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॥ श्रीः ॥
जैमिनीयसूत्राणि ।
ढाढोलिग्रामनिवासि-श्रीपाठकमंगलसेनात्मज -
काशिरामविरचितभाषाटीकया समेतानि ।
तानि च
श्रीकृष्णदासात्मज-गंगाविष्णोः
स्वकीये “लक्ष्मीवेंकटेश्वर” मुद्रणागारे
रामचंद्र राघो इत्यनेन स्वाम्यर्थं
मुद्रितानि प्रकाशितानि च ।
संवत् १९७०, शकाब्दाः १८३५.
कल्याण- मुंबई.
Registered under Act XXV of 1867.
ज्योतिषग्रन्थाः ।
[TABLE]
[TABLE]
पुस्तक मिलने का ठिकाना -
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,
“लक्ष्मीवेंकटेश्वर" छापाखाना
कल्याण - मुंबई.
अथ
जैमिनीयसूत्रकी विषयानुक्रमणिका ।
| विषय | विषय |
| मंगलाचरण या ग्रंथारंभ | निसर्गवल |
| ग्रहोंका द्रष्टृदृश्यभाव | विषम समराशिभेद कर |
| राशिदृष्टिचक्र | गणना |
| अर्गलाकयन | क्रमव्युत्क्रमगणनाकी विप- |
| पापग्रहोके योगसे होनेवाली | रीतता |
| अर्गला | तत्तद्राशिके दशावर्ष लानेके |
| कटपयादिसंख्याचक | लिये अवधि |
| अर्गलाके बाधा करनेवाले | फलविशेषके जनानेके लिये |
| योग | राशियांका आरूढस्थान |
| अर्गलायोगके दूर करनेवाले | आरूढपदका उदाहरण |
| योगकेभी दूर करनेवाले योग | भावराशियोंके वर्णदस्थान |
| अर्गलाकारक और अर्गला- | ग्रहोंके वर्णदवा निषेध |
| प्रतिबन्धक योग | अन्तर्दशाविभाग |
| कतुग्रहके लिये कुछ विशेष | होरा द्रेष्काणादिकोंका |
| आत्मकारक | उपलक्षणमात्र |
| आत्मकारकका उत्कर्ष | होराचक्र |
| अमात्यकारक | द्रेष्काणचक्र |
| भ्रातृकारक | विषमत्रिंशांशचक्र |
| मातृकारक | समत्रिंशांशचक्र |
| पुत्रकारक | नवांशचक्र |
| ज्ञातिकारक | द्वादशांशचक्र |
| दारकारक | सप्तांशचक्र |
| मतान्तरसे पुत्रकारक | आत्मकारकके नवांशका फल |
| भगिन्यादिकारक | आत्मकारकके मेषादि नवां- |
| मातुलादिकारक | शोंका फल |
| पितामहादिकारक | आत्मकारकके नवांशका |
| पत्न्यादि स्थिरकारक | ग्रहस्थितिसे फल |
| विषय. | विषय. |
| आत्मकारकके नवांशसेदशम | आपद्योग |
| नवांशका विचार | नेत्रभंगयोग |
| आत्मकारकके नवमांशसे चतुर्थ | उपपदादिके आश्रयसे फल |
| नवमांशका विचार | आयुर्दायका विचार |
| आत्मकारकके नवमांशसे नवम | दीर्घायुर्योग |
| नवमांशका विचार | मध्यायुर्योग |
| आत्मकारकके नवांशसेसप्तम | अल्पायुर्योग |
| नवांशका विचार | लग्न चन्द्रमा इन दोनोंसे |
| आत्मकारकके नवांशसेतृतीय | आयुर्योग |
| नवांशका विचार | आयुर्दायके निर्णय करनेका |
| आत्मकारकके नवांशसेद्वादश | तृतीय प्रकार |
| नवांशका विचार | दो प्रकारसेएकाकार आयु |
| केमद्रुमयोग | आवे और एक प्रकारसे |
| पूर्व कहे हुए किस काल- | भिन्न आयु आवे तहां |
| विशेषमें होते हैं उसका | निर्णय |
| निर्णय | जन्मलग्न होरालग्नसे आये |
| आरूडकुण्डलीस्थ ग्रहोंके आ- | हुए आयुका निषेध |
| श्रय करके फलोंके कहनेको | प्रस्तारचक्र |
| पदका अधिकार | दीर्घमध्याल्पायुर्योगोंके विपे |
| लग्नारूढसे एकादशस्थानका | कुछ विशेष |
| फल | इसी विषय में मतान्तर |
| लग्नारूढ स्थानसे द्वादश | परमत कहकर निज मत |
| स्थानका फल | कथन |
| एकादश स्थानमें व्ययवत्ही | कक्ष्यावृद्धियोग |
| लामका विचार | प्रमाणसिद्ध आयुमेंही मरण |
| लग्नारूढसे सप्तम स्थानका | होता है या वीचमेंभी |
| फल | मरण हो जाता हैइस |
| आरूढ स्थानसे द्वितीयस्थ | आकांक्षामें निर्णय |
| केतुका फल | मरणयोगका निषेध |
| ध्यानयोग | शुभ ग्रहोंकी दृष्टि योग न |
| विषय. | विषय. |
| होनेपरभी नवांशका | बली रुद्रका फल |
| कालमृत्युका निषेध | दोनों रुद्रोंका गुणविशेषकर |
| नवांशदशामें राशिवृद्धि हो | फल |
| जावे है तो फिर किस | रुद्राश्रितराशिमें मरणयोग |
| राशिमें मृत्यु होता है | योगभेदसे मरणस्थान |
| इस शंकामें निर्णय | फलविशेषके कहने के लिये |
| अन्य प्रकारसे दीर्घमध्याल्पा | महेश्वरग्रहकथन् |
| युर्योग | द्वितीय प्रकारसे महेश्वर ग्रह |
| इस प्रकरणमें कौन वल | ब्रह्मग्रह |
| ग्रहण करना चाहिये | अन्य प्रकारसे ब्रह्मग्रह |
| इसका निर्णय | बहुत ग्रह ब्रह्मयोगकारक होवें |
| अन्य प्रकारसे मध्यायुर्योग | तो कौन ब्रह्मा होता है |
| दीर्घादि योगोंके विषे | इसशंका निर्णय |
| कक्ष्याह्नास | इस योगमें कुछ विशेष |
| कक्ष्याहासयोग में निषेध | अन्य प्रकार से ब्रह्मग्रह |
| बृहस्पतिके विपेमी ह्रासवृद्धि | यदि अष्टमेश अष्टमस्थ इन |
| प्रकार | दोनोमें भेद होवे तो कौन |
| पापयोगसे जो कि कक्ष्याह्रास | ब्रह्मा होता है इस शंकामें |
| कहा उसमें अपवाद | निर्णय |
| स्थिरदशा के आश्रयसे | महादशामेंभी मरणकारक |
| मरणयोग | अन्तर्दशा |
| विशेषकर मरणकालज्ञान | मारकग्रह |
| मरणकारक राशिविशेष | मारकका फल |
| बहुवर्षव्यापिनी दशा होवे | मारकमहादशामें मरणकारक |
| तौ कब मरण होगा | अन्तर्दशा |
| इस शंकामें निर्णय | पित्रादिकोंका मरणकाल |
| निर्याणदशाविशेषको अन्य | जतानेके लिये पित्रादि- |
| प्रकारसे दिखानेके वास्ते | कारक कथन |
| रुद्रग्रहकथन | वलीपितृमातृकारकका फल |
| द्वितीय रुद्रग्रह | पितृमरणमें विशेष |
| विषय. | विषय. |
| बाल्यावस्थामेंही मातापितृके | द्वारबाह्यराशियों का फल |
| मरणयोग | उक्त दोषका अपवाद |
| पुत्रमातुलादिकोंका मरणकाल | केंद्रदशाका आरम्भस्थान |
| मरणमें शुभाशुभ भेद | केन्द्रदशाके क्रमभेद |
| मरणमें देशभेद | कारककेंद्रादिदशा |
| दशाभेद बलभेद तथा | अन्य केन्द्रकी दशा |
| नवांशदशा | कारकादिदशाके वर्ष वना- |
| स्थिरदशाका आरम्भस्थान | नेका विधान |
| राशियोंका निसर्गबल | |
| स्वामीका बलाबल | फल |
| निर्याणशूलदशा | मंङ्कदशा |
| पिताकीनिर्याणशूलदशा | शूलदशा |
| माताकी निर्याणशूलदशा | समस्त साधारण दशाओंके |
| भ्राताकी निर्याणशूलदशा | आरम्भमें तथा वर्ष लानेमें |
| भगिनी पुत्र इन दोनोंकी | कुछ विशेष |
| निर्याणशूलदशा | नक्षत्रदशा |
| ज्येष्ठ भ्रताकी निर्याणशू- | योगार्द्धदशा |
| लदशा | योगार्द्धदशाके आरम्भराशि |
| पितृवर्गकी निर्याणशूरदशा | दृग्दशा |
| ब्रह्मदशा | त्रिकोणदशा |
| चतुर्थबल | त्रिकोणदशाका फल |
| चरदशामेंक्रमव्युत्क्रम भेद | नक्षत्रदशा |
| द्वारराशिऔर बाह्यराशि | दशाफलविशेष |
इति विषयानुक्रमणिका समाप्ता ।
पुस्तक मिलनेका ठिकाना - गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास,
“लक्ष्मीवेंकटेश्वर” छापाखाना, कल्याण - मुंबई
॥ श्रीपरमात्मने नमः ॥
अथ
भाषाटीकासहितानि
जैमिनीयसूत्राणि ।
यो हृत्वा ध्वान्तमुलैःसुरमयति जनान्योजयन्कर्ममार्गे ।
चाब्रह्मादेर्वयांसि क्षिपति विज्ञजन्नार्त्तवान्सर्वधर्मान् ॥
यत्पन्थानं ह्युपेत्य व्रजति यतिगेणा ब्रह्म निर्वाणधाम ।
तंध्यात्वा हृत्सरोजे तमिह विरचये जैमिनेः सूत्रमापाम् ॥१॥
पूर्वजन्मार्जित कर्मज्ञानसेअनुष्ठान किये हुए काशीवासादि निज वृत्तसे जगत्के उद्धार करनेकी इच्छावाले करुणासमुद्र जैमिनिमुनि इस प्रारिप्सित ग्रंथके रोकनेवाले विघ्नकी शान्तिके लिये श्रीशंकर भगवान्को प्रणाम कर समस्त जनोंके शुभ अशुभ जतानेवाले जातकशास्त्रकी रचना करनेको प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १ ॥
उपदेशं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
उकार इस अक्षरके स्वामी जी कि शंकर भगवान हैं तिनको प्रणाम करते हैं अथवा जिस करके पूर्वजन्मार्जित शुभ अशुभ कर्मोंका फल प्रगट किया जाता है ऐसे उपदेशनाथजातकशास्त्रविशेषको कहते हैं ॥ १ ॥
इस शास्त्रमें अन्य शास्त्रवत्ही दृष्टिविचार हैअथवा अन्य शास्त्रसे विलक्षण हैं इस संशयको दूर करते हुए कहते हैं ।
अभिपश्यन्त्यृक्षाणि ॥ २ ॥ पार्श्वभे च ॥ ३ ॥
“उकारः शंकरः प्रोक्तः” इत्येकाक्षरकोशः ॥
ऋक्षनाम राशि अपने सन्मुख और पार्श्वराशिको देखते हैं। भाव यह है कि चरसंज्ञक मेष, कर्क, तुला, मकरराशि अपने पंचम, अष्टम, एकादशराशिको देखते हैं और स्थिरसंज्ञक वृष, सिंह, वृश्चिक, कुम्भराशि अपने षष्ठ, तृतीय, नवमराशिको देखते हैं और द्विस्वभावसंज्ञक मिथुन, कन्या, धनुः, मीनराशि अपने चतुर्थ, सप्तम, दशमराशिको देखते हैं ॥२॥३॥
इसके अनन्तर ग्रहोंकाभी द्रष्टृदृश्यभाव कहते हैं ।
तन्निष्टाश्च तद्वत् ॥ ४ ॥
तिन चरादिराशियोंमें स्थित हुए ग्रहभी उन चरादिराशियोंके समान राशिको देखते हैं! भाव यह है कि जिस प्रकार चरादिराशि अपने अष्टमादि राशियोंको देखते हैं तिसी प्रहार चरादिस्थग्रहभी अपने अष्टमादि राशियोंको और उनपर युक्त हुए ग्रहोंको
१ इस प्रकारको दृष्टिमें प्रमाण वृद्धकारिकाका है। “चरं धनं विना स्थारनु स्थिरमन्त्यं विना चरम्। युग्मं स्येन विना युग्मं पश्यतीत्ययमागमः॥” अर्थ - चरराशि अपने द्वितीय स्थिरराशिको छोड़कर अन्य समस्त स्थिरराशियोंको देखता है और स्थिरराशि अपने पिछले चरराशिको छोड़कर अन्य समस्त चरराशियों को देखता है और द्विस्वभाव राशिअपने प्रथम स्थानको छोडकर अन्य समस्त द्विवभाव राशियोंको देखता है। अन्यच - “चरा नाग ८ वाणे ५ श ११ राशीन्स्वतो वै स्थिराः षट्६ तृतीयां ३ क ९ राशीन् क्रमेण। स्वतः शैलभं ७ वेदभं ४ पंक्तिभं १० च क्रमाद् द्विस्वभावः प्रपश्यन्ति पूर्णम्॥” इति राशिषु सिद्धम्॥
अथ राशिदृष्टिचक्रम्.
[TABLE]
देखता है।जैसे चरराशिपर जो कि ग्रह स्थित हो वह ग्रह अपनेसे अष्टम, पञ्चम, एकादशराशि और अष्टम, पञ्चम, एकादश स्थानस्थित ग्रहोंको देखता है और जो कि ग्रह स्थिरराशिपर स्थित हो वह षष्ठ, तृतीय, नवमराशि और ग्रहोंको देखता है और जो कि ग्रह द्विस्वभावराशिपर स्थित हो वह चतुर्थ, सप्तम, दशमराशि और ग्रहोंको देखता है ॥४॥
“शुभार्गले धनसमृद्धिः " इत्यादि प्रथमाध्यायके तृतीयपादमें आया है कि शुभ अर्गल होवे तो धनकी वृद्धि होवे है सो अर्गल किसका नाम इसीको कहते हैं।
दारभाग्यशूलस्थार्गलानिधातुः ॥ ५ ॥
जिस राशिका विचार किया जावे उस राशिका निधातानाम जो कि देखनेवाला है उससे दार नाम चतुर्थ और भाग्य नाम द्वितीय और शूलनाम एकादश स्थानपर जो ग्रह होवें वे अह विचार किये जानेवाले राशिके देखनेवाले ग्रहके अर्गलासंज्ञक होते हैं।अर्गलाको कर्तरीभी कहते हैं^(२)॥५॥
१ इस प्रकार ग्रहदृष्टिमें वृद्धवाक्य प्रमाण है। “चरस्थं स्थिरगः पश्येत्स्थिरस्थं चरराशिगः। उभयस्थंतूभयगो निकटस्थं विना ग्रहम्॥” अर्थ - स्थिरराशिपर स्थित हुआ ग्रहचरराशिपर स्थित हुए ग्रहको देखता है परन्तु निकटके चरराशिपर स्थित हुए ग्रहको नहीं देखता है इसी प्रकार निकटके स्थिरराशिपर स्थित हुए ग्रहको छोडकर अन्य स्थिरराशिपर स्थित हुए ग्रहको चरराशिपर स्थित हुआ ग्रह देखता है और साथके द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रहको छोडकर द्विस्वभावराशिस्थ ग्रह शेप द्विस्वभावस्थ ग्रहको देखता है॥
२ “निधातुः” इस सूत्र पदकी व्याख्या स्वाम्यादि आचार्योंने तों “फलदातुः” इस प्रकार की है परन्तु यहां पर वृद्धवाक्यसे “द्रष्टुः” इस प्रकारही अभिप्रेत है क्योंकि कहा है। “भय २ पुण्य ११ बिना ४ भावाद् द्रष्ट्र राहुःशुभार्गलम्।” इस ग्रंथ में कटपयादि क्रमकरके अंक ग्रहण करने योग्य हैं क्योंकि उन्हीं अंकोंसे राशिभावज्ञान होता है। कटपयादि क्रमसे आये हुए अंक १२ से अधिक होवें तो १२ के भाग से बचा हुआ राशिभाव जानना। कटपयादि क्रमसे अंक ग्रहण करनेमें प्राप्यकारिका प्रमाण है। “कटपयवर्गभवैरिह पिंडान्त्यैरक्षरैरंकाः। नञि च शून्यं ज्ञेयं तथा स्वरे कैवले कथितम्॥” अर्थ - ककारसे लेकर क. ख. ग. घ. रु. च. छ. ज. झ. ञ
यह अर्गला शुभग्रह तथा पापग्रह दोनोंकेही योगसे होनेवाली कही गई। अब केवल पापग्रहोंके योग से होनेवाली अर्गलाको कहते हैं।
काम^(३)स्था भूयसा पापानाम् ॥६ ॥
पापग्रह अर्थात् सूर्य और कृष्ण पंचमीसे लेकर शुक्ल पंचमीतकका चन्द्रमा और मङ्गल और पापग्रहोंके साथका बुध और शनैश्चर तथा राहु और केतु इनमेंसे तीन वा तीनसे अधिक पापग्रह जिस राशि के तृतीयस्थानपर स्थित होवें तौ उस राशिके देखनेवाले ग्रहके अलासंज्ञक होते हैं। सूत्रमें पापग्रहोंका बाहुल्यं कहनेसे तृतीयस्थानपर एक वा दो पापग्रह होवें तो अर्गला नहीं होती है. यह अर्गला पापसंबन्धिनी क^(१)ही ॥६॥
यहाँतक और टकारसे लेकर ट. ठ. ड. ढ. ण. त. थ. द. ध. न. यहांतक और पकारसे लेकर प. फ. ब. भ. म. यहांतक और यकारसे लेकर य. र. ल. व. श. ष. स. ह. यहांतक इन चारों पिण्डोंमें राशिभावसूचक अक्षर जिस संख्यापर हो उस संख्याको ग्रहण कर वाम रीतिसे लिखता चला जाय। यदि संख्यामें नकार अकार आ जावे तौ शून्य ले लेवे और यदि व्यञ्जनवर्जित केवल स्वर आ जाये तौभी शून्य लेवे। यदि यह संख्या १२ से अधिक होवे तो १२ का भाग देवे। जो अंक शेषराशिभावसंज्ञक है। उदाहरण - दार इस भावसूचक पदमें दकारकी संख्या ८ हैं और रकारकी संख्या दो अब दोनोंको वाम गतिसे रखनेसे २८ हुए इनमें १२ का भाग देनेसे ४ वचे यहही दारभावकी संख्या है अर्थात् चतुर्थस्थान दारसंज्ञक है। इसी प्रकार समस्तभाव जानने चाहिये। संख्याक्रम चक्रमें है। “दारभाग्यशूलस्थाः अर्गलानिधातुः” इसमें विसर्गका लोप श्करनेपर सन्धि हुई है। यह छान्दस है क्योंकि सूत्रभीछन्दोवत् होते हैं इति॥
कटपयादिसंख्याचक्रम्.
| क १ | ख २ | ग ३ | घ ४ | ङ५ | च ६ | छ ७ | ज ८ | झ ९ | ञ ० |
| ट १ | ठ २ | ड ३ | ढ ४ | ण ५ | त ६ | थ ७ | द८ | ध ९ | न ० |
| प १ | फ २ | ब ३ | भ ४ | म ५ | |||||
| य १ | र २ | ल ३ | व ४ | श ५ | ष ६ | स ७ | ह ८ |
१ इस सूत्रकी कोई प्रेमनिधि आदिक पण्डित ऐसी व्याख्या करते हैं। पापग्रहोंके
इसके अनन्तर प्रथम कही हुई अर्गला के वाधा करनेवाले योगको कहते हैं।
रिःफ^(१०)नीच^(१२)काम^(३)स्था विरोधिनः ॥ ७ ॥
जिस राशिका विचार किया जावे उस राशिके देखनेवाले ग्रहसे यदि दशमस्थानपर कोई ग्रह होवे तो चतुर्थ स्थानमें स्थित हुए अर्गलाकारक ग्रहका बाधक होता है और बारहवें स्थान पर यदि कोई ग्रह होवे तो द्वितीय स्थानमें स्थित हुए अर्गलाकारक ग्रहका बाधक होता है और यदि तृतीय स्थानपर स्थित कोई ग्रह होवे तौ ग्यारहवें स्थानपर स्थित हुए अर्गलाकारक ग्रहका विरोधी होता है।भाव यह है कि चतुर्थ, द्वितीय, एकादश स्थानपर स्थित हुए अर्गलातारक ग्रहोंकी अर्गला तवनहीं होती है जब कि क्रमसे दशम, द्वादश, तृतीय स्थानपर ग्रह स्थित होवें ॥७॥
इसके अनन्तर अर्गलायोगके दूर करनेवाले योगकेभी दूर करनेवाले योगको कहते हैं ॥
न न्यूना विलाश्च ॥ ८ ॥
यदि अर्गलकारक ग्रहोंसे अर्गलाके दूर करनेवाले ग्रह अल्प संख्यावाले हों अथवा अर्गलाकारक ग्रहोंसे अर्गला के दूर करनेवाले ग्रह निर्बल होवें तो वह अर्गलाके दूर करनेवाले ग्रह अर्गलायोगको दूर नहीं कर सकते हैं। भाव यह है कि जैसे अर्गलाकारक यह दो होवें और अर्गला के दूर करनेवाला एकही होवे तौ अर्गलायोग रहता है और यदि अर्गलाकारक ग्रहोंसे अर्गलाप्रतिबंधक ग्रह निर्बल होवें तौभी जर्गलायोग रहता है।
मध्यमें जो अधिक अंशवाला हो वह यदि तृतीय स्थानपर होवे तो अगला होये है। यह व्याख्या सूत्राक्षरोंसे असंगत प्रतीत होवेहै क्योंकि सूत्रसे तौपापबाहुल्यही सिद्ध होता है। अन्य अर्गला बाधक योग हैं परन्तु तृतीयस्थानस्थित बहु पापग्रहोंकर करी हुई अर्गलका कोई बाधक योग नहीं है इस कारण यह सूत्र पृथक किया है पूर्वसूत्रमें संमिलित नहीं किया।
ग्रहोंका बल अगाडी क^(१)हेंगे ॥८॥
इसके अनन्तर अर्गलाकारक और कलाप्रतिबन्धक योगको कहते हैं।
प्राग्वत् त्रिकोणे ॥ ९ ॥
त्रिकोणनाम पंचम और नवम स्थानमें ग्रह होनेपर पूर्ववत् अर्गला और अगलाप्रतिबन्धक योग होता है। भाव यह हैं कि जिस राशिका विचार किया जावे उस राशिके देखनेवाले ग्रहसे पंचम स्थान में ग्रह होवें तौ अर्गला होवेहै और यदि उसी देखनेवाले ग्रहसे नवम स्थानमें कोई ग्रह होवें तौ अर्गला प्रतिबन्धकयोग होता है परंतु नवमस्थानस्थित ग्रह अल्प संख्या वाले और निर्बली होवें तो पंचम स्थानस्थित ग्रहकी अर्गलाको दूर नहीं कर सक्ते हैं^(२) ॥९॥
१ अर्गलाकारक योग और अर्गलाप्रतिबन्धक योग वृद्धोंनेने भी कहे हैं।“भय २ पुण्य ११ विना ४ भावाद् द्रष्टूराहुः शुभार्गलम्। स्फुटां १२ ग ३ ज्ञेय१० भावात्तु विपरीतार्गलं विदुः॥” अर्थ - जिस राशिका विचार किया जाये उस राशिके देखनेवाले ग्रहसे भयनाम द्वितीय और पुण्यनाम एकादश और विनानाम चतुर्थ स्थानपर कोई ग्रह होवे तो अर्गला होवे है परन्तु उक्त स्थानपर राहु होवे तौशुभ अर्गला होवे है और यदि उसी देखनेवाले ग्रहसे स्फुट नाम द्वादश और अंग नाम तृतीय और ज्ञेय दशम भावमें ग्रह होवे तौ क्रमसे द्वितीय एकादश चतुर्थ स्थानस्थित अर्गलाकारक ग्रह के प्रतिबन्धक होवे हैं अर्थात् अर्गलाके दूर करनेवाले होते हैं॥
२ यदि कहो कि दार ४ भाग्य २ शूलेत्यादि सूत्रमें शान्त ५ पदके ग्रहणसे और रिःफ १० नीचेत्यादि सूत्रमें धातु ९ पदके ग्रहणसे अर्गला और अर्गलाप्रतिबन्धक योगका लाभ होही सक्ता फिर “प्राग्वत् त्रिकोणे” इस सूत्रकी रचना व्यर्थ क्यों करी?
समाधान - “विपरीतं केतोः” इस सूत्र में केतुकी जो कि अर्गला और अर्गलाप्रतिबन्धक योगमें विपरीतता कही है वह त्रिकोणनाम पंचम और नवमस्थान केही विषे कही है। न कि अन्य स्थानोंके विषे इस कारण “प्राग्वत् त्रिकोणे" इस सूत्र की पृथक् आवश्यकता है। यदि इस सूत्रको पृथक् नकरते तौदारभाग्यशूलेषु इत्यादिकर्म केतुकृत विपरीतता सिद्ध हो जाती और जो कि कोई एक आचार्योंने कहा कि “प्राग्वत् त्रिकोणे” इस सूत्रके पृथक करनेके सामर्थ्य से यह अर्गला अप्रतिबन्धक है। यदि उन आचार्योंकेमतसे यह अर्गला अप्रतिबन्धक होती तो प्रसंगसे “कामस्था तु भूयसा”
इसके अनन्तर केतुग्रहके लिये कुछ विशेष कहते हैं।
विपरीतं केतोः ॥ १० ॥
केतुग्रहका नवम अर्गलास्थान है और पञ्चम अर्गलाप्रतिबन्धक स्थान है। भाव यह है कि केतुके कोई ग्रह नवम स्थानमें स्थित होवे तौअर्गला होवे है और उसी केतुसे कोई ग्रह अल्प संख्या और निर्बलत्वदोषवर्जित होकर पंचम स्थानमेंभी स्थित होवे तौनवमस्थानस्थित ग्रहकी अर्गला नहीं होवे है ॥१०॥
इस ग्रंथ में विशेषकर कारकोंसे फलादेश किया जाता है
इस कारण कारकोंके कहने की इच्छावाले मुनि प्रथम आत्म-
कारकको दिखाते हैं।
आत्माधिकः कलादिभिर्नभोगः सप्तानामष्टानां वा ॥ ११॥
सूर्यसे लेकर शनैश्चरपर्यंत सात ग्रह अथवा राहुपर्यन्त आठ ग्रहोंके मध्यमें जो कि ग्रह अंश कलादिक्कर सब ग्रहोंसे अधिक हो तो वह ग्रह आत्मकारक होता है। भाव यह है कि सूर्य, चंद्रमा, भौम, बुध, गुरु, भृगु, शनि, राहु इन ग्रहोंमें जिस ग्रहके अंश अधिक हो अथवा अंशोंके बराबर होनेपर कला वा विकलाही अधिक होवे तो वह ग्रह आत्मकारक होता है और यदि दो तीन ग्रहोंके अंश कला विकला सव वरावर होवें तो उनमें जो कि बली होवे
सूत्रके अनन्तर इसकी रचना होती ओर जो यह कहो कि “विपरीतं केतोः” इसकर केतुकृत विपरीतता सब जगह हो सक्ती है सोभी नहीं क्योंकि “कामस्था" इत्यादि सूत्रके अनन्तर “प्राग्वत्” यह सूत्र होता तो केतुकृत विपरीतता सब जगह हो सक्ती परन्तु “प्राग्वत्” इस सूनके अनन्तर “विपरीतं केतोः” इस सूत्रके रचनेसे “प्राग्वत्” इसी सूत्रमेंही केतुकृत विपरीतता है न कि अन्य जगह और जो यह कहो कि “विपरीतं केतोः” इस सूत्रका अगले “आत्माधिकः" इत्यादि सूत्रमें अन्वय हो सक्ता है सोभी नहीं क्योंकि “अष्टानां वा" यह जो कि पद सूत्रमें पृथक् रचा है, इसीके सामर्थ्यसेही राहुको न्यूनांश होने पर कारकत्वका लाभ हो गया है फिर इस अन्वयकी तो व्यर्थताही रही और जो यह हो कि “अष्टानां वा” यह पद सूत्रमें अन्यमतसे है तो इसमें कुछ प्रमाण नहीं है॥
सोही आत्मकारक होता है और दो तीन ग्रहोंके अंशादिककी समता होनेपर बलवान् स्थिरकारकसेही तत्तत्कारकोंका विचार करने योग्य है। जैसे प्रथम आत्मकारकके देखनेमेंही दो तीन ग्रहोंके अंशादि समान होवें तो उनमें जो कि बली होय उससेही आत्मकारक जाने इसी प्रकार अन्य कारकोंका विचार क^(१)रे ॥१९॥
१ शङ्का - “आत्माधिकः कलादिभिर्नभोगोष्टानाम ऐसा पाठ थोटा होनेसे होवो?
समाधान - सूत्रमें “अष्टानां वा” इस अधिक पदके स्थित होने से सर्व ग्रहके अंशोसे राहुके कम अंश होनेकरही आत्मकारकता होती है इस वार्ताके जताने के लिये “अष्टानां वा” यह पद पृथक् कहा है। क्योंकि राहुकी विपरीत गति होनेसे राहुके कम अंश होनेकरही राहुकी अधिकता है। “नभोगोष्टानाम्” ऐसा यदि पाठ होता तो अन्य ग्रहकी रीतिकर राहुकीभी अधिकता प्रतीत हो सक्ती सो है नहीं इस कारण राहुकी न्यूनताही अधिकता मानी जाती है। दूसरा कारण यह है कि जब कि दो तीन ग्रहोंका ब्रह्मत्व योगमें प्रसंग होता है तव"राहोयोंगे विपरीतम्” इस द्वितीयाध्यायके प्रथमपादसंबन्धी ५० सूत्रकर राहुके योगमात्रसेही कम अंशवाला यह ब्रह्माहोता है फिर स्वयं राहुको कम अंश होनेसे कारक होनेमें क्या आश्चर्य है। यहांपर वृद्धवाक्यभी है कारकनिर्णयमें “भागाधिकः कारकः स्यादल्पभागेऽन्त्यकारकः। मध्यांशो मध्यखेटः स्याद्पखटेः स एव हि॥" कदाचित् कहो कि इस वृद्धवाक्यसे तौऐसा नहीं प्रतीत होता है फि राहु अल्पांश होनेपर आत्मकारक होता है तहां कहते हैं कि शास्त्रप्रसिद्ध होनेसे बालभी ऐसा जानते हैं कि राहु अल्पांशही अधिक माना जाता है इसी कारण पृथक् करके नहीं कहा है। राहुके अल्पांश होनेपर कारकत्व होनेमें वृद्धवाक्यान्तरभी है “मेषाद्यपसव्यमार्गेण राहुकेतू न कारकौ।” अर्थ - राहु केतु दक्षिणमार्ग अर्थात् मेषवृषादि क्रमकरके कारक नहीं हो सक्ते किन्तु विपरीत क्रमकरके कारक होते हैं। कारकनिर्णयमें राशियोंकी अधिकता अपेक्षित नहीं है किन्तु अंशादिकी अधिकता अपेक्षित है यह संप्रदाय है। अथवा अंशादिककर दो ग्रह बराबर होवेंगे तो सप्तम कारक नहीं होगा इस कारण राहुकाभीमहण किया है। “अष्टानां वा” इस पदके द्वारा और जो कि प्रेमनिधि आदिकोंने “विपरीतं केतोः" इस सूत्रका “आत्माधिकः” इस सूत्रमें देहलीदीपकन्यायकर अन्वय किया है सो अयुक्त है। क्योंकि सूर्यादिक्रम त्यागकर प्रथम केतुका निरूपणकरना अयोग्य है और ऐसा अर्थमी नहीं हो सक्ता कि राहुकी अंशाधिकतासे कारकता है और केतुकी अल्पांशतासे कारकता है क्योंकि राहु केतुके अंशादि वरावर रहते हैं। शंका- ग्रह तो नौ हैं फिर सूत्रमें“नवानाम्“ ऐसा क्यों नहीं कहा ! समाधान - राहु केतु अंशादि समान होते हैं इस कारण अन्यकारक नहीं हो सक्ता इसीसे“अष्टानाम्" यह पाठ सूत्रमेंउचित है॥
इसके अनन्तर आत्मकारकका उत्कर्ष कहते हैं।
स ईष्टे बन्धमोक्षयोः ॥ १२ ॥
सो यह कहा हुआ आत्मकारक नीच राशि पापयोगसे बन्धनका स्वामी होता है और उच्चादि राशि शुभयोग से मोक्षका स्वामी होता है। भाव यह है कि नीच तथा पापग्रहसे मुक्त होकर आत्मकारक अपने दशान्तर्दशामें बंधनादि दुःख देनेवाला होता है और उच्चादि शुभग्रहसे युक्त होकर आत्मकारक अपने दशान्तर्दशामेंअन्यग्रहके बलसे बंधे हुएकाभी मोक्षणकर्त्ता होवे है अथवा आत्मकारक प्रतिकूल होकर पापकर्म प्रवृत्तिद्वारा संसाररूप बन्धन देनेवाला होता है और अनुकूल होकर ज्ञान काशीवासादि साधनोंकर मोक्षकर्त्ता होवे है ॥१२॥
इनके अनन्तर अमात्यकारक कहते हैं।
तस्यानुसरणादमात्यः ॥ १३ ॥
उस आत्मकारक ग्रह से जो कि न्यून अंशादिवाला ग्रह है वह अमात्यकारक होता है। भाव यह है कि आत्मकारकसे जिस ग्रहके अंश कलादि कम होवें वह ग्रह अमात्यकारक होता है। अमात्यकारक ग्रह उच्चादिमें स्थित हो वा शुभग्रह से युक्त होवे तौ राजा वा मंत्री वा स्वामी इत्यादिकोंसे सुख होता है और नीचादि स्थानमें स्थित हो वा पापग्रहसे युक्त हो तो राजादिकोंसे अधिक दुःखादि होता है ॥१३॥
इसके अनन्तर भ्राकारक कहते हैं।
तस्य भ्राता ॥ १४ ॥
और उस अमात्यकारक ग्रहसे जिस ग्रहके अंशादि कम होवें वह भ्रातृकारक होता है। भ्रातृकारक से भ्रातादि सुखदुःखादिका निर्णय होता है ॥१४॥
इसके अनंतर मातृकारक कहते हैं।
तस्य माता ॥ १५ ॥
भातृकारक ग्रहसे जिस ग्रहके अंशकलादि कम होवें वह मातृकारक होता है। मातृकारकसे मात्रादिसुखदुःखादिका निर्णय होता है ॥१५॥
इसके अनंतर पुत्रकारक कहते हैं॥
तस्य पुत्रः ॥ १६ ॥
मातृकारक ग्रहसे जिस ग्रहके अंशकलादि कम होवें वह पुत्रकारक होता है। पुत्रकारकसेपुत्रादि सुखदुःखादिका निर्णय होता है ॥१६॥
इसके अनंतर ज्ञातिकारक कहते हैं।
तस्य ज्ञातिः ॥ १७ ॥
पुत्रकारकसे जिस ग्रहके अंशकलादि कम होवें वह ग्रह ज्ञातिकारक होता है। ज्ञातिकारकसे ज्ञातिका निर्णय होता है ॥१७॥
इसके अनंतर दारकारक कहते हैं।
तस्य दाराश्च ॥ १८ ॥
ज्ञातिकारक ग्रहसे जिस ग्रहके अंशकलादि कम होवें वह ग्रह स्त्रीकारक होता है। स्त्रीकारकसे स्त्रीसंबंधी विचार कर्त्तव्य^(१) है ॥१८॥
इसके अनंतर पुत्रकारकको मतांतरसे कहते हैं।
मात्रा सह पुत्रमेके समामनन्ति ॥ १९ ॥
मातृकारकसेही पुत्रकारकका विचार कर्त्तव्य हैं ऐसा कोई आचार्य कहते हैं अर्थात् मातृपुत्रकारकोंको एकही कहते हैं ॥१९॥
इस प्रकार चरकारक कहने के अनंतर स्थिरकारक कहते हैं तिनमें प्रथम भगिन्यादिकारकों को दिखाते हैं।
भगिन्यारतः श्यालः कनीयाञ्जननी चेति ॥ २० ॥
आर नाम मंगलसे भगिनी नाम बहिनी और शाला और छोटा
१ सूत्रमें चकार नहीं कहे हुएके कहनेके अर्थ है। समस्थिरकारक पदोपपदादिसेभी स्त्रीविचार कर्त्तव्य है। केवल दारकारकसेही नहीं इस वार्ताको चकार जनाता है ॥
भ्राता और जननी नाम माता यह सब विचारे। यदि मंगल उच्चादिस्थानमें वा शुभग्रहयुक्त होवे तौ भगिनी आदिका सुख कहना और यदि नीचादि पापग्रहयुक्त होवे तौ भगिन्यादिका दुःख कहना इसी प्रकार अन्य जगहमी विचार कर्तव्य है ॥२०॥
इसके अनन्तर मातुलादिकारकोंको कहते हैं।
मातुलादयो बन्धवो मातृसजातीया इत्युत्तरतः ॥ २१ ॥
भौमसे उत्तर जो कि बुध है तिससे मातुल और आदिपदसे मामाको भ्राता भगिनी आदिक और बन्धुजन और माताकी सपत्नी यह विचारे ॥२१॥
इसके अनन्तर पितामहादिकारकोंको कहते हैं।
पितामहः पतिपुत्राविति गुरुमुखादेव जानीयात् ॥२२॥
गुरुमुख नाम बृहस्पत्यादिकसे पितामह नाम पिताका पिता और स्वामी और पुत्र यह सब विचारे। भाव यह है कि बृहस्पतिसे पिताका पिता और शुक्रसे स्वामी और शनैश्चरसे पुत्रका विचार कर्त्तव्य है ॥२२॥
इसके अनंतर पत्न्यादि स्थिरकारक कहते हैं।
पत्नीपितरौ श्वशुरौ मातामहा इत्यन्तेवासिनः ॥२३॥
अंतेवासी अर्थात् बृहस्पतिसे उत्तर जो कि शुक्र है उससे स्त्री और माता तथा पिता वा श्वश्रू और श्वशुर और माताका पिता यह सब विचारने योग्य है ॥२३॥
जब कि दो तीन ग्रहोंके, अंशकलादि समान होते हैं
तब निसर्ग बलसेही कारक विचारा जाता है इस
कारण निसर्गबल कहते हैं।
मंदोज्यायान् ग्रहेषु ॥ २४ ॥
मन्द नाम शनैश्चर सात ग्रहोंमें दुर्बल है। भाव यह है किनिसर्गबलमें शनैश्चरादिक उत्तरोत्तर बली हैं। जैसे शनैश्चरसे
अधिक बली भौम और भौमसे बुध और बुधसे बृहस्पति और बृहस्पति शुक्र और शुकसे चन्द्रमा और चन्द्रमासे सूर्य अधिक बली है^(१)॥२४॥
इसके अनन्तर चर दशाके वर्ष साधनेमें उपयोगी होनेसे
विषम समराशिभेद कर गणना कहते हैं।
प्राची वृत्तिर्विषमभेषु ॥ २५ ॥
विषमसंज्ञक जोकि मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनुः, कुम्भ राशि हैं। इनके विषे क्रमसे गणना होती है। जैसे मेप, वृष, मिथुन इत्यादि रीतिसे॥२५॥
परावृत्त्योत्तरेषु ॥ २६ ॥
उत्तर नाम समराशि अर्थात् जो कि वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन ये राशि हैं इन राशियोंके विषे उलटे क्रमसे गणना होती है। जैसे वृष, मेष, मीन, कुम्भ इत्यादि रीतिसे गणना होती है ॥२६॥
इसके अनन्तर क्रमव्युत्क्रमगणनाकी विपरीतता कहते हैं।
न क्वचित् ॥ २७ ॥
कहीं विपमराशियोंके विषे कम नहीं है और कहीं समराशियोंके विषे व्युत्क्रम नहीं है। भाव यह है विषमराशि सिंह और कुम्भमें क्रमसे गणना नहीं होती है किन्तु उलटे क्रमसे गणना होती है। और समराशि वृष और वृश्चिकमें उलटे क्रमसे गणना नहीं होती किन्तु सीधे क्रमसे गणना होती है^(२)॥२७॥
१ ग्रहोंका निसर्ग बल बृहज्जातकमें कहा है। “शकुबुगुभृचराद्यावृद्धितो वीर्यवन्तः।” अर्थ - शनैश्चर, कुज, बुध, बृहस्पति, शुक्र, चंद्र, सूर्य ये क्रमसे एक दूसरेसे अधिक बली है॥
२ शंका- सूत्रमें तो क्वचित्पदका प्रयोग है। सिंह कुम्भ और वृश्चिक वृषइन राशियोंका तो ग्रहण नहीं है फिर भावार्थमें सिंह कुम्भ और वृषवृश्चिकका कैसे ग्रहण हो ?समाधान - परंपराकर वृद्धोंसे सुना है। “क्रमाद् वृषे वृश्चिके च व्युत्क्रमात्कुम्भसिंहयोः॥” अर्थ - वृषवृश्चिकके विषे क्रमसे और सिंह कुम्भके विषे उलटे क्रमसे,
इसके अनन्तर तत्तद्राशिके दशावर्ष लाने के लिये
अवधि दिखाते हैं।
नाथान्ताः समाः प्रायेण ॥ २८ ॥
राशिके स्वामिपर्यन्त जितनी संख्या होवे उतनेही वर्ष उस राशिके बहुधाकर होते हैं। भाव यह है कि जिस राशिका स्वामी उस राशिसे जितनी संख्यापर हो उतनेही वर्ष उस राशिके चरदशामें होते हैं। जैसे मेष राशिका स्वामी मंगल मेष राशिसे द्वितीयस्थानपर होवें तो एक वर्ष तृतीयपर होवे तौदो वर्ष इसी क्रमसे बारहवें होवें तो ग्यारह वर्ष मेष राशिके चरदशामें माने जांयगे और यदि स्वामी उसी निजराशिमें स्थित होवे तो बारह वर्ष उस राशिके माने जावेंगे^(१) ॥२८॥
गिने १।शंका - इन सूत्रोंका तो फलितार्थसंग्रह यह हुआ। “मेषादित्रित्रिभैर्ज्ञेय पदमोजपदे क्रमात्। दशाब्दानयने कार्या गणना व्युत्क्रमात्सभे॥” अर्थ - मेषादि तीन २ राशियोंका पद होता है। विषमपद में तो क्रमसे गिने और समपदमें दशा वर्षे लानेमें उलटे क्रमसे गिने १।इस फलितार्थसे “प्राची वृत्तिर्विषमपदे, परावृत्योत्तरे” इस प्रकार दोही सूत्र कहने थे फिर इस प्रकार कैसे नहीं कहे। जो इतना फेरकर अर्थ तीन २ सूत्रों में किया ? समाधान -“यावदीशाश्रयपदमृक्षाणाम्” इस सूत्रके वक्तव्य होनेसे सदंहेकेभयसे नहीं कहा और “मातृधर्मयोः सामान्यं विपरीतमोजकूटयोः” इस द्वितीयाध्यायके चतुर्थपादक २२ सूत्रके वक्तव्य होनेसे भी नहीं कहा॥
१ स्वामी निज राशिमें स्थित होनेसे उस राशिके बारह वर्ष होते हैं। इसमें वृद्धवचन प्रमाण है। “तस्मात्तदीशपर्यन्तं संख्यामत्रदशां विदुः। वर्षद्वादशकं तत्र न चेदेकं विनिर्दिशेत्॥” अर्थ - राशिके वर्ष वह जानने जो कि संख्या स्वामिपर्यन्त होवे और जो खामी राशि एकही स्थानमें स्थित होवे तो उस राशिके बारह वर्षजानने और जो स्वामी अपनी राशिमें स्थित न होवे तो एकही वर्ष ग्रहण करे ऐसा कोई एक आचार्य कहते हैं। इसी कथनसे “प्रायेण” इससूत्रपदसे"नाथान्तःः समाः” इसका निषेध जनाया गया है और सूत्रमें “प्रायेण" यह जो कि पद विद्यमान है इसकर यह जनाया गया कि जो स्वामी उच्च होवे तो दशामें राशिका एक वर्ष बढ जाता है, और जो स्वामी नीच होवे तौ राशिका एक वर्ष घट जाता है सो वृद्धोंने कहाभी है। “उच्चखेटस्य सद्भावे वर्षमेकं विनिःक्षिपेत्। तथैव नीचखेटस्य वर्षमेकं विशोध.-
इसके अनंतर फलविशेषके जनानेके लिये राशियोंका
पदनाम आरूढस्थान कहते हैं।
यावदीशाश्रयं पदमृक्षाणाम् ॥ २९ ॥
येत्॥” अर्थ तो पूर्वं कहही दिया है। “प्रायेण" इसी पदसे यहभी जनाया गया है कि वृश्चिक और कुम्भके दो २ स्वामी हैं। प्रमाण वृद्धवाप्य है। “कुजसौरी केतुराहू राजानावलिकुम्भयोः। क्रुजसौरी केतुराहूयुक्तौतत्र स्थितौयदि॥ वर्षद्वादशके तत्र न चेदेकं विनिर्दिशेत्।” अर्थ - वृश्चिक राशिके नंगल और केतु दोनों राजा हैं और कुम्भराशिके शनैश्चर और राहु ये दोनों राजा हैं। भाव यह है कि वृश्चिक राशिका राजा मंगल और केतु दोनोंमेंसे अकेला नहीं हो सक्ता किन्तु दोनोंही राजा हैं। ये दोनों मिलकर अपने राशिपर स्थित होवेंतो उस राशिके बारह वर्ष होते हैं और यदि अपने राशिएर एकही एक स्थित होवे तो स्वामी नहीं है और उस राशिके बारह वर्षभी नहीं हो सक्तेऔर यदि जिस स्थानमें ये दोनों मिलकर स्थित होवेंतो उस स्थानतक गिननेसेजितनी संख्या होवे यह वर्ष इन वृश्चिक मकर राशियों के होते हैंऔर जो दोनों स्वामी भिन्न २ स्थानोंपर स्थित होवें तो उनमें जो कि खामी बलवान् होवे उस स्वामी के स्थानतक गिननेसे राशिके वर्ष ग्रहण करे ऐसा वृद्धोंने कहाभीहै। “द्विनाथक्षेत्रयोरत्र निर्णयः कथ्यतेऽधुना। एकः स्वक्षेत्रगोऽन्यस्तु परत्र यदि संस्थितः॥ तदान्यत्र स्थितं नाथं परिगृह्य दशां नयेत्।” अर्थ - दो स्वामियों के राशिका निर्णय कहा है। एक ग्रह तो अपने राशिपर स्थित होवे और दूसरा अन्य राशिपर स्थित होवे तो जो कि यह अन्य राशिपर स्थित है उसतक गिनकर दो स्वामीवाले राशिकी दशा लावे। “द्वावप्यन्यर्क्षगौतौ चेत्स ग्रहो बलवान् भवेत्। ग्रहयोगसमानत्वेचिन्त्यं राशिवलाद्बलम्॥ चरस्थिरद्विस्वभावाः क्रमात्स्युर्वलशालिनः। राशिसत्त्वसमानत्वे बहुवर्षो बलीभवेत्॥" अर्थ - जो दोनों स्वामी अपने राशिसेअन्य राशिपर स्थित होवें तो उनमें जो कि बलवान् हो उसतक गिनकर राशिके वर्षोंका निश्चय करे। यदि दोनों स्वामी बलवान् होवे तो रााशिबलसेही बलजाने अर्थात जो ग्रह राशिबलसे बली होवे उसतक गिनकर राशिवर्षोंका निर्णय करे और यदि दोनों स्वामियोंका राशिवलभीसमान होवे तो जिस ग्रहतक गिननेसे अधिक वर्ष आवें उस ग्रहतक गणना करे।चर स्थिर द्विस्वभाव यह राशि क्रमसे वल होते हैं। भाव यह है कि चरसंज्ञक राशिसेस्थिरसंज्ञक राशि बलीहै और स्थिर राशिसे द्विस्वभावराशि बली है। “एकः स्वोच्चगतस्त्वन्यः परन्न यदि संस्थितः। ग्राहयेदुच्चखेटस्थं राशिमन्यं विहाय वै॥ नाथान्ता इति रीत्या यो बहुवर्षवतींदशाम्। करोति बहुवर्षोऽसौ स्वराशेर्दु-
जितनी संख्यापर जिस राशिका स्वामी हो उस स्वामीसे उतनी संख्यापर जो कि राशि होवे वह राशि उस राशिका आरूढस्थान होता है। भाव यह है कि जिस राशिका स्वामी अपनी राशिसे जितनी संख्यापर हो उतनी संख्या स्वामीसे लेकर जहां
रगः खगः॥ एवं सर्वं समालोच्य जातस्यनिधनं वदेत्।” अर्थ - दोनों स्वामियोंमें एक स्वामी उच्चका होवे और दूसरा अन्य स्थानपर होवे तो उस स्वामीतक गिने जो कि उच्चका होवे और यदि दोनों स्वामियोंमें एक उच्चका होवे और दूसरा बहुत वर्षोवाला होवे तोभी उसी ग्रहतक गणना करे जो कि ग्रह उच्चका होवे इस प्रकार दशा विचार करके उत्पन्न हुएका निधन कहे औरभी वृद्धोंने राशिबल कहा है। “न्यासयोर्ग्रहहीनत्वे वैकस्यान्येन संयुक्तौ। ग्राह्यो राशिर्ग्रहाभावस्तत्स्वाम्युच्चं गतो यदि॥ एकत्र स्वर्क्षगः खेटश्चान्यत्र द्वौग्रहौयदि। ग्रहद्वययुतिंहित्वा ग्राहयेत्पूर्वभंसुधीः॥” अर्थ - लग्नऔर सप्तमस्थान इन दोनोंमें ग्रह न होवे अथवा दोनोंके मध्यमें एक स्थानपर स्वामीके बिना कोई ग्रह होवे तो उन दोनोंमें जो कि राशि न्यायकर निर्बल होवे वहही राशि तवबलवान् होता है। जब कि उस राशिका स्वामी उच्चका होये तो और अन्य ग्रहयुक्त राशि बलवान् नहीं हो सक्ता और एक राशिमें तो स्वक्षेत्री ग्रह होने और अन्य राशिमें दो ग्रह होवें तो उनमें जो कि राशि स्वामियुक्त होवे वही राशिबलवान होता है न कि दो ग्रहयुक्त राशि बलवान् हो सक्ता है। राशियोंके स्वामी तथा उच्च अन्य जातकसे जानने। “क्षितिजसितज्ञचंद्ररविसौम्यसितावनिजाः। सुरगुरुमंदसौरिगुरवश्चग्रहांशकपाः॥" अर्थ - मंगल, शुक्र, बुध, चन्द्र, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनैश्चर, शनैश्चर, बृहस्पति, ये कमसे मेषादि राशियोंके स्वामी हैं। “अजवृषभमृगांगनाकुलीरा झषवणिजौ च दिवाकरादितुंगाः। दशशिखिमनुयुक्तिथीन्द्रियांशौत्रिनवकविंशतिभिश्चतेऽस्तनीचाः॥" अर्थ - सूर्य मेषके १० अंशतक, चन्द्रमा वृष के ३ अंशतक, मंगल मकरके २८ अंशतक, बुध कन्याके १५ अंशतक, बृहस्पति कर्कके ५ अंशतक, शुक्र मीनके २७ अंशतक, शनैश्चर तुलाके २० अंशतक उच्चका होता है और यही यह सातवें राशिमें नीच होता है। इस प्रकार ग्रह और राशिबलका चरदशामें विचार करे “पंचमे पदक्रमात् प्राक्मत्यक्त्वम्” इस द्वितीय अध्यायके तृतीयपाद के २८ सूत्रके अभिप्रायसे जो लग्नसे नवममें विषमपद होवे तो तनु, धन, भ्रातृ, सुहृद् आदिकोंकी दशाका भोगहोता है और यदि समपद होवे तो तनु, व्यय, आय, कर्म आदिकोंकी दशाका भोग होता है। दशाके आरम्भकी अवधि है। “चरदशायामत्र शुभः केतुः” इस द्वितीयाध्यायके तृतीय पादके २८ सूत्रके अभिप्रायसे इस दशाका नाम चरदशा है॥
समाप्त होवे वह स्थान उस राशिका आरूढस्थान होता है^(१) ॥२९॥
इसके अनन्तर आरूढपदका उदाहरण दो सूत्रोंसे कहते हैं।
स्वस्थे दाराः ॥ ३० ॥
लग्नसे चतुर्थ स्थानमें लग्नस्वामी स्थित होवे तौ सप्तमस्थ राशि लग्नका आरूढस्थान है ॥३०॥
सुतस्थे जन्म ॥ ३१ ॥
लग्न लग्नस्वामी सुत नाम सप्तमस्थानमें स्थित होवे तो लग्नका आरूढपद लग्नराशिही होता^(२)है ॥३१॥
इसके अनन्तर भावराशियोंके वर्णदस्थान कहते हैं।
सर्वत्र सवर्णा भावा राशयश्च ॥ ३२ ॥
समस्त भाव और राशि अपने वर्णदराशियोंसे संयुक्त होते हैं। है कि जिस भावका विचार करे उसका वर्णदराशि देखे कि और जिस राशिका विचार करे उसकाभी वर्णदराशि देखे क्योंकि भाव और राशिके सव प्रकारके विचार करनेमें वर्णद राशिकीभी अपेक्षा होती है^(३)। वर्णदराशिके वनानेका
१ आरुठस्थानका निर्णय वृद्धोंनेभी कहा है। “लग्नाद्यावतियेतिष्ठेद्राशौलग्नेश्वरः क्रमात्। ततस्तावतिथं राशि जन्मारुढंप्रचक्षते॥” अर्थ - लग्नसे जितनी संख्यावाले राशिपर उमस्वामी स्थित हो उस स्वामीसे उतनीही संख्यावाला राशि लमका आरूढपद होता है॥
२ इस उदाहरणमेे ओर भी प्रमाण है। “यदा लग्नाधिपो लग्नेसप्तमे वा स्थितोयदि। आरुढंलग्नमेवात्र निर्दिशेत्कालवित्तमः॥” अर्थ - जबकि लग्नस्वामीलग्नमें अथवा सप्तम स्थानपर स्थित होवे तो लग्नका आरुढपद लग्नराशिहोता है ऐसा ज्योतिषीकहते हैं। “स्वस्थे दाराः, सुतस्थे जन्म” इन आरूढस्थानके उदाहरणरूपसूत्रोंकी जो कि कोई आचार्योंने यह व्याख्या की है कि लग्नस्वामी चतुर्थ स्थानमें स्थित होते तो स्त्रियोंका विचार करे और उमस्वामी सप्तम स्थानमें स्थित होवे तो मातृजन्मका विचार करे सो यह व्याख्या असंगत है॥
३ वर्णदराशिसे बुद्धोंने फलभी कहा है। “पापदृष्टिःपापयोगो वर्णदस्य त्रिकोणके। यदि स्यात्तर्हि तद्राशिपर्यन्तं तस्य जीवनम्॥ रुद्रशूले तथैवायुर्मरणादि निरूप्यते। तथैव वर्णदस्यापि त्रिकोणे पापसंगमे॥” अर्थ - वर्णदराशिके पंचम नवम स्थानमें पापग्रहोंकी
यह प्रकार है कि जो विषमराशिमें जन्मलग्न होवे तौ मेषसे क्रमपूर्वक जन्मलग्नतक गिने और यदि समराशिमें जन्मलग्न होवे तौ मीनसे उलटे क्रमसे अर्थात् मीन कुम्भ इस रीतिसे जन्मलग्नतक गिने जो कि अंक आवे उसको पृथक् रख देवे फिर होरालग्नकोदेखे कि होरालग्नविषमराशिमेंहै अथवा समराशिमें है। यदि होरालग्न विषमराशिमें होवे तौ मेष वृष इत्यादि रीतिसे होरालग्नतक गिने और यदि समराशि होवे तो मीन कुम्भ इत्यादि रीतिसे होरालग्नतक गिने। जो अंक आवे उसको पृथक रख देवे।यदि जन्मलन और होरालग्नदोनों स्त्रीसंज्ञक वा पुरुषसंज्ञक होवें तौउन आये हुए दोनों अंकांको जोड़ देवे और यदि जन्मलग्न और होरालग्नमें एक स्त्रीसंज्ञक होय और दूसरा पुरुषसंज्ञक होय तौउन दोनों अंकोंको परस्पर घटावे। जो अंक जोडनेसे अथवा घटानेसे आवे वह यदि १२ से अधिक होवे तौ १२ का भाग देवे जो वचें उतनी संख्या यदि जन्मलग्न विषम होवे तौ मेष
दृष्टि अथवा योग होवे ती उसी राशिकी दशापर्यन्त उसका जीवन होता है और रुद्रसंज्ञक ग्रह जो कि अगाडी कहा जायगा उसके शुल्योगमें आयुका मरणादि कहा है और वर्णदराशिकेनवमपंचम राशि यदि पापयुक्त होवेंतौउसी राशिके दशापर्यन्त मरण कहा है। अन्यच्च - “वर्णदात्सप्तमाद्राशेःकलत्रादि विचिन्तयेत्। एकादशादग्रजं तु तृतीयात्तुयवीयसम्॥ पंचमे तनुजं विद्यान्मातरञ्चतुर्थपंचमे। पितुरतु नवमान्मातुः पंचमाद्वर्णदम्यं तु॥ शूलाशिदशायां वै प्रबलायामरिष्टकम्।” अर्थ - वर्णद राशिसे जो कि सप्तमराशि है उससे कलत्रादिको विचारे और ग्यारहवें राशिसे वडे भ्राता और तृतीय राशिसे छोटे भ्राताओंको विचारे और पंचम राशिते पुत्रको विचारे और चतुर्थ और पंचमसे माताको और नवमसे पिताको विचारे। वर्णदराशिसे पंचम राशिसे शूलदशाप्रबल होनेपर माताको अरिष्ट होता है और वर्णदराशिसे नवमराशिसे शूलदशा प्रबल होनेपर पिताको अरिष्ट होता है। कोई आचार्य इस सूत्र की यह व्याख्या करते हैं इस समस्त ग्रंथमें भाव और राशि वर्णोंमें प्रतीत होते हैं। भाव यह है कि इस समस्त ग्रंथमें जो कि भाव और राशि कहे जावेंगे उनकी प्रतीति अन्य शास्त्रके समान नहीं किन्तु एकादि संख्याके जतानेवाले अक्षरोंसे जाने जाते हैं। यह व्याख्या संमत नहीं क्योंकि “सिद्धमन्यत्” इस अगाडी कहे जानेवाले सूत्रके अभिप्रायसे शिवतांडवादि ग्रंथोंमें कटपयादि वर्णोंद्वारा जनाई हुईसंख्या प्रसिद्ध है। इससे वर्णपदराशिपर है ऐसा जतानेके लिये यह सूत्र कहा है॥
वृषादि क्रमसेऔर यदि जन्मलग्नसम होवे तौमीन कुम्भ इत्यादि क्रमसे जिस राशिपर समाप्त होवे वह राशि जन्मलग्नका वर्णदराशि होता है ॥३२॥
१ वर्णदराशिके बनानेकी रीति इसी प्रकार वृद्धोंने कही है। “ओजलग्नप्रसूतानांमेषादेर्गणयेत् क्रमात्। युग्मलग्नप्रसूतानां मीनादेरप्यसव्यतः॥ मेषमीनादितो जन्मलग्नान्तं गणयेत्सुधीः। तथैव होरालग्नान्तं गणयित्वा ततः परम्॥ पुंस्त्वेन स्त्रीतया वैते सजातीये उमे यदि। तर्हि संख्ये योजयति वैजात्ये तु वियोजयेत्॥ मेषमीनादितः पश्चाद्यो राशिः स तु वर्णदः।” न्ही श्लोकोंके अर्थसे टीकामें वर्णद राशि बनानेकी रीति लिखी है इस कारण इनका अर्थ यहां प्रत्येक लोकानुसार नहीं किया। अब वर्णद दशाके बनानेकी रीति लिखते हैं। होरा और लग्नराशिमें जो राशि निर्बल होवे उससे वर्णद दशाका आरम्भ होता है क्योंकि कहाभीहै। “होरालग्नभयोर्नेयाया दुर्बलाद्वर्मणदा दशा।” वर्णददशाके वर्ष लानेका विधानभी वृद्धोंने कहा है। “यत्संख्यां वर्णदो लग्नात्तत्सत्संख्याक्रमेण तु। क्रमव्युत्क्रमभेदेन दशा स्यात्पुरुषस्त्रियोः॥” अर्थ - लग्नसेजिस संख्यापर वर्णद राशि होवे सोइ सोई संख्या क्रमसे विषम सम लग्नकेअनुसार करके तिन २ राशियोंकी दशा होवे है। भाव यह है कि जिस प्रकार कि “नाथान्ताः” इत्यादि सूत्रमें अपने २ राशिके स्वामी पर्यन्त वर्ष लाये गये हैं तिसी प्रकार यहां लग्नसेही अपने वर्णद राशिपर्यन्त वर्ष लाये जाते हैं। जैसे लग्नमेषहै और उसका वर्णद राशि मिथुन है। मेष विषमराशि है इस कारण क्रमसे मिथुनराशितक गिननसे दो संख्या हुई ये वर्ष मेषलग्नकेए और यदि लग्नसमराशिमें होता तौलग्नसे उलटे क्रमसे वर्णद राशिसेगिननेसे जो संख्या आतीवही वर्षलग्नके माने जाते। इसी प्रकार धनादि भावोंके राशियोंके वर्णद निकालकर वर्णद राशितक धनादि भावोंसे पूर्वोक्त रीतिसे गिननेस जो संख्या आवे वही घनादि भावोंके दशावर्षहोवेगे। यह वार्ता सूत्रमें जो कि सर्वत्र पद है उससे जनाई है। यदि कहो किवर्णदका बनाना और वर्णदशाका बनाना सूत्रसे नहीं सिद्ध होता फिर यहां कैसे कहा है ? समाधान - “सिद्धमन्यत्” इस सूत्राभिप्रायसे अन्य ऋषियोंके शाखाद्वारा वर्णद और वर्णद दशाका निश्चय होनेसे यहांसूत्रमें नहीं कहा और तिसी प्रकार है। अन्य शास्त्रके मतसे, गुलिककाभी निश्चय किया जाता है। जिस प्रकार कि वर्णराशि लग्नकेविषम सम होनेसे मेष मीनादि गणना करके जन्मलग्नहोरालग्नपर्यन्त संख्यावंशसे लाया जाता है तिसीप्रकार भावलग्नको जन्मलग्नकल्पना कर भावका वर्णदराशि बनाना चाहिये। भावलग्नका तथा होरालग्नका बनाना वृद्धोंने कहा है। “सूर्योदयं समारभ्य घटिकानां तु पंचकम्। प्रयातिजन्मपर्यन्तं भावलग्नंतथैव च॥ तथासार्द्धं द्विघटिकामितात्कालाद्विलग्नभात्। प्रयाति लग्नंतन्नाम होरालग्नंप्रचक्षते॥” अर्थ - सूर्यके उदयसे लेकर जन्म इष्टपर्यन्त जितनी घटिका जावें उनमें पांचका भाग
इसके अनन्तर ग्रहोंके वर्णदका निषेध कहते हैं।
न ग्रहाः ॥ ३३ ॥
सूर्यादिक ग्रह वर्णदराशिसहित नहीं होते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार कि भाव और राशियोंके वर्णदराशि होते हैं तिस प्रकार ग्रहोंके वर्णदराशि नहीं होते हैं इस कथनसे यह जनाया गया कि भावराशियोंकी वर्णदराशि होते हैं। सूर्यादि ग्रहोंके नहीं होते हैं ॥३३॥
इसके अनन्तर अन्तर्दशाविभाग दिखाते हैं।
यावद्विवेकमावृत्तिर्भानाम् ॥ ३४ ॥
मेष, वृष, मिथुन इत्यादि राशियोंके मध्यमें प्रतिराशि जो कि चरस्थिरादि दशाओंमें सिद्ध हुए दशावर्ष हैं उन वर्षोंके बारह विभाग करके वारह राशियोंकी आवृत्ति होवे है। भाव यह है के चरस्थिरादि संज्ञक दशाओंके विषे जो कि मेषादि बारह राशि - योंके दशावर्ष हैं उनमें प्रत्येक राशिके दशावर्षोंके बारह भाग करे जितना प्रथम भाग हो उतने पर्यन्त उसी राशिकी अन्तर्दशा रहती है और जितना दूसरा भाग हो उतने पर्यन्त उस राशिदशामें दूसरी राशिकी अन्तर्दशा रहती है। जो लग्न विषमराशिमें होवे तो मेष, वृष, मिथुन इत्यादि क्रमसे अन्तर्दशाका भोग होता
देवे लब्धमिले वह राशि होते हैं। शेषको ३० से गुणाकर ५ का भागदेनेसे जो लब्ध मेले वह अंश होते हैं फिर शेषको ६० से गुणाकर ५ का भाग देनेसे जो लब्ध मिले वह अंश होते हैं। यह राशि आदिक संख्या जन्मलग्नसे गिननेसे जहां समाप्त होवे वह भाव लग्नहोता है। होरालग्नके बनानेकी यह रीति है कि इष्ट घटिकाओंमें अढाईका भाग देनेसे जो लब्धमिले वह राशि और शेषको ३० से गुणाकर अडाईका भाग देनेसे जो लब्धमिले यह अंश और इसी प्रकार कला निकले हैं। यह राशिआदिक संख्या यदि जन्मूलग्न विषम होवेतो सूर्यके राशिमें गिननेसे और यदि जन्मलग्नसम होवे तो जन्मलग्नसे गिननेसे जहां समाप्तहोवे वह राशि होरालग्नहोता है॥
१ कोई आचार्य इस सूत्रकी यह व्याख्या करते हैं। जिस प्रकार भाव और राशि सवर्ण हैं अर्थात् संख्याबोधक अक्षरोंसे जाने जाते हैं तिस प्रकार ग्रहसंख्याबोधक क्षरोंसे नहीं जाने जाते किन्तु अपने प्रसिद्ध पदोंकरही जाने जाते हैं॥
है और यदि लग्न सम होवे तो उलटे क्रमसे अर्थात् वृष, मेषइत्यादि रीतिसे अन्तर्दशाका भोग होता है^(१) ॥३४॥
इसके अनन्तर ग्रन्थान्तरप्रसिद्ध होरा द्रेष्काणादिकोंको
उपलक्षणमात्र कहते हैं क्योंकि इस ग्रन्थमें कहे जाने-
वाले सूत्रोंके विषे होराद्रेष्काणादिका ग्रहण है।
होरादयः सिद्धाः ॥३५ ॥
होरा और आदिशब्दसे द्रेष्काण, त्रिंशांश, सप्तांश, नवांश, द्वादशांश यह शास्त्रान्तरमें प्रसिद्ध हुई मेषादि गणना करके प्रसिद्ध हैकिन्तु दृष्टि और अर्गलाके समान गुप्त नहीं इस कारण इनका विवरण यहां नहीं किया है^(२)॥३६॥
१ अन्तर्दशाविभाग वृद्धोंने कहा है। “कृत्वार्कधाराशिदशां राशेर्भुक्तिं क्रमाद्वदेत्॥ एवं दशान्तर्दशादि कृत्वा तेन फलं वदेत्॥” अर्थ - राशिदशाके १२ विभाग करके राशिके अन्तर्दशाका भोग क्रमसेकहे इसी प्रकार समस्तदशाओंको अन्तर्दशा करके उसी फल कहे। “एकैकमावस्येकैक वर्षे लग्नादि कल्पयेत्। सा पर्यायदशा लग्नेयुग्मे तु व्युत्क्रमाद्वदेत्॥ लग्नंयुग्मं यदा तर्हि सन्मुखं तस्य चादिभम्।" अर्थ - दशावर्षमें एक २ भावके एक २ लग्नादिको कल्पना करे यह अन्तर्दशा होवेहै। यदि लग्नसम होवोतो उलटे क्रमले एक २ भावके एक २ लग्नादिको कहे। जैसे वृषसे मेष। सूत्रमें जो कि विवेकपदका ग्रहण है तिससे यह जाना जाता है कि जिस प्रकार एक राशिके १२ भाग होते हैं इसी तरह बारह राशियोंके अन्तर्दशामें एक सौ चवालीस भाग होते हैं और जो कि कोई आचार्योंने यह कहा है कि उपस्थित होनेसे दशा के आरम्भकी अवधि अपना २ लग्नहै सो यहभी नहीं क्योंकि कारिकावचन है। “होरालग्नभयोर्नेया दुर्बलाद्वर्णदा दशा “॥
२ होरादिकोंके जाननेके विषयमें वृद्धवचन है। “राशेरुर्द्धं भवेद्वारा ताश्चतुर्विंशतिः स्मृताः। मेषादि तासां होराणां परिवृत्तिद्वयं भवेत्॥ राशित्रिभागा द्रेष्काणास्ते च षट्त्रिंशदीरिताः। परिवृत्तित्रयं तेषां मेषादेः क्रमशो भवेत्॥ सप्तांशकास्त्वोजगृहे गणनीया निजेशतः॥ युग्मराशौ तु विज्ञेयाः सप्तमर्क्षाधिनायकात्॥ नवांशेशाश्चरेत्तस्मात् स्थिरे तन्नवमादितः। उभये तु तत्पंचमादेरिति चिन्त्यं विचक्षणैः॥ द्वादशांशस्य गणना तत्तत्क्षेत्राद्विनिर्दिशेत्।” होरा, द्रेष्काण, त्रिशांश, सप्तांशु, नवांश, द्वादशांश इस षड्वर्गके जाननेका विधि चक्रोंमेलिखा है इस कारण इन श्लोकोंका अर्थ यहाँ नहीं लिखा है॥
होराचक्रम्.
[TABLE]
द्रेष्काणचक्रम्.
[TABLE]
विषमत्रिंशांशचक्रम्.
| मिष | मि. | सिं. | तु. | ध. | कुं. | ग्रहलग्नकेराशि | |
| ५ | मं | मं | मं | मं | मं | मं | ५ अंशतक |
| ५ | श | श | श | श | श | श | १० अंशतक |
| ८ | बृ | बृ | बृ | बृ | बृ | बृ | १५ अंशतक |
| ७ | बु | बु | बु | बु | बु | बु | २५ अंशतक |
| ५ | शु | शु | शु | शु | शु | शु | ३० अंशतक |
सप्तत्रिंशांशचक्रम्.
| वृ. | क. | क. | वृ. | म. | मी. | ग्रहलग्नकीरा. | |
| ५ | शु | शु | शु | शु | शु | शु | ५ अंशतक |
| ७ | बु | बु | बु | बु | बु | बु | १२ अंशतक |
| ८ | बृ | बृ | बृ | बृ | बृ | बृ | २० अंशतक |
| ५ | श | श | श | श | श | श | २५ अंशतक |
| ५ | मं | मं | मं | मं | मं | मं | ३० अंशतक |
नवांशचक्रम्
[TABLE]
अथ द्वादशांशचक्रम्.
| मेष | वृषभ | मिथुन | कर्क | सिंह | कन्या | तुला | वृश्चि. | धनुः | मकर | कुम्भ | मीन | ग्रहलग्नकेरा. |
| मे.मं. | वृ. शुक्र. | मि. बुध | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु | तु. शु. | वृ. म. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | २अं. ३० क. |
| वृ. शुक्र. | मि. बुध | क. चंद्र | सिं.सूर्य | क. बुध | तु. शु. | वृ. म. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | ५ अंशतक. |
| मि. बुध | क. चंद्र | सिं.सूर्य | क. बुध | तु. शु. | वृ. म. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | ७अं ३०. क. |
| क. चंद्र | सिं.सूर्य | क. बुध | तु. शु. | वृ. मं. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | १० अंशतक. |
| सिं.सू. | क. बुध | तु. शु. | वृ. मं. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मे.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | १२ अ. ३० क. |
| क. बुध | तु. शुक्र | वृ. मं. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | १५ अंशतक. |
| तु. शु. | वृ. मं. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु. | १७अं. ३० क. |
| वृ. मं. | धनु. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु. | तु. शु. | २०अंशतक. |
| ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु. | तु. शु. | वृ. मं. | २२अं. ३० क. |
| म. श. | कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु. | तु. शु. | वृ. मं. | ध. वृ. | २५ अंशतक. |
| कुं. श. | मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु. | तु. शु. | वृ. मं. | ध. वृ. | म. श. | २३ अं. ३० क. |
| मी. बृ | मेष.मं. | वृ. शु. | मि. बु | क. चं. | सिं.सूर्य | क. बु. | तु. शु. | वृ. मं. | ध. वृ. | म. श. | कुं. श. | ३० अंशतक. |
अथ सप्तांशचक्रम्.
[TABLE]
इति श्रीजैमिनीयसूत्रे प्रथमाध्याये श्रीनीलकंठीयतिलकानुमतभाषाटीकायां श्रीपाठकमंगल-
सेनात्मजकाशिरामविरचितायां प्रथमः पादः समाप्तः ॥ १ ॥
अथ द्वितीयपादः ।
इनके अनन्तर आत्मकारकके नवांशका फल कहनेको
आरम्भ करते हैं ।
अथ स्वांशो ग्रहाणाम् ॥ १ ॥
सूर्यादिक जो कि ग्रह हैं उन ग्रहों के मध्यमें जो कि आत्मकारक है उस आत्मकारकका जो कि नवांश है उससे फल विचारने योग्य है ॥१॥
प्रथम आत्मकारकके मेषादि नवांशोंका फल कहते हैं।
पञ्च मूषिकमार्जाराः ॥ २ ॥
यदि आत्मकारकमें मेषनवांश होवे तो मूषिक और मार्जीर जीव दुःखदायक होते हैं ॥२॥
तत्र चतुष्पादः ॥ ३ ॥
यदि आत्मकारकमेंवृष नवांश होवे तो चार पांववाले पशु सुखकर्त्ता होते हैं^(१)॥३॥
मृत्यौकंडूः स्थौल्यं च ॥ ४ ॥
यदि आत्मकारकमेंमिथुननवांश होवे तो शरीरमें खाज और शरीरमें स्थूलता हो जाती है ॥४॥
दूरे जलकुष्ठादिः ॥ ५ ॥
यदि आत्मकारकमेंकर्कनवांश होवे तो जलसे भय और कुष्ठादिक रोग होता है ॥५ ॥
१ शङ्का - मूषिकादिक दुःखदाईहोते हैं और चतुष्पाद सुखदाई होते हैं यहांपर एकही अर्थ अपेक्षित है भिन्न २ अर्थ करनेमें क्या कारण है ? समाधान - इसमें वृद्धवचन प्रमाण है। “वृषतौल्यंशकगते तस्मिन्वाणिज्यवान् भवेत्। मेषसिंहांशकगते ब्रूयान्मूषकदंशनम्॥ कारके कार्मुकांशस्थेवाहनात्पतनं भवेत्।” अर्थ - यदि आत्मकारक ग्रह वृष वा तुलाके नवांश होवे तो वाणिज्य कर्मवाला होता है और यदि मेषवा सिंहके नवांशमें होवे तो मूषकभयहोता है और धनुके नवांशमें होवे तो वाहनसे पतन होता है॥
शेषाः श्वापदानि ॥ ६ ॥
यदि आत्मकारकमें सिंहनवांश होवे तो श्वान आदिक जीव दुःख देनेवाले होते हैं ॥६॥
मृत्युवज्जायाग्निकणश्च ॥ ७ ॥
यदि आत्मकारसमें कन्यानवांश होवे तो मिथुननवांशवत् फल होता है और अग्निकणभी दुःख देनेवाला होता है अर्थात् शरीरमें खाज और मोटापन तथा अग्निभय होता है ॥७॥
लाभे वाणिज्यम् ॥ ८ ॥
यदि आत्मकारकमें तुलानवांश होवे तो वाणिज्यकर्म करनेवाला होता है ॥८॥
अत्र जलसरीसृपाः स्तन्यहानिश्च ॥ ९ ॥
यदि आत्मकारकमें वृश्चिकनवांश होवे तो जल और सर्पादिक दुःख देनेवाले होते हैं और माताको स्तन्य नाम दुग्ध सूख जावे है ॥९॥
समे वाहनादुच्चाच्च क्रमात्पतनम् ॥ १० ॥
यदि आत्मकारकमेंधनुर्नवांश होवे तो वाहनसे अथवा ऊंची जगहसे पतन होता है परन्तु वह पतन एकसाथ नहीं होता है किन्तु कहीं २ रुक २ कर होता है ॥१०॥
जलचरखेचरखेटकंडूजुष्टग्रन्थयश्च रिःफे ॥ ११ ॥
यदि आत्मकारकमें मकर नवांश होवे तो जलचारी मत्स्यादिक जीव और खेचर पक्षी और खेट नाम ग्रह ये फलदायक होते हैं। और खाज और दुष्ट ग्रंथि गण्डमाला आदिक रोग होते हैं ॥११॥
तडागादयो धर्मे ॥ १२ ॥
यदि आत्मकारकमें कुम्भनवांश होवे तो तडाग, बावडी, कूप आदिकोंके करनेवाले होते हैं ॥१२॥
उच्चे धर्मनित्यता कैवल्यश्च ॥ १३ ॥
यदि आत्मकारकमेंमीननवांश हो तो धर्मकी नित्यता और मोक्ष होता है^(१)॥१३॥
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवांशका ग्रहस्थितिसे फल कहते हैं।
तत्र रवौराजकार्य परः ॥ १४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें सूर्य स्थित होवे तो राजकर्म करनेवाला होता है ॥१४॥
पूर्णेन्दुशुक्रयोर्भोगेविद्याजीवी च ॥ १५ ॥
यदि आत्मकारके नवांशमें परिपूर्ण चन्द्रमा और शुक्र येदोनों स्थित होवें तो भोगकर्ता और विद्यासे जीविका करनेवाला होता है ॥१५॥
धातुवादी कौंतायुधो वह्निजीवी ॥ १६ ॥
यदि आत्मकारक के नवांश भौम स्थित होवे तो धातुवादी नाम रसायनविद्यावाला और बरछी शस्त्र बांधनेवाला तथा अग्निसे जीविका करनेवाला होता है ॥१६॥
१ आत्मकारक नवांशादि गुणोंकर फल वृद्धोंने कहा है। “शुभराशौशुभांशे या कारकांशे धनी भवेत्। तदंशकेन्द्रेषु शुभे नूनं प्रजायते॥" अर्थ - यदि आत्मकारक ग्रहका नवांश शुभ राशिमें अथवाशुभग्रहके नवशमें होवेतो धनी होता है और यदि आत्मकारक ग्रहके नवांशके कुण्डलीमें जो ग्रह होवे उनमें यदि शुभ ग्रह होवे तोनिश्चयही राजा होता है। अन्यच्च - “ कारके शुभराश्यंशेलग्नांशरथे शुभग्रहे। उपग्रहस्य पाश्चात्ये स्वोच्चस्वर्क्षशुभर्क्षगे॥ पापदृग्योगरहिते कैवल्यं तस्य निर्दिशेत्। मिश्रे मिश्रं विजानीयाद्विपरीते विपर्ययः॥" अर्थ - यदि आत्मकारक शुभग्रह होकर शुभराशिकेनवांशमेऔर लग्नके नवांशमें स्थित होवे और उपग्रहके पिछाड़ी स्थित होवे और अपने उच्चका अथवा निज राशिका अथवा शुभग्रहके राशिका होवे और पापग्रहकी दृष्टि और योगसे वर्जित होवे तो मोक्ष होता है और यदि पापग्रह तथा शुभग्रह इन दोनोंकी दृष्टि या योगसेयुक्त होवे तो मिश्रस्वर्गवास होता है और यदि केवल पापग्रहकी दृष्टिऔर योगसेही युक्त होवे तो न मुक्ति होती है न स्वर्गवास होता है। अन्यच्च - “चंद्रभृग्वार्कवर्गस्थे कारके पारदारिकः” अर्थ - यदि आत्मकारक चन्द्र, शुक्र, मंगल, इसके वर्गमें स्थित होवे, तो परस्त्रीसे भाग करनेवाला होता है॥
वणिजस्तन्तुवायाः शिल्पिनो व्यवहारविदश्च सौम्ये १७
यदि आत्मकारकके नवांशमें बुध स्थित होवे तो वणिक् और वस्त्र वुननेवाला तथा शिल्पविद्यावान् और समस्त व्यवहार जाननेवाला है होता ॥१७॥
कर्मज्ञाननिष्ठा वेदविदश्चजीवे ॥ १८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें बृहस्पति स्थित होवे तो वैदिककर्ममें निष्ठारखनेवाला तथा ज्ञानी और वेदको जाननेवाला होताहै १८॥
राजकीयाः कामिनः शतेंद्रियाश्च शुक्रे ॥ १९ ॥
यदि आत्मकारके नवांशमें शुक्र स्थित होवे तो राजाके अधिकारवाला और बहुत स्त्रियोंके भोगनेमें इच्छा रखनेवाला और सौवर्षपर्यन्त जीवन धारण करनेवाला होता है ॥१९॥
प्रसिद्धकर्मजीवः शनौ ॥ २० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें शनैश्चर स्थित होवे तो लोकप्रसिद्ध कर्मसे जीविका करनेवाला होता है ॥२०॥
धानुष्काश्चोराश्च जांगलिका लोहयंत्रिणश्च राहौ ॥२१॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें राहु स्थित होय तो धनुष रखनेवाला और चोरी करनेवाला होता है अथवा जांगलिक और लोहयंत्र रखनेवाला होता है ॥२१॥
गजव्यवहारिणश्चोराश्च केतौ ॥ २२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें केतु स्थित होवे तो हाथियोंका व्यवहार करनेवाला तथा चोर होता है ॥२२॥
रविराहुभ्यां सर्पनिधनम् ॥२३॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें सूर्य और राहु दोनों स्थित होवें तो सर्पसे मृत्यु होता है ॥२३॥
शुभदृष्टे सन्निवृत्तिः ॥ २४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुए सूर्य राहु ये दोनों शुभ ग्रहने देखे होवें तो सर्पसे मृत्यु नहीं होती है ॥२४॥
शुभमात्रसंबन्धाज्जांगलिकः ॥ २५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुए सूर्य राहुके विषे शुभग्रह मात्रका योग होवे तो जांगलिक नाम विषवैद्य होता है ॥२५॥
कुजमात्रदृष्टे गृहदाहकोऽग्रिदो वा ॥ २६ ॥
यहि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुए सूर्य राहु ये दोनों मंगलने देखे होंय तो अपने गृहको जलानेवाला अथवा अग्नि देनेवाला होता है ॥२६॥
शुक्रदृष्टेर्न दाहः ॥ २७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुए सूर्य राहु इन दोनोंपर शुक्रकी दृष्टि होवे तो गृहको जलानेवाला नहीं होता है किन्तु अग्निका दाह मात्र करनेवाला होता है ॥२७॥
गुरुदृष्टस्त्वासमीपगृहात् ॥ २८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुए सूर्य राहुपर बृहस्पतिकी दृष्टि होवे और शुक्रकीदृष्टि न होवे तो समीप गृहपर्यंत दाह हो जावे, अपने गृहमात्रका दाह न होवे ॥२८॥
सगुलिके विषदो विषहतो वा ॥ २९ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश गुलिकसहित होवे तो दूसरेको विष देनेवाला तथा स्वयं विष खाकर मरनेवाला होता है^(१)॥२९॥
१ गुलिक चनानेकी रीति वृद्धोंने कही है “रविवारादिशन्यन्तं गुलिकादि निरूप्यते। दिवसानष्टधाकृत्वा वारेशाद्गणयेत् क्रमात्॥ अष्टमोंऽशो निरीशःस्याच्छन्यंशो गुलिकः स्मृतः। रात्रिमप्यष्टधाभक्ता वारेशात्पंचमादितः। गणयेदष्टमः खंडो निष्पत्तिः परिकीर्तितः। शन्यंशे गुलिकः प्रोक्तो गुर्वशे यमघंटकः॥ भौमांशे मृत्युरादिष्टोरव्यंशे कालसंज्ञकः। सौम्यांशेऽर्द्धप्रहरकः स्पष्टकर्मप्रदेशकः॥” अर्थ - रविवारसे लेकर शनैश्चरपर्यन्त गुलिकादि योग कहे हैं। दिनमानके आठ भाग करे और उस दिन जो वार होवे उससे क्रमकरके गिने। आठवां भाग स्वामीकर वर्जित होता है अर्थात्
चंद्रदृष्टौ चौराऽपहृतधनश्चौरो वा ॥ ३० ॥
यदि गुलिकसहित आत्मकारकके नवांशपर चन्द्रमाकी दृष्टि होवेतौ चौरोंकर चुराये हुए धनवाला वा स्वयं चोर होता है ॥३०॥
बुधमात्रदृष्टे बृहद्बीजः ॥ ३१ ॥
यदि गुलिकसहित आत्मकारकका नवांश केवल बुधहीने देखा हो और अन्य ग्रहकी दृष्टि न होवे तौ वडे २ वृषणोंवालाहोता है ॥३१॥
तत्र केतौ पापदृष्टे कर्णच्छेदः कर्णरोगो वा ॥ ३२ ॥
आठवें भागका कोई स्वामी नहीं होता है। उन आठों भागों में जो कि शनैश्चरका भाग है यह गुलिक कहा है। इसी प्रकार रात्रिमानके आठ भाग करे और उस दिन जो वार हो उससे जो कि पांचवां वार है उससे क्रमकरके गिने जो आठवांभाग हो वह स्वामित्रर्जित होता है। उन आठों भागोंमें जो कि शनैश्चरका भाग है वह गुलिक होता है और जो कि बृहस्पतिका भाग है वह यमघंटक होता है और जो कि भौमका भाग है वह मृत्युयोगसंज्ञक होता है और जो कि सूर्यका भाग है वह कालयोगसंज्ञक है और जो किबुधका भाग है वह अर्द्धप्रहरसंज्ञक है। जैसे रविवारके दिन दिनके सांतवें भागमें और रात्रिके तीसरे भागमेंगुलिकयोग रहता है और सोमवारके दिन दिनमें छठे भागमें और रात्रिके द्वितीय भागमें गुलिकयोग रहता है और भौमवारके दिन दिनके पांचवें भागमें और रात्रिके प्रथम भागमें गुलिकयोग रहता है। इसी प्रकार बुधके दिन दिनके चतुर्थ भागमेंऔर रात्रिके सप्तम भागमें और बृहस्पतिके दिन दिनके तृतीय भागमेंऔर रात्रिके सप्तमभागमें और शुक्रके दिन दिनके द्वितीय भागमें और रात्रिके पंचम भागमें और शनैश्चरके दिन दिनके प्रथम भागमें और रात्रिके चतुर्थ भागमें गुलिकयोग रहता है। इसी प्रकार अन्यवचनभी है। “ तथा च रविवारादौ दिने गुलिकसंस्थितिः। सप्तर्तुशरवेदत्रिद्विकुखण्डेषु हि क्रमात्॥ रात्रौ त्रिद्विकुसप्तर्तुपंचतुर्येषु तत्स्थितिः।" अर्थ - रविवारादिक वारोंके विषे दिनमें क्रमसे सप्तम, पंष्ठ, पंचम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय, प्रथम इन भागोंमें गुलिकयोग रहता हैऔर रात्रिमें तृतीय, द्वितीय, प्रथम, सप्तम, षष्ठ, पंचम, चतुर्थ इन भागोंमें गुलिकयोग रहता है। जिस समय गुलिकयोगका आरम्भ होवे उस समय जो लग्न विद्यमान हो उस लग्नका जो नवांश उस समय होवे वही नवांश आत्मकारकका यदि होवे तो वह आत्मकारकका नवांश सगुलिक कहा जाता है ऐसा जानना॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें पापग्रहोंकर देखा हुआ केतु स्थित होवे तौ कर्णच्छेद अथवा कर्णरोग होता है ॥३२॥
शुक्रदृष्टे दीक्षितः ॥ ३३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुआ केतु गुरूने देखा होवोतो किसी एक यज्ञक्रिया करके दीक्षित होता है ॥३३॥
बुधशनिदृष्टे निर्वीर्यः ॥ ३४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुआ केतु बुध और शनैश्चर दोनोंने देखा होवे तो नपुंसक होता है ॥३४॥
बुधशुक्रदृष्टे पौनःपुनिको दासीपुत्रो वा ॥ ३५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुआ केतु, बुध और शुक दोनोंने देखा होवे तो वार २ कहे हुए वचनके कहनेवाला होता हैं अथवा दासीका पुत्र होता है ॥३५॥
शनिदृष्टे तपस्वी प्रेष्योवा ॥ ३६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुआ केतु अन्यग्रह और शनैश्चरने देखा होवे तो तपस्वी अथवा दास होता है ॥३६॥
शनिमात्रदृष्टे संन्यासाभासः ॥ ३७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुआ केतु अन्य ग्रहने तो देखा न होवे केवल शनैश्चरने देखा होवे तौ कथनमात्र संन्यासी होता है। परिपूर्ण संन्यासी नहीं होता है ॥३७॥
तत्र रविशुक्रदृष्टे राजप्रेष्यः ॥ ३८ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश सूर्य और शुक्र दोनोंने देखा होवे तो राजाका सेवक होता है ॥३८॥
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवांशसे दशम नवांशका विचार करते हैं।
रिःफे बुधे बुधदृष्टे वा मन्दवत् ॥ ३९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे दशम स्थानपरं बुध स्थित होवे अथवा आत्मकारकके नवांशसे दशम स्थान बुधने देखा होवे तौ “प्रसिद्धकर्मा जीवःशनौ” इस सुत्रका कहा हुआ फल होता है अर्थात् लोकप्रसिद्ध कर्मसे जीविका करनेवाला होता है ॥३९॥
शुभदृष्टे स्थेयः ॥ ४० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे दशम स्थान बुधको त्यागके अन्य शुभ ग्रहोंने देखा होवे तो स्थिर स्वभाव होता है, चंचल नहीं होता है ॥४०॥
रवौ गुरुमात्रदृष्टे गोपालः ॥ ४१ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे दशम नवांशमें स्थित हुआ सूर्य केवल बृहस्पतिने देखा होवे और किसी ग्रहने न देखा होवे तो गौओंकीरक्षा करनेवाला होता है ॥४१॥
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवमांश चतुर्थ नवमांशका विचार करते हैं।
दारे चन्द्रशुक्रदृग्योगात्प्रासादः ॥ ४२ ॥
यदि आत्मकारकके नवमांशसे चतुर्थ नवमांशपर चन्द्र शुक्र इन दोनोंकी दृष्टि अथवा योग होनेसे उत्तम २ राजमन्दिरोंवाला होता है ॥४२॥
उच्चग्रहेऽपि ॥ ४३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ स्थानपर कोई उसका ग्रह स्थित होवे तोभी उत्तम २ राजमन्दिरोंवाला होता है ॥४३॥
राहुशनिभ्यां शिलागृहम् ॥ ४४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ स्थानपर राहु शनैश्चर दोनोंकी स्थिति होवे तौ शिलाओंका रचा हुआ गृह होता है ॥४४॥
कुजकेतुभ्यामैष्टकम् ॥ ४५ ॥
यदिआत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवमांशपर मंगल केतु ये दोनों स्थित होवें तो ईंटोंका रचा हुआ गृह होता है ॥४५॥
गुरुणा दारवम् ॥ ४६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशपर बृहस्पतिकी, स्थिति होवे तो काष्ठका रचा हुआ गृह होता है ॥४६॥
तार्णं रविणा ॥ ४७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशपर सूर्यकी स्थिति होवे तो तृणका रचा हुआ गृह होता है ॥ ४७
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवमांशसे नवम नवमांशका विचार करते हैं।
समे शुभदृग्योगाद्धर्मनित्यः सत्यवादी गुरुभक्तश्च ४८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशपर शुभ ग्रहोंकी दृष्टि अथवा योग होवे तो धर्मनिष्ठ और सत्य बोलनेवाला तथा गुरुजनोंका भक्त होता है ॥४८॥
अन्यथा पापैः ॥ ४९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशपर पापग्रहोंकी दृष्टि तथा योग होवेतौ धर्मसे विपरीत चलनेवाला तथा झंठ बोलनेवाला तथा गुरुजनोंका भक्त नहीं होता है ॥४९॥
शनिराहुभ्यां गुरुद्रोहः ॥ ५० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशपर शनि, राहु इन दोनोंकी दृष्टि अथवा योग होवे तो गुरुसे विरोध करनेवाला होता है ॥५०॥
गुरुरविभ्यां गुरावविश्वासः ॥ ५१ ॥
यदि आत्मकारककेनवांशसे नवम नवमांशपर बृहस्पति, सूर्य इन दोनोंकी दृष्टि अथवा योग होवे तौ गुरुमें विश्वास नहीं होता है ॥५१॥
तत्र भृग्वंगारकवर्गे पारदारिकः ॥ ५२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशमें शुक्र वा मङ्गलका षड्वर्ग होवे तो परस्त्रीगामी होता है ॥५२॥
दृग्योगाभ्यामधिकाभ्यामामरणम् ॥ ५३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशमें शुक्र वा मङ्गलका षड्वर्ग होवे और शुक्र व मंगलकी दृष्टि अथवा योग होवे तो मरणपर्यन्त परस्त्रीसे गमन करनेवाला होता है ॥५३॥
केतुना प्रतिबन्धः ॥ ५४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशमें केतुकी दृष्टि अथवा योग होवे तौमरणपर्यन्त परस्त्रीसे विमुख रहता है ॥५४॥
गुरुणा स्त्रैणः ॥ ५५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशमें बृहस्पति की दृष्टि अथवा योग होवे तो स्त्रीके आधीन रहता है ॥५५॥
राहुणार्थनिवृत्तिः ॥ ५६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवमांशमें राहुकी दृष्टि अथवा योग होवे तो परस्त्रीसंगसे धनका नाश होता है ॥५६॥
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशका विचार करते हैं।
लाभे चंद्रगुरुभ्यां सुन्दरी ॥ ५७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशमें चन्द्र बृहस्पति इन दोनोंका योग होवे तो स्त्री सुन्दरी होती है ॥५७॥
राहुणा विधवा ॥ ५८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशमें राहुका योग होवे तौ गृहमें विधवा स्त्री होती है ॥५८॥
शनिना वयोधिका रोगिणी तपस्विनी वा ॥ ५९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशमें शनैश्चरका योग होवे तौ आपसे अधिक अवस्थावाली अथवा रोगिणी वा तपस्विनी स्त्री होती है ॥५९॥
कुजेन विकलांगी ॥ ६० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशमें मंगलका योग होवें तौ दुर्लक्षण अंगवाली स्त्री होवे है ॥६०॥
रविणा स्वकुले गुप्ता च ॥ ६१ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशमें सूर्यका योग होवेतौ अपनी स्त्रीमरणपर्यन्त अपने घरमें रक्षित रहती हैं और स्वातंत्र्यसे इधर उधर फिरनेवाली नहीं होती है और सूत्रमें जो कि चकारका ग्रहण है तिससे बिकलांगी अर्थात् दुर्लक्षण अंगवालीभी होती है ॥६१॥
बुधेन कलावती ॥ ६२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशपर बुधका योग होवोतौ स्त्रीगानेमें तथा बजानेमें बहुत निपुण होती है ॥६२॥
चापे चंद्रेणानावृते देशे ॥ ६३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थं नवांशपर चन्द्रमा होवे औरपूर्व कहे हुए स्त्रीकारक योग विद्यमान होवे तो अनाच्छादित देशमें प्रथम स्त्रीका संग होता है अथवा आत्मकारकके नवांशसे सप्तम नवांशमें धनुराशि और चन्द्रमा स्थित होवे तो अनाच्छादित देशमें प्रथम स्त्रीसंग होता है ॥६३॥
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवांशसे तृतीय नवांशका विचार करते हैं।
कर्मणि पापे शूरः ॥ ६४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे तृतीय नवांशमेंपाप ग्रह स्थित होवे तो शूर वीर होता है ॥६४॥
शुभे कातरः ॥ ६५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे तृतीय नवांशमें शुभग्रह होवेतो कातर नाम डरपनेवाला होता है ॥६५॥
मृत्युचिन्तयोः पापे कर्षकः ॥ ६६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे तृतीय और षष्ठ नवांश दोनोंमें पापग्रह होवें तो खेती करनेवाला होता है ॥६६॥
समे गुरौ विशेषेण ॥ ६७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे नवम नवांशमें बृहस्पति होवे तो विशेष करके खेती करनेवाला होता है ॥६७॥
इसके अनन्तर आत्मकारकके नवांशसे द्वादश नवांशका विचार करते हैं।
उच्चे शुभे शुभलोकः ॥ ६८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे द्वादश नवांशमें शुभ ग्रह होवे तौ शुभ लोककी प्राप्ति होवेहैं ॥६८॥
केतौ कैवल्यम् ॥ ६९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे द्वादश नवांशमें केतु होवे तो मोक्ष होता है अथवा आत्मकारकके नवांशमें शुभ ग्रह होवे तो मोक्ष होता है ॥६९॥
क्रियचापयोर्विशेषेण ॥ ७० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें मेषराशि अथवा धनुराशि होवे और शुभ ग्रहके साथ स्थित होवे तो विशेषकरके मोक्ष होता है अर्थात् सायुज्य मोक्ष होता है अथवा आत्मकारकके नवांशसे द्वादश नवांशमें मेष वा धनुराशि स्थित होवे और सातवें केतु स्थित होवे तोसायुज्य मोक्ष होता है^(१) ॥७०॥
१ शुभग्रहकी अपेक्षासे केतुको पापग्रह होनेसे केतुः सायुज्यमुक्तिकोदेनेवाला नहीं हो सक्ता इससे “केतौकेवल्यम्, क्रियचापयोर्विशेषेण” इन सूत्रोंपर यह व्याख्याही
पापैरन्यथा ॥ ७१ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे द्वादश नवांशमें और आत्मकारककेनवांशमें पापग्रहोंका योग होवे तो न शुभ लोक होता है न मुक्ति होती है ॥७१॥
रविकेतुभ्यां शिवे भक्तः ॥ ७२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमेंसूर्य और केतु दोनों मिलकर स्थितहोवें तो शिवका भक्त होती है ॥७२॥
चंद्रेण गौर्याम् ॥ ७३॥
यदि आत्मकारकका नवांश चन्द्रमाकरके युक्त होवे तो गौरीका भक्त होता है ॥७३॥
शुक्रेण लक्ष्म्याम् ॥ ७४ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश शुक्रकरके युक्त होवे तो लक्ष्मीका भक्त होता है ॥७४॥
कुजेन स्कंदे ॥ ७५ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश मंगलकरके युक्त होवे तो स्कन्द भगवान्का भक्त होता है ॥७५॥
बुधशनिभ्यां विष्णौ॥ ७६ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश बुध शनैश्चर दोनोंसे युक्त होवे तो विष्णुका भक्त होता है ॥७६॥
गुरुणा सांबशिवे॥ ७७ ॥
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उचित है। आत्मकारकके नवांशमें शुभग्रह होवे तो मुक्ति होती है और आत्मकारकके नवांशमें मेषवा धनु राशि स्थित होवे और साथमें शुभग्रह हो तौ सायुज्यमुक्ति होवे है। सूत्रकारने केतुको शुभग्रह नहीं कहा है और जो कि, “चरदशायामत्र शुभः केतुः” इस अगाडी कहे जानेवाले सूत्रमें केतुको शुभकरके कहा है सो चरदशामेंही केतु शुभ है और जगह नहीं ऐसा अर्थजानना॥
१ “रविकेतुभ्यां शिवे भक्तः” इस सूत्रसे लेकर “अमात्यदासे चैवम्” इस सूत्रपर्यन्त “कैतौ” इस पदकी अनुवृति जाननी॥
यदि आत्मकारकका नवांश बृहस्पति करके युक्त होवे तो पार्वतीसहित शिवका भक्त होता है ॥७७॥
राहुणा तामस्यां दुर्गायाम् ॥ ७८ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश राहुसयुक्त होवे तो तामसी देवता और दुर्गाका भक्त होता है ॥७८॥
केतुना गणेशे स्कन्दे च ॥ ७९ ॥
यदि आत्मकारकका नवांश केतुसे युक्त होवे तो गणेश और स्कन्दका भक्त होता है ॥७९॥
पा^(१)पर्क्षे मंदे क्षुद्रदेवतासु ॥ ८० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमेंपापराशि और शनैश्चरयुक्त होवे तौ कर्णपिशाचादि देवताओंका भक्त होता है ॥८०॥
शुक्रे च ॥ ८१ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें पापराशि और शुक स्थित होवे तोभीकर्णपिशाचादि देवताओंका भक्त होता है ॥८१॥
अमात्यदासे चैवम् ॥ ८२ ॥
आत्मकारक ग्रहसे कम अंशकलादिवाला ग्रह अमात्यकारक होता हैं उस अमात्यकारक ग्रहसे जो कि क्रमसे गिनने से छठा ग्रह है वह ग्रह अमात्यदास संज्ञक हैं। यदि अमात्यदाससंज्ञक ग्रह आत्मकारकके नवांशमेंस्थित होवे और पापराशिभी उस आत्मकारकके नवांशमें विद्यमान होवे तोभी क्षुद्र देवताओंका भक्त होता है ॥८२॥
त्रिकोणे पापद्वये मांत्रिकः ॥ ८३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें पंचम और नवम नवांश इन दोनोंमें क्रमसे दो पापग्रह स्थित होवें तो मंत्रवेत्ता होता है ॥८३॥
१ कोई आचार्य यह कहते हैं कि यदि यह अर्थ सम्मत होता तौ “पापर्क्षे मंदशुक्राऽमात्यदासेषु क्षुद्रदेवतासु" ऐसा सूत्र एकही रचित होता फिर पृथक् २ सूत्र रचना
पापदृष्टे निग्राहकः ॥ ८४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे जो कि पंचम और नवम नवांश हैं वे दोनों पापग्रहोंसे युक्त होवें और पापग्रहोंने देखे होवें तो भूतादिकोंका निग्रह करनेवाला होता है ॥८४॥
शुभदृष्टेऽनुग्राहकः ॥ ८५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे पंचम नवम ये दोनों पापग्रहोंसे युक्त होवें और शुभग्रहोंने देखे होवें तो लोकमें अनुग्रह करनेवाला होता है ॥८५॥
शुकेन्द्रौ शुक्रदृष्टे रसवादी ॥ ८६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें स्थित हुआ चन्द्रमा शुक्रने देखा होवे तो रसोंके बनानेवाला होता है ॥८६॥
बुधदृष्टे भिषक् ॥ ८७ ॥
यदि आत्माकारकके नवांशमें स्थित हुआ चन्द्रमा बुधने देखा होवे तो वैद्य होता है ॥८७॥
चापे चंद्रे शुक्रदृष्टे पांडुश्वित्री॥ ८८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें स्थित हुआ चन्द्रमा शुक्रने देखा होवे तो श्वेत कुष्ठवाला होता है ॥८८॥
कुजदृष्टे महारोगः ॥ ८९ ॥
यदि आत्मकारक ग्रहके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें स्थित हुआ चन्द्रमा शुक्रने देखा होवे तौ महारोग अर्थात् कुष्ठ रोगवाला होता है ॥८९॥
व्यर्थहै सो एक सूत्र नहीं हो सका क्योंकि यदि इस प्रकार एकही सूत्र होता तो यह अर्थ हो सक्ता। शनैश्चर शुक्र अमात्यदास यह ग्रह मिलकरके आत्मकारकके नवांशमें पापराशिके विषे स्थित होवे तौ क्षुद्रदेवताका भक्त होता है और जो कि शनैश्चर शुक्र अमात्यदास इनमेंसे एक २ की पापराशिनेे स्थिति करके क्षुद्रदेवताकी भक्ति होती है। तिससे योगविभाग के लिये पृथक् २ सूत्र रचना उचितही है ॥
केतुदृष्टे नीलकुष्ठम् ॥ ९० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें स्थित हुआ चन्द्रमा केतुकर देखा होवे तौ नीलकुष्ठ रोगवाला होता है ॥९०॥
तत्र मृतौ वा कुजराहुभ्यां क्षयः ॥९१ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें अथवा पंचम नवांशमें मंगल राहु होवें तौ क्षयरोगवाला होता है ॥९१॥
चंद्रदृष्टौ निश्चयेन ॥ ९२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें अथवा पंचम नवांशमेंस्थित हुए मंगल और राहुपर चन्द्रमाकी दृष्टि होवे तौबडा प्रबल क्षयरोग होता है ॥९२॥
कुन पिटिकादिः ॥ ९३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थनवांशमें अथवा पंचम नवांशमेंमंगल स्थित होवे तो पिटिकादिक रोग होते हैं ॥९३॥
केतुना ग्रहणी जलरोगो वा ॥ ९४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें अथवा पंचमनवांशमें केतु स्थित होवे तौसंग्रहणी अथवा जलोदरादिक रोग होते हैं ॥९४॥
राहुगुलिकाभ्यां क्षुद्रविषाणि ॥ ९५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे चतुर्थ नवांशमें अथवा पंचम नवांशमें राहु और गुलिक होवें तौमूषिकादि विष होते हैं। भाव यह है कि गुलिकयोगके आरंभके लग्नका नवांशही आत्मकारकके नवांशका चतुर्थ वा पंचम नवांश होवे और तहां राहु स्थित होवे तौ क्षुद्रजीव मूषिकादि विष होते हैं ॥९५॥
तत्र शनौ धानुष्कः ॥ ९६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें और उससे चतुर्थ नवांशमें शनैश्चर स्थित होवे तौधनुषविद्यामें निपुण होता है ॥९६॥
केतुना घटिकायंत्री ॥ ९७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें और उससे चतुर्थ नवांशमें केतु स्थित होवे तौघटिकायंत्रको रखनेवाला होता है ॥९७॥
बुधेन परमहंसो लगुडी वा ॥ ९८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें और उससे चतुर्थ नवांशमें बुध स्थित होवे तौ परमहंस अथवा दण्डी होता है ॥९८॥
राहुणा लोहयंत्री ॥ ९९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें और उससे चतुर्थ नवांशमें राहु स्थित होवे तौलोहरचित यंत्र रखनेवाला होता है ॥९९॥
रविणा खड्गी ॥ १०० ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें और उससे चतुर्थ नवांशमें सूर्य स्थित होवे तौ तलवार रखनेवाला होता है ॥१००॥
कुजेन कुन्ती ॥ १०१ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें और उससे चतुर्थ नवांशमें मंगल स्थित होवे तौ कुन्तशस्त्र रखनेवाला होता है ॥१०१॥
मातापित्रोश्चन्द्रगुरुभ्यां ग्रंथकृत् ॥ १०२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें चन्द्रमा और बृहस्पति ये दोनों स्थित होवें तौ ग्रंथ बनानेवाला होता है १०२
शुक्रेण किञ्चिदूनम् ॥ १०३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांश चंद्रसहित शुक्र स्थित होवे तौ ग्रंथ बनानेमें कुछ कम शक्तिवाला होता है^(१)॥ १०३ ॥
१ शंका- सूत्रमें तौकेवल शुक्रकाही ग्रहण है फिर साथमें चंद्रमाका कैसे ग्रहण किया है ? समाधान -यहां पूर्व सूत्रसे चंद्रमाकीअनुवृत्ति है केवल शुक्रकाही ग्रहण नहीं क्योंकि केवल शुक्रका फल अगाडी कहा जायेंगा। यदि कहो कि “शुक्रेण किञ्चिदूनम्, शुक्रेण कविर्वाग्मीकाव्यज्ञञ्च” इन दोनों सूत्रोंका यह अर्थ करे कि ग्रंथकार होनेमें कुछन्यून और कवि वाग्मी और काव्यवेत्ता होता है सो यहभी नहीं कहा जा सकता
बुधेन ततोऽपि ॥ १०४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें चन्द्रसहित बुध स्थित होवे तो शुक्रकी अपेक्षा करके ग्रंथ बनानेमें औरभी कुछ कम शक्तिवाला होता है ॥१०४॥
शुक्रेण कविर्वाग्मी काव्यज्ञश्च ॥ १०५ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें केवल शुक्रही स्थित होवे तौ कवि और कहनेमें अति चतुरवाणीवाला तथा काव्योंका जाननेवाला होता है ॥१०५॥
गुरुणा सर्वविद् ग्रन्थिकश्च ॥ १०६ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमेंअथवा उससे पंचम नवांशमें केवल बृहस्पति स्थित होवे तौसर्वज्ञ तथा ग्रन्थकर्त्ता होता है ॥१०६॥
न वाग्मी ॥ १०७ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें बृहस्पति हो तौवक्ता नहीं होता है ॥१०७॥
विशिष्यवैयाकरणो वेदवेदांगविच्च ॥ १०८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें बृहस्पति होवे तौविशेष करके व्याकरणशास्त्रका जाननेवाला तथा वेद वेदांगोंका जाननेवाला होता है ॥१०८॥
सभाजडः शनिना ॥ १०९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें शनैश्चर स्थित होवे तौ सभाजड अर्थात् सभामें बोलनेवाला नहीं होता है ॥१०९॥
क्योंकि यदि ऐसा अर्थ होता तो “शुक्रेण किश्चिदूनं कविर्वाग्मी काव्यज्ञश्च” ऐसा एकही सूत्र होता सो है नहीं इस कारण इस सूत्रका चंद्र इस पदकी अनुवृत्ति द्वारा अर्थ करना उचित है। यदि कहो कि समासके मध्यमें स्थित हुए पदोंके एक अंशकी अनुवृत्ति उचित नहीं है सो यहभी नहीं कहा जा सक्ता है क्योंकि इस ग्रंथमें इस प्रकारकीअनुति करनेकी रीति है ॥
बुधेनमीमांसकः ॥ ११० ॥
यदिआत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पंचम नवांशमें बुध स्थित होवे तौ मीमांसाशास्त्रका जाननेवाला होता है ॥११०॥
कुजेन नैयायिकः ॥ १११ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पञ्चम नवांशमें मंगल स्थित होवे तौन्यायशास्त्रका जाननेवाला होता है ॥१११॥
चंद्रेण सांख्ययोगज्ञः साहित्यज्ञो गायकश्च ॥ ११२ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पञ्चम नवांशमें चन्द्रमा स्थित होवे तौसांख्ययोगका जाननेवाला तथा साहित्यका जाननेवाला और गान करनेमें निपुण होता है ॥११२॥
रविणा वेदान्तज्ञो गीतज्ञश्च ॥ ११३ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पञ्चम नवांशमें सूर्य स्थित होवे तौवेदान्तशास्त्रका जाननेवाला तथा गीतका जाननेवाला होता है ॥११३॥
केतुना गणितज्ञः ॥ ११४ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पश्चम नवांशमें केतु स्थित होवे तौगणितका जाननेवाला होता है ॥११४॥
गुरुसंबन्धेन संप्रदायसिद्धिः ॥ ११५ ॥
यदि इन कहे हुए समस्तयोगोंके विषे वृहस्पतिको दृष्टि और बृहस्पतिका षड्वर्ग सम्बन्ध होवे तौजिस २ शास्त्रके जाननेका जो २ योग है उस २ शास्त्रकी सम्प्रदायसिद्धि अर्थात् समस्त भेद जाननेकी गति होती है। भाव यह है कि जिस शास्त्र के जाननेका जो योग पाया जावे यदि उस योगपर बृहस्पतिकी दृष्टि अथवा षड्वर्ग संबन्ध होवे तौ उस शास्त्रके समस्त गम्भीर भावका जाननेवाला होता है ॥११५॥
भाग्ये चैवम् ॥ ११६ ॥
जिस प्रकार कि आत्मकारकके नवांशमें अथवा उससे पञ्चमांशमें पूर्व कहे हुए चन्द्र बृहस्पति आदिकोंके योग करके ग्रन्थकर्तृत्वादि फल विचारा जाता है तिसी प्रकार आत्मकारकके नवांशसे द्वितीय नवांशमें चंद्र बृहस्पति आदिकोंके योगसे ग्रन्थकर्तृत्वादि फलविचारना चाहिये ॥११६॥
सदा चैवमित्येके ॥ ११७ ॥
आत्माकारकके नवांशसे तृतीय नवांशमेंभी पूर्व कहे हुए चन्द्र, बृहस्पति आदिक ग्रहोंके योग करके पूर्व कहा हुआ ग्रन्थकर्तृत्वादि फल विचारना चाहिये ऐसा कोई आचार्य कहते हैं ॥११७॥
भाग्ये केतौ पापदृष्टे स्तब्धवाक् ॥ ११८ ॥
यदि आत्मकारकके नवांशसे द्वितीय नवांशमें पापग्रहकर देखा हुआ केतु स्थित होवे तो कुछ रुक २ कर बोलनेवाला अथवा शीघ्र उत्तर देनेमें असमर्थ वाणीवाला होता है ॥११८॥
इसके अनन्तर केमद्रुमयोग कहते हैं।
स्वपितृपदाद्भाग्यरोगयोः पापे साम्ये केमद्रुमः॥ ११९॥
अपने जन्मलग्नसे अथवा जन्मलग्नके आरूढ स्थानसे द्वितीय और अष्टमराशिपर केवल पापग्रह होवें अथवा इन्हीं स्थानोंपर पाप ग्रह और शुभ ग्रह समान संख्यावाले होवें तौ केमद्रुम योग होता है। भाव यह है कि अपने जन्मलग्नसे वा जन्मलग्नके आरूढ स्थानसे जो कि द्वितीय और अष्टमराशि है उन दोनोंपर जो केवल पापग्रह होवें तो केमद्रुमयोग होता है और इन कहे हुए स्थानोंपर एक २ पापग्रहके साथ एक २ शुभग्रह हो अथवा दो २ पापग्रहोंके साथ दो २ शुभग्रह होवें अर्थात् पापग्रह और शुभग्रह बराबर स्थित होवें तोमी केमद्रुमयोग होता है और जो न्यूनाधिक होमेंतो केमद्रुमयोग नहीं होता है^(१)॥११९॥
१ शङ्का - सूत्रमें जो कि स्वशब्द है तिससे आत्मकारकके नवांशका बोध हो सक्ता है सो कैसे नहीं कहा? समाधान - यदि स्वशन्द आत्मकारकके नवांशका बोधक होता
चंद्रदृष्टौ विशेषेण ॥ १२० ॥
यदि केमद्रुमयोग होनेपर जन्मलग्नसे अथवाआरूढ स्थानसे द्वितीय और अष्टम स्थानपर चं माकी दृष्टि होवे तो विशेष करके केमद्रुमनाम दरिद्रयोग होता है ॥१२०॥
ये पूर्व कहे हुए फल क्या सब कालमें होते हैं अथवा किसी
कालविशेषमें होते हैं इसका निर्णय कहते हैं।
सर्वेषां चैवं पाके ॥ १२१ ॥
समस्त राशियोंकी दशामें ये पूर्व कहे हुए फल होते हैं अथवा समस्त राशियोंके दशारम्भ कालमेंभी इस प्रकार केमद्रुमयोगका विचार करना चाहिये।केमद्रुमयोग होनेपर दशामें दारिद्र्य होता है ॥१२१॥
इति श्रीजैमिनीयसूत्रप्रथमाध्याये श्रीनीलकंठीयतिलकानुसृतभाषा-
टीकायां श्रीपाठकमंगलसेनात्मजकाशिरामकृतायां द्वितीय-
पादः समाप्तः ॥ २ ॥
तौ “पितृपदात्” इस वाक्यसेही आत्मकारकके नवांशका लाभ होनेपर फिर स्वशब्दका ग्रहण करना निरर्थक होता और जब कि स्वशब्द न होता तौ “पितृपदात्" इस पदसे यह अर्थ होता आत्मकारकके नवांशसे और आत्मकारकके नवांशके आरुढस्थानसे सो यहां यह अर्थ अपेक्षित नहीं है। यहां तो अपने जन्मलग्नसे और अपने जन्मलग्नके आरूढ स्थानसे ऐसा अर्थ अपेक्षित है क्योंकि ऐसे अर्थमें वृद्धवचनभी प्रमाण है “आरूढाजन्मलग्नाद्वापापौ स्त्रीहानिगौ यदि। केवलौ सग्रहत्वेऽपि समसंख्यौ शुभाशुभौ ॥चंद्रदृष्टौविशेषेण योगः केमद्रुमो मतः।” अर्थ - जन्मलमसे अथवा जन्मलग्नके स्थान द्वितीय अष्टम स्थानपर केवल पापग्रह होवे अथवा पापग्रह और शुभग्रह उक्त स्थानोंपर बराबर संख्यावाले होवें तो केमद्रुमयोग होता है और चंद्रमाकर देखे गये होवेंतौविशेषकरके केमद्रुमयोग होता है और इस सूत्रकी व्याख्या स्वाम्यादिकोंने इस प्रकार की है। आत्मकारकसे और अपने लग्नसे और आरूढ स्थानसे द्वितीय अष्टम स्थानोंपर पापग्रह होवें अथवा पापग्रह और शुभ ग्रह बराबर संख्यावाले होकर स्थित होवें तो केमद्रुमयोग होता है। यह व्याख्या वृद्धसंगत नहीं है॥
अथ तृतीयपादः ।
इसके अनन्तर आरूढकुण्डलीस्थ ग्रहोंके आश्रय करके फलोंके
कहनेको पदका अधिकार करते हैं।
अथ पदम् ॥ १ ॥
इसके अनन्तर आरूढका दूसरा नाम जो कि पद है उसका अधिकार इस प्रकरणमें कहते हैं। भाव यह है कि “यावदाश्रयं पदमृक्षाणाम्” इस सूत्रमें जो कि आरूढके दूसरे नाम पदका विवेचन किया है उस पदका अधिकार इस प्रकरणमें करते हैं ॥१॥
इसके अनन्तर लग्नारूढसे एकादशस्थानका फलकहते हैं।
व्यये सग्रहेग्रहदृष्टे श्रीमन्तः ॥ २ ॥
लग्नारूढ स्थानसे एकादश स्थान किसी ग्रहसे युक्त होकर किसी ग्रहकर देखा गया होवे तो लक्ष्मीवाले पुरुष होते हैं ॥२॥
शुभैर्न्वाय्योलाभः ॥ ३ ॥
यदि लग्नारूढ स्थानसे एकादश स्थान शुभ ग्रहोंसे युक्त होकर शुभ ग्रहोंने देखा होवे तौन्यायमार्गसे धनका लाभ होता है ॥३॥
पापैरमार्गेण ॥ ४ ॥
यदि लग्नारूढ स्थानसे एकादश स्थान पाप ग्रहोंसे युक्त होकर पाप ग्रहोंने देखा होवे तौ शास्त्रविरुद्ध मार्गसे धनका लाभ होता है॥४॥
उच्चादिभिर्विशेषात् ॥ ५ ॥
उच्च और अपने ग्रहादिकोंपर स्थित हुए ग्रहोंके योग करके विशेष धनकी प्राप्ति होवे है। भाव यह है कि लग्नारूढ स्थानसे एकादश स्थान उच्च स्वगृहादिस्थ शुभ ग्रहोंसे युक्त होकर उच्च स्वगृहादिस्थ शुभ ग्रहोंकर देखा होवे तो न्यायमार्ग से विशेष धनकी
प्राप्ति होवे है और लग्नारूढ स्थानसे एकादश स्थान उच्चस्वगृहादिस्थ पाप ग्रहोंसे युक्त होकर उच्च स्वगृहादिस्थ पाप ग्रहोंकर देखा होवे तो शास्त्रविरुद्ध मार्गसे विशेष धनकी प्राप्ति होवेहै^(१)॥५॥
इसके अनन्तर लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थानका फल कहते हैं।
नीचे ग्रहदृग्योगाद्व्ययाधिक्यम् ॥ ६ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थानपर ग्रहोंकी दृष्टि और योग होवे तौ खर्चकी अधिकता रहती है। भाव यह है कि लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थान शुभग्रहयुक्त होकर शुभ ग्रहनेही देखा होवे तौ सन्मार्गमेंखर्च बहुत होता है और पाप ग्रहोंसे युक्त होकर पाप ग्रहोंनेही देखा होवे तौ असन्मार्गमेंखर्च बहुत होता है ॥६॥
रविराहुशुक्रैर्नृपात् ॥ ७ ॥
लग्नारूढ स्थान द्वादश स्थानपर सूर्य राहु शुक्रपर
१ यहाँपर वृद्धवचनभी है “आरूढाल्लाभभवनं ग्रहः पश्येत्तु न व्ययम्। यस्य जन्मनि सोऽपि स्यात्प्रबलोधनवानपि॥ द्रष्टृग्रहाणां बाहुल्ये तदा द्रष्टरि तुंगगे। सार्गले चापि तत्रापि बह्वर्गलसमागमे॥ शुभग्रहार्गले तत्र तत्राप्युच्चग्रहार्गले। सुखानि स्वामिना दृष्टे लग्नभाग्याधिपेन वा॥ जातस्य पुंसः प्राबल्यंनिर्दिशेदुत्तरोत्तरम्।” अर्थ - लग्नारूढ स्थानसे ग्यारहवें स्थानको ग्रह देखता होये और बारहवें स्थानको न देखता होवे तौ अत्यन्त धनवान् होता है। यदि आरूढ स्थानसे, एकादश स्थानके देखनेवाले बहुत ग्रह होवें तौऔरभी अधिक धनवान होता है और यदि देखनेवाला ग्रह उच्च होवे तो औरभी अधिक धनवान् होता है और यदि देखनेवाला ग्रह अर्गलासहित होवे तौऔरभी अधिक धनवान् होता है और यदि देखनेवाले ग्रहपर बहुत अर्गलाओंका समागम होवे तौ औरभी अधिक धनवान् होता है और यदि शुभ ग्रहकी अर्गला होवे तो औरभी अधिक धनवान् होता है और यदि उच्च ग्रहकीअर्गला होवे तो औरभीअधिक धनवान् होता है और यदि स्वामी अथवा लग्नभाग्यनाथने देखा होवे तो और भी अधिक धनवान् होता है - परन्तु इन योगोंमें कोई ग्रह बारहवें स्थानको न देखता हो॥
चन्द्रमाको दृष्टि होवे तौ निश्चय करके अवश्यही राजद्वारमें खर्च होता है और चन्द्रदृष्टि न होवे तौ राजद्वारके खर्चमें सन्देह रहता है ॥८॥
बुधेन ज्ञातिभ्यो विवादाद्वा ॥ ९ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थानपर बुध स्थित होवे तौ जातिके निमित्त अथवा झगडेसे धनका खर्च होता है ॥९॥
गुरुणा करमूलात् ॥ १० ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थानपर बृहस्पति स्थित होवे तो किसी करके वहानेसे धनका खर्च होता है ॥१०॥
कुजशनिभ्यां भ्रातृमुखात् ॥ ११ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थानपर मङ्गल और शनैश्चर दानों स्थित होवें तौभ्रातादिकोंके द्वारा धनका खर्च होता है ॥११॥
इसके अनन्तर एकादश स्थानमें व्ययवत्ही लाभका विचार करते हैं।
एतैर्व्यय एवं लाभः ॥ १२ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वादश स्थानपर स्थित हुए जिन ग्रहोंसे कि जिस प्रकार कि जिस मार्गद्वारा खर्च कहा है तिसी प्रकार एकादश स्थानपर स्थित हुए उन्हीं ग्रहोंसे उसी प्रकार करके उसी मार्गद्वारा लाभभी होता है ॥१२॥
इसके अनन्तर लग्नारूढसेसप्तम स्थानका फल कहते हैं।
लाभे राहुकेतुभ्यामुदररोगः ॥ १३ ॥
लग्नारूढ स्थानसे सप्तम स्थानपर राहु अथवा केतु स्थित होवे तौउदरका रोग होता है ॥१३॥
इसके अनन्तर आरूढ स्थानसे द्वितीयस्थ केतुका फल कहते हैं।
तत्र केतुना झटिति ज्यानि लिंगानि ॥ १४ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वितीय स्थानमें केतुके योग करके शीघ्रहीथोडी अवस्थामें बुढापेके चिह्न होते हैं^(१)॥१४॥
चन्द्रगुरुशुक्रेषु श्रीमन्तः ॥ १५ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वितीय स्थानमें चन्द्र बृहस्पति शुक्र ये समस्त अथवा एकही एक स्थित हावें तौ लक्ष्मीवाले होते हैं ॥१५॥
उच्चेन वा ॥ १६ ॥
लग्नारूढ स्थानसे द्वितीय स्थानमें कोई उच्चका शुभ ग्रह अथवा उच्चका पाप ग्रह स्थित होवें, तौलक्ष्मीवाले होते हैं ॥१६॥
स्वांशवदन्यत्प्रायेण ॥ १७ ॥
जिस प्रकार कि आत्मकारकके नवांशसे फल कहा है तिसी प्रकारबहुधा करके लग्नारूढ स्थानसे फल जानना चाहिये। भाव यह है कि जिस २ प्रकार कि आत्ताकारकके नवांशसे जिस जिस स्थानमें कि जो २ फल विचारा जाता है तिमी २ प्रकार लग्नारूढ स्थानसे उसी २ स्थानमें उसी २ फलका विचार कर्त्तव्य है^(२)॥१७॥
लाभपदे केंद्रे त्रिकोणे वा श्रीमन्तः ॥ १८ ॥
१ “तत्र केतुना झटिति” इस सूत्र जो कि तत्र पद है तिसका अर्थ “लाभे” इस पदकी अनुवृत्तिसे"सप्तमे" ऐसा स्वाम्यादिकोंने किया है सो अनुचित है क्योंकि, यदि ऐसा अर्थ होता तो “केतुना झटिति ज्यानि लिंगानि” ऐसा सूत्र उचित होता फिर “तत्र” इस पदकी क्या आवश्यकता थी। दूसरे “चंद्रगुरुशुक्रेषु श्रीमन्तः” इस सूत्रके अगार वक्तव्य होनेसेसप्तममें धनका विचार नहीं किया जाता है। धनका विचार तो द्वितीय स्थानमेंही किया जाता है इस कारण इस सूत्रमें “तत्र" इस पदका प्रयोग है। द्वितीय स्थानमें धनका विचार वृद्धोंनेभी कहा है। “आरूढात्षष्ठभेपापेचोरःस्याच्छुभवर्जिते। आरुडाद्वापि सौम्ये तु सर्वदिश्यधिपो भवेत्॥ सर्वज्ञस्तत्र जीवे स्यात्कविर्वादी च भार्गवे।” अर्थ - आरूढ स्थानसे द्वितीय स्थानपर पाप ग्रह होवे और शुभग्रह वर्जित होवे तो चोर होता है और बुधहोवे तौसर्वदिशामें राजा होता है। यदि बृहस्पति होवे तौसर्वज्ञ होता है। शुक्र होवेतौकवि और वादी होता है।
२ सूत्रमें जो कि “प्रायेण” ऐसा पर कहा है तिसकरके सब जगह कारकाांशवत्फल नहीं विचारना चाहिये क्योंकि औपदेशिक शास्त्रके विरुद्धअतिदेशिकशास्त्रकी प्रवृत्ति नहीं होती है ॥
लग्नारूढ स्थानसे केन्द्र नाम प्रथम चतुर्थ सप्तम दशम स्थानमें अथवा त्रिकोण नाम पञ्चम नवम स्थानमें सप्तम भावका आरूढ राशि होवे तौलक्ष्मीवाले होते हैं ॥१८॥
अन्यथा दुःस्थे ॥ १९ ॥
लग्नारूढ स्थानसे दुःस्य नाम षष्ठअष्टम द्वादश स्थानपर सप्तमभावका आरूढ राशि स्थित होवे तौ लक्ष्मीवाले नहीं होते हैं किंतु दरिद्रीहोते हैं ॥१९॥
केंद्रे त्रिकोणोपचयेषु द्वयोर्मैत्री ॥ २० ॥
लग्नारूढ स्थानसे केंद्रमें अथवा त्रिकोणमें अथवा उपच^(१)य नाम तृतीय दशम एकादश स्थानमें सप्तमभावका आरूढ राशि स्थित होवे तौदोनों भार्या और भर्त्तामें परस्पर मित्रता रहती है। इसी प्रकार लग्नारूढसे केंद्र त्रिकोण उपचय स्थानमें पुत्रादिभावका आरूढ राशि स्थित होवे तौपुत्रादिकोंकीमित्रता विचारने योग्य है ॥२०॥
रिपुरोगचिन्तासु वैरम् ॥ २१ ॥
लग्नारूढ स्थानसे रिपु नाम पष्ठ और रोग नाम अष्टम और चिंता नाम द्वादश इन स्थानोंपर जिस २ पुत्रादिभावका आरूढ राशि स्थित होवे तौउसी २ पुत्रादिसे वैर होता है। जैसे लग्नारूढ स्थानसे पुत्रभावका आरूढ राशि षष्ठ अष्टम द्वादश इन स्थानोंपर स्थित होवे तो पुत्र और पिताका परस्पर वैर होता है। तिसी प्रकार स्त्री माता पिता वान्धव आदिकोंका वैर विचारना चाहिये ॥२१॥
१ यहां उपचयसंज्ञक स्थानोंके मध्यमें षष्ठस्थानका ग्रहण नहीं है क्योंकि पठस्थानका फल “रिपुरोगचिन्तासु वैरम्” इस सूत्रमें कहा जायेगा ॥
२ “लाभपदे केंद्रे” इससे लेकर “रिपुरोगचिन्तासु वैरम्” इसपर्यन्त जो कि विपय कहा है उसके पुष्ट करनेमें वृद्धवचनभी है। “लग्नारूढं दारपदं मिथः केंद्रगतं यदि। त्रिलाभे वा त्रिकोणे वातथा राजान्यथाऽधमः॥ आरुढौपुत्रपित्रोस्तु त्रिलाभकेन्द्रगौयदि। द्वयोर्मैत्री त्रिकोणेतु साम्यं द्वेषोऽन्यथा भवेत्॥ एवं दारादिभावानामपि पत्यादिमित्रता। जातकद्वयमालोक्यचिन्तनीयं विचक्षणैः॥” इन तीनों श्लोकोंका अर्थ संगम है ॥
पत्नीलाभयोर्दिष्ट्या निराभासार्गलया ॥ २२ ॥
लग्नारूढ और सप्तमारूढ इन दोनोंकी अप्रतिवन्ध अर्गला होवे तो उसकरके भाग्यवान होते हैं। भाव यह है कि लग्नारूढराशि और सप्तम भाव का आरूढ राशि इन दोनोंका अर्गलायोग होवे और उस अर्गलायोगका वाधकयोग न होवे तो भाग्यवान् होता है^(१)॥२२॥
शुभार्गले धनसमृद्धिः ॥ २३ ॥
लग्नारूड़ और सप्तमारूढ इन दोनोंकी अर्गला यदि शुभ ग्रहोंकरके होवे तो धनकी बहुत वृद्धि होवे है। इस कथनसे यह जनाया गया कि लग्नारूढऔर सप्तमारूढ इन दोनोंकी अर्गला पाप ग्रहोंकरके होवे तो धन मात्र होता है और शुभ ग्रहोंकरके होवे तो धनकी विशेषता होवे है। पूर्वसूत्रमें शुभ पाप साधारणी बाधकयोगवर्जित अर्गला करके धनादि होनेके लक्षणवाला भाग्ययोग कहा है और इसमें सूत्र शुभग्रहमात्र अर्गलाकरके धनको वृद्धि और पापग्रहमात्र अर्गलासे धनकी यथावत् स्थिति और शुभ पापग्रह दोनोंकी अर्गलाकरके किसी समय धनकी वृद्धि और किसी समय धनकीचथावत् स्थिति होती है ऐसा कहा है^(२) ॥२३॥
१ भाग्ययोगकी प्रबलतामें प्राचीनोंनेकहाभी है। “यस्य पापः शुभो वापि ग्रहस्तिष्ठेच्छुभार्गले। तेन द्रष्ट्रेक्षितं लग्नंप्रावल्यायोपकल्पते॥ यदि पश्येद् ग्रहस्तत्रविपरीतार्गले स्थितः।” अर्थ - जिसके प्रतिबन्धवर्जित अर्गलामें शुभ ग्रह अथवा पाप ग्रह स्थित होवे और उसी ग्रहने आरूढ लग्नदेखा होवे तौभाग्ययोगकी प्रवलताके लिये कल्पित होता है और प्रतिबन्धयुक्त अर्गलामें ग्रह स्थित होवे तो भाग्यकी प्रबलता के लिये नहीं कल्पित होता है॥
२ शङ्का - “शुभार्गले” इस सूत्रका अर्थ यह कैसे नहीं किया जा सक्ता है कि बाधकयोगवर्जित अर्गला होनेपर धनकी वृद्धि होती है? समाधान - यदि ऐसा अर्थ किया जावेगा तौदोनों सूत्रोंमें एकही अर्गला हुई और जब कि एकही अगला हुई तौपूर्वसूत्रसे यह सूत्र व्यर्थ हो सक्ता है इस कारण शुभ शब्दसे शुभ ग्रहकाही ग्रहण है।यदि कहोकि भाग्ययोग और धनयोगमें भेद है सो यहभी नहीं कहा जा सक्ता हैक्योंकि धनके बिना भाग्यसिद्धि नहीं हो सक्ती है ॥
जन्मकालवटिकास्वेकदृष्टासु राजानः ॥ २४ ॥
जन्मलग्न और होरालग्न और घटिका ये तीनों किसी एक ग्रहकर देखे होवे तो राजा होते हैं। भाव यह है कि इन तीनोंको एक ग्रह देखता हो तो राजा होते हैं न कि एक दो लग्नके देखनेसे यहां एक ग्रहकीदृष्टिविषयकीअपेक्षा है न कि एक ग्रहमात्रकी^(१) ॥२४॥
पत्नीलाभयोश्च राज्यंशकदृक्काणैर्वा ॥ २५ ॥
जन्मराशिकुण्डली और नवांशकुण्डली और द्रेष्काणकुण्डली इन तिनोंकेविषे प्रथम और सप्तमस्थान इन दोनोंको एक ग्रह देखता होवे तौराजा होते है। भाव यह है कि राशिकुण्डलीके प्रथम सप्तम स्थान और नवांशकुण्डलीके प्रथम सप्तम स्थान और द्रेष्काण कुण्डलीके प्रथम सप्तम स्थान ये छःओं स्थान एक ग्रहकर देखे जावेंतो परिपूर्ण राजयोग होता है। यहां राशिशब्दसे चन्द्रराशि अपेक्षित है न कि लग्नराशि ॥२५॥
तेष्वेकस्मिन्न्यूने न्यूनम् ॥ २६ ॥
जन्मलग्न और होरालग्न और घटिकालग्न इनके विषे और राशिकुण्डली और नवांशकुण्डली और द्रेष्काणकुंडली इनके विषे एक स्थान एक ग्रहकी दृष्टिसे न्यून होवे तौन्यूनराजयोग होता है। भाव यह है कि जन्मलग्नहोरालग्न घटिकालग्नइनमें दो लग्नको एक ग्रह देखता होवे तौन्यूनराजयोग जानना और राशिकुण्डली द्रेष्काणकुण्डली और नवांशकुण्डली इनमें दो कुण्डलीके सप्तम स्थानको एक ग्रह देखता होवे तौभी न्यूनराजयोग होता है^(२)॥२६॥
१ घटिकालग्नकेवनानेकी रीति वृद्धोंने कही है। “लग्नादेकघटीमात्रं याति लग्नंदिने दिने।परन्तु घटिकांलग्नंनिर्दिशेत्कालवित्तमः॥” अर्थ - जन्मलग्नसे एक घटीमात्रमें घटिका लग्नव्यतीत होता है। इष्ट घटीको जन्मलग्नकी संख्या में जोडकर १२ का भाग देनेसे जो वचे वहीं घटिकालग्न होता है॥
२. इस कथनकीपुष्टतामें वृद्धवचन है। “विलग्नघटिकालग्नहोरालग्नानि पश्यति। उच्चगृहे राजयोगो लग्नद्वयमथापि वा॥ राशेर्दृक्काणतोऽशाच्चराशेरंशादथापि वा।
एवमंशतो दृक्काणतश्च ॥ २७ ॥
जिस प्रकार कि जन्मकुण्डली के साथ होरालग्नऔर घटिकालग्न इन दोनोंका ग्रहण है तिसी प्रकार नवांशकुण्डलीके साथ और द्रेष्काणकुण्डलीके साथ पृथक २ होराकुण्डली और घटिकाकुण्डली इन दोनों का ग्रहण है। भाव यह है कि जैसे कि जन्मलग्न होरालग्न घटिकालग्नये तीनों एक ग्रहकरके देखे होवें तौराजयोग होता है। तिसी प्रकार नवांशलग्न होरालग्न घटिकालग्न ये तीनों एक ग्रहकरके देखे होवें तौराजयोग होता है और द्रेष्काणलग्न होरालग्न घटिकालग्न ये तीनों एक ग्रह करके देखे होवें तौभी राजयोग होता है^(१)॥२७॥
इसके अनन्तर यानयोगका कहते हैं।
शुकचंद्रयोर्मिथोदृष्टयोः सिंहस्थयोर्वा यानवन्तः ॥ २८ ॥
यहां कहीं स्थित हुए शुक्र चन्द्रमा ये दोनों परस्पर देखे गये होवेंतौ पुरुष सवारीवाला होता है अथवा शुक्र चन्द्रमा दोनोंमें
यद्वाराशिदृक्काणाभ्यां लग्नदृष्टा तु योगदः॥ प्रायेणायं जातकेषु प्रभूणामेव दृश्यते।” अर्थ - जन्मलग्नघटिकालग्नहोरालग्नइन तीनोंको उच्चगृहमें स्थित हुआ ग्रह देखता हो अथवाइन तीनोंमेंसेदोहोंका उच्चस्थ ग्रह देखता होवे तो राजयोग होता है। राशिलग्नद्रेष्काणलग्न नवांशलग्नइन तीनोंको उच्चग्रह देखता होवे अथवा इन तीनोंमें राशिलग्न और नवांशलग्न इन दोनोंको अथवा राशिलग्न और द्रेष्काणलग्नइन दोनोंको उच्चस्थ ग्रह देखता होवे तौभी राजयोग होता है। राजयोगमें अन्य वाक्यभी हैं। “जन्मकालघटीलग्नेप्वेकेनैवेक्षितेषु तु। उच्चारूढेतु संप्राप्ते चंद्रकान्ते विशेषतः॥ क्रान्ते वा गुरुशुक्राभ्यां केनाप्युच्चग्रहेण वा। दुष्टार्गलग्रहाभावे राजयोगोन संशयः॥” अर्थ -जन्मलग्नऔर होरालग्नऔर घटिकालग्नये तीनों एकही ग्रहने देखे हों और वह देखनेवाला ग्रह उच्चका हो अथवा चंद्रमाके साथ होवे अथवा बृहस्पति शुक्र वा किसी उच्च ग्रहके साथ होवे, दुष्टार्गलग्रहका अभाव होवे तो राजयोगहोता है इसमें संशय नहीं॥
१ अन्यराजयोगयहां ग्रन्थान्तरसे लिखते हैं। “निशार्द्धाच्च दिनार्द्धाच्चपरंसार्द्धाद्विनाडिका। शुभात्तदुद्भवो राजा धनी वा तत्समोऽपि वा॥" अर्थ - अर्द्धरात्रसे ऊपर और दोपहरसे ऊपर अढाई घटिका शुभ कही हैं उनमें उत्पन्न हुआ राजा वा धनी वा राजसमान होता है।
एकसे दूसरा तृतीय स्थानपर स्थित होवे तोभी पुरुष सवारीवाला होता है। भाव यह है कि कुण्डलीमें जिस किसी स्थानमें स्थित हुआ शुक्र चन्द्रमाको देखता हो और चन्द्रमा शुक्रको देखता हो तौ यानयोग होता है और शुक्रसे चन्द्रमा तृतीय स्थानपर स्थित होवे तौभीयानयोग होता है^(१)॥२८॥
शुक्रकुजकेतुषु वैतानिकाः ॥ २९ ॥
यदि शुक्र मंगल केतु ये तीनों परस्पर एक दूसरेको देखते होवें अथवा परस्पर तृतीय स्थानपर स्थित होवें तौ वितानादि राजचिह्नवाले होते हैं। भाव यह है कि कुण्डलीमें शुक्र - मंगल और केतुको और मङ्गल - शुक्र और केतुको और केतु - मंगल और शुक्रको देखता हो तो वितानादि राजचिह्नवाले पुरुष होते हैं अथवा शुक्रसे मङ्गल केतु तृतीय स्थानपर स्थित हों अथवामंगलसे शुक केतु तृतीय स्थानपर स्थित होवें अथवा केतुसे शुक्र मंगल तृतीय स्थानपर स्थित होवें तौभी वितानादि राजचिह्नवाले पुरुष होते हैं ॥२९॥
स्वभाग्यदारमातृभावसमेषु शुभे राजानः ॥ ३० ॥
आत्मकारकग्रहसे जो कि द्वितीय चतुर्थ पञ्चमभावके राश्यादि हैं उनके समानही शुभ ग्रहोंके राश्यादि होवें तौ राजा होते हैं। भाव यह है कि आत्मकारकग्रहका जो कि राश्यादि हैउससे द्वितीयभावका जो कि राश्यादि है और चतुर्थभावका जो कि राश्यादि हैऔर पञ्चभावका जो कि राइयादि है इन तीनोंके समान शुभ ग्रहोंके राश्यादि होवें तौराजा होते हैं इसी प्रकार पुत्रादिकारकवशसे पुत्रादिकोंका फल विचारना चाहिये। यदि पुत्रादिकारकोंके विषेभी राजयोगबल होवे तौपुत्रादिकोंकाभी राजयोग कहना चाहिये ॥३०॥
१ इसमें वृद्धवचनमी प्रमाण है। “चंदः कविं कविश्चन्द्रं पश्यत्यपि तृतीयगे। शुक्राच्चन्द्रे ततः शुक्रेतृतीये वाहनार्थवान्॥” इसका अर्थ सुगम है॥
कर्मदासयोः पापयोश्च ॥ ३१ ॥
यदि आत्मकारकग्रहसे जो कि तृतीयभावका राश्यादि है और जो कि छठे भावका राश्यादि है इन दोनोंके समान दो पाप ग्रहोंके राश्यादि होवें तौभीराजा होते हैं ॥३१॥
पितृलाभाधिपाच्चैवम् ॥ ३२ ॥
लग्नेशसे और सप्तमेशसे द्वितीय चतुर्थ पञ्चमभाव इन तीनोंके राश्यादिके समान शुभ ग्रहोंके राश्यादि होवें और लग्नेशसे और सप्तमेशसे तृतीय षष्ठ इन दोनों भावोंके राश्यादिके समान दो पाप ग्रहोंके राश्यादि होवें तौ राजा होते हैं^(१)॥२२॥
मिश्रे समाः ॥ ३३ ॥
लग्नेशसे और सप्तमेशसे द्वितीय चतुर्थ पञ्चम इन भावोंके विषे शुभ ग्रह तथा पाप ग्रह दोनों होवें और तृतीय भाव और पृष्ठ भावमेंभीपाप ग्रह दोनों होवें तौराजाके समान होते हैं ॥३३॥
दरिद्रा विपरीते ॥ ३४ ॥
यदि पूर्वोक्त स्थानोंके मध्यमें शुभ स्थानोंके विषे पाप ग्रह और पाप स्थानोंके विषे शुभ ग्रह होवेंतौ दरिद्री होते हैं ॥३४॥
मातरि गुरौ शुके चंद्रे वा राजकीयाः ॥ ३५ ॥
यदि लग्नेशसे और सप्तमेशसे पञ्चम स्थानके विषे वृहस्पति अथवा शुक्र वा चन्द्रमा स्थित होवे तौ राजकार्यके अधिकारवाला होता है ॥३५॥
कर्मणि दासे वा पापे सेनान्यः ॥ ३६ ॥
लग्नेशसे और सप्तमेशसे तृतीय अथवा षष्ठ भावमें पाप ग्रह होवे ता सेनाधिपति होते हैं ॥३६॥
१ शङ्का - इस पादमें तो आरूढस्थानका अधिकार है इससे पितृशब्दसे आरूढस्थान कैसे नहीं ग्रहण किया ?समाधान - “जन्मकाल” इस सूत्रसे सूत्रकारने कहीं कारक और कहीं जन्मलग्नका ग्रहण किया है। दूसरे इस ग्रंथमें बहुधाकरके पितृशब्दसे जन्मलग्नकाही ग्रहण है॥
स्पपितृभ्यां कर्मदासस्थदृष्ट्या तदीशदृष्ट्या
मातृनाथदृष्ट्या च धीमन्तः ॥ ३७ ॥
आत्मकारकसेऔर लग्नसे तृतीय और षष्ट स्थानमें स्थित हुए ग्रहकी आत्मकारक और लग्नपर दृष्टि होवे अथवा स्थानका स्वामीआत्मकारक लग्नको देखता हो अथवा पञ्चम स्थानका स्वामी आत्मकारक और लग्नको देखता होवे तौबुद्धिमान होते हैं ॥३७॥
दारेशदृष्ट्या च सुखिनः ॥ ३८ ॥
आत्मकारकसेऔर लग्नसेचतुर्थ स्थानके स्वामीकी दृष्टि आत्मकारक और लग्नपर होवेतौ सुखी होते हैं ॥३८॥
रोगेशदृष्ट्या दरिद्राः ॥ ३९ ॥
आत्मकारकअथवा रोगसे अष्टम स्थानके स्वामीकी आत्मकारक और लग्नपर दृष्टि हवे तो दरिद्री होते हैं ॥३९॥
रिपुनाथदृष्ट्या व्ययशीलाः ॥ ४० ॥
आत्मकारक और लग्नसे द्रादशस्थानके स्वामीकी दृष्टि आत्मकारक और लग्नपर होवे तौखर्चीले स्वभाववाला होता है ॥४०॥
स्वामिदृष्ट्या प्रवलाः ॥ ४१ ॥
लग्नपर लग्नेशकी दृष्टि होवे और आत्मकारकाश्रित राशिके स्वामीकी दृष्टि होवे तो वलवान् होते हैं ॥४१॥
इसके अनन्तर आपद्योग कहते हैं।
पश्चाद्रिपुभाग्ययोर्ग्रहसाम्यं बन्धः कोणयो रिपुजा-
ययोः कीटयुग्मयोर्दाररिःफयोश्च ॥ ४२ ॥
लग्नसेद्वितीय और द्वादश स्थानमें और पञ्चम और नवम स्थानमें और द्वादश और षष्ठ स्थानमें और चतुर्थ और दशम स्थानमें ग्रहोंकी तुल्यता होवेअर्थात् एक होवे तौ एक और दो होवेतौदो और तीन होवे तौ तीन इस रीति ग्रह बराबर स्थित
होवें तौ कारागृहमें बन्धन होता है। भाव यह है कि जो द्वितीय स्थानपर एक ग्रह होवे और द्वादश स्थानमेंभी एक ग्रह होवे और जो दो वा तीन ग्रह द्वितीय स्थानमें होवें और द्वादशस्थानमेंभी दो वा तीन ग्रह स्थित होवें इसी प्रकार पञ्चम और नवम इन दोनोंमें ग्रह बराबर स्थित हों और द्वादश और पष्ठ इन दोनोंमें ग्रह बराबर स्थित हों और चतुर्थ और दशम इन दोनोंमें ग्रह बरावर स्थित होवें तौ कारागृहमें बन्धन होता है। यदि इन स्थानोंपर शुभ ग्रह स्थित हों अथवा शुभ ग्रह देखते हों अथवा इन स्थानोंके स्वामियोंके साथ शुभ ग्रह होवें अथवा खामियोंको शुभ ग्रह देखते होवें तौविना बेडी बन्धनके कारागृहमें नाममात्रका बन्धन होता है और यदि इन स्थानोंपर पाप ग्रह स्थित होवें अथवा पाप ग्रह देखते हों अथवा इन स्थानोंके स्वामियोंके साथ पापग्रहोंका संबन्ध होवे तौवेडी आदिकोंसे बन्धन होकर कारागृहमें निवास होता है ॥४२॥
इसके अनन्तर नेत्रभंगयोग कहते हैं।
शुकाद्गौणपदस्थोराहुः सूर्यदृष्टो नेत्रहा ॥ ४३ ॥
लग्नसे पञ्चम राशिके आरूढ स्थानमें स्थित हुआ राहु सूर्यने देखा होवे तौनेत्रांके नाशकर्त्ता होता है ॥४३॥
स्वदारगयोः शुक्रचन्द्रयोरातोद्यं राजचिह्नानि च ॥ ४४ ॥
आत्मकारकके स्थानसे चतुर्थ स्थानपर शुक्र चन्द्र दोनों विद्यमान होवें तो आतोद्य नाम बाजे और राजचिह्न पताकादिकके धारण करनेवाले होते हैं ॥४४॥
इति श्रीजैमिनीयसूत्रप्रथमाध्याये नीलकंठीयतिलकानुसृतभाषाटीकायां
श्रीपाठकमंगलसेनात्मजकाशिरामकृतायां तृतीयः पादः समाप्तः ॥३॥
अथ चतुर्थपादः ।
इसके अनन्तर उपपदादिके आश्रयसे फल कहते हैं।
प्रथम उपपदको दिखाते हैं।
उपपदं पदं पित्रनुचरात् ॥ १ ॥
लग्नसे जो कि द्वादश राशि है उसका जो कि आरूढस्थान है वह उपपदसंज्ञक है^(१) ॥१॥
तत्र पापस्य पापयोगे प्रव्रज्या दारनाशो वा ॥ २ ॥
उपपदसे जो कि तत्र नाम द्वितीयस्थान है उसमें पापग्रहकी राशि विद्यमान होवे और पापग्रह उसमें स्थित होवे तो संन्यास होता है अथवा स्त्रीका नाश होता है^(२)॥२॥
उपपदस्याप्यारूढत्वादेव नात्र रविः पापः ॥ ३ ॥
१ शङ्का - पित्रनुचरपदसे द्वादशस्थानका ज्ञान कैसे हुआ ? समाधान - पितृलग्नहै अनुचर द्वितीय जिसका इस व्युत्पत्तिसे द्वादश स्थानका ज्ञान होता है और “पित्रनुचरात्” इस पाठकोही स्वीकार करके इस पदके अक्षरोंकी संख्या पिंडसे सप्तसंख्याके लाभकर “सप्तमात्पदमुपपदम्" ऐसी व्याख्या जो कि कोई आचार्योने करी है सो अयुक्त है। यदि यह व्याख्या युक्त मानी जावे तो थोडा होनेसे “उपपदं पदं लाभात्” ऐसा सूत्र रचित होता॥
२ शङ्का - जिस प्रकार कारकाधिकार और पदाधिकार इन दोनोंमें “तत्र” इस पदसे“कारके पदे" ऐसा अर्थ होता है तिसी प्रकार इस प्रकरणमें “तत्र"इस पदसे “उपपदे” ऐसा अर्थ कैसे नहीं किया ? समाधान - यह कथन सत्य परन्तु यहां “तत्र” यह पद अधिकारमें स्थित नहीं इस कारण “तत्र” इस पदसेदिसंख्याके लाभसे “उदपदं द्वितीये” ऐसा अर्थ कहा है। दूसरे ऐसा अर्थ अनुभवसिद्ध है क्योंकि इसमें वृद्धवचन है। “आरूढात्षष्ठभेपापे चोरः स्याच्छुभवर्जिते। आरुढाद्वापि सौम्ये तु सर्वदिश्यधिपो भवेत्॥ सर्वज्ञस्तत्र जीवे स्यात्कविर्वादे च भार्गवे॥” अर्थ - आरूड नाम उपपदसेद्वितीय स्थानमें शुभवर्जित पाप ग्रह होवे तौचोर होता है बुध होवे तौसब दिशामें अधिप और बृहस्पति होवे तोसर्वज्ञ और शुक्र होवे तौकवि होता है। शङ्का - आरूढशब्दसे उपपदका अर्थ कैसे ग्रहण करते हो ?आरूढकाही ग्रहण करना चाहिये। समाधान - आरुढपदसे आरूढाधिकारमेंही आरूढका ग्रहण है और यहांआरूढपदसेआरूढ़का ग्रहण नहीं उपपदकाही ग्रहण है।
इस विषयमें सूर्य पापग्रहसंज्ञक नहीं होता है किंतु शुभग्रहसंज्ञक होता है। इस कथनसे यह जनाया गया कि उपपदसेद्वितीय स्थानमें सिंहराशिपर अथवा मेषादि पापग्रहोंके राशिपर विराजमान होकर सूर्य स्थित होवे तो संन्यास अथवा खीनाश नहीं होता है ॥३॥
शुभदृग्योगान्न ॥ ४ ॥
उपपदतसेद्वितीय स्थानपर शुभग्रहकीदृष्टि अथवा योग होवे तो पूर्वोक्त योगके होनेपरभी यह फल नहीं है। भाव यह है कि उपपदसे द्वितीय स्थानमें पाप ग्रहके राशिपर स्थित होकर पापग्रहयुक्त होवे और उपपदसे द्वितीय स्थानपर शुभ ग्रहकीभीदृष्टि अथवा योग होवे तो संन्यास अथवा खीनाश नहीं होता है ॥४॥
नीचे दाहनाशः ॥ ५ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें नीच ग्रह स्थित होवे अथवा नीचग्रहका नवांश स्थित होवे तो स्त्रीका नाश होता है ॥५॥
उच्चे बहुदारः ॥ ६ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें उच्चग्रह स्थित होवे अथवा उच्चग्रहका नवांश स्थित होवे तो बहुत स्त्रीयोंवाला होता है ॥६॥
युग्मे च ॥ ७ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें मिथुनराशि होवे तोभी बहुत स्त्रीयोंवाला होता है ॥७॥
तत्र स्वामियुक्ते स्वर्क्षे वा तद्धेतावुत्तरायुषि निर्दारः ॥ ८ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें स्वामीसे युक्त होवे अथवा उपपदकेद्वितीय स्थानका स्वामी अपनेही राशिमें स्थित होवे तो उत्तर अवस्थामें स्त्रीवर्जित हो जाता है अर्थात् वृद्धावस्थामेंस्त्रीका नाश हो जाता है ॥८॥
१ शङ्का - स्वाम्यादिकोंने तौतत्शब्दसे दारकारकका ग्रहण किया है फिर ऐसा अर्थ कैसे किया है ?समाधान - जब कि आदिमें दारकारककाग्रहण नहीं फिर
उच्चे तस्मिन्नुत्तमकुलाद्दारलाभः ॥ ९ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानका स्वामी यदि उच्च राशिमें स्थित होवेतो उत्तम कुलसे स्त्रीका लाभ होता है ॥९॥
नीचे विपर्ययः ॥ १० ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानका स्वामी यदि उच्च राशिमें स्थित होवेतो नीच कुलसे स्त्रीका लाभ होता है ॥१०॥
शुभसम्बंधात् सुंदरी ॥ ११ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें शुभग्रहका षड्वर्ग वा शुभग्रही दृष्टि अथवा शुभग्रहका योग होवे तो स्त्री सुन्दरी होती है ॥११॥
राहुशनिभ्यामपवादात्त्यागो नाशो वा ॥ १२ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें राहु और शनैश्चर दोनोंका योग होवेतो लोकनिंदासे स्त्रीका त्याग अथवा नाश होता है ॥१२॥
शुक्रकेतुभ्यां रक्तप्रदरः ॥ १३ ॥
उपपद द्वितीय स्थानमें शुक्र और केतु इन दोनोंका योग होवे तो रक्तप्रदर रोगवाली स्त्रीकी प्राप्ति होवे है ॥१३॥
अस्थिस्रावो बुधकेतुभ्याम् ॥ १४ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें बुध और केतु इन दोनोंका योग होवेतो अस्थिस्रावरोगवाली स्त्रीकीप्राप्ति होवे है॥१४॥
शनिरविराहुभिरस्थिरज्वरः ॥ १५ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें शनैश्चर सूर्य राहु इन तीनोंका योग होवे तोअस्थिज्वरवाली स्त्रीकी प्राप्ति होवे है ॥१५॥
बुधकेतुभ्यां स्थौल्यम् ॥ १६ ॥
तत्शब्दसेदारकारका ग्रहण करना अनुचित है। शङ्का - चंद्र सूर्य इन दोनोंका तौ एकही एक राशि है उसके विषे “स्वर्क्षे तद्धेतौ” इस अंशका संभव नहीं होता। समाधान - मत होवो चन्द्रसूर्यमें, इसमें हमारी का हानि है। शेषग्रहोंमें तो होवे है॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें बुध और केतु इन दोनोंका योग होवेतो स्थूल स्त्रीकी प्राप्ति होवे है ॥१६॥
बुधक्षेत्रे मंदाराभ्यां नासिकारोगः ॥ १७ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें बुधका राशि स्थित होवे और शनैश्चर मंगल दोनोंका योग होवे तो नासिकारोगवाली स्त्रीकीप्राप्ति होवेहै ॥१७॥
कुजक्षेत्रे वा ॥ १८ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें मंगलका राशि स्थित होवे और शनैश्चर मंगल इन दोनोंका योग होवे तोभी नासिकारोगवाली स्त्रीकी प्राप्ति होवे है ॥१८॥
गुरुशनिभ्यां कर्णरोगो नरहका च ॥ १९ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें बुधका राशि अथवा मंगलका राशि स्थित होवे और बृहस्पति शनैश्चर इन दोनोंका योग होवे तो कर्णरोगवाली और नाडिकानिस्सरण रोगवाली स्त्रीकी प्राप्ति होवे है ॥१९॥
गुरुराहुभ्यां दन्तरोगः ॥ २० ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें बुधका राशि अथवा मङ्गलका राशि होवे और बृहस्पति राहु इन दोनोंका योग होवे तौ दन्तरोगवाली स्त्रीकी प्राप्ति होवेहै ॥२०॥
शनिराहुभ्यां कन्यातुलयोः पंगुर्वातरोगो वा ॥ २१ ॥
उपपदसे द्वितीय स्थानमें कन्या अथवा तुलाराशि होवे और शनैश्चर राहु इन दोनोंका योग होवे तो पंगुली अथवा वातरोगवाली स्त्रीकीप्राप्ति होवेहै ॥२१॥
शुभहग्योगान्न ॥ २२ ॥
यदि उपपद द्वितीय स्थानमें शुभ ग्रहकी दृष्टि अथवा योग होवे तो यह पूर्व कहे हुए दोष स्त्रीमेंनहीं होते हैं ॥२२॥
सप्तमाशग्रहेभ्यश्चैवम् ॥ २३ ॥
उपपदसे जो कि सप्तमभाव है उससे और सप्तमभावमें स्थित जो नवांश है उससे और सप्तमभावका जो कि स्वामी है उससे और सप्तमस्थ नवांशका जो कि स्वामी है उससे जो कि द्वितीय स्थान है उसमेंभी यह पूर्व कहे हुए फल विचारने चाहिये जो कि उपपदसे द्वितीय स्थानमें विचारे गये हैं^(१)॥२३॥
बुधशनिशुके चानपत्यः ॥ २४ ॥
उपपदसे जो कि सप्तम स्थान है और जो कि सप्तमभावस्था नवांश है और जो कि सप्तम भावका स्वामी है और जो कि सप्तमभावस्थ नवांशका स्वामी है इनके विषे बुध शनैश्चर शुक्र इन तीनोंका योग होवे तौपुरुष सन्तानहीन होता है ॥२४॥
पुत्रेषु रविराहुगुरुभिर्बहुपुत्रः ॥ २५ ॥
उपपदसेसप्तमस्थानसे और सप्तमस्थनवांशसेऔर सप्तम भावके स्वामीसे और सप्तमस्थ नवांशके स्वामीसे जो कि पञ्चम स्थान है उनमें यदि सूर्य राहु बृहस्पति इन तीनोंका योग होवे तो बहुत पुत्रोंवाला होता है ॥२५॥
चंद्रेणैकपुत्रः ॥ २६ ॥
उपपदसे जो कि सप्तम स्थान है और जो कि सप्तमस्थ नवांश और जो कि सप्तम भावका स्वामी है और जो कि सप्तमस्थ नवांशका स्वामी है इन सबसे जो कि पञ्चम स्थान है उनमें यदि चन्द्रमा स्थित होवे तौ एक पुत्रवाला होता है ॥२६॥
मित्रे विलम्बात्पुत्रः ॥ २७ ॥
उपपदसे जो कि सप्तम स्थान और सप्तमस्थान नवांश और सप्तम भावस्वामी और सप्तमस्थ नवांशस्वामी है इनसे प्रञ्चम स्थानोंमें सन्तानहानिकर्त्तातथा बहुसन्तानदायक इन दोनों प्रकारके ग्रहोंका योग होवे तौविलम्बसेपुत्रलाभ होता है ॥२७॥
अत्र Book Page 63पर्यन्तं Proofreadकार्यं जातम्।ततः परंविद्यमानकार्यं Proofreadingकरणीयम्। Book Page 64
१ इसमें वृद्धवचन प्रमाण है। “सप्तमेशाद्दितीयस्थेप्येवं फलमुदाहृतम्।”॥
________________
६४.
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यापः ९.
कुजशनिभ्यां दत्तपुत्रः ॥ २८ ॥
उपपदके सप्तम स्थानसे सप्तमस्थ नवांशसे और इन दोनोंके स्वामियोंसे पश्चम स्थानोंमें मंगल और शनैश्वर ये दोनों स्थित होवें तौ दत्तकपुत्रका लाभ होता है ॥ २८ ॥
ओजे बहुपुत्रः ॥ २९ ॥
उपपदके सप्तमस्थानसे तथा सप्तमस्थ नवांश से और इन दोनोंके स्वामियों से पञ्चम स्थानों में विषम राशि होवे तो वहुत पुत्रवाले- होते हैं ॥ २९ ॥
युग्मेपः ॥ ३० ॥
उपपदके सप्तम स्थानसे तथा सप्तमस्थ नवांशसे और इन दोनोंके स्वामियोंसे पञ्चम स्थानोंमें सम राशि होवे तो बहुत पुत्रवाले होते हैं ॥ ३० ॥
गृहक्रमात्कुक्षितदीशपंचमांशग्रहेभ्यश्चैवम् ॥ ३१ ॥ जिस प्रकार कि जन्मलग्नसे क्रमसे भावोंका विचार किया जाता है तिसी प्रकार कुक्षि नाम उपपद और उपपदके स्वामी इत्यादि- कोंसेभी विचार करे। कुक्षि नाम उपपद और तदीश नाम उपपद- स्वामी इन दोनोंसे जो कि पंचमस्थान है और जो कि पञ्चमस्थ नवांश हैं और जो कि पञ्चमस्थानस्वामी है और जो कि पञ्चमस्थं नवांशस्वामी है इन सबसे भी पूर्वोक्त फलका विचार करना चाहिये ३१ ॥
भ्रातृभ्यां शनिराहुभ्यां भ्रातृनाशः ॥ ३२ ॥
१ कुक्षिपदसे प्रकरणपठित उपपदकाही ग्रहण होता है । स्वाम्यादिकोंने “ काक्ष- तदीशी " इनका अर्थ " सिंहस्थी " ऐसा कहा है सो सर्वसाधारण होनेसे योग्य नहीं क्योंकि विशेषकर इस शखमें अक्षरोंसे सिद्ध किये हुए अंकोंकाही ग्रहण किया गया है। " भ्रातृभ्यां शनि " इत्यादि सूत्रोंमें उपपद और उपपदरवामीसे विचार करना चाहिये क्योंकि जहां जिसका संभव होता है उसीकी अनुवृत्ति अगले सूत्र में क जाती है ॥________________
पादः ४.]
भाषाटीका सहितानि ।
६५
उपपदसे और उपपदस्वामीसे भ्रातृ नाम तृतीय एकादश स्थानमें शनैश्वर राहु ये दोनों स्थित होवें तौ भ्राताका नाश होता है । भाव यह है कि उपपदसे अथवा उपपदके स्वामीसे तृतीय स्थानपर शनैश्वर राहु ये दोनों स्थित होवें तो छोटे भ्राताका नाश होता है और एकादश स्थानपर शनैश्वर राहु ये दोनों स्थितं होवें तौ बडे भ्राताका नाश होता है ’ ॥ ३२ ॥
शुक्रेण व्यवहिते गर्भनाशः ॥ ३३ ॥
उपपदसे और उपपदके स्वामीसे एकादश अथवा तृतीय स्थानमें शुक्र स्थित होवें तौ माता के पहिले और पिछले गर्भका नाश होता है ॥ ३३ ॥
पितृभावे शुक्रदृष्टेऽपि ॥ ३४ ॥
लग्न अथवा लग्नसे अष्टम स्थान शुक्रकर देखा गया हो तबभी माताके पूर्व और पिछले गर्भका नाश होता है ॥ ३४ ॥
कुजगुरुचंद्रबुधैर्वहुभ्रातरः ॥ ३५ ॥
उपपदसे और उपपदस्वामीसे तृतीय अथवा एकादश स्थानमें मंगल बृहस्पति चंद्र ये स्थित होवें तो बहुत भ्राता होते हैं ॥ ३५ ॥ शन्याराभ्यां दृष्टे यथा स्वभ्रातृनाशः ॥ ३६ ॥
उपपदसे और उपपदस्वामीसे तृतीय और एकादश स्थान . शनैश्वर मंगल इन दोनोंकर देखा गया होवे तो स्थानानुसार भ्राताका नाश होता है अर्थात् तृतीय स्थान शनैश्वर मंगलकर देखा गया होवे तो छोटे भ्राताका नाश होता है और एकादश स्थान शनैश्वर मंगलकर देखा गया होवे तौ बडे भ्राताका
१. शङ्का - उपपदसे और उपपदस्वामीसे ऐसा अर्थ यहां कहांसे लिया ! समाधान- गृहक्रमात् " इस सूत्र में कुक्षि और तदीश ये दो पद हैं तिनसे ऐसा अर्थ ग्रहण किया है। यदि कहो कि समासपतित पदोंके एक अंशकी अनुवृत्ति नहीं हो सक्ती है। सो यहभी कथन अनुचित है क्योंकि अन्यपदोंसे भ्रातृविचार अयोग्य है इससे एक. अंशकी अनु की गई है ॥
५________________
६६
जैमिनीय सूत्राणि ।
[ अध्यायः १.
नाश होता है और यदि दोनों स्थान शनैश्वर मंगलकर देखे गये. होवें तो छोटे बडे दोनों भ्राताओंका नाश होता है ॥ ३६ ॥ शुनिना स्वमात्रशेषश्च ॥ ३७ ॥
उपपदसे और उपपदस्वामीसे तृतीय और एकादश स्थानमें केवल शनैश्वरकी दृष्टि हो तो केवल आपही शेष रहता है और सब भ्राता मर जाते हैं ॥ ३७ ॥
hd भगिनीबाहुल्यम् ॥ ३८ ॥
उपपदसे और उपपदस्वामीसे तृतीय और एकादश स्थानपर केल स्थित होवे तो यथास्थान वहिनी बहुत होती है अर्थात् तृतीय स्थानपर केतु स्थित होवे तो छोटी बहिनि बहुत होते हैं और एका- दशस्थानपर केतु स्थित होवे तो बडी बहिनि बहुत होते हैं ॥ ३८ ॥ शाद्भाग्यभे राही दंद्रावान् ॥
३९ ॥
उपपदसे जो कि सप्तम स्थानका स्वामी है उससे द्वितीय राशिपर राहु होवे तो स्थूल डाढवाला होता हैं ॥ ३९ ॥
कता स्तब्धवाक् ॥ ४० ॥
उपपदसे जो कि सप्तम स्थानका स्वामी है उससे द्वितीय स्थान- पर केतु स्थित होवे तो अप्रकट अक्षरोंवाले वचनका कहनेवाला होता है ॥ ४० ॥
मन्दे कुरूपः ॥ ४१ ॥
उपपदसे सप्तम स्थानके स्वामीसे द्वितीय स्थानपर शनैश्वर होवे तो भयानकरूपवाला होता है ॥ ४.१ ॥
१ यहाँपर अन्य माध्यवचनभी हैं। “सप्तमेशाद्वितीयस्यै राही मूकः खजे स्थितॆ । अदन्तोऽधिकदन्तो या दंष्ट्रायुक्तोऽय वा भवेत् ॥ पवनव्याधिमान् केती यद्वा स्यादस्फुटो- क्तिमान् । रात्र नानामहैयेंगे मिश्र फलमुदाहृतम् ॥ " अर्थ - उपपदसे जो कि सप्तमेश है उससे द्वितीय स्थानमें राहु स्थित होवे तो मूक होता है और खलमह स्थित होते तो बिना दांत अथवा अधिक दांतवाला होता है और केतु स्थित होवे तो वातव्याधि-: वाला होता है अथवा अप्रकट वचन कहनेवाला होता है और अनेक ग्रहाका योग होये तो मिला हुआ फल कहे ॥________________
पादः ४.]
भापाटीका सहितानि ।
स्वांशवशाद्वौरनीलपीतादिवर्णाः ॥ ४२ ॥
६७
आत्मकारकका जो कि नवांश है उसके स्वभावसे गौर नील पीतादिक वर्ण जातक के कहे । भाव यह है कि आत्मकारकके नवां- शका जो कि अन्यजातक प्रसिद्ध वर्ण है वही गौर नील पीतादि जाता जानना और इसी प्रकार पुत्रादिकारक नवांशवश से पुत्रादिकका गौर नीलपीतादि वर्ण जानने ॥ ४२ ॥
अमात्यानुचरादेवताभक्तिः ॥ ४३ ॥
अमात्यसंज्ञक ग्रहसे अंश कलादिमें जो कि ग्रह कम होवे उससे देवताभक्ति विचारनी चाहिये \। भाव यह है कि अमात्य संज्ञक ग्रहसे कलादि जो कि ग्रह कम होवे वह देवताकारक होता है उससे देवताभक्ति जाननी । यदि देवताकारक ग्रह शुभ होवे तौ सौम्य - देवताकी भक्ति होवे है और क्रूर होवे तौ क्रूर देवताकी भक्ति होवे है । यदि देवताकारक ग्रह उच्च अथवा स्वराशिस्थ होवे तौ दृढभक्ति और नीच अथवा स्वराशिका देवताकारक ग्रह होवे तौ अढ भक्ति होवे है ॥ ४३ ॥
स्वांशे केवलं पापसम्बंं परजातः ॥ ४४ ॥ आत्मकार के नवांशपर केवल पापग्रहोंका दृष्टियोग आदिक सम्बन्ध होवे तो जारसे उत्पन्न हुआ जानना । यहां सम्बन्ध शब्दसे दृष्टियोग पड्वर्ग जानने ॥ ४४ ॥
नात्र पापात् ॥ ४५ ॥
यदि आत्मकारक पाप ग्रह होवे तो यह फल नहीं होता है । भाव यह है कि आत्मकारकके नवांशपर आमकारकसे अन्य पाप हा संबन्ध होवे तो यह फल कहना न कि पापग्रहरूप आत्मकारकते अथवा अत्र नाम अष्टम स्थानमें पाप ग्रह होवे तौभी यह योग नहीं होता है ॥ ४५ ॥
शनिराहुभ्यां प्रसिद्धिः ॥ ४६ ॥________________
६८
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः १.
यदि आत्मकारके नवांशपर शनैश्वर और राहुका योग हृष्ट पड़वर्ग होवे तो जारसे उत्पन्न होने की प्रसिद्धि होवे है ॥ ४६ ॥ गोपनमन्येभ्यः ॥ ४७ ॥
यदि आत्मकारक नवशपर अन्य पापग्रहोंका योग दृष्टि पड्वर्ग होवे तो जारसे उत्पन्न होनेकी प्रसिद्धि नहीं होवे है किन्तु जारसे उत्पन्न होने में छिपावट रहती है ॥ ४७ ॥
शुभवर्गेऽपवादमात्रम् ॥ ४८ ॥
यदि आत्मकारक नवांशपर पाप ग्रहोंका जारजातकत्व योग हो और शुभ ग्रहोंका षड्वर्ग सम्बन्ध होवे ता जारसे ती उत्पन्न न हुआ हो केवल जारसे उत्पन्न होनेका कलंकमात्रही होते है ॥४८॥ द्विग्रहे कुलमुख्यः ॥ ४९ ॥
यदि आत्मकारकके नवांश में दो ग्रहोंका योग होवे तो कुलमें मुख्य होता है ॥ ४९ ॥
इति श्रीजैमिनीयसूत्रप्रथमाध्याये श्री नीलकंठी यतिलकानुसृतभाषा- टीकायां श्री पाठक मंगलसेनात्मजकाशिरामकृतायां चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ ४ ॥
अथ पंचमपादः ।
5
इसके अनन्तर आयुर्दायका विचार करते हैं । आयुः पितृदिनेशाभ्याम् ॥ १ ॥
लग्नेश और अष्टमेश इन दोनोंसे आयुःप्रमाण विचारना चाहिये ॥ १ ॥
प्रथम लग्नेश अष्टमेश दोनों की स्थितिवश से दीर्घायु योग कहते हैं । प्रथमयोरुत्तरयोर्वा दीर्घम् ॥ २ ॥________________
पादः ५. ]
‘भापाटीका सहितानि ।
६९..
प्रथम नाम चरराशिपर अथवा स्थिर द्विस्वभाव इन दोनोंपर लग्नेश अष्टमेश ये दोनों होवें तो दीर्घायु होवे है । भाव यह है कि जहां कहीं भी लग्नेश अष्टमेश ये दोनों चरराशिपरही केवल स्थित होवे तो दीर्घायु होवे है अथवा लग्नेश अष्टमेश इन दोनोंमें एक स्थिरराशिपर और एक द्विस्वभाव राशिपर स्थित होवे अर्थात् लग्नेश स्थिरराशिपर होवे तो अष्टमेश द्विस्वभाव राशिपर होवे अथवा नेश द्विस्वभाव राशिपर होवे तो अष्टमेश स्थिर राशिपर होवे तवभी दीघायुयाग होता हैं ॥ २ ॥
इसके अनन्तरमध्ययुग दिखाते हैं । प्रथमद्वितीययोरन्त्ययोर्वा मध्यम् ॥ ३ ॥
चर स्थिर इन दोनों राशियों पर अथवा केवल द्विस्वभाव राशि- परही लग्नेश अष्टमेश दोनों स्थित होवें तो मध्यायु होवे है । भाव • यह है कि रमेश अष्टमेश इन दोनोंमेंसे एक चर राशिपर स्थित होवे और एक स्थिर राशिपर स्थित होवे अर्थात् लग्नेश चर राशि पर होवे तो अष्टमेश स्थिर राशिपर होवे और अष्टमेश चर राशिपर होवे तो लग्नेश स्थिर राशिपर स्थित होवे तो मध्यायुर्योग होता है अथवा लग्नेश अष्टमेश दोनों जहां कहीं भी केवल द्विस्वभाव राशिपरही स्थित होवें तोभी मध्यायुर्योग होता है \।\। ३ \।\। इसके अनन्तर अल्पायुर्योग कहते हैं । मध्ययोरान्तयोर्वा हीनम् ॥ ४ ॥
केवल स्थिर राशिपरही लग्नेश अष्टमेश ये दोनों स्थित होवें तो अल्पायुयोग होता है अथवा लग्नेश अष्टमेश इन दोनोंमेंसे - एक चर राशिपर और एक द्विस्वभाव राशिपर स्थित होवे अर्थात् लग्नेश चर राशिपर तो अष्टमेश द्विस्वभाव राशिपर स्थित होवे वा अष्टमेश चर राशिपर तो लग्नेश द्विस्वभावराशिपर स्थित होवे तो अल्पायुर्योग होता है ॥ ४ ॥________________
७०
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः १.
जिस प्रकार कि लग्नेश अष्टमेश इन दोनोंके राशिस्थिति भेद- कर दीर्घायु और मध्यायु और अल्पायुर्योग कहा तिसी प्रकार लग्न चन्द्रमा इन दोनोंसे भी कहा है ।
एवं मन्दचंद्राभ्याम् ॥ ५ ॥
जिस प्रकार कि लग्नेश अष्टमेश इन दोनोंमेंसे दीर्घायु मध्यायु अल्पायुर्योग कहे तिसी प्रकार लग्न चन्द्रमा इन दोनोंसे दीर्घायु मध्यायु अल्पायुर्योग विचारने चाहिये ॥ ५ ॥
इसके अनन्तर आयुर्दा के निर्णय करनेका तृतीय प्रकार कहते हैं। पितृकालतश्च ॥ ६ ॥
जन्मलग्न और होरालग्न इन दोनोंसे भी पूर्वोक्त प्रकार से दीर्घमध्या- ल्पायुर्योग विचारने चाहिये \। भाव यह है कि जिस प्रकार कि लग्नेश अष्टमेश इन दोनोंसे आयुर्विचार किया जाता है तिसी प्रकार जन्म- लग्न होरालग्न इन दोनोंसे आयुका विचार कर्तव्य है ’ ॥ ६ ॥
“.
१ इस सूत्रमें जो कि होराठमका ग्रहण किया है सो होरालयका बनाना पूर्व कह चुके हैं। वृद्धवचनोंसे तीन प्रकारसे दीर्घमव्याल्पायुयोंगों के विचार में वृद्भवचनभी प्रमाण है। “ उमेशरन्ध्रपत्योश्च लग्नेन्दोरैमहोरयोः । सूत्राप्येवं प्रयुयात्संवादादायुषां त्रये ॥ " अर्थ - लमेश अष्टमेश और चन्द्र और लमहोरा इन तीनों में से दो प्रकार कर जो आयु आवे वह ग्रहण कर्तव्य है न कि एक प्रकारकर आया हुआ आयु ग्रहण करना चाहिये दीर्घ मध्य अल्पायु प्रस्तारचक्रमें देखना चाहिये । प्रस्तारलोकः । “ चरे चरस्थिरद्वन्द्वाः स्थिरे द्वंद्वचस्थिराः । द्वन्द्वे स्थिरोभयचरा दीर्घमध्याल्पकायुषः अर्थ-यदि चरराशिपर लमेश और चरही राशिपर अष्टमेश अथवा लमचन्द्र वा लमहोरा पर ये स्थिर होवे तो दीर्घायुर्योग होता है और चर और स्थिरपर स्थित होवें तो मध्यायुर्योग होता है और चर और द्विस्वभाव राशिपर स्थित होवें तो अल्पायुर्योग होता है और यदि स्थिरराशि और द्विस्वभाव राशिमें स्थित होवें तो दीर्घायुयोंग होता है और स्थिर और चरराशिपर स्थित होवें तो मध्यायुग होता है और स्थिर और स्थिरही राशिपर स्थित होवें तो अल्पायुर्योग होता है। यदि द्विस्वभाव और स्थिर राशिपर स्थित हों तो दीर्घायुयोग होता है और द्विस्वभावमर और द्विस्वभावपर स्थित
:________________
पादः ५० ]
भाषाटीकासहितानि ।
जो तीन प्रकारके व्यायुर्दायनिर्णयके उपाय हैं उन तीनों में एकाकार आयु आवे तो कुछ विवाद नहीं और जो दो कारसे एकाकार आ आ और एक प्रकार से भिन्न व्ययु आवे तहां निर्णय करते हैं । संवादात्प्रामाण्यम् ॥ ७ ॥
७१
दो प्रकार से जो कि आयु आवे वही ग्रहण करने योग्य है न कि एक प्रकार से आया हुआ आयु ग्रहण करने योग्य है ॥ ७ ॥ यदि तीनों प्रकारसे भिन्न २ आयु आवे तहां निर्णय करते हैं । विसंवादे पितृकालतः ॥ ८ ॥
यदि तीनों पक्षोंकी विरूपता होवे तो जन्मलग्न होरालग्नसे आया हुआ आयु ग्रहण करने योग्य है । भाव यह है कि यदि तीनों कारसे भिन्न २ आ आ तौ जो कि जन्मलग्न होरालग्न से आया हुआ आयु है उसीका ग्रहण करना चाहिये ॥ ८ ॥ तीनों प्रकार से भिन्नता होनेपर जन्मलग्न होरालग्नसे आये हुए आयुका निषेध कहते हैं ।
पितृलाभगे चंद्रे चंद्रमंदाभ्याम् ॥ ९ ॥
तीनों प्रकारकी भिन्नता होने पर यदि लग्न अथवा सप्तम स्थानपर होते ती मध्यायुयोग होता है और द्विस्वभाव और चर राशिपर स्थित होवे तो अल्पा युग होता है। इसी प्रकार प्रस्तारचक्रमें जानना ॥
प्रस्तावकं ।
\। दीघ युः \। मध्यायुः \। अल्पायुः
लग्नेश अष्टमेश
घर
लग्नचंद्र लग्नहोरा
घर
चर चर लग्नेश अष्टमेश स्थिर द्विस्वभाव लग्न चंद्र लग्नहोरा लग्नेश अष्टमेश स्थिर स्थिर स्थिर लग्नेश अष्टमेश लग्नचंद्र लग्रहोरा द्विस्वभाव चर स्थिर लग्नचंद्र लग्रहोरा रमेश अष्टमेश द्विम्बभा- द्विस्वभाव द्विस्वभाव लग्नेश अष्टमेश लग्नचंद्र लग्रहोरा स्थिर द्विस्वभाव चर लग्न.चंद्र लमहारा________________
पादः ५० ]
भाषाटीकासहितानि ।
जो तीन प्रकारके व्यायुर्दायनिर्णयके उपाय हैं उन तीनों में एकाकार आयु आवे तो कुछ विवाद नहीं और जो दो कारसे एकाकार आ आ और एक प्रकार से भिन्न व्ययु आवे तहां निर्णय करते हैं । संवादात्प्रामाण्यम् ॥ ७ ॥
७१
दो प्रकार से जो कि आयु आवे वही ग्रहण करने योग्य है न कि एक प्रकार से आया हुआ आयु ग्रहण करने योग्य है ॥ ७ ॥ यदि तीनों प्रकारसे भिन्न २ आयु आवे तहां निर्णय करते हैं । विसंवादे पितृकालतः ॥ ८ ॥
यदि तीनों पक्षोंकी विरूपता होवे तो जन्मलग्न होरालग्नसे आया हुआ आयु ग्रहण करने योग्य है । भाव यह है कि यदि तीनों कारसे भिन्न २ आ आ तौ जो कि जन्मलग्न होरालग्न से आया हुआ आयु है उसीका ग्रहण करना चाहिये ॥ ८ ॥ तीनों प्रकार से भिन्नता होनेपर जन्मलग्न होरालग्नसे आये हुए आयुका निषेध कहते हैं ।
पितृलाभगे चंद्रे चंद्रमंदाभ्याम् ॥ ९ ॥
तीनों प्रकारकी भिन्नता होने पर यदि लग्न अथवा सप्तम स्थानपर होते ती मध्यायुयोग होता है और द्विस्वभाव और चर राशिपर स्थित होवे तो अल्पा युग होता है। इसी प्रकार प्रस्तारचक्रमें जानना ॥
प्रस्तावकं ।
\। दीघ युः \। मध्यायुः \। अल्पायुः
लग्नेश अष्टमेश
घर
लग्नचंद्र लग्नहोरा
घर
चर चर लग्नेश अष्टमेश स्थिर द्विस्वभाव लग्न चंद्र लग्नहोरा लग्नेश अष्टमेश स्थिर स्थिर स्थिर लग्नेश अष्टमेश लग्नचंद्र लग्रहोरा द्विस्वभाव चर स्थिर लग्नचंद्र लग्रहोरा रमेश अष्टमेश द्विम्बभा- द्विस्वभाव द्विस्वभाव लग्नेश अष्टमेश लग्नचंद्र लग्रहोरा स्थिर द्विस्वभाव चर लग्न.चंद्र लमहारा________________
७२
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः १ः
चंद्रमा स्थित होवे तौ चन्द्रमा और लमसे आया हुआ आयु ग्रहण करने योग्य है’ ॥ ९ ॥
इसके अनन्तर दीर्घमध्याल्पायुर्योगों के विषे कुछ विशेष कहते हैं । शनौ योगहेतो कक्ष्या ह्रासः ॥ १० ॥
यदि शनैश्वर आयुर्योग करनेवाला होवे तो एक खण्डकी न्यूनता हो जाते है । तात्पर्य यह है कि शनैश्वर यदि आयुर्योगका करने- वाला होवे तौ दीघा में मध्यायु रहता है और मध्यायु में अल्पायु रहता है और अल्पायु में कुछभी नहीं रहता ॥
।
१० ॥
भव
१ अल्पायुष्यादिक वृद्धोंने कहा है । " द्वात्रिंशापूर्व मनपायुर्मध्यमायुरततो भवे । चतुःपष्टयाः पुरस्तात्तु ततो दीर्घमुदाहृतम् ॥” अर्थ यत्तीस वर्ष पूर्व अल्पायु होये है और बत्तीस वर्ष पाठ वर्षपर्यन्त मध्यायु देवि है और ऊपर छयानवे वर्षपर्यन्त दीर्घायु होते है। जन्मसे बनीसपर्यन्त और बीससे चौंसठ वर्ष पयन्त और चौंसठ वर्षसे छधान वर्षपर्यन्त आये ए आयुका रप करना वृद्धोंने कहा है । “प्रथमपोसरची दीर्धम् ।” इत्यादि मन्त्रोंकर जो कि आयु निर्णीत हुआ है वह यदि दीर्घायु होवे ती मध्यमायुके अवधि चौसठ वर्षपर्यन्त निःसंदेह सिद्ध आयु होही गया उससे ऊपर बत्तीस वर्षके दीर्घायुके खण्ड में कितने वर्ष लेने चाहिये इस संशयक दूर करनेके लिये यहां बुद्ध वचन है। “पूर्ण मादी हा निरन्ते ऽनुपातो मध्यतो भवेत् । राशिवयस्य योगां वर्षाणां स्पष्टमुच्यते ॥” अर्थ - यदि मेश अष्टमेश ये दोनों राशिके आरम्भ विद्यमान होती तीस वर्षका दीर्घ मध्यात्प आयुका खण्ड पूर्ण ग्रहण करना चाहिये और यदि राशिके अन्तभागमे होते तो उस बत्तीस वर्षके खण्डका विनाश हो जाता है और यदि मध्य स्थित हो तो राशि खण्डका एक देश ग्रहण करना चाहिये। भाव यह है कि लमेश अष्टमेश राशि आरम्भमेह स्थित हों ती दीर्घ युके योगमें छचानवें उप आयुका प्रमाण है । मव्यायुके योग चौंसठ वर्षातक आयुक्का प्रमाण है । अल्पायुके योग में बसीस वर्षतक आयुका ममान है और यदि लनेश अध्मेश राशि अन्तमें स्थित हो तो दीर्घायु योगमें चौंसठ वर्षतक आयुका प्रमाण है और मध्यायुके योग में बतीस वर्पतक आयुका प्रमाण है । अल्पायु योगमें कुछभी आयुका प्रमाण नहीं है और यदि उमेश अष्टमेश राशिकै मध्यभागमें स्थित होवें तो त्रैराशिक करने से जो वर्ष आये वह यदि दीर्घायु होयें तौ चौसठ वर्षमे जोड़ देवें और मध्यायु हो तो बत्तीस वर्षमें जोड़ देवे और यदि अल्पायुक होवे तौ वह आये एही वर्ष निज आयुके जानने परन्तु त्रैराशिक उमेश और अष्टमेश इन दोनों का पूय २ करके दोनों को जोड आधाकर लेवे जो फल भने उसको दीर्घ मध्यात्पयुक्त खण्ड जाने न कि एक २ के त्रैराशिक फलको । चैराशिक करनेका यह________________
पादः ५५ ]
भाषांटीकास हितानि ।
इसके अनन्तर इसी विषय मतान्तर कहते हैं । विपरीतमित्यन्ये ॥ ११ ॥
७३
कोई आचार्य करते हैं कि यदि शनैश्वर आयुर्वेगकर्ता होवे तो यह पूर्वोक्त वचन नहीं होता किन्तु शनैश्वर योगकारक होनेसे यथास्थित आयु रहता है ॥
११ ॥
इसके अनन्तर परमत कहकर निज मत कहते हैं ।
सूत्राभ्यां न स्वर्क्षतुंगगे सौरे ॥ १२ ॥ केवल पापहम्योगिनि च ॥ १३॥
यदि शनैश्वर अपने राशिपर अथवा उच्चराशिपर स्थित होवे तथा शुभ ग्रहसम्बंधिदृष्टियोग से वर्जित होकर केवल पाप ग्रह- संबंधि दृष्टियोग से युक्त होवे तो कक्ष्याह्रास नहीं होता है अर्थात् यथास्थित आयु रहता है अन्यथा ह्रास होवे है ॥ १२ ॥ १३ ॥ इसके अनन्तर कक्ष्यावृद्धि योग कहते हैं ।
पितृलाभगे गुरौ केवलशुभहग्योगिनि च कक्ष्यावृद्धिः १४ यदि बृहस्पति लग्न अथवा सप्तम स्थानमें स्थित होवे और • पापग्रहसंबन्धि दृष्टियोग से वर्जित होकर केवल शुभग्रह संबंधि दृष्टियोगसे युक्त होवे तो कक्ष्यावृद्धि होवे है अर्थात अल्पायु होवे
विधान है जब कि लमेश वा अष्टमेशके तीस अंश चले जाते तो बत्तीस वर्ष प्राप्त होते अब एक अंश चला गया है तो क्या प्राप्त होवेगा तब बत्तीसको एकसे गुणकर तीसका भाग दिया लय मिला । इसी प्रकार उमेश अष्टमेश दोनों के त्रैराशिक वर्ष स्पष्ट करके परस्पर जोड देवे फिर आधा करके जो फल आवे उसको दीर्घायुर्योग होवे तो चौसठ वर्षमें जोड़ देवे जो जोड़ फल आवे वही दीर्घायुका प्रमाण जानना और यदि मध्यायुयोंग होवे तो बत्तीस वर्षमें जो उ देवे जो जोडफल
वही मध्यायुका प्रमाण जानना और यदि अल्पायुर्योग होवे तो वही जन्मसे : लेकर आयुका प्रमाण होता है इसी प्रकार लमचंद्रमा और लाहोरा इनके आये हुए आयुमै खण्डका स्पष्टीकरण जानना चाहिये। अन्य वचन है। " होरास्मादिमांश तु पूर्णमन्ते न किंचन । स्पष्टीकरणमेतत्स्यादधिमध्यात्पकायुषि ॥ " अर्थ - और राशिक होता है। इस कथनले होर छमभी अंशादियुक्त दिखाया है ॥..
1________________
७४
जेमिनीयसूत्राणि । [ अध्यायः १.
तो मध्यायु और मध्यायु होवे तो दीर्घायु और दीर्घायु होवे तो छयानवे वर्षसे भी अधिक आयु हो वे है ॥ १४ ॥ प्रमाणसिद्ध आयुमेही मरण होता है या बीचमें भी मरण हो जाता है इस आकांक्षामें कहते हैं। मलिने द्वारबाह्ये नवांशे निधनं द्वारद्वारेशयो- व मालिन्ये ॥ १५ ॥
द्वारराशि और बाह्यराशि ये दोनों स्वयं पाप और पापग्रहोंसे युक्त तथा पापग्रहों कर देखे गये होवें तौ द्वारराशि और बाह्यरा- शिकी नवांशदशा में मरण हो जाता है तथा द्वारराशि और द्वाररा- शीश ये दोनोंभी स्वयं पाप और पापग्रहोंसे युक्त तथा पापग्रहों कर देखे गये होवें तौ द्वारराशि तथा द्वारेशाश्रित राशिकी नवांशदशामें मरण हो जाता है’ ॥ १५ ॥
इस मरणयोगका निषेधभी कहते हैं। शुभयोगान् ॥ १६ ॥
द्वारराशि और बाह्यराशि और द्वारेश इनपर शुभ ग्रहों की दृष्टि तथा योग होवें तौ द्वारराशि तथा वाह्यराशि तथा द्वारेशराशि इनकी नवां- शदशा मरण नहीं होता है ॥ १६ ॥
१ “दशाश्रयो द्वारम्, ततस्तायतियं बाह्यम् " द्वितीय अध्यायके चतुर्थपादसंवान्ध द्वितीय तृतीय इन सूत्रोंमें द्वारराशि और बाहाराशिका लक्षण कहा है। जिस कालमें जिस राशिको जो कि दशा चरस्थिरनामसे होवे उस दशाश्रय राशिको द्वार कहते “हैं, इसीका दूसरा नाम पाकराशि है और लमसे जितनी संख्यापर द्वारा होवे उत- नोही संख्यापर द्वारा शिसे बाह्यराशि कहा है इसी बाह्यराशिको भोगराशि कहते हैं। यहां प्रशंसे यह राशि ग्रहण करना चाहिये जिस राशि के प्रयमसे दशाका प्रारम्भ होता है कहीं तो हमसेही दशाका आरम्भ होता है और कहीं सप्तमसे ही दशाका आरम्भ होता है और कहीं ब्रह्ममहके राशिसे दशाका आरम्भ होता है। इनमेंसे आद्यदशाकी राशि जो होवे नही पाकराशिको अवधि होती है न कि प्रसिद्ध राम। “विषमे तदादिर्नांशः " इस द्वितीय अध्यायके तृतीयपादसंवन्धि प्रथम सूत्रमें नवांशदशा कही है नवशदशा समस्त राशियोंकी होवे है नवांशदशा में प्रत्येक राशिके नौ . २ वर्ष होते हैं यदि उनमें विषमराशि होवे तो रामसेही नवशदशाका आरम्भ होता है और यदि समराी होये तो सप्तम शिसे नवशदशाका बारम्भ होता है ॥________________
पादः ५. ]
भाषाटीकासहितानि ।
इसके अनन्तर शुभ ग्रहों की दृष्टि योग न होने परभी नवांशका कालमृत्युका निषेध कहते हैं। रोगेशे तुंगे नवशवृद्धिः ॥ १७ ॥
७५
जन्मलग्नसे अष्टमस्थानका स्वामी यदि उच्चराशिपर स्थित होवे तो कहा हुआ मृत्युयोग होनेपरभी नवांशदशामें मृत्यु नहीं होता है किन्तु उससे ऊपर नौ वर्षकी वृद्धि हो जावे है ॥ १७ ॥ यदि कहो कि नवांशदशामें राशिवृद्धि हो जावे है तो फिर सिस राशिमें मृत्यु होता है इस शंका कहते हैं । तत्रापि पदेशदशांते पदनवशदशायां पितृदि- नेशत्रिकोणे वा ॥ १८ ॥
वृद्धिपक्ष होनेपरभी लग्नारूढ स्थानके स्वामीका जो कि आश्रित राशि है उसकी दशाके अन्तमें मरण होता है अथवा जन्मलग्नारूढ राशि के नवांशदशामें मरण होता है अथवा लग्नेश अष्टमेश लग्न पञ्चम नवम इनमें से किसी राशिकी दशा में अथवा इनकी अन्तर्दशामें मरण होता है ॥ १८ ॥
इसके अनन्तर अन्य प्रकारसे दीर्घमध्याल्पायुर्योग कहते हैं । . पितृलाभरोगेशे प्राणिनि कंटकादिस्थे स्वतश्चैवं त्रिधा १९.
लग्नसे सप्तम स्थानका जो कि स्वामी है और लग्नसे अष्टम स्थानका जो कि स्वामी हैं इन दोनोंमें जो कि बली हो वह यदि केन्द्र पणफर आपोक्किम संज्ञक स्थानमें स्थित होवे तौ क्रमसे तीन प्रकारकर दीर्घमध्याल्पायुर्योग होता है। भाव यह हैं कि लग्नसे सप्तमेश अष्टमेशमें जो कि बली होवे वह यदि केन्द्र - नाम लग्नसे लग्न चतुर्थ सप्तम दशम इन स्थानोंपर स्थित होवे तौ दीर्घायु योग होता है और यदि पणफर नाम लग्नसे द्वितीय पञ्चम · अष्टम एकादश इन स्थानोंपर स्थित होवे तो मध्यायुर्योग होता है- और यदि आपोक्किम नाम लग्नसे तृतीय षष्ठ नवम द्वादश इन
‘________________
७६
जैमिनीयसूत्राणि । [ अध्यायः १…
स्थानोंपर स्थित होवे तौ अल्पायुर्योग होता है और इसी प्रकार आत्मकारकसेमी योगत्रय जानने । आत्मकारकसे सप्तमेश अष्टमेशमें जो कि बली हो वह यदि केंद्र में स्थित होवे तौ दीर्घायुर्योग होता हैं और पणफर में स्थित होवे तो मध्यायुर्योग होता है और आपो- क्किममें स्थित होवे तो अल्पायुर्योग होता है ॥ १९ ॥
योगात्
स्वस्मिन्विपरीतम् ॥ २० ॥
जन्मलन्नसे जो कि सप्तम स्थान है उससे जो कि सम नाम- नवम स्थान है उसमें यदि आत्मकारक ग्रह स्थित होवे तौ विपरीत होता है अर्थात् “पितृला में ” इत्यादि सूत्र के कहे हुए योग नहीं होते हैं किन्तु दीर्घायु आया हो तो मध्यायु होता है और मध्यायु आया हो तो अल्पायु होता है और अल्पायु आया हो तो कुछभी नहीं अथवा कोई आचार्य ऐसा अर्थ करते हैं दीर्घायु होवे तो अल्पायु और अल्पायु होवे तो दीर्घायु और मध्यायु होवे तौ मध्यायुही होता है ॥ २० ॥
इस प्रकरण में कौन वल ग्रहण करना चाहिये इस
शंका कहते हैं । राशितः प्राणः ॥ २१ ॥
१ यहां आयुदयविपयमें वृद्ध कुछ और विशेष कहते हैं।“ एकोऽष्टमेशः स्वोच्चस्यः पर्याय प्रयच्छति । नीचस्थ नाशयेत्पर्यायार्द्धमायुपि निश्चिते ॥ नीचरन्मेज्ञसंयुक्ताः पर्यायार्द्ध पृथक् पृथक् । यहा विनाशयन्त्येवं निर्णीते परमायुषि ॥ उच्चरन्ध्रेशसंयुक्त हैः प्रत्येकमुन्नयेत् । एकैकमर्द्धपर्यायं परमायुपि निश्चिते ॥ " अर्थ एक अष्टमेश उच्चका होवे तो अपनी दशाका अर्द्धभाग देता है और नीचका होवे तो अपनी दशाका अर्द्ध भाग निश्चित किये आयुमैसे दर कर देता है। भाव यह है कि “पितृदिनेशाभ्यां " इस सूत्र में जो अष्टमेश ग्रहण किया है वह अष्टमेश यदि उच्चका होवे तो अपनी ‘दशाका अर्द्ध भाग देता है अर्थात् " नाथान्ताः " इश सूत्रकी रीतिसे जितना आयु
उसमें उसका आधा और जोड देदे और यदि नीचका होवे तो आयुमेसे अर्थ भाग दूर कर देवें। इसी प्रकार और यहभी यदि नीच अष्टमेशले युक्त होवे तो अपनी आयुका अर्थ भाग पृथक २ दूर कर देते हैं और यदि उच्च अष्टमेश होवे तो अपनी दी हुई आयुमै अपनी दशाका अर्द्ध भाग अधिक देते हैं। इसी प्रकार शादिक ग्रहभी उच्च नीच गुणसे वृद्धि और हास करते हैं ॥________________
पादः ५.]
भाषाकासहितानि ।
2
यहां राशिसे वल ग्रहण करना चाहिये । भाव यह है कि “कार- योगः प्रथमो भानाम् ” इत्यादि सूत्रद्वारा कहे जानेवाला राशि - चल ग्रहण करना चाहिये न कि अंशाधिक्य वल ग्रहण करना चाहिये ॥ २१ ॥
इसके अनन्तर अन्य प्रकारसे मध्यायुर्योग कहते हैं । रोगेशयोः स्वत ऐक्ये योगे वा मध्यम् ॥ २२ ॥
लग्नसे अष्टमेश तथा सप्तमसे अष्टमेश इनका आत्मकारक के साथ ऐक्यता होवे अथवा इनके साथ आत्मकारकका योग होने तौ मध्यायु होवे है \। भाव यह है कि लमसे अष्टमेश आत्मकारक हो अथवा लग्नसे अष्टमेश के साथ आत्मकारकका योग होवे या सप्त- से अष्टमेश आत्मकारक हो अथवा सप्तमसे अष्टमेश के साथ आत्मकारकका योग होवे तौ " पितृलाभ० " इत्यादि सूत्र से प्राप्त हुए दीर्घायुवाक भी मध्यायु होवे है ’ ॥ २२ ॥
इसके अनन्तर दीर्घादि योगोंके विषे कक्ष्याह्रास कहते हैं । पितृलाभयोः पापमध्यत्वे कोणपापयोगे वा कक्ष्याहासः ॥ २३ ॥
लग्न और सप्तमं स्थान इन दोनोंको पाप ग्रहके मध्यवर्ती होने- पर कक्ष्याह्रास होता है । भाव यह है कि लग्नकुण्डलीके द्वितीय और बारहवें स्थान में और छठे और आठवें स्थानमें पापग्रहोंके योग होनेसे लग्न और सप्तमस्थानको पापमध्यत्व होता है । यदि लग्न सप्तम स्थानका पापमध्यत्व योग होवे तो दीर्घायुर्योग में मध्यायु और मध्यायुर्योग में अल्पायु और अल्पायुर्योगमें कुछभी नहीं होता है अथवा लग्न और सप्तमसे जो कि कोण नाम लग्न पंचम नवम स्थान हैं इन सबमें पाप ग्रहोंका योग होवे aant कक्ष्या- ह्रास होता है ॥ २३ ॥
१ अन्य जातकशास्त्रमें लमकी और इस ग्रंथमें आत्मकारककी प्रधानता होनेसे अष्टमेश के योगकर आयुका ह्रासही होता है. ऐसा जानना ॥________________
७८
जैमिनीयसूत्राणि ।
स्वस्मिन्नप्येवम् ॥ २४ ॥
[ अध्यायः १.
व्यात्मकारकभी लग्नकुण्डलीवत् होता है । तत्पर्य यह कि आत्म- कारकके राशि और आत्मकारकके सप्तमराशिको पापग्रहके मध्यवर्ती होनेमें भी कक्ष्याहास होता है अथवा व्यात्मकारकसे त्रिकोण नाम लम पंचम सप्तम स्थानोंपर सब जगह पापग्रहों का योग होवे तबभी कक्ष्या- हास होता है ॥ २४ ॥
तस्मिन्पापे नीचेऽतुंगेऽशुभसंयुक्ते च ॥ २५ ॥ यदि वह आत्मकारक पापग्रह होकर नीच राशिपर स्थित हो तभी कक्ष्याहास होता है अथवा पापग्रह होकर आत्मकारक अपने उच्च राशिमें स्थित न हो किन्तु अशुभ ग्रहोंसे संयुक्त होने तो काहास होता है \।\। २५ ॥
इसके अनन्तर कक्ष्याहास योग में निषेध कहते हैं ।
अन्यदन्यथा ॥ २६ ॥
लग्न सप्तम अथवा आत्मकारक सप्तम यह अन्यथा नाम शुभ ग्रहोंके मध्यवर्ती होवे अथवा लग्न और सप्तमसे अथवा मात्मकारकते प्रथम पंचम नवम इनमें सब जगह शुभ ग्रहोंका योग होने अथवा आत्मकारक शुभ ग्रह होकर नीचका न होवे अथवा आत्म- कारक शुभ ग्रह होकर उच्च राशि और शुभ ग्रह संयुक्त होने तो अन्यत् अर्थात् कक्ष्यावृद्धि होवे है याने अल्पायुर्योग होवे तो . मध्यायु होता है और मध्यायुयोग होवे तो दीर्घायु होते है और दीर्घा - युर्योग होवे छ्यानवे वर्षसेमी अधिक आयु होते है इस कथ- नसे यह जानना चाहिये समस्तयोग पापात्मक होवें तो कक्ष्याहास होता है और समस्त योग शुभात्मक होवें तो कक्ष्यावृद्धि होवे हैं और समस्त योग शुभ पाप दोनोंसे वर्जित होवें तो न कक्ष्या वृद्धि और न कक्ष्याह्रास होता है ॥ २६ ॥
इसके अनन्तर ह्रासवृद्धिप्रकार बृहस्पति के विषेभी दिखाते हैं। गुरौ च ॥ २७ ॥________________
पादः ५ ]
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भापाटीकासहितानि ।
७९
वृहस्पतिभी लग्नकुण्डलीबत् होता है भाव यह है कि बृहस्पतिसे द्वितीय द्वादश पर अष्टम त्रिकोण इन स्थानोंके विषे पूर्व कथना- नुसार पाप ग्रहों का योग होवे तो कक्ष्याद्वास होता है अथवा बृह - स्पति नीच हो या उच्चसे वर्जित होकर पाप ग्रहोंते युक्त होवे तोभी कक्ष्याहास होता है और जो अन्यथा होवे तो अन्यथाही फल होता है अर्थात् बृहस्पतिसे द्वितीय द्वादश पष्ठ अष्टम त्रिकोण इन स्थानों पर पूर्वकथनानुसार शुभ ग्रहों का योग होवे तो कक्ष्या- - वृद्धि होवे है अथवा बृहस्पति उच्च का होकर शुभ ग्रहोंसे युक्त होने . तोभी कक्ष्यावृद्धि होते हैं ॥। २७ ॥
पूर्णेन्दुयोरेकराशिवृद्धिः ॥ २८ ॥
शुभग्रहयोगप्रकरण or आत्मकारक बृहस्पति से जो कि स्थान कहे हैं उनमें यदि पूर्णचंद्र और शुकका योग होवे तौ निर्णीत हुए आयु कक्ष्यावृद्धि नहीं होती किन्तु एक राशिवृद्धि होवे अर्थात् लग्न आत्मकारक वृहस्पत्यादिकोंमेंसे जिससे कक्ष्यावृद्धि होती है उस राशिके दशावर्षोंकी वृद्धि होवे है ॥ २८ ॥
पापयोगसे जो कि कक्ष्याहास कहा उसमें अपवाद दिखाते हैं ।
शनौ विपरीतम् ॥ २९ ॥
पापयोग प्रकरण में लग्न आत्मकारक बृहस्पतिसे जो कि स्थान कहे हैं उनमें यदि शनैश्वर होवे तो कक्ष्याहास नहीं होता है किन्तु एकराशि ह्रास होवे है अर्थात् लग्न आत्मकारक वृहस्पत्यादिकोंमें से जिससे कक्ष्याहास होता है उस राशिके दशावर्षोंका हास होता है इन दोनों सूत्रों के कथनका यह अभिप्राय हे चंद्र शुक्र शनैश्वर इनको प्रधानता योगकारक होनेकर अन्य ग्रहोंको योगकारक हुए - संतभी एक राशिकी वृद्धि वा ह्रासही होता है न कि कक्ष्याकी ॥ २९ ॥ इसके अनन्तर स्थिरदशाके आश्रय से मरणयोग कहते हैं ।
स्थिरदशायां यथाखंडं निधनम् ॥ ३० ॥________________
८०
जैमिनीय सूत्राणि ।
[ अध्यायः १..
स्थिर दशामें आयुखण्ड के अनुसार गरण होता है \। भाव यह है कि परमायुके - दीर्घ मध्य अल्पायु नामसे तीन विभाग को पूर्वोक्त रीति से आयुका जो खण्ड आया होवे उसमें यदि मरण लक्षणयुक्त राशिको स्थिर दशा या जावे तो मरणलक्षणयुक्त राशिकी स्थिर दशामंही मरण होता है और मरणकारक खण्डसे पूर्व खण्ड में मरणलक्षणयुक्त राशिकी स्थिर दशा आ जायें तो उसमें मरण नहीं होता है किन्तु फ्रेश अधिक होता हैं ॥ ३० ॥ यदि कहो कि दीर्घ मध्य अल्पायु से मरणखण्ड तो नि-. णांत हो गया पर विशेषकर मरणकालज्ञान ती इससे नहीं हुआ तहां कहते हैं । तत्रविशेषः ॥ ३१ ॥
तिस मरणम राशिविशेष है \। भाव यह हैं कि मरणकारक कोई राशिविशेष होता है ॥ ३१ ॥
यदि कहो कि कौन मरणकारक राशिविशेष होता है वहां कहते हैं ।
पापमध्ये पापको रिपुरोगयोः पापे वा ॥ ३२ ॥ दो पाप ग्रहों के मध्यम जो कि शादी होवे उस राशिकी दशामें अथवा प्रथम दशाप्रद राशि से त्रिकोणमें और द्वादश अष्टम स्था- नमें पाप ग्रहों का योग होवे तो उस राशिकी दशामें मरण होता हैं’ ॥ ३२ ॥
तदीशयोः केवलक्षीणेन्दुशुक्रदृष्टौ वा ॥ ३३ ॥
१ “ शशिनन्दपावकाः क्रमादव्दाः स्थिरदशायाम् " स्थिर दशाके वर्षोंके लाने की रीति इस द्वितीयाध्यायके तृतीयपादसंवन्धि तृतीयसूत्रमें कही है।
.
२ यह वृद्धोंने भी कहा है। “शुभमध्ये मृतिनैव पापमध्ये मृतिर्भवेत् " कोई आ- -चार्य " पापकणे० " इत्यादि पदका यह अर्थ करते हैं लमसे वा आत्मकारकते पापयुक्त त्रिकोण राशिकी दशामें अथवा पापयुक्त द्वादशाष्टमराशिकी यशामें मरण होता है ॥________________
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पादः १०]
भापाटीका सहितानि ।
८१
द्वादश स्थानका स्वामा और अष्टम स्थानका स्वामी इनपर अन्य ग्रहों की दृष्टि तो हो नहीं किन्तु केवल क्षीणचंद्र और शुक इनकी दृष्टि हो तौ द्वादश और अष्टम राशिकी दशामें मरण होता है ॥ ३३ ॥
यदि कहो कि वहुवर्षव्यापिनी दशा होवे तौ कब मरण होगा इस शंका कहते हैं । तत्राप्ययक्षरिनाथदृश्यनवभागाद्वा ॥ ३४ ॥
• जो कि मरणकारक राशिदशा कही हैं उनमें भी जो कि प्रथम दशायद राशि है उसका स्वामी और उससे छठे स्थानका स्वामी इन दोनोंकर नवांश कुण्डली में जो कि राशि देखा गया हो उस राशिके अन्तर्दशा में मरण होता है ॥ ३४ ॥
इसके अनन्तर निर्याणदशाविशेषको अन्य प्रकारसे दिखाने के वास्ते रुद्रग्रहको कहते हैं ।
पितृलाभ भावेशप्राणी रुद्रः ॥ ३५ ॥
लग्न और सप्तम स्थानसे जो कि अष्टम स्थानके स्वामी हैं उन . दोनामें जो कि वली होवे वह रुद्रसंज्ञक ग्रह होता है ॥ ३५ ॥ इसके अनन्तर द्वितीय रुद्रग्रहको कहते हैं । अप्राण्यपि पापदृष्टः \।\। ३६ ॥
• लग्न सप्तम स्थान से अष्टम स्थानके स्वामियों में जो कि दुर्बलग्रह “होवे वह यदि पापग्रहने देखा हो तो रुद्रसंज्ञक होता है। दो रुद्र . होते हैं एक वली और दूसरा निर्बली ॥ ३६ ॥
१ कोई आचायाने आयशन्दसे दशम राशि और अरिशब्द से पष्ठ राशि ग्रहण किया है सों उन आचायोंकी इस प्रकार व्याख्या योग्य नहीं क्योंकि जब कि आशन्दसे दशम राशि लिया तो आरशन्दसे अष्टम राशि लेना चाहिये था और यदि ऐसा तात्पर्य संयकर्ताका होता तो " रिः फतन्तुनाथदृश्यनवभागाडा "
चाहिये या
ऐसा मूत्र होना________________
८२
जैमिनीय सूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
इसके अनन्तर वली रुद्रका फल कहते हैं । प्राणिनि शुभदृष्टे रुद्रशूलान्तमायुः ॥ ३७ ॥ जो कि बलवान् रुद्रसंज्ञक ग्रह है वह यदि शुभ ग्रहोंकर देखा गया हो तो रुद्रग्रह से शूल नाम प्रथम पंचम नवम राशिके दशा- पर्यन्त आयु होवे हैं अथवा बलवान् रुद्रसंज्ञक ग्रह शुभ ग्रहांने देखा होवे तहां यदि अल्पायुर्योग होवे तो रुद्रग्रह से प्रथमराशिदशापर्य- वही आयु होते है और मध्यायुर्योग होवे तो रुद्रग्रहसे पञ्चमरा- शिशापर्यन्त आयु होते है और दीर्घायुर्योग होवे तो रुद्रग्रहसे नव- मराशि दशापर्यन्त आयु होते है ॥ ३७ ॥
तत्रापि शुभयोगे ॥ ३८ ॥
यदि द्वितीय निर्बली रुद्रके विषेभी शुभ ग्रहांका योग होवे तौभी रुद्रग्रहसे प्रथम पंचम नवम राशिदशापर्यन्त आयु हांवे है \।\। ३८ ॥ व्यर्कपापयोगेन ॥ ३९॥
सूर्यको त्यागकर अन्य पाप ग्रहोंका योग यदि रुद्रसंज्ञक ग्रहके. विषे होवे तौ यह फल नहीं होता है अर्थात् रुद्रग्रहसे प्रथम पंचम नवम राशिदशापर्यन्त आयु होने का फल नहीं होता है किन्तु सूर्यके योगमें रुद्रग्रहसे प्रथम पंचम नवम राशिदशापर्यन्त आयु होनेका फल होता है ॥ ३९ ॥
इसके अनन्तर दोनों रुद्रों का गुणविशेषकर फल दिखाते हैं । मंदारं दृष्टे शुभयोगाभावे पापयोगेऽपि वा शुभ वा परतः ॥ ४० ॥
बली अथवा निर्बली रुद्र, शनैश्वर, मंगल, चंद्र इनकर देखा गया हो और उस रुद्रपर शुभ ग्रहका योग होवे नहीं एक योग यह है और बली अथवा निर्बली रुद्र शनैश्वर, मंगल, चंद्र इनकर देखा गया हो और उस रुद्रपर पापग्रहका योग होवे द्वितीय योग यह है और बली अथवा निर्बली रुद्र शनैश्वर, मंगल, चंद्र इनवर________________
पादः १.].
भापाटीकासहितानि ।
८३
देखा गया हो और उसपर शुभ ग्रहों की दृष्टि होवे तृतीययोग यह है । इन तीनों योगों से कोई योग संपूर्ण होवे तो रुद्रग्रहसे प्रथम पंचम नवम राशिदशापर्यन्त ते भी अगाडीतक आयु होवे है ’ ॥ ४० ॥ . कदाचित् रुद्राश्रितराशिभी मरण होता है इसी योगको कहते हैं ।
रुद्राश्रयेऽपि प्रायेण ॥ ४१ ॥
रुद्राश्रित राशिभी आयुकी समाप्ति होवे है । भाव यह है कि जिस राशि रुद्र ग्रह स्थित होवे है उस राशिकी दशामेंभी कदा- चित् मरण होता है \। सूत्रमें प्रायः शब्दका प्रयोग होनेसे रुद्राश्रित राशि से पहिले वा पीछेमी मायुकी समाप्ति होवे हैं ऐसा ध्वनित होता है ॥ ४१ ॥
१ इस सूत्र में जो कि दो वाकार है " वाकारद्वयमनास्थायाम् " इस प्रकार कहकर ये दोनों वाकार धोने दो योगके जतानेही वाले कहे हैं सो यह पंयवचन युक्त नहीं क्यों कि दोनों याकारोंकी अनास्थाकल्पना में कोई प्रमाण नहीं इससे दोनों वाकारोंसे तीन योगही प्रकट होते हैं। इस प्रकरणमें शुभ पापग्रहोंका लक्षण वृद्धोंने कहा है * अकी मंदफणिनः क्रमात् क्रूरा यथाश्रयम्। चंदोऽपि क्रूर एवात्र कचिदंगारकाश्रये । सुध्या वैज्ञाः स्युर्वयापूर्व शुभग्रहाः । " अर्थ सूर्य, मंगल, शनैश्वर, राहु ये क्रम यथाश्रय नाम कर राशिपर स्थित होवे ती फ्रूट होते हैं और शुभ राशिपर स्थित होवें तो कून होते किन्तु शुभही होते हैं और बृहस्पति, केतु, शुक्र, बुध ये यथापूर्व शुभप्रद होते हैं । बधसे शुक शुकसे केतु, केतुसे बृहस्पति ये उत्तरोत्तर शुभ ग्रह हैं। जिस कप कि कर ग्रहों की क्रूरराशिमें स्थित होनेसेही क्रूरता होवे है और शुभ राशि स्थित होनेसे शुभता होवे हे तिसी प्रकार बृहस्पति आदिकोंकी शुभ राशिमें स्थित होनेसे शुभता होये है और पापराशिमें स्थित होनेसे जमता नहीं होती है। ऐसा वृद्धोंने भी कहा है। " प्रत्येकं शुभराशिस्य उच्चस्थो वा बुधः शुभः । गुरुशुको च सीम्प्रस्थी ततोऽन्यत्राऽशुभाः स्मृताः ॥ " यदि दालमे मरण कहा तो किस उमै मरण होना चाहिये इस विषय में वृद्धोंने विशेष कहां है। “पापमात्रस्य डालत्वे प्रम मृतिर्भवेत् । मिथे मध्यमाल शुभमात्रेऽन्त्य मृतिः ॥ " अर्थ-यदि दोनों रुद्र पाप ग्रह हो तो रुद्रमहसे प्रथम राशिकी दशामें मरण होता है और यदि एक रु पाप ग्रह होवे और द्वितीय शुभ ग्रह होवे तो रुद्रमहसे पंचम राशिकी दशा में ‘मरण’ होता है और यदि दोनों रुद शुभ ग्रह होवें तो रुद्रग्रइसे नवम राशिकी दशा में मरण, होता है ।________________
८४.
- जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
ऋये पितरि विशेषेण ॥ ४२ ॥
जब मेष जन्मलग्न होवे तौ विशेषकर रुद्राश्रित राशिमेंही आयुकी समाप्ति होवे है । भाव यह है कि जन्मलग्नमें मेपराशि होवे तो जिस राशिमें रुद्रग्रह स्थित होवे उस राशिकी दशामंही आयुका समाप्ति हो है ॥ ४२ ॥
इसके अनन्तर योगभेद से मरणस्थान दिखाते हैं । प्रथममध्यमोत्तमेषु वा तत्तदायुपाम् ॥ ४३ ॥ अल्प मध्य दीर्घायुर्योगवाकी प्रथम मध्यम उत्तम नाम प्रथम द्वितीय तृतीय रुद्रशूलों के विषे क्रमसे आयुः समाप्ति होवे हैं । भाव यह है कि अल्पायुयोग हो तो प्रथम रुद्रशूलमें आयुकी समाप्ति होते हैं और मध्यायुर्योग होवे तौ द्वितीय रुद्रशूल में आयुकी समाप्ति होने हैं और दीर्घायुर्योग होवे तो तृतीय रुद्रशूल में आयुकी समाप्ति होवे है । इस प्रकार रुद्रशूलराशिकी महादशा में मरणयोग सिद्ध हो चुका उसीकी किसी अन्तर्दशामें मरण हो जाता है’ ॥ ४३ ॥ इसके अनन्तर फलविशेषके कहने के लिये महेश्वरग्रहको दिखाते हैं ।
स्वभावेशो महेश्वरः ॥ ४४ ॥
आत्मकारकग्रहसे जो कि अष्टमराशिका स्वामी है वह महेश्वर संज्ञक ग्रह होता है ॥ ४४ ॥
स्वोंच्चे स्वगृहे रिपुभावेशः प्राणी ॥ ४५ ॥
यदि आत्मकारकसे अष्टम राशिका स्वामी उच्च व अपने गृहमें स्थित होवे तौ आत्मकारकते द्वादश अष्टम राशियों के स्वामियों में जो बलवान् होता है वह महेश्वरसंज्ञक होता है और यदि मा-
१ सूत्रमें वाशब्दके प्रयोगले यह ध्वनित होता है कि रुद्रशलसे मरण योग हुए संतभी अन्य बलवान् योगवशसे स्वशूलद्वारा मरणका बाधभी हो जाता है ॥________________
पादः १.]
भापाटीकासहितानि ।
८५
मकार से द्वादश अष्टम राशियोंके स्वामी दोनों बलवान् होवें तौ दोनों महेश्वरसंज्ञक होते ’ ॥ ४५ ॥
इसके अनन्तर द्वितीय प्रकारसे महेश्वर ग्रहको कहते हैं । पाताभ्यां योगे स्वस्य तयोर्वा रोगे ततः ॥ ४६ ॥ आत्मकारकका पात नाम राहुकेतुर्मे से किसीके साथ योग होवे अथवा आत्मकारकसे अष्टम स्थानपर राहुकेतुमेंसे किसीका योग होवे तो आत्मकारकसे सूर्यादिगणना के क्रमसे जो छठा ग्रह हो वह महेश्वर होता है। दो तीन महेश्वर होनेके योगमें जो बली होता है वह महेश्वर होता है ॥ ४६ ॥
इसके अनन्तर ब्रह्मग्रह कहते हैं । प्रभुभाववैरीशप्राणी पितृलाभप्राण्यनुचरो विषमस्थ ब्रह्मा ॥ ४७ ॥
सप्तम इन दोनों राशियों में जो कि बलवान होवे उससे जो पिष्ट अष्टम द्वादश इन स्थानोंके स्वामी हैं उनमें जो कि बलवान् हो वह यदि लग्न सप्तममें से वलवान राशिसे पृष्ठ राशिस्थ होकर मेष मिथुनादि विपमराशिपर स्थित होवे तौ वही ग्रह ब्रह्मा होता हैं। लग्नके पृष्ठ राशि सप्तमसे लेकर द्वादशपर्यंत होते हैं और सप्त- मके पृष्ठराशि से लेकर पष्टपर्यंत होते हैं ॥ ४७ ॥ इसके अनन्तर अन्य प्रकारसे ब्रह्मग्रह कहते हैं !
ब्रह्मणि शनौ पातयोर्वा ततः ॥ ४८
॥
यदि शनैश्वर ब्रह्मलक्षणयुक्त होवे अथवा राहु केतु ब्रह्मलक्षण ‘युक्त होवें तौ शनैश्वर वाराहु केतुसे जो कि छठा ग्रह है वह ब्रह्मा होता”
"
१. “ स्योचे सग्रहे रिपुभावेशः प्राणी " ऐसा सूत्र होने पर यह अर्थ निकलता है वि. आत्मकारकका उच्च राशि यदि ग्रहयुक्त होवे तो आत्मकारकसे अष्टम द्वादश राशियों के स्वामियोंसे चली ग्रह. महेश्वर होता है
‘२ लयसे द्वादश एकादश दशम नवम अष्टम सप्तम ये राशि पृष्ठ हैं और सहमसे पछ पंचम चतुर्थ तृतीय द्वितीय लम ये राशि पृष्ठ हैं ॥________________
- ८६
- जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
है न कि शनैश्वरादिक । भाव यह है कि यदि शनैश्वर वा राहु केतु इनमें से कोई ब्रह्मयोगकारक होवे तो थे ब्रह्मा नहीं होते किन्तु इनसे : छठा ग्रह ब्रह्मा होता है ॥ ४८ ॥
यदि कहो कि बहुत ग्रह ब्रह्मयोगकारक होवें तो कौन ब्रह्मा होता है। इस शंका कहते हैं ।
· बहूनां योगे स्वजातीयः ॥ ४९॥
tags ब्रह्मयोगकारक होवें तो उनमें जो कि आत्मका- रकजातीय अर्थात् अधिक अंशवाला ग्रह है वह ब्रह्मा होता है ॥ ४९ ॥ इस योग में कुछ विशेष कहते हैं ।
राहुयोगे विपरीतम् ॥ ५० ॥
ब्रह्मसंज्ञक ग्रहके साथ यदि राहुका संयोग होवे तो विपरीत होता है । भाव यह है कि ब्रह्मसंज्ञक ग्रह राहुके साथ में होवे तो बहुतसे ब्रह्मयोगकारक ग्रहोंमें कम अंशवाला ग्रह ब्रह्मा होता है। इस कथन से . यह जनाया गया कि शनैश्वर राहु केतु इनमेंसे ब्रह्मयोग होनेपरमी ब्रह्मा नहीं हो सक्ता परन्तु राहुका ब्रह्मयोग होनेपर यदि बहुत से ब्रह्मयोगकारक ग्रहोंके मध्यमें राहु न्यूनांश होवे, तौ ब्रह्मा . हो सक्ता है ॥ ५० ॥
इसके अनन्तर अन्य प्रकारसे ब्रह्मग्रह कहते हैं । ब्रह्मा स्वभावेशो भावस्थः ॥ ५१ ॥ आत्मकारकसे अष्टमस्थानका स्वामी और आत्मकारकसे अष्टम स्थानपर स्थित हुआ ग्रह ब्रह्मा होता है. ॥ ५१ ॥
१ इस सूत्रकी कोई आचार्य यह व्याख्या करते हैं कि आत्मकारकते अष्टम राशिका स्वामी आत्मकारकते अष्टममें स्थित होवे तो वह आत्मकारकसे अष्टम स्थानका स्वामी ब्रह्मा होता है । यह व्याख्या उचित नहीं क्योंकि इस सुत्रकी ऐसी व्याख्या होने “विवादे बली " यह सूत्र इसमें न घटने से यह सूत्र अयोग्य हो जावेगा क्योंकि अन्त रको प्राप्त होनेसे. पूर्वान्वितभी यह सूत्र नहीं है। दूसरे “ बहूनां योगे ” इस सूत्रसेही पूर्वं शंका दूर होही चुकी है इससे मष्टमेश और अष्टमस्थ इन दोनोंमें एकको निर्वियाद होता है
"
1________________
पादः १.]
भापाटीका सहितांनि ।
यदि अष्टमेश अष्टमस्थ इन दोनों में भेद होवे तो कीन ब्रह्मा होता है इस शंका कहते हैं । विवादे बली ॥ ५२ ॥
67.
यदि ब्रह्मलक्षणयुक्त दोनों ग्रहोंको ब्रह्मत्व होवे तो उनमें जो कि वली है वह ब्रह्मा होता है अथवा समस्त ब्रह्मसंज्ञक तुल्यांश होवे तो विना ग्रहवाले राशिसे ग्रहवाला राशि और एक ग्रहवाले राशि से दो ग्रहवाला राशि और दो ग्रहवाले राशिसे तीन ग्रहवादा राशि वली होता है इस रीति से जो ग्रह वली होवे वह ब्रह्मा होता है ॥ ५२ ॥ इसके अनन्तर ब्रह्म महेश्वर दोनोंका बल कहते हैं। ब्रह्मणो यावन्महेश्वरर्क्षदशांत मायुः ॥ ५३ ॥ स्थिर दशामें ब्रह्मग्राश्रित राशि से लेकर महेश्वराश्रित राशिकी “दशापर्यन्त आयु होते हैं । भाव यह है कि जिस राशिका ब्रह्मह “होवे उस राशि और आरम्भकरके जिस राशिका कि महेश्वर ग्रह हैं उस राशिकी स्थिरदशापर्यन्त आयु होते है ॥ ५३ ॥ इसके अनन्तर महादशा भी मरणकारक जो कि अन्तर्दशा हैं उसको कहते हैं ।
तत्रापि महेश्वरभावेशत्रिकोणादे ॥ ५४ ॥ जिस राशिका महेश्वर हो उस राशिको स्थिर दशामेंभी जब कि महेश्वराधिष्ठित राशि अष्टम राशिके स्वामीका जो कि त्रिकोण नाम प्रथम पंचम नवरूप राशि है उसका जब कि एक दो वर्षरूप अन्तर्दशाकाल होवे उसमें मरण होता है ’ ॥ ५४ ॥
इसके अनन्तर दो सूत्रोंसे मारकग्रहको दिखाते हैं । स्वकर्मचितरिपुरोगनाथप्राणिमारकः ॥ ५५ ॥
१ सूत्रमें बब्दशब्दका प्रयोग राशिंदशाके बारह वर्ष के अभिप्राय किया गया है । यदि न्यून संख्यांकर दशा होवे यो वर्षसे न्यूनही अन्तर्वशाओं कमी विषे लाना चाहिये ॥________________
८८
जोमेनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
आत्मकारकसे तृतीयः षष्ठ द्वादश अष्टम इन स्थानोंके स्वामि- योंके मध्यमें जो कि बलवान् होवे वही मारक ग्रह होता है और यदि सब ग्रह समान वली होवें तौ सबही ग्रह मारक होते हैं । यदि कहो कि बहुत से ग्रह मारक होवे तो किसकी दशामें मरण होता है वहां यह जानना कि अल्प मध्य दीर्घायुओं में जिसका जहां जहां संभव होवे उसी राशिदशामें मरण होता है ॥ ५५ ॥ इसके अनन्तर मारकका फल कहते हैं ।
तक्षदशायां निधनम् ॥ ५६ ॥
जिस राशिका मारक ग्रह होवे अथवा जिस राशिका मारक ग्रह स्वामी होवे उसकी चरस्थिरादिरूप महादशामें मरण होता है॥ ५६ ॥ इसके अनन्तर मारकमहादशामें जो कि मरणकारक अन्तर्दशा है उसको कहते हैं ।
तत्रापि कालाद्रिपुरोगचित्तनाथापहारे ॥ ५७ ॥
मारग्रह की दशा भी आत्मकारक के सप्तमसे द्वादश अष्टम षष्ठ
"
१ बहुधा मुख्यताकर आत्मकारकसे पवेशही मारक होता है। यहां वृद्धोने भी कहा है । " पष्टाष्टमेशौ भवतो मारकावष्टमेश्वरः । प्रायेण मारको राशिदशास्वत्राविशेषतः ॥ पट पापभूयिष्ठे पठेशो मुख्यमारकः । पाचिकोण को वापि मुख्यमारक इप्यते ॥ म. ध्यापि मृतिः पठदशायामष्टमस्य यां । पष्ठचिकोणस्य पुनर्दीर्थोत्पविषये भवेत् ॥ पटे व लयुते तस्य त्रिकोण मृतिमादिशेत् । षष्टेशद्राव्यः स्यात्तत्रिकोणे मृति वदेत् ॥ व्य यस्थेयं समस्तापि कारकादिदशास्वपि । बलिनः अर्थ-यदि परेश अष्टमेश दोनों मारक होवें तौ
शुक्रशशिनोयहां पष्टाष्टमादिकम् ’ ॥ " बहुधाकर अष्टमेशही मारक होता है। मुख्यता से पष्टेश मारक होता है अ
यदि पष्ठरराशि अधिक पाप ग्रहोंसे युक्त होवे तो थवा पटस त्रिकोणस्थानपर स्थित हुआ ग्रहभी मारक होता है। यदि मध्यायु होवे तौ पट अथवा अष्टमराशिकी दशामें मरण होता है और दीर्घायु वा अल्पायु होवे तो पष्ट राशिसे त्रिकोण नाम प्रथम · पंचम, नवम राशिकी दशामें मरण होता है। यदि पष्टराशि युक्त होवे तो उसके त्रिकोणराशिमें मरण कहे और यदि देश चलवान् होवे ती षष्ठेशसे त्रिकोणराशिमें मरण कहे। रामसप्तममें जो बली होवे उससे षष्ठ अष्टमादिक ग्रहण करने चाहिये यही समस्त व्यवस्था कारकादिदशाओं में भी होवे
॥________________
• पादः २.]
भाषाटीकासहितानि ।
स्थान इनके स्वामियोंके मध्यमें जो वलवान् होवे उसका जब अन्त- देशकाल आवे उसमें मरण होता है’ ॥ ५७ ॥
इति श्री मिनीय सूत्राद्वितीयाध्याये श्रीनीलकंठी यतिलकानुसृतभाषा- टीकायां श्री पाठक मंगसेनात्मजकाशिरामकृतायां प्रथमः पादः समाप्तः १
अथ द्वितीयपादः ।
इसके अनंतर पित्रादिकोंका मरणकाल जताने के लिये पित्रादिकारकको कहते हैं ।
रविशुकयोः प्राणी जनकः ॥ १ ॥
सूर्य और शुक्र इन दोनों मध्यमें जो वलवान् होवे वह पिए- कारक होता है ॥ १ ॥
चंद्रारयोर्जननी ॥ २ ॥
चंद्रमा मंगल इन दोनों जो कि चली होवे वह मातृकारक होता है ॥ २ ॥
अप्राण्यपि पापदृष्टः ॥ ३ ॥
सूर्य शुक्र और चंद्र मंगल इनके मध्य में जो निर्बली हो वह यदि ‘पापग्रहने देखा होवे तो यथाक्रम पितृमातृकारकताको प्राप्त
21
१ यहांपर वृद्धोंने विशेष कहा है। " चरे चरस्थिरद्वन्द्वा इति यो राशिरागत ः 1. स एव मारको राशिर्भवतीति विनिर्णयः ॥ बहुराशिसमावेशे वलवान् मारकः स्मृतः ॥ अर्थ- प्रेश अष्टमेश तथा उमचंद्र तथा लमहोरा यह दो दो आयुर्दयकारक जिस राशि - पर स्थित हाय वह राशि मारक होता है और यदि वह राशि बहुतसे होवें सो विना ग्रहके राशिसे ग्रहयुक्त राशि और एक ग्रहयुक्त राशिसे दो ग्रहयुक्त राशि बली होता है. इस रीति से जो राशि बली होवे यह मारक होता है। उस मांरकराशिका स्वामी जिस राशिपर स्थित है वे उस राशिकी दशामें मरण होता है और अन्य ऐसा कहते है । “चर इत्यादिनायुर्य तत्समास्युचितो भवत् । योराशिः स तु विज्ञेयो मारकः सूत्रसंमतः ॥ अर्थ” घरे चरस्थिरद्राः " इस लोकसे. जो कि आयु आया है वह दीर्घमध्या ल्परूप आयु जिस राशिमें समाप्त व वही राशि मारक होता है ॥
“________________
- ९०
- जैमिनीयसूत्राणि ।
- [ अध्यायः २..
- होता है । भाव यह है कि सूर्य शुक्र इन दोनों में जो कि निर्वली होवे वह यदि पापग्रहने देखा हो तो पितृकारक होता है और चंद्रमा मंगल इन दोनों में जो कि निर्वली होवे वह यदि पापग्रहने देखा होने तो मातृकारक होता है ॥ ३ ॥
- इसके अनंतर बली पितृमातृकारकका फल कहते हैं । प्राणिनि शुभदृष्टे तच्छूले निधनं मातापित्रोः॥ ४ ॥ वली पितृकारक अथवा वली मातृकारक शुभ ग्रहने देखा होवे तो जिस राशिपर पितृकारक वा मातृकारक स्थित होवे उस राशिसे त्रिकोणराशिकी दशामें पिता और माताका मरण जानना ॥ ४ ॥ तद्भावेशे स्पष्टवले ॥ ५ ॥ तच्छूल इत्यन्ये ॥ ६ ॥
- वली हो अथवा निर्बली हो ऐसे दोनों प्रकारके पितृमातृकारकसे. अष्टम स्थानका स्वामी पितृमातृकारकसे अधिक वली अर्थात अधि- कांश होवे तो जिस राशिका अष्टमेश होवे उस राशिसे त्रिकोण नाम प्रथम पंचम नवम राशिकी दशामें पितृमातृका मरण जानना ऐसा अन्य आचार्य कहते हैं । पितृकारकसे ऐसा योग होवे तो पिताका मरण और मातृकारकसे ऐसा योग होवे तो माताका मरण जाने ’ ॥ ५ ॥ ६ ॥
- आयुषि चान्यत् ॥ ७ ॥
- पितृआदिकों के आयुके विचार किये जानेपर पितृआदिकों का कारक और अन्य प्रकारसे कहे हुए निर्याणशूलदशादिककाभी विचार करना चाहिये ॥ ७ ॥
- इसके अनंतर पितृमरणमें विशेष कहते हैं ।
- अज्ञयोगे तदाश्रये लग्नमेषदशायां पितुरित्येके ॥ ८॥ लग्नसे क्रिय नाम द्वादशराशि वह होवें है जो कि सूर्यबुधाश्रय
- १ “ तद्भावेशे स्पष्टचले ” इस सूत्र जो कि " अधिनले ’ पदके जगह " स्पष्ट- बले " ऐसा पद कहा है उससे अंशाधिक बल महण करना चाहिये ॥________________
पादः २०]
भाषाटीकासहितानि ।
९१
अर्थात् सिंह मिथुन कन्या है और उसमें सूर्य और बुधका योग होवे तो लग्नसे पंचम राशिकी दशामें पिताका मरण होता हैं ऐसा कोई व्याचार्य कहते हैं । भाव यह है कि लग्नसे द्वादश सिंह मिथुन कन्यामेंसे कोई होवे और उसमें सूर्य बुध इन दोनोंका योग होने! तो लग्नसे पंचम राशिकी दशामें पिताका मरण होता है’ ॥ ८ ॥ इसके अनन्तर वाल्यावस्था मेंही मातापितृके मरणयोगको कहते हैं । व्यर्कपापमात्रदृष्टयोः पित्रोः प्राग्द्वादशाब्दात् ॥ ९ ॥ बली हो अथवा निर्बली हो ऐसे दोनों प्रकारके पितृमातृकारक यदि सूर्यवर्जित अन्य पापग्रहमात्रने देखे होवें तो बारह वर्ष से पूर्वही पितृमाका यथाक्रम मरण होता है । भाव यह है कि बी वा निर्बली पिट्कारक सूर्यवर्जित पापग्रहमात्रने देखा हो तो पिताका मरण होता है और वली वा निर्बली मातृकारक सूर्यवजित पापग्रह- मात्रने देखा हो तो माताका मरण होता है और सूर्य वा शुभ हकी दृष्टि होवे तो यह योग नहीं होता है ॥ ९ ॥ इसके अनन्तर स्वीमरणकाल कहते हैं ।
गुरुले कस्य ॥ १० ॥
जिस राशिपर वृहस्पति स्थित होवे उस राशिसे त्रिकोणराशिकी दशामें स्त्रीका मरण होता है ॥ १० ॥
इसके अनन्तर पुत्रमातुलादिककाभी मरणकाल कहते हैं। तत्तच्छूले तेषाम् ॥ ११ ॥
पुत्रमातुलादिकारक जिस २ राशिपर स्थित होवें उसी २. राशिसे. त्रिकोणराशिकी दशामें पुत्रमातुलादिकोंका मरण होता है ॥ ११ ॥ इसके अनन्तर मरणमें शुभाशुभ भेद दिखाते हैं कर्मणि पापदृष्टे दुष्टं मरणम् ॥ १२ ॥
।
१ " मर्कज्ञयोगे तदाश्रये क्रिये उमे मेपदशायां पितुरित्येके यदि ऐसा पाठ होक तौ यह अर्थ हुआ यदि क्रियनाम मेषराशि सूर्य बुध इन दोनोंके योग से युक्त होकर ममें होवे तो मेरा शिकी दशामें पिताका मरण होता है ॥________________
९२
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
- उनसे अथवा कारकसे तृतीय स्थान पापग्रहकर युक्त होवें अथवा पापग्रहने देखा हो तो दुष्ट मरण होता है ॥ १२ ॥
शुभं शुभदृष्टि ॥
१३ ॥
लग्नसे अथवा कारकसे तृतीय स्थान शुभ ग्रह से युक्त होवे अथवा शुभ ग्रहने देखा होवे तो शुभ मरण होता है। अग्निसे जलसे गिर- नेसे बन्धनादिसे जो मरण होता है वह दुष्ट कहाता है और ज्यरा- दिरोगसे जो मरण होता है वह शुभ कहाता है ॥ १३ ॥
मिश्र मिश्रम् ॥ १४ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थानपर शुभ अशुभ दोनोंकी दृष्टि अथवा योग होवे तो शुभाशुभरूप मरण होता है ॥ १४ ॥ . आदित्येन राजमूलात् ॥ १५ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थानपर सूर्यका योग वा दृष्टि होवे तो राजाके निमित्तसे मरण होता है ॥ १५ ॥
चंद्रेण यक्ष्मणः ॥ १६ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान चन्द्रमासे युक्त वा देखा गया हो तो क्षयरोगसे मृत्यु होता है ॥ १६ ॥
कुजेन व्रणशस्त्रानिदाहाद्यैः ॥ १७ ॥
दे लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान मंगलसे युक्त वा देखा गया डोण शस्त्र अग्निदाहादिसे मरण होता है ॥ १७ ॥
शनिना वातरोगात् ॥ १८ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान शनिसे युक्त वा देखा गया हो तो वातरोगसे मरण होता है ॥ १८ ॥ - मंदमदिभ्यां विषसर्पजलोद्वंधनादिभिः ॥ १९ ॥ यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान शनैश्वर और गुलिकसे________________
पादः २. ] .
भाषाटीकासहितानि ।
९३
युक्त वा देखा गया हो तो विष सर्प जल बन्धनादिकसे मरण होता है ॥ १९ ॥
केतुना विषूचीज रोगाः ॥ २० ॥
लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान केतुसे युक्त वा देखा गया हो तो विषूचिका जलरोगादिकांसे मरण होता है ॥ २० ॥ चंद्रमादिभ्यां पूगमदान्नकवलादिभिः क्षणिकम् ॥ २१ ॥ यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान चन्द्र और गुलिकसे युक्त ‘वा दृष्ट हो तो सुपारी मद तथा अन्नप्रासादिसे शीघ्रही मरण हो जाता है ॥ २१ ॥
गुरुणा
शोफाऽरुचिवमनाद्यैः ॥ २२ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान बृहस्पति से युक्त वा दृष्ट होवे तो शोफ नाम सूजन और अरुचि और वमन इत्यादिकसे. मरण होता है ॥ २२ ॥
शुक्रेण महात् ॥ २३ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान शुक्रसे युक्त वा दृष्ट होवे तो प्रमेह रोग से मृत्यु होता है ॥ २३ ॥
मिश्र मिश्रात् ॥ २४ ॥
यदि न वा कारकसे तृतीय स्थानपर अनेक ग्रहोंका योग वा दृष्टि हो तो अनेक रोगों मरण होता है ॥ २४ ॥
चंद्रदृग्योगान्निश्चयेन \।\। २५ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थानपर जिस ग्रहका योग अ- थवा दृष्टि होवे और तहां चन्द्रमाकाभी योग वा दृष्टि होवे तो अव- श्यही उसी ग्रहके रोगसे मरण कहना चाहिये । इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि तृतीय स्थानपर चन्द्रमाका योग वा दृष्टि न होवें
१ गुलिक के स्पष्ट करने का विधान प्रथमाध्यायके द्वितीयपादसंबन्धि उन्तीस सू की टिप्पणी में लिख आये हैं ॥________________
९४.
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.:
तो जिस ग्रहसे कि तृतीय स्थान युक्त वा दृष्ट है उस ग्रह के रोग से मरणमें संदेह रहता है ॥ २५ ॥
इसके अनंतर मरणमें देशभेदको दिखाते हैं।
शुभैः शुभे देशे ॥ २६
॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थानपर शुभ ग्रहों का योग और दृष्टि होवे तौ काश्यादि पुण्यभूमिमें मरण होता है ॥ २६ ॥ पापैः कीकटे ॥ २७ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थानपर पापग्रहोंका योग दृष्टि होवे तो मगधादि पाप देशमें मरण होता है और यदि शुभ पाप ग्रह दोनोंका योग और दृष्टि होवे तौ न काश्यादि शुभ देशमें और न मगधादि पाप देशमें किन्तु सामान्य देशमें मरण होता है ॥ २७ ॥ गुरुशुकाभ्यां ज्ञानपूर्वम् ॥ २८ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान बृहस्पति शुक इन दोनोंसे युक्त वा देखा गया हो तो ज्ञानपूर्वक मरण होता है अर्थात मरण- समय बुद्धि यथावत् रहती है ॥ २८ ॥
अन्येरन्यथा ॥ २९ ॥
यदि लग्न वा कारकसे तृतीय स्थान बृहस्पति शुक्रको त्याग अन्य किसी ग्रहसे युक्त वा दृष्ट होवे तौ अज्ञानपूर्वक मरण होता है. अर्थात् मरणसमय बुद्धि नहीं रहती है ॥ २९ ॥
लेपजनयोर्मध्ये शनिराहुकेतुभिः पित्रोर्न संस्कर्ता ३० लग्न और द्वादश स्थान इन दोनोंके मध्य में शनैश्वर राहु अथवा शनैश्वर केतु ये दोनों ग्रह होवें तौ मातापिताका दाहादिरूप संस्कार करनेवाला नहीं होता है ॥ ३० ॥
लेपादि पूर्वार्द्ध जनकाद्यपरार्द्धं ॥ ३१ ॥
लमसे, आदि लेकर प्रथम छः भावों में और द्वादश स्थान से आदि लेकर पिछले छः भावोंमें राहु शनैश्वर अथवा केतु शनैश्वर________________
पादः ३.]
भापाटीकासहितानि ।
९५.
ये दोनों विद्यमान होवें तौ क्रमसे माता पिताके दाहादिरूप संस्कार करनेवाला नहीं होता है । भाव यह है कि लग्नसे आदि लेकर छः भावों में शनैश्वर राहु अथवा शनैश्वर केतु ये दोनों विद्यमान होवें तौ माताके दाहादिरूप संस्कार करनेवाला नहीं होता है और सप्तमसे आदि लेकर छः भावोंमें शनि केतु विद्यमान होवें तो पिताके दाहा- दिरूप संस्कार करनेवाला नहीं होता है’ ॥ ३१ ॥
शुभहग्योगान्न ॥ ३२ ॥
यादे लग्नसे लेकर छः भावोंमें और द्वादश स्थान से लेकर पिछले छः भाव में शुभ ग्रहों की दृष्टि और योग होवे तो यह कहा हुअ योग नहीं होता है किन्तु मातापिता के दाहादिरूप संस्कार करने- वाला होता है ॥ ३२ ॥
इति श्रीजैमिनीयसूत्रद्वितीयाध्याये श्रीनीलकंठीयतिलकानुसृतभाषा - टीकायां श्री पाठकमंगलसेनात्मजकाशिरामकृतायां द्वितीयपादः समाप्तः ॥ २ ॥
अथ तृतीयपादः ।
इसके अनन्तर दशाभेद वलभेद कहते हैं तिसभी प्रथम- नवांशदशाको कहते हैं । -
विषमेतदादिवांशः ॥ १ ॥ अन्यथाऽऽदर्शादिः ॥ २ ॥ यदि विषम लग्न होवे तौ लग्नसे आदि लेकर नवांशदशा होवे है और अन्यथा अर्थात् समराशि लयमें होवे तौ आदर्शादि नाम सप्तम राशिसे आदि लेकर नवांशदशा होवे है इस नवांश-
१ शङ्का-शनैश्थर राहु केतु इन तीनोंका एक जगह होना क्यों नहीं कहा ? क्योंकि मूत्र तो “शनिराहुकेतुभिः " ऐसा पद कहां है। समाधान राहु केतकी स्थिति एक जगह नहीं हो सक्ती इससे तीनोंका एक जगह होना नहीं कहा ॥________________
९६
. जैमिनीयसूत्राणि ॥
[ अध्यायः २.
दशार्मे प्रत्येक राशिके नौ नौ वर्ष होते हैं इसीसे इसका नाम नवां-
शदशा जानना ॥ १ ॥ २ ॥
शशिनंदपावकाः क्रमादव्दाः स्थिरदशायाम् ॥ ३ ॥ स्थिर दशामें चर स्थिर द्विस्वभाव राशियोंके क्रमसे सात व आठ नौ वर्ष होते हैं अर्थात् मेष कर्क तुला मकर इनके सात २ वर्ष होते हैं, वृष सिंह वृश्चिक कुम्भ इनके आठ आठ वर्ष होते हैं, मिथुनः कन्या धनु मीन इनके नौ नौ वर्ष होते हैं ॥ ३ ॥
इसके अमन्तर स्थिरदशाका आरम्भस्थान कहते हैं । ब्रह्मादिरेषा ॥ ४ ॥
जिस राशिपर ब्रह्मग्रह स्थित होवे उस राशिसे आरम्भ करके यह स्थिरदशा प्रवृत्त होती है ॥ ४ ॥
अथ प्राणः ॥ ५ ॥
इसके अनन्तर बलाधिकारमें राशियोंका बल कहा जाता है ॥५॥ कारकयोगः प्रथमो भानाम् ॥ ६ ॥
राशियोंका प्रथम बलकारक योग होता है अर्थात् विना ग्रह- वाले राशिसे ग्रहवाला राशि वली होवे हैं ॥ ६ ॥ साम्ये भूयसा ॥ ७ ॥
यादे दोनों जगह ग्रहयोगकी समानता होवे तो बहुत से ग्रह- योगकरके राशियोंका वल होता है अर्थात् थोडे ग्रहवाले राशिसे बहुत अहवाला राशि बली होता है ॥ ७ ॥
ततस्तुगादिः ॥
८
॥
यदि ग्रहोंकी बाहुल्यतामी बराबर होवे तौ उच्चादियोग राशि-
१ यहां आदर्शशब्दका अर्थ संमुख है सबसे संमुख सप्तमराशिही होता है। “स्थिर” राशेः षठराशिःश्वरस्याष्टम एव सः । द्विस्वभावस्य राशिस्तु सप्तमः सम्मुखो मतः ॥ अर्थ - स्थिराशि पर राशि और चरराशिका अमराड़ी और द्विस्वभाव राशिका सप्तम रात्री सम्मुख होता है ऐसा जो कि पंथोंने कहा है सो यहां नहीं हो सक्ता क्योंकि यह वचनविनमदी है न कि अन्य विषयमें ॥________________
पादः, ३. ]
भाषाकासहितानि ।
योंका बल होता है अर्थात् दोनों जगह ग्रह बराबर स्थित हों तो जिस राशिपर उच्चका अथवा स्वराशिका वा मित्रगृहका ग्रह स्थित होवे वह राशि बली होता है ॥ ८ ॥
इसके अनन्तर राशियोंका निसर्ग बल कहते हैं । निसर्गस्ततः ॥ ९ ॥
उच्चादि वoके अनन्तर निसर्गबल ग्रहण करना चाहिये । भाव यह है कि यदि दोनों जगह उच्चस्थ वा स्वगृहस्थ वा मित्रगृहस्थ ग्रह विद्यमान होवे तो चरसे स्थिर और स्थिर से द्विस्वभाव इस रीति से जो कि राशि बली हो वह ग्रहण करना चाहिये ॥ ९ ॥ तदभावे स्वामिन इत्थंभावः ॥ १० ॥
जिस राशिका यह कहा हुआ कारकयोगादिवल न होवे तो उस राशि स्वामी काही यह कारकयोगादिवल ग्रहण करना चाहिये अर्थात् जिस राशिका स्वामी वही होता है वह राशिभी वली होता है ॥ १० ॥
आायोऽa विशेषात् ॥ ११ ॥
यदि एक राशिपर बहुत से ग्रह विद्यमान हों और उन ग्रहों राधादिकभी समान होवे तो उन ग्रहोंमें जो कि आग्रायत नाम अग्रगामी अर्थात् अधिक अंशवाला हो वह विशेषकर इस ग्रंथ में वली होता है ॥ ११ ॥
प्रातिवेशिकः पुरुषे ॥ १२ ॥
विषमराशिमें पार्श्ववर्त्ती ग्रह अपने बलके करनेवाला होता है। - भाव यह है कि विषमराशि से द्वितीय और द्वादश स्थानपर जो कि ग्रह स्थित हो वह अपने बलको उसी विषम राशि में देता है ॥ १२ ॥
१ यहाँ वृद्धवचन भी है . " अग्रहात्समहो ज्यायान् समहेष्वधिकग्रहः । साम्ये चर- स्थिरद्वन्द्वाः क्रमात्स्युर्वेलशालिनः ॥ " अर्थ - बिना ग्रहवाले से ग्रहवाला और ग्रहवालेसे, अधिक ग्रहाला राशि बली होता है और यदि इस प्रकारभी समानता होवे तो चरसे स्थिर और स्थिरसे द्विस्वभाव बली होता है ॥________________
*
जैमिनीयसूत्राणि ।
इति प्रथमः ॥ १३ ॥
[ अध्यायः २.
इस प्रकारसे राशियोंका प्रथम बल कहा है ॥ १३ ॥ स्वामिगुरुज्ञहग्योगो द्वितीयः ॥
१४
॥
स्वामीका योग और बृहस्पतिका योग और बुधका योग यह एक २ बारह राशियोंका बल होता है और स्वामीकी दृष्टि और बृहस्पतिकी दृष्टि और बुधकी दृष्टि यह एक २ बारह राशियोंका चल होता है । इस प्रकार जो कि छः वल है वह राशियोंका द्वितीय वल कहाता है । भाव यह है कि जिस राशिपर स्वामी बृहस्पति बुध इनका योग या दृष्टि होवे तो वह राशि चली होता है’ ॥ १४ ॥ स्वामिनस्तृतीयः ॥ १५ ॥
जो कि राशिके स्वामीका बल है वह राशिका तृतीय क्ल कहा है ॥ १५ ॥
- इसके अनन्तर स्वामीका बलाबल दिखाते हैं। स्वात्स्वामिनः कंटकादिष्व पारदौर्बल्यम् ॥ १६ ॥ आत्मकारकते केंद्र पणफर आपोक्किम इन स्थानोंके विष स्वामीकी क्रमसे अपारनाम शून्य एक द्विगुण दुर्बलता होवे है । भाव यह है कि आत्मकारकसे प्रथम चतुर्थ सप्तम दशम इन स्थानोंमें जिस राशिका स्वामी स्थित हो वह राशि और स्वामी पूर्ण वली होते हैं और आत्मकारकते द्वितीय पंचम सप्तम एकादश इन स्थानों- पर जिस राशिका स्वामी स्थित होवे वह राशि और स्वामा अर्द्ध- ‘बली होते हैं और आत्मकारकसे तृतीय षष्ठ नवम द्वादश इन स्थानों पर जिस राशिका स्वामी स्थित होवे वह राशि और स्वामी दुर्बल होता है’ ॥ १६ ॥
“ द्वितीये भावबलं चरनवांशे " इस अगले सूत्रमें जो कि भावबल ग्राहा है वह ‘यहां स्पष्ट किया है ।
२ " अपार " इस शब्दफा अर्थ कटपयादिसंख्या अनुसार हैं। कटपयादि संख्यामें स्वर शून्य माना जाता है इससे पकारका’ शून्य ‘अर्थ लेनेसे दुर्बलताकी श________________
पादः ३.]
"
भाषाकासहितांनि ।
चतुर्थतः पुरुषे ॥ चतुर्थ वलसेभी विषम राशिमें वल
९९
१७ ॥
होता है। भाव यह है कि
‘पापग्योगस्तुं गादिग्रहयोगः " इस सूत्र जो कि चतुर्थ बल कहा है उस वलसे विषमराशि ही बली होता है ’ ॥ १७ ॥ इसके अनन्तर निर्याणशूलदशा कहते हैं । पितृलाभप्रथम प्राण्यादिशूलदशानिर्याणे ॥ १८ ॥
लग्न और सप्तम इन दोनों में जो कि प्रथम बली होवे उससे आरम्भ करके जब कि लग्न सप्तमसंबन्धी उसी वली राशिसे प्रथम पंचम नवम राशिकी दशा आवे तब मृत्यु होता है । इस निर्याण- शूलदशामें प्रत्येक राशिके नौ २ वर्ष ग्रहण करने चाहिये ॥ १८ ॥ . इसके अनन्तर पिताकी निर्याणशूलदशा कहते हैं ।
पितृलाभपुत्रः प्राण्यादिः पितुः ॥ १९ ॥
लग्नसे और सप्तमसे जो कि नवम राशि है उन दोनों नवम राशियां में जो कि बलवान् होवे उससे आरम्भ करके जब कि लग्न- सप्तम के बली नवम राशि से प्रथम पंचम नवम राशिकी दशा आवे नव पिताका मृत्यु होता है ॥ १९ ॥
इसके अनन्तर माताकी निर्याणशूलदशा कहते हैं । आदर्शादिर्मातुः ॥ २० ॥
लग्नसे और सप्तमसे जो कि चतुर्थ राशि है उन दोनोंमें जो कि न्यता प्राप्त हुई अर्थात् पूर्ण बल रहा और आकारकी संख्या एक है इससे पाकारका एक अर्थ लेनेसे दुर्वलता एकगुणी रही अर्थात् अर्द्ध वल रहा और रकारकी संस्था दो है इससे रकारकी दो संख्ण रेनेसे दुर्बलता गुणी रही अर्थात् बलकी शून्यता रही ॥
’ कोई आचार्य इस स्त्रका यह अर्थ करते हैं कि विपमराशि में चतुर्थ बल है सो यह अर्थं योग्य नहीं क्योंकि ग्रंथकारका ऐसा अभिप्राय होता " चतुर्थः पुरुष ऐसा सूत्र होता तस्प्रत्यथ न होता। यदि कहो कि चतुर्थ बल कौनसा है इस शका’ दूर करनेको “ इति चत्वारः " ऐसा आग कहेंगे । यदि कहो कि फिर वह बल यहाँ दी क्यों नहीं कहा तहां जानना कि चतुर्थ बलका इस समय उपयोग नहीं इससे उप- योगी बल कहकर कुछ दशाओं को दिखाय आगे कहेंगे ॥________________
१००
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
बली होवे उससे आरम्भ करके जब कि लग्न सप्तमके बली चतुर्थ राशि से प्रथम पंचम नवम राशिकी दशा व्यावे तव माताका मृत्यु होता है ॥ २० ॥
इसके अनन्तर भ्राताकी निर्याणशूलदशा कहते हैं।
कर्मादिर्भ्रातुः ॥ २१ ॥
लग्नसे और सप्तमसे जो कि तृतीय राशि है उन दोनों तृतीय राशियोंमें जो कि बली होवे उससे आरम्भ करके जब कि लग्न सप्तमसे बली तृतीय राशिसे प्रथम पंचम नवम राशिकी दशा आवे भ्राताका मृत्यु होता है ॥ २१ ॥
इसके अनन्तर भगिनी पुत्र इन दोनोंकी निर्याणशू- लदशा कहते हैं । मात्रादिर्भगिनिपुत्रयोः ॥ २२ ॥
लग्नसे और सप्तमसे जो कि पंचम राशि है उन दोनों पंचम - • राशियोंमें जो कि बली होवे उससे आरम्भ करके जब कि लग सप्तम के बली पंचम राशि से प्रथम पंचम नवम राशिकी दशा आवे तब वहिनी और पुत्र इन दोनोंका मरण होता है ॥ २२ ॥ इसके अनन्तर ज्येष्ठ भ्राताकी निर्याणशूलदशा कहते हैं । व्ययादिज्यैष्ठस्य ॥ २३ ॥
लग्नसे और सप्तमसे जो कि एकादश राशि है उन दोनों एका- दश राशियों में जो कि बली होवे उससे आरम्भ करके जब कि लग्न सप्तमके वली एकादश राशिसे प्रथम पंचम नवम राशिकी दशा आवे तब बडे भ्राताका मरण होता है ॥ २३ ॥
इसके अनन्तर पितृवर्गकी निर्याणशूलदशा कहते हैं।. पितृवत्पितृवर्गः ॥ २४ ॥
है
लग्नसे और सप्तमसे जो कि नवम राशि है उन दोनों नवम ‘राशियोंमें जो कि बली है उससे आरम्भ करके जब कि लग्न सप्त- मके बली नवमराशिसें १ । ५ । ९ राशिकी दशा आवे तब पितृ-________________
पांदः ३. ]
भाषाटीकासहितानिः ।
वर्ग नाम पितृव्यादिकोंका मरण होता है । इस निर्माणशूलंदशाम सब जगह प्रत्येक राशिके नौ २ ही वर्ष होते हैं ॥ २४ ॥ इसके अनन्तर ब्रह्मदशा कहते हैं ।
ब्रह्मादिपुरुषे समा दासांताः ॥ २५ ॥
..जन्मलग्न विषम होवे तो जिस राशिमें ब्रह्मग्रह स्थित होवे उससे आरम्भ करके ब्रह्मदशा प्रवृत्त होवे है । ब्रह्मदशामें प्रत्येक राशिके वर्ष वे होते हैं जो कि राशिसे अपने छठे स्थानके स्वामी- तक संख्या है। भाव यह है कि अपनेते जितनी संख्यापर अपने छठे स्थानका स्वामी स्थित हो उतने वर्ष राशिके ब्रह्मदशा में होते हैं’ ॥ २५ ॥
स्थानव्यतिकरः ॥ २६ ॥
यदि जन्मलग्न विषम होवे तो जिस राशिपर ब्रह्मग्रह स्थित होवे उससे आरम्भ करके क्रमसे अन्य राशियोंकी दशा होवे है और यदि जन्मलग्न सम होवे तो जिस राशिपर ब्रह्मग्रह स्थित होवे उससे जो कि सप्तम राशि है उसकी प्रथम दशा तत्पश्चात् ‘उलटे क्रमसे अन्य राशियोंकी दशा होवे है । भाव यह है कि लन विषम होवे तो ब्रह्माश्रित राशिसे क्रमानुसार और सम लग्न होवे. तो ब्रह्मराशि व्युत्क्रमानुसार दशा लाई जाये है ॥ २६ ॥ इसके अनन्तर चतुर्थे बल कहते हैं ।. पापदृग्योगस्तुगादिग्रहयोगः ॥ २७ ॥
….. पापग्रहों की दृष्टि और योग राशिका वल होता है और अपने उच्च तथा मूल त्रिकोण तथा स्वराशि तथा अतिमित्रराशि तथ
१ शंका दासशब्दकरके पष्ठराशिके स्वामीका कैसे ग्रहण किया है ? क्योंकि कटप यादि संख्याद्वारा दासशब्द षष्ठकाही वाचक है । समाधान -पाठ राशिपर्यन्तही सब राशियोंके वर्ष लाने में बहतारे वर्षसे ऊपर वर्ष नहीं आ सक्ते इससे दासान्तशब्दका मस्वाम्यन्तं ऐसा अर्थ योग्य हैं। शंका- यदि कहो कि समस्त राशियोंकि वर्ष लाने में प्रज्ञाश्रित राशितही गणना होये है ऐसा अर्थ इस सूत्र का होना चाहिये । समाधान- यदि ऐसा सत्रार्थं होता तो “ पुरुषे ब्रह्मादिसमा दासान्ताः " इस प्रकार सूत्र होता है________________
.१०२
जैमिनीयसूत्राणि । … [ अध्यायः २.
मित्रराशि इनपर स्थित हुए शुभग्रहका योगभी राशिका व होता है’ ॥ २७ ॥
इसके अनन्तर प्रथमाध्यायमें वर्ष लानेमात्र कही हुई चरदशा में क्रमव्युत्क्रम भेद कहते हैं । .
पंचमे
पदक्रमात्प्राक्प्रत्यक्त्वम् ॥ २८ ॥
मेषराशिसे तीनं २ राशियोंका एक २ पद होता है इस प्रकार बारह राशियोंके चार पद होते हैं। प्रथम मेषादि विषम पद, द्वि- वीय कदि सम पद, तृतीय तुलादि विषम पद, चतुर्थ मकरादि सम पद है। यदि लग्नसे नवम स्थानमें विषमपदसम्बधी राशि होवे तो कमसे दशा रक्खे और यदि लग्नसे नवम स्थान में सम पद सम्बन्धी राशि होवे तौ उलटे क्रमसे दशा रक्खे चरदशामें दशाके आरम्भका अवधि लग्नही है चरदशा वर्ष तो " नाथान्ताः समाः प्रायेण " इस सूत्रद्वारा पहिले कर आये हैं । क्रमव्युत्क्रमभेद नहीं कहा था सो अब कह दिया ॥ २८ ॥
. चरदशायामत्र शुभः केतुः ॥ २९ ॥
इस चरदशामें केतु शुभग्रह माना जाता है अर्थात् केतु शुभ फलदायक होता है ॥ २९ ॥
इति श्रीजैमिनीय सूत्रद्वितीयाध्याये श्रीनीलकंठी यतिलकानुसृतभाषाका - यां श्री पाठक मंगलसेनात्मज काशिरामकृतायां तृतीयपादः समाप्तः ॥३॥
१ शका - तुंगादि और योग इन दोनोंका विभाग करके जो कि पंथाने तुंगादि बल और महयोगबल पृथक ग्रहण किया है सो यह पथवचन योग्य नहीं क्यों-
“पापहम्योग " इस सूत्रद्वारा जो कि पापयोगबल कहा सो " ग्रहयोगः " इसी पदसेही उस अर्थका तो लाम होनेसे पापहरू इस शब्द के अगार योगशब्दका प्रयोग करना हो जायगा । तिससे यह भाव हुआ कि पापग्रह कहीं भी स्थित हो उनके योग राशिका बल होता है और शुभग्रह जब कि उच्चादिमें स्थित होगे तब उनके भोगनें राशिका बल होवेमा इस प्रकार चार कारकयोग हैं तीन तौ पहिले कह दि ग्रह एक चतुर्थ है________________
पादः ४.].
माषादीका सहितानि ।
अथ चतुर्थपादः ।
द्वितीयं भाववलं चरनवांशे ॥ १ ॥
"
चरराशिकी नवांशदशा में द्वितीयभाववल फलादेश के लिये ग्रहणं करना चाहिये। भाव यह है कि " स्वामिगुरुज्ञहग्योगो द्वितीयः " इस सूत्र जो कि द्वितीयराशिवल कहा है वह चरराशिकी नवशद- शामें फल कहनेके लिये ग्रहण करने योग्य हे ॥ १ ॥ . इसके अनन्तर द्वारराशि और बाह्यराशि इन दोनों को दिखाते हैं । दशाश्रयो द्वारम् ॥ २ ॥
जिस कालमें जिस राशिकी चरस्थिरनामसे दशा होवे वह दशा- श्रय राशिद्वार कहता है और उसी को पाकराशिभी कहते हैं ॥ २ ॥ ततस्तावतिथं बाह्यम् ॥ ३ ॥
लग्नसे जितनी संख्यापर द्वाराशि होवे उस द्वारराशि से उतनीही संख्यापर बाह्यराशि होता है उस बाह्यराशिको भोगराशिभी कहते हैं’ ॥ ३ ॥
.
१ जन्मकालमें जिस राशि प्रयमकी दशाका प्रारम्भ होता है, वह राशिही लम- शब्दसे यहां ग्रहग करना चाहिये या तो जन्मलाही हो वा सप्तमराशि हो अथवा हाति राशि हो इनमेंसे जहां जिसका योग होवे वही दशा आरम्भको राशि राशिका अवधि होता है न कि केवल प्रसिद्ध लमही और यदि जन्मलमही पाक- राशिका अवधि माना जायेगा तो " स एव भोगराशिश्च पर्याये प्रथमे स्मृतः । “यह वाक्य- नहीं लगा क्योंकि जहां सप्तमसे वा ब्रह्माश्रित राशि दशाकी प्रवृत्ति है- तहाँ माकभोगराशि नहीं हो सकेंगे और वृद्धोंने पाकभोगराशि समस्त दशाओं में कहे हैं। “चरस्थिरद्विस्वभावेष्वोजेषु प्राक् क्रमो मतः । तेष्वेव त्रिषु युग्मेषु ग्राहं व्युत्क्रमतोऽखि- छम् ॥ एवमुखिखितो राशिः पाकराशिरिति स्मृतः । स एवं भोगराशिव याचे प्रथमे स्मृतः ॥ समायावतियः पाकः पर्याये यत्र दृश्यते । तस्मात्तावतियो भोगः पर्याये तत्र शृञ्जताम् ॥. तादं चरपर्यायास्थिरपर्याययोर्द्वयोः । त्रिकोणाख्यदशायां च पाकमी- गमकल्पनम् ॥” अ-केंद्रदशामें यदि चर स्थिर द्विस्वभाव राशि : विषमपद में होते तो________________
१०४
जामनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
इसके अनन्तर द्वारबाह्यराशियोंका फल कहते हैं’ । तयोः पापे बंधयोगादिः ॥ ४ ॥
यदि उन द्वारबाह्यराशियोंपर पाप ग्रह विद्यमान होवें तौ द्वार- बाह्यराशियोंकी दशामें बन्धनादि क्लेश होता है ’ ॥ ४ ॥ इसके अनन्तर उस उक्त दोषका अपवाद कहते हैं । स्वक्षेऽस्य तस्मिन्नोपजीवस्य ॥ ५ ॥
उस पापग्रहयुक्त द्वारराशि अथवा ब्राह्मराशिमें अपने राशिपर उस पापग्रहकी बृहस्पति के समीप स्थिति होवे तौ बन्धनादि क्लेश नहीं होता है । भाव यह है कि द्वारराशि अथवा बाह्यराशिमें स्थित हुआ पाप ग्रह अपने राशिमें बृहस्पतिके साथ संयुक्त होवे तो उक्त दोष नहीं होता है ॥ ५ ॥ “योग इस कहे हुए द्वारराशि अथश बाह्यराशिमें राशि ग्रह दोनोंसे प्राप्त हुए योगोंका समस्त शुभ अशुभ फल जानने योग्य है । भाव यह है कि राशि और ग्रह इन दोनोंसे उत्पन्न हुए जो योग है उनमें जो कि शुभ अशुभ फल कहा है वही फल द्वारराशि और बाह्यराशिमें जानना चाहिये ॥ ६ ॥
1
सर्वस्मिन् ॥ ६ ॥
इसके अनन्तर केंद्रदशा के आरम्भस्थानको दिखाते हैं ।
पितृलाभप्राणितोऽयम् ॥ ७॥
लग्न और सप्तम राशिमें जो कि राशि बली होवे उस राशिको आरम्भ करके केन्द्रदशा प्रवृत्त होवे है ॥ ७ ॥
क्रमले लिखे हुए राशि और चर स्थिर द्विस्वभाव राशि समपदमें होवें तौ उलटे रोति से लिखे हुए राशिपाक और भोंग नामसे होते हैं। लमते जितनी संख्यापर पाकराशि हो उतनी संख्यापर पाकराशिले भोगराशि होता है। पाकराशि और भोगरा चर- दशा और स्थिरदशा दोनोंमें होते हैं तथा त्रिकोण नाम देशामें भी पाकभोगकल्पना होती हैं.
3 इसमें वृद्धवाक्यभी प्रमाण है। “पार्क भोगे च पापादये देहपीडा मनौव्यथा । " २ इसमें वृद्धवचन भी प्रमाण है। “बलिनः शुकशशिनोः केन्द्राख्यां तु दर्शा नयेत________________
पादः ४.
भापाटीकासहितानि ।
इसके अनन्तर केन्द्रदशा के क्रमभेदोंको कहते हैं। प्रथमे प्राक्प्रत्यक्त्वम् ॥ ८ ॥
१०५
यदि लग्नसंबंधी बलवान् राशि चरसंज्ञक होवे तो अनु- for मार्ग कर केंद्रशाकम होता है । तिसमेंभी यदि लग्नसप्तमसं- .वन्धी बलवान् चर राशि विषम पदमें होवे तौ प्रथम द्वितीय तृती यादिक्रमसे केंद्रदशाका आरम्भ होता है ॥ ८ ॥ द्वितीये रवितः ॥ ९ ॥
यदि लग्नसंबंधी बलवान् राशि स्थिरसंज्ञक होवे तो विषम- समपदभेदसे छठे २ राशिके क्रमकर केंद्रदशाप्रवृत्ति जाननी भाव यह है कि लग्नसप्तमसंबन्धी बलवान् स्थिर राशि विषम पदमें हो तो सीधे क्रमसे छठा फिर उससे छठा राशि इस कमसे केंद्र शामवृत्ति होवे है और यदि लग्नसप्तमसंबन्धी वलवान् स्थिर राशि समपद में होने तौ उलटे मार्गसे छठे २ राशिकी केंद्रदशा हो ॥ ९ ॥
पृथक्कमेण तृतीये चतुष्टयादि ॥ १० ॥
यदि लग्नसप्तमसंबन्धी बलवान् राशि द्विस्वभावसंज्ञक होवे तौ विषमसमभेदसे चतुर्थादि केंद्रसे पृथक क्रमकरके अर्थात् लग्न पंचम नवमादिसे केंद्रदशा प्रवृत्त होवे है । भाव यह है कि लग्नसप्तमसंबन्धी amara द्विस्वभाव राशि विषमपद स्थित हो तो प्रथम तो उसकी फिर सीधे क्रमसे पंचम पणफरकी, फिर उससे पश्चात् नवम आपोक्किमकी तदनन्तर चतुर्थ केन्द्रकी तदनन्तर चतुर्थकेंद्र ते पंचम फणपरकी पश्चात् नवम पणफरकी तदनन्तर सप्तम केंद्रकी फिर सप्तम केंद्र से पंचम पणफरकी, फिर नवम आपोक्किमकी तदनन्तर दशम केंद्रकी, पश्चात् दशम केंद्रसे पंचम पणफरकी, फिर पुंरुमश्चेत्ततो नया खी चेदर्पणतो नयेत् ॥ " अर्थ यदि पुरुष जातकवाद होवे तो लम सप्तममें जो कि बली है उससे केंद्रदशा टावे और यदि बी जातकवता होवे तो केवल समतेही केन्द्रदशा लावे ॥________________
जैमिनीय सूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
१०६० नवम आपोक्किमकी. दशाप्रवृत्ति होवे है और यदि लग्नसप्तमसबन्ध बलवान् द्विस्वभाव राशि समपदमें होवे तौ प्रथम उसीके फिर उलर्ट रीति से पंचम पणफरकी फिर नवम आपोक्किमकी इत्यादि रीति से केंद्रशावृत्ति होवे है । इस केंद्रदशा में प्रत्येक राशिके नौ २ ह वर्ष ग्रहण करने चाहिये ॥ १० ॥
इसके अनन्तर कारककेंद्रादिदशा कहते हैं । स्वकेंद्रस्थाद्याः स्वामिनो नवांशानाम् ॥ ११ ॥ आत्मकारक से केंद्र पणफर आपोक्किम इन स्थानों में क्रमसे स्थित हुए राशि नवांशदशाओंके स्वामी होते हैं। भाव यह है कि या म- कारसे प्रथम केंद्रस्थित फिर पणकरस्थित फिर आपोक्किमस्थित जो कि राशि है वह क्रमसे नवांशदशाके वर्षोंके स्वामी होते हैं परन्तु तिसभी सबसे अधिक बली राशि प्रथमका फिर उससे कम वल- वाला द्वितीयका फिर उससे कम बलवाला तृतीयका इस रीतिसे सर्व दुर्बल पर्यंत जानने चाहिये। जैसे केंद्र में चार राशि स्थित होवे हैं उनमें जो कि अधिक बली है वह प्रथमका और उससे अल्पवल- वाला द्वितीयका इत्यादि रीतिसेही पणफर व्यपोक्किमस्थ राशियोंका विभाग करना चाहिये । अथवा आत्मकारकसे केंद्र पणफर आपोक्किम
१ इन तीनों सूत्रोंका फलितार्थं वृद्धोंने भी स्पष्ट किया है। " घरेऽनृज्झितमार्गः स्यात्पष्ठपष्ठादिकाः स्थिरे । उभये कंटका ज्ञेया उमपंचमभाग्यतः ॥ चरस्थिरद्विरयभा- वैष्वोजेषु प्राकक्रमो मतः । तेष्वेव त्रिपु युग्मेषु ग्राह्यं न्दुमतोऽखिरम् ॥ " सर्ग - चरमें आरम्भसे द्वितीयादि वा द्वादशादि क्रम्से स्थिरमें आरम्भसे क्रम न्युन म षष्ठषष्ठादि क्रमसे और द्विस्वभाव में आरम्भसे नमव्युत्क्रम भेदकर उन पंचम नवम - बकर क्रमसे चारों केंदोंकी दशा जाननी चर स्थिर द्विस्वभाव ये विषम पदमें होवें तौ क्रमसे और सम पदमें होवे तो व्युत्क्रमसे गिने ॥
२. यहां वृद्धवचन विशेष है। “ प्रतिमं नव वर्षाणि कारकाश्रयराशितः । जन्म सपार्ष्टिपत् क्षेमः प्रत्यरिः साधको वधः ॥ मैत्र- परममैत्रं चेत्येवमंतर्दशां नयेत् । " अ जिस राशिपर आत्मकारक स्थित होवे उस राशिसे आरम्भ करके प्रत्येक राशिके नौ..२ वर्ष होते हैं उन नौ वर्षोंके मध्य मत्येक वर्षके जन्म, संपत विपत क्षम, प्रत्यार साधक, वध इन नामों से अन्तर्दशां होवे है ॥________________
पादः ४.]
मापाटीकासहितानि ।
१०७
C.
इन स्थानोंमें स्थित हुए ग्रह नवग्रहोंके दिये हुए वर्षोंके स्वामी होते हैं । भाव यह है कि आत्मकारकसे प्रथम केंद्रस्थित फिर पर्णफ- रस्थित फिर आपोक्किमस्थित इन ग्रहोंकी क्रमसे दशा होवे हैं परन्तु ‘उन ग्रहोंके वर्ष वही होते हैं जो कि " स तल्लाभयोरावर्त्तने " इस सूत्रद्वार हैं। केंद्रस्थित ग्रहोंमेंभी प्रथम वलीकी फिर उससे कम वलीकी इत्यादि रीति से दशा जाननी चाहिये ॥ ११ ॥ इसके अनन्तर अन्य केन्द्रदशा कहते हैं । पितृचतुष्टयवैषम्यवलाश्रयः स्थितः ॥ १२ ॥
लग्नादि चारों केंद्रोंमें जो कि सबसे अधिक बलयुक्त राशि है वह प्रथम केंद्रदशाप्रद निश्चित किया हैं । भाव यह है कि केंद्रस्थित राशियोंमें जो कि अधिक वली है प्रथम उस राशिकी फिर अल्प- वलकेन्द्रस्थ राशिकी दशा होवे है इसी प्रकार पंणकर यापोक्किम स्थित राशियोंकी दशा होवे है । इस केन्द्रदशामें प्रत्येक राशिके नव वर्ष दशावर्ष होते हैं ॥ १२ ॥
इसके अनन्तर कारकादिदशा के वर्ष बनानेका विधान कहते हैं । स तल्लाभयोरावर्तते ॥ १३॥
सो आत्मकारक लग्न और सप्तम इनके विषे वर्तता है। भाव यह है कि लग्न और सप्तमसे विषम समपदसे अनुसार व्युत्क्रमसे आत्मकारकपर्यंत गिने लग्न सप्तम दोनोंके बीच जिससे आत्मकारकपर्यन्त गिननेसे राशिसंख्या अधिक आवे वही संख्या आत्मकारक कारकेन्द्रादिदशामें वर्ष जाने और अन्य ग्रहांक मध्य ग्रहसे आत्मकारकपर्यन्त विषमसमपदके अनुसार क्रमव्यु- कम रीति से गिननेसे जितनी संख्या आवे वही वर्ष उस ग्रहके कारकेन्द्रादिदशा में होते हैं परन्तु जो कि ग्रह आत्मकारकके साथ
१ यह अर्थमी सूत्रकारको समत है क्योंकि सूत्रका यह अर्थ न किया जावेगा तो ८ स तचाभयरावर्त्तते, " यह सूत्र व्यर्थ हो जावेगा ॥________________
१०८
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
युक्त होवे उसके दशावर्ष आत्मकारक के वर्षोंके बराबर होते हैं’ ॥१३॥ इसके अनन्तर फल कहते हैं । स्वामिबलफलानि च प्राग्वत् ॥ १४ ॥
दशाके स्वामी जो कि राशि और ग्रह हैं उनके बल और फल पूर्वोक्त शाखवत जानना चाहिये ॥ १४ ॥
इसके अनन्तर मंडूकदशा कहते हैं । स्थूलादर्शवैषम्याश्रयो मंडूकस्त्रिकूटः ॥ १५ ॥
लग्न और सप्तम इन दोनों में जो कि राशि बलवान् हो उससे आरम्भ करके मण्डूकदशा प्रवृत्त होवे है \। प्रथमदशा केन्द्रस्थ राशि- योंकी पश्चात् पणफरस्थ राशियोंकी फिर व्यपोक्किमस्थ राशियोंकी pha है \। तिसभी केन्द्रस्थ पणफरस्थ आपोक्किमस्थोंमें प्रथम दशा • अधिक वलीको फिर उससे न्यून वलीकी इत्यादि क्रमसे दशाप्र- वृत्ति होते है और यदि पुरुष जातकवान होवे तो लग्न सप्तममें जो अधिक वली हो उससे मडूकदशा प्रवृत्त होवे है और यदि स्त्री जातकवती होवे तो बलयुक्त सप्तम राशिसेही मण्डूकदशा प्रवृत्त होवे है ॥ १५ ॥
१ इस ग्रहदशाके बनाने में वृद्धवाक्य प्रमाण है। " ल्यात्कारकपर्यन्तं सप्तमाहा दशां नयेत् । उभयोरधिका संख्या कारकस्य दशासमाः ॥ तयुक्तानां च शल्यं प्रत्येक ‘स्पर्दशाः क्रमात् । महाः कारकपर्यन्तं संख्यान्यस्य दशा भवेत् ॥ कारकस्तद्युत्त यादी तत्केन्द्रादिस्थितास्ततः । दशाक्रमेण विज्ञेयाः शुभाशुभफल्मदाः ॥ " अर्थ - ला या सप्तेम दोनोंमेंसे विपमसम पदानुसार जिससे कारकपर्यन्त संख्या अधिक आवे बही वर्ष दशामें कारक के होते हैं। जो कि यहकारकके साथ युक्त होवें उस ग्रहके वर्ष कारकके वर्षोंके बराबर होते हैं और ग्रहोंके वर्ष बेही होते हैं जो कि ग्रहसे कारकप- यन्त गिनने से संख्या होवे है। जहां कारक स्थित होवे उसको केन्द्र मानकर प्रथम केन्द्रस्य बलियों की दशा होवे हे तत्पश्चात् अल्पबलियोंकी इसी प्रकार पणफरभापौ- हिमस्योंकी दशा जाने ॥
"
२ इसमें वृद्धवचनभी है। " बलिनः शुक्रशशिनोज्ञेया मंडूकदा दंशा । पुरुषथे– ततो नया श्री चेंदणतो नयेत् ॥ " अर्थ-लम सप्तम इनके मध्य जो कि बली होवे इससे यदि पुरुष जातकवान् होवे तो मड्कदंशा प्रवृत्त होते है भीर खो जातकवती________________
पादः ४.]
भाषाटीका सहितानि ।
इसके अनन्तर फल कहनेके लिये शूलदशा कहते हैं ।
निर्याणलाभादिशुलदशाफले ॥ १६ ॥
१०९
.. मरणकारक राशिसे जो कि सप्तम राशि है उससे आरम्भ करके शुभाशुभ फल कहने के निमित्त शूलदशां प्रवृत्त होवे है। यह शूलदशा अनेक प्रकारकी होते है क्योंकि रुद्रशूल और रुद्राश्रय राशि और महेश्वराश्रय और मारकराशि ये सब मरणकारक स्थानही हैं। यहां शूलदशा भी प्रत्येक राशिके नव २ वर्ष ग्रहण करना चाहिये ॥ १६॥ इसके अनन्तर जिन दशाओं में कि कोई विशेष विधान
नहीं ऐसी समस्त साधारण दशाओंके आरम्भ में तथा वर्ष लाने में कुछ विशेष कहते हैं ।
पुरुषे समाः सामान्यतः ॥ १७ ॥
जिन दशाओं में कि विशेष विधान नहीं उन समस्त दशाओं में यदि आरम्भ राशि विषम होवे तो विषम सम पदानुसार क्रमव्यु- क्रम रीति से उसी आरम्भराशिसे दशाप्रवृत्ति होवे है और सामान्यसे प्रत्येक राशिके न २ वर्ष होते हैं और यदि आरम्भ राशि सम होवे तो उस आरम्भ राशि से जो कि सप्तम राशि हैं उससे आरम्भ करके विषमानुसार क्रमव्युत्क्रम रीतिसें दशाप्रवृति होवे है’। कोई आचार्य इस सूत्र की यह व्याख्या करते हैं कि यदि पुरुष जातकवान होवे तो आरम्भरा शिसेही दशा प्रवृत्त होवे है और यदि खी जाती होय तो आरम्भराशिसेही जो कि सप्तम राशि है उससे दशा प्रवृत्त होवे है ॥ १७ ॥
होवे तो बलवान् सप्तमसेही मंदूकदशा प्रवृत्त होवे है । मण्डकदशामें प्रत्येक राशिके नब २ वर्ष ग्रहण करने चाहिये। चर स्थिर हिस्वभावरूपं त्रिकूटघटित होनेसें अग्रवा केन्द्रादि त्रिसमुदायघटित होनेसे इस दशाका त्रिकूट नाम है ॥.
१ इसमेंभी वृद्धवचन है। “ ओजे लयं तदेव स्याद्युग्मे तत्सप्तमं भवेत् । दशौज- क्रमतो ज्ञेया युग्मे व्युत्क्रमतो मता ॥ " अर्थ - विषमराशिमें उम होवे तो उसीसे और सम राशिमें लम हावे तो उससे सप्तम राशिसे क्रमव्युत्क्रमरी तिसे दशा होवे है २ इसमेभी युद्धवचन है ।” पुरुषश्चेत्ततो नया स्त्री दर्पणती नयेत्
॥________________
११०
जैमिनीयसूत्राणि ॥
[ अध्यायः २.
इसके अनन्तर नक्षत्रदशा कहते हैं ।
सिद्धा उड़ाये ॥ १८ ॥
विंशोत्तरी व्यष्टोत्तरी आदिक रूप नक्षत्रायुर्दायमें जातकान्तर- प्रसिद्ध वर्ष ग्रहण करने चाहिये ’ ॥ १८ ॥
इसके अनन्तर योगार्द्ध दशा कहते हैं।
जगत्तस्थुषोर योगा ॥ १९ ॥
प्रत्येक राशिके आये हुए चरदशांवर्ष और स्थिरदशावर्षको जोडकर आधा करे जो वर्ष आवें वही वर्ष योगार्द्धदशा के होते हैं । माव यह है कि चरदशा में जिस राशिके जितने वर्ष होवें और जितने वर्ष स्थिरदशा में होवें उन दोनों को जोड लेवे फिर आधा करे जो वर्ष होवे वेही उस राशिके योगार्द्धदशा में होते हैं ॥ १९ ॥
1
१ अथ विंशोत्तरीदशासाघन अन्यजातकसे लिखते हैं । भरण्यवाधि गण्यते । नवभिस्तु दद्भागं शेषं सूर्यादिका
“छत्तिकामवधिं कृत्वा
दशा ॥ घटादित्ये दश सप्त वर्षाणि भूमिजे । अष्टादश तथा राहो पोडश च वृहस्पती ॥ एकोन- विशतिर्मदे बुधे सप्तदशैव च । सप्त वर्षाणि केतौ च विंशतिर्भार्गवे तया ॥ विंशोत्तरी- बंज्ञा ज्ञेया भोगवर्षाणि निश्चितम् । " अर्थ कृत्तिकासे लेकर जन्मनक्षत्रतक गिने संख्या ९ का भाग देवे एक बचे तो सूर्य, दो बचे तो चंद्रमा, तीन बचे तो मंगल, चार बचे तो राहू, पांच बचे तो बृहस्पति, छः बचे तो शनैश्वर, सात बचे तो बुध,
वर्ष
सूर्यादि ग्रहोंके होते
बचे तो केतु, शून्य बचे तो शुक्रकी प्रथम विंशोत्तरी दशा होवे है। सूर्यके ६ वर्ष, चंद्रमा १० वर्ष, मंगलके ७ वर्ष, राहुके १८ वर्ष, बृहस्पति १६ वर्ष, शनै- आरके १९ वर्ष, दुषके १७ वर्ष, केतुके ७ वर्ष १ क २० विंशोत्तरी दशा में होवे हैं। यदि स्पष्ट परमायुः १२ वर्षकी होवे तो यह कहे हुए वर्ष हैं और यदि स्पष्ट परमायुः १२० वर्षसे कम आये तो राशि रिसे प्रत्येक मह शायनी स्पष्ट करे। जैसे स्पष्ट परमायुको सूर्यादिकों के कहे हुए वर्षोंसे गुणे १२० का भाग देवे जो तम्य मिले वह सूर्यादिकोंके स्पष्ट परमायु में स्पष्ट वर्षादि होते हैं। परमायुके स्पष्ट करनेकी रीतिभी अन्य जातकसे लिखते
"
जन्मक्षयात घटिका वेदना रामभाजिताः। उपमभ्रातः शेोध्यं शेषमायुः स्फुटं भवेत् ॥ " अर्थ- ‘जन्मनक्षत्र के स्पष्ट घटिका जितने व्यतीत हुए हो उनको ४ से गुणकर ३ का माग देवे जो सब्ध आवे उनको १२• मेसे घटा देवे जो शेष रहे वही स्पष्ट परमायु होव है । अन्य अष्टोत्तरी आदि का विवरण विस्तरभयसे नहीं लिखा है ॥________________
पदः-४.]
भाषाटीकासहितानि ।
- इसके अनन्तर योगार्द्धदशा के आरम्भराशिको कहते हैं. ।. स्थूला दर्शवैपम्याश्रयमेतत् ॥ २० ॥
१११
म और सप्तम दोनों से जो कि बली होवे उसके आश्रय यह योगादशा होवे है। भाव यह है कि यदि लग्न सप्तमसे जो कि बली होवे उससे विवम सम पदानुसार क्रमव्युत्क्रम रीति से योगार्द्धदशा - प्रवृत होवे है । यदि स्त्री जातवती होवे तो बलवान् सप्तमसेही मौर पुरुष जातकवाद होवे तो लभ सप्तम दोनोंमें बलीसे योगा- दशाका आरम्भ होता है ’ ॥ २० ॥
इसके अनन्तर हग्दशा कहते हैं । कुजादिस्त्रिकूटपदक्रमेण दृग्दशा ॥ २१ ॥
लग्नसे नवमादि त्रिकूटपदक्रमकरके दृग्दशा होते हैं । भाव यह है कि उनसे जो कि नवम राशि है प्रथम उसकी फिर वह राशि जिन राशियोंको दृष्टिचक्रमें देखता हो उनकी क्रमानुसार दशा होती हैं फिर लग्नसे जो कि दशम राशि है उसकी पश्चात् वह दशम राशि जिन राशियों को दृष्टिक्रम देखता हो उनकी क्रमानुसार होवे है फिर • नसे. एकादशराशिकी फिर एकादशराशि दृष्टिचक्रमें जिन राशि- योंको देखता है उनकी क्रमानुसार दशा होवे है । लग्नसे नवम दशम एकादश राशियोंकी हग्दशा होवे है। नवम हग्दशा, दशम हग्दशा, एकादश हग्दशा यह फलितार्थ है ’ ॥ २१ ॥
१ ऐसा वृद्धोंने भी कहा है। “बलिनस्तु दशा नेया राहोहिं शशिशुकयोः । खीच- हर्षणतो नेया पुरुषश्चेत्ततो नयेत् ॥ "
२ लसे प्रथम नवम राशिकी हग्दशाकी फिर दृष्टिचक्र में नवमका जो कि सतम राशि है उसकी निमसे कहीं क्रमसे और कहीं व्युत्क्रमसे पंचम राशिको फिर नवमसे कहीं क्रमसे कहीं व्युत्क्रमसे एकांदशराशिकी दशा होव है । फिर उमसे दशम एकादश राशियोंकी इसी प्रकार हग्दशा जाननी । शंका- नवम दशम एकादश इनसे प्रथम संमुख राशि कैसे कही क्योंकि प्रमाणन होनेसे हम प्रथम पंचम राशिका ब्रह कर सक्ते हैं। समाधान-” अभिपश्यत्यक्षाणि पार्श्वमे च " दृष्टिविषयमें प्रथम सब शशि अपने सम्मुख राशियोंको देखते हैं पश्चात् पाश्र्श्वराशियोंको देखते हैं ऐसा इन सूत्रोंका अभिप्राय होनेसे प्रथम पंचम राशि नहीं ग्रहण की है ॥
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११२
जैमिनीय सूत्राणि
[ अध्यायः २.
मातृधर्मयोः सामान्यं विपरीतमोजकूटयोः ॥ २२ ॥ . यथा सामान्यं युग्मे ॥ २३ ॥
पंचम एकादश इन दोनोंका क्रम विपम पदमें तौ विपरीत है और सम पदमें यथार्थ है । वृप वृश्चिक विषमपदी हैं इससे विपरीत रीति से पंचम एकादश ये दोनों दृष्टियोग्य हैं और सिंह कुम्भ समपदी हैं इससे विपरीत रीति से पंचम एकादश ये दोनों दृष्टियोग्य . होते हैं । द्विस्वभाव राशिमें पंचम एकादश दृष्टियोग्य है नहीं तहां यह क्रम है कि लग्नसे नवम, दशम एकादश इन स्थानों में दिखभाव राशि होवे तौ प्रथम उन्होंकी फिर उनसे सप्तमकी फिर यदि द्विस्व- भाव राशि विषम होवे तौ क्रमसे चतुर्थ दशमकी और यदि सम . होवे तौ उलटे रीति से चतुर्थं दशमकी दशा होवे है। भाव यह है कि लग्न से नवमादि स्थानों में चर राशि होवे तो क्रमसे पंचम नवम इन राशियोंकी हग्दशा होवे है और लमसे नवमादि स्थानोंमें स्थिर राशि होवे तौ उलटे रीति से पंचम एकादश इन राशियों की हग्दशा होते है और तिसी प्रकार पार्श्वराशिदशाकम जानना और लग्नसे नवमादि स्थानों में द्विस्वभाव राशि होव तो प्रथम नवमादिककीही दशा होवे है फिर सप्तमकी फिर यदि द्विस्वभाव दिपम होवे तो क्रमसे चतुर्थकी फिर दशमकी दशा होवे है और यदि द्विस्वभाव सम होवे तौ उलटे क्रमसे चतुर्थकी फिर दशमकी दशा होवे है । इस हग्दशा भी प्रत्येक राशिके नव २ वर्ष ग्रहण कर्त्तव्य’ हैं ॥ २२ ॥२३॥ इसके अनन्तर त्रिकोणदशा कहते हैं । पितृमातृधर्मप्राण्यादित्रिकोणे ॥ २४ ॥
१. यदि उमसे नवममें चर राशि होवे तो प्रथम तो उसी नवमको फिर नयमसे . जो कि अष्टम पंचम नवम राशि हैं उनकी क्रमसे दशा होवे है और यदि स्थिर राशि हावे- तौ प्रथम तो उसी नवमकी फिर नवमसे उल्टे क्रमसे पष्ठ, पंचम, नवम इन राशि- योकी दशा होवे.. है और यदि द्विस्वभाव राशि होवे तो प्रथम तौ उसी नयमको फिर द्विस्वभाव राशि विषम होवे. तो क्रमसे सप्तम चतुर्थ दशमको और सम होवे तो उल्ट क्रमसे सप्तम चतुर्थ दशमकी दशा होते है। इसी प्रकार लयसे दशम एकादश इन स्थानों की दशा जाने \। यह स्पष्ट भावार्थ है ॥
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पादः ४.].
मापाटीकासहितानि ।
१९३
लग्न पंचम नवम इन राशियोंमें जो कि बली होवे उससे त्रिको- दशाका आरम्भ होवे है। आरम्भराशि से लेकर क्रमसे और व्युत्क मसे द्वादशराशियोंकी दशा होवे है। भाव यह है कि यदि पुरुष - जातकवान् होवे तौ आरम्भराशिसे लेकर क्रमसे द्वादश राशियोंकी दशा होवे है और स्त्री जातकवती होवे तौ आरम्भराशिसे लेकर . उल्टे क्रमसे द्वादश राशियोंकी दशा होवे है । त्रिकोणदशाके वर्ष ‘चरदशा के समान जानने ’ ॥ २४॥ ·
इसके अनन्तर त्रिकोणदशाका फल कहते हैं ।
तत्र वाह्याभ्यां तद्वत् ॥ २५ ॥
त्रिकोणदशामें द्वारबाह्यराशियोंकी कल्पना कर पूर्वोक्त दशा- समानही फल जाने ॥ २५ ॥
घारिकात्पत्नी करात्कारकैः फलादेशः ॥ २६ ॥ सप्तम तृतीय प्रथम नवम इन स्थानोंसे तत्तत्कारकोंद्वारा फला- देश कर्तव्य है । भाव यह है कि सप्तमसे स्त्रीविवार तृतीयसे छोटे भ्राताका और आत्मकारक से अपना और नवमसे पिता और धर्मका बिचार कर्त्तव्य है ॥ २६ ॥
इसके अनन्तर नक्षत्रदशा कहते हैं । तारकांशे मंदाद्यो दशेशः ॥ २७ ॥
१ इसमें वृद्धवचन प्रमाण है। " रमत्रिकोणया राशिर्वलयामुक्त हेतुभिः । तदार- भ्योन्नयेच्छ्रीमच्च (पर्यायवद्दशा ॥ युग्मराशिभृव पुंसामोनं गृहीत सम्मुखम् । ओजरा- शिव खीणां युग्मं गृहीत संमुखम् ॥ आजराशिभुषां पुंसां गृह्णीयादोजमेव तु । युग्म- राशिभुवां खीणां युग्ममेव समाश्रयेत् ॥ क्रममाभ्या गणयेोजयामेषु राशिषु ॥ " अर्थ- पंचम नवम इन राशियों में बली राशिले त्रिकोणदशाका आरम्भ होता है। परन्तु त्रिकोणदशाके वर्ष “नायान्ताः” इस सूत्र की कही रीति के अनुसार जाने इससे यह दशा चरदशासमान कही है । यदि पुरुष जातकवान् होवे तो आरम्भदशासे लेकर क्रमसे द्वादश राशियों की दशा होवे है और क्रमही प्रत्येक राशिके वर्ष राशि स्वामी- पर्यन्त गिननेसे होते हैं और यदि श्री जातकवती होवे तो उलटे क्रमसे द्वादश राशियोंकी दशा होवे है और उलटे क्रमसेही राशिसे स्वामी पर्यन्त गिननेसे. वर्ष होते हैं ॥
२ ऐसा वृद्धोंने भी कहां है। “ तदिदं चरपययस्थिरपयियोर्द्वयोः । त्रिकोणदशायां च पाकभोगप्रकल्पनम् ॥ " इसका अर्थ सुगम है और पहिले लिखभी आये हैं ॥
८________________
११४
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्यायः २.
जन्मदिन जो कि चंद्रमाका नक्षत्र है उसके समस्त घटिका जितने होवे उनके बारह विभाग करे प्रथम भागसे लेकर बारहों विभाग में क्रम से लग्नादि द्वादश राशि होवे हैं। जिस विभागमें जन्म होवे उस विभाग की जितनी संख्या होवे उस संख्यातक लभसे लेकर गिने जो कि राशि आवे उससे लेकर यदि पुरुष जातकवान् होवे तो कमसे और स्त्री जानवती होवे तो उलटे क्रमसे द्वादश राशि - यी नक्षत्रदशा होवे है \। नक्षत्रदशामेंभी प्रत्येक राशिके नव २ वर्ष होते हैं ॥ २७ ॥
तस्मिन्नु नीचे वा श्रीमंतः ॥ २८ ॥
नक्षत्रका स्वामी यदि उच्च में अथवा नीच राशिमें हो तो उत्पन्न हुए नर लक्ष्मीवान् होते हैं। भाव यह है कि जन्मनक्षत्र के समस्त घटिकाओं के बारह खण्ड करनेसे जिस खण्डमें जन्म होवे उसकी संख्याको लमसे आरम्भ करके गिने जहां समाप्त होवे उस राशिको नक्षत्रलम कहते हैं। यदि नक्षत्र उनका स्वामी उच्च अथवा नीच होवे तो मनुष्य लक्ष्मीवान् होता है ॥ २८ ॥ स्वमित्र किंचित् ॥ २९ ॥
यदि नक्षत्र का स्वामी अपने मित्रगृह में स्थित होवे तो कुछ थोडी लक्ष्मीवाला होता है ॥ २९ ॥
दुर्गतोऽपरथा ॥ ३० ॥
यदि, नक्षत्रका स्वामी शत्रुराशिमें स्थित होवे तौ दरिद्र होता है ’ ॥ ३० ॥
१ ऐसा वृद्धोंने भी कहा है। “ जन्मतारे द्वादशधा विभक्ते यत्र चंद्रमाः । ख्यात्ता- यतिथे राशी न्यसेदायदशाधिपम् ॥ स मयुच्चेऽथ वा नीचे तदा स्यादाजसेवकः । स्वामि- त्र सुखी शत्रुराशी निःस्वः समे समः ॥” अर्थ- जन्मनक्षत्रघटिकाओं के बारह विभाग करे जिस विभागमे जन्म होवे उसकी जितनी संख्या है। वे वह संख्या लमते लेकर जिस राशिपर समाप्त होवे उसकी प्रथम दशा होते है। यदि उस राशिका स्वामी उवा नाच राशि होवे तो राजसेवक होता है और मित्रराशिपर हो तो सुखी होता है और यदि शत्रु राशिमें स्थित होवे तो निर्धन होता है और यदि सम राशिपर विवौ सम होता है ॥________________
पादः ४. ]
भाषाटीकासहितानि ।
स्ववैषम्ये यथा संक्रमव्युत्क्रमौ ॥ ३१ ॥
१.१५
आत्मकारककी विषमता होवे तौ राशिस्वभावानुसारही क्रम arai जानने । भाव यह है कि आत्मकारक यदि विषमपद और विषम राशिमेंही स्थित होवे तो अन्तर्दशाका भोग क्रमानुसार होता है और यदि आत्मकारक विषम पदमें सम राशिमें स्थित होवे तो अन्तर्दशाका भोग उलटे क्रमने होता है ॥ ३१ ॥
साम्ये विपरीतम् ॥ ३२
॥ आत्मकारककी समता होवे तो क्रमके स्थान में व्युत्क्रम और पके स्थान क्रम होता है। भाव यह है कि आत्मकारक सम पद समराशिपर स्थित होवे तो अन्तर्दशा का भोग क्रमानुसार होता है और आत्मकारक समद मिराशिपर स्थित होवे तो अन्तर्दशा का भोग उलटे क्रम से होता है ॥ ३२ ॥
शनो चेत्येके ॥ ३३ ॥
जिस प्रकार कि आत्मकारक में विषम सम पदके मेदसे क्रम व्युत्क्रम और व्युक्रम क्रम ये होते हैं तिसी प्रकार शनैश्वर के विवें होते हैं ऐसा कोई आचार्य कहते हैं । भाव यह है कि शनैश्वर विषम पद और विषम राशिमें स्थित होवे तो क्रम और यदि शनैश्वर विषम पदमें सम राशिपर स्थित होवे तो व्युत्क्रम होता है और यदि शनै- श्वर समपद सम राशिपर स्थित होव तो क्रम और समपदमें विषम राशिपर स्थित हों तो व्युत्क्रम होता है ॥ ३३ ॥
अंतर्भुक्तशयोरेतत् ॥ ३४ ॥
आत्मकारककी अन्तर्दशा में और उपदशामेंही यह रीति जाननी न कि अन्य जगह ॥ ६४ ॥
इसके अनन्तर दशाफलविशेष कहते हैं।
शुभा दशा शुभ वायुच्चे वा ॥ ३५ ॥ जो कि राशि शुभ ग्रह युक्त होने अथवा उच्च महते युक्तः________________
११६
जैमिनीयसूत्राणि ।
[ अध्याय २०
होवे अथवा जिसका स्वामी उच्च राशिमें होवे तो उस राशिको दशा शुभ होवे है ॥ ३५ ॥
अन्यथान्यथा ॥ ३६ ॥
और जो कि राशि न शुभ ग्रहसे न मित्र ग्रहसे न उच्च ग्रहसे युक्त होवे तौ उस राशिकी दशा सम होवे है और जो कि राशि नीचादि ग्रहोंसे युक्त होवे उसकी दशा अशुभ होवे है \।\। ३६ \। सिद्धमन्यत् ॥ ३७ ॥
जो कि विषय इस ग्रन्थमें नहीं कहा है और अन्य शास्त्रमें प्रसिद्ध है वह अन्य शास्त्र से ही लेना चाहिये ॥ ३७ ॥ इति श्रीजैमिनीयसूत्र द्वितीयाध्याये श्रीनीलकंठीया तिलकानुसृ- भाषाटीकायां श्री पाठकमंगल सेनात्मजकाशिराम- कृतायां चतुर्थपादः समाप्तः \।\। ४ \।\।
श्रीमन्मंगलसेनमनुप्रवर श्री काशिरामो ह्यभू- द्वाषा जेमिनिसूत्र के विरचिता तेन वाणांकको \।\। संवच्चाश्विनमासि पर्वणि तिथौ चंद्रक्षये विद्दिने
विद्वद्भिः खलु दृश्यतां शुभदृशा संशोध्यतां यत्रुटिः ॥ १ ॥ दोहा - जिला मुरादाबादके, अन्तर्गत ढाढोलि ) पैजोई थाना निकट, काशिराम कुलमौलि ॥ १ ॥ तिन रचि जैमिनिसूत्रपर, नीलकंठ अनुसार । भाषा गंगाविष्णुके, अर्पण कियो सुधार ॥ २ ॥
पुस्तक मिलनेका ठिकाना -
गंगा विष्णु श्रीकृष्णदास, “लक्ष्मीवेंकटेश्वर ” छापाखाना कल्याण - मुंबई.________________
अथ तृतीयोऽध्यायः ।
अथ राजजनिताभ्यां योगे योगे लेयान्मेषाधिपः॥ १ ॥ उच्चनीचत्वांश्वती तादृशदृष्टिश्व शुभमातृदृष्टे यदि महाराजः \।\।२\।\। लेयलाभयोः परकाले ॥३॥ लाभलेया- भ्यां स्थानगः ॥ ४ ॥ तत्र शुकचंद्रयोर्यानवंतः ॥ ५ ॥ तत्र शनिकेतुभ्यां गजतुरगाधीशः ॥ ६ ॥ शुक्रकुजकेतुषु स्वभाग्यदारेषु स्थितेषु राजानः ॥ ७ ॥ पितृलाभधन- ‘प्राणयोश्च ॥ ८ ॥ पत्नीलाभयोः समानकालः ॥ ९ ॥ भाग्यदारयोर्ग्रहयुक्तसमानेषु सांप्रतः ॥ १० ॥ तत्र उच्चे करसंख्या राज्ञां च ॥ ११ ॥ पितृधर्मयायला भयोर्गुरौ चंद्रशुभहग्योगे मंडलांतः ॥ १२ ॥ तत्र बुधगुरुहम् योगे युवजो वा ॥ १३ ॥ तस्मिन्नुच्चे नीचे पितृलाभयोः श्रीमंतः ॥ १४ ॥ स्वभावनाथाभ्यां शुक्र चन्द्रहग्यो- गयोः ॥ १५ ॥ तत्र शुभवर्गेषु श्रीमंतः ॥ १६ ॥ दार- शूलयो चंद्रगुरौ ॥ १७ ॥ शूले चंद्रे रिः फगुरौ धनेषु शुभेषु राजानः ॥ १८ ॥ पत्नीलाभयोश्च ॥ १९ ॥ एवमंशतो दृक्काणतश्च ॥ २० ॥ लेयलाभश्चंद्रे गुरौ शुभ- हग्योगे महांतः ॥ २१ ॥ लाभचंद्रेऽपि ॥२२॥ पापयो- गाभावे शुभदृग्योगिनि च ॥ २३ ॥ अत्र शुभहग्योगे राजप्रेष्यः ॥ २४ ॥ शुभवर्जेषु त्रिकोणकेंद्रे वा ॥२५ ॥ स्वाशयोगे राजवंशः ॥ २६ ॥ उच्चांशे तादृशदृष्टिश्व________________
जैमिनीय सूत्राणि[”.
राजराजा वंश्यो वा ॥ २७ ॥ अशुभहग्योगान्न चेन्न चेन्न ॥२८॥ पंचमांश पदेऽपि समेषु शुभेषु राजानो वा ॥ २९ ॥ स्वलेयमेाभ्यां राजचिह्नानि ॥ ३० ॥ इत्युपदेशसूत्रे तृतीये प्रथमः पादः ॥ १ ॥
यज्ञजनेशाभ्यां स्वकारकाभ्यां निधनम् ॥ १ ॥ निधनं लेयलाभयोः प्राणिनाम् ॥ २ ॥ गुरौ केंद्रे मंदा- राभ्यां दृष्टे शनिभोगतो कक्ष्यापवादः ॥ ३ ॥ रिपुरोगयोश्चंद्रे \।\। ४ \।\। स्वभावमैश्च ॥ ५ ॥ रोग- गयोर्वा ॥ ६ ॥ तत्र शनौ प्रथमम् ॥ ७ ॥ राहोहिं - तीयम् ॥ ८ ॥ केतोस्तृतीयं निधनम् ॥ ९ ॥ तु त्रिकोणेषु ॥ १० ॥ चरे प्रथमम् ॥ ११ ॥ स्थिरे : • मध्यमम् ॥ १२॥ द्वंद्वे ऽन्त्यम् ॥१३॥ एवं चरस्थिरद्वंद्वचः राभ्याम् ॥१४॥ स्वपितृचन्द्राः ॥ १५ ॥ तत्र शनिकक्ष्या- हृसः ॥ १६ ॥ रिपुषष्ठाष्टमयोश्च ॥ १७ ॥ प्रथममध्य- मयोरंत्यमध्यमयोर्वा ॥ १८ ॥ शुभहग्योगान्न ॥ १९ ॥ पितृलाभेशयोरस्यैव योगे वा ॥ २० ॥ अप्रसंगवादा- स्प्रामाण्यं रोगयोः प्राणिसौरदृष्टियोगाभ्याम् ॥ २१ ॥ द्वारबाह्ययोरपवादः ॥ २२ ॥ द्वारे चंद्रहग्योगान्न ॥२३॥ - केवल शुभसंधे बाह्य च ॥ २४ ॥ लेयरोग राश्रयेऽपि ॥ २६ ॥ रोगक्षेत्रिकोणदशाब्दे ॥ २६ ॥ रोगनवांशदशा- भ्यां निधनम् ॥ २७ ॥ तत्रापि शनियोगे ॥ २८ ॥ मिश्र शुभयोगान्न ॥ २९ ॥ उमेद्बोभवे स्वलाभयोर्भावयोः________________
तृतीयोऽध्यायः ।
११९.
क्रूर रुद्राश्रयेऽपि ॥ ३० ॥ नवापवादानि ॥ ३१ ॥ इनशु- काभ्यां रोगयोः प्रामाण्य निधनम् ॥ ३२ ॥ महेश्वर - ‘योरान्तयोः ॥ ३३ ॥ चरनवांशदशायां निधनम् ॥ ३४ ॥ चित्तनाथाभ्यां रिपुरोगचित्तकर्मणि ॥ ३५ ॥ क्रूरग्रहेषु सद्योरिष्टम् ॥ ३६ ॥ शनिराहुचंद्रयोगे सद्योरि- \।ष्टम् \।\।३७\।\।
कोणाश्रयेषु सद्यो रिष्टम् ॥ ३८ ॥ सर्वमेवं पाप- \।\।३९\।\।
केरिपुरोगचित्तनाथाभ्याम् ॥४०॥
तत्रापि चित्तनाथापहारे ॥ ४१ ॥ इत्युपदेशसूत्रे तृती ये द्वितीयः पादः ॥ २ ॥
लेयलाभयोः पदम् ॥ १ ॥ पदभावयोश्वरे ॥ २ ॥ कांतराशौ कर्मणि दुष्टं मरणं कर्मणि पापे राजाभ्यां यथा सबुधे ॥ ३ ॥ दिने दिने पुण्यम् ॥ ४ ॥ तत्र कर्मादि ॥ ५ ॥ तत्र कर्मादि ॥ ६ ॥ चराचरयोविं परीतकाले ॥ ७ ॥ ततः कोशे ॥ ८ ॥ पत्नीदृष्टमात्रगु- रुयुक्ते ॥ ९ ॥ पापग्योगे ॥ १० ॥ पाषाणमरणे ॥ ११॥ अत्र केतुयुक्ते ॥ १२ ॥ दोषेण हननम् ॥ १३ ॥ केतौ पापदृष्टौ वा ॥ १४॥ अत्र शुभयोगे ॥ १५ ॥ मलिनभावे ऋांतराश कर्मणि दुष्टं मरणम् ॥ १६ ॥ क्रूराश्रये सर्व- शूलादि ॥ १७ ॥ राहुष्टौ निश्वयेन ॥ १८ ॥ राहु- नियां दुष्टादि ॥ १९ ॥ तत्र प्रतिबंधः ॥ २० ॥ कुजकेतुभ्यां नित्यं च ॥ २१ ॥ वाशीयोग्यफूलदें ( १ ) ॥ २२ ॥ मृत्युरोगाभ्यां राहुचन्द्राभ्यां यथास्वं मृत्युः________________
.१२०
जैमिनीयसूत्राणि ।
॥ २३ ॥ अत्र भावकरादि ॥ २४ ॥ तुरगवृषंवर्गे ॥२५॥ अत्र कुजास्फोटकादिकुंडलधरश्च ॥ २६ ॥ रत्नाकरयोगे ॥ २७ ॥ कालदंडान्मरणम् ॥ २८ ॥ शेषा भुजंगादि ॥ २९ ॥ कीटवृषवृश्विकांशे ॥ ३० ॥ रोगमातृदृष्टयो- मूषकादिमृतिः ॥ ३१ ॥ तत्र मंदे ॥ ३२ ॥ विष- पानादि \।\।३३\।\। सौम्य दृम्योगाभ्यां मंडूकभेदादि ॥ ३४ ॥ स्वांशग्राह्याद्वर्णनामभिः ॥ ३५ ॥ लेयान्मृत्युः ॥ ३६ ॥ चले मृत्युः \।\। ३७ ॥ भाग्ये दंडात् ॥ ३८ ॥ कर्मे वि- षभक्षात् ॥ ३९ ॥ द्वारे ज्वरभयम् ॥ ४० ॥ माता शं- हतः ॥ ४१ ॥ शनौ रिपुभयम् ॥ ४२ ॥ लाभे कुष्ट- रोगः ॥ ४३ ॥ विषूचीजलरोगादि देहे ॥ ४४ ॥ धने खड्गादौ ॥ ४५ ॥ नित्यदुर्मरणम् ॥ ४६ ॥ तत्र रवियोगे रिपुशस्त्राग्निभयम् ॥ ४७ ॥ चंद्रेण कूपे ॥ ४८ ॥ कुजेन व्रणस्फोटादि ॥ ४९ ॥ बुधेन वृक्षपर्वतादयः ॥ ५० ॥ गुरुणा स्ववैषम्येऽरौ पावकः ॥५१॥ शुक्रेण शुक्रमेहात् ॥ ५२ ॥ शनिना विषभक्षणादि ॥ ५३ ॥ राहुकेतुभ्यां विषसर्पलोष्टबंधनादिभिः ॥ ५४ ॥ शनिराहुभ्यां राहुणा दडादि ॥ ५५ ॥ तत्र गुरुराहुभ्यामभिचारादि ॥ ५६ ॥ तत्र गुरुशनिभ्यां दृष्टे यथा स्वनाशः ॥ ५७ ॥ स्वत्रि- शांशे कौलकाफलरोगादि ॥ ५८ ॥ ललाटं प्रथमम् ॥ ५९ ॥ केशं द्वितीयः ॥ ६० ॥ बधिरं तृतीयः ॥ ६१ ॥ चतुथों नेत्रे ॥ ६२ ॥ सिंहादौ पंचमे ॥ ६३ ॥ षष्ठं जि-________________
तृतीयोऽध्यायः ।
१२१
द्वा ॥ ६४ ॥ पूर्वषट् के राहुकेतुभ्यां स्वजिह्वादि ॥ ६५ ॥ तंत्र शनिमादिभ्यां गलद्वादि ॥ ६६ ॥ तत्र कुजे शोषः ॥ ६७ लाभांशे मरणम् ॥ ६८ ॥ तत्र खौ प्रतिबंधः ॥६९॥ कौंतायुधधनौ रोगे ॥ ७० ॥ सायकैर्धनम् ॥ ७१ ॥ • अशनितकाये ॥ ७२ ॥ मार्गे मार्गे रिपूणां वैरिवर्गश्च स्ववैषम्ये रिपुः ॥ ७३ ॥ क्रूराश्रयवले रिपुहतः ॥७४॥ शन्यार फणिवर्गाः ॥ ७५ ॥ भावेशाकांतराशिस्थः ॥ ७६ ॥ रवियुक्तदृष्टे प्राथमिकः ॥ ७७ ॥ तत्र चंद्रा- • निश्वयेनाकुजेन ज्ञातिभ्यः ॥ ७८ ॥ तत्र शनौ मृत्युवा- दामिकरणश्च ॥ ७९ ॥ स्वांशेऽपि ॥ ८० ॥ अन्यतरां - शश्च ॥ ८१ ॥ नीचाश्रये विपरीतम् ॥ ८२ ॥ तत्र शनौ · रूपे ॥ ८३ ॥ विषभक्षणादि ॥ ८४ ॥ तनुतनौ दंडह- रम् ॥ ८५ ॥ तत्र भावविशेषः ॥ ८६ ॥ ( ? ) अघशव- निधनम् ॥ ८७ ॥ मातापित्रोद्वितीयः ॥ ८८ ॥ ज्ञाति- • वर्गभ्रातादिम्तृतीयः ॥ ८९ ॥ कलत्रं चतुर्थम् ॥ ९० ॥ पुत्र पंचमम् ॥ ९१ ॥ शत्रुवर्ग षष्ठम् ॥ ९२ ॥ तत्र पा पानां सन्निकृष्टम् ॥ ९३ ॥ जनने ॥ ९४ ॥ लाभे स्त्रिया विपत्तिः ॥९५॥ भावे स्वकर्मचित्तांशात्स्वांशे निधनम् . ॥ ९६ ॥ स्वभूच्चात्पतनम् ॥ ९७ ॥ शूले मृतिः ॥ ९८॥ धनेन ज्ञानवान्मरणम् ॥ ९९ ॥ नयने ग्रहणीरोगादि ॥ १०० ॥ शूले शत्रुमरणम् ॥ १ ॥ उच्चे ग्रहभातिः ॥ २ ॥ तत्र रविशनिभ्यामोजे कूटराशो युग्मे निर्णयः________________
१२२
जैमिनीयसूत्राणि ।
॥ ३ ॥ घनमुखाभ्यां पादरोगः ॥ ४ ॥ तनुविक्रमाभ्या- मंमुलिरोगः ॥ ५ ॥ तत्र केतुना अंगहीनश्च ॥ ६ ॥ तत्र पापदृष्टे पादहीनः ॥ ७ ॥ अथ बलानि ॥ ८ ॥ प्राणिनि शुभयुक्ते ॥ ९ ॥ शिवभागे ॥ ११० ॥ चरपर्यायेन ॥ ११ ॥ शुभद्दष्टे पादहीनः ॥ १२ ॥ शुभदृष्टि त्रिशुले ॥ १३ ॥ अंशत्रिशूले वा ॥ १४ ॥ भाव कोणाभ्यां नि- सर्गतः ॥ १५ ॥ आश्रयतो वलिष्ठः ॥ १६ ॥ यादिर्भ- राशौ पितृलाभयोः ॥ १७ ॥ स्वकर्मभेदेन ॥ १८ ॥ मूर्तित्वे परिपाताभ्यां जघन्यायुपि तत्र परिपाके ॥ १९ ॥ एवं निधनं मातापित्रोः ॥ १२० ॥ भूम्यंशश्च निवृत्ति- कारकः ॥ २१ ॥ नायांतसंज्ञाः स्युः ॥ २२ ॥ कर्मस्था चरपर्याये ॥ २३ ॥ भाग्यदारयोः स्थिरोभयोः ॥ २४॥ भाग्यकारकाभ्यां मंगलपदम् ॥ २५ ॥ मृत्यु मृत्युषि ॥ २६ ॥ अन्यैरन्यथा ॥ २७ ॥ भूतमन्यत् ॥ १२८ ॥ इत्युपदेशे आयुर्दायापवादे तृतीये तृतीयः पादः ॥ ३ ॥ पुनः पदः पदे ॥ १ ॥ उपग्रहयुक्ते श्रीमंतः ॥ २ ॥ आधानपितुल्यमेषम् ॥ ३ ॥ सूर्यात् कर्मणि पित्रोः ॥ ४ ॥ पुनः पद उत्तरयोः ॥ ५ ॥ पदाभ्यां भृगुसौम्य- व्यतिरिक्ते ॥ ६ ॥ दिनकरे लाभेयोरेनिसंज्ञाः स्युः (१) ॥ ७ ॥ प्रियानुपपत्तिः ॥ ८ ॥ तंत्र पाकर्म ॥ ९ ॥ स्व- कर्मव्यात्रश्च ॥ १० ॥ दिनकरत्रिकोणे लाभपदे गर्भसं- • पुवे ॥। ११ ॥ तत्र गर्भपाते ॥ १२ ॥ रविकेत्वंशे शुक्र-________________
वृतीयोऽध्यायः ।
१२३
॥
शोणितो ॥ १३ ॥ गुरुत्रिंशांशे ॥ १४ ॥ चंद्रहग्योगे ॥ १५ ॥ सुकलिषुवयोः ॥ १६ ॥ शुकरेतौ ॥ १७ ॥ वर्णपरिपाकम् ॥ १८ ॥ यस्याधानं चंद्रहग्योगे ॥ १९ ॥ यथा आधानपरिपाके च चंद्रबुध भृगु योगाभ्यामाधानप- रिमिते ॥ २० ॥ सुवर्णारणिसंयोगे ॥ २१ ॥ शनिचं- •द्राभ्यां नाभेरघः ॥ २२ ॥ गर्भवायु परिवृन्ते ॥ २३ ॥ तत्र केतुना पुष्कराजा ख्यादिके वंतम् ॥ २४ ॥ ग्रहान तिरतः ॥ २५ ॥ अन्ययोनिगर्भेध्वजः ॥ २६ ॥ राहुचं– दाभ्यां वीरतमः ॥ २७ ॥ अवीरोपपत्तिः कर्मणि पाके निर्णयम् ॥ २८ ॥ स्थानाद्यैः स्वांशगश्च ॥ २९ ॥ यथा धर्मशीले \।\। ३० \।\। स्वांशग्र हैन चउच्चयोः ॥ ३१ · क्रियमेषलग्नेषु ॥ ३२ ॥ अथ रविप्राणाः ॥ ३३ ॥ नैस- • गिकवलेष्वभियोगशूल इह जायते ॥ ३४ ॥ पुं पुमान् ॥ ३५ ॥ वाण इति ॥ ३६ ॥ अत्रोदाहारः ॥ ३७ ॥ केतुशनिभ्यां रक्तप्रदरः ॥ ३८ ॥ शनौ पातयोगे कृष्ण- : वर्णः ॥ ३९ ॥ शनिशुकाभ्यां श्यामवर्णः ॥ ४० ॥ गुरुशशिभ्यां गौरवर्णः ॥ ४१ ॥ शनिबुवाभ्यां नील- वर्णः ॥ ४२ ॥ शनिकुजाभ्यां रक्तसुवर्णः ॥ ४३ ॥ शनिचंद्राभ्यां श्वेतवर्णः ॥ ४४ ॥ स्वांश्वशादरनीला- दीनि ॥ ४५ ॥ तथाप्युदाहरति ॥ ४६ ॥ रेतः सिंचन्प्रजाः प्रजनयमिति विज्ञायते ॥ ४७ ॥ चरे पापग्योगे पुत्रनाशः ॥ ४८ ॥ शुकग्योगे पुत्रलाभः ॥ ४९ ॥
-________________
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जैमिनीयसूत्राणि ।
पापशुभहग्योगाभ्यां प्रथमवर्णक्रमेण दासावृत्तिः ॥ ५० ॥ यन्नवभागे नवांशाभ्यां संख्यावृद्धिः ॥ ५१ ॥ वीजयुग– वलयोबिंदुपतनकाले यमलाभ्यामूर्ध्वतः शुभपापयोश्व रस्थिरयोरर्द्ध तोतादिकनेत्रविकृतोष्ठनासिकमुखकर्ण शांत पटल पादांगहीन कुब्जबधिरमूलांगोपांग सुशिरकेशा- वर्तचकवीन विपर्यासनखी वृषोन्नत बृहन्नाभिनेत्रः पार्श्व - दृष्टयोरंघकुब्जवामनसत्वस्वरनीचस्व रहीनस्वरेत्यादि- वपि पितृमात्रोलानि ॥ ५२ ॥ एवमृक्षाणां बलानि ॥ ५३ ॥ स्वपितृभाग्ययोः परिपाककाले ॥ ५४ ॥ इति तृतीयाध्याये गर्भवर्णननिर्णयो नाम चतुर्थः पादः ॥ ४ ॥ समाप्तश्वाध्यायः ॥ ३ ॥
अथ चतुर्थोऽध्यायः ।
०
पितृदिनेशयोः प्राणिदेहः ॥ १ ॥ लाभचंद्रयोः प्राणिहृदयम् ॥ २ ॥ लेयचंद्रयोः प्राणिशिरः ॥ ३ ॥ भाग्यचंद्रयोः प्राणिमुखम् ॥ ४ ॥ कामचंद्रयोः प्राणि- कंठः ॥ ५ ॥ दार चंद्रयोः प्राणिबाहुः ॥ ६ ॥ मातृचंद्रयोः. प्राण्युदरम् ॥ ७ ॥ ततश्चद्वयोः प्राणिजघनम् ॥ ८ ॥ लाभचंद्रयोः प्राणिष्पृष्टः ॥ ९ ॥ दिन चंद्रयोः प्राणिगुदः ॥ १० ॥ धनचंद्रयोः प्राणिपादौ ॥ ११ ॥ रिः फचंद्रयोः प्राणिनेत्रे ॥ १२ ॥ शूलचंद्रयोः कर्णयोः प्राणिकणों________________
चतुर्थोऽध्यायः ॥
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१२५
॥ १३ ॥ रौप्यचंद्रयोः प्राणिनासिके ॥ १४ ॥ एवं द्वादशभावानाम् ॥ १५ ॥ प्राणिवलानि ॥ १६ ॥ • अप्राण्यपि पापदृष्टः ॥ १७ ॥ प्राणिनि शुभदृष्टे ॥ १८ ॥ तत्तद्भावे जन्म सूचितम् ॥ १९ ॥ आजन्मादिर्वपुःषु ॥ २० ॥ पित्रोः प्राक्काले ॥ २१ ॥ शरमेव मातापि -. तरौ जनयतः \।\। २२ \।\। अशोणितो कीवश्च ॥ २३ ॥ . एवं भावविचारः ॥ २४ ॥ अंकुशाभ्यां तु ॥ २५ ॥ वर्णभेदाश्रयेण ॥ २६ ॥ जीवेंदुबुधादयः ॥ २७ ॥ ब्राह्मणश्च रविः कुजः क्षत्रः ॥ २८ ॥ शनिः शुद्रश्व ॥ २९ ॥ राहुर्दूरजातिः ॥ ३० ॥ केतुश्चांडालः ॥ ३१ ॥ वर्णभेदेन पुत्रलाभाभ्यां मृगवर्णम् ॥ ३२ ॥ आसुरत्रयं च ॥ ३३ ॥ यदि पापबाहुल्यं तत्र रमणी- जालः ॥ ३४ ॥ सुखशानि ॥ ३५ ॥ षडानि ॥ ३६ ॥ शनिराहु केतु जेषु वैपरीत्यम् ॥ ३७ ॥ तालुतेफोफस्य- शेवले मित्रावरुणवले (१) ॥ ३८ ॥ मृत्युना कैवल्यम् ॥ ३९ ॥ शृंगारे लाटः ॥ ४० ॥ प्राणपाणौ बले ॥ ४१ ॥ मृत्युविचित् ॥ ४२ ॥ माधुरीकन्ये ॥ ४३ ॥ मांजिष्ठे मृगे ॥ ४४ ॥ मानुषि कुरूपः ॥ ४५ ॥ मरणे . माने ॥ ४६ ॥ मायामालिंगे ॥ ४७ ॥ शुभेन कर्मणि पितृनियोजयो जयेत् ॥ ४८ ॥ पापे मातरि मिश्र भ्रातरः ॥ ४९ ॥ शुभपापमिश्रे विरूपः ॥ ५० ॥ मातुनाशोकः ॥ ५१ ॥ चंद्रागुहग्योगानिश्वयेनास्वमू-________________
१२६.
जैमिनीयसूत्राणि ।
र्तिपुरुषे कालरूपः ॥ ५२ ॥ तिर्यग्दृष्टो प्रायो निर्वृत्ति- कारकः ॥ ५३ ॥ शूलेशयोदरियोशतोषं गुरुदृष्टे च ॥ ५४ ॥ इति उपदेशे चतुर्थे प्रथमः पादः ॥ १ ॥ बलपदयोः प्राणिमारकः ॥ १ ॥ रुद्राश्रयेऽपि ॥ २ ॥ भावेऽपि बलदृष्टांतः ॥ ३ ॥ ओजयुग्मयोः प्राणिविलम् ॥ ४ ॥ अभिपश्यति भावानि ॥ ५ ॥ शुभान्यतराणि च ॥ ६ ॥ प्रत्यक्शूले नित्यविक्रमे बुधशुकाभ्यां दंतोष्टपट- लपार्श्वपाः ॥ ७ ॥ करकर्णाभ्यां मृत्यु चित्तयोविपरीतम् ’ ॥ ८॥ लग्ने पित्रकभावेऽपि कामनाथयोरैक्ये यमलः ॥ ९ ॥ कामनाथप्राणिनि शुभम् ॥ १० ॥ स्वनाथपाणिनि च्युत- योः ॥ ११ ॥ भावयोः प्राणिनि कक्ष्याहासः ॥ १२ ॥ शुभ- . योगचलाञ्चैवम् ॥ १३ ॥ मिश्रे समाः प्राणिहीने विपरीतम् ॥ १४ ॥ समे नित्यम् ॥ १५ ॥ भाग्ययोर्बलम् ॥ १६ ॥ गुरुचंद्रयोर्धर्मधनैक्ये कर्मवले ॥ १७ ॥ मेषे विपरीतम् ॥ १८ ॥ ततः प्राणाः स्वपितृयोगः ॥ १९ ॥ शुद्धः स्व- काले ॥ २० ॥ अनुकूललेये तुंगे नीचे ॥ २१ ॥ भावब- लाभ्यां तु ॥२२॥ केंद्रत्रिकोणोपचयेषु राहुकुजौ जानुहा वीरिकेवलराहौ तत्र निधनम् ॥ २३ ॥ भौमहग्योगान्निश्च- येनः ॥ २४॥ तत्र शनौ गुरुदृग्योगे सेतुयोग्यं स्वत्रिकोण- राशिषु ॥ २५ ॥ पदे चापदभावे स्वामिन इत्थम् ॥२६॥ ह्रस्वफलादिशुभ वर्गयुतिशेषास्त्वन्ये ॥ २७ ॥ मूर्ति रूपं - च ॥ २८ ॥ स्वकारकव्यतिरिक्तेषु ॥ २९ ॥ भावषले
-________________
‘चतुर्थोऽध्यायः ।
१२७
चंद्राश्रयेऽपि ॥ ३० ॥ दारे मित्रस्वपितृभ्याम् ॥३१॥ ..भावशूलदृष्टया च ॥३२॥ पितृनाथदृष्ट्या रोगः \।\।३३\।\। ‘पुत्रनाथदृष्टया दरिद्राः ॥३४॥ शूलनाथदृष्टया व्ययशा- ः \।\। ३५ \।\। रिपुष्ट्या कर्म ॥ ३६ ॥ धननाथह- ट्या निरोगी च \।\।३७\।\। माननाथदृष्ट्या प्रबलः \।\।३८\।\। दारेश्रदृष्टया सुखिनः ॥ ३९ ॥ कामेशदृष्टया प्रध्वंसः ॥ ४० ॥ भाग्यनादृष्ट्या सुरूपः ॥ ४१ ॥ सर्वदृष्ट्या प्रवलः \।\। ४२ \।\। दारभाग्ये च ॥ ४३ ॥ वर्णपदाश्रयको- णेषु ॥ ४४ ॥ शुक्रे च ॥ ४६ ॥ कोणयोः शुभेषु मित्रप्रा- गव ॥ ४६ ॥ केंद्रत्रिकोणयोः शुभे कालबलानि ॥४७॥ इत्युपदेशसूत्रे चतुर्थेऽध्याये द्वितीयः पादः॥ २ ॥
शुर्युग्मे स्त्रीजननम् ॥ १ ॥ कालनिर्णयादि ॥२॥ अंशभेदेन लिप्तविलिप्ताः ॥ ३ ॥ कालकाः ॥ ४ ॥ अनुलिप्ताश्च ॥ ५ ॥ द्विना द्विचतुःसंख्यादि ॥ ६ ॥ नव भाग ॥७॥ आद्यंशके ॥ ८ ॥ ग्रक्रमेण वर्णम् ॥ ९ ॥ पुमान्पुंजः ॥ १० ॥ अन्ये स्त्रियः ॥ ११ ॥ क्कीचे पूर्वा- परौ ॥ १२ ॥ एवं वर्णसंज्ञाः स्युः ॥ १३ ॥ नीचे दारांश- कः ॥ १४ ॥ आद्यादिस्ववर्णः ॥ १५ ॥ मित्रभेदाभ्यां चरपर्यायेण संज्ञाः स्युः ॥ १६ ॥ धात्वादिरूपवर्णेन \।\।१७\।\। स्वांशगैश्च बलः ॥ १८ ॥ रविकुजौ रक्तौ ॥ १९ ॥ बुधशुक्र यामी ॥२०॥ कृष्णेतराः स्युः ॥ २१ ॥ त्रि- त्रिभागे चरस्थिरोभयपर्याये ॥ २२॥ घटिकापष्टिनिर्णये________________
१२८
जैमिनीयसूत्राणि ।
॥ २३ ॥ अंशस्यैकस्य पंचघटिकाः ॥ २४ ॥ एवं द्वाद- ‘श पंच स्युः विघटिकादिक्रमेण ॥ २५ ॥ ओजे पुरुषः ॥ २६ ॥ युग्मे स्त्रियः ॥ २७ ॥ ओजयुग्मयोः स्त्रीपुरुषो ॥२८॥ यथा मातरि वर्णे ॥१९॥ मात्रा प्रसवकालमुखे- न ॥ ३० ॥ राहिंदुभ्यां स्त्रीजननम् ॥ ३१ ॥ पुरुषतराः ॥ ३२ ॥ शन्याराभ्यां पुरुषः ॥ ३३ ॥ शनिवुवाभ्यां स्त्रियः ॥ ३४ ॥ शनिचंद्राभ्यां कुजः ॥ ३५ ॥ शनिशु- काभ्यां रूपवत्या \।\। ३६ \।\। शनिकेत्वोर्जारिणी ॥३७॥ तत्र बुधांशे बहिर्जारिणी ॥ ३८ ॥ चंद्रशुकौ कामी प्रवीण- तमश्च ॥ ३९ ॥ अंशभेदेन ॥ ४० ॥ बुधशुक्राभ्यां का- भी विरागः ॥ ४१ ॥ तत्र वंशे ॥ ४२ ॥ गोपमन्य- तरः \।\।१३\।\। केत्वंशे बुधचंद्रदृष्टे सर्ववर्णाश्रयेषु संचरितः ॥४४॥ पापदृष्टे पुंश्चली ॥ ४५ ॥ सप्तमाष्टमयोः पापव- ल्पे विधवा (?) ॥४६॥ तत्राष्टमे कुजे केतुषु ॥ ४७॥ योगाभ्यां भर्तृहंत्री ॥ ४८ ॥ एकांशेन ॥ ४९ ॥ ओजयुग्ममार्गया ॥ ५० ॥ नीचे विपर्ययः ॥ ५१ ॥ गदी सन्निपातनने ॥ ५२ ॥ मूर्ती रूपम् ॥ ५३ ॥ भाग्यांशगैश्चंद्रबाहुल्ये बुधशुकाभ्यां सुमतिः ॥ ५४ ॥ तत्र केतुना के वंशे दुर्गंधी ॥ ५५ ॥ रविदृष्टे दंतवकी ॥ ५६ ॥ कुजदृष्टे क्रोधकरी ॥ ५७ ॥ इतरत्र हग्योगः ॥ ५८ ॥ सौम्यश्च ॥ ५९ ॥ पापे पापबाहुल्या ॥६०॥ शुभे गुणवती ॥ ६१ ॥ मिश्र समाः ॥ ६२ ॥ एवम–________________
ये ॥
शुक्रे
चतुर्थोऽध्यायः ।
१२९
टमः सप्तमार्द्धहरितः ॥ ६३ ॥ त्रिकोणत्रिपडायेषु ॥ ६४ ॥ नीचे विपर्ययः ॥ ६५ ॥ दिग्भाग्ययोरानुकू- ६६ ॥ शुभेतरमिश्रतरौ च ॥ ६७ ॥ चक्षुर्वर्णभे- देन नित्या ॥ ६८ ॥ यने अंशतः ॥ ६९ ॥ राज्ये नीचे ॥ ७० ॥ घने कामी ॥ ७१ ॥ धर्मे मोक्षी ॥७२॥ धने पापी ॥ ७३ ॥ तत्र व्यंशे बालविधवा ॥ ७४ ॥ रवित्रिकोणेषु च ॥ ७५ ॥ चंद्रे कामिनी ॥ ७६ ॥ चद्र- त्रिकोणेषु च कुजकुरूपिक्रोधी ॥ ७७ ॥ कुजत्रिकोणेषु च ॥ ७८ ॥ बुधे वंध्या ॥ ७९ ॥ बुधे त्रिकोणेषु चागुरो पतिभक्तिपरायणी ॥ ८० ॥ गुरुत्रि होणेषु च ॥ ८१ ॥ सर्वसौभाग्यकारिणी ॥ ८२ ॥ शुक्रत्रिकोणेषु च ॥ ८३ ॥ शनौ कामिनी च पुरुषः ॥ ८२ ॥ शनित्र- कोणेषु च ॥ ८५ ॥ राहुतकर्मात्मकेषु राहुत्रिकोणे- च ॥ ८६ ॥ केतौ चंडाली तत्समानवर्ती ॥ ८७ ॥ त्रिकोणेषु च ॥ ८८ ॥ एवं वर्णसंज्ञाः स्युः ॥ ८९ ॥ . चक्षुनम् ॥ ९० ॥ वर्णात्रिंशांशे आद्य पहारे ॥ ९१ ॥ पापत्रिकोणेषु च ॥ ९२ ॥ यथास्वं नीचेषु च ॥ ९३ ॥ अंशग्रहक्लानाम् ॥ ९४ ॥ रविशुकाभ्यां प्रथमम् ॥ ९५ ॥ रविचंद्राभ्यां द्वितीयम् ॥ ९६ ॥ रविकुजा- भ्यां तृतीयम् ॥ ९७ ॥ रविबुधाभ्यां चतुर्थम् ॥ ९८ ॥ रविराहुभ्यां सप्तमम् ॥ ९९ ॥ रविकेतुभ्यामष्टमम् - ॥ १०० ॥ एवं सर्वे रन्ध्रभाग्ययोर्वर्जयेत् ॥ १ ॥________________
१३०
जैमिनीयसूत्राणि ।
लाभे च तत्र लाभयोः ॥ २ ॥ शुभे न दोषः ॥ ३ ॥ शुभपापयोर्न क्वचित् ॥ ४ ॥ रंध्रापवादे सौम्यत्रिकोणे मृगवर्गादि ॥ ५ ॥ स्वात्रिंशांशः स्वनीचभवने ॥ ६ ॥ यथा मृगतौल्यादि ॥ ७ ॥ आद्यंशभेदेषु ॥ ८ ॥ राहु- केतुभ्यां प्रबंधः ॥ ९ ॥ वर्गोत्तमकाले ॥ ११० ॥ प्राणी बलानि ॥ ११ ॥ नवत्रिषडाययोरंशः ॥ १२ ॥ सप्ताष्ट- गुणचेष्टिताः ॥ १३ ॥ गुभागेन कर्तव्यम् ॥ १४ ॥ लक्षलक्ष्यापवादयोः ॥ १५ ॥ क्रमात्कूरे शुभाभ्यां च व्युत्क्रमादुभयाययोः ॥ १६ ॥ रंध्र सप्तमयोरेतत् ॥१७॥ बलसचरिते ध्रुवः ॥ १८ ॥ एतद्योगविहीनस्तु निश्चि- स्यः स्त्रीजातके ॥ १९ ॥ इति गुरुणाभ्यां वर्णः ॥१२०॥ स्वपितृवर्णश्च ॥ १२१ ॥ इत्युपदेशसूत्रे चतुर्थाध्याये तृतीयः पादः ॥ ३ ॥
गुणेषु गुणरमणी ॥ १ ॥ केंद्रत्रिकोणेषु शुभवर्गेषु ॥ २ ॥ अकरमंदफलयोः पुमांश्व ॥ ३ ॥ चंद्रबु- वाभ्यां स्त्री च ॥ ४ ॥ दृग्योगाभ्यामपि ॥ ५ ॥ यथा निर्हरणम् ॥ ६ ॥ रोगे पापे वैधवी पापह- ग्योगा निश्चयेन ॥ ७ ॥ उच्चे विलंबात् ॥ ८ ॥ नीचे क्षिप्रम् ॥ ९ ॥ मिश्र मिश्रात् ॥ १० ॥ चंद्रकुजदृष्टो निश्वयेन ॥ ११ ॥ आद्या आत्मजस्त्री ॥ १२ ॥ कायें पापे कोणे वा ॥ १३ ॥ पापदृग्योगकाले वियोनिसंज्ञा- यां विधित्वाद्विति ॥ १४ ॥ धात्वादिवर्णकाले ॥ १५ ॥
i________________
चतुर्थोऽध्यायः ॥
१३१
भावपरिवेधनेन ॥ १६ ॥ उच्चे स्वांशवर्गः ॥ १७॥ अशे पश्वादियोनिसंबंधः ॥ १८ ॥ मध्ये मृगाः ॥ १९ ॥ अंत्ये कीटकादयः ॥ २० ॥ एवमुभौ शुभ- लोके ॥ २१ ॥ रविशुकाभ्यां पापपूर्वम् ॥ २२ ॥ - अन्यैरन्यथा ॥ २३ ॥ अत्र शुभः केतुः ॥ २४ ॥ पाप- योगान् ॥ २५ ॥ रविराहु शुक्राः ॥ २६ ॥ गुरुश्चैक- काग्यमिति ॥ २७ ॥ यथा चंद्रम् ॥ २८ ॥ तत्र. गुरुवर्गे स्वाम्यंशे च ॥ २९ ॥ स्वेशभूमित्रनीचांशकच ॥ ३० ॥ पूर्णेदुराद्वारांतराला ॥ ३१ ॥ शुभवर्गे शुभदृष्टिः ॥ ३२ ॥ अशे मित्रभेदात् ॥ ३३ ॥
• स्वानंदतुल्ये वा ॥ ३४ ॥ वर्णे नवशश्व ॥ ३५ ॥ तत्र • ज्ञानाज्ञानेषु ॥ ३६ ॥ पुत्रमणिरमणी ॥ ३७ ॥ बुध केतुर्वा ॥ ३८ ॥ शुभचंद्राभ्याम् ॥३९॥ स्वलग्ननाथाश्च ॥ ४० ॥ इत्युपदेशसूत्रे वियोनिभेदो नाम चतुर्थाध्याय-
स्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ ४ ॥
इवि जैमिनीयसूत्राणि समाप्तानि ।
पुस्तक मिलनेका ठिकाना - गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, “लक्ष्मीवेंकटेश्वर " छापाखाना, कल्याण- मुंबई.________________
सतानगोपाल स्तोत्र विवाहविचार संकल्पकल्पना चौताल चंद्रिका
नूतन पुस्तकें.
• ग्रहगोचरव्योतिष मा० टी० १
0-9
….
जगन्नाथमाहात्म्य ना ४९
७-८
अध्यायका
2000
१-४
०-१२
०-४ राधागोपालपंचा
समास कुसुमावलि मलोकरहस्य बोम्यनीति भावाटीका
….
० -२
विभोगवैराग्यशतक
०-४
….
.-Y
….
मैत्रीधर्मप्रकाश भाषाटीका
पूरनमलमक्तका सांगीत……
मदनपालनिघंटु भाषाटीका २-४ भेजनसागर ग्लेज
www.
मूर्खशतक- निंदकनामा,
2-9
मात्मबोध मा•टी• श्री पराशरस्मृति छोटी
पटूपंचाशिका भाषाटीका….०-६
मुक्तिकोपनिषद् माषाटीका
०-४
….
०-३
"”
रफ्……
….
मासचिंतामणि मा•टी• श्राद्धनिधान भाषाटीका…..-६
9-X
१-४
1-0 ०-१२
केनल गीता मापाटीका
0-2
•-५
पाकेटयुक
रामाश्रमेष अक्षर वा मूल १-८
तर्कसंग्रह भागाटीका
जगलायमाहात्म्य छोटा….
स्वरतालसमूह ( सितारका पुस्तक) १-८
संगीतसुधानिधि द्वितीय भाग
-३
भक्ति विलास
०-२
वैद्यावतंस मापाटीका
–7
हारीतसंहिता भाषाटीका… ३-० बृहदवाचक (होडाचक्र) भाषाटीका
०-४
हितोपदेश मा. टी.
3-8
…
राजवल मनिघण्टु मापाटीका १-८
मोजप्रबंध मा० टी०
१-४
भैरवसहखनाम
०-२
संवत्सरफलदीपिका
….
काव्यमंजरी
१-८
….
०-४
NAG
नासिकेत भाषा वार्तिक…..
मरहट्टासरदार और रोशनआरा
मोरंगजेबकी पुत्रीका प्रेम
मारामासीया लावणीसंग्रह
0-4
जीवनचरित्र तुलसीदासजीका -
गूजरगीत मंगल…..
सूर्यकवच शिवकवच
only
….
भागवत भाषा खुला पत्रा…. ६-०
*
समुजातक भा. टी. 1-6 पद्मकोश भा० टी० ०-४ बीरबर अकबरका उपद्दास…..-८ आल्हारामायण ( आरण्यकांड) -६ भोजप्रबंध भाषा गोविंदा..
०-१२
1-0
दिल्लगी की पुडिया ५भाग प्रत्येक मागकी कीमत,
•- १ \। सूर्यकवच भा० टीका
०-२
०-१
०-१ \। आदित्यवतकथा मा०टी० ०-२
पुस्तक मिलनेका ठिकाना - गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, ‘लक्ष्मीवेंकटेश्वर’ छापाखाना,कल्याण - मुंबई.
5. * MIGAN LAGENG NGENT LIGHT NIGHT LIGHT
गीतामृतधारा भाषा
७- ८________________
मंत्री, मेघालय
आ
आपका सबक
]