्टो रवितनयः शुक्रगृहे मानवं कुरुते ॥३४॥
परविषयदुःखसुखिनं परकार्यकरं प्रियं च लोकस्य ।
कुरुते गुरुणा दृष्टो दातारं सोद्यमं सौरिः ॥३५॥
मद्यस्त्रीकृतसौख्यं रत्नानां भाजनं महासत्वम् ।
शुक्रगृहे सितदृष्टो जनयति सौरो नृपतिदयितम् ॥३६॥
॥ इति शुक्रगृहे दृष्टिः ॥
सुखरहितमथात्यन्तं धनरहितं धार्मिकं जितक्रोधम् ।
क्लेशसहिष्णुं धीरं बुधभे रविवीक्षितः सौरिः ॥३७॥
नृपतुल्यं स्निग्धतनुं नारीभ्यः प्राप्तविभवसत्कारम् ।
स्त्रीणां वा कृत्यकरं सौरश्चन्द्रेक्षितो बुधभे ॥३८॥
विख्यातमल्लमोहितमतिभारवहं तथा विकृतगात्रम्502।
रुधिराङ्गवीक्षिततनुर्जनयति सौरो नरं बुधभे ॥३९॥
धनिनं नियुद्धकुशलं नृत्ताचार्यं च गीतकुशलं च ।
शिल्पकमतीव निपुणं बुधभे बुधवीक्षितः सौरः ॥४०॥
प्रात्ययिकं राजकुले सर्वगुणसमन्वितं सतामिष्टम् ।
गुणगुह्यधनं कुरुते गुरुणा दृष्टः शनैश्चारी ॥४१॥
स्त्रीमण्डलेषु503 कुशलं योगाचार्यमथ योगिनं वाऽपि504 ।
शुक्रेक्षितोऽर्कपुत्रः स्त्रीणामिष्टं नरं बुधभे ॥४२॥
॥ इति बुधभवने दृष्टिः ॥
पित्रा रहितं बाल्ये दिनपतिदृष्टः शनैश्चरः शशिभे ।
धनसुखदारविहीनं कदशनतुष्टं नरं पापम् ॥४३॥
जन्मनि मातुरनिष्टं धनवन्तं सहजपीडितं चैव ।
शशिदृष्टः शशिभवने दिनकरपुत्रो नरं कुरुते ॥४४॥
नृपतिसमर्पितविभवं विकलाङ्गं कनकरत्नपरिवारम्।
कुजदृष्टः शशिभवने कुबन्धुपत्नीरतं505 सौरिः ॥४५॥
निष्ठुरमतिप्रवाचं शमितारातिं च दाम्भिकं चापि ।
जनयत्युत्तमचेष्टं बुधदृष्टो भास्करिः शशिभे ॥४६॥
क्षेत्रगृहाणां सुहृदां पुत्राणां भागिनं नरं कुरुते ।
धनरत्नदारवन्तं शशिभे गुरुवीक्षितः सौरः ॥४७॥
आयतकुलजातानां रूपविलासैः सुखैश्च रहितानाम् ।
कुरुते जन्म नराणां भृगुदृष्टः कर्कटे सौरिः ॥४८॥
॥ इति कर्कटदृष्टिः ॥
सुखधनहीनमनार्यंप्रियानृतं पानसक्तकुतनुं च ।
भृतकं दुःखिनमेकं सिंहे सूर्येक्षितः सौरः ॥४९॥
नानारत्नधनानां युवतीनां भाजनं विपुलकीर्तिम् ।
शिशिरगुदृष्टः सिंहे सौरो नृपवल्लभं पुरुषम् ॥५०॥
प्रतिदिनमटनमधन्यं चोरं गिरिदुर्गवासिनं क्षुद्रम्।
भार्यापुत्रविहीनं सिंहे सौरो रुधिरदृष्टः ॥५१॥
नैकृतिकमलसमधनं स्त्रीकर्मकरं मलीमसं दीनम् ।
जनयति बुधेन दृष्टो दिनकरभवनाश्रितः सौरिः ॥५२॥
ग्रामपुरश्रेणीनां पुरोगमाढ्यं च पुत्रवन्तं च ।
गुरुदृष्टः प्रात्ययिकं सिंहे सौरः सुशीलं च ॥५३॥
युवतिद्वेष्यं कान्तं मन्थरसुखभागिनं धनसमृद्धम् ।
शुक्रेक्षितस्तु कुरुते भानुगृहे रविसुतः स्वन्तम् ॥५४॥
॥ इति सिंहे दृष्टिः॥
परपुत्राणां पितरं गुरुभे सूर्येक्षितः सौरः ।
तेभ्यो धनं च लभते नाम ख्यातिं च पूजां च ॥५५॥
मातृरहितं सुशीलं नामद्वयसंयुतं खेस्तनयः ।
कुरुते शशिना दृष्टो भार्यासुतवित्तसम्पन्नम् ॥५६॥
वातव्याधिगृहीतं लोकद्वेष्यं च506पापशीलं च ।
क्षुद्रं निन्दितशीलं गुरुभे भौमेक्षितः सौरः ॥५७॥
जनयति गुरुभवनस्थो नृपतिसमं सौख्यवन्तमाचार्यम् ।
मान्यं धनिनं सौम्यं सुभगं सौम्येक्षितः सौरः ॥५८॥
नृपतिं नृपतुल्यं वा मन्त्रिणमथ नायकं च सेनायाः ।
जनयति गुरुणा दृष्टः सर्वापद्वर्जितं507 सौरः ॥५९॥
कुरुते द्विमातृपितृकं विपिनाद्रिषु जीविनं विविधशीलम् ।
जनयति सितेन दृष्टो रवितनयः कर्मसम्पन्नम् ॥६०॥
॥ इति गुरुभे दृष्टिः ॥
रोगिणमरूपभार्यं परान्नभोगिनमतीव दुःखसहम् ।
अटनरतं भारसहं सौरः सूर्येक्षितः स्वगृहे ॥६१॥
चपलमसत्यं पापं मातुरनिष्टं प्रियानृतं स्वाढ्यम्।
उत्पन्नाटनदुःखं स्वगृहे चन्द्रेक्षितः सौरः ॥६२॥
अतिशूरं विक्रान्तं विख्यातगुणं महाजनपुरोगम्।
तीक्ष्णं साहसनिरतं स्वगृहे वक्रेक्षितः सौरः ॥६३॥
भारसहं तामसिकं शोभनमटनज्ञमल्पवित्तं च ।
धन्यं जनयति शनिभे बुधेन संवीक्षितः सौरः ॥६४॥
समुदितगुणं नरेन्द्रं नृपवंशकरं चिरायुषमरोगम् ।
त्रिदशगुरुदृष्टमूर्तिर्जनयति सौरः स्वगृहसंस्थः ॥६५॥
धनिनं परदाररतं सुभगं सुखिनं च वित्तवन्तं च।
उत्पन्नपानभक्ष्यं स्वगृहे शुक्रेक्षितः सौरः ॥६६॥
॥ इति स्वगृहे दृष्टिः ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां सौरचारो नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
त्रिंशोऽध्यायः
मूर्त्यादयः पदार्था जायन्ते येन सर्वजन्तूनाम् ।
तस्मादधुना वक्ष्ये भावाध्यायं विशेषेण ॥१॥
लग्नेऽर्केऽल्पकचः क्रियालसमतिः क्रोधी प्रचण्डोन्नतो
मानी लोचनरूक्षकर्कशतनुः शूरोऽक्षमो निर्घृणः ।
स्फोटाक्षः शशिभे क्रिये सतिमिरः सिंहे निशान्धः पुमान्
दारिद्र्योपहतो विनष्टतनयो जातस्तुलायां नरः ॥२॥
द्विपदचतुष्पदभागी मुखरोगी नष्टविभवसौख्यश्च ।
नृपचोरमुषितसारः कुटुम्बगे स्याद्रवौ पुरुषः ॥३॥
विक्रान्तो बलयुक्तो विनष्टसहजस्तृतीयके सूर्ये ।
लोके मतोऽभिरामः प्राज्ञो जितदुष्टपक्षश्च ॥४॥
वाहनबन्धुविहीनः पीडितहृदयश्चतुर्थके सूर्ये ।
पितृगृहधननाशकरो भवति नरः कुनृपसेवी च ॥५॥
सुखसुतवित्तविहीनः कर्षणगिरिदुर्गसेवकश्चपलः ।
मेधावी धनरहितः स्वल्पायुः पञ्चमे तपने ॥६॥
प्रबलमदनोदराग्निर्बलवान् षष्ठं समाश्रिते भानौ ।
श्रीमान् विख्यातगुणो नृपतिर्वा दण्डनेता वा ॥७॥
निःश्रीकः परिभूतः कुशरीरो व्याधितः पुमान् द्युने ।
नृपबन्धनसन्तप्तोऽमार्गरतो युवतिविद्वेषी ॥८॥
विकलनयनोऽष्टमस्थे धनसुखहीनोऽल्पजीवितः पुरुषः ।
भवति सहस्रमयूखे स्वभिमतजनविरहसन्तप्तः ॥९॥
धनपुत्रमित्रभागी द्विजदैवतपूजनेऽतिरक्त508श्च ।
पितृयोषिद्विद्वेषी नवमे तपने सुतप्तः स्यात् ॥१०॥
अतिमतिरतिविभवबलो धनवाहनबन्धुपुत्रवान् सूर्ये ।
सिद्धारम्भः शूरो दशमेऽधृष्यः प्रशस्यश्च ॥११॥
सञ्चयनिरतो बलवान् द्वेष्यः प्रेष्यो विधेय509भृत्यश्च ।
एकादशे विधेयः प्रियरहितः सिद्धकर्मा च ॥१२॥
विकलशरीरः काणः पतितो वन्ध्यापतिः पितुरमित्रः ।
द्वादशसंस्थे सूर्ये बलरहितो जायते क्षुद्रः ॥१३॥
॥ इति रविः ॥
दाक्षिण्यरूपधनभोगगुणैः प्रधानः
चन्द्रे कुलीरवृषभाजगते विलग्ने।
उन्मत्तनीचबधिरो विकलश्च मूकः
शेषे नरो भवति कृष्णतनुर्विशेषात् ॥१४॥
अललितसुखमित्रयुतो धनैश्च चन्द्रे द्वितीयराशिगते ।
सम्पूर्णेऽतिधनशो भवति नरोऽल्पप्रलापकरः ॥१५॥
भ्रातृजनाश्रयणीयो मुदान्वितः सहजगे बलिनि ।
चन्द्रे भवति च शूरो विद्यावस्त्रान्नसङ्ग्रहणशीलः ॥१६॥
बन्धुपरिच्छदवाहनसहितो दाता चतुर्थगे चन्द्रे ।
जलसंचारानुरतः510 सुखासुखोत्कर्षपरिमुक्तः ॥१७॥
चन्द्रे भवति न शूरो विद्यावस्त्रान्नसङ्ग्रहणशीलः ।
बहुतनयसौम्यमित्रो मेधावी पञ्चमे तीक्ष्णः ॥१८॥
प्रचुरामित्रस्तीव्रो मृदुकायाग्निर्मदालसश्चन्द्रे ।
षष्ठे वृकोदरभवै511 रोगैः सम्पीडितो भवति ।
रजनिकरे स्वल्पायुः षष्ठगते भवति संक्षीणे ॥१९॥
सौम्यो धृष्यः सुखितः सुशरीरः कामसंयुतो द्यूने ।
दैन्यरुगर्दितदेहः कृष्णे संजायते शशिनि ॥२०॥
अतिमतिरतितेजस्वी व्याधिविबन्धक्षपितदेहः ।
निधनस्थे रजनिकरे स्वल्पायुर्भवति संक्षीणे ॥२१॥
दैवतपितृकार्यपरः सुखधनमतिपुत्रसम्पन्नः ।
युवतिजननयनकान्तो नवमे शशिनि प्रियतमोद्योतः512 ।
अविषादी कर्मपरः सिद्धारम्भश्च धनसमृद्धश्च ।
शुचिरतिबलोऽथ दशमे शूरो दाता भवेच्छशिनि ॥२३॥
धनवान् बहुसुतभागी बह्वायुस्विष्टभृत्यवर्गश्च ।
इन्दौ भवेन्मनस्वी तीक्ष्णः शूरः प्रकाशश्च ॥२४॥
द्वेष्यः पतितः क्षुद्रो नयनरुगार्त्तोऽलसो भवेद्विकलः ।
चन्द्रे तथान्यजातो द्वादशगे नित्यपरिभूतः ॥२५॥
इति चन्द्रः ॥
क्रूरः साहसनिरतः स्तब्धोऽल्पायुः स्वमानशौर्ययुतः ।
क्षतगात्रः सुशरीरो वक्रे लग्नाश्रिते चपलः ॥२६॥
अधनः कदशनतुष्टः पुरुषो विकृताननो धनस्थाने ।
कुजनाश्रयश्च रुधिरे भवति नरो विद्यया रहितः ॥२७॥
शूरो भवत्यधृष्यो भ्रातृवियुक्तो मुदान्वितः पुरुषः ।
भूपुत्रे सहजस्थे समस्तगुणभाजनं ख्यातः ॥२८॥
बन्धुपरिच्छदरहितो भवति चतुर्थेऽथ वाहनविहीनः ।
अतिदुःखैः संतप्तः परगृहवासी कुजे पुरुषः ॥२९॥
सौम्यार्थपुत्रमित्रश्चलमतिरपि पश्चमे कुजे भवति ।
पिशुनोऽनर्थप्रायः खलश्चविकलो नरो नीचः ॥३०॥
प्रबलमदनोदराग्निः513 सुशरीरो व्यायतो बली षष्ठे ।
रुधिरे सम्भवति नरः स्वबन्धुविजयी प्रधानश्च ॥३१॥
मृतदारो रोगार्तोऽमार्गरतो भवति दुःखितः पापः ।
श्रीरहितः सन्तप्तः शुष्कतनुर्भवति सप्तमे भौमे ॥३२॥
व्याधिप्रायोऽल्पायुः कुशरीरो नीचकर्मकर्ता च ।
निधनस्थे क्षितितनये भवति पुमान् शोकसन्तप्तः ॥३३॥
अकुशलकर्मा द्वेष्यः प्राणिवधपरो भवेन्नवमसंस्थे ।
धर्मरहितोऽतिपापो नरेन्द्रकृतगौरवो रुधिरे ॥३४॥
कर्मोद्युक्तो दशमे शूरो धृष्यः प्रधानजनसेवी ।
सुतसौख्ययुतो रुधिरे प्रतापबहुलः पुमान् भवति ॥३५॥
एकादशगे धनवान् प्रियसुखभागी तथा भवेच्छूरः ।
धनधान्यसुतैः सहितः क्षितितनये विगतशोकश्च ॥३६॥
नयनविकारी पतितो जायाघ्नः सूचकश्च रौद्रश्च।
द्वादशगे परिभूतो बन्धनभाक् भवति भूपुत्रे ॥३७॥
इति कुजः ।
अनुपहतदेहबुद्धिर्देशकलाज्ञानकाव्यगणितज्ञः ।
अतिमधुरचतुरवाक्यो दीर्घायुः स्याद्बुधे लग्ने ॥३८॥
बुद्ध्योपार्जितविभवो धनभवनगतेऽन्नपानभोगी च
शोभनवाक्यः सुनयः शशितनये मानवो भवति ॥३९॥
श्रमनिरतः514 परिदीनस्तृतीयराशौ बुधे भवति जातः ।
निपुणः सहजसमेतो मायाबहुलो नरश्चलितः515 ॥४०॥
पण्डितमाहुः सुभगो वाहनयुक्तो बुधे हिबुकसंस्थे ।
सुपरिच्छदः सुबन्धुर्भवति नरः पण्डितो नित्यम् ॥४१॥
मन्त्राभिचारकुशलो बहुतनयः पञ्चमे सौम्ये ।
विद्यासुखप्रभावैः516 समन्वितो हर्षसंयुक्तः ॥४२॥
वादविवादे कलहे नित्यजितो व्याधितो बुधे षष्ठे ।
अलसो विनष्टकोपो निष्ठुरवाक्योऽतिपरिभूतः ॥४३॥
प्रज्ञां सुचारुवेषां नातिकुलीनां च कलहशीलां च ।
भार्यामनेकवित्तां द्यूने लभते महत्त्वं च ॥४५॥
विख्यातनामसारश्चिरजीवी कुलधरो निधनसंस्थे ।
शशितनये भवति नरो नृपतिसमो दण्डनायको वाऽपि ॥४५॥
नवमगते भवति पुमानतिधनविद्यायुतः शुभाचारः ।
वागीश्वरोऽतिनिपुणो धर्मिष्ठः सोमपुत्रे हि ॥४६॥
प्रवरमतिकर्मचेष्टः सकलारम्भो517 विशारदो दशमे ।
धीरः सत्व518समेतो विविधालङ्कारसत्वभाक् सौम्ये ॥४७॥
धनवान् विधेयभृत्यः प्राज्ञः सौख्यान्वितो विपुलभोगी ।
एकादशे बुधे स्याद्वह्वायुः ख्यातिमान् पुरुषः ॥४८॥
सुगृहीतवाक्यमलसं परिभूतं वाग्मिनं तथा प्राज्ञम् ।
व्ययगः करोति सौम्यः पुरुषं दीनं नृशंसं च ॥४९॥
इति बुधः ।
होरासंस्थे जीवे सुशरीरः प्राणवान् सुदीर्घायुः ।
सुसमीक्षितकार्यकरः प्राज्ञो धीरस्तथार्यश्च ॥५०॥
धनवान् भोजनसारो वाग्मी सुवपुः सुवाक् सुवक्रश्च ।
कल्याणवपुस्त्यागी सुमुखो जीवे भवेद्धनगे ॥५१॥
अतिपरिभूतः कृपणः सदाजितो519 मानवो भवति जीवे ।
मन्दाग्निस्त्रीविजितो दुश्चिक्ये पापकर्मा च ॥५२॥
स्वजनपरिच्छदवाहनसुखमतिभोगार्थसंयुतो भवति ।
श्रेष्ठः शत्रुविषादी चतुर्थसंस्थे सदा जीवे ॥५३॥
सुखसुतमित्रसमृद्धः प्राज्ञो धृतिमांस्तथां विभवसारः ।
पञ्चमभवने जीवे सर्वत्र सुखी भवति जातः ॥५४॥
सन्नोदराग्निपुंस्त्वः परिभूतो दुर्बलोऽलसः षष्ठे ।
स्त्रीविदितो रिपुहन्ता जीवे पुरुषोऽतिविख्यातः ॥५५॥
सुभगः सुरुचिरुदारः पितुरधिकः सप्तमे भवति जातः ।
वक्ता कविः प्रधानः प्राज्ञो जीवे सुविख्यातः ॥५६॥
परिभूतो दीर्घायुर्भृतको दासोऽथवा निधनसंस्थे ।
स्वजनप्रेष्यो520 दीनो मलिनस्त्रीभोगवान् जीवे ॥५७॥
दैवतपितृकार्यरतो विद्वान् सुभगो भवेत्तथा नवमे ।
नृपमन्त्री नेता वा जीवे जातः प्रधानश्च ॥५८॥
सिद्धारम्भो मान्यः सर्वोपायः कुशलसमृद्धश्च ।
दशमस्थे त्रिदशगुरौ सुखधनजनवाहनयशोभाक् ॥५९॥
अपरिमितायद्वारो बहुवाहनभृत्यसंयुतः साधुः ।
एकादशभे जीवे न चातिविद्यो न चातिसुतः ॥६०॥
अलसो लोकद्वेष्यो ह्यपगतवाग्दैवपक्षभनो वा ।
परितः सेवानिरतो द्वादशसंस्थे गुरौ भवति ॥६१॥
॥ इति गुरुः ॥
सुनयनवदनशरीरं सुखितं दीर्घायुषं तथा भीरुम् ।
युवतिजननयनकान्तं जनयति होरागतः शुक्रः ॥६२॥
प्रचुरान्नपान विभवं श्रेष्ठ521विलासं तथा सुवाक्यं च ।
कुरुते द्वितीयराशौ बहुधनसहितं सितः पुरुषम् ॥६३॥
सुखधनसहितं शुक्रो दुश्चिक्ये स्त्रीजितं तथा कृपणम् ।
जनयति मन्दोत्साहं सौभाग्यपरिच्छदातीतम् ॥६४॥
बन्धुसुहृत्सुखसहितं कान्तं वाहनपरिच्छदसमृद्धम् ।
ललितमदीनं सुभगं जनयति हिबुके नरं शुक्रः ॥६५॥
सुखसुतमित्रोपचितं रतिपरमतिधनमखण्डितं शुक्रः।
कुरुते पञ्चमराशौ मन्त्रिणमथ दण्डनेतारम् ॥६६॥
अधिकमनिष्टं स्त्रीणां प्रचुरामित्रं निराकृतं522 विभवैः ।
विक्लवमतीव नीचं कुरुते षष्ठे भृगोस्तनयः ॥६७॥
अतिरूपदारसौख्यं बहुरूपं523 कलहवर्जितं पुरुषम् ।
जनयति सप्तमधामनि सौभाग्यसमन्वितं शुक्रः ॥६८॥
दीर्घायुरनुपमसुखः शुक्रे निधनाश्रिते धनसमृद्धः ।
भवति पुमान् नृपतिसमः क्षणे क्षणे लब्धपरितोषः ॥६९॥
सममायततनुवित्तो दारयुवतिसुखसुहृज्जनोपेतः ।
भृगुतनये नवमस्थे सुरातिथिगुरुप्रसक्तः स्यात् ॥७०॥
उत्थानविवादजिताः524 सुखरतिभावार्थकीर्तयो यस्य ।
दशमस्थे भृगुतनये भवति पुमान् बहुमतिख्यातः ॥७१॥
प्रतिरूपदासभृत्यं बह्वायं सर्वशोकसन्त्यक्तम् ।
जनयति भवभवनगतो भृगुतनयः सर्वदा पुरुषम् ॥७२ ॥
अलसं सुखिनं स्थूलं पतितं मृष्टाशिनं भृगोस्तनयः ।
शयनोपचारकुशलं द्वादशगः स्त्रीजितं जनयेत् ॥ ७३ ॥
इतिशुक्रः ।
स्वोच्चस्वकीयभवने क्षितिपालतुल्यो
लग्नेऽर्कजे भवति देशपुराधिनाथः ।
शेषेषु दुःखगदपीडित एव बाल्ये
दारिद्र्यकर्मवशगो525 मलिनोलसश्च ॥७४॥
विकृतवदनोऽर्थभोक्ता जनरहितो न्यायकृत्कृटुम्बगते ।
पश्चात्परदेशगतो जनवाहनभोगवान् सौरे ॥७५॥
मलिनः संस्कृतदेहो नीचोऽलसपरिजनो भवति सौरे ।
शूरो दानानुरतो दुश्चिक्यगते विपुलबुद्धिः ॥७६॥
पीडितहृदयो हिबुके निर्बान्धववाहनार्थमतिसौख्यः ।
बाल्ये व्याधितदेहो नखरोमधरो भवेत् सौरे ॥७७॥
सुखसुतमित्रविहीनं मतिरहित526मचेतसं त्रिकोणस्थः ।
सोन्मादं रवितनयः करोति पुरुषं सदा दीनम् ॥७८॥
प्रबलमदनं सुदेहं शूरं बह्वाशिनं विषमशीलम् ।
बहुरिपुपक्षक्षपितं रिपुभवनगतोऽर्कजः कुरुते ॥७९॥
सततमनारोग्यतनुं मृतदारं धनविवर्जितं जनयेत् ।
द्यूनेऽर्कजः कुवेषं पापं बहुनीचकर्माणम् ॥८०॥
कुष्ठभगन्दररोगैरभितप्तं ह्रस्वजीवितं निधने ।
सर्वारम्भविहीनं जनयति रविजः सदा पुरुषम् ॥८१॥
धर्मरहितोऽल्प527धनिकः सहजसुतविवर्जितो नवमसंस्थे ।
रविजे सौख्यविहीनः परोपतापी च जायते मनुजः ॥८२॥
धनवान् प्राज्ञः शूरो मन्त्री वा दण्डनायको वाऽपि ।
दशमस्थे रवितनये बृन्दपुरग्रामनेता च ॥८३॥
बह्वायुः स्थिरविभवः शूरः शिल्पाश्रयो528 विगतरोगः।
आयस्थे भानुसुते धनजनसम्पद्युतो भवति ॥८४॥
विकलः पतितो मुखरो विषमाक्षो निर्घृणो विगतलज्जः।
व्ययभवनगते सौरे बहुव्ययः स्यात् सुपरिभूतः ॥८५॥
इति शनिः ।
पापा निघ्नन्ति मूर्त्यादीन् भावान् पुष्णन्ति शोभनाः ।
विपरीतं रिपूरन्ध्रव्ययेषु सदसत्फलम् ॥८६॥
योगा529 ये बलयोगाः530सौम्यसुहृद्रिपुनिरीक्षणाच्चैव ।
उच्चादिभवनसंस्थैर्ग्रहैश्च फलमन्यथा भवति ॥८७॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां भावाध्यायस्त्रिंशः ॥
एकत्रिंशोऽध्यायः ।
होरा चतुर्थसप्तमदशमेषु यथा द्वयोर्द्वयोर्ग्रहयोः ।
भवति फलसम्प्रयोगो जातस्यं तथायमुपदेशः ॥१॥
मातृपितृदुःखतप्तः सूर्येन्द्वोरुदयसंस्थयोर्मनुजः ।
मानसुतविभवहीनः परिभूतो जायते दुःखी ॥२॥
बान्धवसुतसुखहीनो दारिद्र्ययुतो महाजडप्रकृतिः ।
चन्द्रे रसातलस्थे भास्करसहिते पुमान् जातः ॥३॥
मित्रैः सुतैश्च हीनः परिभूतो युवतिभिः सदा पुरुषः ।
चन्द्रे सप्तमभवने दिनकरसहिते भवेद्दीनः ॥४॥
सुशरीरं बलनाथं राजसिकं निर्दयं विषमशीलम् ।
सूर्येन्दू गगनस्थौ कुरुतः क्षपितारिपक्षं च ॥५॥
रविभौमयोर्विलग्ने पित्तप्रकृतिर्महाहवे शूरः ।
क्रोधी विक्षतगात्रः क्रूरश्च शठः कठोरः स्यात् ॥६॥
बन्धुजनवित्तहीनः531 समस्तसुखवर्जितः क्षुमितः ।
कुजसूर्ययोश्चतुर्थे भवति पुमान् सर्वतो द्वेष्यः ॥७॥
स्त्रीविरहदुःखखिन्नः स्त्रीहेतोः परिभवं सदा प्राप्तः ।
रविरुधिरयोर्युवत्यां विदेशगमने रतो भवति ॥८॥
विफलारम्भो भृतको नित्योद्विग्नः प्रधाननृपसेवी।
भूतनयदिवाकरयोः कर्मणि गतयोर्भवेद्विकलः ॥९॥
प्राज्ञो532 बहुप्रलापी कठिनांगः शूरवल्लभो मतिमान् ।
लग्ने बुधदिनकरयोर्दीर्घायुः संभवेत्पुरुषः ॥१०॥
नृपतिसमो विख्यातो गृहीतकाव्यः कुबेरसमविभवः ।
रविशशितनयौ हिबुके स्थूलतनुर्वक्रनासश्च ॥११॥
वधबन्धनकृन्मृत्युर्गृहीतवाक्यो न चातिधनलुब्धः ।
स्त्रीरतिहीनश्चोरो द्यूने बुधसूर्ययोर्भवति ॥१२॥
त्रिषु लोकेषु ख्यातो गजाश्वनाथो भवेन्महीपालः ।
दिनकरबुधयोर्दशमे न नीचराशिस्थयोरेव ॥१३॥
जीवार्कयोर्गुणयुतो मन्त्री बलनायकोऽथवा साधुः ।
लग्नस्थयोः प्रसूतौ विद्याधनभोगवान् ख्यातः ॥१४॥
श्रुतिनीतिकाव्यनिरतं भव्यं जनसम्पदं प्रियालापम्।
हिबुके सुरेज्यसूर्यौ निभृताचारं नरं कुरुतः ॥ १५ ॥
जीवार्कयोर्युवत्यां मदनवशात् स्त्रीजितः पितृद्वेषी ।
कनकमणिरजतमौक्तिकसमन्वितः शुभशरीरः स्यात् ॥१६॥
कीर्तिसुखमान विभवैः समन्वितः पार्थिवो भवेन्नभसि ।
रविदेवपुरोहितयोर्निन्द्येऽपि कुले नरो जातः ॥१७॥
प्रियकलहस्त्वविनीतो मलिनाचारः सुदुःखितो नीचः ।
लग्ने रविभृगुसुतयोरत्यर्थकलत्रसम्परित्यक्तः ॥१८॥
आदित्ये हिबुकस्थे भार्गवसहिते भवेन्नरो जातः ।
परभृत्यः शोकार्त्तः लोकद्वेष्यो दरिद्रश्च ॥१९॥
स्त्रीभिः सम्परिभूतो द्रविणविहीनो बृहत्तनुर्द्वेष्यः ।
शैलवनेषु च विचरति रविसितयोः सप्तमस्थाने ॥२०॥
कर्मणि दिनकरसितयोः व्यवहाररतो नरेन्द्रसचिवः स्यात् ।
शास्त्रकलानिपुणमतिर्धनवाहनसौख्यसम्पन्नः ॥२१॥
निन्दितजननीपुत्रः कुत्सितवृत्तिः सदा मलिनबुद्धिः ।
लग्ने सूर्यार्कजयोः पापाचारो भवेत्पुरुषः ॥२२॥
सौरिश्चतुर्थराशौ भास्करसहिते पुमान् भवति नीचः ।
दारिद्र्यविहितमूर्त्तिः स्वबन्धुभिश्चापि परिभूतः ॥२३॥
भान्वर्कजयोर्मदने मन्दालसदुर्भगाश्च जायन्ते ।
युवतिधनैः सन्त्यक्ता मृगयाभिरता महामूर्खाः ॥२४॥
भानुः स्वपुत्रसहितो गगने भृतकं विदेशगं जनयेत् ।
नृपतेः क्वचिदाप्तधनैश्चोरैर्मुषितं सदश्वधनम् ॥२५॥
रक्ताग्निपित्त533दोषैरभिभूतो जायते नरो राजा ।
क्षोणीसुतहिमकरयोर्लग्ने तीक्ष्णस्वभावश्च ॥२६॥
सक्लेशो निर्द्रव्यः सुखसुतधनबन्धुहीनश्च ।
पाताले कुजशशिनोर्विकलश्च भवेत्तथा जातः ॥२७॥
क्षुद्रः परधनलुब्धो बहुप्रलापो न सत्यवचनश्च ।
ईर्ष्यायुक्तो मनुजः कुजशशिनोः सप्तमस्थाने ॥२८॥
तुरगगजपत्तिसम्पत्समाकुलं तुहिनगुर्नरं कुरुते ।
रुधिरेण समायातो गगनतले विक्रमैर्युक्तम् ॥२९॥
सुखबुद्धिसत्वयुक्तः सुभगः कान्तो विलग्नगे शशिनि ।
बुधसहिते भवति नरो वाचालश्चातिनिपुणश्च ॥३०॥
बन्धुसुहृत्तनयसुखप्रतापकनकाश्वरत्नसंयुक्तम् ।
बान्धवराशाविन्दुर्जनयति बुधसंयुतः सुभगम् ॥३१॥
द्यूने बुधसंयुक्तो जनयति चन्द्रः प्रतापिनं पुरुषम् ।
नृपसंमतं नृपं वा विख्यातं सत्कविं ललितम् ॥३२॥
दशमे बुधहिमकरयोर्मानी धनवानतिख्यातः ।
नृपसचिवो वयसोऽन्ते दुःखी स्याद्बन्धुपरिहीनः ॥३३॥
लग्ने सुरेज्यशशिनोः क्षितिपः पृथुपीनवक्षाः स्यात् ।
बहुतनयमित्रभार्यः सुशरीरो बन्धुभिर्जुष्टः ॥३४॥
मन्त्री राजप्रतिमः सुखबन्धुसमन्वितो महाविभवः ।
बहुशास्त्राक्षतबुद्धिर्हिबुके स्याज्जीवशशिनोश्च ॥३५॥
जायाभवने कुरुतः सुप्राज्ञं पार्थिवं कलाकुशलम्।
वाणिजकं जीवेन्दू नृपवल्लभमर्थवत् स्फीतम् ॥३६॥
कर्मणि सुरेज्यशशिनोर्विद्यादानार्थमानकीर्तियुतः ।
सौम्यः प्रलम्बबाहुः सर्वनमस्यो नरो भवति ॥३७॥
वेश्यास्त्रीकृतसौख्यः कान्ततनुः534 संमतो गुरूणां च ।
माल्याम्बरगन्धयुतो लग्ने शशिशुक्रयोर्भवति ॥३८॥
पाताले शशिशुक्रौ स्त्रीजनसुखभागिनं नरं कुरुतः ।
जलसंयानाप्तधनं जनप्रियं भोगसम्पन्नम् ॥३९॥
जामित्रे सितशशिनोर्बहुयुवतिरतो न चातिधनपुत्रः ।
स्त्रीजननो मेधावी भूपतिचरितो535 भवेत्पुरुषः ॥४०॥
मानाज्ञाविभवयुतः कर्मणि शुक्रे शशाङ्कयुते ।
राज्ञो मन्त्री ख्यातः क्षमान्वितः स्याद्बहुजनश्च॥४१॥
दासाः खलाः सुरौद्रा भवन्ति लुब्धाश्च मानवा हीनाः ।
भास्करसुतहिमकरयोर्लग्ने निद्रालसाः पापाः ॥४२॥
जलमुक्तामणिपोतैर्जीवन्ति नरास्तथा खननवृत्त्या।
हिबुके शशिरविसुतयोः श्रेष्ठा जनसंमता जाताः ॥४३॥
नगरग्रामपुराणां महत्तरा राजपूजिताः पुरुषाः ।
जायन्तेऽर्कजशशिनोर्जायाभवने युवतिहीनाः ॥४४॥
प्रचुरतुरंगमदलितारातिः ख्यातः कुयोषितः पुत्रः ।
भवति नराणामधिपः शशिशनियोगे खमध्यगते ॥४५॥
सौम्यग्रहसंयुक्तः प्रायेण शुभावहो भगणनाथः ।
भौमार्कियुतोदृष्टो536 दशमे च चमूपतिं कुर्यात् ॥४६॥
हिंस्रोऽग्निकर्मकुशलो धातोर्वादे कृतश्रमो दूतः ।
भौमबुधयोर्विलग्ने गुप्त्यधिकारी भवेत्पुरुषः ॥४७॥
बान्धवरहितः सहितो मित्रैश्चधनान्नभोगवाहनवान्।
हिबुके बुधभूसुतयोः स्वजनेषु निराकृतो जातः ॥४८॥
भ्रमति च देशाद्देशं कर्मकरो नीचपरिभूतः ।
भौमेन्दुजयोद्यूने सुविवादकरो मृतप्रथमदारः ॥४९॥
सेनाधिपतिः शूरः शठस्वभावो भवेदतिक्रूरः ।
बुधकुजयोराकाशे राज्ञोऽभिमतो नरो धीरः ॥५०॥
मन्त्री गुणप्रधानो धर्मक्षेत्रे प्रलब्धपरिकीर्तिः ।
जीवकुजयोर्विलग्ने नित्योत्साही भवेत्पुरुषः ॥५१॥
बन्धुसुहृत्सम्पन्नः स्थिरचित्तः537 सौख्यभाक् भवेद्धिबुके ।
भौमामरपूजितयोर्नृपसेवी देवगुरुभक्तः ॥५२॥
गिरिदुर्गतोयकाननविचरणशीलः सुबान्धवः शूरः ।
कुजजीवयोर्युवत्यां जायाहीनः पुमान् भवति ॥५३॥
त्रिदशगुरुभूमिसुतयोराकाशे पार्थिवो विपुलकीर्तिः ।
बहुधनजनपरिवारः कर्मसु निपुणो भवेत् पुरुषः ॥५४॥
शुक्रकुजयोर्विलग्ने वेश्यानिरतः कुशील538कर्मा च ।
स्त्रीहेतोर्नष्टधनो न तु चिरजीवी भवेत्पुरुषः ॥५५॥
बन्धुसुतमित्रहीनो मानसपीडाभिरर्दितः पुरुषः ।
भौमसितयोश्चतुर्थे नानादुःखैर्भवेत्तप्तः ॥५६॥
स्त्रीलोलुपः कुचरितः स्त्रीहेतोः प्राप्तवान् महादुःखम् ।
भौमसितयोर्युक्त्यां हीनाचारो भवेत्पुरुषः ॥५७॥
अस्त्राचार्यो मतिमान् विद्याधनवस्त्रमाल्यवान् भवति ।
ख्यातो नरेन्द्रसचिवः सितकुजयोर्व्योम्नि संस्थितयोः॥५८॥
संग्रामलब्धविजयो जननीद्वेष्यो भवेत्पुरुषः ।
भौमार्कजयोलग्ने ह्रस्वायुः क्षीणभाग्यश्च ॥५९॥
पानान्नसौख्यरहितः स्वजनैस्त्यक्तो भवति जातः ।
भौमार्कजयोर्हिबुके मित्रैश्च विवर्जितः पापः ॥६०॥
जायासुखसुतहीनो दैन्यपरो व्याधितो व्यसनशीलः ।
भौमार्कजयोरस्ते जनपरिभूतो भवेत्कृपणः ॥६१॥
राज्ञः सम्प्राप्तधनो महापराधाच्च दण्डितस्तेन।
भौमार्कजयोर्दशमे न सत्यवचनो नरो भवति ॥६२॥
शुभमूर्तिः शुभशीलो विद्वान्नृपसत्कृतो विषयनाथः ।
बुधजीवयोर्विलग्ने वाहनसुखभोगवान् भवति ॥६३॥
बन्धुसुहृत्सुखसहितः स्त्रीधनसौभाग्यसम्पन्नः ।
बुधजीवयोश्चतुर्थे निपुणो नृपसंमतो539 भवति ॥६४॥
सुकलत्रो हतशत्रुर्बहुजनमित्रार्थसत्वसम्पन्नः ।
बुधजीवयोर्युवत्यामतीत्य पितृपक्षमधिकः स्यात् ॥६५॥
बोधनगुर्वोर्दशमे नरेन्द्रमन्त्री नृपोऽथवा भवति ।
मानाज्ञाख्यातियुतः श्रौतार्थपरो विनीतश्च ॥६६॥
बुधशुक्रयोर्विलग्ने सुशरीरः पण्डितः सतां सुभगः ।
नृपपूजितोऽतिधन्यो द्विजसुरभक्तो भवेत् ख्यातः ॥६७॥
बुधशुक्रौ हिबुकस्थौ पुत्रसुहृद्बन्धुसंयुतं सुभगम्।
मन्त्रिणमथवा नृपतिं कुरुतः कल्याणसम्पन्नम् ॥६८॥
बुधशुक्रयोर्युवत्यां सद्बहुयुवतिपरिवेष्टितः पुरुषः ।
भोगधनैश्वर्ययुतो भवति सुखी संमतो राज्ञाम् ॥६९॥
बोधनसितयोः कर्मणि नीतिज्ञो भवति भूपतिः साधुः ।
नीचाश्रयो न चाढ्यः सफलारम्भः समर्थश्च ॥७०॥
मलिनशरीरः पापी विद्याधनवाहनैः परित्यक्तः ।
सौम्यार्कजयोर्लग्ने ह्रस्वायुः क्षीणभाग्यश्च ॥७१॥
पानान्नबन्धुरहितः स्वजनेषु तिरस्कृतो भवति मूढः ।
सोम्यार्कजयोर्हिबुके मित्रैश्च विवर्जितः पापः ॥७२॥
ईश्वरभृतको मूर्खः परोपकारी न साधुरतिमलिनः ।
सौम्यार्कजयोरस्ते न सत्यवचनो नरो भवति ॥७३॥
प्रशमितसमस्तशत्रुः स्वजनसुहृद्वाहनार्थसम्पन्नः ।
सौम्यार्कजयोर्दशमे द्विजगुरुसुरपूजितो भवति ॥७४॥
जीवसितयोर्विलग्ने गुरूपदेशो भवेत् क्षमानाथः ।
ब्राह्मणकुलसंभूतोऽप्यनुकूलो भवति नृपतुल्यः ॥७५॥
प्रशमितसमस्तशत्रुः स्वजनसुहृद्वाहनार्थसम्पन्नः ।
जीवसितयोश्चतुर्थे द्विजगुरुसुरपूजितो भवति ॥७६॥
सुस्त्रीरत्नार्थयुतः स्त्रीजननो लब्धसौख्यकीर्तिश्च ।
गुरुशुक्रयोर्युवत्यां वरवाहनभोगवान् भवति ॥७७॥
गगनस्थौ गुरुशुक्रौ मानाज्ञाविभवविस्तरैस्सहितम् ।
जनयेतां पृथिवीशं बहुभृत्यधनं सुशीलं च ॥७८॥
लग्ने जीवार्कजयोर्मदालसा निष्ठुराः समभिजाताः ।
विद्वांसो धनसाराः किञ्चित्सुखिता भवन्ति खलाः ॥७९॥
नृपसचिवो निरुजतनुर्जयोदयी बान्धवैः सुहृद्भिश्च ।
पातालेऽर्कजगुर्वोः प्रीतिधनः सौख्यवान् भवति ॥८०॥
स्त्रीवैरान्नष्टधनः शूरो व्यसनी शठो न शुभमूर्तिः ।
द्यूने सुरेज्ययमयोः पितृधनलुब्धश्च जायते मूर्खः ॥८१॥
दशमे भास्करिजीवौ नरेन्द्रदयितं च भूपतिं कुरुतः ।
अल्पापत्यं नचलं गोकुलबहुवाहनार्थं च ॥८२॥
रमते सर्ववधूभिः कान्तशरीरः सुखार्थभोगयुतः ।
लग्ने भृगुसुतयमयोर्बहुभृत्यः शोकसन्तप्तः ॥८३॥
मिवेभ्यो धनलाभं बन्धुभ्यः सत्कियाः समाप्नोति ।
शनिशुक्रयोश्चतुर्थे नृपतेश्च तथाप्ततां याति ॥८४॥
स्त्रीरत्नानि सुखानि च धनानि कीर्तिश्च भूतिमखिलां च ।
मन्दसितयोर्युवत्यां प्राप्नोति पुमान् विषयलाभम् ॥८५॥
सर्वद्वन्द्वविमुक्तो लोके ख्यातो विशिष्टकर्मा च ।
मेषूरणे सितार्क्योर्नृपतेर्मन्त्रीभवेदधिकः ॥८६॥
एवं त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिरथ सप्तभिश्च षड्भिर्वा ।
वक्तव्यं केन्द्रस्थैर्ग्रहयोगफलं विचिन्त्य धिया ॥८७॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां व्द्यन्तरयोगो नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥
——————
द्वात्रिंशोऽध्यायः ।
सर्वमपहाय चिन्त्यं भाग्यर्क्षं प्राणिनां विशेषेण।
भाग्यं विना न जन्तुर्यस्मात्तद्यत्नतो वक्ष्ये ॥१॥
लग्नान्निशाकराद्वा यन्नवमं540 तद्गृहं भवेद्भाग्यम् ।
अनयोर्यो बलयुक्तो भाग्यगृहं चिन्तयेदस्मात् ॥२॥
भाग्यर्क्षपतिः कस्मिन्नेको541 भाग्यर्क्षमाश्रितो विहगः।
बलवान्मन्दबलो वा तस्याधिपतेस्तु कारको ज्ञेयः ॥३॥
स्वस्वामिदृष्टयुक्तं स्वदेशफलदायकं मुनिभिरुक्तम् ।
अन्येन सहितदृष्टं परदेशफलप्रदं भवति भाग्यम् ॥४॥
दुश्चिक्यगतो भाग्यं पञ्चमभवनस्थितो ग्रहः पश्येत् ।
होरागतश्च बलवान् येषां ते मानवाः श्रेष्ठाः ॥५॥
देवगुरौ भाग्यस्थे मन्त्री रविवीक्षिते नृपतितुल्यः ।
भोगी कान्तः शशिना काञ्चनभा542भवति भौमेन ॥६॥
सौम्येन धनी ज्ञेयः सितेन गोवाहनार्थसंयुक्तः ।
सौरेण स्थावरभाक् दृष्टे खरमहिपसंयुक्तः ॥७॥
ऐश्वर्यरत्नकाञ्चनसाहसभागुत्तमश्च वीर्येण ।
रविरुधिराभ्यां दृष्टे वाहनपरिवारवान् पुरुषः ॥८॥
चन्द्रार्काभ्यां दृष्टे सुसमृद्धो वल्लभः पितृजनन्योः ।
ख्यातो नरेन्द्रतुल्यो बहुदारसमन्वितः पुरुषः ॥९॥
ललितः कान्तः सुभगो वरयुवतिविभूषणार्थसम्पन्नः ।
बुधसूर्याभ्यां दृष्टे काव्यकलापण्डितः प्राज्ञः ॥१०॥
उत्सवसमाजशीलो गोमहिषाजवरवारणोपेतः ।
रविसितदृष्टे जीवे भाग्यस्थे स्याद्विनीतश्च ॥११॥
अर्कार्किभ्यां दृष्टे देशपुरश्रेणिनायकः ख्यातः ।
प्राज्ञो गुणवान् सघनो निधिनाथः संग्रहणशीलः ॥१२॥
सेनाचार्यः स्फीतो मन्त्री वा जायते गुरौ भाग्ये ।
दृष्टे कुजचन्द्राभ्यां नानाविधसौख्यभाजनं सुभगः ॥१३॥
उत्तमगृहशयनानां भोगी तेजोन्वितः क्षमाप्रतिमः ।
चन्द्रबुधाभ्यां दृष्टे जातः पुरुषोऽतिमतियुक्तः ॥१४॥
आढ्यः कर्मोद्युक्तः शूरः परदारवान् सुतविहीनः ।
इन्दुसिताभ्यां दृष्टे भाग्यगृहे स्याद्गुरौ जातः ॥१५॥
मदबहुलस्थिरजीवी परदेशरतो विवादशीलः स्यात् ।
अनृतवचनो गुणोनः शशियमदृष्टे गुरौ भाग्ये ॥१६॥
सुप्राज्ञोऽतिसुशीलः सुगुणो543 विद्वान् गृहीतवाक्यश्च ।
सुरुचिरवेषो जीवे कुजबुधदृष्टे भवेद्भाग्ये ॥१७॥
धनवान्विद्यायुक्तो विदेशगः सात्विकोऽतिनिपुणश्च ।
क्षितितनयभार्गवाभ्यां दृष्टे क्रूरो नरो जातः ॥१८॥
नीचः पिशुनो द्वेष्यो विदेशगश्चलजनैः समायुक्तः ।
भौमार्किभ्यां दृष्टे भाग्यगृहे सुरगुरौ जातः ॥१९॥
शिल्पज्ञोऽतिसुशीलो विद्वान् सुभगो गृहीतवाक्यश्च ।
सुरुचिरवेषो जीवे बुधसितदृष्टे भवेद्भाग्ये ॥२०॥
सुभगो विद्वान् वक्ता ललितः शूरः सुखी विनीतश्च ।
जीवे भाग्योपगते बुधार्किदृष्टे पुमान् भवति ॥२१॥
देवगुरौ भाग्यस्थे काव्यार्कजवीक्षिते पुमान् भवति ।
राजेश्वरराष्ट्राणां पुरोगमो धनसमृद्धश्च ॥२२॥
राश्यधिपेन च दृष्टे जीवे भाग्याश्रिते नृणां ज्ञेयम् ।
एभिः कथितैर्दृष्टे फलमिदमन्यैरसन्दृष्टे ॥२३॥
उत्तमरूपो गुणवान् तेजस्वी पार्थिवो महाविभवः ।
देवगुरौ भाग्यस्थे सर्वग्रहवीक्षिते भवति ॥२४॥
भाग्ये शुभगगनसदो बलिनो राज्यप्रदास्तु विज्ञेयाः \।
स्थावरधनधान्यकरा धर्मायुर्वर्धनाश्चैव ॥२५॥
नीचारिराशिसंस्थाः पापा भाग्ये न सौम्यसंदृष्टाः ।
दुर्बलमधनं कुर्युर्विगतख्यातिं नरं मलिनम् ॥२६॥
स्वे स्वे भवने पुंसां क्रूरा भाग्यर्क्षसंस्थिता ये स्युः ।
ज्ञेयास्त उत्तमशुभा बहुतरगुणसंयुताः शुभैर्दृष्टाः ॥२७॥
पूर्णेन्दुयुते भाग्ये वक्रार्किबुधाः प्रधानवीर्याश्च ।
व्यस्ता वाऽथ समस्ताः प्रधाननृपसंभवो ज्ञेयः ॥२८॥
सकलगगनगेहाः स्वोच्चगा भाग्यराशौ
धनकनकसमृद्धं श्रेष्ठमुत्पादयन्ति ।
अथ शुभविहगेन्द्रैस्तत्र दृष्टे नरेन्द्रं
विनिहतरिपुपक्षं दिव्यकान्तिं सुकीर्त्तिम् ॥२९॥
सूर्यश्चन्द्रसहायो भाग्ये स्वल्पायुषं नरं कुरुते ।
नयनव्याधितमाढ्यं सुभगं कलहप्रियं चापि ॥३०॥
भानुर्वक्रसमेतो नानादुःखान्वितं नरं कुरुते ।
कलहप्रियं प्रचण्डं शूरं नृपवल्लभं निपुणम् ॥३१॥
रविसहितः शशितनयो निपुणं दुःखान्वितं बहुविपक्षम् ।
जनयति भाग्ये पुरुषं नानारोगैः परिगृहीतम् ॥३२॥
सुरगुरुसहितः सूर्यो भाग्ये कुर्याद्धनान्वितं पुरुषम् ।
पितरं च धनसमृद्धं दीर्घायुषमार्यमतिशूरम् ॥३३॥
शुक्रसहायः सूर्यो व्याधितदेहं नरं कुरुते ।
प्रियगन्धमाल्यभूषणवस्त्रालङ्कारसंयुतं भाग्ये ॥३४॥
सूर्यः सौरसहायो धनिनं नेत्रातुरं कलहनिष्ठम् ।
व्याधितपितरं कुरुते भाग्ये स्वल्पायुषं पुरुषम् ॥३५॥
चन्द्रो रुधिरसहायो भाग्यं समुपेत्य मातरं हन्यात् ।
कुर्याच्च विकलगात्रं सव्रणदेहं समृद्धं च ॥३६॥
चन्द्रः स्वसुतसमेतः शास्त्रज्ञं पण्डितं विकलदेहम्
जनयत्युत्तमपुरुषं बहुवाचं विश्रुतं चैव ॥३७॥
सुरगुरुसहिते चन्द्रे भाग्ये प्रवरः प्रसूयते पुरुषः ।
सौभाग्यधनसमृद्धः सर्वत्र सुखान्वितो धीरः ॥३८॥
चन्द्रो भार्गवसहितो भाग्यगृहे व्याधितं नरं कुरुते ।
कुलटापतिं समृद्धं मातृसपत्नीप्रदं सचिववश्यम् ॥३९॥
रविसुतसहितश्चन्द्रो नवमे राशौ विकृष्टधर्माणम् ।
जनयति मनुजं पापं माता च कुलच्युता भवति ॥४०॥
रुधिरः सोमजसहितो भाग्यर्क्षे जनयति प्रधानं च ।
नित्योद्विग्नं सुभगं भोगयुतं शास्त्रकुशलं च ॥४१॥
भौमः सुरगुरुयुक्तो भाग्ये धनधान्यभागिनं पुरुषम् ।
पूज्य व्याधितदेहं क्लिष्टं व्रणदीक्षितं प्रसवे ॥४२॥
भार्गवसहितः क्षितिजः परदेशरतं विवादिनं क्रूरम् ।
स्त्रीद्वेषिणं कृतघ्नं जनयति मिथ्याप्रधानं च ॥४३॥
पापं मलिनाचारं परदाररतं विनष्टधनसौख्यम् ।
कुजरविजौ भाग्यगृहे स्वजनविहीनं नरं कुरुते ॥४४॥
सौम्यः सुरगुरुसहितः शास्त्रज्ञं पण्डितं धनसमृद्धम् ।
प्रियवादिनं कलाज्ञं प्रभविष्णुमहत्तरं भाग्ये ॥४५॥
भृगुसुतसहितः सौम्यः ख्यातं च सुपण्डितं धीरम् ।
सुभगं वचनसमर्थं जनयति नीतिप्रियं भाग्ये ॥४६॥
सूर्यजसहितः सौम्यो व्याधितमाढ्यं प्रियान्वितं निपुणम् ।
जनयति भाग्ये पुरुषं सद्वेष्यं बहुकथं चैव ॥४७॥
शुक्रः सुरगुरुसहितो भाग्यगृहस्थो नराधिपं कुरुते ।
चिरजीविनं सुवाक्यं नानाविधसौख्यसम्पन्नम् ॥४८॥
जीवः सौरसहायो भाग्ये धनरत्नभागिनं कुरुते ।
पूज्यं व्याधितदेहं स्वजनविहीनं सदा पुरुषम् ॥४९॥
सौरसहायः शुक्रो व्याधितदेहं नरं कुरुते ।
बहुपुत्रं544 नृपतीष्टं यशस्विनं शीलसम्पन्नम् ॥५०॥
एवं स्थानविशेषैर्दृष्टिविशेषैश्च निपुणमधिगम्य।
ब्रूयात्फलनिर्देशं शास्त्रादनुरूपतः प्राज्ञः ॥५१॥
सव्रणगात्रं रूक्षं मृतपितरं मातृवर्जितं कुर्युः ।
बाल्ये क्षुद्रं द्वेष्यं हिंस्रं शशिरुधिरभानवो भाग्ये ॥५२॥
रविचन्द्रबुधा भाग्ये क्लीबाकारं सुदुःखितं कुर्युः ।
सर्वजनानां द्वेष्यं विक्रान्तं सत्यवचनं च ॥५३॥
चन्द्रदिवाकरगुरवो नवमे पुरुषस्य सम्भवे यस्य ।
स भवत्युत्तमपुरुषो वाहनधनसौख्यसम्पन्नः ॥५४॥
रविचन्द्रसिता नवमे स्त्रीकलहैर्नष्टसर्वधनसौख्यम् ।
नृपसंमतं नयज्ञं जनयन्ति नरं प्रियालापम् ॥५५॥
सूर्यनिशाकरसौरा नवमे राशौ नरं सदा कुर्युः ।
प्रबलं चण्डाचारं परभृत्यं लोकविद्विष्टम् ॥५६॥
रविभौमबुधा नवमे कुर्वन्ति नरं प्रियालापम् ।
भुजग545मिवातिक्रुद्धं समरपरं निष्ठुरं प्रवासरतम्546 ॥५७॥
रविगुरुवक्रा नवमे जनयन्ति नरं सदोद्युक्तम् ।
देवपितृपूजनरतं समृद्धदारं गुणोपेतम् ॥५८॥
कलहप्रिय कुलीनं कन्यानां दूषकं च चपलं च ।
दिवसकरवक्रशुक्रा नवमे द्वेष्यं नरं कुर्युः ॥५९॥
साहसिकमतिक्षुद्रं लोकद्वेष्यं प्रियानृतं क्रूरम् ।
पित्रा रहितं बाल्ये कुर्युर्वक्रार्किभानवो नवमे ॥६०॥
रविबुधगुरवो नवमे भाग्यसमेतं धनान्वितं सुभगम् ।
नृपतिप्रियं सुवेषं जनयन्ति नरं सुधीरं च ॥६१॥
रविबुधशुक्रा भाग्ये जनयन्ति नरं प्रकाशिनं कान्तम् ।
रिपुपक्षपरिक्षीणं नृपतिसमं सारवन्तं च ॥६२॥
परदाररतं पापं प्रवासशीलं च निपुणमतिधृष्टम् ।
आनृतिकमदैवपरं रविबुधसौरा नरं भाग्ये ॥६३॥
भाग्यगृहे रविशुक्रौ जीवश्च नरं सुपण्डितं कान्तम् ।
बहुविषयपतिं वीरं जनयन्ति सुमेधसं प्राज्ञम् ॥६४॥
त्रिदशगुरुसौरसूर्या नवमे यस्येह जायमानस्य ।
स भवेदुत्तमवीर्यो राजा धनवान् गुणैः समृद्धश्च ॥६५॥
कान्तिविहीनं मलिनं भूपतिपरिदण्डितं विभवहीनम् ।
जनयन्ति नरं भाग्ये रविशुक्रशनैश्चरा मूर्खम् ॥६६॥
धनकनकरत्नभाजं जनयन्ति शशिज्ञभूमिजाः पुरुषम् ।
प्रथमे वयसि च तप्तं भाग्यगृहे सर्वनाशेन547 ॥६७॥
भौमनिशाकरजीवाः कुर्वन्ति नरं जितेन्द्रियं प्राज्ञम् ।
गुरुदेवभक्तिनिरतं विद्याधनभागिनं सुभगम् ॥६८॥
व्रणितांगमरूपं वा प्रभेदिनं548 स्त्रीप्रियं युवतिवश्यम्।
युवतिविनाशितसारं भृगुशशिवका नरं नवमे ॥६९॥
व्यापन्नमातृवंशं क्षुद्रं बाल्ये निराकृतं मात्रा ।
सौरो भौमश्चन्द्रो जनयन्ति नराधमं नवमे ॥७०॥
गुरुबुधचन्द्रा नवमे कुलवंशविवर्धनं कुर्युः ।
आचार्य बहुमित्रं नृपतिं बहुसाधनोपेतम् ॥७१॥
मातृसपत्नीजनकं प्रमुदितमानान्वितं प्रचुरमित्रम् ।
कुर्वन्ति सामशीलं भृगुबुधचन्द्रा नरं भाग्ये ॥७२॥
शशिबुधसौरा नवमे क्रूराचारं सुविक्रमं मलिनम् ।
जनयन्ति कुत्सितधियं संग्रामपराङ्मुखं दीनम् ॥७३॥
चन्द्रबृहस्पतिशुक्रा नवमे यस्येह जायमानस्य।
स भवति महीपतुल्यो नृपतिकुले भूपतिश्चैव ॥७४॥
शशिगुरुसौरा नवमे कुर्वन्ति नरं प्रियालापम् ।
सत्यव्रतं सुशीलं विख्यातं सर्वशास्त्रकुशलं च ॥७५॥
शुक्रेन्दुयमा नवमे कृषिवृत्तिं योनिपोषणानुरतम्।
कुर्युर्मनुजम549पापं नृपकृत्यं लोकविख्यातम् ॥ ७६ ॥
तेजस्विनं विशोकं विद्वांसं वाकस्थिरं विशिष्टं वा ।
कुजबुधजीवा नवमे कुर्वन्ति च मण्डलाधिपतिम् ॥७७॥
बहुविषयपतिं ख्यातं नरेन्द्रसत्कारसत्कृतं चण्डम्।
कुजबुधशुक्रा भाग्ये कुर्वन्ति नरं सतां सत्यम् ॥७८॥
परवञ्चनासु निपुणं तमोधिकं सर्वशास्त्रमतिबाह्यम्।
बुधभौमयमा नवमे कुर्युः परतर्कसंमूढम् ॥७९॥
बुधगुरुशुक्रा भाग्ये जनयन्ति नरं सुरोपमं विशदम् ।
विख्यातं नरनाथं विद्वांसं धर्मशीलं च ॥८०॥
शुक्रशनैश्वरशशिजा नवमस्था जातकं प्रकुर्वन्ति ।
मेधाविनं प्रकाशं सुरुचिरवाक्यं सुखोपेतम् ॥८१॥
शनिशुक्रामरगुरवो भाग्यगृहस्था नरं प्रकुर्वन्ति ।
प्रचुरान्नपानविभवं सुभगं सुखितं सुरूपं च ॥८२॥
The following combinations of planets taken four at a time are treated of in slokas 83—108 to be found only, in the OL. MS.
रविचन्द्रभौमशशिजा जन्मनि भाग्यर्क्षगा नरं कुर्युः ।
धनिनं विद्याकुशलं सुभगं नृपसंमतं चैव ॥८३॥
शुक्रेन्दुभौमरवयो मायाचतुरं स्वदारसन्तुष्टम् ।
जनयन्ति सदा भाग्ये पुरुषं बहुनीचकर्माणम् ॥८४॥
शशिसुरगुरुबुधरवयो जन्मनि भाग्यर्क्षमाश्रिताः कुर्युः ।
पुरुषं प्रधानमचलं नरेन्द्रपूज्यं तथा दृष्टम् ॥८५॥
चन्द्रबुधशुक्ररवयो धनेश्वरं धार्मिकं समृद्धंच ।
जनयन्ति नवमसंस्थाः पुरुषं प्रियवादिनं शान्तम् ॥८६॥
तरणिबुधचन्द्रसौरा जन्मनि नवमाश्रिता नरं कुर्युः ।
…………………………………………………….—॥८७॥
रविगुरुबुधभूतनया जन्मनि नवमे नरं प्रकुर्वन्ति ।
देवपितृपूजनपरं समृद्धदारं गुणोपेतम् ॥८८॥
शुक्रज्ञभौमसूर्या नवमे जनयन्ति निष्ठुरं सुभगम् ।
साहसनिरतं विधनं रिपुपक्षक्षपितविभवं च ॥८९॥
रविसौरिचान्द्रिभौमा नवमे यस्येह जायमानस्य।
स भवति परदाररतो विनष्टकोशः सदा दीनः ॥९०॥
शुक्रगुरुभौमरवयो लोके द्वेष्यं पिपासार्त्तम् ।
जनयन्ति नवमसंस्थाः कन्यानां दूषकं चपलचित्तम् ॥९१ ॥
गुरुभौमसौरसूर्या नवमे सुखवर्जितं सदोद्युक्तम् ।
जनयन्ति नरं चण्डं विक्रमयुक्तं महासत्वम् ॥९२॥550
रविबुधजीवसिताः स्युर्नवमे यस्येह जायमानस्य ।
स भवत्युत्तमपुरुषो धनकनकैश्वर्यसम्पन्नः ॥९३॥
भानुजरविबुधगुरवो नवमे जनयन्ति मानवं निधनम् ।
पापं परदाररतं विद्विष्टं नीचकर्माणम् ॥९४॥
बुधरविजरविसिताः स्युर्भाग्यस्थाने नरं सुभगम् ।
जनयन्ति धनसमेतं सत्यरतं लोकविख्यातम् ॥९५॥
रविगुरुसितभानुसुता जन्मनि नवमर्क्षगा नरं कुर्युः ।
सत्यव्रतं सुवाक्यं गुरुद्विजातिथिषु भक्तम् ॥९६॥
चन्द्रज्ञकुजसुरेज्या जनयन्ति नरं परिच्छदसमृद्धम् ।
बाल्ये मातृवियुक्तं धनान्वितं संस्थिता भाग्ये ॥९७॥
भौमसितशशिजचन्द्रा भाग्ये जनयन्ति तापसं ख्यातम् ।
वाग्मिनमतिदातारं परलोकपरं महाप्राज्ञम् ॥९८॥
रविजबुधचन्द्रभौमा जनयन्ति नरं पराङ्मुखं दीनम् ।
क्षुद्रं मायाचतुरं परदाररतं स्थिता भाग्ये ॥९९॥
भौमेन्दुशुक्रजीवा नृपवंशकरं प्रधानमतिशूरम् ।
विद्याधनसुसमृद्धं विख्यातं लोकसंमतं चैव ॥१००॥551
शशिवक्रार्किसुरेज्या जनयन्ति नरं पिपासार्तम् ।
कलहप्रियं च नवमे सौभाग्यपरिच्छदातीतम् ॥१०१॥
चन्द्रारभानुजसिता नवमे जनयन्ति निष्ठुरं पापम् ।
मायाविनं च पुरुषं शौचाचारैर्विहीनं च ॥१०२॥
सितगुरुशशिजशशाङ्का जन्मनि भाग्यक्षमाश्रिता धनिनम् ।
जनयन्ति धर्मसक्तं नरं कलासु प्रसिद्धं च ॥१०३॥
प्राज्ञं नृपतिं कुलजं प्रधानमतिवित्तसंयुतं कान्तम् ।
सौम्येन्दुशुक्रजीवा जनयन्ति नरं तु विख्यातम् ॥552
K. N. M. S. reads the same Sloka thus.
गुरुसौम्यशुक्रचन्द्रा भाग्ये युक्ताः प्रजायमानस्य ।
यस्य स भाग्ये युक्तो लोके पुरुषोत्तमो ज्ञेयः ॥
भानुजबुधगुरुचन्द्रा जनयन्ति नरं …सुनयम् ।
भाग्यस्थिताः समृद्धं नीतिज्ञं चारुवेषं च ॥१०४॥
शनिशुक्रबुधशशाङ्का जन्मनि भाग्यस्थिता नरं कुर्युः ।
मेधाविनं प्रचण्डं जननीतिविशारदं धन्यम् ॥१०५॥
चन्द्रशनिशुक्रजीवा जन्मनि नवमस्थिताः प्रकुर्वन्ति ।
मायाविनं प्रचण्डं नरेष्वजेयं नरं धीरम् ॥१०६॥
भौमज्ञसूरिशनयो नवमस्थानोपगा नरं कुर्युः ।
रिपुपक्षपरिक्षीणं रणप्रचण्डं सुधीरं च ॥१०७॥
भौमज्ञशुक्रशनयो-दशानुगतं सुशीलं च ।
जनयन्ति नवमसंस्था धनयुक्तं भक्तियुक्तं च ॥१०८॥
भौमभृगुजीवरविजा जनयन्ति नरं धनैः परित्यक्तम् ।
क्षुद्रं दयाविरहितं विहीनसत्वं स्थिता भाग्ये ॥१०९॥
त्रिचतुःपञ्चखगेन्द्रास्तथा च षट् सप्त संस्थिता भाग्ये।
प्रात्ययिकं धनवन्तं कुर्युर्नृपतिं च बुधसहिताः ॥११०॥
जनयन्ति भाग्यसंस्था गुरुसौम्यविवर्जिता ग्रहाः पुरुषम् ।
व्याधिप्रायमकान्तं जनहीनं बन्धनार्तमतिदीनम् ॥१११॥
उक्तं बहुप्रकारं भाग्यगृहे बादरायणादिकृतम् ।
ग्रहयोगेक्षणभावैर्विचिन्त्य बुद्ध्या वदेदन्यत् ॥११२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां भाग्यचिन्तानाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥
——————
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥
लग्नाद्दशमे राशौ कर्मफलं यत्प्रकीर्तितं मुनिभिः ।
राशिग्रहस्वभौगैर्ग्रहदृष्ट्या तदहमपि वक्ष्ये ॥१॥
होरेन्द्रोर्बलयोगाद्यो दशमस्तत्स्वभावजं कर्म ।
तस्याधिपपरिवृद्ध्या वृद्धिर्ज्ञेयाऽन्यथा हानिः ॥२॥
जाङ्गलमथवानूपं तथोभयं वा गृहं परीक्षेत ।
ग्राम्यमथारण्यं वा सौम्यर्क्षंपापभवनं वा ॥३॥
द्विपदचतुष्पदरूपं सरीसृपं वा तथोभयं चैव ।
यद्रूपं तद्भवनं यादृशकं यत्स्वभावं553 च ॥४॥
प्रवदेत्तत्समदेशे कर्मप्राप्तिं नरस्य तत्सदृशीम् ।
तस्माद्दशमं भवनं प्रसवे बुध्येत यत्नेन ॥५॥
दशमे नक्षत्रपति(ते)र्लग्नात्पुरुषस्य कर्म554 संभवति ।
सर्वारम्भे वृत्तिं555 विनिर्दिशेत्तस्य जातस्य ॥६॥
द्व्यन्तरयोगाध्याये कथितं कर्मस्थितैर्ग्रहैर्लग्नात् ।
चन्द्रादत्र विशेषो ग्रहैः स्थितैर्व्यक्तमिह वक्ष्ये ॥७॥
चन्द्राद्दशमे सूर्यः सिद्धारम्भं धनैः समृद्धं च।
जनयत्युत्तमसत्वं नृपतिमुदग्रं धनाश्रयं556 पुष्टम् ॥८॥
भौमः साहसनिरतं प्रत्यन्तनिवासितं557 विषयलुब्धम् ।
क्रूरं निषादचरितं जनयति दशमे स्थितः पुरुषम् ॥९॥
विद्वांसं धनवन्तं बहुश्रुतं नृपतिनायकं558 ख्यातम् ।
जनयति सौम्यो दशमे पुरुषं बहुशिल्पिनं प्राज्ञम् ॥१०॥
गुरुरपि दशमस्थाने सिद्धार्थं धार्मिकं धनसमृद्धम् ।
जनयत्युत्तमचरितं नरेन्द्रसचिवं नरं ख्यातम् ॥११॥
शशिनो दशमे शुक्रः सुभगं ललितं च वित्तवन्तं च ।
जनयति सिद्धारम्भं धनिनं नृपपूजितं पुरुषम् ॥१२॥
सौरो व्याधितदेहं निःस्वं दुःखान्वितं प्रजाहीनम्।
कर्मसु नित्योद्विग्नं जनयति दशमे स्थितः पुरुषम् ॥१३॥
भानुर्भौमसमेतः कर्मकरान् कासशोषगदबहुलान्559 ।
ज्योतिर्विदः प्रकुर्याल्लाक्षणिकांस्तार्किकांश्चापि ॥१४॥
सूर्यः सौम्यसमेतो वस्त्रालङ्कारभागिनं वणिजम् ।
जनयति मेषूरणगः पुरुषं जलजीविनं वाऽपि ॥१५॥
जीवसहायः सूर्यः सिद्धारम्भान्नरेन्द्रमान्यांश्च ।
जनयति दशमे पुरुषान् वीरान्560 शूरान् सुविख्यातान् ॥१६॥
सूर्यसहायः शुक्रो दशमे स्वजनाश्रितं नरं कुरुते ।
स्त्रीसंश्रयात्समृद्धं सुभगं नृपवल्लभं चापि ॥ १७ ॥
सूर्यः स्वपुत्रसहितो दशमे वधबन्धभागिनं भृतकम् ।
जनयति दीनं कृपणं चोरैर्मुषितं प्रलापकरम् ॥१८॥
भौमः सोमजसहितो जनयति दशमे नरं बहुविपक्षम्561 ।
अस्त्रकलावेत्तारं कौशलमतिजीविनं महाशूरम् ॥१९॥
भौमः सुरगुरुसहितो दशमे कुरुते बलस्य नेतारम् ।
मित्रेभ्यो लब्धधनं तदाश्रयाजीवितं धन्यम् ॥२०॥
जनयति विदेशनिरतं काञ्चनमुक्तादिभिर्वणिग्वृत्त्या।
भौमः शुक्रसमेतो दशमे स्त्रीसंश्रयाद्वाऽपि ॥२१॥
भौमः सौरसहायो जनयति दशमे स्थितो नरं प्रसवे ।
साहसशीलं क्षुद्रं कर्मायुक्तं रुजा562 सहितम् ॥२२॥
सधनं563 नरेन्द्रपूज्यं धर्मिष्ठं वृन्दनायकं ख्यातम् ।
जीवः सौम्यसहायो जनयति मेपूरणे पुरुषम् ॥२३॥
सौम्यः शुक्रसहायो जनयति दशमे सुहृज्जनोपेतम् ।
विद्यास्त्रीधनसौख्यं नृपसचिवं विषयनाथं वा ॥२४॥
सौम्यः सौरसहायो मृद्भाण्डकरं करोति दशमस्थः ।
ख्यातं विद्याचार्यं पुस्तकलिपिलेख्यकारं च ॥२५॥
वचसां पतिः सितयुतः कर्मणि कुरुते नरेन्द्रवरभृत्यम् ।
ब्राह्मणपतिं विशोकं विद्याचार्यं समर्थ च ॥२६॥
सुरराजगुरुः सार्किर्दशमे नीचं परोपकाररतम्564 ।
कुरुते प्रवृद्धचेष्टं स्थिरास्पदं सुस्थिरारम्भम् ॥२७॥
शुक्रः सौरसहायश्चित्रकरं गन्धजीविनं वैद्यम् ।
जनयति दशमे पुरुषं नीलकरं चूर्णकारं च ॥२८॥
रविभौमचन्द्रपुत्राश्चन्द्राद्दशमस्थिता नरं धन्यम्।
जनयन्त्युत्तमपुरुषं नृपतिसमं सर्वजनपूज्यम् ॥२९॥
रविभौमदेवपूज्या दशमस्थाने नरं सुभगम् ।
शत्रूणां हन्तारं565 जनयन्ति समृद्धिसंयुक्तम् ॥३०॥
चन्द्राद्दशमे भानुर्भूपुत्रो भार्गवश्च जनयन्ति ।
क्रूरं साहसनिरतं पुरधनकरणेऽतिनिपुणमतिम् ॥३१॥
भानुजरविभूपुत्रा दशमस्थाः क्रूरकर्मनिरतं तु ।
उत्पादयन्ति मनुजं मूढं पापं दुराचारम् ॥३२॥
रविबुधगुरवो दशमे विद्वांसं रूपसंयुक्तम् ।
उत्पादयन्ति पुरुषं धर्मिष्ठं बन्धुवल्लभं चैव ॥३३॥
बुधसूर्यभार्गवसुता यशस्विनं धार्मिक विगतरोषम् ।
जनयन्त्यपराभूतं सौभाग्यपरिच्छदसमृद्धम् ॥३४॥
रविबुधशनयो दशमे क्रूरं चपलं नरं विशीलं च ।
उत्पादयन्ति नियतं शस्त्राग्निपरिक्षताङ्गं च ॥३५॥
रविभृगुजदेवपूज्या दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः ।
सुभगं विद्याप्तधनं धर्मरतं भोगभागिनं नित्यम् ॥३६॥
त्रिदशगुरुमन्दसूर्या दशमे युक्ता नरं प्रकुर्वन्ति ।
प्रायेण लोकमान्यं चारित्रविलोपिनं धीरम् ॥३७॥
भार्गवरविभानुसुता दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः ।
लोभान्वितमतिचपलं समस्तजनविप्रयुक्तं च ॥३८॥
भौमेन्दुजसुरपूज्या धर्मिष्ठं बहुकुटुम्बपरिवारम् ।
जनयन्ति दशमसंस्था विद्याधनभागिनं पुरुषम् ॥३९॥
शोभनशिल्पाभिरतान्मालाकारान्सुवर्णकारांश्च ।
कुर्युर्बुधभृगुवक्रा दशमस्थाः सर्वलोकदयितांश्च ॥४०॥
भौमबुधसूर्यपुत्रा जनयन्ति तथा न566धर्मशीलं च ।
निद्रानिरतं प्रखलं दशमस्थानोपगा नरं मलिनम् ॥४१॥
भार्गवसुरेज्यभौमा दशमस्थानाश्रिता नरान्कुर्युः ।
धनसंयुक्तान्शूरान्देवद्विजरतान् ॥४२॥
विद्याधनजनहीनान्कापुरुषान्सौख्यवर्जितान्विकलान्।
जीवाङ्गारकसौरा दशमे कुर्युर्नरान्नीचान्॥४३॥
सचिवानुत्तमपुरुषान्वनधर्मरतांश्च धनिनश्च।
भौमभृगुसूर्यपुत्राः कुर्वन्ति नराननेककर्मरतान्॥४४॥
शुक्रबृहस्पतिसौम्या दशमे पुरुषस्य शुक्रराशिस्थाः।
बहुविधमिष्टं कुर्युर्व्याधिं चाप्यन्यगृहसंस्थाः॥४५॥
लिपिलेख्यकाव्यनिरतं धनवन्तं बहुविधेयभृत्यं च।
अटनप्रियं सुरूपं बुधगुरुसौरा नरं दशमे॥४६॥
दशमे विज्ञानयुतान्मल्लान्परदेशनिरतांश्च।
कुर्युर्बुधभृगुरविजाः कर्मोद्युक्तं सदा दान्तम्॥४७॥
विद्वांसं धर्मरतं दयान्वितं सत्यवन्तं च।
भानुजगुरुभृगुपुत्रा दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः॥४८॥
एवं त्र्यादिषु वाच्यं जन्मनि पुंसां फलं हि कर्मोत्थम्।
त्र्यादिग्रहसंयोगेऽत्र विशेषस्तमपि वक्ष्ये॥४९॥
रविभौमबुधसुरेड्या दशमस्थानोपगा नरं कुर्युः।
शूरं विक्षतगात्रं दातारं सर्वकर्मरतम्॥५०॥
वक्रार्कशुक्रसौम्याश्चन्द्रादृशमं समाश्रिताः प्रसवे।
कुर्युर्निर्माल्यकरान्567 लेख्यकरांश्चापि चित्रकर्मकरान्॥५१॥
रविकुजबुधभानुसुता दशमस्थानस्थिताः प्रसवकाले।
उत्पादयन्ति पुरुषं धनवाहनवारणोपेतम्॥५२॥
रविजीवशुक्रसौम्या जनयन्ति नभःस्थिता नरान्सौम्यान्।
कुत्सितवृत्तीनामपि सुतान्वरान्कर्षणोपेतान्॥५३॥
रविजीवसौम्यसौरा दशमस्थानस्थिताः कुर्युः।
पुरुषं मायानिपुणं क्रूरं परवञ्चनानुरतम्॥५४॥
रविसितबुधभानुसुताश्चन्द्राद्दशमस्थिता नरं कठिनम्।
उत्पादयन्ति सुभगं वाग्मिनमथ कर्षणानुरतम्॥५५॥
रविगुरुभार्गवशनयो मेषूरणसंस्थिताः प्रसवकाले।
उत्पादयन्ति मनुजं प्रवासशीलं विविधचेष्टम्॥५६॥
भौमसितबुधसुरेड्या जन्मनि दशमर्क्षगा नरं निपुणम् ।
उत्पादयन्ति चतुरं शूरं समरेष्वधृष्यं च ॥५७॥
भौमबुधमन्दगुरवो जन्मनि दशमस्थिता नरं मलिनम् ।
जनयन्ति नरोद्युक्तं568 संग्रामे रिपुविनाशकरम् ॥५८॥
भौमबुधशुक्रसौरा नभःस्थले संश्रिताः प्रसवकाले ।
विद्याबहुलं शूरं जनयन्ति नरं विशालाङ्गम् ॥५९॥
भौमगुरुशुक्रमन्दाश्चन्द्रान्मेषूरणर्क्षगाः प्रसवे ।
जनयन्ति नरं धीरं कुटुम्बयुक्तं धनोपेतम् ॥६०॥
बुधगुरुभार्गवशनयो जन्मनि दशमस्थिताः कुर्युः ।
पुरुषं शान्तमनस्कं सुमेधसं लोकदयितं च ॥ ६१ ॥
पापैर्नभःस्थलस्थैः सौम्यग्रहवीक्षितैः प्रजायन्ते ।
वैद्यपुरोहितगणकाः चण्डाः569 परवञ्चनानुरताः ॥६२॥
एते समस्तयोगाः सौम्यग्रहवीक्षिताः प्रशस्यन्ते ।
पापग्रहदृष्टियुताः प्रायेण न भद्रकाः प्रोक्ताः ॥६३॥
पापास्तृतीयषष्ठा होरेन्दुस्थानतो नृणामिष्टाः ।
नेष्टा निधनान्त्यगता लग्नोपगता विशेषेण ॥६४॥
होराशशिनोर्बलवान्यस्तस्मात्कर्मभेन वा कथयेत् ।
यो बलयुक्तो वर्ग570स्तदधिपतेर्वाऽऽदिशेद्वृत्तिम् ॥६५ ॥
आरामपुत्र (बुद्धि) सेवाकृपिरसवणिगर्कदूतकार्येण ।
जीवन्ति नरा नित्यं मेषगणे दशमराशिस्थे ॥६६॥
वृषभगणे दशमस्थे शकटचतुष्पदविहङ्गमृगजीवी ।
धान्यादिसङ्ग्रहेण च जाङ्गलदेशे फलं प्रायः ॥६७॥
जलवणिजः571 सुसमृद्ध्या मुक्ताशङ्खप्रवालभाण्डैश्च ।
लिपिगणितलेख्यजीवी नृमिथुनवर्गे दशमसंस्थे ॥६८॥
शस्त्राग्नियोनिपोषणमुक्तासंख्यो572पजीवनं चैव ।
आखेट573कवृत्त्या वा कर्किणि वर्गे च दशमस्थे ॥६९॥
सन्नाहका574 मणीनां पाषाणस्वर्णरूप्यकूटा575श्च ।
कर्षणनिरता लेये गोजीवा धान्यवाणिजकाः ॥७०॥
शाकटिका मणिकारा हैरण्या गन्धविक्रये निपुणाः ।
गान्धर्वशिल्पलेख्यैः कन्यावर्गे सदा विभवाः ॥ ७१ ॥
प्रायोज्यानुप576देशाद्धिरण्यपरिवर्त्तनाच्च मित्राय577
जायन्ते च मनुष्या नानाव्यवहारभागिनः सततम् ॥७२॥
वाणिज्यविपणि578जीवा गोजीवा महिष579जीवाश्च ।
नानापण्यसमृद्धाः सलिलोद्भवपण्यवृत्तयः ख्याताः ॥७३ ॥
धनधान्यमूलवणिजः फलमूलकृषिबला580च्चैव ।
जायन्ते घटवर्गे दशमस्थानस्थिते कलावृत्ताः ॥७४॥
स्त्रीसम्पर्कजविभवा जायन्ते कर्षणानुनि581रताश्च ।
नित्योद्युक्ताश्चोराः पृथिवीपतिसेवकाः पापाः ॥ ७५ ॥
देहचिकित्सानिरता लोहकरा जीविनोऽलिसंज्ञर्क्षे।
वर्गे नभस्तलगते धान्यानां चोपजीविनो नित्यम् ॥७६॥
नृपसचिवदुर्गपालनगोजीवनवाजिकाष्ठशकुनैश्च ।
यन्त्रोपस्करगणितैर्जीवन्ति नराश्चिकित्सया धनुषः ॥७७॥
दशमे कुरङ्गवर्गे जलपण्यधनो भवेन्महाविभवः ।
खट्वारामा582रोपणरसायनैर्वर्त्तते जातः ॥७८॥
शस्त्रदहनप्रभेदैश्चौर्येण583 च वर्त्तते खननवृत्त्या ।
दशमे घटधरवर्गे भारवहस्कन्धबाहुबलात् ॥७९॥
शस्त्रात्सलिलाद्योनिप्रपोषणादश्वविक्रयाद्वाऽपि ।
वर्गे मीनप्रभवे दशमस्थे जायते वृत्तिः ॥८०॥
दिवसकराद्यैः खस्थैः शशिहोराभ्यां भवन्त्याढ्याः ।
पितृमातृशत्रुहितजनसहजस्त्रीभृत्यवर्गेभ्यः ॥८१॥
होरागतैर्धनगतैरायगृहस्थैच चिन्तयेदर्थम् ।
बलसंयुतैर्ग्रहेन्द्रैरनेकधा दृष्टमाचार्यैः584 ॥८२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां कर्मचिन्ताध्यायस्त्रयस्त्रिंशः ॥
** चतुरस्त्रिंशोऽध्यायः।**
रविदृष्टे प्राग्लग्ने विक्रान्तस्त्रीषु रोषणः क्रूरः ।
पितृपक्षलब्धविभवो नरेन्द्रसेवी भवेज्जातः585 ॥१॥
स्त्रीणां वश्यः सुभगो दाक्षिण्यमहोदधिः प्रचुरकोशः ।
चन्द्रेक्षिते विलग्ने मार्दवजलपण्यवान् भवति ॥२॥
साहससङ्ग्रामरुचिश्चण्डस्फुटबान्धवोऽतिधर्मरतः ।
उदये कुजसन्दृष्टे भवति नरः स्थूलशेभश्च ॥३॥
बुधदृष्टे प्राग्लग्ने शिल्पकलाविद्यया समभिपूर्णः ।
भवति नरो विपुलमतिः586 कीर्तिकरो मानसंयुक्तः ॥४॥
इज्याव्रतनियमपरा नृपपूज्याः ख्यातकीर्त्तयो मनुजाः ।
लग्ने सुरगुरुदृष्टे सज्जनगुर्वतिथिसंयुक्ताः ॥५॥
वेश्यास्त्रीजनबहुलास्तरुणाः587 सम्पन्नभोगधनसौख्याः ।
शुक्रेक्षिते विलग्ने भवन्ति मनुजाः सुरूपाश्च ॥६॥
भाराध्वरोगतप्ताः क्रुद्धा वृद्धरमणीयुता विसुखाः ।
मन्देक्षिते विलग्ने मलिना मूर्खाश्च जायन्ते ॥७॥
पश्यन् ग्रहः स्खलग्नं सर्वे विदधाति सौख्यमर्थं च ।
प्रायो नृपप्रियत्वं पापः पापं शुभं च शुभः ॥८॥
एकेनापि न दृष्टं समस्तगुणवर्जितं लग्नम् ।
स्वगृहस्वभावसहितं जनयति खलु केवलं नित्यम् ॥९॥
व्द्यादिग्रहसन्दृष्टं प्रायेण सुखार्थदं588 भवति लग्नम् ।
एकेनापि शुभेन च न तु पापैरिष्यते सद्भिः ॥१०॥
सर्वैर्गगनभ्रमणैर्दृष्टे लग्ने भवेन्महीपालः ।
बलिभिः समस्तसौख्यो विगतभयो दीर्घजीवी च ॥११॥
लग्ने त्रयो विगतशोकविवर्द्धितानां
कुर्वन्ति जन्मशुभदाः पृथिवीपतीनाम् ।
पापास्तु रोगभयशोकपरिप्लुतानां
बह्वाशिनां सकललोकतिरस्कृतानाम् ॥१२॥
लग्नात् षष्ठमदाष्टमे यदि शुभाः पापैर्न युक्तेक्षिताः
मन्त्री दण्डपतिः क्षितेरधिपतिः स्त्रीणां बहूनां पतिः ।
दीर्घायुर्गदवर्जितो गतभयो लग्नाधियोगे भवेत्
सच्छीलो यवनाधिराजकथितो जातः पुमान् सौख्यभाक् १३
स्वगृहोच्चसौम्यवर्गे ग्रहः फलं पुष्टमेव विदधाति ।
नीचर्क्षरिपुगृहस्थो विगतफलः कीर्तितो मुनिभिः ॥१४॥
॥ इति लग्नचिन्ता ॥
रविरविजभूमितनयाः कुटुम्बसंस्था विलोकनाद्वाऽपि ।
कुर्वन्ति धनविनाशं क्षीणेन्दुनिरीक्षिता विशेषेण ॥१५॥
रविभौमौ धनसंस्थौ त्वग्दोषदरिद्रताकरौ कथितौ ।
मन्दः कुरुते शुद्धो महार्थयुक्तं बुधेक्षितस्तत्र ॥१६॥
रविरपि विधनं589 जनयति यमेक्षितः शस्यतेऽन्यदृष्टश्च ।
सौम्याः कुटुम्बराशौ बहुप्रकारं धनं दधुः ॥१७॥
बुधदृष्टस्त्रिदशगुरुः कुटुम्बराशौ च निःस्वतां कुरुते ।
सोमतनयोऽपि शशिना निरीक्षितो हन्ति सर्वधनम् ॥१८॥
चन्द्रोऽपि धनस्थाने क्षीणोऽपि बुधेक्षितः सदा कुरुते ।
पूर्वार्जितार्थनाशं निरोधमपि चान्यवित्तस्य ॥१९॥
शुक्रः कुटुम्बभवने चन्द्रेण निरीक्षितः प्रधनदाता।
सौम्यग्रहेण दृष्टः स एव धनदः सदा ज्ञेयः ॥२०॥
॥ इति धनचिन्ता ॥
पापभवनं तृतीयं समस्तपापैर्युतं सहजहन्तृ590 ।
विपरीतमितः श्रेष्ठं संख्यां तेषां प्रवक्ष्यामि ॥२१॥
यावन्तो नवभागा यदागताः सहजराशौ तु ।
तत्संख्यां कुर्वन्ति च दृष्टास्त्वन्यैस्तथा बहवः ॥२२॥
तत्र स्थितो रविसुतः कुजेन दृष्टो विनाशयति जातान् ।
शुक्रो गुरुसंदृष्टः पुष्णाति सदैव दायादान् ॥२३॥
सौम्यो भास्करदृष्टः591 सुहृदां परिसंक्षयं सदा कुरुते ।
भावाध्याये कथितं शेषं परिकल्पयेदत्र ॥२४॥
॥ इति सहजचिन्ता ॥
सुतभवनं592 शुभयुक्तं शुभदृष्टं वा शुभर्क्षमिह येषाम् ।
तेषां प्रसवः पुंसां भवत्यवश्यं न विपरीते ॥२५॥
एकतमे गुरुवर्गे शुभराशावौरसो593 भवेत्पुत्रः ।
लग्नाच्चन्द्रादथवा बलयोगाद्वीक्षितेऽपि वा सौम्यैः ॥२६॥
संख्या नवांशतुल्या सौम्यांशे तावती सदा दृष्टा ।
शुभदृष्टे तद्विगुणा क्लिष्टा पापांशेकऽथवा दृष्टे ॥२७॥
सौरर्क्षे594 सौरगणो बुधद्दष्टोगुरु595कुजार्कद्दग्धीनः ।
क्षेत्रजपुत्रं जनयति बौधोऽपि गणो रविजदृष्टः ॥२८॥
मान्दं सुतर्क्ष596मिन्दुर्निरीक्षिते यदि शनैश्चरेण युतम् ।
दत्तकपुत्रोत्पत्तिः क्रीतस्य बुधेन चैवं स्यात् ॥२९॥
सप्तमभागे कौजे सौरयुते पञ्चमे सदा भवने ।
कृत्रिमपुत्रं विन्द्याच्छेषग्रहदर्शनान्मुक्ते ॥३०॥
वर्ग पञ्चमराशौ सौरे सूर्येण वाऽत्र संयुक्ते ।
लोहितदृष्टे वाच्यो597 जातस्य सुतोद्यमप्रसवः598 ॥३१॥
चन्द्रे भौमांशगते धीस्थे मन्दावलोकिते भवति ।
गूढोत्पन्नः पुत्रः शेषग्रहदर्शनं599 याते ॥३२॥
तस्मिन्नेव च भौमे शनिवर्गस्थे निरीक्षिते रविणा ।
पुरुषस्य भवति पुत्रोषविद्ध इति करुणमुनिवचनात् ॥३३॥
शनिवर्गस्थे चन्द्रे शनियुक्ते पञ्चमे सदा भवने ।
शुक्ररविभ्यां दृष्टे पुत्रः पौनर्भवो भवति ॥३४॥
चूडायदार्कसक्ता कला च तस्यैव पञ्चमे गेहे ।
रविद्दष्टेऽप्यथ सहिते कानीनः सम्भवति पुत्रः ॥३५॥
वर्गे रविचन्द्रमसोः सुतगेहे चन्द्रसूर्यसंयुक्ते600 ।
शुक्रेण दृष्टि601मात्रे पुत्रः कथितः सहोढश्च ॥३६॥
पापैर्बलिभिर्युक्ते पापर्क्षे पञ्चमे सदा राशौ ।
जातोऽपुत्रः पुरुषः सौम्यग्रहदर्शनातीते ॥३७॥
शुक्रनवांशे तस्मिन् शुक्रेण602 निरीक्षिते त्वपत्यानि ।
दासीप्रभवानि वदेच्चन्द्रादपि केचिदाचार्याः ॥३८॥
सितशशिवर्गे धीस्थे ताभ्यां दृष्टेऽथवाऽपि संयुक्ते ।
प्रायेण कन्यकाः स्युः समराशिगणेऽपि चान्यथा पुत्राः ॥३९॥
लग्नाद्दशमे चन्द्रे सप्तमसंस्थे भृगोः पुत्रे ।
पापैः पातालस्थैर्वंशच्छेत्ता भवेज्जातः ॥४०॥
भौमः पञ्चमभवने जातं जातं विनाशयति पुत्रम् ।
दृष्टे गुरुणा प्रथमं सितेन न च सर्वसंदृष्टः ॥४१॥
धनजनसुखहीनः पञ्चमस्थैश्च पापै–
र्भवति विकल एव क्ष्मासुते तत्र जातः ।
दिवसकरसुते च व्याधिभिस्तप्तदेहः
सुरगुरुबुधशुक्रैः सौख्यसम्पद्धनाढ्यः ॥४२॥
॥ इति पुत्रचिन्ता ॥
रिपुभावे क्षितिसूनुर्मन्देन निरीक्षितो दिशति शत्रून् ।
शुभयुक्तः शुभदृष्टः शत्रुभयं चैव नात्यन्तम् ॥४३॥
क्षेत्रे603 ग्रहेन्द्रतुल्यां संख्यां तेषां विनिर्दिशेत्प्राज्ञः ।
भावाध्यायेऽभिहितं विस्तरतश्चिन्तयेच्छेषम् ॥४४॥
॥ इति शत्रुचिन्ता ॥
शुक्रेन्दुजीवशशिजैः सकलैस्त्रिभिश्च
द्वाभ्यां कलत्रभवने च तथैककेन ।
एषां गृहेऽपि च गणेऽपि विलोकिते वा
सन्ति स्त्रियो भवनवर्गखगस्वभावाः ॥४५॥
एवं क्रूरैर्नाशो लग्नाच्चन्द्राद्भवेच्च बलयोगात् ।
शशिरविजयोः कलत्रे भार्यापुंसां पुनर्भूः स्यात् ॥४६॥
भवनाधिपांशतुल्या भवन्ति नार्यो निरीक्षणाद्वाऽपि ।
एकैवरविकुजांशे गुरुबुधयोश्चापि यामित्रे ॥४७॥
प्रायेण चन्द्रसितयोर्वर्गे604 युक्तेऽथवापि जामित्रे ।
दृष्टे वा बहुपत्न्यो भवन्ति शुक्रे विशेषेण ॥४८॥
गुरुशुक्रयोः स्ववर्णा605 रविकुजशशिभानुजैर्भवन्त्यूनाः ।
शुक्रे वेश्याप्रायश्चन्द्रेऽपि वदन्ति केतुमालाख्याः ॥४९॥
भौमे कलत्रसंस्थे नित्यं606 वियुतो भवेत्तदापुरुषः ।
म्रियते607 वाशनिदृष्टे योषिदवश्यं न दृष्टेन्यैः ॥५०॥
द्यूने कुजभार्गवयोर्जातः पुरुषो भवेद्विकलदारः ।
धीधर्मस्थितयोर्वा परिकल्प्यं पण्डितैरेवम् ॥५१॥
लग्ना608व्द्ययरिपुगतयोः शशाङ्कभान्वोः609 वदन्ति पुरुषस्य ।
प्रभवं समस्तमुनयः क्रमेण पत्न्या सहैकतनयस्य ॥५२॥
लग्नस्थे रवितनये गण्डान्ते भार्गवे कलत्रगते ।
वन्ध्यापतिस्तदा स्याद्यदि न सुतर्क्षं शुभैर्युक्तम् ॥५३॥
लग्नव्ययदशमस्थैः610 पापैः क्षीणे निशाकरे धीस्थे ।
स्त्रीहीनो भवति नरः पुत्रैश्च विवर्जितो नूनम् ॥५४॥
यमभूमिजयोर्वर्गे द्यूनस्थे तदवलोकिते शुक्रे ।
जातो भवत्यवश्यं पत्न्या सह पुंश्चलः पुरुषः ॥५५॥
बुधभार्गवयोरस्ते स्त्रीहीनो जायते ह्यपुत्रश्च ।
दृष्टे शुभैश्च वाच्याः परिणतवयसः सदा प्रमदाः ॥५६॥
भार्गववाक्पतिसौम्यैः प्रमदाभवने शशाङ्कयुक्तैश्च ।
एकैकेनैतेषां पुरुषस्य विभूतयो बहुलाः611 ॥५७॥
॥ इति कलत्रचिन्ता ॥
रविदृष्टे युक्ते वाऽप्यायक्षेत्रे भवेत्सदा नृपतेः ।
भवति धनं युद्धाद्यैश्चोर612धनचतुष्पदाद्यैश्च ॥५८॥
स्त्रीजन613हस्तिप्रायं शशाङ्कवर्गे शशीक्षिते युक्ते614 ।
क्षीणे क्षयोऽथ पूर्णे वृद्धिः स्यादायगे वृत्तेः ॥५९॥
हेमप्रवालभूषणमाणिक्यधनं कुजे भवेदेवम् ।
साहसगमनागमनैः पावकशस्त्रैश्च वक्तव्यम् ॥६०॥
आये बुधेऽपि वर्गे दृष्टे युक्तेऽथवा भवेन्नित्यम् ।
शिल्पादिलेख्यकाव्यैर्युक्तिप्रायं तथा सुतराम् ॥६१॥
नगरजनयोगभोगैः615 क्रतुभिश्च तथा विशिष्टपुण्यैश्च।
हेमप्रायं वित्तं जीवे पितुरङ्गमाकीर्णम् ॥६२॥
वेश्यास्त्रीसंयोगैर्गमनागमनैर्धनं भवति पुंसाम् ।
आये सितेऽपि616 चैवं मुक्तारजतादि भूयिष्ठम् ॥६३॥
नगरपुरवृन्दयोगैः स्थावरकर्मक्रियाभिरपि वित्तम् ।
लोहखर617वृंदबहुलं रविजेऽपि तथाऽस्यवर्गे च ॥६४॥
एवं फलनिर्देशः सौम्यैर्दृष्टे विशेषतो वाच्यः ।
क्रूरैश्च समुपघातो मिश्रैर्मिश्रस्तदा पुंसाम् ॥६५॥
सर्वग्रहयुतदृष्टे बहुप्रकारेण निर्दिशेद्वित्तम् ।
बलवान्यस्तत्र भवेदतिरिक्तं सम्प्रयच्छति च ॥६६॥
मित्रस्वगृहगतोर्द्धं स्वोच्चे पूर्णं तथास्तगः किञ्चित् ।
शत्रुगृहस्थश्चरणं ददाति विहगस्तदाये618 तु ॥६७॥
आजन्मतो नराणां भवति धनं निश्चितं यवनवृद्धैः ।
क्षितिपतिमाण्डलिकानामपरिमितं प्राह लोकाक्षः ॥६८॥
॥ इत्यायचिन्ता ॥
भानौ क्षीणे चेन्दौ व्ययभवने भूपतिर्हरति वित्तम् ।
भौमे बुधसंदृष्टे बहुप्रकारो भवेन्नाशः ॥६९॥
गुरुचन्द्रदानवेज्या व्ययभवने वित्तपोषणं कुर्युः ।
भूमितनयेन दृष्टा भावाध्यायोक्तमन्यच्च ॥७०॥
॥ इति व्ययचिन्ता ॥
लग्ने बुधद्रेक्काणे619 शशिना दृष्टे चतुष्टयस्थाने ।
जातो नृपतिकुलेष्वपि शिल्पी स्यान्निश्चितं मुनिभिः ॥७१॥
नीचे सौरनवांशे शुक्रेऽन्त्ये रविशशाङ्कयोर्मदने ।
मन्देन विलोकितयोर्माता दासी महाकुलेऽपि स्यात् ॥७२॥
सूर्याद्वितीयराशौ भास्करतनये खमध्यगे चन्द्रे।
भौमे सप्तमभवने विकलोऽस्मिन्सर्वदा जातः ॥७३॥
मध्ये पापग्रहयोश्चन्द्रे मदनस्थितेऽर्कजे जन्तोः ।
श्वासक्षयविद्रधिना गुल्मप्लीहा620तिपीडितस्सुभगः621 ॥७४॥
सूर्यांशे यदि चन्द्रश्चन्द्रांशे भास्करो यदि622 श्लेष्मी ।
सम623मेकराशिगतयोर्दुर्बलदेहः सदा पुरुषः ॥७५॥
निधनधनारिव्ययगा रविचन्द्रकुजार्कजा नियंतम्624।
नयनविघातं कुर्युर्बलवद्ग्रहदोषसंभूतम् ॥७६॥
धर्मायसहजसुतगाः पापाः सौम्यैर्न वीक्षिता जन्तोः ।
श्रवण625विनाशं कुर्युः सप्तमसंस्थाश्च दन्तानाम् ॥७७॥
उदये दिनकरपुत्रे त्रिकोणभवने626 कुजे च सोन्मादः ।
क्षीणे शशिनि ससौरे याते वा व्ययगृहे जातः ॥७८॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां लोकयात्रा नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥
——————
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
राजोपयोगिशास्त्रं यस्मात्प्रभवो विशेषतस्तेषाम् ।
सञ्चिन्त्या नृपयोगास्तानेवाहं627 प्रवक्ष्यामि ॥१॥
स्वोच्चत्रिकोणगृहगैर्बलसंयुतैश्च
त्र्याद्यैर्नृपो भवति भूपतिवंशजातः ।
पञ्चादिभिर्जनपदप्रभवो628ऽपिसिद्धो
हीनैः क्षितीश्वरसमो न तु भूमिपालः ॥२॥
अशुभगगनवासैः स्वोच्चगैः क्रूरचेष्टं
कथयति यवनेन्द्रो भूपतिं विक्रमोत्थम् ।
न तु भवति नरेन्द्रो जीवशर्मोक्तपक्षे
भवति नृपतियोगैः सत्कृतो राष्ट्रपालः ॥३॥
एष्विह भवन्त्यवश्यं भूपतियोगेषु नीचकुलपुरुषाः ।
तानग्रतः प्रवक्ष्ये यथामतं शास्त्रकाराणाम् ॥४॥
स्वोच्चस्थै रविभौमसौरगुरुभिः सर्वैस्त्रिभिश्चैक629गैः
लग्ने षोडशवृद्धतापसगणैः सन्दर्शिताः पार्थिवाः ।
द्वाभ्यां चैकतमोदये स्वभवने चन्द्रे पुनः षोडशः
सर्वो नीचकुलोद्भवोऽपि वसुधां पात्येव630 वाटीमिव ॥५॥
गणोत्तमे लग्ननवांशकोद्गतो631 निशाकरश्चापि गणोत्तमेऽथवा।
चतुर्ग्रहैश्चन्द्रविवर्जितैस्तदा निरीक्षितस्यादधमोद्भवो632 नृपः॥६॥
उदयगिरिनिविष्टैर्मेषसंस्थैर्ग्रहेन्द्रः
शशिरुधिरसुरेड्यैर्जायते पार्थिवेन्द्रः ।
जलनिधिरशनायाः पालकः सर्वभूमे–
ईतरिपुपरिवारः सर्वतः फूत्करोति ॥७॥
स्वोच्चेगुराववनिजे क्रियगे विलग्ने
मेषोदये च सकुजे वचसामधीशे ।
भूपो भवेदिह स यस्य विपक्षसैन्यं
तिष्ठेत633 जातु पुरतः सचिवा वयस्याः ॥८॥
निशाभर्त्ता चाये भृगुतनयदेवेड्यसहितः
कुजः प्राप्तः स्वोच्चेमृगमुखगतः सूर्यतनयः ।
विलग्ने कन्यायां शिशिरकरसूनुर्यदि भवेत्
तदाऽवश्यं राजा भवति बहुविज्ञानकुशलः ॥९॥
स्वर्क्षे नक्षत्रनाथः स्फुटकरनिकरालङ्कृतः प्राप्तलग्नो
द्यूने सोमस्य पुत्रो यदि रिपुभवनं भास्करः संप्रयातः ।
पाताले दानवेड्यो गुरुरपि गगने सौरभौमौ तृतीये
सद्भूपालो भवेद्यः शशिकरधवलं चामरं राजलक्ष्मीम् ॥१०॥
वर्गोत्तमगते चन्द्रे लग्ने वा चन्द्रवर्जिते ।
चतुराद्यैर्ग्रहैर्दृष्टे जातो नरपतिर्भवेत् ॥११॥
शिशिरकिरणे स्वोच्चेलग्ने पयोम्बुनिधेः समे
घटधरगते भानोः पुत्रे मृगाधिपतौ रविः ।
अलिगृहगतो वाचांनाथः स्फुरत्करराजितो
यदि नरपतिः स्फीतश्रीकस्तदा बहुवाहनः ॥१२॥
मृगे मन्दे लग्ने कुमुदवनबन्धुश्च तिमिग–
स्तथा कन्यां त्यक्त्वा बुधभवनसंस्थः कुतनयः ।
स्थितो नार्थी सौम्यो धनुषि सुरमन्त्री यदि भवेत्
तदा जातो भूपः सुरपतिसमः प्राप्तमहिमा ॥१३॥
उदयति मीने शशिनि नरेन्द्रः सकलकलाढ्यः क्षितिसुत उच्चे।
मृगपतिसंस्थे दशशतरश्मौ घटधरगे स्याद्दिनकरपुत्रे ॥१४॥
कुजे विलग्ने च शशी यदाऽस्ते स्फुटांशुसम्भारविराजिताङ्गः ।
राजा तदा शत्रुभिरप्रधृष्यो वेदार्थविद्धेतुशता634नुवादैः ॥१५॥
करोत्युत्कृष्टोद्यद्दिनकृदमृताभीशुसहितः
स्थितस्तादृग्रूपं सकलनयनानन्दजननः ।
अपूर्वोऽयं स्मृत्या नयनजलसिक्तोऽपि सततं
रिपुस्त्रीशोकाग्निर्ज्वलति हृदयेऽतीव सुतराम् ॥१६॥
शुक्रो घटे कुजो मेषे स्वोच्चेदेवपुरोहितः ।
यदि राजा भवेन्नूनं स्वयशोधौतदिङ्मुखः ॥१७॥
उदयति गुरुरुच्चे तप्तहेमप्रभावो
हरिततुरगनाथो व्योममध्यावगाही ।
गवि शशिबुधशुक्रा यस्य सूतौ नरस्य
स्वभुजविजितभूमिः सर्वतः पार्थिवेन्द्रः ॥१८॥
धनुषि सुरेड्यः शशभृदुपेतो मृगमुखसंस्थः क्षितितनयश्च ।
उदयति तुङ्गे सुररिपुवन्द्यः शशितनयो वा यदि नृपतिः स्यात् १९
चापार्द्धे भगवान् सहस्रकिरणस्तत्रैव ताराधिपः
लग्ने भानुसुतोऽतिवीर्यसहितः स्वोच्चे च भूनन्दनः।
यद्येवं भवति क्षितेरधिपतिः सञ्चिन्त्य शौर्यं भयात्
दूरादेव नमन्ति यस्य रिपवो दग्धाः प्रतापाग्निना ॥२०॥
षष्ठं द्यूनमथाष्टमं शिशिरगोः प्राप्ताः समस्ताः शुभाः
क्रूराणां यदि गोचरे न पतिता भान्वालयाद्दूरतः ।
भूपालः प्रभवेत्स यस्य जलधेर्वेलावनान्तोद्भवैः
सेनामत्तकरीन्द्रदानसलिलं भृङ्गैर्मुहुः पीयते ॥२१॥
न प्राप्नोति जरामाशु नो भजत्यरितो भयम् ।
जातः स्यादधियोगेऽस्मिन् धृतिसौभाग्यसौख्यभाक् ॥२२॥
बुधः स्वोचे लग्ने तिमियुगलगावीड्यशशिनौ
मृगे मन्दः सारो जुतुमगृहगो दानवसुहृत् ।
य एवं कुर्यात् स क्षितिभृदहितध्वंसनिरतो
निरालोकं लोकं चलितगजसङ्घातरजसा ॥२३॥
केसरिगो महेन्द्रसचिवो दिनकरसहितः
कुम्भगतोऽर्कजः शशधरः खलु भवति वृषे ।
वृश्चिकमे क्षितेस्तु तनयो मिथुन इन्दुसुतो
मेषलग्नसमुदयो यदि स तु मनुजपतिः ॥२४॥
कार्मुके त्रिदशनायकमन्त्री भानुजो वणिजि चन्द्रसमेतः ।
मेषगस्तु तपनो यदि लग्ने भूपतिभर्वति सोतुलकीर्तिः ॥२५॥
स्वर्क्षात्635 केन्द्रेषु यातैर्गुरुबुधभृगुजैर्मन्दभान्वारयुक्तैः
स्वोच्चेचन्द्रोऽधितिष्ठन् जनयति नृपतिं कीर्तिशुक्लीकृताशम् ॥
अत्युच्चेलग्नसंस्थो रविरपि भगवान् पार्थिवं क्रूरचेष्टं
यातायातैः समस्तं636 चतुरुदधिजलं यस्य सेनाः पिबन्ति ॥२६॥
उदकचरनवांशकेषु637 षष्ठः कमलरिपुः सकलाभिराममूर्तिः ।
उदयति विहगे शुभे स्वलग्ने भवति नृपो यदि केन्द्रगा न पापाः २७
आपूर्णमण्डलकलाकलितं शशाङ्कं
पश्यन्ति शुक्रसुरपूजितसोमपुत्राः ।
लग्नाधिपोऽतिबलवान् पृथिवीश्वरः स्यात्
वर्गोत्तमश्च नवमः खलु चेद्विलग्ने ॥२८॥
वर्गोत्तमे त्रिप्रभृतिग्रहेन्द्राः केन्द्रस्थिता नो शुभसंयुताश्च ।
नोरूक्षधूमो न विवर्णदेहाः कुर्वन्ति राज्ञः प्रसवं प्रसन्नाः ॥२९॥
एक एव खगः638 स्वोच्चे वर्गोत्तमगतो यदि ।
बलवान् मित्रसंदृष्टः करोति पृथिवीपतिम् ॥३०॥
शीर्षोदयर्क्षेषु गताः समस्ता नीचारिवर्गे स्वगृहे शशाङ्कः ।
सौम्येक्षितो639ऽन्यूनकलो विलग्ने दद्यान्महीं रत्नगजाश्वपूर्णाम् ॥३१॥
उपचयगृहसंस्थो जन्मपो यस्य चन्द्रात्
शुभगृहमथवांशे केन्द्रयाताश्च सौम्याः ।
सकलबलवियुक्ता ये च पापाभिधानाः
स भवति नरनाथः शक्रतुल्यो बलेन ॥ ३२ ॥
अत्युच्चस्था रुचिरवपुषः सर्व एव ग्रहेन्द्राः
मित्रैर्दृष्टा यदि रिपुदृशां गोचरं न प्रयाताः ।
कुर्युर्नूनं प्रसभमरिभिर्गर्जितैर्वारणाग्र्यैः
सेनाश्वीयैश्चलति चलितैर्यस्य भूः पार्थिवेन्द्रम् ॥ ३३ ॥
परमोच्चेस्थितश्चन्द्रो यदि शुक्रेण दृश्यते ।
कुर्यान्महीपतिं पूर्णं पापैरापोक्लिमोपगैः ॥ ३४ ॥
दृश्येते शुभदैः स्वकेन्द्रभवने मित्रैश्च पापैस्तथा
युद्धे नो रिपुभिर्जितौ बलयुतौ जन्मोदयर्क्षाधिपौ ।
भूपः स्यान्निजराशिनाथनवमे चन्द्रोदये चेद्यशो
यस्येभस्रुतदानलुब्धमधुपैश्चातुर्दिशं गीयते ॥ ३५ ॥
उच्चराशिर्भवेद्धोरा यस्यासौ कुरुते नृपम् ।
स्वांशेऽथ सुहृदुच्चांशे दृष्टः केन्द्रोपगैः शुभैः ॥३६॥
स्थितो भानोः पुत्रो विरचितबलः पश्चिमार्द्धे मृगस्य
रविः सिंहे शुक्रस्तुलिनि रुधिरो मेषगः कर्किणीन्दुः ।
कुमारीं सम्प्राप्तो यदि भवति वा शर्वरीनाथसूनुः
प्रजातो भूपालश्छदयति640 महीमेकशुक्लातपत्राम् ॥३७॥
वर्गोत्तमस्वभवनेषु गता ग्रहेन्द्राः
सर्वे यदा रुचिररश्मिशिखाकलापाः ।
उत्पद्यते जगति सीममतीं धरित्रीं
यः पालयेत् क्षितिपतिर्जितशत्रुपक्षः641 ॥३८॥
केन्द्रे विलग्ननाथः सुहृद्भिरभिवीक्षितो विहगैः642 ।
लग्नस्थिते च सौम्ये भूपतिरिह जायते पुरुषः643 ॥३९॥
सुरपतिगुरुः सेन्दुर्लग्ने वृषे समवस्थितो
यदि बलयुतो लग्नेशश्च त्रिकोणगृहं गतः ।
रविशनिकुजैर्वीर्योपेतैर्न युक्तनिरीक्षितो
भवति स नृपः कीर्त्या युक्तो हताखिलकण्टकः ॥४०॥
न नीचगृहसंस्थिता न च रिपोर्गृहं संगताः
स्वराशिमथवांशकानुदयगोच्चमंशं यदि ।
कलाभिरतिभूषिते कुमुदषण्डबोधप्रदे
सुहृद्भिरभिवीक्षिताः क्षितिपतिं विदध्युर्ग्रहाः ॥४१॥
यो यः पूर्णं शिशिरकिरणं प्राप्तवर्गोत्तमांशं
सुस्पष्टार्चिर्गगनगमनः पश्यति स्वोच्चसंस्थम् ।644
स क्षोणीशं जनयति दशां प्राप्य सौम्यः स्वकीयां
ख्यातं लोके यदि बलयुताः कण्टकस्था न पापाः ॥४२॥
जन्मोदयभवनपती बलसहितौ केन्द्रभेऽथ हिबुके वा ।
इन्दुर्जलगृहगश्चेत् त्रिकोणगो वा महीपालः ॥४३॥
स्वगृहे मित्रभागेषु स्वांशे वा मित्रराशिषु ।
कुर्वन्ति च नरं सूतौ सार्वभौमं नराधिपम् ॥४४॥
परमोच्चगताः सर्वे स्वोच्चांशे यदि सोमजः ।
त्रैलोक्याधिपतिं कुर्युर्देवदानववन्दितम् ॥४५॥
यस्योत्तरस्यां भगवान् वसिष्ठो बृहस्पतिः प्रागपरे च भार्गवः ।
अगस्त्यनामा खलु दक्षिणस्यां स नष्टशत्रुश्च भवेन्नराधिपः ॥४६॥
शशी पूर्णः स्वांशं स्वगृहमथवा स्वोच्चभं वा प्रयातो
दिवः पातुर्मन्त्रीदितिजगुरुणा वीक्षितः केन्द्रसंस्थः।
रविर्लग्ने स्वांशं यदि बलयुतः पश्यति स्यात्स भूपः
प्रभग्नं यस्येमैश्चतुरुदधिभूशल्लकीनामरण्यम् ॥४७॥
कुमुदगहनबन्धौ वीक्ष्यमाणे समस्तैः
गगनगृहनिवासैर्दीर्घजीवी नरः स्यात् ।
फलमशुभसमुत्थं नैव केमद्रुमोत्थं
भवति मनुजनाथः सार्व भौमो जितारिः ॥४८॥
उच्चाभिलाषी सविता त्रिकोणे स्वर्क्षे शशी जन्मनि यस्य जन्तोः ।
स शास्ति पृथ्वीं बहुरत्नपूर्णां बृहस्पतिः कर्कटके यदि645 स्यात् ॥४९॥
तुङ्गेषु पड्विबुधमार्गचरा उपेताः
स्वांशे मयूखनिकरैः परिपूरितांङ्काः646 ।
उत्पादयन्ति कुलिशाङ्कितपाणिपादं
पृथ्वीपतिं सगरवेणययातितुल्यम् ॥५०॥
शुभभवनसमेतैः सौम्यभागेषु सौम्यैः
स्फुटरुचिरकरोघैः प्रस्फुरद्भिर्विलग्ने ।
रविमुषितमयूखैस्तैश्च पापैरमिश्रै–
गिरिगहननिवासी तापसः स्यान्नरेन्द्रः ॥५१॥
शुभ647फणपरगाः शुभप्रदा उभयगृहे यदि पापसंचयः ।
स्वभुजहतरिपुर्महीपतिः सुरगुरुतुल्यमतिः प्रकीर्त्तितः ॥५२॥
विलग्ननाथः खलु लग्नसंस्थः सुहृगृहे मित्रदृशां पथि स्थितः ।
करोति नाथं पृथिवीतलस्य दुर्वारखैरिघ्नमिहोदये शुभे ॥५३॥
सम्पूर्णमूर्तिर्भगवान् शशाङ्को मेषांशकस्थो गुरुणा च दृष्टः ।
नीचेन कश्चिन्न च वीक्षितोऽन्यैः प्राह क्षितीशं यवनाधिराजः ॥५४॥
लग्नाच्छशी त्रिरिपुलाभनमःस्थलेषु
सूतावखण्डितवपुः पृथिवीश्वरः स्यात् ।
दृष्टः सुरेन्द्रगुरुणा न च वीक्षितोऽन्यै–
र्जन्माधिपो दशमगः स्मरगोऽथवा स्यात् ॥५५ ॥
बिभ्रद्रश्मिकरालपूर्णपरिधिर्नक्षत्रसम्पालकः
तुङ्गांशे समवस्थितैश्च सकलैः प्रोद्वीक्षितो व्योमगैः ।
कुर्याद्भूमिपतिं यशस्यचरितं हस्त्यश्वसैन्यं जगत्
योव्याच्छेषफणीन्द्रतुल्यमखिलोर्वीभारखिन्नः श्वसन् ॥५६॥
सुधामृणालोपमबिम्बशोभितः शशी नवांशे नलिनीप्रियस्य ।
यदि क्षितीशो बहुहस्तिपूर्णः शुभाश्च केन्द्रेषु न पापयुक्ताः ॥५७॥
शशिबुधरुधिराङ्गैः स्वांशकस्थैर्न नीचैः
व्ययगृहसहजस्थैर्नापि सूर्यप्रविष्ठैः ।
तनयभवनसंस्थे वाक्पतौ चन्द्रयुक्ते
भवति मनुजनाथः कीर्तिशुक्लीकृताशः ॥५८॥
नीचारिवर्गरहितैर्विहगैस्त्रिभिस्तु
स्वांशोपगैर्बलयुतैः शुभदृष्टिदृष्टैः ।
गोक्षीरशङ्खधवलो मृगलाञ्छनश्च
स्याद्यस्य जन्मनि सभूमिपतिर्जितारिः ॥५९॥
कुमुदगहनबन्धुं श्रेष्ठमंशं प्रपन्नं
यदि बलसमुपेतः पश्यति व्योमचारी ।
उदयभवनसंस्थः पापसंज्ञो न चैवं
भवति मनुजनाथः सार्वभौमः सुदेहः ॥६०॥
जलचरराशिनवांशक इन्दौ तनुभवने शुभदः स्वकवर्गे ।
अशुभकरः खलु कण्टकहीनो भवति नृपो बहुवारणनाथः ॥६१॥
वर्गोत्तमे हिमकरः सकलस्थितोंऽशे
कुर्यान्महीपतिमपूर्वयशोभिरामम् ।
यस्याश्ववृन्दखुरघातरजोभिभूतो
भानुः प्रभातशशिनोऽनुकरोति रूपम् ॥६२॥
सर्वग्रहकृते योगे चक्रवर्तीश्वरो भवेत् ।
एकैकेन तथा जाता मण्डलानामधीश्वराः ॥६३॥
एकोऽपि विहगः कुर्यात् पञ्चमांशगतो नृपम् ।
समस्तबलसम्पन्नश्चक्रवर्तिनमेव च ॥६४॥
यदि पश्यति चन्द्रमसं विबुधगुरुर्वृषभसंस्थितः648 प्रसवे ।
अबति पृथिवीमुदग्रां स्फुरन्मणिद्योतितदिगन्ताम् ॥६५॥
कुर्यात्तुङ्गे त्रिकोणे वा स्वराशिस्थो विलोकयन्।
ग्रहस्तुषारकिरणं निषादमपि पार्थिवम् ॥६६॥
स्वगृहे तृतीयभागे शशी स्थितः पार्थिवं यदा कुरुते ।
परिपूर्णबलः शुभदो यदि प्रसूतौ महाराजम् ॥६७॥
स्वांशे दिवाकरो यस्य स्वक्षेत्रे च क्षपाकरः ।
स राजा गजदानौघशीकरोक्षितभूतलः ॥६८॥
लग्ने रविपुत्र649संयुते देवेज्येऽस्तगते650नवोदिते ।
दृष्टेऽसुरराजमन्त्रिणा ग्रामीणो नृपतिर्भवेदिह ॥६९॥
उदयेऽसुरमन्त्रिवरो गुरुभे गुरुदृष्टिपथं च गतः ।
कुरुते नियतं सनृपं यदि तुङ्गगतश्च बुधः ॥७०॥
शुक्रभास्करेन्दवो भाव651मेकमाश्रिताः ।
जीवदृष्टमात्रकाः स्यात्तदा महीपतिः ॥७९॥
लग्नगाः सितशशाङ्कजभौमाः सप्तमे शशिनि वाक्पतियुक्ते ।
तिग्मरश्मितनयेन च दृष्टे जायते पृथुयशाः पृथिवीशः ॥७२॥
विबुधगुरुर्यदि भौमनवांशे रुधिरनिरीक्षितपूर्णबलश्च ।
जनयति कुत्सितजन्ममहीपं क्रियपरिसंस्थितकर्मगतोऽर्कः ॥७३॥
तृतीयगाः शुक्रशशाङ्कभास्कराः कुजोऽस्तसंस्थो नवमे बृहस्पतिः ।
गणोत्तमो लग्नगृहांशकोद्गमो यदा तदा हीनकुलो महीपतिः ॥७४॥
जीवो बुधो भृगुसुतोऽथ निशाकरो वा
धर्मे विशुद्धतनवः स्फुटरश्मिजालाः ।
मित्रैर्निरीक्षितयुता यदि सूतिकाले
कुर्वन्ति देवसदृशं नृपतिं महान्तम् ॥७५॥
तपोगृहं यस्य भवेत्तदुच्चकं ग्रहेण तेनाथ युतं निरीक्षितम् ।
ग्रहद्वयं स्वोच्चगतं यदा भवेत्तदा कुटुम्बी नियतं महीपतिः ॥७६॥
सुतभवने शशि652देवनमस्यौ653 भवनपतिप्रसमीक्षितदेहौ ।
भृगुतनयो यदि मीनसमेतो भवति नृपः खलु कुत्सितवंशः॥७७॥
चन्द्रस्त्रिपुष्करस्थः स्खोच्चेवचसां पतिः सलक्ष्मीकम् ।
उत्पादयति स्वामिनमुत्तम654पात्रं समग्रभुवः ॥७८॥
केन्द्रस्वोच्चमुपेतः सुरमन्त्री दशमगो यदा शुक्रः।
नूनं स भवति पुरुषः समस्तपृथ्वीश्वरः ख्यातः ॥७९॥
स्वर्क्षे शशी655 विपुलरश्मिशिखाकलापाः
स्वांशे स्थिता बुधबृहस्पतिदानवेज्याः ।
पातालगा दिनकरेण निरीक्षिताश्च
संसूचयन्ति नृपतिं द्विज656मुख्यजातम् ॥८०॥
रविर्नभस्थः स्वत्रिकोणगोऽपि वा स्वराशिसंस्थाः सितजीवचन्द्राः ।
तृतीयषष्ठायगताश्च चन्द्रात्कुर्वन्ति गोपालमिह क्षितीशम् ॥८१॥
सप्तमभवने सौम्या मित्रांशगताः सुहृद्भिरिह दृष्टाः ।
उच्चे कुजो यदि नृपः समस्तनृपपालकः श्रेष्ठः ॥८२॥
रविशशिबुधशुक्रै657र्व्यौग्नि मित्रांशकस्थै–
र्न च रिपुभवनस्थैर्नाप्यदृश्यैर्न नीचैः ।
स तपसि भृगुपुत्रे भूपतिः स्यात्प्रयाणे
गजमदजलसेकैर्लीयते658 यस्य रेणुः ॥८३॥
स्खोच्चेभानुः प्रकटितबलो व्योममध्ये सजीवः
शुक्रो धर्मे यदि बलयुतः659 स्वं नवांशं प्रपन्नः ।
लग्ने वर्गे शुभगगनगो राजपुत्रेण दृष्टः
पृथ्वीपालो धवलितजगत्स्यात् सितैः स्वैर्यशोभिः ॥८४॥
बृषे शशी लग्नगतः सुपूर्णः सितेन दृष्टो वणिजि स्थितेन ।
बुधोऽपि पातालगतो यदि स्यात्तदान्यजातो भवति क्षितीशः ॥८५॥
क्षमासुतः स्वोच्चमुपाश्रितो यदा660
रवीन्दुवाचस्पतिभिर्निरीक्षितः ।
भवेन्नरेन्द्रो यदि कुत्सितस्तदा
समस्तपृथ्वीपरिरक्षणे क्षमः ॥८६॥
जायतेऽभिजिति661 यः शुभकर्मा
भूपतिर्भवति सोऽतुलवीर्यः ।
नीचवेश्मकुलजोऽपि नरोऽस्मिन्
राजयोग इति न व्यपदेशः662 ॥८७॥
गण्डान्त663विष्टिपरिघव्यतिपातजात–
स्ताराधिपः समुदये यदि कृत्तिकायाम् ।
क्रीडेत् कृपाणफलकाहितचण्डवेग–
प्रोत्थापिताहितशिरो गुलिकाभिरीशः ॥८८॥
बुधोदये सप्तमगे बृहस्पतौ
चन्द्रे कुलीरे सुखराशिगेऽमले ।
वियद्गते भार्गवनन्दने गृहे
प्रशास्ति पृथ्वीं मनुजो निराकुलः ॥८९॥
एकान्तरगैर्विहगैः षड्भिश्चक्रं क्षितीश्वरं कुर्यात् ।
अत्रैव शुभे लग्ने सकलमहीपालको नृपतिः ॥९०॥
अयमेवसमुद्राख्यो द्वौ लग्ने यदि संस्थितौ ।
करोति664 भूभुजां नाथं सोम्यैः केन्द्रेषु संस्थितैः ॥९१॥
निरन्तरं यदि भवनेषु षट्सु
ग्रहाः स्थिता उदयगृहात् समस्ताः ।
स्वपक्किदन्नरपतिमेव कुर्यु–
चतुष्टयान्नरपतिमन्त्रिणं च ॥९२॥
सुतसुखदुश्चिक्यगता यदि कर्मणि कीर्त्तयन्ति यवनाद्याः ।
बन्धुसुतार्थगजाढ्यो बहुभृत्यो जायते क्षितिषः ॥९३॥
कर्मास्तजलहोरासु ग्रहाः सर्वे प्रतिष्ठिताः ।
कुर्वन्ति नगरं नाम यत्र स्यात्पृथिवीपतिः ॥९४॥
सुखतनुमदगाः शुभाः समग्राः
कुजरविरविजास्त्रिधर्मलाभसंस्थाः ।
यदि भवति महीपतिः प्रशान्तो
यवनपतिकृतो ह्ययं महीपयोगः ॥९५॥
लाभधर्मस्थिताः सौम्याः पापाः कर्मणि संस्थिताः ।
नृपतीनामयं योगो भवेत्कलशसंज्ञितः ॥९६॥
त्रयो ग्रहा भ्रातृसुतायसंस्थास्तथा शुभौ द्वौ रिपुसङ्गतौ च ।
कलत्रलग्नं च गतौ च शेषौ नृपस्य योगः खलु पूर्णकुम्भः॥९७॥
सुविस्तरं नीचकुलोद्भवा मया
विचित्ररूपाः कथिताः क्षितीश्वराः ।
अतःपरं पार्थिववंशजन्मनां
भवन्ति योगा मुनिभिः प्रकीर्तिताः ॥९८॥
सिंहोदये दिनकरो मृगलाञ्छनोजे665
कुम्भस्थितो रविसुतः स्वगृहे सुरेज्यः ।
स्खोच्चेऽपि भूमितनयः पृथिवीश्वरस्य
जन्मप्रदः सकललोकनमस्कृतस्य ॥९९॥
शुभे लग्नं याते बलवति तथा धर्मराशिक्रमेण
शुभैः शेषैलग्नं धनगृहमथ त्र्यायषट्कर्मगैश्च ।
महीपालः श्रीमान् भवति नियतं यस्य मातङ्गसङ्घाः
प्रयाणे मेघानां स्रुतमदजलैर्भ्रान्तिमुत्पादयन्ति ॥१००॥
सुर666पतिगुरुर्बन्धुस्थाने स्ववेश्मगतो यदा
तुहिनकिरणः सम्पूर्णाङ्गस्तपःसमवस्थितः ।
त्रितनुभवनप्राप्ताः शेषा ग्रहा यदि भूपतिः
भवति धृतिमान् स्फीतश्रीकस्तथा बहुवाहनः ॥१०१॥
स्वोच्चोदये कृतपदः कुमुदस्य बन्धु-
र्जीवोऽर्थगो वणिजि दानवपूजितश्च ।
कन्या667जसिंहगृहगा बुधभौमसूर्याः
चन्द्रांशुनिर्मलयशा भवति क्षितीशः ॥१०२॥
नक्षत्रनाथसहितः सविता नभस्थः
सौरिर्विलग्नभवने हिबुके सुरेज्यः ।
देवारिपूज्यबुधभूमिसुतैः सलामैः
ख्यातो महीपतिरिहस्वगुणैर्नरः स्यात् ॥१०३॥
मृगराशिं परित्यज्य स्थितो लग्ने बृहस्पतिः ।
करोत्यवश्यं नृपतिं मत्तेभपरिवारितम् ॥१०४॥
लने भौमो रविजसहितस्तीक्ष्णरश्मिः खमध्ये
वाचां स्वामी दशमगृहगो भार्गवः सप्तमस्थः ।
आये हेम्नः शिशिरकिरणो बन्धुराशिं प्रपन्नो
यद्येवं स्याद्विपुल668यशसो जन्म भूपालकस्य ॥१०५॥
न्यूनोऽपि669 कुमुदबन्धुः स्वोच्चस्थः670 पार्थिवं करोति नरम् ।
किं पुनरखण्डमण्डलकरनिकरप्रकटितदिगन्तः ॥१०६॥
लग्नं विहाय केन्द्रे सकलकलापूरितो निशानाथः ।
विदधाति महीपालं विक्रमधनवाहनो671पेतम् ॥१०७॥
यदि पश्यति दानवार्चितं वचसामधिपस्तदा भवेत् ।
नृपतिर्बहुनागनायको भुजगेन्द्र इव प्रतापवान् ॥१०८॥
दिवौकसां पतेर्मन्त्रीकुर्यात्पश्यन्बुधं नरम्672 ।
शिरोभिः शासनं यस्य धारयन्ति नृपाः सदा ॥१०९॥
लग्नाधिपतिः स्खोचे पश्यन्मृगलाञ्छनं नृपं कुरुते ।
बहुगजतुरगबलौघैः क्षपितविपक्षं महाविभवम् ॥११०॥
इन्दुः स्वोच्चे पश्यन् करोति बुधभार्गवौ673 नरं नृपतिम् ।
प्रणतारिपक्षमुच्छ्रितयशसं सौभाग्यवन्तं च ॥१११॥
अधिमित्रांशगश्चन्द्रो दृष्टो दानवमन्त्रिणा।
अनिशं कुरुते लक्ष्मीस्वामिनं भूपतिं नरम् ॥११२॥
स्वांशेऽधिमित्रभावे वा गुरुणा यदि दृश्यते ।
शशी महीपतिं कुर्याद्दिवसे नात्र संशयः ॥११३॥
जन्माधिपतिः केन्द्रे बलपरिपूर्णः करोति परमर्धिम् ।
ब्राह्मणकुलेऽपि नृपतिं किं पुनरवनीशसंभूतम् ॥११४॥
रविरप्यधिमित्रस्थो यदि चन्द्रसमीक्षितः ।
अङ्गदेशाधिपं कुर्याद्धर्मार्थसहितं नृपम् ॥११५॥
उच्चस्थः शशितनयः कुमुदाकरबन्धुना च संमधिगतः674 ।
जनयति मगधाधिपतिं गजमदगन्धेन वासितदिगन्तम् ॥११६॥
प्रधानबलसंयुक्तः सम्पूर्णः शशलाञ्छनः ।
एकोऽपि कुरुते जातं नराधिपमरिंदमम् ॥११७॥
केन्द्रे विलग्ननाथः श्रेष्ठबलो मानवाधिपं कुरुते ।
गोपालकुलेऽपि नरं किं पुनरवनीश्वराणां च ॥११८॥
कर्कटसंस्थः केन्द्रे बृहस्पतिर्दशम675धामगः शशिनः ।
चतुरुदधिमेखलायाः स्वामी भूमेर्भवति जातः ॥११९॥
मेषे सहस्ररश्मिः सह शशिना संस्थितः करोतीशम् ।
केरलकर्णाटान्ध्रद्रविडानां चोलकस्यापि ॥१२०॥
उच्चस्थस्त्रिदशगुरुः कैरववनबन्धुसङ्गमं प्राप्तः ।
काश्मीरमण्डलभुवां करोति पुरुषाधिपमवश्यम् ॥१२१॥
तुङ्गायस्वगृहोदयकण्टकनवमेषु यस्य शुक्रगुरू ।
सोवश्यं भवति नरो राजांश676समुद्भवो नृपतिः ॥१२२॥
दिक्स्थानकालादिबलैरुदाराः शुभाः पुनः केन्द्रमुपागताश्च ।
कुर्वन्ति पापैरविमिश्रचाराः पृथ्वीभुजं त्रिप्रभृतिग्रहेन्द्राः ॥१२३॥
द्वितीये बुधजीवभार्गवा नचाशुभैर्दृष्ट्युता न677वार्कगाः ।
स्फुरत्करौघस्फुटपिञ्जरीकृता नरं प्रकुर्यस्त्रिसमुद्रपालकम् ॥१२४॥
कुन्दाब्जकाशधवलः परिपूर्णमूर्तिः
जन्माधिपेन कविना678 शुभदेन दृष्टः ।
स्त्रीमानभङ्गनिपुणं दयितं क्षपायाः
प्रख्यातकीर्तिसुनयं कुरुते नरेन्द्रम् ॥१२५॥
देवमन्त्री कुटुम्बस्थो भार्गवेण समन्वितः ।
जनयेद्वसुधापालं निर्जितारातिमण्डलम् ॥१२६॥
कारकयोगे जाता भवन्ति पृथ्वीभुजो नरास्तेषाम् ।
गजतुरगपत्तिविचलितर679जोवितानं भवेद्गगनम् ॥१२७॥
कुजे विलग्ने तरणेश्च नन्दने
रसातले शुक्रबृहस्पतीन्दुजाः ।
मृगोदये मन्दनवांशकस्थिते
रसातलेशो भवतीह पार्थिवः ॥१२८॥
स्वोच्चे गुरुस्तनुगतः स्वगृहे शशाङ्कः
शुक्रो झषे परममुच्चमितोऽसितश्च ।
मेषे तथैव भगवान् सविता कुजः स्व-680
वर्गाधिपो यदि भवेन्नृपतिः प्रजातः ॥१२९॥
शक्रेड्यः ससितः शुचिस्तिमियुगे स्वोच्चेच पूर्णः शशी
दृष्टस्तीव्रविलो681चनेन दिनकृन्मेषे यदासौ नृपः ।
सेनायाश्चलनेन रेणुपटलैर्यस्य प्रनष्टे रवा–
वस्तभ्रान्तिसमाकुला कमलिनी सङ्कोचमागच्छति ॥१३०॥
क्रूरैर्नीचै रिपुभवनगैः षष्ठदुश्चिक्यगैर्वा
सौम्यैः स्वोच्चं परमुपगतैर्निर्मलैः केन्द्रगैश्च ।
आज्ञां याते शिशिरकिरणे कर्कटस्थे निशाया–
मेकच्छत्रं त्रिभुवनमिदं यस्य स क्षत्रियेशः ॥१३१॥
होरालेखामुपेतः स्फुटकरनिकरैः पूरिताङ्गः सुरेज्यः
चन्द्रः शुक्लार्धदेहो भवभवनगतः स्वेन पुत्रेण दृष्टः ।
चन्द्राद्भानु682र्द्वितीये यदि भवति तदा नैव दृष्टः कुजेन
पाता जायेत भूमेर्बहुगजतुरगक्षुण्णभूपृष्ठपीठः ॥१३२॥
रविशशिकुजैर्मेषे लग्ने सितार्किबुधैर्वृषे
धनुषि नवमे देवेज्ये च स्वभांशमुपागते ।
रविरपि यदि स्वोच्चे वर्गे प्रधानबलोदयो
भवति नृपतिः सिद्धाज्ञातो683 हतारिरणोद्भवः ॥१३३॥
सितशशिसुतजीवैः पञ्चमस्थैर्नभोगै
रविरपि रिपुराशौ स्वोच्चगे भूमिपुत्रे ।
तपसि च रविपुत्रे जायते पार्थिवेन्द्रः
प्रथितविमलकीर्तिर्दानधर्मप्रतापैः ॥१३४॥
त्रिदशगुरो रविर्हिमकरस्य भृगोस्तनयो
रवितनयः कुजस्य खलु दृष्टिपथं च गतः ।
भवति विलग्नगो यदि चरोदयराशिगतः
प्रथितयशा भवेत् क्षितिपतिः क्षपितारिगणः ॥१३५ ॥
बुधः कन्यालग्ने सुरपतिगुरुश्चैव तिमिगः
स्थितः क्षोणीपुत्रः प्रसवसमये684 वीर्यसहितः ।
शनिः शत्रुस्थाने त्रिदशरिपुपूज्यश्च हिबुके
यदैवं स्यात्सूतौ स्वभुजविजयी भूपतिरिह ॥१३६॥
यमे विलग्ने मकरप्रतिष्ठिते
दिवाकरे द्यूनगते सितेऽष्टमे ।
कुजेलिगे कर्कटगे निशाकरे
भवेत्प्रसिद्धो जगतीश्वरो नृपः ॥१३७॥
मृगोदये भूमिसुते सुनिर्मले शनैश्चरे धर्मगृहे व्यवस्थिते ।
दिवाकरे सप्तमगे सहेन्दुना चलस्वभावो नृपतिः प्रजायते ॥१३८॥
शनैश्चरे लग्नगते सचन्द्रे बृहस्पतौ सप्तमराशिगे च ।
शुक्रेण दृष्टे शशिजे स्वतुङ्गे जायेत पृथ्वीपतिरप्रधृष्यः ॥१३९ ॥
चापे685 भवेत्सुरगुरुर्हृतदृष्टिशुद्धो
लग्ने सुरारिदयितः शशिनि स्वराशौ ।
वापीतडागसुरवेश्मकरो नरोऽत्र
जायेत मानवपतिर्द्विजदेवभक्तः ॥१४०॥
एकः स्वोच्चेशुभगगनगः संस्थितो निर्मलांशुः
केन्द्रे भानुः प्रकटितकरः केवलः पूर्णवीर्यः ।
दृष्टः कुर्यादमरगुरुणा पञ्चमस्थेन जातं
भूमेर्नाथं बहुगजपतिं सर्ववन्द्यं कृतार्थम् ॥१४१॥
पष्ठे कुजार्किरवयः सहजेऽथवाऽपि
सिंहे सुरारिसचिवोऽथ भवर्क्षसंस्थः ।
दृष्टः शुभैर्दिनकरेन्दुविहीनदृष्टिः
कुर्यान्नृपं स्वभुजनिर्जितशत्रुपक्षम् ॥१४२॥
वहति मृदुसमीरो686 निर्मलव्योममध्ये
विमलनिरुपसर्गः खेचरा वृत्तवैराः ।
उदयति सुरवन्द्ये मण्डले मातृकाणां
यदि वृषभगृहस्थो भार्गवः स्यात् क्षितीशः ॥१४३॥
शशिबुधरुधिराख्यैः स्वांशकस्थैर्न नीचैः
व्ययगृहसहजस्थैर्नापि सूर्यप्रविष्ठैः ।
तनयभवनसंस्थे वाक्पतौ चन्द्रयुक्ते
भवति मनुजनाथः कीर्तिशुक्लीकृताशः ॥१४४॥
अधिमित्र687गते केन्द्रे जन्माधिपतिर्विलग्नपतियुक्तः ।
पश्यति बलपरिपूर्णो लग्नं स्यात्पुष्कलो योगः ॥१४५॥
पुष्कलयोगे पुरुषा जायन्ते भूमिपालका नित्यम् ।
सुचिरं भ्रमन्ति हतरिपुगजमदगन्धेन वासित दिगन्ताः ॥१४६॥
राश्यादौ लग्नपतिः करोति जातं688 नरेन्द्रदण्डपतिम् ।
मध्ये मण्डलनाथं ग्रामपतिं चैव भवनान्ते ॥१४७॥
पौष्णे फाल्गुन्यां वा मूले पुष्ये च भास्करः कुरुते ।
लग्नगतो नरनाथं योजनशतमात्रके देशे ॥१४८॥
कृत्तिकारेवतीस्वातीपुष्यस्थायी भृगोः सुतः ।
करोति भूभुजां नाथमश्विन्यामपि संस्थितः ॥१४९॥
विदधाति सार्वभौमं लग्नांशपतिः स्वतुङ्गगः केन्द्रे।
नृपतिं लग्नाधिपतिर्जन्माधिपतिर्धनसमृद्धम् ॥१५०॥
मीने निशाकरः पूर्णः सुहृद्गहनिरीक्षितः ।
सार्वभौमं नरं कुर्यात्सिद्धाज्ञानान्न689संशयः ॥१५१॥
याते भौमे कर्मस्थानं
शिशिरकरभृगुसुतैस्तपः समवस्थितैः ।
आये स्वोच्चेप्राप्तो भानु–
स्त्रिदशपतिसचिवसहितो यदि प्रसवे690 भवेत् ॥१५२॥
क्षोणीभर्त्ता याने यस्य
प्रविचलिततुरगरजसा दिशः परितो गतः691 ।
एवं कर्तुभूयो भूयो
धरणि692तलपरिमलसुखं प्रयान्ति रवेर्हयाः ॥१५३॥
शशिसहिते केन्द्रस्थे शनैश्चरे भवति जार693जातस्तु।
राजा भुवि गजतुरगग्रामधनैर्वर्द्धितश्रीकः ॥१५४॥
शुक्रवाक्पतिबुधैर्धनसंस्थैर्द्यूनगैः शशिरविक्षितिपुत्रैः ।
जायते क्षितिपतिः पृथुवक्षाः सर्वतः क्षपितशत्रुसमूहः ॥१५५॥
भानुः प्राणी शशिगृहयुतः शीतरश्मिश्च तस्मिन्
एकः स्खोच्चेयदि गगनगो निर्मलः पूर्णरश्मिः।
लग्नं प्राप्तः सुरपतिगुरुः षष्ठगः स्यात्क्षितीशः
छन्नो यस्य प्रचलितचमू रेणुभिर्व्योममार्गः ॥१५६॥
कुम्भस्याष्टमभागे त्रिकोणसंस्थे (पिच) निशानाथे।
जातो भवत्यवश्यं राजा शुभदः समस्तलोकस्य ॥१५७॥
मेषस्य सप्तमांशे करोति पृथ्वीसुतः स्थितो नृपतिम् ।
सिंहस्य694 पञ्चमांशे नरमिथुनांशे भवेद्धूपः ॥१५८॥
कुम्भस्य पञ्चदशके भागे चन्द्रस्थितो महीपालम्।
कर्कटकस्य च दशमे करोति पुरुषं सदा प्रभवे ॥१०॥
धनुषि च695विंशे जीवः करोति नृपतिं स्थितो जनख्यातम् ।
सिंहस्य पञ्चमांशे तथा च हेलिर्बुधो ज्ञेयः ॥१६०॥
एकस्मिन् पञ्चकृतौ पञ्चदशस्वास्थितश्चन्द्रः ।
भागेषु वीरनृपतिं करोति भुजलब्धपृथ्वीकम् ॥१६१॥
मकरस्य पञ्चमांशे करोति पुंरुषं696 नरेश्वरं सुनयम्697 ।
योगे भूतलतिलकं धर्मज्ञं शास्त्रनिरतं च ॥१६२॥
कर्कटके शशिजीवौ पञ्चसु भागेषु संस्थितौ कुरुतः ।
भूमिपतिमप्रधृष्यं रविरिव सर्वग्रहगणस्य ॥१६३॥
चन्द्रः पुष्ये नृपतिं वर्गोत्तमकृत्तिकाश्विनीसंस्थः ।
विदधाति सार्वभौमं त्रिपुष्करे वाऽपि परिपूर्णः ॥१६४॥
अश्विन्यनुराधास्थः स्थितः श्रविष्ठासु पार्थिवं भौमः ।
कुरुते स्वोच्चमुपगतो वर्गोत्तमगश्च नान्यत्र ॥१६५॥
व्योम्नि शंखधवलो निशाकरो भार्गवस्तपसि संस्थितः शुचिः ।
आय698गाश्च यदि सर्व एव ते स्यान्महीपतिरतुल्यपौरुषः ॥१६६॥
चन्द्रादुपचयसंस्था गगनसदः सर्व एव यदि सूतौ ।
जायेत माननिलयः समस्तपृथ्वीपतिः पुरुषः ॥१६७॥
जीवनिशाकरसूर्याः पञ्चमनवमतृतीयगा वक्रात् ।
यदि भवति तदा राजा कुबेरतुल्यो धनैर्वासौ ॥१६८॥
रविस्तृतीये भृगुनन्दनः सुखे बुधस्य चान्ये यदि पञ्चमे स्थिताः ।
न नीचराशौ न च शत्रुवेश्मगा भवेन्नरेन्द्रस्त्रिसमुद्रपारगः699॥१६९॥
बृहस्पतेर्भौमदिवाकरेन्दवो गता द्वितीयाम्बुनभःस्थलं क्रमात् ।
विपक्षराशौ परिशेषखेचरा यदा तदा भूमिपतिर्नृपात्मजः ॥१७०॥
भृगोरपत्याद्बुधभास्करात्मजौ चतुष्टयस्थौ परिशेषखेचराः ।
तृतीयलाभर्क्षगतास्तु ते यदा महीपतिं कुर्युरसंशयं तदा ॥ १७१॥
शुक्रबुधौ रवितनयात्केन्द्रे वाचस्पतिर्भवेदुच्चे ।
सिंहासनाधिशायी यदि राजा स्वोच्चगाश्च परिशेषाः॥१७२॥
सवितुस्तृतीयपञ्च मला भर्क्षसमाश्रिताः सदा यस्य।
सर्वे ग्रहाः स नृपतिर्मन्त्री सेनापतिर्वाऽपि ॥१७३॥
लग्नपतेः स्फुटरश्मेः पापा लाभे शुभाश्च केन्द्रस्थाः।
यदि भवति तदा नृपतिः स्वभुजार्जितसर्वभूमितलः ॥१७४॥
लाभे तृतीयषष्ठे यदि पापा जन्मपस्य शुभदृष्टाः ।
भवति तदा धरणीशः समस्तनृपवन्दितः साधुः ॥१७५॥
विचरति सुरपूज्यो मेषभेऽथापि सिंहे
दहनकिरणदृष्टे भूमिपुत्रे स्वराशौ700 ।
न च गगनविचारी कश्चिदेकोऽपि नीचे
यदि नृपतिसमुत्थो जायते पार्थिवेन्द्रः ॥१७६॥
चन्द्राद्ग्रहैर्निगदिताः सुनफादयश्च
केन्द्रस्थितैर्यदि भवन्ति च तेऽत्र योगाः ।
विश्वम्भराधिपकुलेषु महत्सु जाता
योगेषु तेषु मनुजेश्वरतां लभन्ते ॥१७७॥
केन्द्रगौ यदि तु जीवशशाङ्कौ यस्य जन्मनि च भार्गवदृष्टौ ।
भूपतिर्भवति सोऽतुलकिर्तिर्नीचगो यदि न कश्चिदिह स्यात् ॥१७८॥
उदयशिखरिसंस्थो भार्गवो यत्र तत्र
बुधरविसुतदृष्टः स्वांशकस्थोऽतिवीर्यः ।
जनयति नरनाथं वाक्पतौ पञ्चमस्थे
भुजबलहतशत्रु सार्वभौमं गजाढ्यम् ॥१७९॥
सिंहे कमलिनीनाथः कुलीरस्थो निशाकरः ।
दृष्टौ द्वावपि जीवेन पार्थिवं कुरुतस्तदा ॥१८०॥
बुधः कर्कटमारूढो वाक्पतिश्च धनुर्धरम् ।
सूर्यभूसुतदृष्टौ च यदि स्फीतो महीपतिः ॥१८१॥
शफरीयुगले चन्द्रः कर्कटे च बृहस्पतिः ।
शुक्रः कुम्भे यदा शक्तस्तदा राजा भवेदिह ॥१८२॥
सितदृष्टः शनिः कुम्भे पद्मिनीदयितो भवे77 ।
चन्द्रे जलचरे राशौ यदि जातो नृपो भवेत् ॥१८३॥
कुजोऽलिगोऽथ मेषे वा रविजीवनिरीक्षितः ।
वृषे ज्ञः जीवसंदृष्ट701स्तदाऽपि पृथिवीपतिः ॥१८४॥
अमलवपुरवक्रःकैरवाणां विकासी
स्वगृहमथनवांश स्वोच्चभांशं गतो वा ।
हितगगननिवासैः पञ्चभिर्दृश्यमानो
जनयति जगतीशं नीचभे नो यदि स्यात् ॥१८५॥
लाभे मन्दो गुरुभृगुसुतावुद्गमे खे शशाङ्को
बन्धावर्को बुधकुतनयौ702 वक्रगौ चेत्स भूपः ।
यत्सेनायास्ततमदजलक्षोभतो वारणेन्द्रैः
भूयः सेतोः स्मरति सहसा क्षोभितान्तोऽम्बुराशिः १८६
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां राजयोगाध्यायो नाम पञ्चत्रिंशः ॥
——————
षट्त्रिंशोऽध्यायः ।
रश्मिप्रधानमेतद्यस्माच्छास्त्रं वदन्ति माणिन्धाः ।
तस्मात्प्रयत्नतोऽहं कथयामि यथामतं तेषाम् ॥ १ ॥
स्त्रोच्चस्थे दश सूर्ये नव चन्द्रे पञ्च भूमितनये च ।
पञ्चेन्दुजे सुरेड्ये सप्ताष्टौ भार्गवे शनौ पञ्च ॥ २ ॥
एवं महेन्द्रशास्त्रे मणिन्धमयबादरायणप्रोक्ते ।
सप्त प्रत्येकस्था निर्दिष्टा रश्मयो ग्रहेन्द्राणाम् ॥ ३॥
सर्वे प्रमाणमेते मुनिवचनात् किन्तु सप्तसंख्यैव ।
बहुवाक्यादस्माकं नीचगतः स्याद्विगतरश्मिः ॥ ४ ॥
अभिमुखरश्मिर्नीचाद्भ्रष्टः स्खोच्चात्पराङ्मुखो ज्ञेयः ।
अन्तरगतेऽनुपातो यथा तथा संप्रवक्ष्यामि ॥ ५॥
न्यूने703 मण्डलशोध्यश्चक्रात् षड्भवनतो यदाभ्यधिकः ।
आत्मीयरश्मिगुणितात्षड्भक्ताद्रश्मयस्तस्मात् ॥ ६॥
मित्रद्वादशभागे द्विगुणास्त्रिगुणाः स्वके च दीधितयः ।
वक्रे पुनस्तथोच्चेस्वराशिगे तद्भवत्येव ॥ ७ ॥
द्विगुणाः स्युर्दीधितयो वक्रस्थेऽप्येवमेव स्युः ।
वैरिद्वादशभागे नीचे च भवन्ति षोडशांशोनाः ॥ ८ ॥
अस्तं गतो विरश्मिः शनिसितवर्जंग्रहो ज्ञेयः ।
वक्रान्तस्थे द्विगुणा वक्रत्यागेऽष्टभागहीनाश्च ।
एवं रश्मिविधानं पूर्वाचार्यैः समुद्दिष्टम् ॥ ९ ॥
एकादि पञ्च यावद्रश्मिभिरतिदुःखिताः कुलविहीनाः ।
परतन्त्रका दरिद्रा नीचरताः संभवन्ति नराः ॥ १० ॥
परतो दशकं यावत् भृतकादीनां विदेशगमनरताः ।
ताप्त. ३ र.
जायन्तेऽत्र मनुष्याः सौभाग्यपरिच्युता मलिनाः ॥११॥
ऊर्ध्वं पञ्चदशाप्तिर्यावत्तावद्बहुश्रुताः सुजनाः ।
धर्माभिरताः सुमुखाः कुलस्य तुल्याः प्रजायन्ते ॥१२॥
आविंशतेर्भवेयुः कुलाधिका धन704युता जन705ख्याताः ।
कीर्तिकराश्च मनुष्या यथाक्रमं स्वजनसम्पूज्याः ॥१३॥
पूज्याः सुभगा धीराः कृतिनो भूपास्तु शरकृतिर्यावत् ।
परतो भवन्ति मनुजाः संसा706धितसकलकरणीयाः ॥१४॥
अत उत्तरेण चण्डा नृपाश्रिता नृपतिलब्धधनसौख्याः ।
त्रिंशद्यावत्सचिवाः पूज्याश्च भवन्ति भूपानाम् ॥१५॥
एकत्रिंशद्भिस्तु प्रवराः ख्याता महीभुजामिष्टाः।
द्वात्रिंशद्भिः पुरुषाः पञ्चाश707द्धामपतयः स्युः ॥१६॥
ग्रामसहस्राधिपतिं त्रिंशत् त्र्यधिका करोति रश्मीनाम् ।
त्रिसहस्रग्रामाणां पुरुषं सूतौ चतुस्त्रिंशत् ॥१७॥
परतो मण्डलभाजो बहुकोशपरिग्रहा महासत्वाः।
प्रख्यातकान्तियशसो भवन्ति सुभगाश्च लोकानाम् ॥१८॥
त्रिंशत् षड्भिः सहिता रश्मीनां यस्य जन्मसमये स्यात् ।
सार्धं भुनक्ति लक्षं स ग्रामाणां पुमान्नियतम् ॥१९॥
त्रिंशन्मण्डलसहिता रश्मीनां सम्भवे भवेद्येषाम् ।
लक्षत्रितयपतित्वं ग्रामाणां जायते तेषाम् ॥२०॥
त्रिंशत्सनवा गावो जन्मनि येषां ग्रहोत्थिताः सन्ति ।
ते तोषितसकलजना भवन्ति पृथ्वीश्वराः पुरुषाः ॥२१॥
दशजलधिगुणाया रश्मिसंख्या नराणां
दिशति पृथुलभूमेः पालकत्वं च तेषाम् ।
इतरिपुवनिताभिर्गीयतेऽतीव कीर्त्तिः
करुणरुदितगर्भैरुद्यदाक्रोशशब्दैः ॥२२॥
शशिजलनिधिसंख्यै रश्मिभिः श्रूयते यो
जलनिधिरशनायाः पार्थिवः स्यात्स भूमेः ।
द्विजलधिरशनायाः पक्षवेदाख्यसंख्यैः
त्रिजलधिरशनाया वह्निवेदैस्तथैव ॥२३॥
वेदाब्धिसंख्यैश्च मयूखजालैर्जाता नरेन्द्राः खलु सार्वभौमाः ।
सौम्याः सुरब्राह्मणभक्तिशीला दीर्घायुषः सत्वयुता भवन्ति ॥२४॥
परतः परतः किरणैर्द्वीपान्तरपालका निरुपसर्गाः।
सर्वनमस्याः सुभगा महेन्द्रतुल्यप्रतापाश्च ॥२५॥
चत्वारिंशद्युक्ता708 पञ्चादिभिरत्र यस्य सूतौ स्यात् ।
ज्ञेयं तस्यारिष्टं सर्वक्षितिपालकं709 “सर्वक्षितिपालकानुक्ताः (?) “) मुक्त्वा ॥२६॥
भुवनभरसहिष्णोः सर्वतः क्षीणशत्रोः
त्रिदशपतिमहिम्नः सर्वलोकस्तुतस्य ।
विदधति विहगानां रश्मयोऽतीव दीप्ता–
स्तुरगकृतिसमानाश्चक्रवर्तित्वमेव ॥२७॥
अभिमुखकरप्रवाहाः फलं प्रयच्छन्ति पुष्टतरमाशु ।
तद्विपरीतं पुंसां पराङ्मुखास्तु ग्रहेन्द्राणाम् ॥२॥
जन्मसमये ग्रहाणां रश्मीनां संक्षये क्षयो भवति ।
वृद्धेवर्धिष्णूनामधमोत्तमता क्रमेणैव ॥२९॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां रश्मिचिन्ता नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥
सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।
श्रीदेवकीर्तिराजा पञ्चमहापुरुषलक्षणान्नृपतीन् ।
कथयति यांस्तानहमपि कथयामि निराकुलीकृत्य ॥१॥
स्वक्षेत्रे च चतुष्टये च बलिभिः स्वोच्चस्थितैर्वा ग्रहैः
शुक्राङ्गारकमन्दजीवशशिजैरेतैर्यथानुक्रमम् ।
मालव्यो रुचकः शशोऽथ कथितो हंसश्च भद्रस्तथा
सर्वेषामपि710 विस्तरं711 मतिमतां संक्षिप्यते लक्षणम् ॥२॥
महीसुतात्सत्वमुदाहरन्ति गुरुत्वमिन्दोस्तनयादुरोश्च ।
स्वरं सितात्स्नेहमिनेश्च वर्णं बलाबलं712 पूर्णलघूनि चैषाम् ॥३॥
मृदुर्दयालुर्बहुदार713भृत्यः स्थिरस्वभावः प्रियसत्यवादी ।
सुरद्विजोपास्तिकरः सहिष्णुर्भवेन्नरः सत्वगुणप्रधानः ॥४॥
शूरः कलाकाव्यनिधिः सुबुद्धिः714 स्त्रीभोगसंसक्तमनाः715 प्रवीणः ।
आडम्बरी हास्यरतिः716 प्रगल्भो गेयाक्ष717विद्राजसिकः प्रदिष्टः718 ॥५॥
मूर्खोऽलसो वञ्चयिता परेषां क्रोधी विषण्णः पिशुनः क्षुधार्तः ।
आचारहीनो न शुचिर्मदान्धो719 लुब्धः प्रमादी तमसाभिभूतः ॥६॥
भारो भवति नृपाणां भूम्यर्धं720भुञ्जतां मनुष्याणाम् ।
येषां भागे721 त्वर्धंसकलमहीपालकास्ते स्युः ॥७॥
समाः स्वरैः सिंहमृदङ्गदन्तिनां रथौघभेरीवृषतोयदायिनाम् ।
समस्तभूमण्डलरक्षणक्षमा भवन्ति भूषा जितशत्रवो नराः ॥८॥
स्निग्धैर्भवन्ति भूषा जिह्वात्वग्दन्तनेत्रनखकेशैः ।
रूक्षैरेभिर्निःस्खाः स्खरैश्च ते जातके कथिताः ॥९॥
स्निग्धस्तेजोयुक्तः शुद्धो वर्णः प्रकीर्तितो नृपतेः ।
विपरीतः क्लेशभुजां सुखार्थसुखभागिनां मध्यः ॥१०॥
व्योमाम्बुवाताग्निमहीस्वभावा जीवासुरेड्यार्किमहीजसौम्यैः ।
छायामरुत्पित्तकफ722स्वरूपा मिश्रैस्तु मिश्रा बलिभिर्नरस्य ॥११॥
शब्दार्थविन्न्यायपटुः प्रगल्भो विज्ञानयुक्तो विवृतास्यभागः ।
चित्राङ्गसन्धिः कृशपाणिपादो व्योमप्रकृत्या पुरुषोऽतिदीर्घः ॥१२॥
लावण्यवाही बहुभारवांही प्रियादिभाषी द्रव723भोजनश्च ।
चलस्वरूपो बहुमित्रपक्षः क्षोणीपतिर्नातिचिरप्रगल्भः ॥१३॥
सत्वेन वायोः पुरुषः कृशाङ्गः क्षिप्रं च कोपस्य वशं प्रयाति ।
कृत्यैकबुद्धिर्भ्रमणे रतश्च दाता सितो भूपतिरप्रधृष्यः ॥१४॥
शूरः क्षुधार्त्तश्चपलोऽतितीक्ष्णः724 प्राज्ञः कृशो गौरतनुर्विरोधी ।
विद्वान् सुपा725णिर्बहुभक्षणश्च वह्निस्वभावः पुरुषोऽतिकायः ॥१५॥
कर्पूरजात्युत्पलपुष्पगन्धो भुनक्ति भोगान् स्थिरलब्धसौख्यः ।
सिंहाभ्रघोषः स्थिरचित्तवृत्तिर्महीस्वभावः पुरुषः ससत्वः726 ॥१६॥
स्फटिकोपलसङ्काशा स्वच्छा गगनोत्थिता भवेच्छाया ।
निधिरिव पुंसां धन्या त्रिवर्गफलसाधनी सौम्या ॥१७॥
स्निग्धा सिता च हरिता कान्ता मातेव सर्वसुखजननी ।
सौभाग्याभ्युदयशुभान् करोति जलसम्भवा च्छाया ॥१८॥
असितजलदकान्तिः पापगन्धोऽतिमूढो
मलिनपरुषकायः शोकसन्तापतप्तः ।
स वहति727 वधदैन्यव्याध्यनर्थार्थनाशान्
विचरति पवनोत्था यस्य कान्तिः शरीरे ॥१९॥
कमनदहनदीप्तिश्चण्डदण्डोऽतिहृष्टः
प्रणतसकलशत्रुर्विक्रमाक्रान्तभूमिः ।
भजति मणिसुवर्णं सर्वकार्यार्थसिद्धिं
प्रशमितगतशोको728 वह्निजायां प्रभायाम् ॥२०॥
आद्याम्बुसिक्तवसुधागरुतुल्यगन्धः
सुस्निग्धदन्तनखरोमशरीरकेशः ।
धर्मार्थतुष्टिसुखभाक् जनसम्प्रियश्च
च्छाया यदा भवति भूमिकृता मनुष्ये ॥२१॥
शीतार्तो बहुभाषको द्रुतगतिर्नावस्थितः कुत्रचित्
शूरो मत्सरवान् रुजाकररुचिर्दौर्भाग्ययुक्तोऽनयः।
दन्तान्खादति729 नातिसौहृदमतिर्गान्धर्ववेत्ता कृशो
मित्राणां समुपार्जनेऽतिनिपुणः स्वप्ने च खे गच्छति॥२२॥
अपगतधृतिरूक्षश्मश्रुकेशः कृतघ्नः
स्फुटित730चरणहस्तः क्रोधनो नष्टकान्तिः ।
विलपति च731निबन्धी वित्तसंक्षारकारी732
भवति पुरुष एवं मारुतैकप्रधानः ॥२३॥
दुर्गन्धी लघुतापनो विपुलधीः क्षिप्रप्रसादः पुनः
पीनो रक्तनखाक्षिपाणिचरणो वृद्धाकृतिर्दाहवान् ।
मेधावी युधि निर्भयो हिमरुचिर्ब्रूते निगृह्यापरान्
नो भीतः प्रणयं प्रयाति बहुभिः कुर्यान्नतानां प्रियम् ॥२४॥
स्वप्नेऽभिपश्यति सुवर्णदिनेशदीपान्
दावाग्निकिंशुकजपामणिकर्णिकारान् ।
रक्ताब्जषण्डरुधिरौघतटित्समूहान्
पित्ताधिको निगदितः खलु लक्षणज्ञैः ॥२५॥
श्रीमान् श्लिष्टाङ्गसन्धिर्धृतिबलसहितः स्निग्धकान्तिः सुदेहो
ग्राही सत्वोपपन्नो हतमुरजघनध्वानघोषः सहिष्णुः ।
गौरो रक्तान्तनेत्रो मधुररसरुचिर्बद्धवैरः कृतज्ञः
क्लेशे च स्यादखिन्नः सकलजनसुहृत्पूजको वा733 गुरूणाम् ॥ २६॥
सुप्तस्तु पश्यति समुद्रनदीसरांसि
मुक्ताफलप्रकरहंससिताब्जशङ्खान् ।
नक्षत्रकुन्दकुमुदेन्दुतुषारपातान्
श्लेष्माधिको मुनिवरैः कथितः क्रमेण ॥२७॥
बलरहितेन्दुरविभ्यां युक्तैर्भौमादिभिर्ग्रहैर्मिश्राः ।
न भवन्ति महीपाला दशासु तेषां सुतार्थयुताः ॥२८॥
न स्थूलोष्ठो न विषमवपुर्नातिरक्ताङ्गसन्धि–
र्मध्ये क्षामः शशधररुचिर्हस्तिनादः734 सुगन्धः ।
सन्दीप्ताक्षः समसितरदो जानुदेशाप्तपाणि–
मार्लव्योऽयं विलसति नृपः735 सप्ततिर्वत्सराणाम्736 ॥२९॥
वक्रंत्रयोदशमितानि दशाङ्गुलानि
दैर्घ्येण कर्णविवरं दशविस्तरेण ।
मालव्यसंज्ञमनुजः स भुनक्ति नूनं
लाटान् समालवससिन्धुसपारियात्रान् ॥३०॥
॥ इति मालव्ययोगफलम् ॥
दीर्घास्यः स्वच्छकान्तिर्बहुरुचिरचलः साहसावाप्त737कार्य–
श्चारुभ्रूर्नीलकेशश्चरणरणरतो मन्त्रविच्चोरनाथः ।
रक्त738श्यामोऽतिशूरो रिपुबलमथनः कम्बुकण्ठः प्रधानः
क्रूरो भर्त्ता नराणां द्विजगुरुविनतः क्षामसज्जानुजङ्घः ॥३१॥
खट्वाङ्गपाशवृषकार्मुकवज्रवीणा
रेखाङ्क739हस्तचरणश्च शताङ्गुलश्च ।
मन्त्राभिचारकुशलस्तुलया सहस्रं
मध्ये च तस्य कथितं मुखदैर्घ्यतुल्यम् ॥३२॥
विन्ध्याचलसह्यगिरीन् भुनक्ति सप्ततिसमा नगरदेशान् ।
शस्त्रानलकृतमृत्युः प्रयाति देवालयं रुचकः ॥३३॥
॥ इति रुचकः ॥
तनुद्विजास्यो द्रुतगः शशोऽयं शठोऽतिशूरो निभृतप्रतापः ।
वनाद्रिदुर्गेषु नदीषु सक्तः कृशोदयी नातिलघुः प्रसिद्धः ॥३४॥
सेनानाथो निखिलनिरतो दन्तुरश्चापि किञ्चित्
धातोर्वादे भवति निरतश्चञ्चलः कोशनेत्रः ।
स्त्रीसंसक्तः परधनगृहो मातृभक्तः सुजङ्घो
मध्ये क्षामो बहुविधमती रन्ध्रवेदी परेषाम् ॥३५॥
पर्यङ्कशङ्खहरिशस्त्रमृदङ्गमाला
वीणोपमा यदि करे चरणे च रेखाः ।
वर्षाणि सप्ततिमितानि करोति राज्यं
प्रत्यन्तिकः क्षितिपतिः कथितो मुनीन्द्रैः ॥३६॥
॥ इति शशः ॥
रक्तास्योन्नतनासिकः सुचरणो हंसः प्रसन्नेन्द्रियो
गौरः पीनक740पोलरक्तकरजो हंसस्वरः श्लेष्मलः741 ।
शङ्खाब्जाङ्कुशदाममत्स्ययुगलः खट्वाङ्गचापाङ्गदः742
चिह्रैः पादकराङ्कितो मधुनिभे नेत्रे च वृत्तं शिरः ॥३७॥
सलिलाशयेषु रमते स्त्रीषु न तृप्तिं प्रयाति कामार्तः ।
षोडशशतानि तुलितोऽङ्गुलानि दैर्घ्येण षण्णवतिः ॥३८॥
पातीह देशान् खलु शूरसेनान् गान्धारगङ्गायमुनान्तरालान् ।
जीवेदनूनां743 शतवर्षसंख्यां पश्चाद्वान्ते समुपैति नाशम् ॥३९॥
॥ इति हंसः॥
शार्दूलप्रतिमाननो द्विपगतिः पीनोरुवक्षःस्थलो
लम्बापीनसुवृत्तवाहुयुगलस्तत्तुल्यमानोच्छ्रयः ।
कामी कोमलसूक्ष्मरोमनिकरैः संरुद्धगण्डस्थलः
प्राज्ञः पङ्कजगर्भपाणिचरणः सत्वाधिको योगवित्॥४०॥
शङ्खासिकुञ्ज744रगदाकुसुमेषु केतुचक्राब्जलाङ्गलविचिह्नितपाणिपादः ।
यात्रागुरुद्विपमदप्रथमाम्बुसिक्तभृकुङ्कुमप्रतिमगन्धतनुः सुघोणः ॥४१॥
शास्त्रार्थविद्धृतियुतः समसंगतर्भूर्नागोपमो भवति चाथ745 निगूढगुह्यः ।
सत्कुक्षिधर्मनिरतः सुललाटशङ्खोधीरः स्थिरस्त्वसितकुञ्चितकेशभारः ।
स्वतन्त्रः सर्वकार्येषु स्वजन746प्रीणनक्षमी747 ।
भुज्यते विभवश्चास्य नित्यं मन्त्रिजनैः748 परैः ॥४३॥
भारस्तुलायां तुलितो यदि स्यात् श्रीमध्य749देशेष्वधिपस्तदासौ ।
यस्त्र्यादिपुष्टैः750 सहितः सभद्रः सर्वत्र राजा शरदामशीतिः ॥४४॥
॥ इति भद्रः ॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां पञ्चमहापुरुषलक्षणं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥
——————
अष्टात्रिंशोऽध्यायः ।
विस्तरतो निर्दिष्टाः क्षितिपतियोगा विचित्रसंस्थानाः ।
भङ्गश्च भवति तेषां यथा तथा सम्प्रवक्ष्यामि ॥१॥
कुजार्कजीवार्किभिरत्र नीचैर्द्वाभ्यां त्रिभिर्वैकतमे विलग्ने ।
निशाकरे वृश्चिकराशिसंस्थे विशीर्यते राजकरो हि योगः ॥२॥
अन्त्याष्टमादिभागे चरराश्यादिषु शशी यदा क्षीणः ।
एकेनापि न दृष्टो ग्रहेण भङ्गस्तदा नृपतेः ॥३॥
सर्वे क्रूराः केन्द्रे नीचारिगता न सौम्ययुतदृष्टाः।
शुभदा व्ययरिपुरन्ध्रे तदाऽपि भङ्गो भवेन्नृपतेः ॥४॥
लग्नं गणोत्तमोनं न खेचरैर्दृश्यते तदा भङ्गः ।
भवति हि नृपयोगानां दारिद्र्याय प्रजातस्य ॥५॥
घटोदये नीचगतैस्त्रिभिर्ग्रहैर्बृहस्पतौ सूर्ययुते च नीचगे ।
एकोऽपि नोच्चेतु751 शुभेन सङ्गताः प्रयान्ति नाशं शतशो नृपोद्भवाः॥६॥
शून्येषु केन्द्रेषु शुभैर्नवेन्दावस्तं गतैर्नीचमथ प्रयातैः ।
चतुर्ग्रहैर्वाऽपि गृहे रिपूणां प्रणश्यति क्ष्माधिपतेस्तु योगः ॥७॥
स्वांशे रवौ शीतकरे विनष्टे पापैश्च दृष्टे शुभदृष्टिहीने ।
कृत्वाऽपि राज्यं च वने मनुष्यः पश्चात्सुदुःखं लभते गताशः ॥८॥
शिशिरकिरणशत्रुर्लग्न752पश्चन्द्रदृष्टः
सहजरिपुमदस्था भानुभूपुत्रमन्दाः ।
शुभविरहितकेन्द्रैरस्तगैर्वाऽपि सौम्यैः
नृपतिजननयोगा यान्ति नाशं क्षणेन ॥९॥
पञ्चभिर्निम्नगैः खेटैरस्तं यातैरथापि वा ।
प्रयान्ति विलयं योगा भूभुजां ये प्रकीर्तिताः॥१०॥
उल्कायाः पतने चैव निर्घातव्यतिपातयोः ।
केतोश्च दर्शने चैव यान्ति नाशं नृपोद्भवाः ॥११॥
अन्यैः क्रूरोत्पातैत्रिशङ्कुतारा यदोदयं यान्ति ।
सद्यः प्रयान्ति विलयं नृपयोगा भानुजो यदि विलग्ने ॥१२॥
कर्तारो नृपतीनां गगनसदो युद्धकाङ्क्षिणो मलिनाः ।
रूक्षा जर्जरदेहा विघ्नं जनयन्ति राजयोगस्य ॥१३॥
परनीचं गते चन्द्रे क्षीणो योगो महीपतेः ।
नाशमायाति राजेव दैवज्ञप्रतिलोमगः ॥१४॥
तुलायां पद्मिनीबन्धुस्त्रिंशांशे दशमे स्थितः ।
हन्ति राज्यं यथा लोभः समस्तगुणसञ्चयम् ॥१५॥
जूकस्य दशमे भागे स्थितः कमलबोधनः ।
सहस्रं राजयोगानां मन्दमेव करोत्यसौ ॥१६॥
स्वत्रिकोणगृहं केचित् स्वोच्चं याताः स्वमन्दिरम् ।
अतिनीचे रविश्चैको न तेषां फलसंभवः ॥१७॥
गुरुमृगे विलग्नस्थो दुःखैः सन्तापयेन्नरम् ।
कामार्तमधनं वेश्या यद्वेदिन्दुर्न753 चेत्स्वभे ॥१८॥
एकेनापि शशाङ्को ग्रहेण केमद्रुमे यदि न दृष्टः ।
विघ्नयति राजयोगं मलिनाचारः प्रसूतः स्यात् ॥१९॥
भिक्षामटति त्र्याद्यैर्नीचर्क्षगतैः सुदुःखितो मलिनः ।
सकलमहीभृत्पुत्रः परिभूतो जायते निःस्वः ॥२०॥
अत्यरिभवनं प्राप्तैःपञ्चादिभिरस्तगैश्च गगनचरैः ।
नाशं प्रयाति राजा यदि रविचन्द्रौ न तुङ्गस्थौ ॥२१॥
सचिवो दानवेन्द्रस्य नीचांशे समवस्थितः ।
संप्राप्तमतुलं राज्यं नरैर्हापयते ध्रुवम् ॥२२॥
राजयोगाः समाख्यातास्तेषां भङ्गश्च दारुणः।
परीक्ष्य यत्नतः प्राज्ञः फलं ब्रूयाद्बलाबलात् ॥२३॥
कमलभवनबन्धुः कन्ययालिङ्गिताङ्ग–
स्त्वलिनि कुजसुरेड्यौ चन्द्रमा मेषसंस्थः ।
न च यदि परिशेषैर्दृश्यते स्यात्स भूपः
प्रचलितगजमेघच्छादिताशा नभोभ्रः ॥२४॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां राजयोगभङ्गो नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥
—————
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ।
अस्मिन्नायुर्दाये यस्माद्भ्रान्तः समस्तलोकोऽयम् ।
तस्मात्पूर्वागमतः कथयामि निराकुलीकृत्य ॥१॥
अशोद्भवं विलग्नात्पैण्ड्यं भानोर्निसर्गजं चन्द्रात्।
एतेषां यो बलवानेकतमस्तस्य कल्पयेदायुः ॥२॥
लग्नदिवाकरचन्द्रास्त्रयोऽपि बलरिक्ततां यदा यान्ति ।
परमायुषः स्वरांशं ददति खगा जीवशर्मोक्तम् ॥३॥
विलग्नादिकला भाज्या व्योमशून्ययमैः समाः ।
लभ्यन्तेऽर्कहताः754 शेषाः755 स्वमान756गुणितांशकाः757 ॥४॥
होरा सर्वबलोपेता राशितुल्या नियच्छति ।
वर्षाण्यन्यानि मासादिभागैस्त्रैराशिकात्पुनः ॥५॥
वर्गोत्तमे स्वभवने स्वद्रेक्काणे नवांशके।
द्विगुणं सम्प्रयच्छन्ति त्रिगुणं वक्रतुङ्गयोः ॥६॥
यदा तूपचयः सर्वः स्वराश्यादिस्थि758तैर्ग्रहैः759 ।
समस्तवर्गणा तत्र कर्तव्या शास्त्रचिन्तकैः ॥७॥
केन्द्रादिसंस्थिते खेटे सकलद्विगुणैककाः760।
शंसन्ति वर्गणां केचित् नं761 च चूडामणेर्मतम् ॥८॥
बहुताडन762सम्प्राप्तौ यां करोत्येकवर्गणाम् ।
वराहमिहिराचार्यः सा न दृष्टा पुरातनैः ॥९॥
रिपुराशौ त्रिभागोनमर्धोनं निम्नगास्तगाः ।
दायं ग्रहाः प्रयच्छन्ति नास्तगौ सितभानुजौ ॥१०॥
सर्वमर्धं तृतीयांशश्चतुर्थः पञ्चमस्तथा ।
षष्ठश्वांशक्षयं याति व्ययाद्वामं ग्रहे स्थिते ॥११॥
सौम्ये चार्धमितो याति नाशं बहुभिरेकगैः ।
एक एव बली हन्ति स्वायुषः सर्वदा ग्रहः ॥१२॥
एकोनविंशतिर्भानोः शशिनः पञ्चविंशतिः ।
तिथयः क्षितिपुत्रस्य द्वादशैव बुधस्य तु ॥१३॥
गुरोः पञ्चदशाब्दानि शुक्रस्याप्येकविंशतिः ।
विंशती रविपुत्रस्य पिण्डायुः स्वोच्चसंस्थितेः ॥१४॥
स्वोच्चसिद्धो763 ग्रहः शोध्यः षड्राश्यूनो भमण्डलात् ।
स्वपिण्डगुणितो भक्तो राशि764मानेन वत्सराः ॥१५॥
पूर्वोक्तं चिन्तयेत्सर्वं वक्रं मुक्त्वारिराशिषु ।
क्षयस्तत्र प्रकर्तव्यो नीचेऽर्धं वृद्धिरुच्चगे ॥१६॥
लग्नदायोंऽशतुल्यः स्यादन्तरे चानुपाततः ।
तत्पतौ बलसंपन्ने765 राशितुल्यं स्वभाधिपे ॥१७॥
लग्नांशलिप्तिका हत्वा प्रत्येकं विहगायुषा ।
भक्त्वा मण्डललिताभिर्लब्धं वर्षाद्विशो766धयेत् ॥१८॥
स्वायुषो लग्नगे क्रूरे लब्धस्यार्धं शुभेक्षिते ।
एवमेव प्रकर्तव्यं जीवशर्मोक्तचन्द्रजे ॥१९॥
विंशतिरेकं द्वितयं नव धृतिरिह विंशतिश्च पञ्चाशत् ।
वर्षाणामपि संख्याः सूर्यादीनां निसर्गभवाः ॥२०॥
मीनोदयेंशे नवमे767 पञ्चविंशतिलिप्तिके।
गवि सौम्यैः स्वतुङ्गस्थैः शेषैरायुः परं भवेत् ॥२१॥
कर्किलग्ने गुरुः सेन्दुः केन्द्रगौ बुधभार्गवौ ।
शेषैस्त्रिलाभ768पष्ठस्थैरमितायुर्भवेन्नरः ॥२२॥
द्विघ्नाः षष्टिर्निशाः पञ्च परमं नरदन्तिनाम् ।
द्वात्रिंशद्वाजिनामायुः छागादीनां तु षोडश ॥२३॥
खरोष्ट्रयोः पञ्चवर्ग एको769 पोह्यं वृषादिषु ।
शुनां तु द्वादश प्रोक्तं गणितं परमायुषम् ॥२४॥
तत्तत्परं प्रमाणेन हत्वैषामायुरादिशेत् ।
पथ्याशिनां शीलवतां नराणां
सद्वृत्तभाजां विजितेन्द्रियाणाम् ।
एवंविधानामिदमायुरत्र
चिन्त्यं770 सदा वृद्धमुनिप्रणीतम् ॥२५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां आयुर्दायो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
—————
चत्वारिंशोऽध्यायः ।
आयुषो येन यद्दत्तं सा दशा तस्य कीर्त्तिता ।
स्वदोषगुणयोगेन स्वदशा सुफलप्रदा ॥१॥
दिवारात्रिप्रसूतस्य रविशुक्रपुरःसराः ।
मणित्यस्त्वाह तज्ज्ञानं फलसाम्ये771 न तद्दशाः ॥२॥
लग्नार्कशीतरश्मीनां यो बली तस्य चाग्रतः ।
तत्केन्द्रादिस्थितानां च दशाः स्युः सत्यभाषिते ॥३॥
होरा दिनेशशशिनां प्रबलो भवेद्य–
स्तत्कण्टकादिषु गताः कथिता दशेशाः ।
पूर्वा दशाऽतिबलिनः सदृशेन्दवृद्धेः
साम्ये भवेच्च शरदां प्रथमोदितस्य ॥४॥
लग्नार्कशीतरश्मीनां यदि पूर्णबलं772 भवेत् ।
तदा सत्यमतं श्रेष्ठमन्यदा त्वपरा दशा ॥५॥
स्वोच्चस्वराशिनिजभागसुहृद्गृहस्थाः
सम्पूर्णवीर्यरुचिरा बलिनः स्वकाले ।
मित्रोच्चभागसहिताः शुभदृष्टियुक्ताः
श्रेष्ठां दशां विदधति स्ववयःसु खेटाः ॥६॥
नीचशत्रुगृहं प्राप्ताः शत्रुनिम्नांशसूर्यगाः ।
विवर्णाः पापसंबन्धा दशां कुर्युरशोभनाम् ॥७॥
तुङ्गाच्च्युतस्य हि दशा सुहृदुच्चांशेऽवरोहिणी मध्या।
नीचाद्रिपुनीचांशे ग्रहस्य चारोहिणी कष्टा ॥८॥
सविता दशाफलानां पाचयिता चन्द्रमाः प्रपोषयिता ।
राशिविशेषेणेन्दोरतः फलोक्तिर्दशारम्भे ॥९॥
मूलदशायामिन्दोः कन्यासु प्रेक्षिते चन्द्रे ।
पण्याङ्गनाभिरनिशं समागमं प्राहुरिह यवनाः ॥१०॥
सौम्यस्त्रीधनलाभः कुलीरगेन्दौ भवेद्दशारम्भे ।
कन्यां दूषयति नरः कुजभवने हन्ति वा युवतिम् ॥११॥
विद्याशास्त्रज्ञानं मित्रप्राप्तिं करोति बुधराशौ ।
शौक्रेऽन्नपानमतुलं सौख्यं चन्द्रे773 विनाशं च ॥१२॥
सुखधनमानाज्ञाप्तिं जीवगृहे दिशति शीतांशुः ।
परिणतवयसमरूपां सौरगृहे वर्धकीं774 वाऽपि ॥१३॥
दुर्गारण्यनिवासं कर्षणगृहकर्मसेतुकर्मान्तम्
सिंहे शशी प्रकुरुते स्त्रीपुत्रविवादमरतिं च ॥१४॥
बन्ध्वर्थक्षयरोगाः कुजसौराभ्यां बुधेन पाण्डित्यम् ।
दृष्टे तद्योनिसमैः शेषैश्चन्द्रे निशाफलैर्योगः ॥१५॥
पाकस्वामिनि लग्ने सुहृदां वर्गेऽथवाऽपि सौम्यानाम् ।
श्रेष्ठदशायां सूति775र्लग्नादुपचयगृहस्थै776र्वा ॥१६॥
मित्रोच्चोपचयस्थाने त्रिकोणे सप्तमे तथा ।
पाकेश्वरात् स्थितश्चन्द्रः कुरुते स्वफलां777 दशाम् ॥१७॥
विपरीते स्थिते778 चन्द्रे दशादौ पर्यवस्थिते ।
स्वोच्चगस्यापि खेटस्य दशा न प्रतिपूजिता ॥१८॥
शत्रुनीचनवांशेषु शस्ते राशौ ग्रहस्य च ।
दशा मिश्रफला रिक्ता विबलस्य दशा मता ॥१९॥
द्रेक्काणे779 च दशा मूर्तेः पूजिता मध्यमाधमा ।
चरे मिश्र780प्रतीपा च स्थिरे पापेष्टमध्यमाः ॥२०॥
चन्द्रावनेयसोमजसितजीवदिवाकरार्किहोराणाम् ।
क्रमशो दशापरिग्रह इष्टो नैसर्गिकश्चैव ॥२१॥
स्वोच्चस्वकालबलिनः सम्पूर्णबलस्य वा निसर्गभवा ।
उत्तम781शुभफलदासौ782 ग्रहस्य नित्यं दशा भवति ॥२२॥
स्वराशौ स्वत्रिकोणे च स्वांशे च शुभमध्यमा ।
स्वोच्चाभिलाषिणश्चैव मित्रराश्यादिसंस्थिते ॥२३॥
शुभाधमदशा ज्ञेया विपरीतमतस्थिते ।
अनेनैव विधानेन विज्ञेया पापदा दशा ॥२४॥
भानुदशायां लभते नवौष783धाद्ध्वविषदस्थ्यनैरर्थ्यात् ।
गिरिदन्तचर्मवह्निक्रौर्यनरेन्द्राहवाद्यैश्च ॥२५॥
नृपतेरर्थावप्तिं784 धैर्यं भूयस्तथोयमं तैक्ष्ण्यम् ।
ख्यातिं प्रतापवृद्धिं श्रेष्ठत्वं भूपतित्वं च ॥२६॥
भृत्यार्थचोरचक्षुः शस्त्राग्म्युदकक्षितीवराद्वाधाः ।
सुतपत्नीबन्धुजनैर्निपीडितः स्याच्च पापरतिः ॥२७॥
क्षुत्तृष्णार्त्तिः शोको त्हृत्पीडा पैत्तिकास्तथा रोगाः ।
गात्रच्छेदो भवति हि सूर्यदशायामनिष्टायाम् ॥२८॥
चन्द्रदशायां वित्तं स्त्रीसंगममार्दवात्पथि विहारात् ।
जलतुहिनक्षीररसैरिक्षुविकारैस्तथा क्रीडा ॥२९॥
द्विजमत्राणां लब्धिः पुष्पाम्बरसेवनं मधुरता च ।
अर्थविनाशमकस्मात् भूपसदो (?) द्वेष्यतां लभते ॥३०॥
तैष्ण्यादवाप्तसिद्धिः पूजां प्राप्नोति गुरुनृपाभ्यां च ।
मेधावृतिपुष्टिकरी चन्द्रदशा शोभना नित्यम् ॥३१॥
कुरुते भयं कुलस्य च चन्द्रदशा स्वकुलविग्रहं कष्टम् ।
निद्रालस्यं स्त्रीणां भयजननी शोकदा रतिदा ॥३२॥
भौमदशायां लभते नृपाग्निचोरप्रयोगरिपुमर्दैः।
व्यालविषशस्त्रबन्धनसुतैक्ष्ण्यकूटैश्च धनलाभम् ॥३३॥
क्षित्याजाविकतान्त्रिक785स्वर्णावश्यादिभिस्तथा द्यूतैः ।
आसवकषायकटुकै रसैश्च धनधान्यभाग्भवति ॥३४॥
मित्रकलत्रविरोधो भ्रातृसुतैर्विग्रहश्च तृष्णा च ।
मूर्च्छा शोणितदोषः शाखाच्छेदो व्रणश्चापि ॥३५॥
परदाररतिर्द्वेष्यो गुरुसत्यानामधर्मनिरतश्च ।
पित्तकृतैरपि दोषैरभिभूतो786 मानवो भवति ॥३६॥
सौम्यदशायां प्राप्ते787 मित्रादाढ्याद्धनस्य सम्प्राप्तिः ।
दीक्षितनृपतेर्द्यूताद्वणिक्जनाच्चापि सम्भवति ॥३७॥
वेसरमहीसुवर्णं शुक्तिद्रव्यं यशः प्रशंसा च ।
दूत्यं सौख्यमतुल्यं सौभाग्यं मतिचयख्यातिः ॥३८॥
धर्मक्रियासु सिद्धिर्हास्यरतिः शत्रुसंक्षयो भवति ।
गणितालेख्यलिपीनां कौतुकभागी सदा पुरुषः ॥३९॥
पीडां धातुत्रितयात् पारुष्यं बन्धनं तथोद्वेगम् ।
मानसशोकं वाऽपि बुधस्य कष्टा दशा कुरुते ॥४०॥
त्रिदशपतिगुरुदशायां मन्त्री नृपनृत्यनीतिभिर्वित्तम् ।
मानगुणानां लब्धिरतिप्रतापः सुहृद्विवृद्धिश्च ॥४१॥
कान्तासुवर्णवेसरगजाश्वभोगी सदा पुरुषः ।
माङ्गल्यपौष्टिकानां लाभो788 द्विषतां विनाशश्च ॥४२॥
लाभो भवति नराणां प्रीतिः सद्भूमिपैः सार्धम् ।
जनताया नृपवक्रात्पण्याग्राद्गुरुजनाच्च धनलाभः ॥४३॥
व्यजनातपत्रसुमनो वस्त्रध्वजपेयभक्ष789णादीनाम् ।
गात्रश्वयपृथुशोकं पङ्गुत्वं गुल्मकर्णरोगांश्च ।
पुंस्त्वविनाशं मेदःक्षयं नृपतितो भयं समाप्नोति ॥४४॥
शुक्रदशायां विजयः क्ष्माभवनविलासशयनपत्नीनाम् ।
माल्याच्छादनभोजनयशःप्रमोदो निधिप्राप्तिः ॥४५॥
गेयरतिः स्त्रीसङ्गो नृपतेः कृषितो धनस्य सम्प्राप्तिः ।
ज्ञानेष्टसौख्यसुहृदां मन्मथयोग्योपकरणानाम् ॥४६॥
कुलगुणवृद्धैर्वादो यानासनसंभवानि पापानि ।
स्त्रीनृपतिकृतावश्यं लोकविरुद्धैः सहप्रीतिः ॥४७॥
सौरेर्दशां प्रपन्नः प्राप्नोति पुमान् खरोष्ट्रमहिषाद्यान् ।
कुलटां जरदङ्गीं वा कुलुत्थतिलकोद्रवादींश्च ॥४८॥
बृन्दग्रामपुराणामधिकारभवं च790 सत्कारम् ।
लोहत्रपुकादीनां स्वकीयपक्षस्थिरास्पदं चैव ॥४९॥
वाहननाशोद्वेगस्त्वरतिः स्त्रीस्वजनविप्रयोगश्च ।
युद्धेष्वपजयदोषो मद्यद्यूतोद्भवो मरुत्कोपः ॥५०॥
पुण्येष्वसिद्धिकलहं791 बन्धनतन्द्रीश्रमं तथाव्यङ्गम्।
भृत्यापत्यविरोधो भवति च कष्टा यदा दशा सौरेः ॥५१॥
सौम्ये पापफलं प्रोक्तं सामान्यं स्वदशास्विदम् ।
विशेषेण प्रवक्ष्यामि प्रत्येकं फलभेदतः ॥५२॥
स्वोच्चनीचत्रिकोणर्क्षंकेन्द्रं शत्रुगृहं तथा ।
पञ्चप्रकारसंयुक्ता दशा भानोः प्रकीर्तिताः ॥५३॥
राज्यं ददाति विपुलं दशा रखेलग्नसंस्थितस्य नृणाम् ।
केन्द्रस्थितस्य दद्यात्कटिगलनेत्रप्रकोपमरिगस्य ॥५४॥
नीचस्य दशा भानोरक्ष्णोर्नाशं ज्वरं शिरोरोगम्।
बन्धनमन्याश्च रुजः कुष्ठामयदर्शनं चिह्नम् ॥५५॥
स्वोच्चप्राप्तस्य दशा ददाति राज्यं सहस्रकिरणस्य ।
तुरगातपत्रचामरकरीन्द्रसंवर्द्धितं सम्यक् ॥५६॥
सवितुर्दशा च पुंसो विदधाति स्वरा792 त्रिकोणसंस्थस्य ।
उत्तमविषयपतित्वं विद्ध्वस्ताशेषदुःखस्य ॥५७॥
शत्रुगृहेऽर्कदशायां नयनविनाशो भवेच्च कुब्जत्वम् ।
ज्वालावक्रजरोगा भवन्ति कृमयः793 परिभवाश्च ॥५८॥
अष्टमगतस्य भानोर्दशा क्षयं नयति सर्वगात्रं च ।
भ्रमयति देशाद्देशं प्रमापयत्यपि च विक्लिष्टम् ॥५९॥
सामान्यतश्च षोढा चन्द्रदशा भिद्यते समासेन।
खोच्चसुहृच्छत्रुगृहे नीचे क्षीणे प्रपूर्णे च ॥६०॥
तत्रोच्चदशा राज्यं नीचदशा मरणमरिदशा बन्धम् ।
कथयति नलिनीशत्रोर्मित्रदशा स्वस्वजनसम्प्राप्तिम् ॥६१॥
क्षीणेन्दुदशायोगे चिह्नान्येतानि लक्षयेद्विद्वान् ।
उदरामयज्वरशिरो नयनोत्कोपप्रतिश्रयाच्चापि ॥६२॥
बलिनः परिपूर्णस्य च शशिनः कुरुते सदा दशा पुंसाम् ।
दयितासहस्रपरिवृतमन्तःपुरमुत्तमस्त्रीकम् ॥६३॥
भवति नरस्य भ्रंशो विषयस्यान्तःपुरस्य भृत्यानाम् ।
अष्टमचन्द्रदशायां म्रियते च स्वजनपरिभूतः ॥६४॥
यन्त्रतृणकाष्ठगोमयवंशकरञ्जीफलोदकाजीवी ।
भवति कदन्नकुचेली नृपोऽपि भृतकोऽरिगृहदशायाम् ॥६५॥
लग्नगृहगस्य हि दशा मण्डललाभं तथोच्चगस्यापि ।
केन्द्रस्थितस्य कुरुते धनवाहनदेशसम्प्राप्तिम् ॥६६॥
कष्टदशा794 व्यसनकरी मरणं च करोति नैधनस्थदशा ।
अस्तमितग्रहपाको बन्धनमात्रेण पीडयति ॥६७॥
वक्रोपगस्य हि दशा भ्रमयति च कुलालचक्रवत्पुरुषम् ।
व्यसनानि795 रिपुविरोधं करोति पापस्य न शुभस्य ॥६८॥
रिक्ताति796रिक्तनिम्नातिनिम्नरिपुहृतिरिपुगृहदशासु ।
पृथ्वीपतिरपि भूत्वा स्वभृत्यभृत्यो भवेत्पुरुषः ॥६९॥
देशत्यागो व्याधिशोत्थानं मुहुर्मुहुः कलहः ।
बन्धनमरातिजनितं रिपुराशिगतस्य हि दशायाम् ॥७०॥
महितकरिगलितमदजलसेकक्ष्मापीठवारितरजस्कः ।
राजा कष्टसहायो रिक्तदशायां ध्रुवं भ्रमति ॥७१॥
अङ्गप्रत्यङ्गानां छेदं विदधाति षष्ठशत्रुदशा।
कोणद्यूनारिदशा निधनारिदशा शिरश्छेदम् ॥७२॥
रिपुभयविदेशगमनं बन्धनरोगादिपीडनं भवति ।
नीचस्थग्रहपाके राजाभिभवो ध्रुवं पुंसाम् ॥७३॥
चिन्ता स्वप्नानुभवैः परिणमति फलं विहीनवीर्यस्य ।
पञ्चमहापुरुषोक्ताध्यायांस्तांस्तान्नियोजयेदत्र ॥७४॥
आदौ दशासु फलदः शीर्षोदयराशिसस्थितो विहगः ।
उभयोदये च मध्ये स्वान्त्ये पृष्ठोदये च नीचर्क्षे ॥७५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां मूलदशाफलं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
——————
एकचत्वारिंशोऽध्यायः ।
अर्धमेकस्थितो भाग त्रिभागं सुतधर्मयोः ।
सप्तमे सप्तमं भागं चतुर्थं चतुरश्रयोः797 ॥१॥
मूलं दशाधिनाथस्य कृत्वांशं स्वगुणैर्ग्रहः ।
करोत्यन्तर्दशां सत्यां बली हरति भागशः798॥२॥
शुभस्य शुभदः पूर्णः क्रूरस्याशुभदो भवेत् ।
केन्द्रादिविधिना चान्ये केचित्पाकक्रमेण तु ॥३॥
सत्योक्तं तूच्यते कश्चिद्ददाति बलवान् ग्रहः ।
नित्यं पाठक्रमात्कार्यः शेषास्तु परिपाकदाः ॥४॥
भागाः सदृशाः सहिता दशाब्दपिण्डस्य भागहारोऽयम् ।
प्रत्यंशताडितः स्यात् पृथक् पृथक्त्व799न्तरदशाः स्युः ॥५॥
एकर्क्षसंस्थितदशा प्रदिशति बन्धं स्वनाशं वा ।
जनयति कण्टकसहिता त्रिकोणसंस्थस्य सुखमतुलम् ॥६॥
एकद्वित्रिचतुर्णांनक्षत्रे रिपुदशा ग्रहाणां स्यात् ।
व्याधिक्लेशविवादान् नृपतेश्च भयं तदा800जनयेत् ॥७॥
दारमरणं च जनयति सप्तमगान्तर्दशा प्रणाशं वा ।
शत्रोर्दासीकरणं परपुरुषेणोपभोगं वा ॥८॥
अन्तर्दशा ग्रहाणामष्टमधाग्नि प्रमापयेत्पुरुषम् ।
कुरुते च धनविनाशं शत्रुगता बन्धनं च विध्वंसम् ॥९॥
अन्तर्दशा यदा (स्याद्) द्वित्रिचतुर्णामेकराशिसंस्थानाम् ।
बन्धनविनाशदैन्ये801 विदधात्यशुभं ग्रहाणां तु ॥१०॥
चतुर्थस्थानसंस्थस्य ग्रहस्यान्तर्दशा भवेत् ।
मित्रारोग्यकरं802 नित्यं सौख्यमानविवर्धनम्803 ॥११॥
शमयति रिपुप्रतापं नीरोगत्वं करोति धनलाभम् ।
भानुदशायां चन्द्रः प्रविशंस्तन्नास्ति यन्न शुभम् ॥१२॥
विद्रुमसुवर्णमणयः सङ्ग्रामजयः प्रचण्डता पुंसः ।
असृजो दशाप्रवेशे सूर्यदशायां भवति सौख्यम् ॥१३॥
दद्रुविचर्चिकाद्यैः पाम्ना कुठैश्च गर्हितशरीरः ।
तरणिदशायां प्रविशति बुधो यदा स्यादरेर्वृद्धिः ॥१४॥
व्याधिभिररिभिर्व्यसनैः पापैश्च विमुच्यते तथाऽलक्ष्म्या ।
अनुयाति धर्मपदवीं जीवस्यान्तर्दशा यदा भानोः ॥१५॥
शिरसो रुक् गलरोगश्छिद्रं सहसा ज्वरः शूलम् ।
तपनदशायां शुक्रे देशत्यागो भवेदरिभिः ॥१६॥
आदित्यस्य दशायां शनैश्चरान्तर्दशा यदा भवति ।
नृपपरिभूतो दीनो विपक्षसार्थेन हतशक्तिः ॥१७॥
क्षयरोगभयं शौर्यं नृपप्रभावं सदा विभवम् ।
चन्द्रदशायां पुंसो भानुः कुरुतेऽर्थलाभं च ॥१८॥
पित्तासृग्वह्निभयं क्लेशं रोगं करोति वक्रदशा ।
चन्द्रदशायां च भयं प्रमोषणं804 चैव चोरैश्च ॥१९॥
चन्द्रदशायां ज्ञदशाप्रवेशने चिह्नमुत्तमो लाभः ।
गजवाजिनां धनानां सम्प्राप्तिः सौख्यमतुलं च ॥२०॥
चन्द्रदशायां प्राप्ता त्रिदशेड्यदशा करोति धनलाभम् ।
यत्नोपात्तमकस्माद्वस्त्रालङ्कारविविधहस्त्यश्वम् ॥२१॥
तुहिनकरस्य दशायां प्रविशत्यन्तर्दशा यदाऽऽस्फुजितः ।
जलयानहारभूषणबहुपत्नीभिः समागमं कुरुते ॥२२॥
स्वजनायासवियोगं रोगाभिभवं तथा महाव्यसनम् ।
चन्द्रदशायां सौरिः करोति निःसंशयं पुंसाम् ॥२३॥
चण्डं साहसनिरतं नरेन्द्रसंग्रामपूजितं धात्र्याम्805।
विविधधनागमयुक्तं भौमदशायां करोति रविः ॥२४॥
विविधधनागमलाभं सौख्यं बहुमित्रसम्प्राप्तिम् ।
वक्रदशायां चन्द्रः करोति मुक्तामणिप्रभृतीन् ॥२५॥
दिशति भयं शत्रुभ्यो वाजिगजानां प्रमोषणं चोरैः ।
दाहं च यदा प्रविशति भौमदशायां बुधस्य दशा ॥२६॥
वक्रदशायां च गुरोः सुचरितकरणेन शुभधर्मा।
नृपतिर्विशुद्धचेताः पुण्यानि करोत्यनन्तानि ॥२७॥
रुधिरदशायां शुक्रप्रवेशने भवति सङ्गरभयार्त्तिः ।
व्याधिव्यसनायासैर्धनापहारः प्रवासैश्च ॥२८॥
व्यसनानि व्यसनानां भवन्त्युपर्युपरि जनविनाशश्च ।
वक्रदशायां रविजे प्रविशति चान्तर्दशायां हि ॥२९॥
इन्दुसुतस्य दशाया प्रविशति सूर्यो यदा तदा चिह्नम् ।
कनकाश्वविद्रुमगजान् विदधाति श्रियमकस्माच्च ॥३०॥
प्रविशन्ती चन्द्रदशा बुधस्य कण्डूं करोति कुष्ठं च ।
क्षयरोगमङ्गभङ्गं गजाद्भयं वाहनविनाशम् ॥३१॥
रिपुरोगपापमुक्तः पुण्यानि करोति भूपतेर्मन्त्री ।
जीवे चरति दशायां बुधस्य पुरुषो भवन्नियतम् ॥३२॥
मस्तकशूल806निरोधैः नानाक्लेशैश्च युज्यते जन्तुः ।
इन्दुसुतस्य दशायां भौमस्यान्तर्दशा यदा भवति ॥३३॥
गुरुविबुधातिथिभक्तो वस्त्रालङ्कारपुष्पगन्धरुचिः।
इन्दुसुतस्य दशायां शुक्रस्यान्तर्दशा यदा भवति ॥३४॥
षण्डमुखकामसेवी विलुप्तधर्मार्थभोगसुतवित्तः ।
भवति नरोऽत्र दशायां बुधस्य मन्दो यदा चरति ॥३५॥
रिपुभयकलहैर्मुक्तः प्रयाति गुरुतां नरेन्द्रस्य ।
विक्रमसाहससौख्यैर्जीवदशायां रवौ चरति ॥३६॥
पत्नीसहस्रभर्ता जितरोगरिपुः परोन्नतिं लभते ।
प्रकटयति राजचिह्नं चन्द्रदशा गुरुदशायां हि ॥३७॥
तीक्ष्णः परोपतापी शूरो रणलब्धकीर्त्तिधनः ।
सौख्यमनन्तं लभते जीवदशायां कुजे चरति ॥३८॥
वेश्यामद्यव्यसनैः परिभूतो भवति807 निर्धनः सोऽपि ।
सौम्ये जीवदशायां विलुप्तधर्मो भवेत्पुरुषः ॥३९॥
व्याधिविनाशं सौख्यं मित्रैः सह सङ्गतिं तथा पूजाम् ।
मातापित्रोर्भक्तिं जीवदशायां बुधे808 लभते ॥४०॥
रिपुभयविनाशदुःखैरभिभूतो ब्राह्मणोपजीवी च ।
जीवदशायां शुक्रे प्रविशति नित्यं भवेत्पुरुषः ॥४१॥
वेश्यामयद्यूतैरभिभूतो महिषखरयुक्तः ।
सौरे जीवदशायां विलुप्तधर्मो भवेत्पुरुषः ॥४२॥
गण्डोदराक्षिरोगैः क्षितिपतितो बन्धनादिभिस्तप्तः ।
शुक्रदशायां सूर्ये विचरति नूनं भवेत्पुरुषः ॥४३॥
अन्तर्दशा दशायां सितस्य शशिनो यदा भवति चिह्नम् ।
नखदशनशिरोरोगैः सह भवति च कामिलारोगः ॥४४॥
पित्तासृक्कृतरोगो भूलाभः संश्रयो नृपतितश्च ।
शुक्रदशायां भौमे मन्दोत्साहः पुमान् भवति ॥४५॥
शुक्रदशायां पुंसां बुधस्य चान्तर्दशा यदा भवति ।
युवतिकृतं धनलाभं सौख्यं च मनोरथं809 लभते ॥४६॥
अन्तर्दशा दशायां भृगोर्गुरोर्धर्मशीलसम्पत्तिम् ।
विदधाति विषयराज्यं पुंसां धनरत्नमतिसौख्यम् ॥४७॥
वृद्धस्त्रीभिः क्रीडां पुरनगरगणाधिपत्यमरिनाशम् ।
शुक्रदशायां सौरिः करोति बहुमित्रसंयोगम् ॥४८॥
धनपुत्रदारनाशं भयमतुलं सन्दधाति पुरुषस्य।
रविपुत्रस्य दशायां सूर्यस्यान्तर्दशा न सन्देहः ॥४९॥
स्त्रीमरणं हरणं वा बन्धुवियोगं पुनः पुनः कलहम् ।
अन्तर्दशा दशायां शनेः शशाङ्कस्य विदधाति ॥५०॥
देशभ्रंशं व्याधिं दुःखानि करोत्यनेकरूपाणि ।
अन्तर्दशा दशायां रविजस्य महीसुतस्य यदा ॥५१॥
सौभाग्यसौख्यविजयप्रमोदसत्कारमानधनलाभम् ।
सौरिदशायां सौम्यो विदधात्यन्तर्दशाप्राप्तः ॥५२॥
अनुयाति शिष्टपदवीं ग्रामादिकलत्रसौख्यसंम्पन्नः810 ।
रवितनयस्य दशायां प्रविशति जीवे सदा पुरुषः ॥५३॥
वर्धयति मित्रपक्षं भिनत्ति शोकान्यशः प्रकाशयति ।
सौरदशायां शुक्रः पत्नीधनविजयलाभकरः ॥५४॥
नीचोच्चादिविभेदेन शत्रुमित्रबलाबलम् ।
अन्तर्दशासु मतिमान् चिन्तयेच्च प्रयत्नतः ॥५५॥
अन्तर्दशा शुभायां मूलदशायां शुभा यदा भवति ।
भवति तदा बहुसौख्यं धनलब्धिरतीव पुरुषाणाम् ॥५६॥
रविकिरणमुषितदीप्तेर्दशा ग्रहस्य मलिनां तनुं कृत्वा ।
मानयशोर्थविलासप्रतापरूपोद्यमान् हन्ति ॥५७॥
होरा जन्माधिपतेः811 शत्रुदशायां नरोऽतिमूढ812मतिः ।
राज्याच्च्युतो विपक्षैरभिभूतोऽन्यं समाश्रयति ॥५८॥
व्योमलग्नप्रपन्नस्य दशायां राज्यमाप्नुयात् ।
नरेन्द्राणां समायोगे सुवीर्यस्याथवा पुनः ॥५९॥
लग्ने जीवः सितबुधयुतः सप्तमस्थोऽर्कपुत्रः
कर्मप्राप्तो दहनकिरणो भोगिनां जन्म कुर्युः ।
केन्द्रे सौम्या न शुभगृहगा यत्र पापाभिधाना
यद्येवं स्याच्छबरनृपतिर्जायते वित्तवांश्च ॥६०॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अन्तर्दशाफलो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
——————
द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ।
क्रूरदशायां क्रूरः प्रविश्य चान्तर्दशां यदा कुरुते ।
पुंसः813 स्यात्सन्देहस्तदाऽरियोगः सदैव महान् ॥१॥
क्षितितनयस्य दशायां रविजस्यान्तर्दशा यदा विशति ।
बहुकालजीविनामपि मरणं निःसंशयं कुरुते ॥२॥
क्ररराशौ स्थितः पापः षष्ठे स्यान्निधनेऽपि वा ।
तत्स्थितेनारिणा दृष्टः स्वपाके मृत्युदो ग्रहः ॥३॥
विलग्नाधिपतेः शत्रुर्लग्नस्यान्तर्दशां गतः ।
करोत्यकस्मान्मरणं सत्याचार्यः814 प्रभाषते ॥४॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां दशारिष्टफलं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
——————
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।
प्रवेशे बलवान् खेटः शुभैर्वा815 सुनिरीक्षितः ।
सौम्याधिमित्रवर्गस्थो मृत्यवे न भवेत्तदा ॥१॥
मूलं816 दशाधिनाथस्य विबलस्य दशा यदा ।
बलिनः स्यात्तदा भङ्गो दशारिष्टस्य तद्भुवम् ॥२॥
युद्धे च विजयी तस्मिन् ग्रहयोगे शुभे231 यदि ।
दशायां न भवेत्कष्टं स्वोच्चादिषु च संस्थितः ॥३॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां दशारिष्टभङ्गो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
——————
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ।
अत्युग्रमतिद्रव्यं महान्तमपि भास्करः स्वतुङ्गस्थः ।
मृष्टाशनाम्बराढ्यं सुभूषणं शीतगुः कुरुते ॥१॥
तेजस्विनं कुतनयो दुष्प्रसहं गर्वितं प्रवासरतम् ।
मेधाविनं कुलाढ्यं सुनिपुणवाक्यं बुधः स्वोच्चे ॥२॥
विख्यातं गुरुराढ्यं विद्वांसं817 सत्कृतं कुशलम् ।
स्वोच्चे भृगोश्च तनयो विलासहास्यप्रगीतनृत्तरतम् ॥३॥
स्वोच्चस्थो रवितनयो नृपलब्धनियोगमभिजनयेत् ।
ग्रामपुराधिपतित्वमरण्यधान्यं कुनारिलाभं च ॥४॥
भानुस्त्रिकोणसंस्थो धनवन्तं मुख्यमतिनिपुणम् ।
भोक्तारं गुणवन्तं818 शशी प्रसूतौ त्रिकोणगः पुरुषम् ॥५॥
वक्रोऽपि तस्करपतिं शूरं खलु निर्दयं चापि ।
सौम्यो विनोदशीलं जयिनं च स्वत्रिकोणगः कुरुते ॥६॥
जीवः पुनर्हितकरं महत्तरं नयविदं सुखोपेतम् ।
दानवपूज्यो जनयेद्ग्रामपुरवरिष्ठमाढ्यमतिसुभगम् ॥७॥
आत्मत्रिकोण आर्किः धनतृप्तं कुलयुतं शूरम् ।
तीक्ष्णमयूखः कुरुते महोग्रमत्युच्चकर्माणम् ॥८॥
धर्मरतं हिमरश्मिर्मनस्विनं रूपवन्तमात्मर्क्षे।
आढ्यं प्रचण्डमचलं भौमः कुरुते स्वराशिगः पुरुषम् ॥९॥
शशितनयोऽपि विधत्ते वल्गुकथं पण्डितं वाऽपि ।
काव्यश्रुतिज्ञमाढ्यं गुरुचेष्टं819 वाक्पतिः स्वराशिस्थः ॥१०॥
दानवपूज्यः कुरुते कृषीवलं स्फीतवित्तं च ।
कुरुते शनैश्चरोऽपि च मान्यमदुःखं स्वराशिगः पुरुषम् ॥११॥
मित्रगृहेऽर्कः ख्यातं स्थिरसौहृदमर्थदातारम् ।
मित्रर्क्षगः शशाङ्को यतस्ततो लब्धसौख्यबहुमानम् ॥१२॥
अङ्गारकोऽपि कुरुते सुहृद्धनारक्षणासक्तम् ।
शशिजः सुहृद्गृहगतः करोति चातुर्यहास्यधनवन्तम् ॥१३॥
वचसामधिपः पूज्यं सतां च सुविशिष्टकर्मणम् ।
मित्रगृहे भृगुतनयः सुहृत्प्रियं दयित820वित्तमतिशूरम् ॥१४॥
भास्करसूनुः कुरुते परान्नभोजिनमधर्मकर्मरतम् ।
नीचे सविता कुरुते प्रेष्यं बान्धवजनावधूतं च ॥१५॥
हिमरश्मिरल्पपुण्यं रोगिणमपि दुर्भगं लोके ।
नीचस्थः क्षितितनयोऽनर्थव्यसनोपतप्तमतिनीचम् ॥१६॥
कुरुते हिमकरपुत्रः क्षुद्रं स्वज्ञातिबन्धुवैरं821 च ।
नीचे गुरुः प्रकुरुते मलिनं प्राप्तावमानमतिदीनम् ॥१७॥
असुरदयितोऽस्वतन्त्रं प्रणष्टदारं विषमशीलम् ।
कोणो विपन्नशीलं विगर्हिताचारमर्थरहितं च ॥१८॥
कुरुते शत्रुगृहेऽर्को निःस्वं विषयप्रपीडितं चापि ।
तुहिनमयूखः कुरुते हृद्रोगिणमरिगृहे नरं सततम् ॥१९॥
बन्धा822रिभङ्गभाजं दीनं विकलं च दुर्भगं भौमः ।
अज्ञान823मतिविहीनं बुधोऽरिभे नैकदुःखमतिदीनम् ॥२०॥
क्लीबं गुरुर्विधत्ते नयहीनं824 धनविहीनं च ।
शुक्रोऽरिगृहे भृतकं कुतन्त्रमतिदुःखितं जनयेत् ॥२१॥
भास्करसुतोऽपि कुरुते मलिनं व्याध्यादिशोकसन्तप्तम् ।
स्वेषूच्चभागेषु फलं समग्रं स्वक्षेत्रतुल्यं भवनांशकेषु।
नीचारिभागेषु जघन्यमेव मध्यं फलं मित्रगृहांशकेषु ॥२२॥
द्वावुच्चगौ जनयतो धनिनं कीर्त्यान्वितं सदा पुरुषम् ।
नगरारक्षकमाढ्यं चमूपतिं त्रयः प्रथितम् ॥२३॥
आढ्यं825 नृपात्तकीर्तिं चत्वारो राजधर्मसंयुक्तम् ।
ख्यातं नृपतीष्ट826तमं पञ्चानेकविधवृद्धकोशं च ॥२४॥
षड् ग्रहाः स्वोच्चगाः कुर्युर्नृपतिं पुरुषं सदा ।
प्रदानमान827सम्पन्नं बहुवाहनमण्डितम् ॥२५॥
स्वोच्चं याताः सर्वे समुद्रपर्यन्तमेदिनीनाथम् ।
जनयन्ति चक्रवर्तिनमवनीशं जातकं चिन्त्यम् ॥२६॥
द्वाभ्यां त्रिकोणसंस्थाभ्यां कुटुम्बी कुलवर्द्धनः ।
श्रेष्ठः प्रख्यातकीर्तिश्च ग्रहाभ्यां भुवि जायते ॥२७॥
महाधनस्त्रिभिश्चैव गणग्रामाधिनायकः ।
आढ्यो नृपाप्तसत्कारश्चतुर्भिर्लोकसंमतः ॥२८॥
आरक्षकः प्रधानः सेनापुरनगरभूपकोशानाम् ।
पञ्चग्रहैस्त्रिकोणे भवति कुटुम्बी सुबहुसौख्यः ॥२९॥
विद्यादानधनौघैः समन्वितो भवति षङ्भिरेव पुमान् ।
राज्यं प्रशास्ति नियतं गोपालकुलेऽपि संजातः ॥३०॥
स्वत्रिकोणगतैःसर्वैभवेज्जातो महीपतिः ।
वसुस्त्रीबलसम्पन्नो विद्याशास्त्रविशारदः ॥३१॥
द्वौ स्वगृहस्थौ कुरुतः कुलाधिकं बन्धुपूजनं धन्यम् ।
वंशकरमर्थसहितं स्थानयशोभिस्त्रयो विहगाः ॥३२॥
ख्यातं विशिष्टचेष्टं श्रेणीपुरनगरपंच चत्वारः ।
पञ्चावनीश्वरसमं प्रभूतगोभूमियुवतिसम्पन्नम् ॥३३॥
षङ्भिःप्रवृद्धशब्दं द्युतिकोशस्वजनवाजिमानाढ्यः ।
भवति नृपवंशजातो नियतं पृथिवीपतिः स्वर्क्षे ॥३४॥
राजाधिनृपं स्वर्क्षे जनयन्ति जितारिपक्षमिह सप्त ।
मित्राश्रयं सुवृत्तं द्वौ मित्रगृहसमाश्रितौ कुरुतः ॥३५॥
बान्धवसुहृदुपकर्ता त्रिभिर्विशिष्टो भवेद्गुणैः ख्यातः ।
ब्राह्मणदेवाराधनपरश्चतुर्भिर्धुरन्धरः ख्यातः ॥३६॥
राजोपसेवकः स्यात्पञ्चभिराढ्यो828 नरेश्वरः कर्ता।
विस्तीर्णभोगवाहनवसुमान् षड्भिर्नरेन्द्रतुल्यः स्यात् ॥३७॥
सर्वैर्मित्रर्क्षगतैर्बहुवाहनभृत्यसाधनो राजा ।
द्वाभ्यां नीचे नीचश्चिन्ताबह्वाग्रहसमेतः ॥३८॥
मूर्खोऽधर्म829रतोऽस्खः त्रिभिर्ग्रहैर830ध्वगो नरः प्रेष्यः ।
आलस्यनष्टचेष्टश्चतुर्भिरिहनीचगैर्भूतकः ॥३९॥
अगृहः831 प्रभिन्नदारः पञ्चभिरिह कथ्यते नरो दासः ।
खास832भयश्रमतप्तः पड्भिर्नीचो भवेत् क्षामः ॥४०॥
भिक्षुस्त्यक्ताशितभुक् भवति पुमान् विगतसर्वस्वः।
नीचैः सप्तभिरखिलैर्दिक् चिरविधृताम्बरः सूतः ॥४१॥
द्वावरिभवनसमेतौ क्लेशवतां नित्यविग्रहरुचीनाम् ।
अतिपरिभूतानामपि नॄणां जन्मप्रदौ कथितौ ॥४२॥
विविधव्ययदुःखभुजां त्रयः श्रमोत्पन्ननष्टवित्तानाम् ।
चत्वार इष्टयोषित्पुत्रार्थविनाशजाधि833तप्तानाम् ॥४३॥
पञ्चारिगृहे विहगा इष्टव्यसनाभिघाततप्तासानाम् ।
षड्रोगाङ्कि834तवपुषां दुःखवतां चैव जन्मकराः ॥४४॥
सप्तारिभे ग्रहेन्द्रा बीभत्सकुले प्रसूतानाम् ।
शय्या835च्छादनभोजनवञ्चि836तकानां भवन्ति सदा ॥४५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां उच्चादिचिन्तनं नामचतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
——————
पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ।
स्त्रीणां जन्मफलं तुल्यं पुंभिः सार्धं यदुच्यते ।
विशेषस्तत्र यो दृष्टः कथ्यते विस्तरेण सः ॥१॥
वैधव्यं निधने चिन्त्यं शरीरं जन्मलग्नतः837 ।
सप्तमे पतिसौभाग्यं पञ्चमे प्रसवस्तथा ॥२॥
प्रकृतिस्था लग्नेन्द्रोः समभे सच्छीलरूपाढ्या ।
भूषणगुणैरुपेता शुभवीक्षितयोश्च युवतिः स्यात् ॥३॥
पुरुषाकृतिशीलयुता दुःशीला दुःखिता विषमराशौ ।
क्रूरैर्वीक्षितयुतयोः पापा स्त्री स्याद्गुणैर्हीना ॥४॥
लग्नेन्द्रोर्यो बलवान् त्रिंशांशेऽधिष्ठितोऽधिपैः फलं क्रमशः ।
भूसुतभार्गवबोधनसुरगुरुमार्ताण्डदेहभवैः ॥५॥
कन्यैव स्वगृहे दुष्टा भौमत्रिंशांशके भवेत् ।
कुचरित्रा तथा शौके समाया बोधनेऽवला ॥६॥
जीवे838 साध्वी नटी839 दासी भान्दे840 स्यात्कपटी मता ।
शौक्रेप्रकीर्णकामा च बौधे गुणवती भवेत् ॥७॥
जैवे सती शनौ क्लीबा दुष्टा कौजे सितर्क्षगे ।
शौके ख्यातगुणा बौधे कलासु निपुणा मता ॥८॥
जैवे गुणान्विता मन्दे पुनर्भूश्चन्द्रभे ततः ।
स्वच्छन्दा कथिता कौजे शौक्रे च कुलपांसना ॥९॥
बौधे शिल्पान्विता नारी जैवे बहुगुणा स्मृता ।
पतिनी चार्कभे कौजे वाचाला भार्गवे सती ॥१०॥
चौधे पुंश्चेष्टिता जैवे राज्ञी मन्दे कुलच्युता ।
कौजे बहुगुणार्यर्क्षे शौक्रे वाग्व्यसनी841 तथा ॥११॥
बौधे विज्ञानसंयुक्ता जैवे नैकगुणा स्मृता ।
मन्दे चाल्परतिः प्रोक्ता दासी कौजे तथार्किभे ॥१२॥
सुप्रज्ञा च भवेच्छौक्रेबुधे दुःस्था खला तथा ।
जैवे पतिव्रता नित्यं मन्दे नीचानुसेविनी ॥१३॥
शुक्रासितौ यदि परस्परभागसंस्थौ
शौक्रे च दृष्टिपथगावुदये घटांशे ।
स्त्रीणामतीव मदनाग्निमदः842 प्रवृद्धः843
स्त्रीभिः शमं826 च पुरुषाकृतिभिर्लभन्ते844 ॥१४॥
शून्येऽस्ते कापुरुषो बलहीनः सौम्यदर्शनविहीने ।
चरभे प्रवासशीलो भर्ता क्लीबो ज्ञमन्दयोश्च भवेत् ॥१५॥
उत्सृष्टा सूर्येऽस्ते कुजे च विधवा नवोढैव ।
कन्यैवाशुभदृष्टे शनैश्चरे वृद्धतां याति ॥१६॥
अशुभे क्षीणेऽस्तगते त्यक्ता पत्या भवेदशुभदृष्टे ।
क्रूरैर्विधवास्तगतैर्भवति पुनर्भूस्तथा मिश्रैः ॥१७॥
अन्योन्यभागगतयोः सितकुजयोरन्यपुरुषसक्ता स्यात् ।
घने शिशिरगुतनये845 स्यायुवतिरनुज्ञया भर्तुः ॥१८॥
सौरारगृहे तद्वत् शशिनि सशुक्रे विलग्नगे जाता ।
मात्रा साकं कुलटा क्रूरग्रहवीक्षिते भवति ॥१९॥
द्यूने तु कुजनवांशे शशिना दृष्टे सरोगयोनिः स्त्री ।
सद्भृगुभागे चारुश्रोणी पतिवल्लभा भवति ॥२०॥
द्यूने वृद्धो मूर्खः सौरगृहे स्यान्नवांशके नाथः ।
स्त्रीलोलः क्रोधपरः कुजभेऽथ नवांशके भर्ता ॥२१॥
शुक्रगृहेऽथ नवांशेऽतिरूपसौभाग्यसंयुतो भर्ता ।
नैपुणविज्ञानयुतस्तथैव बौधेऽथवा नवांशे वा ॥२२॥
मदनार्तो मृदुचित्तः शशिभे नवमेंशकेऽथवा भर्ता।
गुरुसितभागेऽप्यथवा गुणवान्विजितेन्द्रियो भवति ॥२३॥
अतिकर्मकृदतितीक्ष्णो रविभेऽप्यथवांशके भवति भर्ता ।
सप्तमभवनोपेतैर्नित्यं स्त्रीणां समवधार्यम्846 ॥२४॥
ईर्ष्यान्विता सुखपरा लग्ने सितचन्द्रयोर्बुधेन्द्रोश्च ।
सुखिता कलासु कुशला गुणशतसहिता विनीता स्यात् ॥२५॥
शुक्रबुधयोर्विलग्ने रुचिरा सुभगा कलासु निपुणा च ।
दास्यम्बरसौख्ययुता शुभेषु पापेषु विपरीता ॥२६॥
पापेऽष्टमे तु विधवा निधनाधिपतिर्नवांशके यस्य ।
तस्य दशायां मरणं वाच्यं तस्याः शुभैर्द्वितीयस्थैः ॥२७॥
कन्यालिवृषभसिंहे शिशिरमयूखेऽल्पपुत्रो847 स्यात् ।
पुत्रभवने शुभयुते निरीक्षिते वा तथैव स्यात् ॥२८॥
रिक्ते848 बुधेन्दुभृगुजै रविजे च मध्ये
शेषैर्बलेन सहितैर्विषमर्क्षलग्ने ।
जाता भवेत्पुरुषिणी युवती सदैव
पुंश्चेष्टिता विचरति प्रथिता च लोके ॥२९॥
क्रूरे जामित्रगते नवमे यदि खेचरो भवति नूनम् ।
आप्नोति प्रव्रज्यां पापग्रहसम्भवामबला ॥३०॥
बलिभिर्बुधगुरुशुक्रैः शशाङ्कसहितैर्विलग्नगैः समभे ।
स्त्री ब्रह्मवादिनी स्यादनेकशास्त्रार्थकुशला च ॥३१॥
जन्मकाले विवाहे च चिन्तायां वरणे तथा ।
चिन्त्यं स्त्रीणां तु यत्प्रोक्तं घटते तत्पतिष्वपि ॥३२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां स्त्रीजातकफलो नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
——————
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ।
शिखिजलशस्त्रज्वरजस्त्वामयतृट्क्षुत्कृतोभवेन्मृत्युः ।
सूर्यादिभिर्निधनगैः परदेशपथिस्वके चराद्यैश्च ॥१॥
यो बलयुक्तो निधनं पश्यति तद्धातुकोपजो मृत्युः ।
तत्संयुक्तस्तनुजो बहुभिर्बलिभिर्बहुप्रकारः स्यात् ॥२॥
सूर्याङ्गारकयोः खबन्धुगतयोः शैलाग्रपातोद्भवो
मृत्युर्भूतनयेन्दुभानुतनयैः कूपे खसप्ताम्बुगैः ।
पापालोकितयोर्हिमोष्णकरयोः कन्यास्थयोर्बन्धतो
लग्ने सूर्यशशाङ्कयोस्तिमियुगे तोये सदा672 भज्जतः849 ॥३॥
कर्किणि मन्दे मकरे चन्द्रे मृत्युर्दरोदरकृतः स्यात् ।
पापांशस्थे850 चन्द्रे कुजभवने शस्त्रह्निभवः॥४॥
कन्यायां पद्मिनीशत्रुः पापमध्यगतः सदा851 ।
रक्तोत्थशोषजं मृत्युं करोति ध्रुवमेव हि ॥५॥
सौरर्क्षे शुभयोर्मध्ये शशी852 रज्ज्वग्निपातजम् ।
कुर्यान्मृत्युं न सन्देहश्चाणक्यवचनं तथा ॥६॥
नवमसुतयोरशुभयोः पापग्रहदृष्टयोर्भवेन्मृत्युः ।
द्रेक्काणैः पाशभुजगनिगलैश्छिद्रेऽथवा गुप्त्याम् ॥७॥
मीनोदये दिनकरे चन्द्रे पापान्वितेऽस्तगे मेषे ।
स्त्रीहेतुकं हि मरणं स्वमन्दिरे स्याद्वदन्त्येके ॥८॥
रुधिरे सुखे616ऽथवार्के वियति यमे क्षीणचन्द्रसंयुक्तैः198 ।
पापैस्त्रिकोणलग्ने शूलप्रोतस्य निर्दिशेन्मरणम् ॥९॥
हिबुकेऽर्केवियति कुजे क्षीणेन्दुयुतेऽर्कजेन संदृष्टे ।
काष्ठेनाभिहतः सन्म्रियते जातो न सन्देहः ॥१०॥
क्षीणेन्दुभौमरविचन्द्रजसूर्यपुत्रैः
छिद्रास्पदोदयसुखैर्लगुडाहतस्य ।
मृत्युर्वियन्नवमलग्नसुतस्थितैस्तै–
र्धूमाग्निबन्धनशरीरनिकुट्टनैः स्यात् ॥११॥
हिबुकास्तकर्मसहितैः कुजभानुशनैश्वरैर्भवति मृत्युः ।
आयु853धहुतभुग्भूपतिकोपप्रभवः सदा पुंसाम् ॥१२॥
कर्माम्बुवित्तसंस्थैः कुजेन्दुमन्दैः क्षतः क्रिमिकृतोऽन्तः।
खस्थेऽर्केन्दुकुजे वा सुराप्रपानप्रताप854कृतः ॥१३॥
सप्तमभवने भौमे क्षीणेन्दुदिवाकरार्किभिर्लग्ने ।
मरणं जातस्य वदेद्यन्त्रोत्पीडनभवमवश्यम् ॥१४॥
तुलायां रुधिरे याते कुजर्क्षे भास्करे स्थिते ।
चन्द्रे मन्दगृहं प्राप्ते विणमध्ये मरणं भवेत् ॥१५॥
गलितेन्द्वर्कभूपुत्रैर्गतैर्व्योमा855ष्टवन्धुषु ।
विण्मध्ये तु भवेन्मृत्युः सिद्धसेनः प्रभाषते ॥१६॥
बलिना कुजेन दृष्टे क्षीणेन्दौ रन्ध्रगेऽर्कजे मृत्युः ।
गुल्ममहावेदनया क्रिमिदाहायुधकृतो भवति ॥१७॥
रवौ सरुधिरे छूने निधने रविसंभवे ।
रसातलस्थे हिमगौ मृत्युः पक्षिकृतो भवेत् ॥१८॥
लग्नछिद्र856त्रिकोणेषु रव्यारार्किनिशाकरैः
मृत्युः स्याच्छैलपातेन शस्त्र857कुड्यादिपाशजः ॥१९॥
उदयनवांशाधिपतेः समानभूमौ वदन्ति यवनेन्द्राः ।
ग्रहयोगेक्षणकाद्यैः परिकल्प्यं चान्यदपि तज्ज्ञैः ॥२०॥
उदितांशसमो मोहः शेषेण858 निरीक्षिते द्विगुणितः स्यात् ।
त्रिगुणः शुभैश्च दृष्टे समस्तमुनयो व्यवस्यन्ति ॥२१॥
उदयाद्वाविंशतिमद्रेक्काणो भवति कारणं मृत्योः ।
तस्याधिपतिभवो859 वा निर्याणं सूचयेत्स्वगुणैः ॥२२॥
मेषाद्ये द्रेक्काणे क्रूरग्रहवीक्षिते च संयुक्ते ।
अम्ब्वहिविषपित्तकृतं मरणं नृृणां समादेश्यम् ॥२३॥
विद्याद्वितीयभागे मरणं जलकृमिहिमारण्यैः ।
एवं तृतीयभागे तटाककूपप्रपाताद्वा ॥२४॥
करभाश्वखरोष्ट्रेभ्यो मृत्युर्ज्ञेयो वृषस्याद्ये ।
पित्ताग्निवातचोराद्द्वितीयभागे वृषस्यैव ॥२५॥
विद्यात्तृतीयभागे यानासनवाजिपातकृतम् ।
पुंसां भवति हि मरणं रणशिरसि महास्त्रकृतमेव ॥२६॥
आद्ये मिथुनत्र्यंशे कासश्वासोद्भवो भवति ।
मृत्यु860र्महिषविषाद्याद्द्वितीयभागे च संनिपाताद्वा ॥२७॥
वनवासिचतुश्चरणात्पर्वत861नागाद्गणात्तथारण्यात्862 ।
भवति हि मृत्युः पुंसामन्ते863 भागे तु जुतुमस्य ॥२८॥
ग्राहेण मद्यपानात् कण्टकदोषेण वा तथा स्वप्नात् ।
भवति हि कर्कटकाद्ये मृत्युर्नृृणां तृतीयभागे तु ॥२९॥
अभिघाता864द्विषपानान्मध्ये त्र्यंशे भयं समादिष्टम् ।
विह865गप्रमेहगुल्मा866सृक्तन्द्रीदोषेण867 च तथान्त्ये ॥३०॥
सलिलविषपादरोगात्सिंहाद्ये त्र्यंशके भवेत्पुंसांम्868 ।
मध्ये तृतीयभागे जलामयकृतो वनोद्देशे ॥३१॥
विषशस्त्रयोगदोषैरभिशापाद्वा तथा च पाताद्वा ।
अन्त्ये सिंहत्र्यंशे भवति हि मृत्युर्न सन्देहः ॥३२॥
आद्ये कन्यात्र्यंशे मस्तकरोगात्तथानिलान्मृत्युः869 ।
व्यालगिरिदुर्गवनजो870 मध्ये भूपात्मजादथवा ॥३३॥
करभखरशस्त्रतोयादतिखातात् स्त्रीकृतान्नपानाद्वा ।
अन्त्ये कन्यात्र्यंशे नॄणां मृत्युः सदा दृष्टः ॥३४॥
आद्ये वणिक्त्रभागे युवतिचतुष्पा871न्निपातदोषेण ।
मध्ये तु जठररोगैरन्त्ये व्यालाम्बुजातेभ्यः ॥३५॥
आद्येऽलिनस्त्रिभागे विषशस्त्रस्त्रीकृता872न्नपानभवः ।
मध्ये तु वस्त्रभारस्रंसनरोगैर्भवति मृत्युः ॥३६॥
अन्त्ये तृतीयभागे लोष्टकपाषाणजनि873तवेदनया।
भवति हि मरणं ह्यथवा नृणां जङ्घास्तिभङ्गकृतम् ॥३७॥
चापस्याये त्र्यंशे गुदानिलसमुद्भवैर्विविधरोगैः ।
मध्ये विषगुरुदोषैरनिलकृतैर्वा भवेन्मृत्युः ॥३८॥
अन्त्ये तृतीयभागे जलमध्ये तत्समुत्थितैर्वाऽपि ।
मृत्युर्नॄणां दृष्टो जठरामयदोषसंभूतः ॥३९॥
मकराद्ये द्रेक्काणे नृपहिंसाव्याघ्रकारणान्मृत्युः ।
ऊरुविनाशादथवा जलचरसत्वाद्विषैकशफसर्पात् ॥४०॥
दहनास्त्रतस्करेभ्यो ज्वरादमानुषविभेदनान्मध्ये।
अन्त्ये मकरत्र्यंशे स्त्रीणां मृत्युः सदा दृष्टः ॥४१॥
कुम्भे प्रथमत्र्यंशे स्त्रीभ्यस्तोयैस्तथा जठररोगैः ।
ज्ञेयो मृत्युर्नॄणां पर्वतगहनद्विपादैर्वा ॥४२॥
मध्ये स्त्रीकृतदुःखैर्गुह्यजरोगैर्भवति मृत्युः ।
अन्त्ये मिथुनचतुष्पदमुखरोगकृतैर्भवेत्पुंसाम् ॥४३॥
अंशे मीनयुगाद्ये गुल्मग्रहणीप्रमेहयुवतीभ्यः ।
जङ्घाजलजै874 रोगैर्गजग्रहकृतैः समादिशेन्मृत्युम् ॥४४॥
नौभेदाज्जलमध्ये झषे दृगाणद्वितीयजातानाम् ।
अन्त्ये भवति हि मरणं कुत्सितरोगैर्न सन्देहः ॥४५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां निर्याणफलं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
जन्मविधावज्ञाते प्रश्नो875त्थविकल्पतो भवेत्प्रष्टुः ।
जन्मसमये876 नराणामतः प्रयत्नेन संचिन्त्यम्877 ॥१॥
दशविध878चिन्हैर्ज्ञात्वा जातं पुरुषं प्रसाधयेल्लग्नम् ।
अत एव प्रथमतरं तानि समस्तान्यहं वक्ष्ये ॥२॥
मेषविलग्ने जातः प्रचण्डरोषो विदेशगमनरतः ।
लुब्धः कृशोऽल्पसौख्यः सेर्ष्यः स्खलिताभिधायी च ॥३॥
पित्ता879निलोष्टरोगैरभितप्ततनुः क्रियापटुर्भीरुः ।
मेषर्क्षे धर्मपरः चलोऽल्पमेधाः परार्थनाशकरः224 ॥४॥
भोक्ता ख्यातः कुनखो भ्रातृविहीनस्तथा पितृत्यक्तः।
शीघ्रगतिर्मन्दसुतो विविधार्थयुतः सुशीलश्च ॥५॥
कुकुलोद्गतां सुशीलां880 स्वजनेऽपि881 च निर्घृणां स्त्रियं लभते ।
अपकृष्टोदयसौख्यः कुधर्मसंवर्धितार्थश्च ॥६॥
वृषभविलग्ने शूरः क्लेशसहिष्णुः सुखी रिपुनिहन्ता ।
बाल्ये सञ्चययुक्तः पृथुपीनललाटघोणगण्डोष्ठः ॥७॥
उद्युक्तकर्मसुभगः पितुर्जनन्याः सुशर्मकृद्दाता।
विविधव्ययोऽतिरौद्रः कफानिलात्मा पिता कुमारीणाम् ॥८॥
स्वजनावमर्दनपरो धर्मनिवृक्तो882ऽबलाप्रियश्चपलः ।
भोजनपाननिगृध्नुर्नानाम्बरभूषणैकमतिः ॥९॥
मिथुनविलग्ने जातः प्रियदारो भूषणप्रदानरतिः ।
पूज्यवचः883 सुवचस्खी द्विमातृको रिपुविनीतः स्यात् ॥१०॥
गान्धर्वशिल्पकुशलः श्रुतिशास्त्रार्थप्रहास्य884काव्यमतिः ।
सौम्योऽथ मण्डनरुचिर्मदवश्यः स्यात्सतां सत्यः ॥११॥
असहिष्णुरनिष्टसुतः शठोऽल्पबन्धुश्च संस्थितो भवति ।
हीनाधिकाङ्गपादो विनीतवृत्ताक्षिपक्ष्मा च ॥१२॥
चण्डाकारो वश्यो दारुणरिपुपक्षसंहरणशीलः ।
भूरत्नकाञ्चनोर्मिकजला885र्थभागी भवेत्पुरुषः ॥१३॥
कर्किणि लग्ने भीरुर्नैकनिवासश्चलप्रज्ञः ।
मेधान्वितोऽतिधुर्यो गुह्यरुगार्त्तो निहन्ति रिपून् ॥१४॥
अन्तर्विषमः कामी द्विजदेवात्यचनप्रदानरतः ।
धर्मरतः कफबहुलो युवतितनु886संस्थितो गुणैर्नियुतम् ॥१५॥
कन्यानुजो न बन्धुर्दृष्टाल्पसुतो विगर्हितकुटुम्बः ।
बहुमतकुत्सितयुवतिः परार्थभागी दृढग्राही ॥१६॥
परदेशगः सुधीरः साहसकर्मा जलाधिगतवित्तः ।
स्त्रीभूषणाम्बरसुखैर्भोगैश्च समन्वितो भवति ॥१७॥
सिंहोदये प्रसूतो मांसरुचिर्नृपतिलब्धमानधनः ।
धर्माच्च्युतोऽप्यसंस्थः887 कुटुम्बकार्येषु रतवामः ॥१८॥
सिंहस्य समानमुखः स्थितिमान्गाम्भीर्यसत्वसंयुक्तः।
धृष्टोऽल्पवचा लुब्धः परघातकरो बुभुक्षावान् ॥१९॥
पर्वतवनानुसारी सुरोषणो दृढसुहृत्प्रमादी च ।
दुष्प्रसहो हतशत्रुः ख्यातसुतः प्रणतसाधुजनः ॥२०॥
कृष्यादिकर्मधनवान् व्यापाररतो बहुव्ययो भवति ।
वेश्या नटी नियमनाद्भार्यातश्चातिदन्तरोगाच्च ॥२१॥
षष्ठे साधुत्वयुतः शिक्षागान्धर्वकाव्यशिल्पपटुः ।
प्रियवल्गुकथाभाषी प्रणयी दानोपचाररतः ॥२२॥
कन्याविलाससत्वस्थितिर्दयावान्परस्वभोक्ता च ।
भोक्ता देशभ्रमणः स्त्रीप्रकृतिर्विनयवाक् कितवः ॥२३॥
भूमण्डलवर्धनभाक् सुभगः कामी यशोच्छ्रयं लभते ।
ऋजुधर्मवान् सुरूपः सुरुचिः कान्तो गुरूणां च ॥२४॥
पापैरहार्यवृत्तैः सहजैश्च समं विरुद्धश्च ।
कन्याप्रजोऽनिलकफो नीचारिविवर्जितकथश्च ॥२५॥
सप्तमलग्ने जातो विषमाङ्गः शीलवर्जितश्चपलः ।
उपचितहीनद्रविणः सुखहृ888देहानुसारी889 स्यात् ॥२६॥
कफवातिककलिरुचिको890 दीर्घमुखशरीरधर्ममतिवेत्ता ।
बहुदुःखभाक् सुमेधाः परावमर्दी सुचारुकृष्णाक्षः ॥२७॥
अतिथिद्विजदेवरतिः क्रतु891क्रियावान् गुरुषु भक्तः ।
पूज्यः पितान्यभाजां जातः सत्यश्च मृदुशुक्लः ॥२८॥
भ्रातृप्रियोऽर्थमुख्यः शुचिश्च पापोपचारबन्धुश्च ।
कान्तः892 कुत्सितवृत्तो धर्मव्यवसायनीचमतिः ॥२९॥
वृश्चिकलग्ने पुरुषः पीनपृथु893व्यायताङ्गतीक्ष्णश्च ।
अन्तर्विषमः शूरो मातुरभीष्टो रतो894 यतस्त्यागी ॥३०॥
गम्भीरपिङ्गलोद्धतदृक् सुमहाहृन्निमग्नजठरश्च ।
अन्तर्विलग्नघोणः साहसनिरतः स्थिरश्चण्डः ॥३१॥
विश्वासहासवश्यः पित्तरुगार्तः कुटुम्बसम्पन्नः ।
गुरुसुहृदां द्रोहरतः परा895ङ्गनाकर्षणानुरतः ॥३२॥
बन्धोद्बणवक्रः स्याद्भूपतिसेवी सशत्रुपक्षः स्यात् ।
प्रयतोऽर्थदः सुयुवतिर्धर्मं प्रति वत्सलः क्षुद्रः ॥३३॥
कार्मुकलग्ने जातः स्थूलरदस्तुङ्गपृथुलमूर्धा च ।
प्रणतानां प्रियकारी धृतिसत्वसमन्वितः सुनयः ॥३४॥
मलिनासिकोष्ठकुनखी ह्रीमानतिपीवरोरुजठरश्च ।
विज्ञानशास्त्रकुशलः प्रत्यग्रमतिः प्रकोपश्च ॥३५॥
बलिनाममर्षणपरः कुलमुख्यो नाशितारिपक्षश्च ।
संग्रामपदश्रेष्ठश्छलबहुलच्छिद्रबन्धुगुणः ॥३६॥
शिल्पादिकर्मनिरतः स्वकर्मवाग्बन्धु896वर्गशुभदश्च ।
कान्तो वदना897जिपदो नृपाद्धृतार्थः सुधर्मरतः ॥३७॥
मृगवदने लग्नस्थे कृशगात्रो भीरुरेणवक्रश्च।
वातव्याधिभिरार्तः प्रदीप्ततुङ्गोग्रनासः स्यात् ॥३८॥
लघुसत्वोऽमिततनयो रोमचितः पाणिपादविस्तीर्णः ।
आचारगुणैर्हीनस्तृषार्त्तरामाभिराममतिः ॥३९॥
गिरिवनचारी शूरः शास्त्रश्रुतिशिल्पगेयवाद्यज्ञः ।
क्षुद्रबलः सकुटुम्बो द्विष्टो दुष्टश्च बन्धुशठः ॥४०॥
कुत्सितशीलः कान्तः कुत्सितदारोऽनसूयको धनवान् ।
धर्मरतो नृपसेवी न चातिदाता सुखी सुभगः ॥४१॥
कुम्भविलग्ने पुरुषः सुनीचकर्मा कुलाधिको मूर्खः ।
स्फुटिताग्रनसो नीचः सक्रोधपरोऽलसात्मा च ॥४२॥
वैरप्रियोऽप्रहृष्टः पारुष्यद्यूतनीचदासीष्टः ।
उपहृतबन्धुः क्षुक्षः क्षयोदयी प्राप्तवित्तश्च ॥४३॥
पिशुनः शठो दरिद्रो विनष्टबन्धुर्बहिष्कृतो लोके ।
नो संमतः परेषां प्रकृष्टसम्पद्गुरुरतिश्च॥४४॥
कुम्भोदयो न शस्तो लग्नविधौ सर्वथैव सत्यमते ।
यवनैर्वर्गोऽपि तथा चाणिक्यो वदति नो वर्गम् ॥४५॥
मीनविलग्ने जातो धन्यः स्फुटनासिकोऽस्फुटाक्षश्च ।
विज्ञानकाव्यबुद्धिर्मानादरलब्धकीर्तिश्च ॥४६॥
विवृतोष्ठरदः कुष्ठी विदारितास्यो वृषादि संलुब्धः ।
दाक्षिण्यप्रत्ययवान् मेषच्छागादिसम्पन्नः ॥४७॥
शौचाचारश्रुति898वाग्धृतिमान् कन्याग्रजो विनीतश्च ।
सौम्यमतिः सत्वयुतो गान्धर्वस्त्रीरतिज्ञश्च ॥४८॥
बहुशीलोदारमतिर्भ्रातृधनोऽमर्षणः सुबन्धुश्च ।
बलवति राशावेतत्तदधिपतौ वा बलं सर्वम् ॥४९॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्याये लग्नगुणो नाम सप्तचत्वारिंशोध्यायः ॥
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ।
रिक्तोत्कटदृक् क्रूरो धनपः शुक्लाधिकोग्रदाररतः ।
पीनोन्नतः प्रचण्डस्तस्करनाथः क्रियादिहोरायाम् ॥१॥
चोरः प्रमादबहुलः खराग्रपादाङ्गुलिर्द्वितीयायाम् ।
स्निग्धायताक्षचतुरः पृथुपीनतनुः सुमेधाश्च ॥२॥
श्यामो विशालचक्षुर्ललाटपक्षाः899 प्रगल्भरतिवश्यः ।
स्थूलास्थितनुर्वृषभप्रथमार्धे स्याद्वपुष्मांश्च ॥३॥
पृथ्वायतवृत्ततनुमुदारसत्वं सुमूर्द्धजं जनयेत् ।
व्यस्तकटिं वृषभाक्षं वृषभे होराद्वितीयायाम् ॥४॥
मध्यायतोऽतिदक्षो मध्यतनुर्मृदुशिरोरुहांघ्रिश्च ।
मिथुनाद्यर्धे शूरः सुरतेप्सुः स्याद्धनी प्राज्ञः ॥५॥
मधुरायताक्षकामी शूरो मृदुकर्मठो वचस्वीच ।
परदारदत्तदेहो भवेन्नृमिथुनद्वितीयहोरायाम् ॥६॥
उद्धतमूर्तिः सुशिराः प्रगल्भधीर्मन्ददृक् चलाङ्गशठः ।
श्यामतनुः सुकृतघ्नो भग्नाग्ररदः कुलीरहोरायाम् ॥७॥
द्यूते रतोऽध्वनिरतः पृथुवक्षाः सत्प्रमाणसम्पन्नः ।
कठिनशरीरः क्रोधी जायेत कुलीरभद्वितीयायाम् ॥८॥
रक्तान्तदृक् प्रगल्भो गुरुरायतविग्रहश्च सिंहाद्ये ।
जिह्मस्वभावसुखभागन्तस्थिरकार्यसत्वश्च ॥९॥
स्त्रीमृष्टपानभोजनवस्त्रेप्सुर्बहुविचेष्टकठिनाङ्गः ।
दाताध्वरतोऽल्पसुतो भोगी स्थिरसौहृदोऽन्त्यार्धे ॥१०॥
सुकुमारमूर्तिकान्तः सुवाक्यगीताङ्गनारतिर्मधुरः ।
गान्धर्वविद्युवत्याः सुभगः पूर्वार्धजः श्रेष्ठः ॥११॥
ह्रस्वो हठश्रुतार्थः स्थूलशिराः सम्मतो विवादी च।
सेवालेख्यलिपिज्ञः क्षयवृद्धियुतः सुखी द्वितीयार्धे ॥१२॥
वृत्तानन उच्चनसस्त्वसितायतसुनयनो विलासी स्यात् ।
पीनायतोऽस्थिसारो धनवान् स्वजनप्रियस्तुलाद्यर्धे ॥१३॥
बह्वर्थभाक् स्थिरार्धः श्यामाकुञ्चितशिरोरुहश्च शठः ।
वृत्ताक्षस्त्वपरार्धे सुत्वग्घीनाग्रपादश्च ॥१४॥
रक्तान्तपिङ्गदृष्टिः साहसकर्मान्वितो रणे शूरः ।
दुष्टस्वभावरामाप्रियोऽर्थभाग्वृश्चिकाद्यर्थे ॥१५॥
विस्तीर्णोपचितायतपीनाङ्गः क्ष्माधिपोपसेवी स्यात् ।
बह्बृणमित्रसमेतः स्फुटिताक्षो वृश्चिकापरार्धे स्यात् ॥१६॥
दारितपृथुमुखवक्षाः परिकुञ्चितनेत्रगण्डः स्यात् ।
बाल्ये त्यक्तात्मगुरुश्चापाद्यर्धे तपस्वी च ॥१७॥
पद्माक्षो दीर्घमहाबाहुः शास्त्रार्थवित्सुमूर्तिः स्यात् ।
वाक्सुभगो धन्योऽपि च धनुरपरे निर्वृतो यशस्वी च ॥१८॥
श्यामो मृगाक्षधन्यः स्त्रीष्वजितः सौम्यमूर्तिशठ आढ्यः ।
मृष्टाशनः सुचेष्टो900 मृगाद्यभागे तनूच्चघोणः स्यात् ॥१९॥
रक्तान्तदृष्टिरलसो गुरुदीर्घाटनपरो भवति मूर्खः ।
श्यामो रोमचिताङ्गस्तीक्ष्णः सहसः सुरौद्रकर्मा च ॥२०॥
स्त्रीमित्रभागरसविन्मृदुलोऽल्पसुतश्च सद्गुणः शूरः ।
ताम्रो भास्वरवर्णो यानमतिः कुम्भपूर्वार्धे ॥२१॥
आताम्रदारिताक्षः कृशः स्थिरोऽत्यल्पमूर्तिरलसः स्यात् ।
नैकृतिकः सुविषादी कृपणः कुम्भापरे सुशठः ॥२२॥
ह्रस्वः पृथुचारुतनुर्महाललाटो बृहद्वदनवक्षाः ।
स्त्रीदयितो मीनार्धे प्रथमे सुयशाः क्रियापटुः शूरः ॥२३॥
दाता सुतुङ्गनासो निपुणो मेधान्वितः शुभदनेत्रः ।
नृपदयितः स्त्रीसुभगश्चारुर्मीनापरे सुवाक्यः स्यात् ॥२४॥
चन्द्रार्कयोरेकतरे बलस्थे होरापतिः पश्यति केन्द्रगो वा ।
होरा यथोद्दिष्टफलप्रदा स्याद्गर्भस्थसत्वस्य समुद्भवेषु ॥२५॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां होरागुणा नाम अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
———————
एकोनपञ्चाशोऽध्यायः
दाता हर्ता दीप्तः क्षयोदयी सङ्गरप्रचण्डः स्यात् ।
प्रियविग्रहस्त्रिभागे मेषाग्रे बन्धुषूग्रदण्डश्च ॥१॥
स्त्रीचञ्चलो विहारी रतिमान् गीतप्रियो मनस्वी स्यात् ।
मित्रार्थभाक् सुरूपः स्त्रीवित्तरुचिर्द्वितीये च ॥२॥
गुणवान् परदोषकरश्चलसत्रयुतो नरेन्द्रसेवी स्यात् ।
स्वजनप्रियोऽतिधर्मस्तृतीयभागे प्रियादरोऽज्ञश्च ॥३॥
प्रियपानभोज्यनारीवियोगतप्तो वृषस्य पूर्वांशे ।
वस्त्रालङ्कारयुतो युवतिप्रकृतानुसारी स्यात् ॥४॥
सौम्यवपुस्त्रीसुभगो महाधरो रूपधनयुक्तः ।
धनवान् स्थिरो मनस्वी लुब्धस्त्रीणां प्रियो द्वितीये स्यात् ॥५॥
चतुरोऽल्पभाग्यवीरो मलीमसः स्याद्धनान्युपादाय।
सन्तप्यते तु पश्चाद्वृषस्य भागे तृतीये च ॥६॥
मिथुनादिमे दृगाणे पृथूत्तमाङ्गो धनान्वितः प्रांशुः।
कितवो गुणी विलासी नृपाप्तमानो वचस्वी स्यात् ॥७॥
ह्रखाननस्वरूपः सौम्यवपुः सूक्ष्ममूर्द्धजतनुः स्यात् ।
धन्यो मृदुर्महाधीर्द्वितीयभागे प्रतापवान् सुयशाः ॥८॥
स्त्रीद्वेषणो वपुष्मान् महाशिराः शत्रुसंयुतः प्रांशुः।
रुक्षनखाङ्घ्रिकरतलश्चलार्धविभृतो दृढस्तृतीये स्यात् ॥९॥
कर्कटकादिमभागे देवब्राह्मणरतश्चलो गौरः ।
कृत्यकरश्च परेषां सुधीः सुमूर्तिः शुभाङ्गनः सुभगः ॥१०॥
लुब्धः स्वाद्वदनपरः स्वप्नरतः स्त्रीजितोऽभिमानी स्यात् ।
सहजान्वितो विलासी चपलो बहुरुग् द्वितीये च ॥११॥
स्त्रीचञ्चलोऽर्थभागी विदेशनिरतः प्रियासवः साधुः ।
काननतोयानुरतो दुर्दृष्टिर्माल्यवांस्तृतीये स्यात् ॥१२॥
सिंहादिद्रेष्काणे दाता भर्तारिनिर्जिगीषुः स्यात् ।
बहुधनयोषित्सुसुहृद्बहुनृपसेवकः सुसत्वश्च ॥१३॥
सुरुचिरकारी दाता स्थिरो वपुष्मान् रणेप्सुः स्यात् ।
सुखभाक् श्रुतिधर्मरुचिर्विस्तीर्णमतिर्द्वितीये च ॥१४॥
लुब्धः परस्वहरणे कल्यः स्तब्धो महामतिः कितवः ।
नायततनुमूर्तिः स्यान्नैकापत्यः प्रगल्भोऽन्त्ये ॥१५॥
श्यामः सुवाग्विनीतः प्रांशुः सुकुमारमूर्तिरबलाये ।
स्त्रीभ्योऽर्थभागनिष्ठो दीर्घशिरा मधुसमाक्षश्च ॥१६॥
धीरो विदेशभागी शिल्पकथापण्डितः समरशौण्डः ।
वाचाटः श्रुतवाक्यो वनौकसां संमतो द्वितीये स्यात् ॥१७॥
गीतापरार्द्धभागी सङ्गीतरतिर्नरेन्द्रदयितः स्यात् ॥
ह्रस्वस्वरूपवेषश्चान्ते पृथुदृक् शिरस्कश्च ॥१८॥
कन्दर्परूपनिपुणस्तुलादिभागेऽध्वसेवज्ञः ।
श्यामकला पण्यरतो नियोगधीरः सुमेधावी ॥१९॥
पङ्कजविशालनेत्रः सुरूपवाकू साहसः कलापी901 स्यात् ।
ख्यातः स्ववंशवर्धितवृद्धानुचरो द्वितीये च ॥२०॥
चपलः शठः कृतघ्नो विरूपजिह्मोपचितमूर्त्तिः ।
नष्टसुहृद्द्रविणयशाः स्वल्पमतिर्भागके तृतीये स्यात् ॥२१॥
गौरः स्थिरः प्रचण्डो रणोत्कटः स्यान्नरो विशालाक्षः ।
स्थूलविशालशरीरः कलिप्रियो वृश्चिकाद्यांशे ॥ २२॥
मृष्टान्नपानचतुरश्चलेक्षणो हेमगौरमूर्त्तिः स्यात् ।
कान्तः परवित्तयुतः शीलकलावान् द्वितीयेंऽशे ॥२३॥
निश्मश्रुरोमहिंस्रः पिङ्गाक्षमहोदरः ग्रहर्त्ता च ।
सहजच्युतस्तृतीये पीवरबाहुः सुधीरहृदयश्च ॥२४॥
परिमण्डलाक्षवक्रोगणेषु मुख्यो धनुर्हगाणाद्ये ।
खोपचितस्वाचारस्तथा मृदुर्भवति सञ्जातः ॥२५॥
शास्त्रार्थवित्प्रवक्ता क्रतुशतहर्ता द्वितीये च ।
मन्त्रभृतां श्रेष्ठतमस्त्वनेकतीर्थायतनचारी ॥२६॥
बन्धुप्रधानचतुरः सतां गतिर्धर्मभाक् तृतीयेऽपि।
कामी426 पराङ्गनाभाक् रूपयशोभाजनो विजिष्णुश्च ॥२७॥
व्यालम्बभुजः श्यामः प्रथितयशोरूपकान्तिशठः ।
स्मितभाषी मकराद्ये स्त्रीषु जितो वल्गुचेष्टधनयुक्तः ॥२८॥
अल्पवदनश्च मध्ये चलः परस्त्रीधनापहर्ता स्यात् ।
चतुरः सतां गतिज्ञः प्रदानशीलो दुरन्तपादः स्यात् ॥२९॥
वाचालः902 कलुषकृशो दीर्घाङ्गः पितृवियुक्तश्च ।
लभते विदेशगमनाव्द्यसनानि मृगमुखस्यान्ते ॥३०॥
स्त्रीमानयशोभूतिः स्फीतप्रभवो घटस्याद्ये ।
प्रांशुः कर्मसु निष्ठो धनवान्नृपसेवको जातः ॥३१॥
लुब्धः समर्थमधुरो गौरः पिङ्गोद्धताक्षहास्यधनः ।
उद्धृष्टवचा मतिमान् बहुमित्रः स्याद् द्वितीये तु ॥३२॥
दीर्घः शठः प्रतापी कृशोऽल्पबाहुः सुतार्थभाक् स्तब्धः ।
बह्वनृतोऽन्तर्विषमो विदारिताक्षो रतिविदन्त्ये ॥३३॥
मधुपिङ्गाक्षो गौरो मेधावी सत्क्रियारतिज्ञश्च ।
सुखभागी मीनाद्ये जलचरयुगले903 विनीतश्च ॥३४॥
नार्युपचारप्रवरो मृष्टान्नरतिः904 परार्द्धभुक् कारी905 ।
स्त्रीसज्जनातिदयितो वदतां श्रेष्ठो द्वितीये तु ॥३५॥
श्यामः कलासु निपुणः पृथुपाद906सुहृत् प्रदानश्च ।
मृष्टान्नपानहास्यो मीनयुगान्त्ये भवेत्पुरुषः ॥३६॥
इतीरितोयं स्वगुणस्वभावो
द्रेक्काणजानां गुणविद्विकल्पैः907 ।
द्रेक्काणगे908 वीर्यवति स्वदृष्टे
द्रेक्काणकल्पन्तु फलं विदध्यात् ॥३७॥
इति कल्याणवर्मविरचितायांसारावल्यां नष्टजातकाध्याये द्रेक्काणाध्यायो नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः ॥
अतोंशके लग्नगते909 तु वक्ष्ये वर्णस्वभावाकृतिलक्षणानि ।
प्रधानवीर्येऽशपतौ शशीव तत्स्वामिराशिक्रमशो विधत्ते ॥१॥
अजसंस्थानमुखः स्यान्मेषाद्यांशेऽल्पनासिकाङ्गभुजः910 ।
चण्डध्वनिर्विरूपः संकुचिताक्षः कृशोऽक्षताङ्गश्च ॥२॥
श्यामगुरुस्कन्धभुजो ह्रस्खललाटः सुजत्रुकः स्फुटदृक् ।
दीर्घास्यनसो मृदुवाक् तृतीयभागे कृशाङ्घ्रिसन्धिश्च ॥३॥
व्यालुप्तकेशगौरो व्यस्तभुजश्चारुनयननासश्च ।
वाक्पण्डितस्तृतीये जातस्तु कृशोरुजानुजंघश्च ॥४॥
विभ्रान्तदृक् प्रचण्डो ह्रस्वनसोऽटनखराङ्घ्रिरोमा च ।
अभ्रातृकः कृशः स्याच्चतुर्थनवभागजः पुरुषः ॥५॥
दृप्तो गजेन्द्रनयनः पृथुनासा भ्रूललाटको मध्ये।
पीनोपचिताग्रतनुः खरतररोमाङ्घ्रितनुकेशः ॥६॥
श्यामो मृदुर्मृगाक्षो गुरुः कृशस्फिक् कठोरुचरणः911 स्यात् ।
व्यस्तोदरकभुजांसः षण्ढो भीरुश्च बहुभाषी ॥७॥
दूर्वाङ्कुराभचपलः सितनेत्रः सप्तमे भवेत्पुरुषः ।
कुलटापतिर्नृशंसो विशालविस्तीर्णमूर्तिः स्यात् ॥८॥
वानरमुखप्रवक्ता खरपिङ्गतनुश्च गुह्यगदः ।
हिंस्रोऽनृतघातरतः सुह्रत्प्रियोग्रः सदाष्टमजः ॥९॥
दीर्घः कृशो विहारी व्यस्तललाटश्रवोऽश्ववदनश्च ।
बह्नभिधानाभिरतस्त्वनृजुर्नवमांशजो भवति ॥१०॥
॥ इति मेषे ॥
समकृष्णतनुस्तब्धः पूर्वमघान्त्येऽन्त्यकर्मा स्यात् ।
नीचः प्रकृतिविरुद्धो विषमाक्षिनिरीक्षणो वृषस्याद्ये ॥११॥
गम्भीरदृगलसात्मा विनतशिरावक्रकश्च लघुमेधाः ।
प्रतिकूलकर्ममिथ्याबहुप्रलापी द्वितीये स्यात् ॥१२॥
मृद्वङ्गवान्वपुष्मान् सुनसस्पष्टायताक्षवृहदङ्गः ।
यज्ञादिकर्मनिरतः स्थिरपार्ष्णिकरस्तृतीयनवमांशे ॥१३॥
ह्रस्वोदरः सुरोषो मेषाक्षः पिङ्गलस्त्वधनयुक्तः ।
परधनहरणाभिरतश्चतुर्थभागे वृषस्य नरः ॥१४॥
व्यालः सुतुङ्गघोणो महर्षभाकारवक्रघनकेशः ।
स्यात्पञ्चमे विलासी बृहद्भुजस्कन्धकटिगौरः ॥१५॥
स्वक्षस्थिरः सुकेशः स्निग्धतनुर्वल्गुवाक् प्रगल्भः स्यात् ।
माधुर्यहास्यनिरतः कृशः सुनिपुणो भवेत्षष्ठे ॥१६॥
मृतसुतयुवतीषु रतो मनाक्प्रलम्बाग्रनासिकाक्षः स्यात् ।
उद्बद्धाङ्गः स्वजनद्वेषी गुरुपादसूक्ष्मकेशश्च ॥१७॥
व्याघ्रेक्षणः सुदशनस्त्वजितस्फुटनासिकोऽल्पकर्मः स्यात् ।
उद्वृत्तनीलकेशोग्रनखो मुखरस्तथाष्टमजः ॥१८॥
मान्योऽल्पसत्वभीरुः क्रोधी समरुचिरमूर्तिकितवः स्यात् ।
सञ्चितधनः प्रसिद्धः कृशस्त्वधस्तात् प्रलाप्यन्ते ॥१९॥
इति वृषभे ॥
रोमोपचितांसभुजो घनासितापाङ्गदृक् तथोच्चनसः ।
दुर्वाकाण्डश्यामः कृशाङ्घ्रिपाणिस्तृतीयभवनाद्ये॥२०॥
घटशीर्षो शुचिकर्मा घातरुचिर्मध्यलग्नघोणः स्यात् ।
बहुभाषी बहुचेष्टो द्वितीयभागे तु विग्रहाधिपतिः ॥२१॥
गौरोऽतिरक्तनयनः सुनासिकः समतनुः सुमेधाः स्यात् ।
दीर्घाननो सितभ्रूर्वाचाचतुरस्तृतीयेंशे ॥२२॥
सुभ्रूललाटकामी नीलोत्पलमूर्तिविपुलवक्षाः स्यात् ।
सितवत्र्क्रो912मृदुवत्र्क्रः913प्रशस्तरोमाचितश्चतुर्थेऽशे ॥२३॥
पृथ्वाननो बृहत्स्फिक् पीवरवक्षोभुजश्च खलः ।
स्थूलशिरा मायावी सितानुकूलनयनस्तु पञ्चमजः ॥२४॥
मध्वीक्षणः प्रलापी व्यस्तललाटः समस्सुतनुः ।
कितवश्चलश्च रुधिरोष्ठरदः षष्ठे तु सत्वयुतः ॥२५॥
ताम्रारुणाक्षवर्णः समुन्नताक्षो विशालवक्षाः स्यात् ।
शिक्षासु शिल्पनिपुणो हास्यरतिः सप्तमे जातः ॥२६॥
श्यामो गुरुर्मनस्वी ललितो मधुराभिधानश्च ।
व्यस्तविवृद्धशरीरो दीर्घासितदृक् कलाविदष्टमजः ॥२७॥
वृत्ता सितदृक् सुतनुः सिद्धो मेघाबलो रतिज्ञः स्यात् ।
विज्ञानकाव्यनिरतो नवमे जायेत मिथुनस्य ॥२८॥
॥ इति मिथुने ॥
निर्मलचारुसुगौरः सुमूर्द्धजः स्याद्विशालकुक्षिश्च ।
मङ्गलमुखोन्नताक्षस्तन्वङ्गभुजः कुलीराद्ये ॥२९॥
रक्तच्छविचर914णोढः कलाप्रियः स्याद्बिडालमुखनेत्रः ।
कर्किद्वितीयभागे त्यागी कृशजानुजङ्घश्च ॥३०॥
गौरः सुनेत्रवाग्मी सुकुमारस्थूलयोषिदङ्गश्च ।
धीमान्मृदुकर्मरतस्तृतीयभागे भवेदलसः ॥३१॥
श्यामच्छविर्नतभ्रूर्विलासपीनोन्नतः सुनासाक्षः ।
क्षीणः पुरुषो दाता सुजातिकार्यश्चतुर्थे स्यात् ॥३२॥
घण्टाशिरोनतास्यः सुसंहतभ्रूः सुदीर्घबाहुः स्यात् ।
सेवारतो विकर्मा मध्ये दुर्मर्षणोऽल्पमेधाश्च ॥३३॥
दीर्घविशालशरीरः प्रशस्तनयनो बहुप्रतापः स्यात् ।
गौरः सुवंशघोणो वक्ता षष्ठे च पृथुदन्तः ॥३४॥
भिन्नशिरोरुहरोमा बृहत्तनुः स्यात्सिरालजङ्घश्च ।
परगृहरक्षणशीलः काकाकारश्च सप्तमजः ॥३५॥
घण्टाशिराः कुशिल्पी सुमुखभुजाङ्गश्च कूर्मगतिः ।
मध्यविलग्ननसः स्यादष्टमभागे तु कुष्ठश्च915 ॥३६॥
गौरो झषनेत्रगुरुर्मृदूदरोऽथ पृथुपीनवक्षाः स्यात् ।
दीर्घहनुर्लम्बोष्ठो महोरुकृशजानुगुल्फोऽन्त्ये ॥३७॥
॥ इति कटके ॥
मन्दोदरः प्रचण्डो रक्ताग्रनसो बृहच्छिराः शूरः ।
उन्नतमांसलवक्षाः सिंहे प्रथमे भवेद्भागे ॥३८॥
उन्नतविततललाटश्चतुरश्रतनुर्विलोमनेत्रश्च ।
दीर्घभुजोन्नतवक्षाः पृथूग्रघोणो द्वितीयेंशे ॥३९॥
रोमान्वितायतभुजश्चकोरनयनश्चलस्त्यागी ।
उन्नासिकस्तृतीये स्निग्धतनुर्बाहुवृत्तगलः ॥४०॥
घृतमण्डगौरगात्रो दीर्घासितलोचनो मृदुशिरोजः।
भिन्नध्वनिश्चतुर्थे पृथुकरचरणश्च भेककुक्षिः स्यात् ॥४१॥
घण्टाशिरोऽल्पकेशो सितघोणाक्षश्च लोमशाङ्गतनुः।
लम्बोदरप्रचण्डो दंष्ट्रोत्कटपीनहृन्मध्ये ॥४२॥
स्रस्ताल्परोममूर्तिः स्निग्धसमासितविलोचनो दीर्घः ।
श्यामस्त्रीणां चतुरो विकत्थनो वाक्यपण्डितः षष्ठे ॥४३॥
दीर्घाननः सिरालः पीनतनुः स्त्रीषु दुर्भगः कृष्णः ।
स्यात्सप्तमे सुचण्डो रोमचितः कूटनिष्ठुराभाषी ॥४४॥
उत्कृष्टवाक् स्थिराङ्गः सुभगो916 गम्भीरदृग्विकर्मा च ।
निःस्वः कूटकरः स्यादष्टमभागे प्रसूतश्च ॥४५॥
रासभमुखोऽसिताक्षो व्यालम्बभुजः सुपार्ष्णिजङ्घश्च ।
श्वासनिपीडितवक्षा नवमांशे जायते मनुजः ॥४६॥
॥ इति सिंह ॥
सारङ्गाक्षो वक्ता प्रदानसम्भोगवान् धनाढ्यश्च ।
श्यामोन्नतहृदयः स्यात्पष्ठे प्रथमांशके जातः ॥४७॥
पूर्णाननः सुचक्षुः917 स्निग्धो918 मृदुवादशीलश्च ।
लम्बोदरश्चलः स्याद्वितीयभागे महोरुश्च ॥४८॥
स्फुटनासिकास्फुटः स्यात्प्रशस्तपादश्च पीनपद919भुजः ।
विस्पष्टवाक् च गौरः कन्यासु सुहृत्तृतीयेंशे ॥४९॥
श्रुतवान् स्त्रीषु च रमते सुकुमारो मधुररक्तगौरश्च ।
तीक्ष्णश्चतुर्थभागे प्रबोधनोधःकृशो द्विमूर्धा च ॥५०॥
स्थूलोष्ठवाहुरुन्नततनुः पृथुशिरोरुहांसः स्यात् ।
पञ्चमजः पृथुवक्षाः पराश्रयोद्बद्धजङ्घश्च ॥५१॥
स्निग्धच्छविः सुवाक्यः शस्ततनुः शास्त्रकृतमतिप्रचुरः ।
लिपिलेख्यकलाभिज्ञः सुमनाः षष्ठांशजो विहारी च ॥५२॥
ह्रस्ववदनोन्नतांसः स्निग्धभुजोऽन्ते च केशगौरः स्यात् ।
सप्तमजः पृथुजठरः पृथुतरचरणोऽम्बुभीरुश्च ॥५३॥
सुकुमारगौरदीर्घश्चित्रोन्नतदृक् प्रचण्डमानी स्यात् ।
व्यालम्बपीनबाहुः पिङ्गलरोमाष्टमे जातः ॥५४॥
ख्यातो मृदुसुखमूर्तिर्विशालनेत्रो बलासदृशसत्वः ।
चतुरो नवमेंशे स्यान्नतांसलेख्यादिविद्वांश्च ॥५५॥
॥ इति कन्यायाम् ॥
गौरो विशालनेत्रः श्लाघी दीर्घाननोऽर्थगोप्ता स्यात् ।
नवपण्यकर्मकुशलस्तुलाधराद्यंशजः सुविख्यातः ॥५६॥
प्लुतमण्डलनेत्रः स्यात्करालदन्तो निमग्नमध्यस्तु ।
युगले विस्मृतहृदयः कुतनुर्घनसंहतभ्रूश्च ॥५७॥
गौरोऽश्वमुखः सुरदो महोन्नताक्षः कृशोऽपि लब्धयशाः ।
दीर्घकरोरुहघोणस्तृतीयजः स्यात्सुचरणश्च ॥५८॥
तन्वंसबाहुभीरुस्तून्नतदन्तः कृशो मृगतरलदृक् ।
ह्रस्वनसः सुविषादी श्यामो शीलश्चतुर्थजो भवति ॥५९॥
गम्भीरदृक् स्थिरात्मा सुहृत्प्रियः पञ्चमे ह्यमानी स्यात् ।
खरकेशः समनेत्रो मध्यप्रतिलग्नघोणद्दप्तश्च ॥६०॥
पीनाङ्गो गौरः स्याद्विशालनेत्रः सुनासिकावंशः।
स्निग्धनखः सुनयज्ञः षष्ठेंशे शास्त्रविज्जातः ॥६१॥
रक्तावदातमति920मान् गुरुह्रस्वतनुः कृशो ललाटे स्यात् ।
लुब्धः प्रचण्डदुर्गः सप्तमभागे मनःस्वी च ॥६२॥
तुङ्गांसगण्डभोक्ता कठिनतनुर्दीर्घकृष्णभ्रूः ।
निर्निक्तवाक् प्रशान्तः सद्वक्षस्त्वर्धमस्तकोऽष्टमजः ॥६३॥
स्वक्षः प्रसन्नगौरः समचारुतनुः पटुः कलाभिरतः ।
दाक्षिण्यहास्यनिरतो विटस्वभावो भवेन्नवमे ॥६४॥
॥ इति तुलायाम् ॥
ह्रस्वोन्नतोष्ठघोणः सुललाटः स्यात् दृढाङ्गगौरश्च ।
दर्दुरकुक्षिर्घटकोऽष्टमराशौ प्रथमनवभागे ॥६५॥
गौरः पृथ्वायतहृद्बाहुस्ताम्रोग्रदृग् द्वितीये स्यात् ।
उद्वृत्तबलनिहन्ता साहसकृदनल्पकेशश्च ॥६६॥
प्राज्ञो दृढांसबाहुः प्रयत्नकोशो विशुद्धवाक्यः स्यात् ।
कानीनको वपुष्मान् गौरो रुचिरावरस्तृतीयेंशे ॥६७॥
परदारद्रोहरतिः क्षेप्ता धीरश्चतुर्थजो दीर्घः ।
श्यामोऽसितकेशाक्षो नटप्रगल्भश्च पीनरोमांसः ॥६८॥
गम्भीरस्ताम्राक्षो मग्ननसः पञ्चमे धीरः ।
मृष्टोदरोग्रकर्मा व्यस्तदृढाङ्गो यशस्वी स्यात् ॥६९॥
धृष्टो वरिष्ठबुद्धिः पृष्ठोच्चनसो गभीरसत्वः स्यात् ।
सुनसः प्रचण्डकर्मा षष्ठे दक्षोऽल्पकचघनभ्रूश्च ॥७०॥
दारितमुखः स्थिराङ्गः प्रविकीर्णरदः शिरावनद्धाङ्गः ।
निम्नोदरः प्लुताक्षः स्रस्ततनुः सप्तमे भवेदंशे ॥७१॥
स्फुटिताग्रनसः कालो विपन्नशीलो मलीमसाङ्गः स्यात् ।
भिन्नोत्कटैः शिरोजैः सन्त्यक्तमतिस्तथाष्टमजः ॥७२॥
गौरो मृगाकृतिमृदुः प्रशान्तपिङ्गाक्षरोमदृढपीनः ।
सुसमेतश्च गुरूणां मतः प्रजातो नवमभागे ॥७३॥
॥ इति वृश्चिके ॥
सुबृहन्नसोजदृष्टिः स्फुटाग्रभाषी सुदन्तरोमा च ।
गौरः सुबुद्धवृषणश्चापाद्यांशे प्रचण्डः स्यात् ॥७४॥
प्रोत्तुङ्गशिराः स्थिरविद्विस्तीर्णाक्षो गुरुस्फिगूरुश्च ।
विकृताक्षनसो दीर्घो महाहनुः स्याद्वितीयेंशे ॥७५॥
शिक्षाशास्त्रमतिज्ञः प्रगल्भगम्भीरमूर्तिसुनयश्च ।
स्त्रीवल्लभो मनस्वी तृतीयजो हास्यशिल्पज्ञः ॥७६॥
दक्षो मधुमण्डलदृक् गौरः कृच्छ्रप्रवृद्धकुक्षिः स्यात् ।
प्राज्ञोऽटनः सुकेशः पृथुशुभमूर्त्तिश्चतुर्थे स्यात् ॥७७॥
पृथुकण्ठनेत्रवदनः प्रवृद्धहरिविग्रहो महाभ्रूः स्यात् ।
पीनोन्नतांसहन्ता पञ्चमजो रूढरोमदृढबुद्धिः ॥७८॥
स्निग्धासितान्तपृथुदृक् महाललाटः सुवृत्तिकाव्यरतः ।
पृथुपीनमुखो हीनः षष्ठे विद्वान् कथाभिरतः ॥७९॥
श्यामो मृदुर्वचस्वी तुङ्गशिराः सङ्ग्रहानुसन्धिरतः ।
दीर्घौ विशालनयनो दाक्षिण्यपटुश्च सप्तमजः ॥८०॥
चिपिटाग्रनासिकः स्याद्विस्तीर्णशिराः सुबद्धवैरश्च ।
विभ्रान्तदृक् प्रलापी921 गुरुष्वभिमतोऽष्टमांशभवः ॥८१॥
गौरो हयाकृतिमुखो दीर्घासितदृक् तथाल्पवाक्यः स्यात् ।
सत्यः सतां विषादी नवमे कुटिलोरुजङ्घश्च ॥८२॥
॥ इति धनुषि ॥
विरलाग्ररदः श्यामः प्रभिन्नवाक् खरसिरोरुनखजानुः ।
गीताध्वहास्यनिरतो मकराद्ये बलधनः कृशाङ्गः स्यात् ॥८३॥
अलसशटः कुटिलनसो गीताभिरतिर्विशालदेहश्च।
प्रचुराङ्गनासु निरतो बहुभाषी स्याद्द्वितीयजः कल्प्यः ॥८४॥
गान्धर्वकलाकामः ख्याताङ्गो गौरदृक् सुनसः ।
बहुमित्रबन्धुरतिमान् तृतीयज़ः स्विष्टकर्मा च ॥८५॥
रक्तासितवृत्ताक्षो महाललाटभुजदुर्बलाङ्गकरः ।
भवति हि विकीर्णकेशश्चतुर्थजो विरलदन्तवाक्यः स्यात् ॥८६॥
उद्दण्डघोणकुक्षिर्भवति हि भोक्ता सुनासिकावंशः ।
श्यामो वृत्तोरुभुजः पञ्चमभागे स्थिरारम्भः ॥८७॥
स्त्रिग्धच्छविः सुवेषः कामरतः सूक्ष्मसमरदसुवक्ता ।
षष्ठांशजः पृथुहनुर्महाललाटः पुमान् भवति ॥८८॥
श्यामोलसः सुभाषी रूक्षित922देहो बृहत्तनुः कठिनः ।
मृदुपादपाणिमतिमान्सप्तमजः शीलसम्पन्नः ॥८९॥
गम्भीरदृक् सुघोणो रक्तास्यो भिन्ननखशिरोजः स्यात् ।
उद्बद्धतनुः शक्तोऽष्टमजो घटपृथुललाटश्च ॥१०॥
विपुलाक्षिहृत्सुमेधाः पूर्णमुखो गीतवाद्यनिरतश्च ।
माधुर्यसत्वयुक्तः साधुर्नवमे भवेत्सुजनः ॥९१॥
॥ इति मकरे ॥
श्यामो मृदुः कृशाङ्गः पीनहनुः शास्त्रकाव्यमतिः ।
कामी रतिमान्कान्तः कुम्भस्याद्यांशके भवेज्जातः ॥९२॥
त्वङ्नखदृष्टिशिरोजैः खरैश्च सुविपन्नवत्सलः साधुः ।
दीर्घो विशिरा मूर्खो द्वितीयभागे भवेज्जातः ॥९३॥
संसक्ततनुः प्रमदाप्रियश्च वैडूर्यकान्तिधरः ।
शास्त्रार्थवित्प्रयोक्ता तृतीयनवभागसंजातः ॥९४॥
कान्तानुरतो गौरो विदारितास्यो रिपुप्रणाशकरः ।
गम्भीरधीरसत्वश्चतुर्थजो भोगरतियुक्तः ॥९५॥
स्पष्टार्थवित्कलाज्ञः खररोमधराङ्घ्रिरुग्रः स्यात् ।
संरुद्धगण्डकर्णः पञ्चमजः कृष्णवर्णश्च ॥९६॥
व्याघ्राननः प्रगल्भः कुञ्चितकेशः सुनिश्चितार्थश्च ।
व्यालमृगोरगहन्ता षष्ठेंशे वल्लभो नृपतेः ॥९७॥
मेषाक्षिमुखस्तीक्ष्णो ग्राम्यरतिस्त्रीषु परिभूतः ।
पित्तरुगर्दितदेहः सप्तमजः सत्वधृतियुक्तः ॥९८॥
स्थिरसत्वबुद्धिरतिमान् नरेन्द्रयोधो नरेश्वरः सुभगः ।
स्थूलरदो विपुलाक्षः कुम्भे स्यादष्टमेंशके पुरुषः ॥९९॥
श्यामः समग्रवदना923विशेषितः सुधनदारपुत्रश्च ।
नवमांशजः सुवाक्यः प्रथितः शक्तो भवेत्पुरुषः ॥१००॥
॥ इति कुम्भे ॥
गौरोऽपि रक्तदेहः प्रभामृदुस्त्रीमतिप्रचलचित्तः ।
ह्रस्वगलः कृशमध्यो मीनस्याद्यांशके पुरुषः ॥१०१॥
पृथुपीनभुननासः924 (?) क्रियापटुर्मांसभुग्रुचिरदेहः ।
काननपर्वतचारी बृहच्छिराः स्याद्वितीयांशे ॥१०२॥
गौरः शठः सुचक्षुः शस्ततनुर्धर्मवान् सुविद्वांश्च ।
दाक्षिण्यवान् विनीतस्तृतीयजो रूपवांश्चतुरः ॥१०३॥
गुणवान् विपन्नशीलः प्रवृद्धसेवी क्रियापटु925र्विद्वान् ।
सत्वाधिको नयज्ञस्तुङ्गनसः स्याच्चतुर्थे तु ॥१०४॥
दीर्घोऽसितः प्रतापी तुङ्गाङ्गः स्वल्पनासिकः स्वक्षः ।
हिंसारतिः शुभरदो दुष्प्रसहः पञ्चमे प्रतापी स्यात् ॥१०५॥
कान्तः प्रतापगुणवान् प्रसन्नवंशोऽल्पनासिको मानी ।
तिर्यग्वदनः ख्यातः षष्ठेंशे स्यात्तथा निपुणः ॥१०६॥
पुरुषाभिमानपरकृद्धर्मरुचिः श्रेष्ठगश्च सचिवः स्यात् ।
प्रबलो विषादशीलः शठो926ऽस्थिरः सप्तमे भागे ॥१०७॥
दीर्घो बृहच्छिराः स्यात्कृशोऽलसो रूक्षनेत्रकेशश्च ।
मन्दात्मजोऽर्थनिरतो रणकुशलो ह्यष्टमे भागे ॥१०८॥
ह्रस्वोमृदुः सुधीरो विशालवक्षोक्षिनासिकः स्निग्धः ।
विहि927ताङ्गबुद्धिगुणवान् नवमेंशे स्यात्पुमान् ख्यातः ॥१०९॥
॥ इति मीने ॥
यत्प्रोक्तांशा928दिफलं द्वादशभागेऽपि तत्फलं वाच्यम् ।
सप्तमभागसमानं शेषेषु विनिर्दिशेत्प्राज्ञः ॥११०॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्याये नववर्गगुणचिन्ता नाम पञ्चाशोऽध्यायः ॥
एकपञ्चाशोऽध्यायः
प्रश्नकाले विलग्नस्य पूर्वार्द्धेऽप्युत्तरायणे ।
अपरे दक्षिणे ब्रूयाज्जन्मसम्पृच्छतो बुधः ॥१॥
ऋतुर्वाच्यो दृगाणांशे लग्नसंस्थेऽपि वा ग्रहैः929 ।
अयनस्य विलोमे तु परिवर्त्तः परस्परम् ॥२॥
शशिज्ञगुरुभिः सार्धं सितलोहितसूर्यजैः ।
द्रेक्काणेऽर्धे भवेत्पूर्वे मासः पूर्वे930परे परः ॥३॥
अनुपातात्तिथिः कल्प्या केचिदाहुरिनांशजाम् ।
लग्नभागैर्द्विरभ्यस्तैः पञ्चभिर्लभ्यते गुरुः ॥४॥
वयोनुमानाद्वर्षाणि द्वादश द्वादश क्षिपेत् ।
द्युरात्रिनामधेयेषु विलोमाज्जन्मसम्भवः ॥५॥
लग्नभागैः क्रमेणैव वेला मृग्याऽनुपाततः ।
लग्नत्रिभागराशीनां यो बली जन्मकृद्भवेत् ॥६॥
शीर्षादि संस्पृशन् प्रष्टा पृच्छेत्तद्राशिमादिशेत् ।
यावद्गतः शशी लग्नाच्चन्द्रात्तावति जन्मभः ॥७॥
मीनोदये वदेन्मीनं लग्नांशसदृशोदयम् ।
लग्नाद्भानुदृगाणे च यावत्यर्काच्च तावति ॥८॥
विलनं कथयेत्प्राज्ञ इति शास्त्रस्य निश्चयः ।
लग्नगे वीर्यगे वाऽपि च्छायाङ्गुलहते त्दृते ॥९॥
रविभिर्जन्मशिष्टं हि कथयेदविशङ्कितः ।
तिष्ठतः शयनस्थस्य निविष्टस्योत्थितस्य च ॥१०॥
लग्नादिकेन्द्रवेश्मानि वदेज्जन्मविधौ क्रमात् ।
भावं विचार्य सकलं यद्यत्तुल्यं तु तत्तथा ॥११॥
संस्कारनाममात्राद्विगुणा च्छायांगुलैः समायुक्ताः ।
त्रिघनविभक्ताच्छेषं नक्षत्रं तद्धनिष्ठादि ॥१२॥
वृषसिंहौ दशगुणितौ वसुभिर्मिथुनालिकौ वणिङ्मेषौ ।
मुनिभिः कन्यामकरौ बाणैः शेषाः स्वसंमितैरेव ॥१३॥
गुरुणा कुजेन भृगुणा बुधेन्दुभान्वार्किभिः क्रमशः।
वर्षर्तुमासतिथयो द्युनिशाभनवांशवेलाश्च ॥१४॥
एवं क्रमेण हृत्वा स्वविकल्पविभाजिताच्छेषम् ।
एवं भवन्ति सर्वे नवदानविशोधने च पुनः ॥१५॥
यवनेन्द्रदर्शनाद्यैः कथितं तदिहात्र सर्वमेव मया ।
किन्तु स्फुटं न सर्वंस्पष्टं सारस्वतं चिन्त्यम् ॥१६॥
पादत्रितयं विदलं दिनरजनीमानयोः क्रमात्क्रमशः ।
पृच्छकराशिसमानैर्दिवसनिशासंज्ञिताः पिण्डम् ॥१७॥
वारघ्नमनिहृताग्रं931 प्रोद्गच्छति तावदेव नक्षत्रम् ।
अश्विमघामूलाद्यं नवकं932 नवकं क्रमाद्दक्षम् ॥१८॥
तल्लिप्तासप्तहृताच्छेषाद्वारो भवेच्च ऋक्षादि933 ।
शेषं प्राग्वत्कार्यं पृच्छकसूर्यादिभिर्दायम् ॥१९॥
उद्गतदशा व्यतीता गम्याथ विलोमतो भवेन्नित्यम् ।
तावत्संख्या योज्या नष्टविधौ कालपरिमाणे ॥२०॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां नष्टजातकाध्यायो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः ॥
द्विपञ्चाशोऽध्यायः ।
उक्तो हि यवनवृद्धैरष्टकवर्गो निवेदयति पुंसाम् ।
हेतुं शुभमशुभं वा प्रतिदिवसं संभवन्तमिह ॥१॥
स्वात्केन्द्रायनवाष्टवित्तगृहगो भौमार्कसून्वोरवि–
र्जीवादायनवात्मजारिषु सितात् षड्द्वादशास्तस्थितः ।
चन्द्राद्वृद्धिषु बोधनात्सनवधीरिःफेषु लग्नाच्छुभः
साम्बुद्वादशगोऽष्टवर्गविधिना संशोधितो भास्करः ॥२॥
लग्नाद्भ्रातृदशायशत्रुषु शशी सास्तादिषु स्वाच्छुभः
भौमात्सार्थनवात्मजेषु रवितः साष्टाङ्गनास्थो गुरोः ।
केन्द्रायाष्टधनेषु धर्मसुखधीत्र्यायास्तखस्थः सितात्
केन्द्रायत्रिसुताष्टगः शशिसुताद्धर्मायषट्स्वर्कजात् ॥३॥
भौमो वृद्धिषु सात्मजासु रवितः साद्यासु लग्नाच्छुभः
चन्द्रात्षट्त्रिफलेषु केन्द्रविवरस्वाप्ति934स्थितः स्वाद्गृहात् ।
धर्मायाष्टमकण्टकेषु रविजाज्ज्ञात्र्यायवीशत्रुषु
शुक्रादन्त्यभवारिमृत्युषु गुरोः षड्लाभकर्मान्त्यगः ॥४॥
ज्ञोऽष्टायादिशुभार्थबन्धुषु सुतभ्रातृस्थितो भार्गवात्
भौमार्क्योःसदृशास्तगो रिपुभवच्छिद्रान्त्यसंस्थो गुरोः ।
प्राप्त्यन्त्यारितपःसुतेषु तपनात् स्वात्सत्रिक935र्मादिषु
स्वाज्ञायारिनवाष्टमेषु शशिनो लग्नात्सपूर्वाच्छुभः ॥५॥
केन्द्रायास्तधनेषु भूमितनयात्स्वात्सत्रिषु ब्राह्मणो
भानोः सत्रिनवेषु धर्मदशधीला936भारिगो भार्गवात् ।
धर्मायास्तधनात्मजेषु शशिनः कोणात् त्रिषड्धीव्यये
स्वाज्ञायाम्बुन937वारिपुत्रतनुषु ज्ञात्सास्तगस्तूदयात् ॥६॥
लग्नादातनयायरन्ध्रनवगश्चन्द्रात्सितः सव्ययात्
स्वात्साज्ञेषु शुभो यमान्नवदशात्मायाष्टपञ्चाम्बषु ।
त्र्यन्त्यायारिसुत्हृन्नवेषु रुधिराद्रिःफायरन्ध्रेष्विनात्
ज्ञात्र्यायारिनवात्मजेष्वथ गुरोर्धीखाष्टधर्मायगः ॥७॥
स्वात्र्या938यात्मजषद् त्रिकेषु रविजः सान्त्याम्बरस्थः कुजात्
भानोः केन्द्रधनायमृत्युषु तनोरू्यायारिखाद्याम्बुगः।
आज्ञायाष्टनवान्त्यशत्रुषु बुधादिन्दोर्भवारित्रिषु
शुक्रादन्त्यभवारिषु द्विजवरात् स्वाप्स्याय939धीशत्रुगः ॥८॥
इत्युक्तं शुभमन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः
शस्त्राशस्तविशेषितं विदधति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम् ।
स्वर्क्षस्वोच्चसुहृद्गृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टं समं
स्वोच्चस्वामिगता दशापतिबलाद्धन्त्यष्टवर्गोद्भवम् ॥९॥
रविरुधिरौ भवनं प्रविशन्तौ गुरुभृगुजौ गृहमध्यसमेतौ ।
शनिशशिनौ खलु निर्गमकाले शशितनयः फलदस्तु सदैव १०
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां अष्टकवर्गध्यायो नाम द्विपञ्चाशोऽध्यायः ॥
——————
त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ।
दैवविदां नीतिकरं940 विश्वसनीयं समस्तलोकस्य ।
कनकाचार्यस्य मताद्वियोनिसंज्ञं प्रवक्ष्यामि ॥१॥
लग्ने कर्कटके सशीतकिरणे वा सद्ग्रहैः सङ्गते
स्वर्क्षस्थैर्जगतोऽस्य सृष्टिमकरोद्विश्वेश्वरः शाश्वतीम् ।
यस्यैवं भवति प्रसूतिसमये पुंसः स सम्पालयेत्
त्रैलोक्यं सुरसुन्दरीजनवृतः क्रीडां समां941 सेवते ॥२॥
समभिव्यनक्ति होरा सस्थावरजङ्गमं यथा लोके ।
कालनिमित्ताकारैर्देशेन च तत्प्रपञ्चोऽयम् ॥३॥
क्रूरैः सुबलसमेतैः सौम्यैर्विबलैर्वियोनिलग्ने वा ।
सौम्यार्किभ्यां केन्द्रे तदीक्षिते942 वा वियोनिः स्यात् ॥४॥
आधाने जन्मनि वा प्रश्ने वा द्वादशांशगे चन्द्रः ।
यस्मिन्व्यवस्थितः स्याल्लग्ने वा तत्समं सत्वम् ॥५॥
वर्णाकृतिप्रभेदाद्ग्रहयोगनिरीक्षणैर्मुनिभिरुक्ताः ।
तानहमपि प्रवक्ष्ये विशेषतः सारमादाय ॥६॥
मेषवृषौ मुखगलयोरंसकपादेषु मिथुनमीनौ स्तः ।
पृष्ठोद्रयपार्श्वेषु च निवेशितौ कर्किकुम्भधरौ ॥७॥
सिंहमृगौ जघनस्थौ पश्चिमचरणे स्थितौ युवतिचापौ ।
गुह्यवृषणप्रदेशस्फिक्पुच्छौ जूककीटर्क्षौ ॥८॥
मिथुनादयस्तुलान्ताः सव्ये भागे चतुष्पदानां च ।
वामे झषघटधरमृगकार्मुकभृद्वृश्चिकाश्चिन्त्याः ॥९॥
मेषादिभिरुदयस्थैरंशैर्वा ग्रहयुतैश्च दृटैर्वा ।
स्वं स्वं वर्णे ब्रूयाद्गात्रे चिह्नं व्रणं वाऽपि ॥१०॥
स्वगृहांशकसंयोगाद्विद्याद्वर्णान् परांशके ऋक्षान् ।
सप्तमसंस्थाः कुर्युः पृष्ठे रेखां स्ववर्णसमाम् ॥११॥
वीक्षन्ते यावन्तो वियोनिवर्णाश्च तावन्तः ।
बलदीप्तो गगनचरः करोति वर्णंवियोनीनाम् ॥१२॥
पीतं करोति जीवः शशी सितं भार्गवो विचित्रं च ।
रक्तौ दिनकररुधिरौ रविजः कृष्णं बुधः शबलम् ॥१३॥
स्वे राशौ परभागे परराशौ स्वांशके तिष्ठन् ।
पश्यन् ग्रहोऽपि लग्नं सुवर्णवर्णं तदा कुरुते ॥१४॥
परिघपरिवेषजलदैः शङ्कुकवेधैर्ध्वजैश्च वृक्षैश्च ।
वृषमृगदण्डैः सर्पैः शक्रधनुःपांसुभिर्वाऽपि ॥१५॥
यद्वर्णेन वृतः स्याद्ग्रहस्तमिह वर्णमादिशेन्मतिमान् ।
स्वाभाविकैर्ग्रहाणां वर्णैर्वर्णा भवन्ति जातानाम् ॥१६॥
विहगोदितहक्काणे ग्रहेण बलिना युते च चरभांशे।
बौधेंशे वा विहगाः स्थलाम्बुजाः शशिनिरीक्षिताः943 क्रमशः ॥
लग्ने जलजे बन्धौ पक्तिः944 स्याद्वीक्षितेऽपि वा जलस्थाः945 ।
स्थलजे वा तदृृष्टे ग्रहवर्णसमस्थलप्रभवः ॥१८॥
लग्ना107र्कजीवचन्द्रैरबलैः शेषैश्च मूलयोनिः स्यात् ।
स्थलजलभवनविभागा वृक्षादीनां प्रभेदकराः ॥१९॥
अन्तःसारान्वृक्षान् भानुर्दुर्गान् करोति तद्रूपान् ।
क्षीरस्नेहसमेतान् शशी गुरुः फलसमेतांश्च ॥ २० ॥
कटुकण्टकिनो रुधिरः सुदुर्भगांस्तरणिजस्तथा शुक्रः ।
कुसुमफलस्नेहयुतान् बुधश्च बलवर्जितं जनयेत् ॥२१॥
क्रूरः सौम्यगृहस्थो वृक्षमनिष्टं करोति शुभदेशे ।
सौम्यश्च पापभवने कुत्सितदेशे शुभं चापि ॥२२॥
व्यामिश्रैः शुभभूमौ भवन्ति मिश्राः सदा वृक्षाः ।
स्थलजलपतयस्तेषां स्थलजलजानां तु संभवे दक्षाः ॥२३॥
स्थलजलखगौ विलग्नाद्यावति राशौ तु तेऽपि तावन्तः ।
स्वांशात्परांशगामिषु यावत्संख्या भवन्ति तावन्तः ॥२४॥
स्वांशे सौम्यैरबलैर्वियोनिलग्ने वियोनिजातं च ।
तद्वद्बलिभिः पापैः स्वराशिसदृशांशसंयुक्तैः ॥२५॥
अबलग्रहराशिगता अस्तं याताः पराजिता भिन्नाः ।
क्रूरयुता दृष्टा वा सद्यो निघ्नन्ति ते नित्यम् ॥२६॥
उद्भिज्जरायुजानां तथैव संखेदजाण्डजानां च ।
प्रसवं व्यस्तसमस्तं ग्रहयोगैर्लक्षणैर्वक्ष्ये ॥२७॥
दुर्बलगृहे ग्रहेन्द्रा मेषोराशिर्यदोदयं याति ।
भानुश्चतुष्पदगृहे चतुष्पदस्तत्र946 भवति सामान्ये ॥२८॥
सामान्येनाभिहितो वियोनिसंज्ञो मया समासेन ।
अधुना कौतुकजननं विशेषतः संप्रवक्ष्यामि ॥२९॥
इह तु द्वादशभागो राशौ राशौ प्रचोदितः पूर्वम् ।
जनयन्ति ते वियोनिं याता बलिभिः शशाङ्करविलने ॥३०॥
मेषे शशी947 तदंशे छागादिप्रसवमाहुराचार्याः ।
गोमहिषाणां गोंडशे नररूपाणां तृतीयेंऽशे ॥३१॥
तत्र चतुर्थे भागे कूर्मादीनां भवेदुदकजानाम् ।
व्याघ्रादीनां परतः परतो ज्ञेयं नराणां च ॥३२॥
वणिगंशे नररूपा वृश्चिकभागे तथा भुजङ्गाद्याः।
खरतुरगाद्या नवमे मृग948शिखिनां स्यात्तथा दशमे ॥३३॥
ज्ञेयाश्च तत्र विविधा949 वृक्षास्तृणजातयश्चित्राः ।
एकादशे च पुरुषा जलजा नानाविधाश्चान्त्ये॥३४॥
मेषे द्वादशभागे जायन्ते जातयो विविधरूपाः ।
शेषेष्वपि चैवं स्याद्भवनेषु यथाक्रमं नियतम् ॥३५॥
यो यत्र भवेदाद्यस्तस्याकृतिमादिशेत्कृते तत्र ।
ब्रूयात्क्रमेण मतिमान् द्वादशभागात्मके नवमे ॥३६॥
ज्ञेयादेवं पुंग्रहनवांशकैर्लग्नगैर्द्विमूर्त्तिभ्यः ।
आद्यांशे योगैरपि जायन्ते बहुविधाः सत्वाः ॥३७॥
श्वप्रभृतीनां प्रसवे यावन्तो द्वादशांशके (का) लग्ने ।
तावन्ति वदेत्प्राज्ञः पुंस्त्रीसंज्ञान्यपत्यानि ॥३८॥
लग्ने जीवोऽथवा सौरश्चन्द्रो वाऽपि स्थितो भवेत् ।
कूर्मादीनां तथा संख्या द्वादशांशेषु यावती ॥३९॥
शुक्रोभौमो बुधो वाऽपि चन्द्रो वाऽपि शनैश्वरः ।
कुर्वन्ति बलयुक्तानि भागेष्वङ्गानि पूर्ववत् ॥४०॥
स्वांशात्परस्य भागे यस्मिन्काले ग्रहाः समुपयान्ति ।
तत्र विकारा ज्ञेया लोकविरुद्धा ध्रुवं प्राज्ञैः ॥४१॥
वृश्चिकलग्ने भवने तन्नवभागेऽथवा द्विपदसंज्ञे ।
बिलवासिनां प्रसूतिर्घोराणां निर्दिशेत्तत्र ॥४२॥
गोधानां सर्पाणां लोपाशानां च शल्यकानां च ।
मूषकबिलेशयानां राशिमतां चापि कीटानाम् ॥४३॥
हयनरविदेहलने द्वादशभागे नवांशके वाऽपि ।
पश्यति नरेन्द्रसचिवस्तत्रोत्पत्तिर्भवेदेषाम् ॥४४॥
लूतानां नकुलानां वृश्चिकषड्विन्दुजातकानां च ।
अविषाणां सर्पाणां श्वभ्राश्मनिवासिनां चैव ॥४५॥
वाजिखराश्वतराणां गोमहिषाणां तथोष्ट्राणाम् ।
गुरुवर्णकल्परूपान् प्रवदेन्मतिमान् बलेनैव ॥४६॥
मृगवदने लग्नस्थे तन्नवभागे तथापि सूर्यांशे ।
आरण्यानां सूतिं सत्वानां निर्दिशेत्क्रमशः ॥४७॥
नागानां खड्गानां वृकशरभवराहवानराणां च ।
ऋक्षोग्रसृगालानां व्याघ्रादीनां भवेत्सूतिः ॥४८॥
मीने मीनांशे वा तज्जेसूक्ष्मांशकेऽपि वा लग्ने ।
गुरुदृष्टे विज्ञेयो बहूदकोत्थः सदा सत्वः ॥४९॥
मेषे मेषांशे वा भौमेन निरीक्षिते सदाजावी ।
वृषभे तु वदेत्तद्वङ्गोमहिषाद्यान्सदा भृगुणा ॥५०॥
स्वं स्वं पूर्वविलग्नं स्वैः स्वैर्दृष्टं यदेहपतिभिस्तु ।
स्वभवनसदृशान् विद्वान्प्रवदेदवशङ्कितं तत्र ॥५१॥
ग्राम्यगृहेषु नवांशाः पञ्चमन950वमांशसंयुक्ताः ।
आरण्यानां सूतिं ग्रामेषु सुनिश्चितां कुर्युः ॥५२॥
स्थलजलराशिविभागा नागरभवनेषु लग्नसंस्थेषु ।
स्थलजलचरसत्वानां जनयन्ति भवं हि विटपानाम् ॥५३॥
उदयति वणिग्विलग्ने तद्द्रेक्काणे सितेन संदृष्टे ।
शुकसारिकान्यपुष्टाश्चकोरभासाश्च जायन्ते ॥५४॥
सिंहोदये तथाद्ये सूक्ष्मांशे रविनिरीक्षिते सूतिः ।
कुक्कुटमयूरतित्तिरिपारावतचन्तुनादीनाम् ॥५५ ॥
स्थिरभोदये तदंशे शेषौ ? ग्रहसंयुते च दृष्टे च ।
प्रासादगृहादीनां भूताप्तिः951 पूर्ववज्ज्ञेया ॥५६॥
इति कल्याणवर्मविरचितायां सारावल्यां वियोनिजन्माध्यायो नाम त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ॥
—————
चतुःपञ्चाशोऽध्यायः ।
तिर्यग्विश्वोर्ध्वमन्दं गिरिगिरिशपदं न्यस्य चक्रं तदूर्ध्वं
मेषाद्या राशयः स्युर्ग्रहगणसहिता शिष्टमिष्टस्य सद्म।
तस्याधः सोऽपि मुख्यं ग्रहगणमुदयं चा’’’’’’’’’’’’’’’ क्षमाक्रमेण
न्यस्याधः स्वीयचक्रे स्वपदसहितभाक्स्वाष्टके बिन्दुरेखा १
पूर्णैर्बिन्दुभिरष्टभिः पदगतैर्हीनोऽपि भूपो भवेत्
एकैकोनतया क्रमात्फल विधिः सर्वेस्थि……..।
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘प्रियसुहृत्प्राप्तिर्विपत्’‘‘‘‘‘‘‘‘‘न्यता
वित्तानामपि हानिराधिकृशता शून्यक्रमे संक्षयः ॥२॥
सूर्यस्याष्टसु बिन्दुषु क्षितिपतेराप्ता विभूतिर्भवेत्
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘शौर्यविजयः षट्सु प्रतापोन्नतिः ।
पञ्चस्वर्थसमागमः सदसतोः साम्यं चतुर्थे त्रिके
त्वध्वश्रान्तिरथ द्विके गदभयं रूपेऽथ शून्ये मृतिः ॥ ३॥
इन्दोर्भागविभूतिकाञ्चन’‘‘‘‘‘‘‘‘वस्त्रान्नगन्धोद्भवाः
सन्मन्त्रीद्विजसङ्गमोद्धृतिमही’‘‘‘‘‘‘दुःखसौख्यास्थितिः ।
द्वेषो बन्धुजनैः प्रियार्थविरहोऽकस्माद्विपद्दुस्तरा–
च्छोकोद्वेगबला’‘‘‘‘‘‘‘नियतं प्रोक्तं फलानामिदम् ॥ ४ ॥
आरस्यार्थमहीसपत्नविजयाः सौभाग्यकान्तिप्रदाः
राज्ञां वल्लभता प्रसिद्धगुणता साम्यं विषह्यं पदोः ।
भ्रातृस्त्रीविरहो विपत्परिभवो राजाग्निपित्तज्वरैः
स्फोटैर्दूषितमा(गा?)त्रता जठररुङ्मूर्च्छाक्षिरुङ्मृत्यवः॥५॥
ज्ञस्य क्ष्मापतिमान्यता द्रविणतो विज्ञानसौख्याप्तयः
सर्वोद्योगफलोदयो नवसुहृत्प्राप्तिर्निरुद्योगता ।
चित्तव्याकुलता’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘सर्वस्वहानिर्मृतिः ॥६॥
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘प्तयो
वासो वाहनहेमलब्धिरहितध्वंसक्रियासिद्धयः ।
लाभच्छेदविहीनता श्रवणदृक् पुंस्त्वप्रणाशादयो
भूभृत्कोपभयं गदै’‘‘‘‘‘‘रशदाद्बन्ध्वर्थपुत्रक्षयः ॥७॥
शुक्रस्याखिलभोगवस्त्रवनितापुष्पान्नपानाप्तयो
भूषामौक्तिकपुष्टयः प्रियवधूलाभः सुहृत्सङ्गमः ।
मध्यस्थः शुभपापयोर्जनपदग्रामान्नविद्वेषता
स्थानभ्रंशरुजः कफश्च विषमे सर्वापदां सङ्गमः ॥८॥
सौरे ग्रामपुराधिपाद्यधिपता दासीखरोष्ट्राप्तयः
पूजा चोरनिषादसैन्यपतिभिर्धान्यार्थलाभागमः ।
अन्यो’‘‘‘‘‘‘‘लिकसौख्यता सुतवधूभृत्यार्थविध्वंसनं
बन्धोद्वेगरुजो महाधनतया भार्यादिसर्वक्षयः ॥९॥
इत्थं होराशास्त्रं रचितं कल्याणकोविदेनैव ।
पूर्वाचार्यैर्निर्मित’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’“दैवज्ञः ॥१०॥
पौलिशरोमशवासिष्ठयवनबादरायणाः शक्तिः ।
अत्रिश्च भरद्वाजो विश्वामित्रो गुडाग्निकेशौ च ॥ ११ ॥
गर्ग’‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘विस्तरं रचितम् ।
….शास्त्रेषूक्तं जातकमितिच्चित्रगुप्तकृतम् ॥१२॥
इति कल्याणवर्मविरचितायांसारावल्यां चतुःपञ्चाशोऽध्यायः ॥
शुद्धिपत्रम्.
| पृष्टम् | पङ्किः | अशुद्धम् | शुद्धम् |
| २ | ६ | चतुराः’’’’’“वर्णयन्त्यन्ये | चतुराःसंवर्णयन्त्यन्ये |
| १४ | १ | युवराज…… | |
| १५ | १२ | तत्कमर्ग्रहदिवसे | तत्कर्मग्रहदिवसे |
| ४० | ५ | सूर्यायव्द्यगै | सूर्याव्द्ययगै |
| ४५ | २२ | अष्टदशोऽध्यायः | अष्टादशोऽध्यायः |
| ८६ | ११ | ॥ ३२ ॥ | ॥ ३१ ॥ |
| १०३ | १४ | ॥४५॥ | ॥४४॥ |
| १०७ | २ | होरा चतुर्थ | होराचतुर्थ |
| ११७ | १९ | कलहप्रिय | कलहप्रियं |
| १६५ | १४ | द्विघ्नाःषष्टिर्निशाः | द्विघ्नाःषष्टिर्निशाः |
| १६६ | ५ | होरां दिनेश | होरादिनेश |
| २४०० | ९ | …..धिपतेस्तुल्यः | लग्नाधिपतेस्तुल्यः |
——————
]
-
मात्रं “मात्रं” ↩︎
-
भानुः%20स%20एष%20जयति “भानुः स एष जयति” ↩︎
-
परिगृह्य “परिगृह्य” ↩︎
-
गोचरदशानाम् “गोचरदशानाम्” ↩︎
-
वक्ष्ये%20सारं%20समुद्धृत्य “वक्ष्ये सारं समुद्धृत्य” ↩︎
-
व्यहोरात्रात् “व्यहोरात्रात्” ↩︎
-
वयवम् “वयवम्” ↩︎
-
ग्रहभवनाद्यैः;%20ग्रहदशभेदैः “ग्रहभवनाद्यैः; ग्रहदशभेदैः” ↩︎
-
लगश्चैव “लगश्चैव” ↩︎
-
जानुक “जानुक” ↩︎
-
भगणः. “भगणः.” ↩︎
-
त्कार्यम् “त्कार्यम्” ↩︎
-
कल्पस्वविक्रम “कल्पस्वविक्रम” ↩︎
-
%C2%A0मथ “मथ” ↩︎
-
स्मृतम्. “स्मृतम्.” ↩︎
-
ममङ्गम “ममङ्गम” ↩︎
-
रंतस्य “रंतस्य” ↩︎
-
सकलं “सकलं” ↩︎
-
गण्ड “गण्ड” ↩︎
-
%20मेव " मेव" ↩︎
-
%C2%A0मेध्य “मेध्य” ↩︎
-
रश्व. “रश्व.” ↩︎
-
रूपम् “रूपम्” ↩︎
-
निसर्गतः “निसर्गतः” ↩︎
-
%C2%A0क्रूरदृक्. “क्रूरदृक्.” ↩︎
-
चन्द्रसुत. “चन्द्रसुत.” ↩︎
-
हिंस्रः “हिंस्रः” ↩︎
-
%20भृत्क " भृत्क" ↩︎
-
लम्बितकचो “लम्बितकचो” ↩︎
-
दूर्वाङ्कुरश्यामलः “दूर्वाङ्कुरश्यामलः” ↩︎
-
धिको “धिको " ↩︎
-
लात्मदेहः. “लात्मदेहः.” ↩︎
-
सव्यं%20संपश्यन्ति “सव्यं संपश्यन्ति " ↩︎
-
पुंस्त्री “पुंस्त्री” ↩︎
-
स्वाभाविक “स्वाभाविक” ↩︎
-
तिपीडितो. “तिपीडितो” ↩︎
-
तः%20प्रपी “तः प्रपी” ↩︎
-
%C2%A0निचयः “निचयः” ↩︎
-
जनः%20ख्यातः “जनः ख्यातः” ↩︎
-
पीडिते%20सदा%20पुरुषः “पीडिते सदा पुरुषः” ↩︎
-
धनो “धनो” ↩︎
-
हरण ↩︎
-
%C2%A0फलं%C2%A0 “फलं” ↩︎
-
र्हरिष्यते “र्हरिष्यते " ↩︎
-
थवा “थवा” ↩︎
-
सुरमन्त्री%20वा “सुरमन्त्री वा” ↩︎
-
पेन%20तु “पेन तु” ↩︎
-
बल “बल” ↩︎
-
ममलं “ममलं” ↩︎
-
व्यसनदाः “व्यसनदाः” ↩︎
-
पदाटनम् “पदाटनम्” ↩︎
-
बलभार “बलभार” ↩︎
-
%20मनोरथादधिकम् " मनोरथादधिकम्” ↩︎
-
बाले “बाले” ↩︎
-
स्यात् “स्यात्” ↩︎
-
ने%20रजनी “ने रजनी” ↩︎
-
बृद्धे “बृद्धे” ↩︎
-
पुंराशिषु%20ग्रहेन्द्रैः “पुंराशिषु ग्रहेन्द्रैः” ↩︎
-
सदा “सदा” ↩︎
-
रवियुतः “रवियुतः” ↩︎
-
भेदादिभिः “भेदादिभिः” ↩︎
-
पतयस्तु “पतयस्तु” ↩︎
-
शैलोर्ण “शैलोर्ण” ↩︎
-
पण्ड “पण्ड” ↩︎
-
जनता “जनता” ↩︎
-
समुत्पत्तिम् “समुत्पत्तिम्” ↩︎
-
मतो “मतो” ↩︎
-
क्षुभिते “क्षुभिते” ↩︎
-
विहितं “विहितं” ↩︎
-
विफलं “विफलं” ↩︎
-
दृष्टियुते “दृष्टियुते” ↩︎
-
धर्मेऽथवात्मजे%20वा “धर्मेऽथवात्मजे वा” ↩︎
-
समे “समे” ↩︎
-
तु%20युवतीनाम् “तु युवतीनाम् " ↩︎
-
पुत्र “पुत्र” ↩︎
-
स्तदा%20दृष्टः. “स्तदा दृष्टः.” ↩︎
-
ननूम् “ननूम्” ↩︎
-
नियत “नियत” ↩︎
-
गर्भः “गर्भः” ↩︎
-
%20नृमिथुनधनु " नृमिथुनधनु” ↩︎
-
गतान् “गतान् " ↩︎
-
%20गर्भे " गर्भे " ↩︎
-
जननीभगिन्योः “जननीभगिन्योः " ↩︎
-
%20तथाति-पूर्णः " तथाति-पूर्णः” ↩︎
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%20यदा " यदा” ↩︎
-
च%20शशिनि%20कृशे “च शशिनि कृशे” ↩︎
-
%20सहगर्भा%20स्त्री " सहगर्भा स्त्री” ↩︎
-
जामित्रगेऽर्कदृष्टे “जामित्रगेऽर्कदृष्टे” ↩︎
-
%C2%A0हृदको “हृदको " ↩︎
-
दशमेऽथ “दशमेऽथ” ↩︎
-
सवः “सवः” ↩︎
-
लग्नवच्चिन्त्यम् “लग्नवच्चिन्त्यम्” ↩︎
-
आधानजन्मऋक्षं,%20आधाने%20जन्मर्क्ष “आधानजन्मऋक्षं, आधाने जन्मर्क्ष” ↩︎
-
च%20गतो “च गतो” ↩︎
-
संदृष्टे “संदृष्टे” ↩︎
-
%20कुजार्कि " कुजार्कि” ↩︎
-
%20तथा " तथा” ↩︎
-
कुजार्कशनिभिः “कुजार्कशनिभिः” ↩︎
-
आधानं “आधानं” ↩︎
-
करम् “करम्” ↩︎
-
तथान्यगृहे “तथान्यगृहे” ↩︎
-
स्वगृहेऽन्यस्मिन्%20प्रतिद्वन्द्वे “स्वगृहेऽन्यस्मिन् प्रतिद्वन्द्वे” ↩︎
-
वर्गे “वर्गे” ↩︎
-
चाश्रिते “चाश्रिते” ↩︎
-
लग्नस्य%C2%A0 “लग्नस्य” ↩︎
-
%20प्रमुखे " प्रमुखे" ↩︎
-
झष “झष” ↩︎
-
%C2%A0जीर्ण “जीर्ण” ↩︎
-
उपस्करस्थानम् “उपस्करस्थानम्” ↩︎
-
पर्यन्ते “पर्यन्ते” ↩︎
-
भागच्छिन्ने “भागच्छिन्ने” ↩︎
-
रपगत “रपगत” ↩︎
-
जातः%20स्यात् “जातः स्यात्” ↩︎
-
%20मरणाय%20निर्दिष्टाः " मरणाय निर्दिष्टाः" ↩︎
-
भवने “भवने” ↩︎
-
सौरियुतोर्कोऽथ “सौरियुतोर्कोऽथ” ↩︎
-
गृहीतोपि%20स%20म्रियते “गृहीतोपि स म्रियते” ↩︎
-
एकांशावस्थितयोर्यमारयोस्त्यज्यते%20मात्रा “एकांशावस्थितयोर्यमारयोस्त्यज्यते मात्रा” ↩︎
-
सुतम् “सुतम्” ↩︎
-
%C2%A0सुते “सुते” ↩︎
-
प्रसूयेते “प्रसूयेते” ↩︎
-
वर्ण “वर्ण” ↩︎
-
यस्येह%20संस्थितो “यस्येह संस्थितो” ↩︎
-
%C2%A0नियतमनियतं%20च “नियतमनियतं च” ↩︎
-
यस्य%20शुक्रगृहे “यस्य शुक्रगृहे” ↩︎
-
रन्ध्रगो “रन्ध्रगो” ↩︎
-
षष्टाष्टव्ययगतो “षष्टाष्टव्ययगतो” ↩︎
-
अशुभैः%20शुभैश्च%20दृष्टो “अशुभैः शुभैश्च दृष्टो” ↩︎
-
न्यूनग्रहैर्दृष्टः “न्यूनग्रहैर्दृष्टः” ↩︎
-
%20तेन%20शुभैस्तु " तेन शुभैस्तु" ↩︎
-
दृष्टः “दृष्टः” ↩︎
-
मूर्त्तौ “मूर्त्तौ” ↩︎
-
पतेर्न%20सन्देहः “पतेर्न सन्देहः” ↩︎
-
%C2%A0वेलायां “वेलायां” ↩︎
-
संस्थैः “संस्थैः” ↩︎
-
बालः “बालः” ↩︎
-
निर्देशात् “निर्देशात्” ↩︎
-
व्यवस्थिते. “व्यवस्थिते.” ↩︎
-
चेन्न “चेन्न” ↩︎
-
वधं%20कुर्युः “वधं कुर्युः” ↩︎
-
सौम्यैरमिश्रदृष्टाः “सौम्यैरमिश्रदृष्टाः” ↩︎
-
सूर्यात्सप्तम “सूर्यात्सप्तम” ↩︎
-
तु%20पुत्रेण “तु पुत्रेण” ↩︎
-
षष्ठान्त्यगेषु “षष्ठान्त्यगेषु” ↩︎
-
निष्ठितौ “निष्ठितौ” ↩︎
-
%C2%A0भवेदन्धः “भवेदन्धः” ↩︎
-
निष्ठितो “निष्ठितो” ↩︎
-
%C2%A0सुतो%20धनभे. “सुतो धनभे.” ↩︎
-
निरी “निरी” ↩︎
-
नयनं%20हरेद्धरेत्पश्चात् “नयनं हरेद्धरेत्पश्चात्” ↩︎
-
न्यतरमाश्रितश्चन्द्रः “न्यतरमाश्रितश्चन्द्रः " ↩︎
-
मानो “मानो” ↩︎
-
तस्माच्च “तस्माच्च” ↩︎
-
%20क्षेत्रस्य " क्षेत्रस्य” ↩︎
-
विपत्स्यते “विपत्स्यते” ↩︎
-
गुरुः “गुरुः” ↩︎
-
पापकः “पापकः” ↩︎
-
%20केन्द्रेष्वन्यतमे " केन्द्रेष्वन्यतमे" ↩︎
-
गुरुशुक्रसमन्विते “गुरुशुक्रसमन्विते” ↩︎
-
युषं%20प्रायः “युषं प्रायः” ↩︎
-
स्थाने “स्थाने” ↩︎
-
रविशशियुक्तः “रविशशियुक्तः” ↩︎
-
कुजाः%20शत्रुगृहे “कुजाः शत्रुगृहे” ↩︎
-
सति%20च%20मुहूर्ते “सति च मुहूर्ते” ↩︎
-
तथैकविंशेंशे “तथैकविंशेंशे” ↩︎
-
%C2%A0क्रूरेण%20वृषे%20मृतिर्मरणभागे “क्रूरेण वृषे मृतिर्मरणभागे” ↩︎
-
ये%20तूक्ताः “ये तूक्ताः” ↩︎
-
स्थानेषु “स्थानेषु” ↩︎
-
तस्मान्मृत्युं “तस्मान्मृत्युं” ↩︎
-
तथैव%20विंशश्च “तथैव विंशश्च” ↩︎
-
त्रिंशच्चत्वारिंशत् “त्रिंशच्चत्वारिंशत्” ↩︎
-
पञ्चाशदेव%20यथोक्तहोरायाः “पञ्चाशदेव यथोक्तहोरायाः” ↩︎
-
वोत्थिता “वोत्थिता” ↩︎
-
%20प्रोक्ताः%20सहजे%20तुर्ये%20पञ्चमके%20सप्तमे%20च%20नवमे%20च%20।%20दशमे%20चैकादशके%20गृहेषु%20जीवस्थितौ%20वर्षाः%20॥११८॥ " प्रोक्ताः सहजे तुर्ये पञ्चमके सप्तमे च नवमे च । दशमे चैकादशके गृहेषु जीवस्थितौ वर्षाः ॥११८॥" ↩︎
-
भूतानतस्तत्र “भूतानतस्तत्र " ↩︎
-
%20सम्यक् " सम्यक्” ↩︎
-
%20शेषाणामपि%20पश्चात् " शेषाणामपि पश्चात्" ↩︎
-
सुनयविद्वेष्टन् “सुनयविद्वेष्टन्” ↩︎
-
वित्तकफानां “वित्तकफानां” ↩︎
-
दाडिम “दाडिम” ↩︎
-
%20सर्वैर्निहन्त्यरिष्टानि " सर्वैर्निहन्त्यरिष्टानि" ↩︎
-
शूलम्%C2%A0 “शूलम्” ↩︎
-
%20हरति " हरति" ↩︎
-
स्वोच्चे%20वा. “स्वोच्चे वा.” ↩︎
-
वर्गेथ “वर्गेथ” ↩︎
-
%C2%A0सौम्येऽपि “सौम्येऽपि” ↩︎
-
अनुयातो%20निरुप “अनुयातो निरुप” ↩︎
-
शुभग्रहैर्दृष्टः “शुभग्रहैर्दृष्टः” ↩︎
-
मत्तान् “मत्तान्” ↩︎
-
सर्वानिमानतिबलः,%20सर्वातिगाम्यतिबलः “सर्वानिमानतिबलः, सर्वातिगाम्यतिबलः” ↩︎
-
%20जालो. " जालो. " ↩︎
-
शूल “शूल” ↩︎
-
भवनं “भवनं” ↩︎
-
भृगुदृष्टिपुष्टम् “भृगुदृष्टिपुष्टम्” ↩︎
-
सर्वापदाभिरहितो “सर्वापदाभिरहितो” ↩︎
-
विलीयते “विलीयते” ↩︎
-
वर्ज “वर्ज” ↩︎
-
हितायां “हितायां” ↩︎
-
%C2%A0पवनविरजो “पवनविरजो” ↩︎
-
जलजा “जलजा” ↩︎
-
स्वस्थाः “स्वस्थाः” ↩︎
-
शास्ति “शास्ति” ↩︎
-
शमयति%20हि “शमयति हि” ↩︎
-
यथाम्बुधराः “यथाम्बुधराः” ↩︎
-
पूर्वाणां “पूर्वाणां” ↩︎
-
यातैस्त्रिभागमपरैः “यातैस्त्रिभागमपरैः” ↩︎
-
तज्जः “तज्जः” ↩︎
-
सरटः “सरटः” ↩︎
-
भिनत्त्याशु “भिनत्त्याशु” ↩︎
-
च%20सर्व “च सर्व” ↩︎
-
%20त्पृथु " त्पृथु" ↩︎
-
सुगुणो “सुगुणो” ↩︎
-
कान्तः ↩︎
-
कामिनीनाम् “कामिनीनाम्” ↩︎
-
वित्तो “वित्तो” ↩︎
-
%C2%A0भागी. “भागी.” ↩︎
-
दान्तः “दान्तः” ↩︎
-
जनपोषण “जनपोषण” ↩︎
-
बन्धुगृहवस्त्र “बन्धुगृहवस्त्र” ↩︎
-
%20वित्तगृहवां " वित्तगृहवां" ↩︎
-
प्रकरणम् “प्रकरणम्” ↩︎
-
वंश “वंश” ↩︎
-
सेव्य “सेव्य” ↩︎
-
%C2%A0प्रगल्भश्च “प्रगल्भश्च” ↩︎
-
गान्धर्व “गान्धर्व” ↩︎
-
%C2%A0सत्कविर्भवति “सत्कविर्भवति” ↩︎
-
युवतिजनानां “युवतिजनानां " ↩︎
-
भोगवान्%20कान्तः “भोगवान् कान्तः” ↩︎
-
कनकसमृद्धश्चण्ड “कनकसमृद्धश्चण्ड” ↩︎
-
भर्त्ता “भर्त्ता” ↩︎
-
गुणाधिको “गुणाधिको” ↩︎
-
उत्तमरामा,%20उत्तमकामः “उत्तमरामा, उत्तमकामः” ↩︎
-
%20द्रविणो " द्रविणो” ↩︎
-
अत्यातिकः,%20अल्पात्मजः “अत्यातिकः, अल्पात्मजः " ↩︎
-
कृष्णे%20तु%20शीतकिरणो “कृष्णे तु शीतकिरणो” ↩︎
-
येऽपि “येऽपि” ↩︎
-
%20वाशी%20तद्धनगैश्चन्द्रवर्जितैः. " वाशी तद्धनगैश्चन्द्रवर्जितैः.” ↩︎
-
%20र्वेशी " र्वेशी" ↩︎
-
%C2%A0कर्कशो “कर्कशो” ↩︎
-
मार्गघ्नः “मार्गघ्नः” ↩︎
-
वचनसारः “वचनसारः” ↩︎
-
बलवान् “बलवान्” ↩︎
-
भाग्यश्च “भाग्यश्च” ↩︎
-
%20खल " खल" ↩︎
-
सुसमदृक् “सुसमदृक्” ↩︎
-
परिपूर्णः%20सिंहग्रीवो%20भवेदुभयचर्याम् “परिपूर्णः सिंहग्रीवो भवेदुभयचर्याम्” ↩︎
-
कूटकृत्%20प्रलघुचित्तः “कूटकृत् प्रलघुचित्तः” ↩︎
-
सुबुद्धिमान् “सुबुद्धिमान्” ↩︎
-
चरभे “चरभे” ↩︎
-
जनः “जनः " ↩︎
-
%20स्वकर्म " स्वकर्म” ↩︎
-
सिद्धः “सिद्धः” ↩︎
-
वेदनाप्तदाह “वेदनाप्तदाह” ↩︎
-
रतिः “रतिः” ↩︎
-
%20संमानकृद्धनेशश्च " संमानकृद्धनेशश्च" ↩︎
-
हितो. “हितो.” ↩︎
-
धूपां “धूपां” ↩︎
-
कवि “कवि” ↩︎
-
वधूनां “वधूनां” ↩︎
-
सम्पालको “सम्पालको” ↩︎
-
%20शिल्पी. " शिल्पी." ↩︎
-
योगे “योगे” ↩︎
-
युवतिको “युवतिको” ↩︎
-
विटः%20सिते%20रुधिरसंयुते%20भवति “विटः सिते रुधिरसंयुते भवति” ↩︎
-
प्रपञ्चकस्तोयकर्म “प्रपञ्चकस्तोयकर्म” ↩︎
-
वाद्य “वाद्य” ↩︎
-
गुणवान् “गुणवान्” ↩︎
-
दम्भ “दम्भ " ↩︎
-
वेदै “वेदै” ↩︎
-
%20भवेद्धनवान्. " भवेद्धनवान्.” ↩︎
-
नगराधिपतिः%20सुखी%20यशस्वी%20च. “नगराधिपतिः सुखी यशस्वी च.” ↩︎
-
अखिल “अखिल” ↩︎
-
रतो “रतो” ↩︎
-
कामविवादे “कामविवादे” ↩︎
-
चमूपतिः “चमूपतिः” ↩︎
-
शास्त्रकथाकाव्यगोष्ठिशिल्परतः “शास्त्रकथाकाव्यगोष्ठिशिल्परतः” ↩︎
-
अभिशस्तो “अभिशस्तो” ↩︎
-
व्रणिताङ्गः “व्रणिताङ्गः” ↩︎
-
भीरुश्च “भीरुश्च” ↩︎
-
सेर्ष्यो “सेर्ष्यो” ↩︎
-
अस्वातन्त्र्यो%20विकलः “अस्वातन्त्र्यो विकलः” ↩︎
-
रोषः “रोषः” ↩︎
-
विपुलकीर्तिः “विपुलकीर्तिः” ↩︎
-
मान “मान” ↩︎
-
युतं “युतं” ↩︎
-
उग्रो%20हुतभुक्तीव्रः “उग्रो हुतभुक्तीव्रः” ↩︎
-
सौवर्णकः “सौवर्णकः” ↩︎
-
वीरः “वीरः” ↩︎
-
गाम्भीर्यो%20रुचिर “गाम्भीर्यो रुचिर” ↩︎
-
त्रस्ताक्षो%20%20भूपसंमतो,%20पिङ्गाक्षो%20भूपसंमतो “त्रस्ताक्षो भूपसंमतो, पिङ्गाक्षो भूपसंमतो” ↩︎
-
नृपतिपूज्यः “नृपतिपूज्यः” ↩︎
-
चरो “चरो” ↩︎
-
योधः “योधः” ↩︎
-
द्वेष्टा “द्वेष्टा” ↩︎
-
रुचिर “रुचिर” ↩︎
-
%C2%A0शस्त्र,%20शास्त्र “शस्त्र, शास्त्र” ↩︎
-
कामाचारो “कामाचारो” ↩︎
-
बन्धुसुहृद्धिकृतो,%20बन्धु-%20सुहृदुःखितो “बन्धुसुहृद्धिकृतो, बन्धु- सुहृदुःखितो” ↩︎
-
स्फीतः%20सेनापतिः “स्फीतः सेनापतिः” ↩︎
-
विशिष्ट “विशिष्ट " ↩︎
-
%20कर्मकरः " कर्मकरः” ↩︎
-
खास “खास” ↩︎
-
जन्मार्हतैषां “जन्मार्हतैषां” ↩︎
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सौरयश्च “सौरयश्च” ↩︎
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दिनकरगतैर्भक्तिमन्तो%20न%20शक्ताः “दिनकरगतैर्भक्तिमन्तो न शक्ताः” ↩︎
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वधमुपगतैः “वधमुपगतैः” ↩︎
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प्रच्युतिस्तै “प्रच्युतिस्तै” ↩︎
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रुचि “रुचि” ↩︎
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कुजार्क “कुजार्क” ↩︎
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%20तं%20पुनः " तं पुनः" ↩︎
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विपुलांगः “विपुलांगः” ↩︎
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तुझांशेषु “तुझांशेषु” ↩︎
-
%C2%A0शिखां%20विना “शिखां विना” ↩︎
-
समयाधिकारे “समयाधिकारे” ↩︎
-
सद्भिक्षवः “सद्भिक्षवः” ↩︎
-
%20समये " समये" ↩︎
-
घृष्ट “घृष्ट” ↩︎
-
सावित्रैः “सावित्रैः” ↩︎
-
परभाग्यैरेव%20जीवितं%20तेषाम् “परभाग्यैरेव जीवितं तेषाम्” ↩︎
-
आद्यन्तवयः%20सुखिनः “आद्यन्तवयः सुखिनः” ↩︎
-
सुतृष्णाश्च “सुतृष्णाश्च” ↩︎
-
नीचायोनिनिकृष्टाः “नीचायोनिनिकृष्टाः " ↩︎
-
गेय “गेय” ↩︎
-
सुहृद्भिस्त्यक्ताः “सुहृद्भिस्त्यक्ताः” ↩︎
-
स्सशुभाः “स्सशुभाः” ↩︎
-
काराः “काराः” ↩︎
-
%20हीनाः " हीनाः” ↩︎
-
भवन्ति%20नराः “भवन्ति नराः” ↩︎
-
%20परभक्तपापनिरताः,%20परवेश्मभक्ष्यनिरताः " परभक्तपापनिरताः, परवेश्मभक्ष्यनिरताः" ↩︎
-
%C2%A0यत्स्यात् “यत्स्यात्” ↩︎
-
कुत्सितरामासक्तः “कुत्सितरामासक्तः” ↩︎
-
कृशो%20न%20बहुपुत्रः “कृशो न बहुपुत्रः” ↩︎
-
मतिमान् “मतिमान्” ↩︎
-
सदोयुक्तः “सदोयुक्तः” ↩︎
-
बुधेन%20दृष्टे%20कृशतनुः%20स्यात् “बुधेन दृष्टे कृशतनुः स्यात्” ↩︎
-
%20सहितो. " सहितो." ↩︎
-
खिन्नः “खिन्नः” ↩︎
-
%C2%A0मद्यप्रियः%20सधर्मो “मद्यप्रियः सधर्मो” ↩︎
-
%20बहु. " बहु." ↩︎
-
%20स्थितिः " स्थितिः " ↩︎
-
शोफ “शोफ” ↩︎
-
विरुद्धः “विरुद्धः” ↩︎
-
विसुतः “विसुतः” ↩︎
-
प्रभग्नश्व “प्रभग्नश्व” ↩︎
-
मुखरः “मुखरः” ↩︎
-
%20सुगुणः " सुगुणः" ↩︎
-
सङ्ग “सङ्ग” ↩︎
-
जयोदयी “जयोदयी” ↩︎
-
%C2%A0सेवाविन्न “सेवाविन्न " ↩︎
-
%C2%A0वानभद्रः “वानभद्रः” ↩︎
-
वहति “वहति” ↩︎
-
%20विषशिखितापास्त्रवैकृतशरीरः " विषशिखितापास्त्रवैकृतशरीरः” ↩︎
-
%C2%A0मूत्रकृच्छ्रार्तः “मूत्रकृच्छ्रार्तः” ↩︎
-
वामा%20विद्याचार्यः “वामा विद्याचार्यः” ↩︎
-
भोक्ता “भोक्ता " ↩︎
-
कर “कर” ↩︎
-
ककुद. “ककुद.” ↩︎
-
चतुष्पदसमृद्धमत्याढ्यम्. “चतुष्पदसमृद्धमत्याढ्यम्.” ↩︎
-
मातु-रपथ्यं. “मातु-रपथ्यं.” ↩︎
-
धनसुखहीनमनिष्टं%20मातुर्वृषभे%20करोति%20युवतीनाम् “धनसुखहीनमनिष्टं मातुर्वृषभे करोति युवतीनाम् " ↩︎
-
पुरुषम् “पुरुषम्” ↩︎
-
%C2%A0बुह्वुदाक्षः “बुह्वुदाक्षः” ↩︎
-
सौभाग्यधैर्यगृह “सौभाग्यधैर्यगृह” ↩︎
-
%C2%A0लेखहारकं “लेखहारकं” ↩︎
-
स्थूलास्यो%20मन्द “स्थूलास्यो मन्द” ↩︎
-
%C2%A0ऽल्प%20पुत्रो “ऽल्प पुत्रो” ↩︎
-
%C2%A0महास्वनं%20धीरं “महास्वनं धीरं” ↩︎
-
तनुयुत “तनुयुत” ↩︎
-
बहुसुरतहितः “बहुसुरतहितः” ↩︎
-
%20सुभगम् " सुभगम्” ↩︎
-
गुह्यः “गुह्यः” ↩︎
-
अतिमति “अतिमति " ↩︎
-
वर “वर” ↩︎
-
लालितं%20कीटे “लालितं कीटे " ↩︎
-
विदित “विदित” ↩︎
-
नट्याचार्यं “नट्याचार्यं” ↩︎
-
चार्वज्ञः “चार्वज्ञः” ↩︎
-
ऽति%20दीर्घः “ऽति दीर्घः” ↩︎
-
कुविषयनाथं%20शश्यल्पमतिं%20निरीक्षितो “कुविषयनाथं शश्यल्पमतिं निरीक्षितो” ↩︎
-
घटभृदुपगते “घटभृदुपगते” ↩︎
-
अशनो “अशनो” ↩︎
-
सौम्यवाक् “सौम्यवाक्” ↩︎
-
%20ज्ञानेसक्तः " ज्ञानेसक्तः” ↩︎
-
%C2%A0सुत%C2%A0 “सुत” ↩︎
-
पापरहितं “पापरहितं” ↩︎
-
परयुवति “परयुवति” ↩︎
-
भौमांशे “भौमांशे” ↩︎
-
नंच “नंच” ↩︎
-
%20ण्डंच " ण्डंच” ↩︎
-
कलि “कलि” ↩︎
-
%20धर्षण " धर्षण” ↩︎
-
कामिनमस्त्रेण%20बहुमान्यम् “कामिनमस्त्रेण बहुमान्यम्” ↩︎
-
कार्य “कार्य” ↩︎
-
तनुं%20परिक्षयशरीरम् “तनुं परिक्षयशरीरम्” ↩︎
-
हरणे “हरणे” ↩︎
-
सतमस्कम् “सतमस्कम्” ↩︎
-
हृतसुतं “हृतसुतं” ↩︎
-
प्रणाश्यं%C2%A0वा “प्रणाश्यंवा” ↩︎
-
%20जरटम् " जरटम्" ↩︎
-
पाननिरतं “पाननिरतं” ↩︎
-
%20जनः " जनः" ↩︎
-
%20रतः " रतः " ↩︎
-
प्रभक्षणो “प्रभक्षणो” ↩︎
-
सुखभाग्ययुतो “सुखभाग्ययुतो” ↩︎
-
सुखिनं%20धनिनं%20कान्तं%20कन्यापुररक्षकं%20युवतिसत्वयुतम् “सुखिनं धनिनं कान्तं कन्यापुररक्षकं युवतिसत्वयुतम्” ↩︎
-
दैन्येन%20विदेशगं “दैन्येन विदेशगं” ↩︎
-
अतिशूरमति%20मलिनं “अतिशूरमति मलिनं” ↩︎
-
स्त्रीसङ्गान्नष्टधनः “स्त्रीसङ्गान्नष्टधनः” ↩︎
-
जलसंयानाप्तधनः “जलसंयानाप्तधनः” ↩︎
-
क्षितिपालसमः%20पुमान्%20ललितचेष्टः “क्षितिपालसमः पुमान् ललितचेष्टः” ↩︎
-
अङ्गनाप्तार्थः “अङ्गनाप्तार्थः” ↩︎
-
सद्गृहावासम् “सद्गृहावासम्” ↩︎
-
शरम् “शरम्” ↩︎
-
सुखधनरहितं “सुखधनरहितं” ↩︎
-
%20अति%20मधुरमटन " अति मधुरमटन" ↩︎
-
अतिरूपम् “अतिरूपम्” ↩︎
-
गभीर “गभीर” ↩︎
-
युवतिरूपः “युवतिरूपः” ↩︎
-
%20वर्जश्व " वर्जश्व" ↩︎
-
शिल्प “शिल्प” ↩︎
-
विभवः “विभवः” ↩︎
-
शब्द,%20शास्त्र “शब्द, शास्त्र” ↩︎
-
रहितः “रहितः” ↩︎
-
लज्ज “लज्ज” ↩︎
-
विहितात्मा “विहितात्मा” ↩︎
-
%20कलाज्ञश्च " कलाज्ञश्च" ↩︎
-
विज्ञातः “विज्ञातः” ↩︎
-
रतं “रतं” ↩︎
-
प्रत्ययिनं “प्रत्ययिनं” ↩︎
-
युजं “युजं” ↩︎
-
विदसृग्दृष्टः%20? “विदसृग्दृष्टः ?” ↩︎
-
शस्त्रवत्सलं “शस्त्रवत्सलं” ↩︎
-
अविहतगात्रं “अविहतगात्रं” ↩︎
-
%20मधुरं " मधुरं" ↩︎
-
भावं “भावं” ↩︎
-
कल्पिताङ्ग “कल्पिताङ्ग” ↩︎
-
%20च%20विख्यातम् " च विख्यातम्" ↩︎
-
शुचिरूपं “शुचिरूपं” ↩︎
-
प्रत्ययिकं “प्रत्ययिकं” ↩︎
-
सुखाधीनम् “सुखाधीनम्” ↩︎
-
समासङ्गः “समासङ्गः” ↩︎
-
समेतः “समेतः” ↩︎
-
भूषाप्रियो “भूषाप्रियो” ↩︎
-
हर्म्य “हर्म्य” ↩︎
-
रोष “रोष” ↩︎
-
समः%20स्थिरार्थश्च. “समः स्थिरार्थश्च.” ↩︎
-
हार “हार” ↩︎
-
%20नीचा " नीचा" ↩︎
-
वास “वास” ↩︎
-
स्त्रीकः “स्त्रीकः” ↩︎
-
श्लाघ्यःस “श्लाघ्यःस” ↩︎
-
मीनयुगे%20भवति%20ना “मीनयुगे भवति ना” ↩︎
-
धनिनं “धनिनं” ↩︎
-
त्याढ्यं “त्याढ्यं” ↩︎
-
ङ्गिनं%20पुरुषम् “ङ्गिनं पुरुषम्” ↩︎
-
सुभगं “सुभगं” ↩︎
-
दारपुत्रगृहयुक्तम् “दारपुत्रगृहयुक्तम्” ↩︎
-
मातृवत्सलं. “मातृवत्सलं.” ↩︎
-
विजयं “विजयं” ↩︎
-
विकृत्त “विकृत्त” ↩︎
-
प्रसादसुमुखं “प्रसादसुमुखं” ↩︎
-
प्रत्यायकसमंत्रिणं “प्रत्यायकसमंत्रिणं” ↩︎
-
स्त्रीभाग्यैरुपचितार्थमत्याढ्यम् “स्त्रीभाग्यैरुपचितार्थमत्याढ्यम्” ↩︎
-
मग्र्य “मग्र्य” ↩︎
-
परोपतापकरम् “परोपतापकरम्” ↩︎
-
दृष्टः%20स्वगृहगुरुः “दृष्टः स्वगृहगुरुः " ↩︎
-
सभयं “सभयं” ↩︎
-
प्रकृतिसमुत्थं “प्रकृतिसमुत्थं” ↩︎
-
%20सुख " सुख” ↩︎
-
मतिं “मतिं” ↩︎
-
%20विज्ञानकालशास्त्रप्रतीतसत्यस्थितो%20वाग्मी " विज्ञानकालशास्त्रप्रतीतसत्यस्थितो वाग्मी" ↩︎
-
स्मृति “स्मृति” ↩︎
-
जनोपासनया “जनोपासनया” ↩︎
-
कुलार्थ “कुलार्थ” ↩︎
-
%20मधन " मधन" ↩︎
-
अति%20च%20कान्तं “अति च कान्तं” ↩︎
-
%20परिभोग " परिभोग" ↩︎
-
गणपतिमथेश्वरं%20वा “गणपतिमथेश्वरं वा” ↩︎
-
अतिरचिरां%20शुक्लाङ्गीं “अतिरचिरां शुक्लाङ्गीं” ↩︎
-
असुखिनमटनं “असुखिनमटनं” ↩︎
-
समैः “समैः” ↩︎
-
अतिरूपं “अतिरूपं” ↩︎
-
%20प्रपञ्चशील " प्रपञ्चशील" ↩︎
-
पुंगुह्य “पुंगुह्य” ↩︎
-
%20कुशिल्पश्च " कुशिल्पश्च " ↩︎
-
%20भ्रान्तः " भ्रान्तः" ↩︎
-
स्वकृत्य “स्वकृत्य” ↩︎
-
अशठः “अशठः " ↩︎
-
स्थिरार्थ “स्थिरार्थ” ↩︎
-
धूर्त्तकवञ्चन%20कुशलः “धूर्त्तकवञ्चन कुशलः” ↩︎
-
सितभे%20वस्त्रान्नकुसुमपरिवारं “सितभे वस्त्रान्नकुसुमपरिवारं” ↩︎
-
क्लीबकरं “क्लीबकरं” ↩︎
-
विकृष्टमतिम् “विकृष्टमतिम्” ↩︎
-
मण्डनेषु “मण्डनेषु” ↩︎
-
चापि “चापि” ↩︎
-
पत्नीश्वरं “पत्नीश्वरं” ↩︎
-
प्रवासशीलं “प्रवासशीलं” ↩︎
-
%C2%A0शनिः%20सचिवमर्थवर्जितं%20गुरुभे “शनिः सचिवमर्थवर्जितं गुरुभे” ↩︎
-
भक्तः “भक्तः” ↩︎
-
विभृत्यच “विभृत्यच” ↩︎
-
बालाशयानुरक्तः “बालाशयानुरक्तः " ↩︎
-
षष्टे%20नर%20उदरभवैः “षष्टे नर उदरभवैः” ↩︎
-
प्रियसमाक्षः “प्रियसमाक्षः” ↩︎
-
प्रबलोदराग्निपुंस्त्वः%20स्त्रीरहितो%20विगततनुः%20सप्तमभवनस्थिते%20भौमे “प्रबलोदराग्निपुंस्त्वः स्त्रीरहितो विगततनुः सप्तमभवनस्थिते भौमे” ↩︎
-
श्रतिनिरतः%20परिभूतः “श्रतिनिरतः परिभूतः " ↩︎
-
नरस्सचलः “नरस्सचलः " ↩︎
-
विद्यासुखप्रतापैः “विद्यासुखप्रतापैः” ↩︎
-
सफलारम्भो “सफलारम्भो” ↩︎
-
सत्य “सत्य” ↩︎
-
सहजातो “सहजातो” ↩︎
-
सुजनप्रेष्य “सुजनप्रेष्य” ↩︎
-
शिष्ट “शिष्ट” ↩︎
-
विनाकृतं “विनाकृतं” ↩︎
-
बहु%20विभवं “बहु विभवं” ↩︎
-
उत्थानविवादार्जितसुखरतिमानार्थकीर्तयो “उत्थानविवादार्जितसुखरतिमानार्थकीर्तयो” ↩︎
-
काम%20वशगो “काम वशगो” ↩︎
-
विचेतसं “विचेतसं” ↩︎
-
ऽपथरतः “ऽपथरतः” ↩︎
-
शिल्पाश्रितो “शिल्पाश्रितो " ↩︎
-
योगाश्रय “योगाश्रय” ↩︎
-
योगात्सौम्य “योगात्सौम्य” ↩︎
-
मित्रहीनः,%20विभवहीनः “मित्रहीनः, विभवहीनः” ↩︎
-
अज्ञो “अज्ञो” ↩︎
-
पित्तरोगैः “पित्तरोगैः” ↩︎
-
कल्पतरुः “कल्पतरुः” ↩︎
-
भूपतिरजितो “भूपतिरजितो” ↩︎
-
नेष्टो “नेष्टो” ↩︎
-
स्थिरवित्तः “स्थिरवित्तः” ↩︎
-
कुशिल्प “कुशिल्प” ↩︎
-
बहुसंमतो “बहुसंमतो” ↩︎
-
यन्नवमर्क्षं%20गृहं “यन्नवमर्क्षं गृहं” ↩︎
-
कस्मिन्%20को%20वा “कस्मिन् को वा” ↩︎
-
%20भाग् " भाग्” ↩︎
-
सुभगो “सुभगो” ↩︎
-
%20बहुवित्तं " बहुवित्तं” ↩︎
-
सुभगमथा “सुभगमथा” ↩︎
-
प्रवासार्त्तम् “प्रवासार्त्तम्” ↩︎
-
भावेन “भावेन” ↩︎
-
%20प्रभक्षणं " प्रभक्षणं” ↩︎
-
मनुजं%20पापम् “मनुजं पापम्” ↩︎
-
Sloka%2092%20is%20found%20in%20P.%20L.%20and%20K.%20N.%20MSS. “Sloka 92 is found in P. L. and K. N. MSS.” ↩︎
-
Sloka%20100%20is%20found%20in%20the%20P.%20L.%20M.S. “Sloka 100 is found in the P. L. M.S.” ↩︎
-
%C2%A0Reading%20of%20Sloka%20103%20in%20the%20P.%20L.%20M.%20S.%20१.%20भावै. “Reading of Sloka 103 in the P. L. M. S. १. भावै.” ↩︎
-
तत्स्वभावं “तत्स्वभावं” ↩︎
-
%20यस्य " यस्य” ↩︎
-
सिद्धि “सिद्धि” ↩︎
-
%20जनाश्रयं " जनाश्रयं” ↩︎
-
सिनं “सिनं” ↩︎
-
नृपतिसंमतं “नृपतिसंमतं” ↩︎
-
कामशोकमदबहुलान् “कामशोकमदबहुलान्” ↩︎
-
धीरान् “धीरान्” ↩︎
-
नृशंसं “नृशंसं” ↩︎
-
%20प्रजाहीनम्. " प्रजाहीनम्." ↩︎
-
षण्डं. “षण्डं.” ↩︎
-
%20तापकरं " तापकरं" ↩︎
-
जेतारं “जेतारं” ↩︎
-
सुधर्म “सुधर्म” ↩︎
-
कुर्युर्मालाकारं%20लेख्यकरं%20चापि%20वास्तुकर्मरतम् “कुर्युर्मालाकारं लेख्यकरं चापि वास्तुकर्मरतम्” ↩︎
-
सदो%20युक्तं “सदो युक्तं” ↩︎
-
चन्द्रात् “चन्द्रात्” ↩︎
-
भाव “भाव” ↩︎
-
जादि. “जादि.” ↩︎
-
शल्यो “शल्यो” ↩︎
-
आहिण्ड “आहिण्ड” ↩︎
-
संव्यूहकाः “संव्यूहकाः” ↩︎
-
कुल्यानाम्%20स्वर्णकूटकल्पानां “कुल्यानाम् स्वर्णकूटकल्पानां” ↩︎
-
%20दुप " दुप" ↩︎
-
%20मित्राच्च. " मित्राच्च." ↩︎
-
विषण “विषण” ↩︎
-
भिषज “भिषज” ↩︎
-
कृषीवलाश्चैव “कृषीवलाश्चैव” ↩︎
-
रताः “रताः” ↩︎
-
वामा “वामा” ↩︎
-
%20शोर्येण " शोर्येण" ↩︎
-
पृष्टम् “पृष्टम्” ↩︎
-
प्रदूषणख्यातः “प्रदूषणख्यातः” ↩︎
-
%20निपुणमति " निपुणमति" ↩︎
-
%C2%A0सुभगाः “सुभगाः” ↩︎
-
सुखावहं “सुखावहं” ↩︎
-
विविधं “विविधं” ↩︎
-
सहजहन्ता “सहजहन्ता” ↩︎
-
आङ्गरक “आङ्गरक” ↩︎
-
सुतभवनमथशुभयुतं “सुतभवनमथशुभयुतं” ↩︎
-
शुभराशौ%20सौरसो%20भवेत्पुरुषः,%20चौरसो%20भवेत्पुत्रः “शुभराशौ सौरसो भवेत्पुरुषः, चौरसो भवेत्पुत्रः” ↩︎
-
सौम्यर्क्षै “सौम्यर्क्षै” ↩︎
-
नगुरुभौम “नगुरुभौम” ↩︎
-
शुभर्क्ष “शुभर्क्ष” ↩︎
-
वा%20स्याज्जातस्य “वा स्याज्जातस्य” ↩︎
-
हि%20बीजजः%20पुत्रः,%20यतो%20धमः%20पुत्रः,%20सुतोधमापुत्रः%20सुतोधनप्रसवः “हि बीजजः पुत्रः, यतो धमः पुत्रः, सुतोधमापुत्रः सुतोधनप्रसवः” ↩︎
-
दर्शनायाते “दर्शनायाते” ↩︎
-
%20चन्द्रसूर्ययोर्गेहे " चन्द्रसूर्ययोर्गेहे" ↩︎
-
दृष्ट “दृष्ट” ↩︎
-
शुक्रे%20दृष्टे,%20शुक्रसुदृष्टे%20बहून्यपत्यानि “शुक्रे दृष्टे, शुक्रसुदृष्टे बहून्यपत्यानि” ↩︎
-
क्षेत्रगृहेश “क्षेत्रगृहेश” ↩︎
-
वर्गयुतेभे,%20बलयुक्तेवा “वर्गयुतेभे, बलयुक्तेवा” ↩︎
-
सवर्णा “सवर्णा” ↩︎
-
%C2%A0नित्यवियुक्तो “नित्यवियुक्तो” ↩︎
-
मास्यतिमन्ददृष्टे “मास्यतिमन्ददृष्टे” ↩︎
-
लग्नव्ययषष्टगयोः “लग्नव्ययषष्टगयोः” ↩︎
-
शनिभार्गवयोः,%20शशिभास्करयोर्वदन्ति “शनिभार्गवयोः, शशिभास्करयोर्वदन्ति” ↩︎
-
व्ययमदनस्थैः “व्ययमदनस्थैः” ↩︎
-
विपुलाः “विपुलाः” ↩︎
-
वन “वन” ↩︎
-
जल “जल” ↩︎
-
थ%20युते “थ युते” ↩︎
-
यानयोगैः “यानयोगैः” ↩︎
-
महिषबहुलं “महिषबहुलं” ↩︎
-
%20सदा%20च%20भवे,%20सदाये%20तु " सदा च भवे, सदाये तु" ↩︎
-
दृक्का “दृक्का” ↩︎
-
प्लीहादि “प्लीहादि” ↩︎
-
स्यभवः “स्यभवः” ↩︎
-
यदा%20शोषी “यदा शोषी” ↩︎
-
एकतर “एकतर” ↩︎
-
यथायोगं “यथायोगं” ↩︎
-
नयन “नयन” ↩︎
-
मदने “मदने” ↩︎
-
वातः “वातः” ↩︎
-
जनपदेऽपि%20वदन्ति “जनपदेऽपि वदन्ति” ↩︎
-
भे “भे” ↩︎
-
पात्येक “पात्येक” ↩︎
-
द्गमे “द्गमे” ↩︎
-
भवेन्नृपः “भवेन्नृपः” ↩︎
-
तिष्ठेन्न “तिष्ठेन्न” ↩︎
-
नया%20सदानुभावैः “नया सदानुभावैः” ↩︎
-
स्वर्क्षे “स्वर्क्षे” ↩︎
-
समन्ताच्च “समन्ताच्च” ↩︎
-
सुखस्थः “सुखस्थः " ↩︎
-
ग्रहः “ग्रहः” ↩︎
-
%20सौम्येक्षितः%20पूर्णकलो " सौम्येक्षितः पूर्णकलो” ↩︎
-
%20श्चिरमवतिगामेक " श्चिरमवतिगामेक" ↩︎
-
वर्गः “वर्गः” ↩︎
-
%20विहगनाथैः " विहगनाथैः" ↩︎
-
नियतम् “नियतम्” ↩︎
-
संस्थः “संस्थः” ↩︎
-
%20कर्कटकोपगश्चेत् " कर्कटकोपगश्चेत्" ↩︎
-
परिपूरिताशाः “परिपूरिताशाः” ↩︎
-
%20इह " इह" ↩︎
-
संस्थितंः “संस्थितंः " ↩︎
-
सितयुक्ते “सितयुक्ते " ↩︎
-
गृहेनचोदिते “गृहेनचोदिते” ↩︎
-
भाग “भाग” ↩︎
-
यदि%20देवनमस्यो “यदि देवनमस्यो” ↩︎
-
%20देहः " देहः” ↩︎
-
न्नतमनसं “न्नतमनसं” ↩︎
-
शनिः,%20यदा “शनिः, यदा” ↩︎
-
%20नृप " नृप” ↩︎
-
बक्रै “बक्रै” ↩︎
-
र्विध्यते “र्विध्यते” ↩︎
-
कुज%20युतः “कुज युतः” ↩︎
-
बली “बली” ↩︎
-
जगति “जगति” ↩︎
-
सव्यपदेशः “सव्यपदेशः” ↩︎
-
%20वैधृतगृह " वैधृतगृह" ↩︎
-
स%20करोति%20भुवो “स करोति भुवो” ↩︎
-
वा “वा” ↩︎
-
दनुजपगुरु “दनुजपगुरु” ↩︎
-
शेपाश्च%C2%A0मत्स्ययुगले%20यदि%20चेद्ग्रहेन्द्राः “शेपाश्चमत्स्ययुगले यदि चेद्ग्रहेन्द्राः” ↩︎
-
%20विमल " विमल" ↩︎
-
क्षीणोऽपि “क्षीणोऽपि” ↩︎
-
खोच्चगतः “खोच्चगतः” ↩︎
-
%20वारणो " वारणो" ↩︎
-
गुरुभार्गवौ “गुरुभार्गवौ” ↩︎
-
सहितः “सहितः” ↩︎
-
मृर्गगतश्चसितः “मृर्गगतश्चसितः” ↩︎
-
राजांग “राजांग” ↩︎
-
चार्क “चार्क” ↩︎
-
बलिना “बलिना” ↩︎
-
पांसु “पांसु” ↩︎
-
%20च%20स्वर्गाधिपो;%20च%20द्वीपाधिपो " च स्वर्गाधिपो; च द्वीपाधिपो" ↩︎
-
खगेन%20चैव “खगेन चैव” ↩︎
-
भानुस्तृतीये “भानुस्तृतीये” ↩︎
-
विद्वान्जातो “विद्वान्जातो” ↩︎
-
%20प्रथमभवेन " प्रथमभवेन" ↩︎
-
पापाभवे%20सुरपुरोहितदृष्टिशुद्धा “पापाभवे सुरपुरोहितदृष्टिशुद्धा” ↩︎
-
शरीरे “शरीरे” ↩︎
-
गृहे “गृहे” ↩︎
-
%20लग्ने " लग्ने" ↩︎
-
सिद्धाज्ञाकन्न “सिद्धाज्ञाकन्न” ↩︎
-
प्रभवे “प्रभवे” ↩︎
-
गतैः “गतैः” ↩︎
-
परिभ्रम “परिभ्रम” ↩︎
-
जातोत्र “जातोत्र” ↩︎
-
एकाधिकविंशेंशे “एकाधिकविंशेंशे” ↩︎
-
त्रिंशे “त्रिंशे” ↩︎
-
%20रविजो " रविजो" ↩︎
-
सुभगम् “सुभगम्” ↩︎
-
सूर्य “सूर्य” ↩︎
-
पालकः “पालकः” ↩︎
-
सुरश्मौ “सुरश्मौ” ↩︎
-
शुक्र “शुक्र” ↩︎
-
%20तन–यावर्थगौ " तन–यावर्थगौ" ↩︎
-
नीचविहीनः “नीचविहीनः” ↩︎
-
जन “जन” ↩︎
-
धन “धन” ↩︎
-
सत्सावित “सत्सावित” ↩︎
-
पञ्चदशग्राम “पञ्चदशग्राम” ↩︎
-
चत्वारिंशद्वित्ता “चत्वारिंशद्वित्ता” ↩︎
-
सर्वक्षितिपालकानुक्ताः%20(? ↩︎
-
मति “मति” ↩︎
-
%20विस्तरान्मुनिमतात्संकल्प्य%20ते " विस्तरान्मुनिमतात्संकल्प्य ते" ↩︎
-
बलैः “बलैः” ↩︎
-
दास “दास” ↩︎
-
निविष्टबुद्धिः “निविष्टबुद्धिः” ↩︎
-
सक्तचित्तः%20ऋतुषु “सक्तचित्तः ऋतुषु” ↩︎
-
%20रतः " रतः" ↩︎
-
गोपोक्षविद्रा,%20वेदार्थविद्रा “गोपोक्षविद्रा, वेदार्थविद्रा” ↩︎
-
प्रसिद्धः “प्रसिद्धः” ↩︎
-
र्गदार्त्तो “र्गदार्त्तो” ↩︎
-
भूराश्यर्धं,%20भूत्यर्थं “भूराश्यर्धं, भूत्यर्थं” ↩︎
-
भाराध्यर्धं “भाराध्यर्धं” ↩︎
-
कफानु “कफानु” ↩︎
-
ध्रुव “ध्रुव” ↩︎
-
तृष्णः “तृष्णः” ↩︎
-
सुमानी “सुमानी” ↩︎
-
सुसत्वः “सुसत्वः” ↩︎
-
भवति “भवति” ↩︎
-
गदकोपो “गदकोपो” ↩︎
-
दन्तात्खादति “दन्तात्खादति” ↩︎
-
घटित “घटित” ↩︎
-
न%20निबन्धं “न निबन्धं” ↩︎
-
चित्तसंहारकारी “चित्तसंहारकारी” ↩︎
-
नो “नो” ↩︎
-
हस्तिसार “हस्तिसार” ↩︎
-
वयः “वयः” ↩︎
-
सप्ततिं%20वत्सराणाम् “सप्ततिं वत्सराणाम् " ↩︎
-
दाप्त “दाप्त” ↩︎
-
लक्षणः%20श्यामो “लक्षणः श्यामो” ↩︎
-
चक्रासि “चक्रासि” ↩︎
-
पीत “पीत” ↩︎
-
मणः “मणः” ↩︎
-
क्रत्वङ्गमालाघटैः “क्रत्वङ्गमालाघटैः” ↩︎
-
जीवेन्नवघ्नांदश “जीवेन्नवघ्नांदश” ↩︎
-
%20तोरण " तोरण” ↩︎
-
चाति,%20चापि “चाति, चापि” ↩︎
-
स्वजनं%20प्रति “स्वजनं प्रति” ↩︎
-
क्षमः “क्षमः” ↩︎
-
अर्थि,%20मित्र “अर्थि, मित्र” ↩︎
-
कान्यकुब्जाधिपति “कान्यकुब्जाधिपति” ↩︎
-
हस्त्यादिमुख्यैः “हस्त्यादिमुख्यैः” ↩︎
-
त्वशुभेन “त्वशुभेन” ↩︎
-
लग्नवच्चन्द्रदृष्टः “लग्नवच्चन्द्रदृष्टः” ↩︎
-
वश्यमिन्दुः “वश्यमिन्दुः” ↩︎
-
%20हतात्,%20नताः. " हतात्, नताः. " ↩︎
-
शेषं “शेषं” ↩︎
-
नाम “नाम” ↩︎
-
ताः%20स्वकाः “ताः स्वकाः” ↩︎
-
स्थिते “स्थिते” ↩︎
-
ग्रहे “ग्रहे” ↩︎
-
गाम्,%20काम् “गाम्, काम्” ↩︎
-
तच्च%20ननु,%20तत्तु “तच्च ननु, तत्तु” ↩︎
-
वर्गण “वर्गण” ↩︎
-
%20शुद्धो " शुद्धो" ↩︎
-
भादि “भादि” ↩︎
-
युक्ते;%20पृक्ते “युक्ते; पृक्ते” ↩︎
-
वर्षादि “वर्षादि” ↩︎
-
परमे “परमे” ↩︎
-
%20भव " भव" ↩︎
-
%20एका " एका" ↩︎
-
बृद्धिं%20समाप्नोति%20मुनिप्रवादः,%20नित्यं%20सदा%20वृद्धमुनिप्रवादः “बृद्धिं समाप्नोति मुनिप्रवादः, नित्यं सदा वृद्धमुनिप्रवादः” ↩︎
-
साम्यं%20न%20सा%20दशा “साम्यं न सा दशा” ↩︎
-
%20पूर्णबलो " पूर्णबलो" ↩︎
-
%20चन्द्रेऽरिनाशं " चन्द्रेऽरिनाशं" ↩︎
-
वञ्चकीं “वञ्चकीं” ↩︎
-
स्फूर्ति “स्फूर्ति” ↩︎
-
गृहस्थो,%20गृहस्थे “गृहस्थो, गृहस्थे” ↩︎
-
सुफलां,%20सफलां. “सुफलां, सफलां. " ↩︎
-
%20विपरीततमतःचन्द्रे " विपरीततमतःचन्द्रे” ↩︎
-
देक्काणैश्च,%20द्रेक्काणस्य “देक्काणैश्च, द्रेक्काणस्य” ↩︎
-
मिश्रे “मिश्रे” ↩︎
-
अनुपम “अनुपम” ↩︎
-
स्याद्र “स्याद्र” ↩︎
-
पौरुषमेधाध्वविषयकालनैरर्थान् “पौरुषमेधाध्वविषयकालनैरर्थान्” ↩︎
-
द्वैरंभूयो. “द्वैरंभूयो.” ↩︎
-
ताम्रकसुवर्ण “ताम्रकसुवर्ण” ↩︎
-
ताक्षो “ताक्षो” ↩︎
-
पुत्रान् “पुत्रान्” ↩︎
-
भोगो “भोगो” ↩︎
-
विशेषतः%20क्षीणः “विशेषतः क्षीणः” ↩︎
-
चमत्कारं “चमत्कारं” ↩︎
-
सिद्ध “सिद्ध” ↩︎
-
पुरा “पुरा” ↩︎
-
कुनयः “कुनयः” ↩︎
-
षष्टदशा “षष्टदशा” ↩︎
-
व्यसनालि “व्यसनालि” ↩︎
-
तुच्छातितुच्छ “तुच्छातितुच्छ” ↩︎
-
चतुरश्रये “चतुरश्रये” ↩︎
-
भागभाक “भागभाक” ↩︎
-
चान्तर “चान्तर” ↩︎
-
तथा “तथा” ↩︎
-
%20दैन्यं " दैन्यं" ↩︎
-
करी “करी” ↩︎
-
%20वर्धनीम् " वर्धनीम्" ↩︎
-
प्रमापणम् “प्रमापणम्” ↩︎
-
धन्यं “धन्यं” ↩︎
-
विरोधैः “विरोधैः” ↩︎
-
%20निर्धनो%20भवति. " निर्धनो भवति." ↩︎
-
बुधो “बुधो” ↩︎
-
%20मनोरमं " मनोरमं" ↩︎
-
संपत्तिम् “संपत्तिम्” ↩︎
-
धिपयोः “धिपयोः” ↩︎
-
%20विमूढ " विमूढ" ↩︎
-
पुंसां “पुंसां” ↩︎
-
चार्यप्रभाषिते “चार्यप्रभाषिते” ↩︎
-
र्वा%20सं “र्वा सं” ↩︎
-
%20मूला " मूला" ↩︎
-
विद्वासं%20भूपसत्कृतं%20प्रसवे “विद्वासं भूपसत्कृतं प्रसवे” ↩︎
-
धनवन्तं “धनवन्तं” ↩︎
-
%20शुभचेष्टं " शुभचेष्टं" ↩︎
-
दयितमिह%20सूतम् “दयितमिह सूतम्” ↩︎
-
बद्धवैरं%20च “बद्धवैरं च” ↩︎
-
%20बन्ध्वरिभङ्ग%20भौमो%20विकलं%20वा%20दुर्भगं%20लोकें " बन्ध्वरिभङ्ग भौमो विकलं वा दुर्भगं लोकें" ↩︎
-
आज्ञामात्र “आज्ञामात्र” ↩︎
-
बधिरनरं “बधिरनरं” ↩︎
-
आढ्यो “आढ्यो” ↩︎
-
गुण “गुण” ↩︎
-
राढ्यं “राढ्यं” ↩︎
-
धर्माभिरतः “धर्माभिरतः” ↩︎
-
नीचगैरध्वगः “नीचगैरध्वगः” ↩︎
-
अनृतः “अनृतः” ↩︎
-
घात “घात” ↩︎
-
रोग “रोग” ↩︎
-
%20गपीडितानां " गपीडितानां" ↩︎
-
अल्पा “अल्पा” ↩︎
-
वाञ्छि “वाञ्छि” ↩︎
-
भाक् “भाक्” ↩︎
-
जैवे “जैवे” ↩︎
-
यमे “यमे” ↩︎
-
बुधक्षै%20कौतुकापटी “बुधक्षै कौतुकापटी” ↩︎
-
चाप्यसती “चाप्यसती” ↩︎
-
%20वह्निगदः " वह्निगदः " ↩︎
-
वृद्धिः “वृद्धिः” ↩︎
-
र्यभेत “र्यभेत” ↩︎
-
करे%20वा “करे वा” ↩︎
-
र्यः “र्यः” ↩︎
-
%20पुत्रता%20तस्याः " पुत्रता तस्याः" ↩︎
-
रिक्तैर्बु “रिक्तैर्बु” ↩︎
-
मज्जति “मज्जति” ↩︎
-
पापान्त “पापान्त” ↩︎
-
स्तदा “स्तदा” ↩︎
-
रज्वग्न्युत्पातजं%20शशी “रज्वग्न्युत्पातजं शशी” ↩︎
-
सायुध “सायुध” ↩︎
-
प्रपात “प्रपात” ↩︎
-
व्योमाष्टनवबन्धुषु,%20व्योमास्तबन्धुषु “व्योमाष्टनवबन्धुषु, व्योमास्तबन्धुषु” ↩︎
-
मित्र “मित्र” ↩︎
-
वक्र “वक्र” ↩︎
-
%20स्वेशेन " स्वेशेन" ↩︎
-
अधिपोद्भवो “अधिपोद्भवो” ↩︎
-
मृत्युर्विषवृकमहिषा “मृत्युर्विषवृकमहिषा” ↩︎
-
पतनाद्गजा “पतनाद्गजा” ↩︎
-
%20रण्यैः " रण्यैः" ↩︎
-
मन्त्ये “मन्त्ये” ↩︎
-
अभिशापा “अभिशापा” ↩︎
-
प्लीह “प्लीह” ↩︎
-
ल्मस्रंसनदोषेण%20च%20तथान्त्ये “ल्मस्रंसनदोषेण च तथान्त्ये” ↩︎
-
श्वसन “श्वसन” ↩︎
-
%C2%A0न्मृत्युः “न्मृत्युः” ↩︎
-
%20ऽनलात् " ऽनलात्" ↩︎
-
वनदुर्गवक्षो “वनदुर्गवक्षो” ↩︎
-
चतुष्पदनिपान “चतुष्पदनिपान” ↩︎
-
रसा “रसा” ↩︎
-
%20घातेन " घातेन" ↩︎
-
जठरज “जठरज” ↩︎
-
श्नोऽथ “श्नोऽथ” ↩︎
-
समयो “समयो” ↩︎
-
संचिन्त्यः “संचिन्त्यः” ↩︎
-
विधि “विधि” ↩︎
-
पित्तानिलोष्ण “पित्तानिलोष्ण” ↩︎
-
विशीलां “विशीलां” ↩︎
-
व्यङ्गां%20स्वजनेऽघृणां “व्यङ्गां स्वजनेऽघृणां” ↩︎
-
नियुक्तो “नियुक्तो” ↩︎
-
पूज्यतमः “पूज्यतमः” ↩︎
-
भास्य “भास्य” ↩︎
-
नेप्सित “नेप्सित” ↩︎
-
%20तनुः%20संस्तुतो%20गणैर्नियतम् " तनुः संस्तुतो गणैर्नियतम्" ↩︎
-
ह्यसंस्थ “ह्यसंस्थ” ↩︎
-
सुखकृद्देहा “सुखकृद्देहा” ↩︎
-
कारी “कारी” ↩︎
-
कक्षाधिकः%20खलरुचिः “कक्षाधिकः खलरुचिः” ↩︎
-
तनुः “तनुः” ↩︎
-
%20दाता " दाता" ↩︎
-
तनुर्व्या “तनुर्व्या” ↩︎
-
रणोद्य “रणोद्य” ↩︎
-
%20वरा " वरा" ↩︎
-
वान्बन्धु “वान्बन्धु” ↩︎
-
वदनाक्षिगदो “वदनाक्षिगदो” ↩︎
-
श्रुत “श्रुत” ↩︎
-
वक्ष “वक्ष” ↩︎
-
सुवेषो “सुवेषो” ↩︎
-
%C2%A0विलापी “विलापी” ↩︎
-
%20वाचाटः " वाचाटः" ↩︎
-
चारयुतो “चारयुतो” ↩︎
-
रुचिः “रुचिः” ↩︎
-
%20कामी " कामी" ↩︎
-
दान “दान” ↩︎
-
गुणचिन्हकल्पैः “गुणचिन्हकल्पैः” ↩︎
-
णभे “णभे” ↩︎
-
गतेपि “गतेपि” ↩︎
-
रुहः “रुहः” ↩︎
-
ततो “ततो” ↩︎
-
%20दन्तो " दन्तो" ↩︎
-
%20वक्रं " वक्रं" ↩︎
-
छवीरणोग्रः “छवीरणोग्रः” ↩︎
-
%20कृष्णश्च " कृष्णश्च" ↩︎
-
सुभ्रूर्ग “सुभ्रूर्ग” ↩︎
-
वक्षाः “वक्षाः” ↩︎
-
पिशुनः%20कलहप्रियः%20सुगूढवयाः “पिशुनः कलहप्रियः सुगूढवयाः” ↩︎
-
पाणि “पाणि” ↩︎
-
रति “रति” ↩︎
-
भाषी “भाषी” ↩︎
-
“कुञ्चित” ↩︎
-
दशनो “दशनो” ↩︎
-
पृथुपीनमुग्रनासः “पृथुपीनमुग्रनासः” ↩︎
-
पटुवींरः “पटुवींरः” ↩︎
-
शटः “शटः " ↩︎
-
वित “वित” ↩︎
-
%20प्रोक्तंराशि " प्रोक्तंराशि” ↩︎
-
%20गृहे " गृहे" ↩︎
-
पूर्वः “पूर्वः” ↩︎
-
%20निभृताग्रं " निभृताग्रं" ↩︎
-
विनवं%20सनवं “विनवं सनवं” ↩︎
-
पृच्छादि “पृच्छादि” ↩︎
-
%20प्राप्ति " प्राप्ति" ↩︎
-
त्सायकर्मत्रिगः “त्सायकर्मत्रिगः” ↩︎
-
स्वाया “स्वाया” ↩︎
-
नवरिःफपुत्र “नवरिःफपुत्र” ↩︎
-
स्वादायात्मज “स्वादायात्मज” ↩︎
-
प्रात्या.%20स्वस्वस्वामिगतं “प्रात्या. स्वस्वस्वामिगतं” ↩︎
-
प्रीतिकरं “प्रीतिकरं” ↩︎
-
%20समासेवते " समासेवते" ↩︎
-
तद्वीक्षिते%20चोदये “तद्वीक्षिते चोदये” ↩︎
-
शनिशशीक्षणाद्योगात् “शनिशशीक्षणाद्योगात्” ↩︎
-
पक्षी “पक्षी” ↩︎
-
जलजः “जलजः” ↩︎
-
सम्भवति%20तत्र “सम्भवति तत्र” ↩︎
-
शशिनि “शशिनि” ↩︎
-
मृगाः%20समीनास्तथा “मृगाः समीनास्तथा” ↩︎
-
%20वृक्षा%20गुल्मा " वृक्षा गुल्मा" ↩︎
-
पञ्चमदशमाष्टराशि “पञ्चमदशमाष्टराशि” ↩︎
-
उत्पत्तिः “उत्पत्तिः” ↩︎