[[गोलाध्यायः Source: EB]]
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सिद्धान्तशिरोमणेर्वासनाभाष्यसहितः
गोलाध्यायः।
श्रीभास्कराचार्य्यविरचितः ।
**वि, ए, उपाधिधारिण **
श्रीजीवानन्दविद्यासागरभट्टाचार्येण
संस्कृतः प्रकाशितश्च ।
द्वितीयसंस्करणम्।
कलिकातानगरे
नारायणयन्त्रे
मुद्रितः।
इं १८९९
प्रिण्टर-श्रीदक्षिणाचरण चक्रवर्ती
७५ नं. कटन ष्ट्रोट।
| **सूचीपत्रम् | ** | ||||
| **प्रकरणम् ** | पृ० | पं० | **प्रकरणम् ** | पृ० | पं० |
| प्रतिज्ञा | १ | १ | **अथ पृथ्व्याद्युत्पत्त्युपादानब्रह्मप्रणाम ** | ७ | १० |
| मङ्गलाचरणं | १ | ११ | अथ भूमेः स्वरूपम् | ९ | २१ |
| अथ गोलग्रन्थेकारणमाह | २ | १३ | अथ पुराणोक्ताधारनिराकरणम् | १० | ९ |
| अथगोलप्रशंसया गोलानभिज्ञगणकोपहासः | २ | १८ | अथ बौधादियुक्तिं तद्भङ्गंचाह | ११ | १ |
| अथ गोलस्वरूपं | ३ | १ | अथ भूगोलस्य समतानिराकरणम् | १२ | १० |
| अथ गणितप्रशंसा | ३ | ५ | **अथ प्रत्यक्षविरोधपरिहारः ** | १३ | ४ |
| अथ ज्योतिःशास्त्र श्रवणेऽधिकारौ | ३ | ११ | अथ खोक्तभूपरिधिप्रमाणोत्पत्तिः | १३ | १० |
| **अथ व्याकरणप्रशंसा ** | **३ ** | १७ | अथ भूगोले पुरनिवेशनं | १४ | २ |
| अथ खगोलप्रशंसा | ३ | २३ | **अथ द्वीपसमुद्रस्थितिः ** | १४ | १२ |
| अथ भूसंस्थानप्रश्नः | **४ ** | **४ ** | **अथ जम्बूद्वीपगिरिवशेन नवखण्डानि ** | **१५ ** | ४ |
| अथ ग्रहस्फुटीकरणोपपत्तिप्रश्नाः | ४ | १८ | अथ मेरुसंस्थानम् | **१६ ** | ८ |
| अथ त्रिप्रश्ने दिनमानभेदप्रश्नः | ५ | ५ | **अथ गङ्गाविभागः ** | १७ | १२ |
| **अथ राश्युदयभेदप्रश्नः ** | **५ ** | १५ | **अथ भारतवर्षे नवखण्डानि कुलाद्रींश्चाह ** | १८ | ३ |
| अथ द्युज्याकुज्यादिस्थितिप्रश्नः | ५ | २१ | **अथ लोकत्रयसंस्थानम् ** | १८ | १४ |
| **अथ चन्द्रार्कग्रहणयोर्दिक्कालः भेदाद्युपपत्तिप्रश्नः ** | **५ ** | २५ | अथ दिग्व्यवस्था | १८ | २१ |
| अथ चन्द्रशृङ्गोन्नतौ शुक्रक्षयवृद्धिप्रश्नः | ६ | १५ | **अथ चक्रभ्रमणव्यवस्था ** | १८ | १५ |
| ***इति श्रीप्रथमोऽध्यायः | *** | अथ ध्रुवर्क्षसंस्थानम् | २० |
| प्रकरणम् | पृ० | पं० | प्रकरणम् | पृ० | पं० |
| अथ भूपरिधिमानानुवादः | २० | १३ | अथोदयान्तरकर्मीपपत्तिः | ३३ | २१ |
| अथ लल्लोक्तभूपृष्ठकलदूषणम् | २१ | ५ | अथ देशान्तरस्वरूपम् | ३५ | ४ |
| अथात्र सद्युक्तिः | २१ | १८ | अथ भूगोले स्फुटपरिधिप्रदेशं स्फुटतानुपातञ्चाह | ३६ | १ |
| अथान्यथाप्रतिपाद्यते | २३ | ३ | इति साध्यगतिवासनाध्यायः॥३॥ | ||
| अथ भूमेः प्रलयभेदी प्रलयांश्चाह | २४ | १८ | अथ ज्योत्पत्तिकथनेकारणं | ३६ | १८ |
| अथ ब्रह्माण्डगोलमाह | २६ | १ | अथ जीवाक्षेत्रसंस्थानं ज्योत्पत्तिंश्च | ३६ | २२ |
| *इति द्वितीयोऽध्यायः | * | अथ स्पष्टीकरणे फलोपपत्तिः | ४० | ||
| भूमेरुपरिसप्तवायुस्कन्धाः | २६ | २० | अथ फलार्थं छेद्यकप्रकारः | ४१ | १ |
| अथ ग्रहाणां पूर्वगतिंदृष्टान्तेनाह | २६ | ४ | अथ फलानयन इति कर्त्तव्यतोपपत्तिः | ४२ | ४ |
| अथ भदिनमर्कस्फुटसावनञ्च | २७ | ८ | अथ मन्दस्फुटं मध्यं प्रकल्पाशीघ्रफलं यत्साध्यते तदुपपत्तिः | ४२ | २२ |
| अथ वर्षे सावनसंख्यामाह | २८ | १९ | अथोच्चोपपत्तिः | ४३ | १ |
| अथ चान्द्रमासमाह | २९ | १ | अथ विम्बस्याण्वत्वस्थूलत्वोपपत्तिः | ४३ | १३ |
| अथाधिमासोपपत्तिः | २९ | १५ | *इति प्रतिवृत्तभङ्गिः | * | |
| अथावमोपपत्तिः | ३० | २६ | अथ नीचोच्चभङ्गिः | ||
| अथावमाधिमासेषु विशेषः | ३१ | १४ | अथ कर्णानयनं पलञ्चाह | ४४ | २३ |
| अथाहर्गणानयनेचैत्रादिचान्द्रयोगेऽधिमासावमशेषत्यागे च कारणम् | ३१ | २१ | *इति नीचोच्चवृत्तभङ्गिः | * |
| प्रकरणम् | पृ० | पं० | प्रकरणम् | पृ० | पं० |
| अथ मिश्रभक्तिः | ४५ | १२ | अथ दृग्गोलमाह | ५१ | १० |
| अथ मन्दशीघ्रकर्मद्वयेन स्फुटत्वेकारणम् | ४६ | १२ | अथ भगोलबन्धमाह | ५२ | ११ |
| इदानीं मन्दकर्मणि कर्णः किं कृत इत्यस्योत्तरम् | ४६ | २२ | क्रान्तिवृत्तमाह | ५२ | २० |
| इदानीं नतकर्मवासनामाह | ४७ | २३ | अथ विमण्डलमाह | ५३ | १४ |
| अथ गतिफलाभावस्थानमाह | ४८ | ४ | अथ क्रान्तिविक्षेपञ्चाह | ५४ | १३ |
| अथ ग्रहस्य वक्रत्वं छेद्यके यथा शीघ्रं दृश्यते तदर्थमाह | ४८ | १५ | अथ क्रान्तिपातमाह | ५४ | २२ |
| केन्द्रसंज्ञां स्फुटकक्षाञ्चाह | ४८ | २४ | अथ विक्षेपपातानाह | ५६ | ९ |
| भुजान्तरकर्मोपपत्तिमाह | ४९ | ४ | अथ ज्ञशुक्रयोर्विशेषमाह | ५७ | १ |
| अथ छेद्यकोपसंहारे गणकप्रज्ञावर्णनम् | ४९ | १० | अथ ग्रहगोले विशेषमाह | ५८ | ११ |
| *इति छेद्यकाधिकारः | * | अथाहोरात्र वृत्तमाह | ५९ | ||
| अथ गोलबन्धः | ४९ | १८ | *इति गोलबन्धाध्यायः | * | |
| अथ पूर्वापरादिवृत्तानि | ५० | ७ | अथ त्रिप्रश्नवामना | ||
| अथोन्मण्डलमाह | ५० | १६ | तत्रादौ चरस्थानमाह | ६० | १९ |
| अथ विषुवन्मण्डलम् | ५० | २४ | अथ चरकालमाह | ६१ | ३ |
| अथ दृङ्मण्डलमाह | ५१ | ४ | अथ चरफलस्य धनणं वासनामाह | ६१ | ९ |
| *इति खगोलः | * | अथ दिननिशोर्लघुत्वमहत्वहेतुमाह | ६१ | ||
| अथात्रविशेषः | ६२ | ३ | |||
| अथ मेरुसंस्थानमाह | ६२ | २६ | |||
| अथ दिनरात्रिस्वरूपे पितृदिनञ्चाह | ६३ | १ | |||
| संहितोक्तस्याभिप्रायमाह | ६३ | १२ | |||
| अथ पितृदिनस्योदयास्तकालमाह | ६३ | २४ |
| प्रकरणम् | पृ० | पं० | प्रकरणम् | पृ० | पं० |
| अथ ब्रह्मदिनोपपत्तिमाह | ६४ | ८ | *अथ ग्रहणवासना | * | |
| अथोदयवासनामाह | ६४ | १४ | तत्र चन्द्रार्कग्रहणयोः स्पर्शमोक्षेचदिग्वात्ययस्योपपत्तिमाह | ७४ | १९ |
| अथ गोलभ्रमणे चरखण्डैरूना विकत्वप्रतीत्यर्थमाह | ६५ | १२ | अथ नतिलम्बनयोः कारणमाह | ७५ | ७ |
| अथास्तमयानाह | ६६ | ३ | अथ छादकनिर्णयमाह | ७६ | ८ |
| षट्षष्ट्यक्षांशाधिके विशेषः | ६६ | १३ | अथ नतिलम्बने कुतः कुदलेन साध्येते इत्यस्योत्तरं | ७७ | १५ |
| अथोदयास्तमध्यलग्नस्थानान्याह | ६६ | २४ | अथ छेद्यकप्रकारेण लम्बनमाह | ७७ | २० |
| अथ लग्नार्थमर्कस्य तात्कालिकी करणवासनामाह | ६७ | ४ | अथ नत्युपपत्तिमाह | ७९ | ६ |
| अथ देशविशेषेण राशीन् सदोदिताननुदितांश्चाह | ६८ | ३ | अथ स्फुटलम्बनार्थमाह | ७९ | २४ |
| अथ लल्लोतदृश्यादृश्यलक्षणस्य दूषणमाह | ६९ | २४ | अथ क्लनवासनामाह | ८ | १८ |
| अथाक्षलम्बज्ञानार्थमाह | ७० | २३ | अतएव प्रतिवादिनं प्रत्याह | ८८ | २१ |
| अथ शंक्वानयनवासना | ७१ | ६ | *इति ग्रहणवासनाध्यायः | * | |
| अथ केषाञ्चिद्दूषणमाह | ७१ | १२ | अथोदयास्तवासना तत्रोदयऽस्ते च दृक्कर्मकारणमाह | ८९ | ८ |
| अथ शङ्कुस्थानमाह | ७१ | १८ | अथ दृक्कर्माह | ८९ | १८ |
| अथाग्रामुदयास्तसूत्रञ्चाह | ७२ | ९ | अथ शरस्पष्टीकरणमाह | ९० | १२ |
| अथ क्रान्तिक्षेत्राणि | ७३ | ९ | अथ ब्रह्मगुप्तादिभिः किं स्पष्टोनोक्त इत्याशङ्क्याह | ९१ | १ |
| अथाक्षक्षेत्राणि | ७३ | २१ | अथ मदूषणानुपहसन्नाह | ९१ | ७ |
| *इति त्रिप्रश्नवासनाध्यायः | * |
| प्रकरणम् | पृ० | पं० | प्रकरणम् | पृ० | पं० |
| अथोत्क्रमज्यानिवृत्तिमाह | ९१ | २१ | इदानीं यष्टिप्रयोजनमाह | १०५ | ८ |
| अथ व्यभिचारमाह | ९२ | ९ | एवं छायादर्शनात्कालज्ञानमुक्त्वेदानोमितावत्यभीष्टकाले नतेक्व छाया लगिष्यतीत्येतदर्थमाह | १०६ | १६ |
| अथ तन्मतिभ्रमे कारणमाह | ९३ | १८ | *इति फलकयन्त्रम् | * | |
| *इत्युदयास्तवासनाध्यायः | * | अथ यष्टियन्त्रमाह | १०७ | ||
| अथ शृङ्गोन्नतौ शुक्लत्वे कृष्णत्वे च कारणमाह | ९४ | १ | अथ केवले दिग्ज्ञाने मत्यक्षभामह | १०८ | १८ |
| अथ यन्त्राध्यायः | ९५ | १५ | इदानीं दिग्देशकालानामज्ञाने केवलार्कदर्शनादेव सर्वमाह | १०९ | २१ |
| अथ गोलयन्त्रमाह | ९५ | २१ | अथ धीयन्त्रं तत्प्रशंसाच | १११ | १८ |
| अथ नाड़ीयन्त्रमाह | ९६ | १२ | अथ ध्रुववेधेन पलभामाह | ११२ | २ |
| अथ घटीयन्त्रमाह | ९७ | १८ | अथ वंशादिवेधमाह | ११२ | १४ |
| अथ शङ्कुयन्त्रमाह | ९८ | १ | अथ केवलाग्रवेधेनाह | ११३ | १५ |
| अथ चक्रयन्तमाह | ९८ | ५ | अथ जलान्तर्वेधमाह | ११४ | १४ |
| अथ वेधेन ग्रहज्ञानमाह | ९९ | १ | *इति धीयन्त्रम् | * | |
| *इति चक्रयन्त्रम् | * | अथ स्वयंवहयन्त्रं | ११६ | ||
| चापं तुर्य्यं गोल यन्त्रमाह | ९९ | २२ | अथान्येषां स्वयंवहमुपहसन्नाह | ११७ | २१ |
| अथ फलकयन्त्रमाह | १०० | १० | *इति यन्त्राध्यायः | * | |
| इदानीं तल्लक्षणमाह | १०१ | १३ | |||
| इदानीं फलकयन्त्रोपकरणमाह | १०२ | १४ | |||
| इदानीं यष्टिसाधनमाह | १०३ | १४ |
| प्रकरणम् | पृ० | पं० | प्रकरणम् | पृ० | पं० |
| अथ ऋतुवर्णनं | ११८ | ५ | अथ खिलोदाहरणम् | १३० | ११ |
| *अथ प्रश्नाध्यायः | * | वर्गप्रकृतिमाह | १३० | ||
| तत्रादौतदारम्भप्रयोजनं | १२२ | १५ | अथ देशविशेषमुद्दिश्य पलांश प्रश्नमाह | १३१ | १८ |
| अथ बुद्धिमतः प्रशंसामाह | १२३ | १ | अथास्य भङ्गः | १३१ | २३ |
| अथ प्रश्नानाह | १२३ | ११ | अथोक्तनापिप्रश्नानेकीकर्त्तुमाह | १३४ | ७ |
| अथास्य भङ्गः | १२३ | २२ | इति प्रश्नाध्यायः | १४० | ६ |
| अथान्यं प्रशमाह | १२५ | ११ | अथ ज्योत्पत्तिः | १४० | ७ |
| अथास्य भङ्गः | १२५ | २० | *इति सिद्धान्तशिरोमणी गोलाध्यायः | * | |
| अथ महाप्रश्नमाह | १२७ | ११ | |||
| अथास्यभङ्गः | १२७ | २० | |||
| अथ निरभ्रचक्रादपि ग्रहादहर्गणप्रश्नमाह | १२८ | २३ | *इति सिद्धान्तशिरोमणौ गोलाध्यायस्य सूचीपत्रम् | * | |
| अथास्यभङ्गः | १२९ | ३ |
सिद्धान्तशिरोमणेः
गोलाध्यायो वासनाभाष्यसहितः ॥
अथ गोलाध्यायो व्याख्यायते।
गोलाध्याये निजे या या अपूर्वा विषमोक्तयः ।
तास्ता बालावबोधाय संक्षेपाद्विवृणोम्यहम् ॥
गोलग्रन्थो हि सविस्तरतया प्राञ्जलःकिन्तु अत्र या या अपूर्वा नान्यैरुक्ता उक्तयो विषमास्तास्ताः संक्षेपाद्विवृणोमि । अत्र या या इति प्रथमान्तं पदं तास्ता इति द्वितीयान्तं पदं बुद्धिमता व्याख्येयम।
तत्रादौ तावदभीष्टदेवतानमस्कारपूर्वकं गोलं ब्रवीमीत्याह।
मिडिं साध्यमुपैति यत्स्मरणतः क्षिप्रं प्रसादात् तथा
यस्याश्चित्रपदा खलङ्कृतिरलं लालित्यलीलावती।
नृत्यन्ती मुखरङ्गगेव कृतिनां स्याद्भारती भारती
तं ताञ्च प्रणिपत्य गोलममलं बालावबोधं ब्रुवे ॥१॥
ब्रुवेवच्मि। कः ? कर्त्ताहं भास्करः। किं ? गोलं गोलाध्यायम्। किंविशिष्टम् ? अमलं निर्दूषणम्। पुनः किम्भूतम् ? बालावबोधम्। अविषममित्यर्थः। किं कृत्वा ? प्रणिपत्य । प्रणिपातपूर्वकं नमस्कृत्य । कम् ? तम्। न केवलं तम्। ताञ्च । स कः ? सा च का ? तदाह। यस्य देवस्य स्मरणात् पुंसां साध्यमभीष्टं क्षिप्रं शीघ्रं सिध्यति । सोऽर्थाद्विघ्नराराजः । तथा यस्या देव्याः प्रसादात् कृतिनां
विदुषां भारती वाणी नृत्यन्तीभारतीव स्यात्। भारतो नर्तकस्त्री च। कथम्भूता वाणीनर्तकी च ? चित्रपदा । विचित्रपदविन्यासा। खलङ्कृतिः शोभनालङ्कारमुद्राङ्किता। लालित्यलीलावती। माधुर्य्यगुणसम्पन्ना। कथं वाक् नृत्यन्तीति चेत्। स्रवदमृतबिन्दुमन्दोहसदृशसुरससुकोमलीक्तिगुणा गद्यपद्यमयी चतुरजनमनश्चमत्कारकारिणीवाणी नृत्यन्तीव भाति। किंविशिष्टा भारती ? मुखरङ्गगा। मुख मेव रङ्गो मुखरङ्गः। रङ्गो नृत्यस्थानम् । यस्याः प्रसादात् कृतिनां मुखेष्वेवंविधा भारतीस्यात्। मा अर्थात् सरस्वती। तां च प्रणिपत्येति। मङ्कलादीनि मङ्गलान्तानि च शास्त्राण्यलंकारकृतां मतानि अतः सिद्धिवृद्धिशब्दावाद्यन्तयोर्निक्षिप्तौ ।
अथ गोलग्रथनेकारणमाह-
मध्याद्यंद्युसदां यदत्र गणितं तस्योपपत्तिं विना
प्रौढ़िं प्रौढमभासु नैति गणको निःसंशयो न स्वयम् ।
गोले सा विमला करामलकवत् प्रत्यक्षतो दृश्यते
तस्मादस्म्यपपत्तिबोधविधये गोलप्रबन्धोद्यतः ॥ २ ॥
स्पष्टार्थम्।
इदानीं गोलप्रशंसया गोलानभिज्ञगणकोपहासं श्लोकद्वयेनाह।
भोज्यं यथा सर्वरसं विनाज्यं राज्यं यथा राजविवर्जितञ्च ।
सभा न भातीव सुवक्तृहीना गोलानभिज्ञो गणकस्तथात्र ॥ ३॥
वादी व्याकरणं विनैव विदुषां घृष्टः प्रविष्टः सभां
जल्पन्नल्पमतिः स्मयात् पटुबटुर्भ्रू भङ्गवक्रोक्तिभिः ।
कोणः सन्नुपहासमेति गणको गोलानभिज्ञस्तथा
ज्योतिर्वित्सदसि प्रगल्भगणक प्रश्नप्रपञ्चोक्तिभिः ॥ ४ ॥
स्पष्टार्थम्।
अथ गोलस्वरूपमाह।
दृष्टान्त एवावनिभग्रहाणां संस्थानमानप्रतिपादनार्थम्।
गोलः स्मृतः क्षेत्रविशेष एव प्राज्ञैरतः स्याद्गणितेन गम्यः ॥ ५ ॥
स्पष्टार्थम्।
इदानीं गणितप्रशंसामाह।
ज्योतिः शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते
नूनं लग्नवलाश्रितः पुनरयं तत् स्पष्टखेटाश्रयम् ।
ते गोलाक्श्रयिणोऽन्तरेण गणितं गोलोऽपि न ज्ञायते
तस्माद्यो गणितं न वेत्ति स कथं गोलादिकं ज्ञास्यति ॥ ६ ॥
स्पष्टार्थम्।
इदानींज्योतिःशास्त्रश्रवणाधिकारिलक्षणमाह।
द्विविधगणितमुक्तं व्यक्तमव्यक्तयुक्तं
तदवगमननिष्ठः शब्दशास्त्रे पटिष्ठः।
यदि भवति तदेदंज्योतिषं भूरिभेदं
प्रपठितुमधिकारी सोऽन्यथा नामधारी ॥७॥
स्पष्टार्थम् ।
अथ व्याकरणवर्णनमाह।
यो वेद वेदवदनं सदनं हि सम्यग्-
ब्राह्म्याःस वेदमपि वेद किमन्यशास्त्रम् ।
यस्मादतः प्रथममेतदधीत्यधीमान्
शास्त्रान्तरस्य भवति श्रवणेऽधिकारी॥८॥
स्पष्टार्थम्।
अथात्मनो गोलग्रन्यस्य प्रवृत्तार्थमन्योक्तिप्रकारेणाह।
गोलं श्रोतुं यदि तव मतिर्भास्करीयं श्रुणु त्वं
नो संक्षिप्तो न च बहुवृथाविस्तरः शास्त्रतत्त्वम् ।
लीलागम्यःसुललितपदः प्रश्नरम्यः स यस्माद्
विहन् विद्वत्सदसि पठतां पण्डितोक्तिं व्यनक्ति ॥९॥
स्पष्टम्।
इतिगोलप्रशंसा।
अथ भूसंस्थानप्रश्न श्लोकद्वयेनाह।
भ्रमद्भचक्रचक्रान्तर्गगने गगनेचरैः।
वृता धृता धरा केन येन नयमियादधः ॥ १॥
किमाकारा कियन्माना नानाशास्त्र विचारणात् ।
कोदृग् द्वीपकुलाद्रीन्द्रसमुद्रैर्मुद्रितोच्यताम् ॥ २ ॥
इयं भूर्गगनेचरैः खेचरैर्वृता केन धृता सती गगने परितो वर्त्तमानेऽधीनेयान्नगच्छेत्। कथमियं गगने स्थितेत्यवगतम् । यतो भ्रमद्भचक्रचक्रान्तर्वर्तते। भानां चक्रं समूहः। भचक्रमेव चक्रंभचक्रचक्रम्। यदि भूमेमूर्ताधारपरम्पराङ्गीक्रियते तदा समन्ताद्वर्तमानघनभचक्रस्याधारे स्वलितस्य भ्रमणं नोपपद्यत इत्यर्थः । तथा च सा भूः किमाकारा कियन्माना द्वीपानां कुलाचलेन्द्राणां च कीदृगवस्थानमिति सर्वं नानाशास्त्रविचारणात्। बौद्धादिप्रतिवादिपक्षमधरीकत्योच्यतामित्यर्थः।
इदानीं ग्रहस्फुटीकरणोपपत्तिप्रश्नान् श्लोकद्वयेनाह।
संसिद्धाद्द्युगणाद्युगादिभगणैः खेटोऽनुपातेन यः
स्यात् तस्यास्फुटता कथं कथमथ स्पष्टोक्वतिर्नैकधा।
किं देशान्तरमुगमान्तरमहो बाह्वन्तरं किं चरं
किं चोच्चंमृदु चञ्चलञ्च तदिदं कस्तात पातः स्मृतः ॥३॥
किं केन्द्रं किमु केन्द्रजं किमु चलं किं वाचलं तत्फलं
कस्मात् तत्सहितः कुतश्च रहितः खेटः स्फुटो जायते ।
किं दृक्कर्म्म तथोदयास्तसमये द्वेधा विदध्युर्बुधाः
सर्व मे बिमलं वदामलमलं गोलं विजानासि चेत् ॥४॥
अत्र किं देशान्तरमुद्गमान्तरमित्यादि यत् पृष्टं तत् सर्वं मे विमलं यथा भवति तथा वद। यद्यमलं ब्रह्मादि सुकविरचितं गोलमलमत्यर्थं विजानासि । शेषं स्पष्टम् ।
अथ त्रिप्रश्ने दिनमानभेदप्रश्नंश्लोकद्वयेनाह।
महदहः किमहो रजनी तनु-
दिनमणी गणकोत्तरगोलगे।
ननु तनुर्दिवसो महतीनिशा
वद विचक्षण ! दक्षिणदिग्गते ॥ ५ ॥
भवति किं द्युनिशं द्यु निवासिनां
द्युमणिवर्षमितञ्च सुरद्विषाम् ।
पितृषु किं शशिमाममितं तथा
युगसहस्रयुगं द्रुहिणस्य किम् ॥ ६ ॥
स्पष्टम् ।
अथ राश्युदयभेदप्रश्नमाह ।
भवलयस्य किलार्कलवाः समाः
किमसमैः समयैः खलु राशयः ।
ममुपयान्त्युदयं किमु गोलविन्
न विषयेष्वखिलेष्वपि ते समाः ॥ ७॥
स्पष्टम्।
इदानीं द्युज्याकुज्यादिसंस्थानप्रश्न वृत्तार्द्धनाह।
द्युज्याकुज्यादिपमसमनराग्राक्षलम्बादिकानां
विहन् गोले वियति हि तथा दर्श्य क्षेत्रसंस्थाम् ।
स्पष्टार्थम् ।
इदानीं चन्द्रार्कग्रहणयोर्दिक्कालभेदाद्युपपत्तिप्रश्नान् सार्द्धश्लोकेनाह।
तिथ्यन्ते चेद्ग्रह उडुपतेः किंन भानोस्तदानी
मिन्दोःप्राच्यां भवति तरणेः प्रग्रहः किं प्रतीच्याम् ॥८॥
लम्बनं वत किं का च नतिर्मतिमतां वर।
तत्संस्कृतिस्तिथौ बाणे किं ते सिद्धे कुतः कुतः ॥ ९ ॥
अत्र किल प्रष्टुरयमभिप्रायः चन्द्रग्रहणे भूभा ग्रहणकर्त्री। पौर्णमास्यन्ते भूभेन्दोस्तुल्यत्वात् द्युतिर्भवितुमर्हति । एवं सूर्य्यग्रहे चन्द्रश्छादकः। दर्शान्ते तयोस्तुल्यत्वाद्योगेन भवितव्यम्। अत उक्तम्। तिथ्यन्ते चेत्ग्रह उडुपतेः किं न भानोस्तदानीमिति । वत अहो गणक लम्बनं नाम किनतिश्च का। तत्संस्कृतिस्तिथौबाणे च किम् । लम्बनेन तिथिः संस्क्रियते नत्या किं बाणश्च। तथान्यः प्रश्नः। ते सिद्धे कुतः कुत इति। ते लम्बनावनलो कुतो हेतोः कुतः पृथिव्याः साधिते भूव्यासार्द्धेन साधिते इत्यर्थः। तथेन्दोःप्राच्यां दिशि स्पर्शः। किं रवेः प्रतीच्यामित्यादि सर्वं वद ।
अथ शृङ्गोन्नतौ चन्द्रशुक्लस्य क्षयवृद्धिप्रश्नमाह।
शुक्लस्य द्विजराज एषमहसोद्वाभ्यांकुवृत्तः कुतः
सद्वृत्तत्वगतोऽप्यहो भ्रमभवादोषातिसङ्गादिव।
मम्प्राप्याथ पुनस्त्रयोतनुमतस्तस्याश्रयेणैव किं
शुक्लस्य क्रमशस्तथैव महसो वृध्येति सद्वृत्तताम् ॥ १० ॥
अहो गणक एष द्विजराजश्चन्द्रः सद्वृत्तत्वं गतोऽपि पौर्णमास्यां सुवर्तुलतां प्राप्तोऽपि कुतो हेतो कुवृत्तः कुवर्तुलो भवति। भ्रमभवाद्दोषातिसङ्गादिव। दोषा रात्रिः। तथा पौर्णमास्यां सकलया सकलस्यापि चन्द्रस्य यः सङ्गः सोऽति सङ्गः। तत्मङ्गानन्तरं शुक्लस्य तेजसो हानिं याति तया हान्या कुवृत्तः कुत्सितवृत्तः स्यादितीव प्रतिभाति। यथा द्विजराजो ब्राह्मणोऽपि सद्वृत्तत्वं सदाचारत्वं गतोऽपि भ्रम-
भवाच्चित्तचलनसम्भवाद्दोषातिमात्पापातिसङ्गात् शुक्लस्य शुद्धस्य तेजसो हानिं याति। तया कुत्मितवृत्तः स्यात् । अथ पुनस्त्रयोतनुमादित्यं प्राप्य ततोऽनन्तरं शुक्लस्य तेजसोवृद्ध्यातथैव सद्वृत्ततां सुवर्तुलतां प्राप्नोति। तस्य भगवतस्त्रयीतनोराश्रयेणैव । यथा कुवृत्तो ब्राह्मणस्त्रयीतनुन्त्रैविद्यं पर्षत्रैविद्यमेव वेति स्मृत्युक्तं पर्षद्रूपमन्यं ब्राह्मण प्राप्य तेनकृतानुग्रहस्तेजोवृद्धिं तया पुनः सुवृत्ततामेतीत्यर्थान्तम् ।
इति सिद्धान्तशिरोमणिवासनाभाष्ये मिताक्षरे
गोलाध्याये गोलस्वरूपप्रश्नाध्यायः ।
अथ प्रथमप्रश्नस्यपृथ्वीसंस्थानोपपत्तेरुत्तरं विवक्षुरादि सर्गेपृथिव्यादीनां तत्त्वानामादितत्त्वं निखिलजगज्जननैक बीजं परं ब्रह्म मनसा प्रणिपत्यादौ तावत् तज्जयमाह ।
यस्मात् क्षुब्धप्रकृतिपुष्पाभ्यां महानस्य गर्भे-
ऽहङ्कारोऽभूत् खकशिखिजलोर्व्यस्ततः संहतेश्च ।
ब्रह्माण्डंयज्जटरगमहीपृष्ठनिष्ठाद्विरञ्चे-
र्विश्वं शश्वज्जयति परमं ब्रह्म तत् तत्त्वमाद्यम ॥ १॥
जयति सवोत्कर्षेण वर्तते। किं तत् । परं ब्रह्म। आदितत्त्वं यत्। किम्बिशिष्टम्। यस्मात् क्षुब्धप्रकृतिपुरुषाभ्यां सकाशान्महानभूत्। महतो गर्भेऽहङ्कारोऽभूदित्यादि अत्रैतदुक्तं भवति। साङ्ख्यादि योगशास्त्रेषु श्रुति पुराणेषु चादिसर्गेयथोदितं तदत्रोच्यते। तत्र प्रकृतिर्नामाव्यक्तमव्याकृतं गुणसाम्यं कारणमित्यादयः प्रकृतेः पर्य्यायाः। तस्याः प्रकृतेरन्तर्भगवान् सर्वव्यापकः पुरुषोऽस्ति। सत्त्वं रजस्तम् इति सर्वे गुणास्तुल्या एव सन्ति । अतएव तद्गुणसाम्यम् । तथा
प्राकृतिके पूर्व प्रलये लोनस्तत्राव्यक्ती व्यापकः कालोऽप्यस्ति । यदा सभगवान् वासुदेवः परब्रह्माख्यः सिसृक्षुर्भवति तदा तस्मात् संकर्षणाख्योऽंशो निर्गत्य प्रकृतिपुरुषयोः सन्निधिस्थयोः क्षोभं जनयति। ताभ्यां क्षुब्धाभ्यां महानभूत्। महान् वै बुद्धिलक्षण इति। तन्महत्तत्त्वं बुद्धित्तत्त्वं चोच्यते। यन्महतत्त्वस प्रद्युम्ननामाभगवतोऽंशः तस्य महत्तत्त्वस्य विकुर्वाणस्य गर्भेऽहङ्कारोऽभूत्। सोऽनिरुद्धनामा। तपते वासुदेवसङ्कर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धा इति मूर्तिभेदा वैष्णवागमे विशेषतः प्रसिद्धाः। सोऽहङ्कारोगुणवशेन त्रिधाभवत । यः सात्त्विकः सवैकारिकः । यो राजसः स तैजसः । यस्तामसः स भूतादिः । यथोक्तं विष्णुपुराणे।
वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामसः।
त्रिविधोऽयमहङ्कारी महत्तत्त्वादजायत ॥
तत्र यस्तामसोऽहङ्कारः स भूतादिः। तस्मात् पञ्च महाभूतान्यभवन् । कानि तानि भूतानि। खकशिखिजलोर्व्यः । खमाकाशम् । को वायुः । शिखी अग्निः। जलमुदकम् । उर्वी पृथ्वी। एतानि भूतानि स्वस्वगुणपूर्वकाण्यभूवन् । शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा इत्याकाशादीनां मुख्यगुणाः। तत्राहङ्काराच्छब्दतन्मात्रम् । गुणस्यातिसूक्ष्मरूपावस्थानं तन्मात्रशब्देनोच्यते। शब्दतन्मात्रादाकाशम्। आकाशात् स्पर्शतन्मात्रम् । तस्माद्वायुः। वायोः रूपतन्मात्रम्। तस्मात् तेजः। तेजसो रसतन्मात्रम्। तस्माज्जलम्। जलद्गन्धतन्मात्रम्। ततः पृथ्वी। एवमाकाशादीन्येकोत्तरगुणान्यभवन् । अथ च तेषां गणानां शब्दादीनां ग्राहकाणीन्द्रियाणि । श्रोत्रं त्वक् चक्षुषो जिह्वा नासिका चेति पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि। वाक्पाणिपादगुदमेढ्राणीति पञ्च कर्मेन्द्रियाणि। अथोभयात्मकं
मनः। नहीन्द्रियैः स्वातन्त्र्येण गुणग्रहणं कर्त्तुं शक्यते अतस्तदधिष्ठातारो देवाः।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवङ्कोन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ।
इति श्रोत्रेन्द्रियस्य दिशः। त्वचो वायुः। चक्षुषोरर्कः । जिह्वाया वरुणः। नामिकयोरश्विनौ। तथा वाचोऽग्निः । बाह्वोरिन्द्रः । पादयोर्विष्णुः। गुदस्य मित्रः। मेढ्रस्य प्रजापतिः। मनसश्चन्द्रः। इतीन्द्रियाधिदेवताः। तत्र यानीन्द्रियाणि तानि तैजसादहङ्कारात्। ये देवास्ते वैकारिकादभवन् । यथोक्तं विष्णुपुराणे।
तेजसादिन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिकाद्दश ।
एकादशं मनश्चात्रदेवा वैकारिकाः स्मृताः ॥
इति। ततः संहतेश्च ब्रह्माण्डम् । एवमुत्पन्नानां तत्त्वानां समुदायात्-पूर्वं प्राकृतिकप्रलयमिलितसकलजलधिजले बुद्वदाकारं ब्रह्माण्डमभवत् । तज्जठरे पद्माकारा मही। तत्रकर्णिकाकारो मेरुस्तत्पृष्ठनिष्ठश्चतुर्वदनः कमलोद्भवस्तस्मात् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं विश्वमभवत् । यस्मादाद्यतत्त्वात् परब्रह्मणः क्षुब्धप्रकृतिपुरुषाभ्यां महदादिपरम्परासमुदायात्पादितब्रह्माण्डजठरगतजगतीजलजजनिताद्विरञ्चेरिदं विश्वमभवत् । शश्वदनवरतम् । तस्य ब्रह्मणोऽवसानेऽन्यो ब्रह्माहन्यज्जगदित्यर्थः । अतस्तदाद्यतत्त्वं जयति ।
इदानीं भूमेः स्वरूपमाह।
भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञकविरविकुजेज्यार्किनक्षत्रकक्षा
वृत्तवृत्तो वृतः सन् मृदनिलमलिलव्योमतेजोमयोऽयम्।
नान्याधारः स्वशक्त्येव वियति नियतं तिष्ठतौहास्य पृष्ठे
निष्ठं विश्वश्चशश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात् ॥ २॥
सर्वतः पर्वतारामग्रामचैत्यचयैश्चितः ।
कदम्बकुसुमग्रन्थिः केमरप्रकरैरिव ॥ ३ ॥
योऽयं मृदनिलसलिलव्योमतेजोमय इति पाञ्चभौतिको भूमिः पिण्डो वृत्तो वर्तुंलाकारस्तद्वहिस्थेः शशाङ्कादिकक्षावृत्तैरावृतः सन्ननन्याधारः स्वशक्त्यै व नियतं निश्चितं वियत्याकाशे तिष्ठति। तत्पृष्ठनिष्ठञ्च जगत्। सदनुजमनुजादित्यदैत्यम् । दनुजा दानवाः। मनुजा मानवाः । आदित्या देवाः। दैत्या असुराः । तैः समेतं समन्तात् तिष्ठति। शेषं स्पष्टार्थम् ।
इदानीं पुराणेषु भूमेराधारपरम्परा या पठिता तां निराकुर्वन्नाह।
मूर्तो धर्त्ताचेद्धरित्र्यास्ततोऽन्यः
स्तस्याप्यन्योऽस्यैवमत्रानवस्था।
अन्त्ये कल्प्याचेत् स्वशक्तिः किमाद्ये
किं नो भूमेः साष्टमूर्तेश्च मूर्त्तिः ॥ ४ ॥
स्पष्टम्।
इदानीं कथमियं भूमिःस्वशक्तिरित्याशङ्कां परिहरन्नाह।
यथोष्णतार्कानलयोश्च शीतता
विधौ द्रुतिः के कठिनत्वमश्मनि ।
मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो
यतो विचित्रा वत वस्तुशक्तयः॥ ५ ॥
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत्
स्वस्थं गुरु स्वाभिमुखं खशक्त्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ॥ ६ ॥
पूर्वश्लोकः सुगमः। आकृष्टशक्तिश्चमहीत्यनेन भूमेरधःपतनं तत्तिर्य्यगधः स्थितानां चाधःपतनशङ्का निरस्ता।
इदानीं बौधादियुक्तिमाह।
भपञ्चरस्य भ्रमणावलोका-
दाधारशून्या कुरिति प्रतीतिः ।
खस्थ न दृष्टञ्च गुरु क्षमातः
खेऽधः प्रयातीति वदन्ति बौद्धाः ॥ ७॥
द्वौ द्वौ रवीन्दुभगणौच तद्व-
देकान्तरौ ताबुदयं ब्रजेताम्।
यदब्रुवन्नेवमनम्बराद्या
ब्रवीम्यतस्तान् प्रति युक्तियुक्तिम् ॥ ८॥
भूमेः समन्ताद्वर्त्त मानस्य भपञ्जरस्यभ्रमणान्यथानुपपत्त्या निराधारा भूरिति तेषां प्रतीतिरभूत् । तथाकाशस्थं गुरु वस्तु किमपि न दृष्टम् । अतो भूरधो यातीति बौद्धा वदन्ति । यथा नौस्थौनावं गच्छन्तोमपि न वेत्ति तथा भूस्थो जनो न वेत्तोति। तथा द्वोसूर्य्योद्वौचन्द्रमसौ। चतुष्पञ्चाशन्नक्षत्राणि । चतुर्भुजस्तम्भनिभोमेरुः। एकान्तरकोणस्थौ सूर्य्यामेरुकोणवशेनैकान्तरो तावुदयं गच्छत इति जैनाश्चाब्रुवन् ।
इदानीं तेषां युक्तिभङ्गमाह ।
भूः खेऽधः खलु यातोति बुद्धिबौद्ध ! मुधा कथम् ।
जाता यातन्तु दृष्ट्वापि खे यत् क्षिप्तं गुरु क्षितिम् ॥ ९ ॥
यदि भूरधो याति तदा शरादिकभूर्ध्वंक्षिप्तं पुनर्भुवंनेष्यति । उभयोरधो गमनात् । अथ भूमेर्मन्दा गतिः शरादेः शीघ्रा। तदपि न । यतो गुरुतरं शीघ्रं पतति। उर्व्यतिगुर्वी । शरादिरतिलघुः। रे बौद्ध! एवं दृष्ट्वापि भूरधो यातीति बुद्धिः कथमियं तव वृथोत्पन्ना।
इदानीं जैनयुक्तिभङ्गमाह ।
किङ्गण्यं तव वैगुण्यं द्वैगुण्यं यो वृथा कृथाः ।
भार्केन्दूनां विलोक्याह्नाध्रुवमतस्यपरिभ्रमम् ॥१०॥
यदा भरणीस्थो रविर्भवति तदा तस्यास्तमयकाले ध्रुवमत्स्यस्तिर्यकस्थोभवति। तस्य मुखतारा पश्चिमतः। पुच्छतारा पूर्वतः। तदा मुखतारा सूत्रे रविरित्यर्थः। अथ निशावसाने मुखतारापरिवर्तयपूर्वतो याति। पुच्छतारा पश्चिमतो याति । ततो मुखतारासूत्रगतस्यैवार्कस्योदयो दृश्यते। अतो द्वो द्वौसूर्य्यावित्यनुपपन्नम्। अत उक्तं किमेकं तव वैगुण्यं गण्यम् । येन ध्रुवमत्स्यपरिभ्रमं दृष्ट्वापि भार्केन्दूनां द्वैगुण्यमङ्गीकृतम् ।
इदानींभूगोलस्य समतां निराकुर्वन्नाह ।
यदि समा मुकुरोदरसन्निभा भगवती धरणीतरणिः क्षितेः।
उपरि दूरगतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरैरमगरैरिव नेक्ष्यते ॥११॥
यदि निशाजनकः कनकाचलः
किमु तदन्तरगः स न दृश्यते ।
उदगयं ननु भरुरथांशुमान्
कथमुदेति च दक्षिणभागके ॥ १२ ॥
पुराणे भूः समादर्शोदरसन्निभा कथ्यते। तन्मध्ये मेरुः । परितो जम्बूद्वीपं लक्षयोजनव्यासम्। तद्वहिर्लक्षप्रमाणः क्षाराम्भोधिः। ततोऽन्यद्द्वीपं लक्षद्वयम्। ततः समुद्रस्ततोऽन्यद्द्वीपं द्विपाद्द्वीपं द्विगुणम् । समुद्रात् समुद्रो द्विगुणः । एवं यत् सप्तमं पुष्करद्वीपं तन्मध्ये मानसोत्तरपर्वतो वलयाकारोऽस्ति। तन्मस्तपकोपरि रविरथचक्रं लक्षयोजनान्तरे विषुवद्दिने भ्रमति । उत्तरगोले तदुत्तरतो दक्षिणगोले दक्षिणत इति।
अथ युक्तिरुच्यते। यदि समा भूस्तदा तदुपरि दूरगतो रविर्भ्रमन् किमस्मदादिभिर्न दृश्यते। सततं देवैरिव । यदि मेरुणान्तर्हितो रविस्तर्हिमेरुः कथं न दृश्यते । यदि मेरुतटा-
त्रिसृतस्यार्कस्योदयस्तर्हिप्राच्याउत्तरत एवार्कस्योदयेन भवितव्यम् । यतो मेरुरुत्तरतः। अथ कथं दक्षिणभाग उद्गच्छन् दृश्यते । अतो भूमेः समतायामिदं नोपपद्यत इत्यर्थः ।
अथ प्रत्यक्षविरोधशङ्कां परिहरन्नाह ।
समो यतः स्यात् परिधेःशतांशः
पृथ्वीच पृथ्वी नितरां तनीयान् ।
नरश्च तत्पृष्ठगतस्य क्वत्स्ना
समेव तस्य प्रतिभात्यतः सा ॥ १३ ॥
स्पष्टम्।
इदानीं खोलस्य भूपरिधिप्रमाणस्योपपत्तिमाह ।
पुरान्तरं चेदिदमुत्तरं स्यात् तदक्षविश्लेषलवैस्तदा किम् ।
चक्रांशकैरित्यनुपातयुक्त्या युक्तं निरुक्तं परिधेःप्रमाणम् १४ ॥
निरक्षदेशः स्वदेशाद्यथा यथा दक्षिणतो भवति तथा तथा स्वस्वस्तिकाद्विषुवद्वृत्तं नतम् । तयोरन्तरेऽक्षांशाः। ते च निरक्षदेशादपसारयोजनैरनुपातेनोत्पद्यन्ते। अतः कस्मिंश्चित्पुरेऽक्षांशान् ज्ञात्वा तस्मात् पुरादुत्तरतोऽन्यस्मिन् पुरे ज्ञेयाः । ततस्तेषामन्तरांशैःपुरान्तरयोजनैश्चानुपातः। यद्यन्तरांशैःपुरान्तरयोजनानि लभ्यन्ते तदा चक्रांशः ३६० किमिति । फलं भूपरिधियोजनानि।
अथ तदेव दृढ़ोकुर्वन्नाह।
निरक्षदेशात् क्षितिषोड़शांशे भवेदवन्ती गणितेन यस्मात् ।
तदन्तरं षोड़शसंगुणं स्याद्भूमानमस्माद्वहु किं तदुक्तम् ॥ १५ ॥
शृङ्गोन्नतिग्रहयुतिग्रहणोदयास्त-
च्छायादिकं परिधिना घटतेऽमुना हि।
नान्येन तेन जगुरुक्तमहीप्रमाण-
प्रामाणसमन्वययुजा व्यतिरेककेण ॥ १६ ॥
सष्टम्।
इदानीं भूगोले पुरनिवेशमाह।
लङ्काकुमध्ये यमकोटिरस्याः प्राक् पश्चिमे रोमकपत्तनं च ।
अधस्ततः सिद्धपुरं सुमेरुः सौम्येऽथ याम्ये वड़वानलश्च ॥१७॥
कुवृत्तपादान्तरितानि तानि स्थानानि षड्गोलविदो वदन्ति ।
वसन्ति मेरौ सुरसिद्धसंङ्घाऔर्वे च सर्वे नरकाः सदैत्याः ॥१८॥
यो यत्र तिष्ठत्यवनीं तलस्थामात्मानमस्या उपरि स्थितं च ।
स मन्यतेऽतः कुचतुर्थसंस्था मिथश्चते तिर्यगिवामनन्ति ॥१९॥
अधः शिरस्काः कुदलान्तरस्थाछायामनुष्या इव नीरतीरे ।
अनाकुलास्तिर्यगधःस्थिताश्चतिष्ठन्ति ते तत्र वयं यथात्र॥२०॥
सुगमम्।
इदानीं द्वीपानां समुद्रागां च स्थानमाह।
भूमेरर्द्धंक्षारसिन्धोरुटक्स्थं
जम्बूद्वीपं प्राहुराचार्यवर्याः।
अर्द्धेऽन्यस्मिन् द्वीपषट्कस्य याम्ये
क्षारक्षीराद्यम्बुधीनां निवेशः ॥ २१ ॥
लबणजलधिरादौ दुग्धसिन्धुश्च तस्मा-
दमृतममृतरश्मिः श्रीश्च यस्माद्बभूव ।
महितचरणपद्मःपद्मजन्मादिदेवै-
र्वसति सकलवासो वासुदेवश्च यत्र ॥ २२॥
दघ्नो घृतस्येक्षरसस्य तस्मान्मद्यस्य च स्वादुजलस्य चान्त्यः ।
स्वादूद कान्तर्वडवानलोऽसौ पाताललोकाः पृथिवीपुटानि ॥२३॥
चञ्चत्फणमणिगणांशुक्वतप्रकाशा
एतेषु सासुरगणाः फणिनो वसन्ति ।
दीव्यन्ति दिव्यरमणीरमणीयदेहैः
सिद्धाश्चतत्रच लसत्कनकावभासैः ॥ २४॥
शाकं ततः शाल्मलमत्रकौशंक्रौञ्चञ्चगोमेदकपुष्करे।
द्वयोर्द्वयोरन्तरमेकमेकं समुद्रयोर्द्वीपमुदाहरन्ति ॥ २५ ॥
स्पष्टम्।
इदानीं जम्बूद्वीपमध्ये गिरिनिवेशवशेन नव खण्डान्याह ।
लङ्कादेशाद्धिमगिरिरुदग्धेमकूटोऽथ तस्मात्
तस्माच्चान्योनिषध इति ते सिन्धुपर्व्यन्तदैर्घ्याः।
एवं सिद्धादुदगपि पुराच्यच्छृङ्गवच्छुक्तनीला
वर्षाण्येषां जगुरिह बुधा अन्तरे द्रोणिदेशान् ॥२६॥
भारतवर्षमिदं ह्मुदगस्मात् किन्नरवर्षमतो हरिवर्षम्।
सिद्धपुराच्चतथा कुरु तस्माद्विद्वि हिरण्मयरम्यकवर्षे ॥२७॥
माल्यवांश्चयमकोटिपत्तनाद्रोमकाच्च किल गन्धमादनः ।
नीलशैलनिषध्वधी च तावन्तरालमनयोरिलावृतम् ॥ २८ ॥
माल्यवज्जलधिमध्यवर्ति यत् तत् तु भद्रतुरगं जगुर्बुधाः।
गन्धशैलजलराशिमध्यग केतुमानकमिलाकलाविदः ॥२८॥
निषधनीलसुगन्धसुमाल्यकैरलमिलावृतमावृतमाबभौ।
अमरकेलिकुलायसमाकुलं रुचिरकाञ्चनचित्रमहीतलम् ॥ ३० ॥
अत्र भूगोलस्यार्द्धमुत्तरं जम्बूद्वीपम्। तस्य क्षाराब्धेश्च सन्धिर्निरक्षदेशः। तत्र लङ्का रोमकं सिद्धपुरं यमकोटिरिति पुरचतुष्टयं भूपरिधिचतुर्थांशान्तरं किल कथितम् । तेभ्यः पुरेभ्यो यस्यां दिशि मेरुः सोत्तरा। अतो लाङ्काया उत्तरतो हिमवान् नाम गिरिः पूर्वापरसिन्धुपर्य्यन्तदैर्घ्योऽस्ति। तस्योत्तरे हेमकूटः। सोऽपि समुद्रपर्यन्तदैर्घ्यः। तथा तदुत्तरेनिषधः। तेषामन्तरे द्रोणिदेशा बर्षसंज्ञाः। तत्रादौ भारतवर्षम्। तदुत्तरं किन्नरवर्षम् । ततो हरिवर्षमिति। एवं सिद्धपुरादुत्तरतः शृङ्गवान् नाम गिरिः। ततः श्वेतगिरिः। ततो नीलगिरिरिति। तेऽपि सिन्धुपर्य्यन्तदैर्घ्याः। तेषामन्तरे च
वर्षाणि। तत्रादौ कुरुवर्षम् । तदुत्तरे हिरण्मयम्। ततो रम्यकमिति। अथ यमकोटेरुत्तरतो माल्यवान् नाम गिरिः । स तु निषधनीलपर्यन्तदैर्घ्यः। तस्य जलधेश्च मध्ये भद्राश्वं वर्षम् । एवं रोमकादुत्तरतो गन्धमादनः। तस्य जलधेश्च मध्ये केतुमालम्। एवं निषधनीलमाल्यवद्गन्धमादनैरावृतमिलावृतं नाम नवमखण्डम्। सा स्वर्गभूमिः। अतस्तत्र देवक्रीड़ागृहाणि। शेषं स्पष्टम्।
इदानीं मेरुसंस्थानमाह।
इह हि मेरुगिरिः किल मध्यगः
कनकरत्नमयस्त्रिदशालयः ।
द्रुहिणजन्मकुपद्मजकर्णिके-
ति च पुराणविदोऽसुमवर्णयम् ॥ ३१ ॥
विष्कम्भशैलाः खलु मन्दरोऽस्य सुगन्धशैलो विपुलः सुपार्श्वः।
तेषु क्रमात् सन्ति च केतुवृक्षाः कदम्बजम्बूवटपिप्पलाख्याः॥३२॥
जम्बूफलामलगलद्रसतः प्रवृत्ता
जम्बूनदी रसयुता मृदभूत् सुवर्णम्।
जाम्बूनदं हि तदतः सुरसिहसंघाः
शश्वत् पिबन्त्यमृतपानपराङ्मुखास्तम् ॥ ३३ ॥
वनं तथा चैत्ररथं विचित्रं तेष्वप्सरो नन्दननन्दनञ्च ।
धृत्याह्वयं यद्वृतिकृत् सुराणां भ्राजिष्णु वैभ्राजमिति प्रसिद्धम्॥ ४३॥
सरांस्थश्चैतेष्वरुणश्च मानसं महाह्रदंश्वेतजलं यथाक्रमम् ।
सरः सुरामारमणमालसाः सुराः रमन्ते जलकेलिलालसाः॥ ३५ ॥
सद्रत्नकाञ्चनमयं शिखरत्रयञ्च
मेरौमुरारिकपुरारिपुराणि तेषु।
तेषामधः शतमखज्वलनान्तकानां
रक्षोऽम्बपानिलगशशौशपुराणि श्चाष्टौ॥ ३६ ॥
तस्येलावृतस्य मध्ये कनकरत्नमयो मेरुगिरिः कर्णिकाकारस्तदेव देवानामालयम् । तत्रमेरावुपरि शिखरत्रयम् । तेषु शिखरेषु मुरारब्रह्मणः पुरारेश्च पुराणि संन्ति । शिखराणामधः समन्तादिन्द्रादिलोकपालानां पुराणि सन्ति । अथ मेरोर्विष्कन्भशैला इत्याधारपर्वताः। यस्यां दिशि यमकोटिस्तद्दिक्प्रभृतिमन्दरसुगन्धविपुलसुपार्श्वादिक्षु सन्ति। मन्दरे कदम्बः केतुवृक्षश्चैत्ररथं वनमरुणोदं सरः। गन्धशैलमस्तके केतुवृक्षो जम्बूः। येनेदं जम्बूद्वीपमुच्यते। नन्दनं वनं मानसं सरः । विपुलशैलमस्तके केतुवृक्षोवटो धृतिर्वनं महाहृदं सरः । सुपार्श्वमस्तके केतुवृक्षः पिप्पलो वैभ्राजं वनं श्वेतोदं सरः। शेषं सुगमम् ।
तत्रान्य विशेषमाह ।
विष्णुपदी विष्णुपदान् पतिता मेरौ चतुर्धास्मात् ।
विष्कम्भाचलमस्तकशस्तसरःसङ्गतागता वियता ॥३७॥
सीताख्या भद्राश्वसालकनन्दा च भारत वर्षम् ।
चक्षुश्च केतुमालं भद्राख्या चोत्तरान् कुरुन् याता॥३८॥
याकर्णिताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टावगाहिता पीता।
उक्ता स्मृता स्तुता वा पुनाति बहुधापि पापिनः पुरुषान् ॥३६॥
यां चलिते दलिताखिल..धो गच्छति वल्गति तत्पितृसंघः
प्राप्ततटे विनितान्तकदूतो याति नरे निरबात् सुरलोकम्॥४०॥
गङ्गां यामीत्युपक्रमं कुर्वत्यपि नरे तस्य पितृृणांनरकस्थानां यमपाशबन्धास्त्रुट्यन्ति । अथ गच्छति मार्गलग्नेतत्पितरोवल्गन्ति। अस्मत्कुलजो गङ्गां गच्छति। अतोऽस्माकं दुष्कृतकर्म्मविच्छेदादूर्ध्वगतिर्भविष्यतीति हर्षेणोत्पतन्ति । अथ प्राप्ततटे गङ्गासङ्गस्थिते स्वकुलजे मकाबलेन सुष्टिक्षातादिभिर-
न्तकदूतान् जित्वा देवलोकं यान्ति। एवं विधाया मङ्गाया मन्दाकिन्याः किमन्यद्वर्ण्यतइत्यर्थः । शेषं स्पष्टम्।
इदानीं भारतस्यापि मध्ये नव खण्डानि सप्त कुलाचलांश्चाह।
ऐन्द्रं कशेरुशकलं किल ताम्रपर्ण-
मन्यद्गभस्विमदतश्च कुमारिकाख्यम् ।
नागञ्चसौम्यमिह वारुणमन्त्वखण्डं
गान्धर्वसंज्ञमिति भारतवर्षमध्ये ॥ ४१ ॥
वर्णव्यवस्थितिरिहैव कुमारिकाख्ये
श्रेषेषु चान्त्यजजना निवसन्ति सर्वे ।
माहेन्द्रशुक्तिमलयर्क्षकपारियात्राः
सद्यः सविन्ध्यह सप्त कुलाचलाख्याः ॥ ४२ ॥
स्पष्टम्।
इदानीं लोकव्यवस्थामाह।
भूर्लोकाख्यो दक्षिणे व्यक्षदेशात्
तस्मात् सौम्योऽयं भुवः स्वश्च मेरुः ।
लभ्यःपुण्यैःखे महः स्याज्जनोऽतो-
ऽनल्पानल्पैःस्वैस्तपः सत्यमन्त्यः ॥ ४२ ॥
स्पष्टम्।
यदिदमुक्तंतत् सर्वं पुराणाश्रितम्।
इदानीं दिग्व्यवस्थितिमाह।
लङ्कापुरेऽर्कयदोदयः स्यात् तदा दिनार्धं यमकोटिपुर्पाय्याम्।
अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रीमके रात्रिदलं तदैव ॥४४॥
यत्रोदितोऽर्कः किल तत्रपूर्वा
तत्रापरा यत्रगतः प्रतिष्ठाम् ।
तन्मत्स्यतोऽन्ये च ततोऽखिलाना-
मुदक्स्थितो मेरुरिति प्रसिद्धम् ॥४५॥
स्पष्टम् ।
इदानीं विशेषमाह।
यथोज्जयिन्याः कुचतुर्थभागे प्राच्यां दिशि स्याद्यमकोटिरेव।
ततश्च पश्चान्नभवेदवन्तौलङ्केव तस्याः ककुभि प्रतीच्याम् ॥४६॥
तथैव सर्वत्र यतो हि यत् स्यात्
प्राच्यां ततस्तन्नभवेत् प्रतीच्याम्।
निरक्षदेशादितरत्र तस्मात्
प्राचीप्रतीच्यो च विचित्रसंस्थे॥ ४७ ॥
इष्टप्रदेशान्मेरोरभिमुखोमुत्तरां दिशं निश्चलां कृत्वा निरक्षाभिमुखीं दक्षिणां च निश्चलां कृत्वा तन्मत्स्यात् प्राच्यपरा साध्या। एवं यत् प्राच्यग्रेचिह्नंभवति ततः पुनरुत्तरां दक्षिणां च साधयित्वा यावत् प्राच्यपरा साध्यते तावत् पूर्वरेखायां न पतति। उत्तरायाचलितत्वात् प्राच्यपरा चलिता भवतीत्यर्थः ।
शेषं सुगमम् ।
इदानीं चक्र भ्रमणव्यवस्थामाह।
निरक्षदेशे क्षितिमण्डलोपगौ
ध्रुवौ नरः पश्यति दक्षिणोत्तरौ।
तदाश्रितं खे जलयन्त्रवत् तथा
भ्रमद्भचक्रं निजमस्तकोपरि ॥ ४८॥
उदग्दिर्श याति यथा यथा नर-
स्तथा तथा खान्नतमृक्षमण्डलम्।
उदगध्रुवं पश्यति चोवतं चिते. . .
स्तदन्तरे योजनजाः पलांशकाः ॥ ४९॥
योजनसंख्या भांशैर्गुणिता स्वपरिधिहृता भवन्त्यंशाः।
भूमौ कक्षायां वा भागेभ्यो योनमानि च व्यस्तम् ॥ ५० ॥
उदग्दिशं याति यथा यथा नर इत्यनेनापसारयोजनैरनु
पातः सूचितः। यदि भूपरिधियोजनेश्चक्रांशःलभ्यन्ते तदापसारयोजनैः किमिति। फलमक्षांशाः। यदि चक्रांशमितपरिधिना भूपरिधिर्लभ्यते तदाक्षांशैः किमिति। फलं निरक्षदेशस्वदेशयोरन्तरयोजनानि स्युः। शेषं स्पष्टम् ।एवं निरक्षदेशात् क्षितिचतुर्थांशे किल मेरुः। तत्र नवतिः ९० पलांशाः ।
अतस्तत्र ध्रुवर्क्षसंस्थानमाह।
सौम्यं ध्रुवं मेरुगताः खमध्ये
याम्यं च दैत्या निजमस्तकोर्ध्वे।
सव्यापसव्यं भ्रमद्दक्षचक्रं
विलोकयन्तिक्षितिजप्रसक्तम् ॥ ५१ ॥
स्पष्टम्।
कृतेगोलबन्धे भगोलं परिभ्राम्येदंशिष्याय दर्शयेत् ।
इदानींभूपरिधिमानं प्राक्कथितमपि विशेषार्थमनुवदतिस्म।
प्रोक्तोयोजनसंख्यया कुपरिधिः सप्ताङ्गनन्दाब्धय- ४९६७
स्तद्व्यासः कुभुजङ्गसायकभुवः ‘सिद्दांशकेनाधिकाः १५८१ $\frac{१}{२४}$
पृष्ठक्षेत्रफलं तथा युगगुणत्रिंशच्छराष्टाद्रयो ७८५३०३४
भूमेः कन्दुकजालवत् कुपरिधिव्यामाहतेः प्रस्फुटम् ॥ ५२ ॥
भूव्यासः कुभुजङ्कसायकभूमितानि योजनानि चतुर्विंशत्यंशयुतानि १५८१$\frac{१}{२४}$ । परिधिः सप्ताङ्गनन्दाब्धिमितानि ४९६७। ब्रह्मोक्तभूव्यासस्य कथं त्वदुक्तादन्यः परिधिरिति चेदत्रोच्यते । महटयुतादि व्यासार्द्धंप्रकल्पा वृत्तशतांशादपि सूक्ष्मविभागस्य ज्योत्पत्तिविधिना ज्या साध्या। यत्संख्याकस्य विभागस्य ज्या तत्संख्यया सा गुणिता सती परिधिर्भवति। यतः शतांशादपि सूक्ष्मोंऽशो वृत्तेसमः स्यात् । अतोऽयुतद्वयव्यासे २००००। द्विकाग्न्यष्टयमर्तुमितः ६२८३२ परिधिरार्य्यभट्टादैरङ्कीकृतः। यत् पुनः श्रोधराचार्य्यब्रह्म-
गुप्तादिभिर्व्यासवर्गादशगुणात् पदं परिधिः स्थूलोऽप्यङ्गीकृतः स सुखार्थम्। नहि ते न जानन्तीति। तथा भूपृष्ठ क्षेत्रफलं योजनात्मकं युगगुणविंशच्छराष्टाद्रयः७८५३०३४ । कथमिदं जातं तदाह। परिधिव्यासाहतेः प्रस्फुटम्।
लल्लोक्तस्य नगशिलीमुखबाणभुजङ्गमेत्थादेर्भूपृष्ठफलस्य दूषणमाह।
दुष्टं कन्दुकपृष्ठजालवदिलागोले फलं जल्पितं
लल्लेनास्य शतांशकोऽपि न भवेद्यस्मात् फलं वास्तवम् ।
तत् प्रत्यक्षविरुद्धमुद्धतमिदं नैवास्तु वा वास्तु वा
हे प्रौढ़ा गणका विचारयत तन्मध्यस्थबुद्धा भृशम् ॥५३॥
यल्लल्लोक्त भूपृष्ठफलं तद्दुष्टम् । यतस्तदुक्ताफलस्य शतांशकोऽपि वास्तवं पारमार्थिकं फलं न भवति। अत्यन्तं दुष्टमित्यर्थः। कुतो यतस्तत् प्रत्यक्षविरुद्धम् । प्रत्यक्षबाधो हि महादूषणम्। अथात्मन औहंत्याशङ्कांपरिहरन्नाह। इदंमदुक्तं नैवोडतं किन्तु वस्तु परमार्थः। अथवा किं शपथ परिहारिण। उडतमस्तु वा वस्त्वस्तु वा हे प्रौढ़ा गणका मध्यस्थबुद्ध्याविचारयत भृगमत्यर्थम् ।
अथ सद्युक्तिः।
यत् परिध्यर्द्धविष्कम्भं वृत्तं कृत्तं किलांशुकम् ।
तेनार्द्धञ्छाद्यते गोलः किञ्चिद्वस्त्रेऽवशिष्यते ॥ ५४॥
गोलक्षेत्रफलात् तस्माद्वस्त्रक्षेत्रफलं यतः ।
सार्द्धद्विगुणितासन्नं तावदेवापरे दले ॥ ५५ ॥
एवं पञ्चगुणात् क्षेत्रफलात् पृष्ठफलं खलु ।
नाधिकं जायते तेन परिधिघ्नं कुतः कृतम् ॥ ५६ ॥
वृत्तक्षेत्रफलं यस्मात् परिधिघ्ननं न युक्तिमत् ।
दुष्टत्वाङ्गणितस्यास्य दुष्टं भूपृष्ठं फलम् ॥ ५७॥
गोलपरिध्यर्द्धप्रमाणो यथा व्यासो भवति तथा वस्त्रं वृत्तं कृत्वा तेन वस्त्रेण गोलोपरि न्यस्तेन गोलार्द्धं प्रच्छाद्यते। वस्त्रपरिधेः सङ्कोचात् किञ्चिद्वस्त्रेऽवशेषं भवति। एवं सति गोलव्यासवृत्तक्षेत्रफलाद्वस्त्रवृत्तक्षेत्रफलं सार्द्धद्विगुणितासन्नं भवति । तावदेवापरे किल गोलार्द्धे। एवं वृत्तक्षेत्रफलात् पञ्चगुणादधिकं पृष्ठफलंकथञ्चिदपि न भवति। किन्तु न्यूनमेव स्यात् । तर्हि तेन लल्लेन
वृत्तफलं परिधिश्चसमन्ततो भवति गोलपृष्ठफलम् ।
इति सगणिते कथंपरिधिघ्नं कृतम्। किन्तु वृत्तफलं चतुर्घ्नमेव पृष्ठफलं भवति। अस्य लल्लोक्तस्य गणितस्य दुष्टत्वाद्भूपृष्ठफलमपि दुष्टमित्यर्थः।
अथ बालावबोधार्थं गोलोस्योपरि दर्शयेत्। भूगोल मृण्मयं दारुमयं वा कृत्वा तं चक्रकलापरिधिं प्रकल्प्य२१६००तस्यमस्तके विन्दुं कृत्वातस्माद्विन्दोर्गोलषणवतिभागेन शरद्विदस्रसंख्येन २२५ धनूरूपेणैव वृत्तरेखामुत्पादयेत्। पुनस्तस्मादेव विन्दोस्तेनैव द्विगुणसूत्रेणान्यां त्रिगुणनान्यामेवं चतुर्विंशतिगुणं यावच्चतुर्विंशतिर्वृत्तानि भवन्ति। एषां वृत्तानां शरनेत्रबाहव २२५ इत्यादीनि ज्यार्धानि व्यासार्द्धानि स्युः । तेभ्योऽनुपातावृत्तप्रमाणानि । तत्र तावदन्त्यवृत्तस्य मानं चक्रकलाः २१६००। तस्य व्यासार्द्धंत्रिज्या ३४३८ । ज्यार्धानि चक्रकलागुणानि त्रिज्याभक्तानि वृत्तमानानि जायन्ते। द्वयोर्द्वयोर्वृत्तयोर्मध्यएकैकं वलयाकारं क्षेत्रम् । तानि चतुर्विंशतिः । बहुज्यापक्षे बहूनि स्युः। तत्र महदधोवृत्तं भूमिसुपरितनं लघु मुखं परहिदसमितं लम्बं प्रकल्प्यलम्बगुणं कुमुखयोगार्द्धमित्येवं पृथक् पृथक् फलानि। तेषां फलानां योगो गोलार्द्ध-
पृष्ठफलम्।तद्विगुणं सकलगोलपृष्ठफलम्। तद्व्यासपरिधिघाततुल्यमेव स्यात्।
अथान्यथा प्रतिपाद्यते ।
गोलस्य परिधिः कल्प्योवेदघ्नज्यामितेर्मितः ।
मुखबुध्नगरेखाभिर्यद्वदामलके स्थिताः ॥ ५८ ॥
दृश्यन्ते वप्रकास्तद्वत् प्रागुक्तपरिधेर्मितान् ।
ऊर्ध्वाधः कृतरेखाभिर्गोले वप्रान् प्रकल्पयेत् ॥ ५९॥
तत्रैकवप्रकक्षेत्रफलं खण्डैः प्रसाध्यते ।
सर्वज्यैक्यंत्रिभज्यार्धहीनं त्रिज्यार्धभाजितम् ॥ ६० ॥
एवं वप्रफलं तत् स्याद्गोलव्याससमंयतः।
परिधिव्यामघातोऽतो गोलपृष्ठफलं स्मृतम् ॥ ६१ ॥
अत्राभीष्ट कस्मिंश्चिद्ग्रन्थे यावन्ति ज्यार्धानि तत्संख्या चतुर्गुणा। तन्मितः किल गोले परिधिः कल्प्यः। यश्चामलकगोलपृष्ठे मुखबुध्नगरेखाभिः सहजाभिर्विभक्ता वप्रका दृश्यन्ते । तथाभीष्टेगोलपृष्ठे मस्तकात् तलगरेखाभिः कल्पितपरिधिसंख्यान् वप्रकान् प्रकल्प्यैकस्मिन् वप्रे क्षेत्रफलं साध्यम् । तद्यथा। इह किलधोवृद्धिदे चतुर्विंशतिज्यार्धानि । अतः षण्वतिहस्तमितोगोले परिधिः कल्पितः । प्रतिहस्तमूर्ध्वाधोरेखाभिस्तावन्त वप्रकाश्च कृताः। तत्रैकस्य वप्रकस्यार्द्धेहस्तान्तरै तिर्य्यग्रेखाः कृत्वा ज्यासंख्यानि चतुर्विंशतिखण्डानि कल्पितानि। तत्रजीवाः पृथक् पृथक् त्रिज्याभक्तास्तिर्यग्रेखाप्रमाणानि भवन्ति । तत्राधस्तनी रेखा हस्तमात्रा । उपरितन्यस्तु ज्यावशेन किञ्चित् किञ्चिन्न्यूनाः । सर्वत्र हस्तमित एव लम्बः। लम्बगुणं कुमुखयोगार्द्धमिति खण्डफलान्यानीयैकोकृतानि। तद्वप्रकार्धेफलम्। तटुद्विगुणमेकस्मिन् वप्रके फलं भवति। तत्साधनार्थमिहसूत्रमिदम् । सर्वज्यैक्यं त्रिभ-
ज्यार्धहीनमित्यादि । अत्रसर्वज्यानां शरनेत्रबाहव इत्यादीनामैक्यं सुरयमकृतवाणतुल्यम् । ५४२३३ । एतत् त्रिज्यार्धेनोनं जातं मनुतत्त्वपञ्चमितम्। ५२५१४ । एतत् त्रिज्यार्धभक्तं जातमेकवप्रके क्षेत्रफलं व्याससमम्। ३०।३३ । यत एतावानेव षण्वतिपरिधेर्गोलस्य व्यासः स्यात् ३०।३३ । परिधितुल्यकाश्चवप्रका इति परिधिव्यासघातो गोलपृष्ठफलमित्यपपन्नम्। तथा चोक्तमस्मत्पाटीगणिते।
वृत्तक्षेत्रे परिधिगुणितव्यासपादः फलं तत्
क्षुणं वेदैरुपरि परितः कन्दुकस्येव जालम् ।
गोलस्यैव तदपि च फलं पृष्ठजं व्यामनिघ्नं
षड्भिर्भक्तं भवति नियतं गोलगर्भे घनाख्यम् ॥
गोल पृष्ठफलस्य व्यासगुणितस्य षडंशो घनफलं स्यात् ।
अत्रोपपत्तिः । पृष्ठफलमख्यानि रूपबाहनि व्यासार्द्धतुल्यवेधानि सूचीखातानि गोलपृष्ठे प्रकल्पानि। सूच्यप्राणां गोलगर्भे संपातः। एवं सूचौफलानां योगो घनफलमित्युपपन्नम् । यत् पुनः क्षेत्रफलमूलेन क्षेत्रफलं गुणितं घनफलं स्यादिति। तत् प्रायश्चतुर्वेदाचार्य्यः परमतमुपन्यस्तवान् ।
इदानीं भूमेः प्रलयभेदौप्रलयांश्चाह ।
वृद्धिर्विधेरङ्किभुवः समन्तात् स्याद्योजनं भूभवभूतपूर्वैः ।
ब्राह्मेलये योजनमात्रवृद्धेर्नाशो भुवः प्राकृतिकेऽखिलायाः ॥६२॥
दिने दिने यन्म्रियते हि भूतैर्दैनन्दिनं तं प्रलयं वदन्ति ।
बाह्मंलयं ब्रह्मदिनान्तकाले भूतानि यद्ब्रह्मतनुं विशन्ति॥६३॥
ब्रह्मात्यये यत् प्रकृतिं प्रयान्ति सर्वाख्यतः प्राकृतिकं कृतीन्द्राः ।
लोनान्यतः कर्मपुटान्तरत्वात् पृथक्रियन्ते प्रकृतेर्विकारैः ॥६४॥
ज्ञानाग्निदग्धाखिलपुण्यपापा मनः समाधाय हरौपरेशे।
यद्यागिनो यान्त्यनिवृत्तिमस्मादात्यन्तिकं चेति लयश्चतुर्धा ॥६५॥
अत्र लयो नाम भूतविनाशः। स तु साम्प्रतं प्रत्यहमुत्पद्यते। स दैनन्दिन उच्यते। यो ब्रह्मदिनान्तेचतुर्युगसहस्रावसाने लोकत्रयस्यसंहारः स ब्राह्मोलय उच्यते । तत्राक्षीणपुण्यपापा एवलोकाः कालवशेन ब्रह्मशरीरं प्रविशन्ति। तत्र मुखं ब्राह्मणाः। बाह्वन्तरं क्षत्रियाः। ऊरुद्वयं वैश्याः । पादद्वयं शूद्राः। ततो निशावसाने पुनर्ब्राह्मणः सृष्टिं चिन्तयतोमुखादिस्थानेभ्यः कर्मपुटान्तरत्वाद् ब्राह्मणादयस्तत एव निःसरन्ति। तस्मिन् प्रलये भूवो योजनमात्रवृद्धेर्विलयो नाखिलायाः। अथ यदा ब्रह्मण आयुषोऽन्तस्तदा यः प्रलयः स महाप्रलय उच्यते । तत्र ब्रह्मा ब्रह्माण्डे। तत् पञ्चभौतिके । भूर्जले। जलं तेजसि। तेजो वायौ। वायुराकाशे । आकाशमहङ्कारे । अहङ्कारो महत्तत्त्वे। महत्तत्त्वप्रकृतौ। एवं सकलभुवनलोका अक्षौणपुण्यपापा एवाव्यक्तं प्रविशन्तिः । यदा भगवान् सिसृक्षुः प्रकृतिपुरुषौक्षोभयति । तदा तानि भूतानि कर्मपुटान्तरत्वात् प्रकृतेः स्वत एव निःसरन्ति । यथाह श्रीविष्णुपुराणे पराशरो जगदुत्पत्तिकारणम् ।
प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तय इति।
सृज्यशक्तयस्तत्कर्माणि। तान्येव सृष्टौमुख्य कारणम् । इतराणि निमित्तकारणानि । अन्यैरप्यक्तम्।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतरपि।
नह्यात्मानां भवति कर्मफलोपभोगः कायाद्विनेत्यादि ।
अस्मिन् प्रलयेऽखिलाया भुवो नाश इत्यर्थः। तथा ज्ञानाग्निदग्धाखिलपुण्यपापा योगिनो विषयेभ्यो मनः समाधाय समाहृत्य तद्वरौसमाहितं कृत्वा यान्ति । देहं त्यजन्ति । अनिवृत्तिं यान्ति। स आत्यन्तिको लय इति।
अथ ब्रह्माण्डगोलमाह।
भूभूधरत्रिदशदानवमानवाद्या
ये याश्चधिष्णगगनेचरचक्रकक्षाः।
लोकव्यवस्थितिरुपर्युपरि प्रदिष्टा
ब्रह्माण्डभाण्डजठरे तदिदं समस्तम् ॥ ६६॥
स्पष्टम्।
इदानीमन्योदितं ब्रह्माण्डमानं पूर्वं कथितमपि प्रसङ्गादनुवदतिस्म।
कोटिघ्नेर्नखनन्दषट्कनखभूभूभृद्भुजङ्गेन्दुभि-१८७१२०६९२००००००००
ज्योतिःशास्त्रविदो वदन्ति नभसः कक्षामिमां योजनैः ।
तद्ब्रह्माण्डकटाहसंपुटतटे केचिज्जगुर्वेष्टनं
केचित् प्रोचुरदृश्यदृश्यकगिरि पौराणिकाः सूरयः ॥ ६७ ॥
करतलकलितामलकवदमलं सकलं विदन्ति ये गोलम् ।
दिनकरकरैनिकरनिहततमसो नभसः स परिधिरुदितस्तैः॥१८॥
ब्रह्माण्डमेतन्मितमस्तु नोवा कल्पे ग्रहः क्रामति योजनानि ।
यावन्ति पूर्वौरह तत्प्रमाणं प्राक्तं खकक्षाख्यमिदं मतं नः ॥६९॥
प्रमाणशून्यत्वात् प्रयोजनाभावाञ्चास्माभित्रयाण्डमानं न कथितमित्यथः ।
इति गोलभाष्ये भुवनकोशः।
इदानीं भूमेरुपरि सप्त वायुस्कन्धास्तानाह।
भूवायुरावह इह प्रवहस्तदूर्ध्वः
स्यादुद्वहस्तदनु संवहसंज्ञकश्च।
अन्यस्ततोऽपि सुवहः परिपूर्वकोऽस्माद
बाह्यः परावह इमे पवनाः प्रसिद्धाः ॥ १॥
भूमेर्बहिर्द्वादशयोजनानि भूवायुरत्नाम्बुदविद्युदाद्यम्।
तदूर्ध्वगो यः प्रवहः स नित्यं प्रत्यग्गतिस्तस्य तु मध्यसंस्था ॥२॥
नक्षत्रकक्षाखचरैः समेतो यस्मादतस्तेन समाहतोऽयम् ।
भूपञजरःखेचरचक्रयुक्तोभ्रमत्यजस्रंप्रवहानिलेन ॥ ३ ॥
प्रसिद्धमिदम्।
इदानीं ग्रहाणां पूर्वगतिमनुपलक्षितामपि दृष्टान्तेन दृढ़ीकुर्वन्नाह।
यान्तो भचक्रे लघुपूर्वगत्या खेटास्तु तस्यापरशीघ्रगत्या।
कुलालचक्रभ्रमिवामगत्या यान्तो नं कीटा इव भान्ति यान्तः॥४॥
इदानीं मध्यगतिवासनां विवक्षुरादौतावद्भदिनपूर्वकं रवेःस्फुटसावन दिनमाह।
समं भसूर्य्यावदितौ किलार्च्या
षष्ट्याघटीमामुदितं पुनर्भम्।
रविस्ततः खोदयभुक्तिधातात्
खाभ्राष्टभू १८०० लबसमासुभिश्च ॥ ५ ॥
समागतासुसंयुता रवेस्तु षष्टिनाडिकाः।
स्फुटं द्युरात्रमुद्गमाद्द्युभुक्तितश्चतच्चलम् ॥ ६ ॥
षष्ट्या घटीनां भदिनं सदार्क्ष्यातद्भुक्तितुल्यासुयुतं खरांशोः ।
स्यान्मध्यमं सावनमेवमब्दे तत्संख्यका भभ्रमतो निरेका ॥ ७ ॥
यदा किमपि नक्षत्रं सूर्य्यश्च किल समकालमुदितः । नह्यर्कोदयवेलायां किमपि नक्षत्रमुपलभ्यते किन्तु केवलात्रयुक्तिरुच्यत इति किलशब्दः प्रयुक्तः। तस्मात् कालादनन्तरं नाक्षत्राणां घटीनां षष्ट्या ६० तन्नक्षत्रंपुनरुदेति । ततोऽनन्तरं रविरुदेति। स च कियता कालेन। तदर्थमनुपातः। रविः किल क्रान्तिवृत्ते स्फुटगत्या पूर्वतो गतः। यद्यष्टादशशतानि राशिकलाः खोदयासुभिरुङ्गच्छन्ति तदा स्फुटगतिकलाःकियद्भिरिति। एवं लब्धासुभिर्भोदयानन्तरं रवेरुदयः। अत एव नाक्षत्राःषष्टिघटिकास्तैर्लब्धासुभिरधिका रवैः स्फुटं
सावनमहोराव भवति। तच्चाहोरात्रं चलम् । प्रत्यहमन्यादृक् । प्रत्यहं गत्यन्यत्वात् प्रतिमासं राश्युदयान्यत्वाच्च। तत् पुनर्घटीषष्ट्या मध्यमभुक्तितुल्यासुयुतया सावनं द्युरात्रमुच्यते तत् मध्यमम्। यतोऽब्दान्ते यावन्ति स्फुटसावनानि तावन्त्ये व मध्यमानि स्युः। गतीनामुदयानां च झासवृद्ध्योस्तुल्यत्वात् । तत् कथं नित्यं रविगतिलिप्तासमासुभिः सहितो भाहः सावनाहो भवतीति लल्लादिभिरुक्तम्। स्यादेतत् यदि विषुवन्मण्डले रविः पूर्वतो याति । तर्हि विषुवन्मण्डलस्यैका कलैकेनासुनोदेति। तदा रविगतिलिप्तासमासुभिरिति वक्तुं युज्यते । तन्नयुक्तम्। रविः क्रान्तिवृत्तेन याति तत्र मेषराशेः कला अष्टादशशतानि १८०० गगनभूधरषट्कचन्द्रमितैरसुभि-१६७० रुद्गच्छन्ति। अन्यस्थान्यैरिति गतिकलानामनुपातेनासवः कर्तुयुज्यन्ते। एवं कृते सति स्फुटमहोरात्रं भवति । यत् तैरुक्तंतत् मध्यत्वमेव। एवं वर्षमध्ये यावन्ति स्फुटसावनानि तावन्येवमध्यमानि स्युः। तत्संख्यका भभ्रमतानिरेकेति। यावन्तो भभ्रमाजातास्त्त्संख्यकैकोना सती सावनदिवससंख्या भवति। यतो रविः पूर्वतो गच्छन्नेकं परिवर्तं गतः। अतस्तस्योदयसंख्यै कोनेत्युपपद्यते।
इदानीं वर्षमध्ये सावनसंख्यामाह।
पञ्चाङ्गरामास्तिथयः खरामाः सार्धद्विदस्राकुदिनाद्यमब्दे।
अस्यार्कमासोऽकलवः प्रदिष्टस्त्रिंशद्दिनः सावनमास एव ॥ ८ ॥
**एकस्मिन् सौरवर्षे पञ्चषष्ट्यधिकत्रिंशती३६५ मिताः सावनदिवसाः पञ्चदश १५ नाडिकाश्च त्रिंशत् ३० पलानि च सार्धानि द्वाविंशति-२२ । ३० र्विपलानि। एषामुपपत्तिमध्यगतिभाष्येकथितैव । अस्यार्कवर्षस्य द्वादशांशोऽर्कमासो भवतीति युक्तम्। सावनमासस्तु सावनानां त्रिंशतैव भवति। **
इदानीं चान्द्रमासमाह।
कालेन येनैति पुनः शशीनं
क्रामन् भचक्रं विवरेण गत्योः ।
मासः स चान्द्रोऽङ्कयमाः कुरामाः
पूर्णेषव २९।३१।५० स्तत्कुदिनप्रमाणम् ॥९॥
**दर्शान्ते किल शशी रविणा युक्तो भवति। ततो द्वावपि पूर्वतो गच्छतः तयोः शशी शीघ्रगत्वात् प्रत्यहंगत्यन्तरेणाग्रतो याति। एवं गच्छंश्चक्रकला-२१६००तुल्यमन्तरं यदाग्रतो याति तदा रविणा योगमेति। तयोः कालमोरन्तरालं चन्द्रमासः। तत्प्रमाणमनुपातेन । चन्द्रार्कयोर्मध्यगतौआदौ सम्यक् सावयवे कृत्वायदि गत्यन्तरेणैकं कुदिनं लभ्यते तदा चक्रकलातुल्येनान्तरेण कियन्तीत्यनुपातेन चान्द्रमासे कुदिनानि लभ्यन्ते। एकोनत्रिंशद्दिनान्येकत्रिंशद्घटिकाः पञ्चाशत् पलानि २९ । ३१ । ५० । इत्युपपन्नम्। **
इदानीमधिमासोपपत्तिमाह।
चान्द्रोनसौरेण हृतात् तु चान्द्रा-
दवाप्तसौरैर्दशनैर्दलाढ्यैः३२ । १६ ।
मासैर्भवेच्चान्द्रमसोऽधिमासः
कल्पेऽपि कल्प्याअनुपाततोऽतः ॥ १० ॥
सौरान्मासादैन्दवः स्याल्लधीयान्
यस्मात् तस्मात् संख्यया तेऽधिकाः स्युः।
चान्द्राः कल्पेसौरचान्द्रान्तरे ये
मासास्तज्ज्ञैस्तेऽधिमासाः प्रदिष्टाः ॥ ११ ॥
अत्रद्वितीयश्लोकस्तावत् प्रथमं व्याख्यायते। सौरान्मासादैन्दवो मासो यतो लघुरतः कारणात्कल्पे सौरमाससंख्याया-
श्चान्द्रमाससंख्याधिका भवति । यथा धान्यराशिमानेऽष्टसेतिकाहारमितेः षटसेतिकाहारमितिरधिका भवतीति बालैरपि बुध्यते । यावन्तश्चान्द्रमासाः कल्पोऽधिका भवन्ति तत्संख्याधिः माससंख्या तज्ज्ञैःकल्पिता । तत्रकियद्भिःसौरैरेकोऽधिमासो भवतीति युक्तिरुच्यते । चान्द्रो न सौरेण हृतात् तु चान्द्रादिति। सौरमासकुदिनेभ्यश्चन्द्रमासकुदिनेषु शोधितेषु शेषं दिनस्थाने पूर्णमधश्चतुष्पञ्चाशद्वटिकाः सप्तविंशतिपलानि सावयवानि ०। ५४। २७। ३१। ५२। ३० । एकस्मिन् सौरमास इदं सौरचान्द्रान्तरंकुदिनात्मकम्। युगस्यादेरुपर्य्येकस्मिन् दर्शान्तेप्राप्त एकश्चान्द्रमासः पूर्णस्तदनन्तरं चतुष्पञ्चाशद्वटिकाभिः सावयवाभिर्मध्यमार्कस्य वृषभसंक्रान्तिस्तत्र रविमासः पूर्णस्ततोऽन्यस्मिन् दर्शान्ते प्राप्तेऽन्यश्चान्द्रमासान्तः। ततो दर्शान्तादुपरि द्विगुणाभिस्ताभिरेव घटीभिर्मिथुनसंक्रान्तिः। एवं त्रिगुणचतुर्गुणादिभिः कर्कटादिसंक्रान्तयो भवन्ति। एवं संक्रान्तिरग्रतोऽग्रतो याति। पुनर्दर्शान्तं प्राप्नोति । तदा गतचान्द्रमासेभ्यः सौरा एकोना भवन्ति। यदा संक्रान्तिर्दर्शान्तमतिक्रम्याग्रतो याति तदानुपातेन यावन्तः सौरा भवन्ति तावद्भिरेकोऽधिमासः। तत्रानुपातः । यद्यनेन सौरचान्द्रन्तरेणकुदिनात्मकेन० । ५४।२७ । ३१ । ५२ । ३० एकः सौरो मासो भवति तदा चान्द्रमासान्तःपातिभिः कुदिनैः २९। ३१। ५० कियन्तइति। फलं सूर्य्यमासाः ३२ । १५ । ३१ । २८ । ४७। अत्रच बुधाधिमासैर्युगसौरमासा लभ्यन्ते तदैकेन किमिति । फलमेतावन्त एव सौरमासा लभ्यन्ते। एतावद्भिः सौरमासैरेकश्चान्द्रमासोऽधिको भवति। अत एवाधिमासस्य चान्द्रत्वम् । कल्पेऽपि कल्प्याअनुपातोऽत इति सुगमम् ।
इदानीमवमोपपत्तिमाह।
शशाङ्कमासोनितसावनेन ।२८।१०
त्रिंशवृता लब्धदिनैस्तु चान्द्रैः।
रुद्रांशकोनोब्धिरसैः६३।५४।३३ क्षयाहः
स्यात् सावनोऽतश्च युगेऽनुपातात्॥ १२ ॥
युगे चान्द्राणां मावनानां च दिनानां यदन्तरं तान्यवमानि।अत एकस्मिन् मासे चान्द्रमावनान्तरं कुदिनात्मकं गृहीतम् । तत्र दिवसाः पूर्णमष्टाविंशतिर्घटिका दशपानीयपलानि च । ० । २८ । १०। इदमेवास्मिन् चान्द्रमासे त्रिंशत्तिथ्यात्मके कुदिनात्मकमवमखण्डम्यद्यनेन त्रिंशच्चान्द्राणिदिनानि लभ्यन्ते तदा संपूर्णेनैकेनस्यमेन ।कियन्तीति त्रैराशिकेन लब्धेरुद्रांशकोनाब्धिरसै६३।५४।३३रेकः क्षयादोभवति स च सावनः । अखण्डस्य रूपस्य सावनेच्छाकल्पनात् । अतोऽनुपातात् कल्पेऽपि।
इदानीमधिमासस्थ चान्द्रंत्वनवमस्यसावनत्वमभिधायाद्भ्रमणात् कल्पगतमानेतु विलोमविधिना यान्यवमान्यानीतानि ये चाधिमासास्तेषां विशेषमाह।
सौरेभ्यः साधितास्ते चेदधिमासास्तदैन्दवाः ।
चेच्छान्द्रेभ्यस्तदा सौरास्तच्छेषं तदृशात्तथा ॥ १३॥
सावनान्यवमानि स्युश्चान्द्रेभ्यः साधितानिचेत् ।
सावनेभ्यस्तु चान्द्राणि तच्छेषं तद्वशात् तथा ॥१४ ॥
यथाहर्गणानयने सौरेभ्यश्चान्द्रान् साधयितुं येऽधिमासा आनीयन्ते ते चान्द्रास्तच्छेषञ्च चान्द्रम् । यदि चान्द्रेभ्यः सौरान् साधयितुं तदा सौरास्तच्छेषमपि सौरम्। एवं चान्द्रेभ्यः सावनानि साधयितुमवमान्यानीयन्ते तदा तानि सावनानि । यदि सावनेभ्यश्चान्द्राणिकर्तुं तदा चान्द्राणिस्युः। साध्यत्वं भजन्तीत्यर्थः । तच्छेषमपि तद्वशात्। अभिमतद्युगणादवमै-
हेतादित्यादिवाहर्गणात् कल्पगतमानीतं तदा सावनेभ्योऽवमान्धानीतानि। तानि चान्द्राणि। चन्द्रदिवसेभ्योऽधिमासाः साधितास्तेसौरास्तच्छेषं तद्वशादित्यर्थः । अधिमासस्य चान्द्रत्वे सौरत्वे चाधिमासशेषं तुल्यमेव स्यात्। किन्त्येकत्र रविदिनानि छेदः। अन्यत्र चान्द्राणि। एवमवमशेषस्यापि तुल्यत्वमेव । एकत्र चन्द्रदिनान्यन्यत्र कुदिनानि छेदः ।अधिमासावमशेषयोरिष्टजातित्वं प्रकल्प्यमतिमद्भिश्चन्द्रार्कानयनानिकृतानि। तत्रये जडास्ते वासनांपर्य्यालोचयन्तो भ्रमन्ति।
इदानीं विशेषः प्रश्नाध्याये।
अहर्गणस्यानयनेऽर्कमासा-
श्चैत्रादि चान्द्रैर्गणकान्विताः किम्।
कुतोऽधिमासावमशेषके च
त्यक्तेयतः सावयवीऽनुपातः ॥ १५ ॥
अस्य प्रश्नस्योत्तरमाह।
दर्शावधिश्चान्द्रमसोहि मासः
सौरस्तु संक्रान्त्यवधिर्यतोऽतः ।
दर्शाग्रतः संक्रमकालतः प्राक्
सदैव तिष्ठत्यधिमासशेषम् ॥ १६ ॥
दर्शान्ततो याततिथिप्रमाणैः
सौरैस्तु सौरा दिवसाः समेताः।
यतोऽधिशेषोत्थदिनाधिकास्ते
त्यक्तं तदस्मादधिमासशेषम् ॥ १७॥
तिथ्यन्तसूर्योदययोस्तु मध्ये
सदैव तिष्ठत्यवमावशेषम्।
त्यक्तेन तेनोदयकालिकः स्यात्।
तिथ्यन्तकाले द्युगणोऽन्यथातः ॥ १८॥
मध्यममानेन यावत्यमावास्यातदन्ते चान्द्रमासान्तः । मध्यमार्कस्ययस्मिन् दिने संक्रान्तिस्तत्र संक्रान्तिकाले रविमासान्तः। तयो रविचन्द्रमासान्तयोरन्तरे यावत्यस्तिथयः सावयवास्ता अधिमासशेषतिथयः। यतः सौरचान्द्रान्तरमधिमासाः। अहर्गणानयने गताब्दा रविगुणास्ते सौरा मासा जाताः ।चैत्रादिचान्द्रतुल्याः सौरा एव मासा योजितास्ते संक्रान्त्यवधयो जातास्तेषु त्रिंशद्गुणेषु मतिथितुल्याः सौरा एव दिवसा योजिताः। अतः सौरचान्द्रान्तरेणाधिका जातास्तदन्तरमधिमासशेषदिनानि भवन्ति। सौरचान्द्रान्तरत्वात्। अतोऽधिमासशेषदिनान्येभ्यः शोध्यानि। अथ चाधिमासानयनेऽनुपातलब्धौरधिमासैर्दिनौकृतैस्तच्छेषदिनैश्च युक्ताः सौराहाश्चान्द्राहा भवितुमर्हन्ति। एवमवाधिमासशेषदिनानि क्षेप्याणि । तत्र शोध्यानि । अतः कारणादधिमासशेषं त्यक्तम्। अथावमशेषत्यागकारणमुच्यते ।तिथ्यन्तानन्तरं यावतीभिर्घटीभिः सूर्य्योदयस्ता अवमशेषघटिकाः। यतश्चान्द्रसावनान्तरमवमानि। यद्यवमशेषं न त्यज्यतेलब्धावमैरवशेषघटिकाभिश्च तिथय जनीक्रियन्ते तदा तिथ्यन्ते सावनोऽहर्गणो भवति । अथ च सूर्योदयावधिः साध्यः । तिष्यन्ताहर्गणोऽवमशेषघटीभिर्युक्तः सन्नुदयावधिर्भवति। अतोऽवमशेषे त्यक्तेखतः सूर्य्यादयावधिर्भवति।
अथोदयान्तराख्यकर्मोपपत्तिमाह।
अहर्गणो मध्यमसावनेन कृतश्चलत्वात् स्फुटसावनस्य ।
तदुत्थखेटा उदयान्तराख्यकर्मोद्भवेनोनयुताः फलेन॥१९॥
**लङ्कोदये स्युर्न कृतास्तथाद्यैर्यतोऽन्तरं तच्चलमल्पकञ्च। **
योऽयमहर्गण आनीतःस मध्यमसावनेनैव। कुतः।स्फुटसावनस्य चलत्वात्। तथाविधेनानुपादेन स्फुटोनायातीत्यर्थः।
युगादेरारभ्य वर्त्तमानरविवर्षादेः प्राग्यावान् मध्यमसावनस्तावानेव स्फुटसावनः स्यात् । किन्तु रविवर्षादेरूर्ध्वंयावान् मधमसावनस्तावान् न स्फुटः । अतस्तदुत्थखेटा उदयान्तरास्थकर्मोद्भवेन फलेनोनयुताः सन्तो लङ्कोदये स्युर्नान्यथा। लङ्कायां भास्करोदये मध्या इति यदन्यैरुक्तं तदसत्। अथोदयान्तरकर्माह।
मध्यार्कभुक्ता असवो निरक्षे ये ये च मध्यार्ककलासमानाः २०** **
तदन्तरं यत् स्फु़टमध्ययोस्तदद्युपिण्डयोःस्याद्विवरं गतिघ्नम् ।
हृतं द्युरात्रासुभिराप्तलिप्ताहीना ग्रहाश्चेदसवीऽल्पकाःस्युः ॥२१॥
तदन्यथाढ्यास्तु निजोदयैश्चेत् भुक्तासुपूर्वं विहितं तदानीम्।
कृतं तथा स्याच्चरकर्ममिश्रंकर्म ग्रहाणामुदयान्तराख्यम् ॥२२॥
सायनांशेन रविणामेषादेरारभ्य ये भुक्ता राशयस्तत्सम्बन्धिनो ये निरक्षोदयासवोगगनभूधरषट्कचन्द्रा १६७० इत्यादयस्तेषामैक्यं कृत्वा भुज्यमानराशेर्ये भुक्ता भागास्तांस्तदुदयासुभिः संगुण्यत्रिंशता ३० विभज्य लब्धामवोऽपि तत्र क्षेम्याः। एवं मध्यार्कभुक्तासवः स्युः। भदिनान्तादूर्ध्वंतावत्यस्वात्मके काले लङ्कायां मध्यमस्यार्कस्योदयः । तत्काले हि ग्रहाः साध्याः। अथ चाहर्गणेन ये सिद्धास्ते मध्यमार्ककलामितेऽस्वात्मके काले भदिनान्तादूर्ध्व जाताः । अतोऽमूनां कलानाञ्च यदन्तरं तेनार्कोदयोऽन्तरितः। अतस्तदुदयान्तराख्यं कर्मोच्यते । तैरान्तरासुभिर्ग्रहगतिसंगुण्यार्कसावमाहोरात्रासुभि- १६ ५९ र्विभज्य लब्धकलाग्रहेऋणं कार्य्याः। यदि कलाभ्योऽसवोऽल्पकाः स्यः । अन्यथा घनम् । यदि तु स्वदेशोदयैर्मध्यमाकभुक्तानमूनानीयेदं कर्म कृतं तदीदयिकानां ग्रहाणां चरकर्मापि कृतं स्यात् । यदि तु स्फुटार्कभुक्तानमून् खोदयासुभिरानीयेदं कर्मकृतं तदोदयान्तरसुजान्तरचरकर्माणि त्रौण्यपि कृतानि स्युः । तर्हिकथमि-
दमुदयान्तराख्यं कर्माद्यैर्न कृतं तदाह। यतोऽन्तेतच्चसमल्पकश्च। वर्षचरणान्तेषु चतुर्ष्वभ्यन्तराभावः । तन्मध्येष्वन्तरस्य वृद्धिक्षयौ।
**इदानीं देशान्तरस्वरूपमाह। **
येऽनेन लङ्कोदयकालिकास्ते देशान्तरेण खपुरोदये स्युः।
देशान्तरं प्रागपरं तथान्यद्याम्योत्तरं तच्चरसंज्ञमुक्तम् ॥ ३३ ॥
य उदयान्तरकर्मणा लङ्कायामौदयिका, ग्रहा जातास्ते देशान्तरकर्मणा स्वपुरौदयिकाः स्युः । तच्चदेशान्तरंद्विविधम् । एकं पूर्वापरमन्यद्याम्योत्तरम्। तच्चरसंज्ञमुक्तम् ।
**तत्र तावत् पूर्वापरमाह। **
यल्लङ्कोज्जयिनीपुरोपरि कुरुक्षेत्रादिदेशान् स्पृशत्
मूत्रंमेरुगतं बधैर्निगदिता सा मध्यरेखा भुवः ।
आदौ प्रागुदयोऽपरत्र विषये पश्चाद्विरेखोदयात्
स्यात् तस्मात् कियते तदन्तग्भवं खटेष्वृणं खं फलम् ॥२४॥
लङ्काया मेरुपर्य्यन्तं नीयमाना रैखोज्जयनीकुरुक्षेत्रादिदेशान् स्पृशन्तीयाति सामध्यरेखेत्युच्यते । रेखायां यदार्कोदयस्तकालात् पूर्वमेव पूर्वदेशे भवति । रेखोदयकालादनन्तरं पश्चिमदेशेऽर्कोदयः। तदन्तरकालस्तदन्तरयोजनैः स्पष्टभूवेष्टनादनुपातेन ज्ञायते। यदि स्फुटपरिधियोजनैःषष्टि-६०घटिका लभ्यन्ते तदा रेखास्वपुरयोरन्तरयोजनैःकिमितीति त्रैराशिकेन देशान्तरघटिका लभ्यन्ते। मध्यगत्याधचानीता नाड्यस्ताभिरनुपातः। यदि घटीषष्ठ्या ग्रहस्य गतिकलालभ्यन्ते तदा देशान्तरघटीभिः किमिति। अथ योजनेरिवानुपातः । स्फुटपरिधियोजनैर्गतिःप्राप्यते तदा देशान्तरयोजनैःकिमिति । फलं कलाःप्रागृणं यतस्तवादावुदयः । पश्चाद्घनम्। यतस्तत्ररेखोदयादनन्तरमर्कोदय इत्युपन्नम् ।
इदानींभूगोले स्फुटपरिधिप्रदेशं स्फुटतानुपातञ्चाह ।
स्वदेशमेर्वन्तरयोजनैर्य-
ल्लम्बांशजैर्मेरुगिरेः समन्तात् ।
वृत्तं स्फुटो भूपरिधिर्यतः स्यात्
त्रिज्याहृतोलम्बगुणः कृतोऽस्मात् ॥ २५ ॥
**स्वपुरस्य मेरुगर्भस्य चान्तरे यावन्ति योजनानि तावन्ति लम्बांशजानि। यतो निरक्षदेशस्वपुरान्तरयोजनान्यक्षांशजानि। भागेभ्यो योजनानि च व्यस्तमित्युपपद्यत इत्यर्थः । तैर्लम्बांशजैर्योजनैर्मेरूगिरेः समन्ताद्यद्वृत्तमुत्पद्यते स स्फुटोभूपरिधिः। यो मध्यपरिधिः पठितःस निरक्षदेशोपरि। अयन्तु स्वपुरोपरि। अतः किञ्चिन्न्यूनो भवति। अथ तदानयनम् । मध्यपरिधेरभीष्टं त्रिज्यातुखंव्यासार्धं प्रकल्प्यतस्मिन् व्यासार्धेस्वपुरे यावती लम्बज्या तावत् स्फुटपरिधेर्व्यासार्धंभवितुमर्हति । अतस्तेन त्रैराशिकम् । यदि त्रिज्याव्य सार्धे मध्यमः परिधिर्लभ्यते तदा लम्बज्यामिते क इति। फलं स्फुटपरिधिरित्युपपन्नम्। **
इति गोलभाष्ये मध्यगतिवासना। अत्र ग्रन्थसंख्या १७५ ।
इदानीं गोलविवक्षुरादौ ज्योत्पत्तिकथने कारणमाह । पटो यथा तन्तुभिरुतिर्ध्वतिर्य्यग्रूपेर्निबद्धोऽत्र तथैव गोलः।दीः कोटिजीवाभिरमुं प्रवक्तुंज्योत्पत्तिमेव प्रथमं प्रवक्ष्ये ॥१॥
स्पष्टम्।
इदानीं जीवाक्षेत्रसंस्थानं तावदाह।
इष्टा त्रिज्या सा श्रुतिदोर्भुजज्या
कोटिज्या तद्वर्गविश्लेषमूलम् ।
स्फुटगतिवासनाया ज्योत्पत्तिः।
दोःकोट्यंशानां क्रमज्ये पृथक् ते
त्रिज्याशुद्धेकोटिदोरत्क्रमज्ये ॥ २ ॥
ज्याचापमध्ये खलु बाणरूपा
स्यादुत्क्रमज्या त्रिभमौर्विकायाः ।
वर्गार्द्धमूलं शरवेदभाग-
जीवा ततः कोटिगुणोऽपि तावान् ॥ ३ ॥
त्रिभज्यकार्धं, खगुणांशजीवा
तत्कोटिजीवा खरसांशकानाम् ।
क्रमोत्क्रमज्याकृतियोगमूलाद्-
दलं तदर्धांशकशिञ्चिनीस्यात्॥ ४ ॥
त्रिज्योत्क्रमज्यानिहतेर्दलस्य
मूलं तदर्धांशकशिञ्चिनी वा।
तस्याः पुनस्तद्दलभागकानां
कोटेश्च कोट्यंशदलस्य चैवम् ॥५ ॥
एवं त्रिषट्सूर्य्यजिनादिसंख्या
अभीष्टजोवाः सुधिया विधेयाः।
त्रिज्योत्थवृत्ते भगणाङ्किते वा
ग्रह्याअभीष्टा विगणय्य जीवाः॥ ६ ॥
अत्र त्रिज्योत्थवृत्ते भगणाङ्किते वेत्वेदन्त्यवृत्तस्योत्तरार्द्धमादौ व्याख्यायते । ज्योत्पत्तावभीष्टा त्रिज्या कल्प्यतेसमायां भूमौ त्रिज्यामिताङ्गलेन सूत्रेण वृत्तं विलिख्य दिगङ्कितं चक्रांशकैश्चाङ्कितं कृत्वा तत्रैकस्मिन्नेकस्मिन् वृत्तचतुर्थांशेनवतिर्नव-’ तिभागा भवन्ति । ततो यावन्ति ज्यार्धानि कार्य्याणितावद्भिर्विभाभागैरेकैकं वृत्तचतुर्थांशं विभज्य तत्र चिह्नानि कार्य्याणि । तद्यथा। यत्र चतुर्विंशतिर्जीवाःसाध्यास्तत्र चतुर्विंशतिर्भवन्ति । एवं द्वितीयचतुर्थांशेऽपि। ततो दिक्चिह्नादुभयत-
चिह्नद्वयोपरि गतं सूत्रंज्यारूपं भवति। एवं चतुर्विंशतिर्ज्या भवन्ति। तासामर्धानि ज्यार्धानि। तत्प्रमाणन्यङ्गुलैर्मित्वाग्राह्याणि।
अथादितो व्याख्यायते। येष्टा त्रिज्या स कर्णः कल्प्यः। या भुजज्या स भुजस्तयोः कर्णभुजयोर्वर्गान्तरपदं कोटिः । कोटिज्येत्यर्थः। तत्र ये भुजकोटिज्ये ते भुजकोट्यंशानां क्रमज्ये ज्ञातव्ये। भुजज्या त्रिज्यातो यावद्विशोध्यते तावत् कोट्यंशानामुत्क्रमज्यावशिष्यते। एवं कोटिज्योना त्रिज्या भुजांशानामुत्क्रमज्या स्यात् ।
**अथोत्क्रमज्यास्थानं दर्शयति। तत्र पूर्वलिखिते वृत्ते चिह्नयोरुपरि गतं सूत्रं किल ज्या। तदुपरि तयोश्चिह्नयोर्मध्ये यद्वृत्तखण्डं तच्चापं धनुः। चापमध्यस्य ज्यामध्यस्यच यदन्तरं बाणाकारं सोत्क्रमज्येत्युच्यते। त्रिभमौर्विकाया इत्यग्रे सम्बन्ध’। **
एवं साधारण्येन ज्याक्षेत्रं दर्शयित्वार्थ निर्दिष्टांशानां गणितेन जपानयनम्। त्रिभमौर्विकाया यद्वर्गार्धस्य मूलं सा पञ्चचत्वारिंशदंशानां ज्यास्यात्। तस्या यावत् कोटिज्या माध्यते तावत् तावत्येव भवति । यतस्तत्र कोट्यंशा अपि पञ्चचत्वारिंशत्।
अत्रोपपत्तिः ।त्रिज्येभुजत्रिज्या च कोटिस्तद्वर्गयोगपदं वृत्तान्तः समचतुरस्रस्य भुजःस्यात्। सैव नवतिभागानां ज्या। तदर्धं ग्राह्यम् । अतोवर्गयोगस्य चतुर्थांशःकृतः। तदेव त्रिज्यावर्गार्द्धमतस्तन्मूलं शरवेदभागज्येत्युपपन्नम्।
अथ त्रिंशद्भागानां ज्या त्रिज्यार्द्धमिता स्यात्। तस्याः कोटिज्या षष्टिभागानां ज्या स्यात् ।
अत्रोपपत्तिः। वृत्तान्तः पातिसमषडस्रस्यभुजो व्यासार्द्धमितः स्वादिति प्रसिद्धंगणितेऽपि कथितम् । अतस्त्रिज्यार्द्धत्रिंशद्भागज्ये त्युपपन्नम्।
अतःप्राग्वदुत्क्रमज्या। षष्टिभागज्ययोना त्रिज्याराश्चेरुत्क्रमज्या । सा कोटिरूपिणी। क्रमज्या भुजरूपिणीतदग्रयोर्निबद्धसूत्रंतत् कर्णः। तत् त्रिंशत्भानानां ज्यारूपम् । अतस्तर्द्धंपञ्चदशभागानां ज्यार्धमित्युपपन्नम् । एवं सर्वत्रतदर्धांशकशिञ्जिनीनामुपपत्तिर्ज्ञेया।
अथ प्रकारान्तरेण तदर्धांशकशिञ्चिनीमाह। त्रिज्योत्क्रमज्यानिहतेरित्यादि।
अस्योपपत्तिः तत्राद्याक्षरचिह्नैर्बीजप्रकारेणकथ्यते । तत्रोत्क्रमज्योना त्रिज्या किल कोटिज्या तस्यावर्गोऽयम् । उव १ उत्रिभा २ त्रिव १ । अनेनोना त्रिज्याकृतिर्दोर्ज्याकृतिः स्यात् । उव १ उत्रिभा २। अयं क्रमज्यावर्गउत्क्रमज्यावर्गयुतो जातः उत्रिभा २ । अस्य चतुर्थभागः उत्रिमा$\frac{१}{२}$ । अस्य मूलं ग्राह्यम् । अत उक्तं त्रिज्योत्क्रमज्यानिहतेरित्यादि । एवं तस्या अप्यन्या तदर्द्धांशकशिञ्चिनीति । एवं कोटिज्याया अपि यावदभिमतखण्डानि स्युः।
**तद्यथा। यत्र चतुर्विंशतिखण्डानि तत्र राशेर्ज्याष्टमं खण्डम् । तत्कोटिज्या षोड़शम् १६ । शरवेदभागज्या द्वादशम् १२ । अस्मात् खण्डत्रयात् कथितप्रकारेण चतुर्विंशतिखण्डान्युत्पद्यन्ते । तत्राष्टमात् तदर्द्धांशकशिञ्चिनौचतुर्थम् ४ । तत्कोटिज्या विंशम् २० । एवं चतुर्थाद्द्वितीयम् । द्वाविंशं च २२ । द्वितीयात् प्रथमं १ त्रयोविंशञ्च२३ ॥ एवं दशमचतुर्दशपञ्चमैकोनविंशसप्तमसप्तदशैकादशत्रयोदशमानीत्यष्टमात् १०१४ । ५ । १९ । ७ । १० । ११ । १३ । अथद्वादशात्षष्ठाष्टादशतृतीयैकविंशनवमपञ्चदशानि । ६ । १८ । ३ । २१ । ९ । १५।त्रिज्या चतुर्विंशमिति २४ ।
अतोऽवशिष्टांज्योत्पत्तिमग्रेवक्ष्यामः। **
इदानीं स्पष्टीकरणेफलस्योपपत्तिमाह।
भूमेमध्ये खलु भक्लयस्यापि मध्यं यतः स्याद्-
यस्मिन् वृत्ते भ्रमति खचरो नास्य मध्यं कुमध्ये।
भूस्थोद्रष्टा नहि भवलये मध्यतुल्यं प्रपश्यत्
तस्मात् तज्ज्ञैःक्रियत इह तद्दोःफलं मध्यखेटे ॥ ७ ॥
यदेतत् भपञ्चरेऽश्विन्यादीनां भानां वलयं तद्भूमेः समन्तात् सर्वत्र तुल्येन्तरे वर्तते। यतस्तस्य मध्यं कुमध्ये। अथ यस्मिन् वृत्ते ग्रहो भ्रमति तस्य मध्यंकुमध्ये न। तद्भूमेः समन्तात् समानान्तरं नेत्यर्थः । अतो भूस्थो द्रष्टा भवलये मध्यमस्थाने ग्रहं न पश्यति। किन्त्वन्यत्र पश्यति । तयोर्भवलये यदन्तरं तग्रहस्य फलमित्यर्थादुक्तं भवति । अत उक्तंतस्मात् तज्ज्ञैः क्रियत इह तद्दोःफलं मध्यखेट इति।
एवमेकेनैव लोकेन संक्षेपाच्छेद्यकसर्वस्वमुक्त्वेदानीं किञ्चित् सविस्तरं छात्रान् प्रत्याह ।
पूर्वापरायतायां तद्भित्तावुत्तरपार्श्वके।
दर्शयेच्छिष्यबोधार्थंलिखित्वा छेद्यकं सुधीः॥ ८॥
नाद्यापीदं सम्यगस्माभिर्ज्ञायत इति शिष्यैरुक्तआचार्य्य आह । पूर्वापरायतायामित्यादि । स्पष्टार्थम् ।
इदानीं कालविलम्बेन प्रतारणपरं वाक्यमिति ज्ञात्वा शिष्यैःपुनःदृष्टःसन्नाह।
दिव्यंज्ञानमतीन्द्रियं तदृषिभिर्ब्राह्म वशिष्ठादिभिः
पारम्पर्य्यवशाद्रहस्मभवनीं नीतं प्रकाश्यं ततः ।
नैतदूहेषिकृतघ्नदुर्जनदुराचाराचिरावासिनां
स्मादायुःसुकृतक्षयो मुनिकृतां सीमामिमासुञ्कतः .॥९ ॥
स्पष्टार्थम्।
**इदानीं विलिख्यं छेद्यकमाह । **
त्रिभज्यकासम्मितकर्कटेन कक्षाख्यवृत्तं प्रथमं विलिख्य।
तन्मध्यतो मध्यमखेटभुक्तितिथ्यंशमानेन महीं सुवृत्ताम् ॥ १० ॥
कखाख्यवृत्ते भगणाङ्कितेऽत्र दत्त्वोच्चखेटौ क्रियतोऽथ रेखा।
कुमध्यतुङ्गोपरिगा विधेयातिर्य्यक् ततोऽन्या सुधिया कुमध्ये ११
उच्चोन्मूखीमन्त्यफलज्यकां च दत्त्वा कुमध्याद्विलिखेत् तदग्रे।
त्रिभज्ययैव प्रतिमण्डलाख्यं सैवोच्चरेखा त्वपरात्रतिर्य्यक् ॥१२॥
तुङ्गोर्ध्वरेखा खलु यत्र लग्ना तत्रोच्चमस्मिन् प्रतिमण्डलेऽपि ।
ततो विलोमं खलु तुङ्गभागैर्मेषादिरस्मात् खचरोऽनुलोमम्॥ १३॥
देयस्तदुच्चान्तरमत्रकेन्द्रं दोर्ज्योच्चरेखाखगयोश्च मध्ये।
तिर्यक्स्थरेखाखगयोस्तु कोटिःसोर्ध्वाधरा बाहुगुणस्तु तिर्यक् १४
भित्तेरुत्तरपार्श्वेविन्दुंकत्वा तस्माद्विन्दोस्त्रिज्यामितेन कर्कटेन वृत्तं विलिखेत् । तत् कक्षावृत्तम् । यस्य ग्रहस्य छेद्यकं विलिख्यते तस्य मध्यमभुक्तिपञ्चदशांशेन तस्मिन्नेवबिन्दौ यद्वृत्तं क्रियते सा भूः। लम्बनावनतिदर्शनार्थमियं भूः। चन्यथा बिन्दुरेव भूः कल्प्यते। तत्कक्षावृत्तं चक्रांशैरङ्क्यम्। तत्रेष्टस्थाने मेषादि प्रकल्प्य तस्मान्मध्यमग्रहमुच्चं च दत्त्वा तदग्रयोश्चिह्ने कार्य्ये । भूम्युच्चयीरुपरि गता रेखा कार्य्या। सोचरखा। अथ भूमध्य उच्चरेखाजतिमत्स्येन तिर्यग्रेखान्या कार्य्या। अथ ग्रहस्थान्त्यफलज्यामितं सूत्रं भूमध्यादुच्चरेखायां दत्वा तदग्रचिह्नात् त्रिज्यामितेनैव कर्कटकेन यद्वृत्तं विलिख्यते तत् प्रतिमण्डलम् । तत्रापि सैवोच्चरेखा। किन्तु तन्मध्येऽन्यातिर्यग्रेखा कार्य्या। प्रतिमण्डलमपि चक्रांशेरङ्क्यम्। अथोच्चरेखोपरि नीयमाना यत्र लगति तत्रप्रतिमण्डलेऽप्युच्चंकल्प्यम् । तस्मादुच्चराशिभागान् विलोमतो गणयित्वा तदग्रेमेषादिः कल्प्यः। ततो ग्रहोऽनुलोमः देयः । तत्रग्रहोच्चयोरन्तरं केन्द्रम् । उच्चरे-
खायास्तिर्यग्ग्रहगामिनी रेखा सा दोर्ज्या। प्रतिमण्डलमध्ये या तिर्यग्रेखा तदुग्रहयोरन्तरं कोटिज्या । सा किलोर्ध्वरूपा भवति।
इदानीं फलानयन इतिकर्तव्यतोपपत्तिमाह ।
मध्यस्थरेखेकिल वृत्तयोर्येतदन्तरालेऽन्त्यफलस्य जीवा।
तदूर्ध्वतः कोटिगुणो मृगादौ कर्क्यादिकेन्द्रे तदधोयतः स्यात् ॥ १॥
अतस्तदैक्यान्तरमत्रकोटिर्दोर्ज्याभुजस्तत्कृतियोगमूलम् ।
कर्णःकुमध्यप्रतिमण्डलस्थखेटान्तरे स्पष्टखगो हि दृश्यः ॥ १६ ॥
कक्षाख्यवृत्ते श्रुतिसूत्रसक्तोफलं च मध्यस्फुटखेटमध्ये
मध्येऽग्रगे स्पष्टखगादृणं तत् पृष्ठस्थिते खं क्रियते ततश्च ॥१७॥
तयोः कक्षावृत्तप्रतिवृत्तयोमध्यस्थे ये तिर्यग्रेखे तयोरन्तरं सर्वत्रान्त्यफलज्यातुल्यमेव स्यात् । अतोऽन्त्यफलज्याग्रादुपरि प्रतिवृत्तस्य कोटिज्या मृगादौकेन्द्रं भवति। कर्क्यादौ तु तदधः । अतः कोटिज्यान्त्यफलज्ययोर्योगवियोगौकृतौ। तथा कृते सति कक्षामध्यगतिर्य्यग्रेखावधेः स्फुटा कोटिर्भवति । कोटितलकुमध्ययोरन्तरं दोर्ज्यास भुजः । तत्कोटिवर्गैक्यपदं कर्ण इत्युपपन्नम्। कर्णो नाम ग्रहकुमध्ययोरन्तरसूत्रम्। तत् सूत्रं कक्षामण्डले यत्र लग्नं तत्रस्फुटो ग्रहः ।स्फुटमध्ययोरन्तरं फलम् । तच्चमध्यग्रहात् स्फुटे ग्रहेऽधिके धनमून ऋणं क्रियत इत्युपपन्नम् । एवं मन्दफलेन मन्दस्फुटःशीघ्रफलेन स्फुटः स्यात्।
इदानीं मन्दस्फुटं मध्यमं प्रकल्प्यशीघ्रफलं यत् साध्यते तदुपपत्तिमाह।
मध्यो हि मन्दप्रतिमण्डले स्वेमन्दस्फुटो द्राक्प्रतिमण्डले च ।
भ्रमत्यतश्चञ्चलकर्मणीह मन्दस्फुटो मध्यखगःप्रकल्प्यः॥ १८ ॥
मन्दकर्मपूर्वकं शीघ्रकर्मेत्येतत् स्पष्टार्थम् ।
इदानीमुच्चोपपत्तिमाह।
भ्रमन् ग्रहः खे प्रतिमण्डले नृभिः।
स यत्र कक्षावलये विलोक्यते।
स्फुटो हि तत्रास्य फलोपपत्तये
प्रकल्पितं तुङ्गमिहाद्यसूरिभिः ॥ १९ ॥** **
यः स्यात् प्रदेशः प्रतिमण्डलस्य दूरे भुवस्तस्यकृतोच्चसंज्ञा।
सोऽपि प्रदेशश्चलतीति तस्मात् प्रकल्पिता तुङ्गगतिर्गतिज्ञैः॥२०॥
उच्चाद्भषट्कान्तरितं च नीचं मध्यः खनीचोच्चसमो यदा स्यात्।
कक्षास्थमध्योपरि कर्णसूत्रपातात् स्कुटोमध्यसमस्तदानीम्॥२१॥
उञ्चदेशात् क्रमेण चलितस्य फलप्रवृत्तिर्दृश्यते। अतस्तुङ्गं कल्पितम्। शेषंस्पष्टम्। मध्यगतिवासनायां च सविस्तर मुक्तम् ।
**इदानीमन्यदाह। **
उच्चस्थितो व्योमचरः सुदूरे नीचस्थितः स्यान्निकटे धरित्र्याः।
अतोऽणुबिम्बःपृथुलश्च भाति भानोस्तथासन्नसुदूरवर्ती ॥ २२ ॥
स्पष्टम् ।
इदानीमन्यद्वक्तुंप्रकारान्तरमाह।
उक्ता मयैषा प्रतिवृत्तभङ्ग्या युक्तिःपृथक् श्रोतुरसंभ्रमार्थम् ।
स्पष्टीकृतेस्तां पुनरन्यथाहं नीचोच्चवृत्तस्य च वच्मि भङ्ग्या॥२३॥
इह किल स्पष्टीकरणयुक्तिः प्रतिवृत्तभङ्ग्यामयोक्ता। अथ तामेव नीचोच्चवृत्तभङ्ग्यावच्मि ।
इदानींतां भङ्गिमाह।
कक्षास्थमध्यग्रहचिह्नतोऽथ
वृत्तं लिखेदन्त्यफलज्यया तत् ।
नीचोच्चसंज्ञं रचयैच्च रेखां
कुमध्यतो मध्यखगोपरिस्थाम् ॥ २४ ॥
कुमध्यतो दूरतरे प्रदेशे
रेखायुते तुङ्गमिह प्रकल्प्यम्।
नीचं तथासन्नतरेऽथ तिर्यङ्-
नीचोच्चमध्ये रचयेच्च रेखाम् ॥ २५ ॥
नीचोच्चवृत्ते भगणाङ्कितेऽस्मिन्
मान्दे विलोमं निजकेन्द्रगत्या।
शैघ्र्येऽनुलोमं भ्रमति स्वतुङ्गा-
दारभ्य मध्यद्युचरो हि यस्मात् ॥ २६ ॥
अतो यथोक्तंमृदुशीघ्रकेन्द्रं
देयं निजोच्चादद्युचरस्तदग्रे।
दोर्ज्योच्चरेखावधि खेटतः स्यात् ।
तिर्य्यक्स्थरेखावधि कोटिजीवा ॥ २७ ॥** **
प्राग्वत् कक्षावृत्तंचक्रांशाङ्कितं कृत्वा तत्र मध्यग्रहं च दत्त्वा ग्रहचिह्नेऽन्त्यफलज्याप्रमाणेनान्यद्वृत्तं लिखेत्। तन्नोचोच्चत्तसंज्ञम्। अथभूमध्याद्ग्रहोपरिगता रेखा किञ्चिद्दीर्घा कार्य्या। मात्रोच्चरेखा। नीचोच्चवृत्ते भूमेर्दूरतरे प्रदेशे रेखायुते उच्चं प्रकल्प्यम्। आसन्नेरेखायुते नीचम् । नीचोच्चचिह्नाभ्यां मत्स्यमुमुत्पाद्य तिर्य्यग्रेखा मध्ये कार्य्या। तस्मिन् वृत्ते केन्द्रगत्योच्चस्थानादारभ्य मध्यग्रहो भ्रमति। मान्दे विलोमं शैघ्र्येऽनुलोमम्। अतः कारणान्मन्दकेन्द्रमुच्चाद्विलोमंदेयम् । शीघ्रकेन्द्रमतुलोमम् । तदग्रेग्रहः । तत्रापि ग्रहोच्चरेखान्तरे दोर्ज्या। ग्रहतिर्य्यग्रेखयोरन्तरे कोटिज्या।
इदानीं कर्णानयनं फलं चाह।
ये केन्द्रदोः कोटिफले कृते ते
नीचोच्चवृत्ते भुजकोटिजीवे।
विज्योर्ध्वतः कोठिफलं मृगादौ
कर्क्यादिकेन्द्रे तदधो यतः स्यात् ॥ २८॥
अतस्तदैक्यान्तरमत्रकोटिर्दोर्दोःफलं भूग्रहमध्यसूत्रम् ।
कर्णोऽथ मध्यग्रहकर्णमध्ये फलं धनर्णंतदिहोक्तवञ्च ॥ २९ ॥** **
पूर्वार्द्धंसुगमम् । कक्षावृत्ते व्यासार्द्धेकिल त्रिज्या। त्रिज्याग्रादुपरि कोटिफलं यतोमगादौकेन्द्रे भवति कर्क्यादौ तु तदधः। अतस्तदैक्यान्तरं स्पष्टा कोटिः ।तस्मिन् त्रास्रेभुजफलमेव बाहुः। भूग्रहान्तरं कर्णः। दोःकोटिवर्गैक्यपदमिति प्रसिद्धम्। अत्रापि प्राग्वत् कक्षावृत्ते कर्णसूत्रसक्तेस्फुटो ग्रहः स्फुटमध्ययोरन्तरं फलमित्यादि।
इति नीचोच्चवृत्तभङ्गिः।
अथ मिश्रभङ्गिमाह।
मन्दोच्चतोऽग्रेप्रतिमण्डले प्राग-
ग्रहोऽनुलोमं निजकेन्द्रगत्या।
शीघ्राद्विलोमं भ्रमतीव भाति
विलम्बितः पृष्ठत एव यस्मात् ॥ ३०॥
नीचोच्चवृत्ते पुनरन्यथा ते
तस्यानुलोमप्रतिलोमयाने।
एका गतिः मा प्रतिभानमन्यत्
प्राज्ञैःफलार्थं प्रविकल्पितं तत्॥३१॥
भङ्गिद्वयं चेल्लिखितं विमिश्रं
वृत्तद्वयेऽप्यत्रयथोक्तदत्तः।
नीचोच्चवृत्तप्रतिवृत्तयोगे
भवत्यवश्यं द्युचरस्तदानीम् ॥ ३२ ॥
यथाभवेत् तेलिकयन्त्रमध्ये
काष्ठभ्रमो गोभ्रमतो विलोमः।
नीचोच्चवृत्तभ्रमणं तथान्यत्
स्याङ्गच्छतोऽपि प्रतिमण्डलेन ॥३३॥** **
ग्रहः पूर्वगत्याप्रतिमण्डलेनैव भ्रमति। यदेतन्नीचोच्चवृत्तं तत् प्राज्ञैर्गणकैःफलार्थंकल्पितम् । तत्र प्रतिमण्डलगतेर्विलोमं ग्रहो गच्छन्निवप्रतिभाति । कथं तत्रविलोमगतिः प्रतिभाति । तत्र दृष्टान्तः । यथा तैलिकयन्त्रमध्ये तिलपीड़नार्थमूर्ध्वकाष्ठंप्रक्षिप्यते। तस्ययथागोभ्रमाद्विपरीतो भ्रमः। तत्र गौः किलापसव्यंभ्रमति। तदूर्ध्व काष्ठंतथा भ्राम्यमाणमपि स्वाङ्गेनसव्यभ्रममुत्पादयति। एवं नीचोच्चवृत्ते भ्रमणं विपरीतमिव प्रतिभाति । शेषंस्पष्टम् ।
इति मिश्रभङ्गिः।
इदानीं मन्दशीघ्रकर्मद्वयेन स्फुटत्वे कारणमाह।
मध्यगत्या स्वकक्षाख्यवृत्ते व्रजेन्-
मन्दनीचोच्च वृत्तस्य मध्यं यतः।
तद्वतौशीघ्रनीचोच्चमध्यं तथा
शीघ्रनीचोच्चवृत्तेस्फुटः खेचरः ॥ ३४ ॥
शीघ्रनीचोच्चवृत्तस्य मध्यस्थितिं
ज्ञातुमादौकृतं कर्म मान्दं ततः ।
खेटबोक्षयशैघ्र्यंमिथः संश्रिते
मान्दशैघ्र्येहि तेनासकृत् साधिते ॥ ३५॥** **
नीचोच्चवृत्तमङ्गिपर्य्यालोचनयैवं परिणमतीति स्पष्टार्थम् ।
इदानीं मन्दकर्मणिकर्णःकिं न कृत इत्याशङ्के्योत्तरमाह।
स्वल्पान्तरत्वान्मृदुकर्मणीह
कर्णः कृतो नेति वदन्ति केचित्।
त्रिज्योवृत्तःकरर्णगुणः कृतेऽपि
कर्णे स्फुटः स्यात् परिधिर्यतोऽत्र॥३६॥
तेनाद्यतुत्थंफलमेति तस्मात्
कर्णः कृतो नेति च केचिदूचुः।
यतो नामनीयं न चले किमित्थं
यतो विचित्राफलवासनात्र॥ १७॥
इह कर्णेन यत् फलमानीयते तदेव समीचीनम् । यन्मन्दकर्मणि कर्णोन कृतस्तत् स्वल्पान्तरत्वात्। मन्दफलानि हि स्वल्पानिभवन्ति। तदनन्तरं चातिस्वल्पमिति केषाञ्चित्पक्षः। ब्रह्मगुप्तोऽत्र कारणमाह। त्रिज्याभक्तः परिधिः कर्णगुण इत्यादि। मन्दकर्मणि मन्दकर्णतुल्येन व्यासार्धेन यद्वृत्तमुत्पद्यते तत् कक्षामण्डलम्। तेन ग्रहो गच्छति। यो मन्दपरिधिः पाठपठितः स त्रिज्यापरिणतः। अतोऽसौ कर्णव्यासार्धे परिणाम्यते। ततोऽनुपातः। यदि त्रिज्यावृत्तोऽयं परिधिस्तदा कर्णवृत्ते क इति। अत्र परिधेःकर्णोगुणस्त्रिज्याहरः । एवं स्फुटपरिधिस्तेन दोर्ज्यागुण्या भांशै ३६० र्भाज्या । ततस्त्रिज्ययागुण्या कर्णेन भाज्या। एवं सति त्रिज्यातुल्ययोःकर्णतुल्ययोश्चगुणहरयोस्तुल्यत्वान्नाशे कृते पूर्वफलतुल्यमेव कालमागच्छतीति ब्रह्मगुप्तमतम्। अथ यद्येवं परिधेः कर्णेन स्फुटत्वं तर्हि किं शीघ्रकर्मणि नकृतमित्याशङ्क्यचतुर्वेद चाह । ब्रह्मगुप्तानान्येषां प्रतारणपरमिदमुक्तामिति। तदसत्। चले कर्मरीत्यंकिं न कृतमिति नाशङ्कनीयम् । यतः फलवासना विचित्रा। शुक्रस्थान्यथा परिधेः स्फुटत्वं भौमस्थान्यथा तथा किं न बुधादीनामिति नाशङ्क्यम् । अतो ब्रह्मोक्तिरत्र सुन्दरी ।
**इदानीं नतकर्मवासनामाह। **
प्राक्पश्चात् प्रतिमण्डलस्यखचरं द्रष्टा कुमध्यस्थितः
कक्षायां खलु यत्र पश्यति नतं नो तत्रभूपृष्ठगः ।
मध्याङ्के तु कुमध्यपृष्ठगनरौ तुल्यं यतः पश्यत-
स्तेनोक्तंनतकर्म सम्बनविधौ या युक्तिरत्रापि सा ॥३८॥
स्पष्टम्।
**इदानीं गतिफलाभावस्थाममाह। **
कक्षामध्यगतिर्य्यग्रेखाप्रतिवृत्तसंपाते।
मध्यैव गतिः स्पष्टा परं फलं तत्र खेटस्य॥ ३९॥
कक्षावृत्तमध्येथा तिर्य्यग्रेखा तस्याः प्रतिवृत्तस्य च यः सम्पातस्तत्रमध्यैव गतिः स्पष्टा। गतिफलाभावात्। किञ्च तत्र ग्रहस्य परमं फलंस्यात् । यत्र ग्रहस्य परमं फल तत्रेव गतिफलाभावेन भवितव्यम्। यतोऽद्यतनश्वस्तनग्रहयोरन्तरगतिः। फलयोरन्तरं गतिफलम् । ग्रहस्य गतेर्वा फलाभावस्थानमेव धनर्णसन्धिः। यत् पुनर्लल्लोक्रम् ।
मध्यैव गतिःअष्टा वृत्तद्वययोगगेद्युचरे।
इति । तदसत् न हिवृत्तद्वययोगे ग्रहस्य परमं फलम् ।
इदानीं ग्रहस्यवक्रत्वं छेद्यके यथा शीघ्रंदृश्यते तदर्थमाह ।
वंशोद्भवाभिःप्रतिमण्डलाद्यं
कृत्वा शलाकाभिरिदं यथोक्तम्।
प्रचास्थ तुङ्गं खचरं च गत्या
वकादि सर्वंखलुदर्शयेद्द्राक् ॥ ४० ॥** **
**वंशशलाकाभिश्चेद्यकं कृत्वा तत्राद्यतनस्थुटग्रहस्थानं चिह्नयित्वा द्वितीयदिन उच्चं ग्रहं चोच्चवशान्मेषादिकं च प्रकल्प्यान्यत् स्फुटग्रहस्थानं चिह्न्यम्। तत् पूर्वचिह्नाद्यदि पृष्ठगतं तदा वक्रा गतिर्ज्ञेया। **
**इदानीं केन्द्रसंज्ञां स्फुटकक्षां चाह। **
वृत्तस्य मध्यं किल केन्द्रमुक्तं केन्द्रं ग्रहोच्चान्तरमुच्यतेऽतः ।
यतोऽन्तरे तावति तुङ्गदेशान्नीचोच्चवृत्तस्य सदैव केन्द्रम् ॥४१॥
ग्रहस्य कक्षा चलकर्णनिघ्नो स्फुटा भवेद्व्यासदलेन भक्ता।
तद्व्यासखण्डान्तरितः कुमध्यात् स भ्राम्यते हि प्रवहानिलेन॥ ४२
श्लोकद्वयमपि स्पष्टम्।
इदानीं भुजान्तरकर्मोपपत्तिमाह ।
मध्यमार्कोदयात् प्राक् स्फुटार्कोदयः
स्यादृणे तत्फले स्वेयतोऽनन्तरम्।
तेन भास्वतफलोत्थासुजातं क्षयः
स्वं फलं युक्तियुक्तं निरुक्तं ग्रहे ॥ ४३ ॥
स्पष्टं स्फुटगतौव्याख्यातञ्च ।
इदानीं छेद्यकोपसंहारेण गणकप्रज्ञां वर्ण्यन्नाह।
ये दर्भगर्भाधियोऽत्र तेषां स्याच्छेद्यकार्थः परमाणुरूपः ।
येऽन्ये जड़ाःकुण्ठधियश्च तेषां स्यादिन्द्रवज्जाहतपक्षतुल्यः ॥ ४४ ॥
इन्द्रवज्जाहतपक्षः पर्वतस्तत्तुल्यश्छेद्यकार्थो जडानाम्।
इन्द्रवज्जाच्छन्दश्च सूचितम्। शेषं स्पष्टम्।
***इति श्रीभास्करीये गोलभाष्येमिताक्षरे स्फुटगति वासनायां छेद्यकाधिकारः। ***
अत्र ग्रन्थसंख्या २४०।
__________
इदानीं गोलबन्धाधिकारमाह।
सुसरलवंशशलाकावलयैः श्लक्ष्णैःसचक्रभागाङ्कैः ।
रचयेद्गोलं गोले शिल्पे चानल्पनैपुणो गणकः ॥ १॥** **
स्पष्टम्।
अथ गोलबन्धमाह।
कृत्वादौध्रुवयष्टिमिष्टतरुजामृज्वीं सुवृत्तां ततो
यष्टीमध्यगतां विधाय शिथिलां पृथ्वीमपृथ्वीं बहिः ।
बन्धोयाच्छशिसौम्यशुक्रतपनारेज्यार्किभानां दृढ़ान्
गोलांस्तत्परितः श्लथौ च नलिकासंस्थौखदृग्गोलकौ॥२॥
आदौ सारदारूमयीं यष्टिं कृत्वा तदर्द्धस्थाने तत्रप्रोतां पृथ्वीं सूक्ष्मां शिथिलाञ्च विधाय तस्या बहिश्चन्द्रादीनां गोलान् यष्ट्यासह दृढ़ान् बध्नीयात्। तेषां बहिर्नलिकासंस्थौ खदृग्गोलाविति साधारस्येनोक्तम्।
इदानीं सविशेषमाह।
पूर्वापरं विरचयेत् सममण्डलाख्यं
याम्योत्तरञ्च विदिशोर्वलयद्वयञ्च ।
ऊर्ध्वाध एवमिह वृत्तचतुष्कमेत-
दावेष्ट्यतिर्य्यगपरं क्षितिजं तदर्धे ॥ ३ ॥
**एकं पूर्वापरमन्यद्याम्योत्तरं तथा कोणवृत्तद्वयमेवं वृतचतुष्टयमूर्ध्वाधोरूपमावेष्ट्यतदर्द्धेवृत्तं क्षितिजाख्यं निवेशयेत् ।अत्र याम्योत्तरवृत्त उत्तरक्षितिजादुपरि पलाशान्तर एकं ध्रुव-चिह्नं कार्य्यम् । दक्षिणक्षितिजादधोऽन्यत्। **
इदानीमुन्मण्डलमाह।
पूर्वापरक्षितिजमङ्गमयोविलग्नं
याम्ये ध्रुवे पललवैः क्षितिजादधःस्थे ।
सौम्ये कुजादुपरि चाक्षलवैर्ध्रुवेत-
दुमण्डलं दिननिशोः क्षयवृद्धिकारि ॥ ४ ॥
समवृत्तक्षितिजयोर्यौपूर्वापरौसंपातौतयोर्ध्रुवचिह्नयोद्यसक्तं यन्निबध्यते तदुन्मण्डलसंज्ञम्। दिनरात्र्योर्वृद्धिक्षयौ तद्वशेन भवतः।
इदानीं विषुवन्मण्डलमाह।
पूर्वापरस्वस्तिकयोर्विलग्नंखस्वस्तिकाद्दक्षिणतोऽतभागैः।
अधश्च तैरुत्तरतोऽङ्कितञ्च षष्ट्यात्रनाडीवलयं विदध्यात् ॥ ५ ॥
तयोरेव पूर्वापरसंपातयोर्विलग्नंतथा याम्योत्तरवृत्ते स्वस्वस्तिकाद्दक्षिणतोऽधःस्वस्तिकादुत्तरतोऽक्षांशान्तरे यवृत्तं निबध्यते ताद्विषुववृत्तम्।
इदानीं दृङ्मण्डलमाह।
ऊर्ध्वाधरस्वस्तिककोलयुग्मे प्रोतं श्लथं दृग्वलयं तदन्तः ।
कृत्वा परिभ्राम्य च तत्र तत्र नेयं ग्रहो गच्छति यत्र यत्र ॥६॥
**खस्वस्तिके चाधःस्वस्तिके चान्तःकीलकौकृत्वा तयोः प्रोतं श्लथंदृग्वलयं कार्य्यम्। तत्तु पूर्ववृत्तेभ्यः किञ्चिन्न्यूनं कार्य्यम् । यथा खगोलान्तर्भ्रमति। यद्येक एव ग्रहगोलस्तदैकमेव दृङ्मण्डलम् । यो यो ग्रहो यत्र यत्र वर्त्ततेतस्य तस्योपरीदमेव परिभ्राम्य विन्यस्य दृग्ज्याशक्तादिकं दर्शनीयम्। अथवा पृथक् पृथगष्टौदृङ्मण्डलानि रचयेत्। तत्राष्टमं वित्रिभलग्नस्य । तच्च दृकक्षेपमण्डलम्। **
अथ विशेषमाह।
ज्ञेयं तदेवाखिलखेचराणां
पृथक् पृथग्वा रचयेत् तथाष्टौ।
दृङ्मण्डलं वित्रिभलग्नकस्य
दृक्क्षेपवृत्ताख्यमिदं वदन्ति ॥ ६॥
**व्याख्यातमेवेदम्। **
इदानीमेवं खगोलमुक्ता दृग्गोलमाह।
बङ्घाखगोले नलिकाद्वयं च
ध्रुवद्वये तन्नलिकास्थमेव।
बहिः खगोलाद्विदधीत धीमान्
दृग्गोलमेवं खलु वक्ष्यमाणम् ॥ ८ ॥
भगोलवृत्तैःसहितः खगोलो
दृग्गोलसंज्ञोऽपममण्डलाद्यैः।
द्विगोलजातं खलु दृश्यतेऽत्र
क्षेत्रं हि दृग्गोलमतो वदन्ति ॥ ९ ॥
तस्मिन् खगोले ध्रुवचितह्नयोर्नलिकाद्वयं बध्वा तन्नलिकाधारमेव खगोलाद्बहिरङ्गुलनयान्तरे दृग्गोलं रचयेत्। कथितैः खगोलवृत्तैर्वक्ष्यमाणैर्भगोलवृत्तैःक्रान्तिविमण्डलाद्यर्यो निबध्यते स दृग्गोलः । कथमस्य दृग्गोलसंज्ञेति तदर्थमाह । द्विगोलजातमित्यादि। यतोऽग्राकुज्यासमशङ्क्वाद्यक्षक्षेत्राणि द्विगोलजातानि। भगोलवृत्तैःखगोलवृत्तमिलितैस्तान्युत्पद्यन्ते । भिन्नगोलबन्धे सम्यङ्नोपलक्ष्यन्त इति दृग्गोलः कृतः ।
इति खगोलदृग्गोलबन्धौ।
इदानीं भगोलबन्धमाह।
याम्योत्तरक्षितिजवत् सुदृढ़ं विदध्या-
दाधारवृत्तयुगलं ध्रुवष्टिबद्धम् ।
षष्ट्यङ्गमत्र सममण्डलवत् तृतीयं
नाड्याद्वयं च विषुवद्वलयं तदेव ॥ १० ॥** **
**यथा खगोले क्षितिजं याम्योत्तरञ्च तदाकारमपरमाधारवृत्तद्वयं ध्रुवयष्टिस्थंकृत्वा तदुपरि अन्यत् तृतीयं सममण्डलाकारं घटोषष्ट्याचाङ्कितं कार्य्यम्। तन्नाडीवृत्तं विषुवद्वृत्त संज्ञं च। **
इदानीं क्रान्तिवृत्तमाह।
क्रान्तिवृत्तं विधेयं गृहाङ्कंभ्रम-
त्यत्रभानुश्च भार्धे कुभा भानुतः ।
क्रान्तिपातः प्रतीपं तथा प्रस्फुटाः
क्षेपपाताश्च तत्स्थानकान्यङ्कयेत् ॥ ११ ॥
अथान्यत् तत्प्रमाणमेव वृत्तं कृत्वा तत्र मेषादिं प्रकल्पा द्वादशराशयोऽङ्क्याः। तत् क्रान्तिवृत्तसंज्ञम्। तस्मिन् वृत्ते रवि
**र्भ्रमति । तथा रवेर्भार्धान्तरे भूभा च । तथा तत्र क्रान्तिपातो मेषादेविलोमं भ्रमति। तथा ग्रहाणां विक्षेपपाताः प्रस्फुटा विलोमं भ्रमन्ति। अतः क्रान्तिपातादीनां स्थानानि तत्राङ्क्यानि। **
इदानींक्रान्तिवृत्तस्य निवेशनमाह।
क्रान्तिपाते च पाताद्भषट्कान्तरे
नाडिकावृत्तलग्नं विदध्यादिदम् ।
पाततः प्राक् त्रिभे सिद्धभागैरूदग्-
दक्षिणे तैश्च भागैर्विभागेऽपरे ॥ १२ ॥
क्रान्तिपातचिह्नात् षड्भेऽन्तरेऽन्यच्चिह्नंकार्य्यम् । ते चिह्नेनाड़ीवृत्तेन संसक्ते कृत्वा पातचिह्नादग्रतस्त्रिभेऽन्तरे नाड़ीवृत्ताद्भागचविंशत्योत्तरतो यथा भवत्यपरविभागे त्रिभेऽन्तरे दक्षिणतश्च तैर्भागेर्यथा भवति तथा बध्नोयात्।
इदानीं विमण्डलमाह।
नाड़िकामण्डले क्रान्तिवृत्त यथा
क्रान्तिवृत्ते तथा क्षेपवृत्तं न्यसेत् ।
क्षेपवृत्त तु राश्यङ्कितं तत्र च
क्षेपपातेषु चिह्नानि कृत्वोक्तवत् ॥ १३ ॥
क्रान्तिवृत्तस्य विक्षेपवृत्तस्य च
क्षेपपाते सषड्भे च कृत्वा युतिम् ।
क्षेपपाताग्रतः पृष्ठतश्च त्रिभे
क्षेपभागैः स्फटैः सौम्ययाम्ये न्यसेत् ॥ १४ ॥
शीघ्रकर्णेन भक्तास्त्रिभज्यागुणाः
स्युः परक्षेपभागा ग्रहाणां स्फुटाः ।
क्षेपवृत्तानि षण्णांविदध्यात् पृथक्
स्वस्ववृत्ते भ्रमन्तीन्दुपूर्वा ग्रहाः ॥ १५ ॥
**अस्य श्लोकस्य समग्रस्य व्याख्यानम्। यथा क्रान्तिवृत्तंपृथक् कृतमेवं विमण्डलमपि राश्यङ्कंपृथक् कृत्वा तत्र मेषादेर्व्यस्तं स्फुटं क्षेपपातं दत्त्वाग्रे चिह्नंकार्य्यम् । अथ क्रान्तिवृत्तस्य विमण्डलस्य च क्षेपपातचिङ्कयोः संपातं कृत्वा तस्मात् षड्भान्तरेऽन्यं च संपातं कृत्वा क्षेपपाताग्रतस्त्रिभेऽन्तरे क्रान्तिवृत्तादुत्तरतः स्फुटैः क्षेपभागैः पृष्ठतश्च त्रिभेऽन्तरे तैरेव भागैर्दक्षिणतः स्थिरं कृत्वा विमण्डलं निवेशनीयम्। अथ पठिता ये विक्षेपभागास्ते त्रिज्यागुणाः शीघ्रकर्णेन भक्ताः स्फुटा ज्ञेयाः । अत्रानुपातः। यदि कर्णाग्र एतावन्तस्तर्हि त्रिज्याग्रेकियन्त इति। यतो भगोले त्रिज्यैव व्यासार्द्धम्। एवं चन्द्रादीनां षड्विमण्डलानि कार्य्याणि।स्वस्वविमण्डले ग्रहाः भमन्ति। **
इदानीं क्रान्तिं विक्षेपं चाह।
नाड़िकामण्डलात् तिर्य्यगत्रापनः
क्रान्तिवृत्तावधिः क्रान्तिवृत्ताच्छरः ।
क्षेपवृत्तावधिस्तिर्य्यगेवं स्फुटो
नाड़िकावृत्तटान्तरालेऽपमः ॥ १६ ॥
क्रान्तिवृत्ते यत् स्थुटग्रहस्थानं तस्य नाड़ीवृत्तात् तिर्य्यगन्तरं सा क्रान्तिः। अथ विमण्डले च यत् ग्रहस्थानं तस्य क्रान्तिवृत्ताद्यत् तिर्य्यगन्तरं स विक्षेपः। अथ विमण्डलस्थग्रहस्य नाड़ीवृत्ताद्यत् तिर्य्यगन्तरं सास्फुटा क्रान्तिः ।
इदानीं क्रान्तिपातमाह।
विषुवत्क्रान्तिवलययोः संपातःक्रान्तिपातःस्यात् ।
तद्भगणाः सौरोक्ता व्यस्ता अयुतत्रयं कल्पे ॥ १७ ॥
अयनचलनं यदुक्तं मुञ्जालाद्यैः स एवायम्।
तत्पक्षे तद्भगणाः कल्पेगोऽङ्गर्तुनन्दगोचन्द्राः १९९६६९ ॥ १८॥
तत्संजातं पातं क्षिप्ता क्षेटेऽपमः साध्यः ।
क्रान्तिवशाच्चरमुदयाश्चरदललग्नागमे ततः क्षेप्यः ॥ १९॥
क्रान्त्यर्थं पातःक्रान्तिपातः । पातो नाम सम्यातः । कयोः विषुवत्क्रान्तिवलययोः। न हि तयोर्मेषादावेव सम्पातः । किन्तु तस्यापि चलनमस्ति। येऽयनचलनभागाः प्रसिद्धास्तएव विलोमगस्य क्रान्तिपातस्य भागाः। मेषादेः पृष्ठतस्तावद्भागान्तरे क्रान्तिवृत्ते विषुवद्वृत्तं लग्नमित्यर्थः। नहि क्रान्तिपातो नास्तीति वक्तुंशक्यते। प्रत्यक्षेण तस्योपलब्धत्वात्। उपलब्धिप्रकारमग्रे वक्ष्यति। तत् कथं ब्रह्मगुप्तादिभिर्निपुणैरपि नोक्त इति चेत्। तदा स्वल्पत्वात् तैर्नोपलब्धः । इदानीं बहुत्वात् साम्प्रतैरुपलब्धः। अतएव तस्य गतिरस्तीत्यवगतम् । यद्येवमनुपलब्धोऽपि सौरसिद्धान्तोक्तत्वादागमप्रामाण्येन भगणपरिध्यादिवत् कथं तैर्नोक्तः। सत्यम् । अत्र गणितस्कन्ध उपपत्तिमानेवागमः प्रमाणम्। तर्हि मन्दोच्चपातभगणा आगमप्रामाण्येनैव कथं तैरुक्ता इति न च वक्तव्यम्। यतो ग्रहाणां मन्दफलाभावस्थानानि प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यन्ते । तान्येव मन्दोच्चस्थानानि । यान्येव विक्षेपाभावस्थानानि तान्येव पातस्थानानि। किन्तु तेषां गतिरस्ति नास्ति वेति सन्दिग्धम्। तत्र मन्दोच्चपातानां गतिरस्ति। चन्द्रमन्दोच्चपातवदित्यनुमानन सिद्धा। सा च कियती तदुच्यते। यैर्भगणैरुपलब्धिस्थानानि तानि गणितेनागच्छन्ति तद्भगणसम्भवा वार्षिकीदैनन्दिनी वा गतिर्ज्ञेया। तन्वेवं यद्यन्यैरपि भगणैस्तान्येव स्थानान्यागच्छन्ति तदा कतरस्या गतेः प्रामाण्यम्। सत्यम्। तर्हि साम्प्रतोपलब्धानुसारिणी कापि गतिरङ्गीकर्तव्या। यदा पुनर्महता कालेन महदन्तरं भविष्यति तदा महामतिमन्तो ब्रह्मगुप्तादीनां समानधर्मिण एवोत्पस्यन्ते। ते तदुपलब्धानुसारिणीं
गतिमुररीकृत्यशास्त्राणि करिष्यन्ति। अतएवायं गणितस्कग्धो महामतिमद्भिर्धृतःसन्ननाद्यन्तेऽपि काले खिलत्वं न याति। अतोऽस्य क्रान्तिपातस्य भगणाः कल्यऽयुतनयंतावत्सूर्य्यसिद्धान्तोक्ताः। तथा मुज्जालाद्यैर्यदयनचलनमुक्तं स एवायं क्रान्तिपातः। ते गोऽङ्गर्तुनन्दगोचन्द्रा १९९६६९ उत्पद्यन्ते । अथच ये वा ते वा भगणा भवन्तु। यदा येऽंशा निपुणैरुपलभ्यन्ते तदा स एव क्रान्तिपात इत्यर्थः । तं विलोमगं क्रान्तिपातं ग्रहे प्रक्षिप्य क्रान्तिः साध्या।
इदानीं विक्षेपपातानाह।
एवं क्रान्तिविमण्डलसम्पाताः क्षेपपाताः स्युः।
चन्द्रादीनां व्यस्ताः क्षेपानयने तु ते योज्याः ॥ २० ॥
मन्दस्फुटो द्राक्प्रतिमण्डले हि ।
ग्रहो भ्रमत्यत्र च तस्य पातः ।
पातेन युक्ताद्गगितागतेन ।
मन्दस्फुटात् खेचरतः शरोऽस्मात् ॥ २१ ॥
पातेऽथवा शीघ्रफलं विलोमं
कृत्वा स्फुटात् तेन युताच्छरोऽतः ।
चन्द्रस्य कक्षावलये हि पातः
स्फुटाद्विधोमध्यमपातयुक्तात् ॥ २२ ॥
तथा क्रान्तिवृत्तविमण्डलयोः सम्पातः क्षेपपातः। तं ग्रहे प्रक्षिप्य क्षेपः साध्यः । एतदुक्तं भवति । क्रान्तिपातः प्रसिद्धः । यथा तं ग्रहे प्रक्षिप्य क्रान्तिःसाध्यते । एवं विक्षेपपातं ग्रहे प्रक्षिप्य क्षेपः साध्य इत्यर्थः। अथ विक्षेपपातो मन्दस्फटे यत् प्रक्षिप्यते तत्कारणमाह। मन्दस्फुट इति। यतः शीघ्रपतिमण्डले मन्दस्कुटगत्या ग्रहो भ्रमति। तत्र च वृत्ते पातोऽतो गणितागतं पातं मन्दस्फुटे प्रक्षिप्य क्षेपः साध्यते। शेषं स्पष्टम् ।
इदानीं ज्ञशुक्रयोर्विशेषमाह।
ये चात्र पातभगणाः पठिता ज्ञभृग्वो-
स्ते शीघ्रकेन्द्रभगणैरधिका यतः स्युः ।
स्वल्पाः सुखार्थमुदिताश्चल केन्द्रयुक्तौ
पातौतयोः पठितचक्रभवी विधेयौ ॥ ३३ ॥
चलाद्विशोध्यः किल केन्द्रसिद्ध्यै
केन्द्रे सपाते द्युचरस्तु योज्यः ।
अतश्चलात् पातयुताजज्ञभृग्वोः
सुधीभिराद्यैः शरसिद्धिरुक्ता ॥ २४ ॥
स्फुटोनशीघ्रोच्चयुतौ स्फुटौतयोः
पातौभगोले स्फुट एव पातः ।
ननु ज्ञशुक्रयोः शीघ्रोच्चपातयुतिं केन्द्रं कृत्वा योविक्षेप आनीतः स शीघोच्चस्थान एव भवितुमर्हति। न गृहस्थाने । यतो ग्रहोऽन्यत्र वर्तते। अत इदमनुपपन्नमिव प्रतिभाति । तथा च ब्रह्मसिद्धान्तभाष्ये । ज्ञशुक्रयोः शीघ्रोच्चस्थाने यावान् विक्षेपस्तावानेव यत्र तत्रस्थस्यापि ग्रहस्य भवति । अत्रोपलब्धिरेव वासना नान्यत् कारणं वक्तुंशक्यत इति चतुर्वेदनाप्यनध्यवसायोऽत्र कृतः । सत्यम्। अत्रोच्यते। येऽत्र ज्ञशुक्रयोःपातभगणाः पठितास्ते शीघ्रकेन्द्रभगणैर्युताः सन्तस्त्रद्भगणा भवन्ति । तथा च माधवीये सिद्धान्तचूड़ामणीपठिताः । अतोऽल्पभगणभवः पातः स्वशीघ्रकेन्द्रेण युतः कार्य्यः। शीघ्रोच्चाद्ग्रहै शोधिते शीघ्रकेन्द्रम्। तस्मिन् संपाते क्षेपकेन्द्रकरणार्थं ग्रहः क्षेप्यः। अतस्तुल्यशोध्यक्षेपयोर्नाशे कृते शीघ्रोच्चपातयोग एवावशिष्थत इत्युपपन्नम्।
किञ्च मन्दस्फुटोनं शीघ्रोच्चं प्रतिमण्डले चलकेन्द्रम् । तत् पाते क्षेप्तुंयुज्यते। एवं कृते सति विक्षेपकेन्द्रं मन्दफलेना-
न्तरितं स्यात् । ग्रहच्छायाधिकारे सिताज्ञपातौ स्फुटौ स्तः चलकेन्द्रयुक्तावित्यत्र मन्दस्फुटोनं शीघ्रोच्चं शीघ्रकेन्द्रपातेक्षिप्तम्। अतस्तत्र मन्दफलान्तरमङ्गीकृतमित्यर्थः । इतरकेन्द्रस्यानुपपत्तेः। अतो मन्दफलं पातोऽव्यस्तंदेयम्। यतोऽनुपातसिद्धंचलकेन्द्रं मध्यग्रहो न शीघ्रोच्चतुल्यं भवति। यत्तु भगोले क्रान्तिकवृत्तंतत्कक्षावृत्तम् । तत्र यद्विमण्डलं तत्र स्फुटग्रहः। तत् स्फुटपातयोगोहि विक्षेपकेन्द्रम्। अतः स्फुटपातस्थाने संपातं कृत्वा ततस्त्रिभेऽन्तरे स्फुटीकृतैः वरमविक्षेपांशैःप्राग्वदुत्तरे दक्षिणे च विन्यस्तम्। तथा न्यस्ते विमण्डले स्फुटग्रहस्थाने विक्षेपः स्फुटविक्षेपेण गणितागतेन तुल्यो दृश्यते नान्यथेत्यर्थः ।
इदानीं ग्रहगोले विशेषमाह ।
ग्रहस्य गोले कथितापमण्डलं
प्रकल्प्य कक्षावलयं यथोदितम् ।
निबध्य शीघ्रप्रतिवृत्तमस्मिन्
विमण्डलं तत् पठितैः शरांशैः ।
मध्योऽत्र पातो द्युसदां ज्ञभृग्वोः ।
स्वशीघ्रकेन्द्रेण युतस्तु देयः ॥ २६ ॥
भगोल एव तावद्ग्रहगोलः कल्प्यः। तत्र स्फुट एव पातः । अथ यदि तदन्तर्ग्रहगोलोऽन्यो निबध्यते तदा तत्र यथोक्तं विषुवद्वृत्तं क्रान्तिहत्तञ्च बड्घातत् क्रान्तिवृत्तं कक्षामण्डलं प्रकल्पा तत्रछेद्यकोक्तविधिना शीघ्रप्रतिमण्डलं बड्घातत्र प्रतिमण्डले गणितागतं पातं मेषादेर्विलोमं गणयित्वा तत्र चिह्नंकार्य्यम् । अथ त्रिज्याव्यासार्धमेवान्यद्वृत्तं राश्यङ्घं विमण्डलाख्यं कृत्वा तत्रापि मेषादेर्व्यस्तं पाताग्रो चिह्नंकृत्वा प्रतिमण्डलविमण्डलयोः पातचिह्नेप्रथमं सम्पातं ततो भार्धान्तरे द्वितीयञ्चसम्पातं कृत्वा पातादग्रतः पृष्ठतश्चत्रिभेऽन्तरे परम-
विक्षेपांशैःपठितैःप्रतिवृत्तादुत्तर दक्षिणे च विमण्डलं विन्यस्यम्। तत्र मन्दस्फुटगत्या पारमार्थिको ग्रहो भ्रमति । अतो मेषादेरनुलोमो मन्दस्फुटो विमण्डले देयः । स तत्रस्थः प्रतिमण्डलात् यावतान्तरेण विक्षिप्तस्तावांस्तत्प्रदेश विक्षेपः। यतोवृत्तसंपातस्थे ग्रहे विक्षेपाभावः। त्रिभेऽन्तरे परमो विक्षेपः । मध्येऽनुपातेन । अतो वृत्तसंपातग्रहयोरन्तरं ज्ञेयम्। तदन्तरं पातग्रहयोगे कृते भवति। पातस्य विलोमगत्वात् । स योगः शरार्थं केन्द्रम्। यदि त्रिज्यातुल्ययाकेन्द्रज्यया परमः शरस्तदाभीष्टयानया क इति। फलं प्रतिमण्डलविमण्डलयोस्तिर्यगन्तरं स्यात् । विमण्डलस्थग्रहाद्यद्भूमध्यगं सूत्रं दद्भूग्रहान्तरम् । म च शीघ्रकर्णः । यदि भूमध्यात् कर्णाग्रएतावान् विक्षेपस्तदा त्रिज्याग्रे कियानिति द्वितीयं त्रैराशिकम् । आद्ये त्रिज्या हरो द्वितीये गुणस्तयोर्नाशे कृते केन्द्रज्यायाः परमशरगुणायाः कर्णो हरः। फलं कक्षावृत्तमूत्रयोस्तिर्य्यगन्तरम् । स स्फुटः शरः ।
इदानीमहोरात्रवृत्तमाह।
ईप्सितक्रान्तितुल्ये ऽन्तरे सर्वतो
नाड़िकाव्यादहोरात्रवृत्ताह्वयम्।
तत्र बङ्घाघटीनां च षष्ट्याङ्कये-
दस्य विष्कम्भखण्डं द्युजीवा मता ॥२७॥** **
नाड़ीवृत्तादुत्तरतो दक्षिणतो वा सर्वत इष्टक्रान्तितुल्येऽन्तरे यद्वृत्तं निबध्यते तदहोरात्रवृत्तम्। तेन वृत्तेन तास्मिन् दिने रविर्भ्रमतीत्यर्थः । तस्य वृत्तस्य व्यासार्धं द्युंज्या।
इदानीमन्यदाह।
अथ कल्प्यामेषाद्या अनुलोमं क्रान्तिपाताङ्कात् ।
एषां मेषादीनां द्युरात्रवृत्तानि बध्नीयात् ॥ २८ ॥
नाड़ीवृत्तोभयतस्त्रोणि त्रीणि क्रमोत्क्रमात् तानि।
क्रान्तिपाताङ्कादारभ्य त्रिंशता त्रिंशता भागैरन्यान् मेषादीन् प्रकल्प्यतदग्रेषूक्तवदहोरात्रवृत्तानि बध्नीयात् । तानि च नाडीवृत्तस्योभयतस्त्रोणि त्रीणि भवन्ति । तान्येव क्रमोत्क्रमतः सायनांशार्कस्य द्वादशराशीनाम् ।
इदानीमस्योपसंहारमाह।
एष भगोलः कथितः खेचरगोलोऽयमेव विज्ञेयः ॥ २९ ॥
अत्रापमण्डले वा सूत्राधारैरधश्च तस्यैव।
शन्यादीनां कक्षा बध्नीयादूर्णानाभजालाभाः ॥ ३० ॥
बङ्घाभगोलमेवं यष्ट्यां यष्टिंखगोलनलिकान्तः ।
प्रक्षिप्य भ्रमयेत् तं यष्ट्याधारं स्थिरौ खदृग्गोलौ॥३१॥
यथायं भगोलो बङ्घस्तथैव ग्रहगोला अपि बन्धनीयाः ।
किन्तु तेषां छेद्यकमन्तश्चालयितुं नायातीति बहिःस्थमेव दर्शनीयम्।अथवात्रभगोले यदपमण्डलं तस्याधोऽधस्तन्निबद्धैः सूत्राधारैर्बङ्घाशनैश्चरादीनां कक्षा दर्शनीयाः। एवंविधं भगोलं यष्ट्यां दृढ़ं बङ्घायष्ट्यग्रयोःप्रोते नलिकाद्वये निबद्धो खगोलदृग्गोलौ कृत्वा भगोलभ्रमणं दर्शयेत्।
इति श्रीभास्कराचार्य्यविरचिते गोलवामनाभाष्येमिताक्षरे गोलबन्धाधिकारः समाप्तः ।
अथ ग्रन्थसंख्या १८० ।
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अथ त्रिप्रश्नवासना । तत्रादौ चरस्थानमाह ।
उन्मण्डलक्ष्मावलयान्तराले
द्युरात्रवृत्ते चरखण्डकालः ।
तज्ज्यात्र कुज्या चरशिञ्चिनी स्या-
ह्यासार्धवृत्ते परिणामिता सा ॥ १ ॥
क्षितिजोन्मण्डलयोर्मध्येऽहोरात्रवृत्ते यावान् कालः स चरखण्डकालः । तत्रोन्मण्डलादुभयतश्चरतुल्येऽन्तरेचिह्नेकृत्वा
**तयोर्निबद्धसूत्रस्यार्धं कुज्या। सैव त्रिज्यावृत्तपरिणता सती चरज्या स्यादिति त्रिप्रश्नेव्याख्यातम्। **
इदानीं लङ्कास्वदेशार्कोदययोरन्तरं चरकालमाह ।
निरक्षदेशे क्षितिजाख्यवृत्त-
मुन्मण्डलं तज्जगुरन्यदेशे।
स्वे स्वे कुजेऽर्कस्य समुद्गमोऽस्मा-
च्चरार्धमार्कोदययोस्तु मध्ये ॥२॥
स्पष्टार्थम् ।
इदानीं चरफलस्य धनर्णवासनामाह।
आदौ स्वदेशेऽथ निरक्षदेशे
सूर्य्योदयी ह्यस्तमयोऽन्यथातः ।
ऋणं ग्रहेऽस्मादुदये स्वमस्ते
फलं चरोत्थं रविसौम्यगोले ॥३॥
याम्ये विलोमं खलु तत्रयस्मा
दुन्मण्डलं स्वक्षितिजादधस्तात् ।
नाड्याह्वयादुत्तरयाम्यभागौ
गोलस्य तावुत्तरयाम्यगोलौ॥ ४ ॥
सुगमं पूर्वं व्याख्यातं च।
इदानीं दिननिशोर्लघुत्वमहत्त्वे हेतुमाह।
अतश्च सौम्ये दिवसो महान् स्यात्
रात्रिर्लघुर्व्यस्तमतश्च याम्ये ।
द्युरात्रवृत्ते क्षितिजादधःस्थे
रात्रिर्यतः स्याद्दिनमानमूर्ध्वे॥ ५॥
सदा समत्वं द्युनिशोर्निरक्षे
नोन्मण्डलं तत्र कुजाद्यतोऽन्यत् ।
क्षितिजादुपरिस्थेऽहोरात्रवृत्तखण्डे यावान् कालस्तावान् दिवसः । यावांस्तदधःस्थे तावती रात्रिरिति सुगमम् ।
इदानीं विशेषमाह।
षट्षष्टिभागाभ्यधिकाः पलांशा
यत्राथ तत्रास्त्यपरो विशेषः ॥ ६ ॥** **
लम्बाधिका क्रान्तिरुदक् च यावत्** **
तावद्दिनं सन्ततमेव तत्र ।
यावञ्च याम्या सततं तमिस्रा
ततश्च मेरौ सततं समार्धम् ॥ ७ ॥
तत्रदेशे षट्पष्टे ६६ रधिकाःपलांशास्तत्रायं विशेषः । अर्कस्योत्तरा क्रान्तिर्यावत्कालं लम्बाधिका भवति तावत्कालं सन्ततं दिनमेव । याम्या क्रान्तिर्यावत् तावत् सन्ततं रात्रिरेव । तद्यथा। यत्र किल सप्ततिः७० पलांशास्तत्र लम्बो विंशतिः २० । तत्र देशे विषुववृत्तं दक्षिणक्षितिजादुपरि भागविंशत्योत्तरक्षितिजादधश्चतावता। यदा रवेरुत्तरा क्रान्तिर्भागविंशतिर्भवति। तदोत्तरक्षितिजे रविविम्बमर्धेदितं भूत्वा मध्याह्नेदक्षिणक्षितिजादुपरि याम्योत्तरमण्डले भागचत्वारिंशतोन्नतं भवति। तदा त्रिंशद्घटिका दिनदलम् । अतो दिनं षष्टिः । रात्रिः शून्यम्। ततो द्वितीयदिने उत्तरकान्तेरधिकत्वाद्रविरुत्तरक्षितिजं न स्पृशति । एवं प्रतिपर्यायं परमक्रान्तिं यावदुपर्युपरि परिभ्रमति । एवं मिथुनान्ते उत्तरक्षितिजादुपरि भागचतुष्टयं याति। पुनस्तेनैव क्रमणावरोहति। विंशतिभागाधिका क्रान्तिर्यावत् तावत्कालं रविः सततं दृश्यः । तावद्दिनमेव। अनयैव युक्त्यादक्षिणगोले क्षितिजादधःस्थेऽर्के सन्ततं रात्रिरिति। अतएव मेरौ षण्मासं दिनम् ।
इदानींमेरुसंस्थानमाह।
विषुवद्वृत्तं द्युसदां क्षितिजत्वमितं तथा च दैत्यानाम् ।
उत्तरयाम्यौक्रमशो मूर्धोर्ध्वगतौ ध्रुवौ यतस्तेषाम् ॥ ८॥
उत्तरगोले क्षितिजादूर्ध्वे परितो भ्रमन्तमादित्यम्॥
सव्यं त्रिदशाः सततं पश्यन्त्यसुरा असव्यगं याम्ये ॥९॥
स्पष्टार्थम्।
इदानीं दिनरात्रिस्वरूपे पितृदिनं चाह ।
दिनं दिनेशस्य यतोऽत्र दर्शने
तमीतमोहन्तुरदर्शने सति।
कुपृष्ठगानां द्युनिशं यथा नृणां
तथा पितृृणां शशिपृष्ठवासिनाम् ॥ १० ॥** **
**स्पष्टम् । **
इदानीं संहितोक्तस्याभिप्रायमाह।
दिनं सुराणामयनं यदुत्तरं
निशेतरत् संहितिकैः प्रकीर्तितम्।
दिनोन्मुखेऽर्के दिनमेव तन्मतं
निशा तथा तत्फलकीर्त्तनाय तत् ॥ ११ ॥
द्वन्द्वान्तमारोहति यैः क्रमेण
तैरेव वृत्तैरवरोहतीनः ।
यत्रैव दृष्टःप्रथमं स देवै
स्तत्रैव तिष्ठन् न विलोक्यते किम् ॥ १२ ॥
**सांहितिकानां न चेदयमभिप्रायस्तर्हि मेषादेरूर्ध्वंमिथुनान्तं यावद्यैर्वृत्तैरेवारोहणं कुर्वन्नपि देवैदृष्टस्तैरेव पुनरवरोहणं कुर्वन् किं न दृश्यत इति । अतस्तदसत् । **
इदानीं पितृदिवसस्योदयास्त्रादिकालानाह।
**विधूर्ध्वभागे पितरो वसन्तः **
स्वाधः सुधादीधित्रिमामनन्ति।
पश्यन्ति तेऽर्कंनिजमस्तकोर्ध्वे
दर्शे यतोऽस्माद्द्युदलं तदैषाम् ॥ १३ ॥
भार्धान्सरत्वान्नविधोरधःस्थं
तस्मान्निशीथः खलु पौर्णमास्याम् ।
कृष्णे रविः पक्षदलेऽभ्युदेति
शुक्लेऽस्तमेत्यर्थत एव सिद्धम् ॥१४॥
**स्पष्टम्। **
अथ ब्रह्मदिनोपपत्तिमाह।
यदतिदूरगतो द्रुहिणः क्षितेः
सततमाप्रलयं रविमीक्षते।
भवति तावदयं शयितश्च त-
द्युगसहस्रयुगं द्युनिशं विधेः॥ १५ ॥** **
दूरस्थितत्वादाप्रलयं रविं पश्यति। दिनान्ते रव्यादीनुपसंहृत्य शेते इत्यर्थः । इदानीमुदयवासनामाह।
यो हि प्रदेशोऽपममण्डलस्य
तिर्य्यक्स्थितो यात्युदयं तथास्तम्।
सोऽल्पेन कालेन य ऊर्ध्वं संस्थो-
ऽनल्पेन सोऽस्मादुदया न तुल्याः॥ १६ ॥
य उद्गमे याम्यनता मृगाद्याः
स्व स्वापमेनापि निरक्षदेशे।
याम्याक्षतस्तेऽतिनतत्वमाप्ता
उद्यन्ति कालेन ततोऽल्पकेन ॥ १७ ॥
कर्क्यादयः सौम्यनता हि येऽत्र
ते यान्ति याम्याक्षवशादृजुत्वम् ।
कालेन तस्माद्बहुनोदयन्ते
तदन्तरे स्वं चरखण्डमेव ॥ १८ ॥
विषुवदहोरात्रवृत्तानि लङ्कायां समपश्चिमगानि। राशिवलयं तु मकारादौ परमक्रान्त्या विषुवमण्डलाद्दक्षिणतो मिथुनान्त उत्तरतो लग्नमस्तिरश्चीनम् । तत्रापि मेषः स्वक्रान्त्या महत्या तिरश्चीन उदेति। अतोऽल्पकालोदयः । वृषभस्तदल्पयातस्तस्मात् किञ्चिदधिककालः। मिथुनस्तदल्पयातस्तदधिककालः। एवं निरक्षेऽपि न समा उदयाः । अथ ये मकारादयो याम्येनतास्ते याम्याक्षवशादतिनता उद्गच्छन्ति स्वदेशेऽतोऽल्पकालोदयाः। ये तु कर्क्यादयः स्वस्वक्रान्त्या सौम्ये नतास्ते याम्याक्षवशाद्दजुत्वं गता उद्यन्ति। अतश्चिरकालोदयाः। लङ्कास्वदेशोदययोरन्तराले स्वं चरखण्डमेव भवति। यतस्तत क्षितिजयोरन्तराले चरम् ।
अथ चरखण्डैरूनाधिकत्वं गोलभ्रमणोपरि यथा प्रतीयते तथाह।
भचक्रपादास्तिथिविनाडिकाभिः
पृथक् समुद्यन्ति निरक्षदेशे।
चक्रार्धमाद्यं च तथा द्वितीयं
सर्वत्र पूर्णाग्निमिताभिरेव ॥ १६ ॥** **
मेषादेर्मिथुनान्तो नाडीभिस्तिथिमिताभिरुद्वृत्ते।
लगति कुजे तदधःस्थे प्रथमं ताभिश्चरोनाभिः ॥२०॥।
कन्यान्ताङ्घनुषोऽन्तस्तिथिमितनाड़ीभिरुद्वलये।
लगति कुजे चोर्ध्वस्थे पश्चात् ताभिश्चराव्याभिः ॥२१॥
तद्रहितविंशद्भिः कन्यान्तो वा झषान्तो वा।
चगखण्डैरूनाढ्यास्तेन निरक्षोदयाः स्वदेशे स्युः ॥ २२ ॥
क्षितिजेऽजादिं कृत्वा गोलंभ्रमयन् प्रदर्शयेत् सर्वम् ।
उक्तमनुक्तं चान्यच्छिष्याणां बोधजननार्थम् ॥ २३ ॥
उदयवासना स्फुटगत्यध्याये कथितैव ।इह तु मेषादिं
क्षितिजे कृत्वा गोलं भ्रमयन् क्रमेण यदुक्तं वक्ष्यमाणं च सव दर्शयेत् ।तत्र सर्वं दृश्यत इत्यर्थः।
अथास्तमयानाह।
योऽभ्युदेति समयेन येन तत्
सप्तमोऽस्तमुपयाति तेन च ।
राशिरूर्ध्व मपमण्डलं कुजा-
दर्धमेव सततं यतः स्थितम् ॥ २४ ॥
यो राशिर्येन कालेनोदेति तेन तत्सप्तमोऽस्तं याति। ये मेषादीनामुदयास्ते तुलादीनामस्तमयाः। ये तुलादीनामुददयास्ते मेषादीनामस्तमया इत्यर्थः। यतोऽपमवृत्तं क्षितिजादुपर्यर्धमेव भवति । अर्धमधश्च । अतो राश्योरुदयमस्तमयं च गच्छतोस्तुल्यकालतोपपद्यते।
इदानीं विशेषमाह।
यत्र लम्बजलवा जिनोनका-
स्तत्र नोदयचराद्यमुक्तवत् ।
नान्यसंस्थिततयान्यथोदितं
येन नैष विषयो नृगोचरः ॥ २५ ॥** **
यस्मिन् देशे षट्षष्टि ६६ भागाधिकः पलस्तत्रकेचन राशयः सदोदयाः केचन सदास्तमिताःकेचन प्रान्तादुद्गच्छन्ति। अतस्तत्र यथा कथितास्तथोदया न भवन्ति । यावत् सदोदितो रविस्तावदहोरावृत्तंक्षितिजं न स्पृशति। अहोरात्रवृत्ते क्षितिजोन्मण्डलयोरन्तरं हि चरम्। अतस्तत्र कूज्याग्राचरज्यादिकमसत्। शेषं स्पष्टम् ।
इदानीं लग्नशब्दव्युत्पत्त्योदयास्तमध्यलग्नस्थानान्याह।
यत्र लग्नमपमण्डलं कुजे
तद्गृहाद्यमिह लग्नमुच्यते।
प्राचि पश्चिमकुजेऽस्तलग्नकं**
**मध्यलम्ममिति दक्षिणोत्तरे ॥ २६॥
स्पष्टार्थम्।
अथ लग्नार्थमर्कस्य तात्कालिकीकरणवासनामाह।
लग्नार्थमिष्टघटिका यदि सावनास्ता-
स्तात्कालिकार्ककरणेन भवेयुरार्क्ष्यः।
अर्क्ष्योदया हि सदूशीभ्य इहापनेया-
स्तात्कालिकत्वमथ न क्रियते यदार्क्ष्यः॥ २७॥
ननु लग्नकरणार्थं याइष्टघटिकास्त्राःसाधना उतनाक्षत्राः। यदि सावनास्तर्हि नाक्षत्रा उदयाः कथं विसदृशास्ताभ्यो विशोध्याः । अतस्ताभिर्नाक्षत्राभिर्भबितव्यम् । तथा भोग्यकालसाधनार्थमस्तात्कालिकः किं कृतः। यत उदयावधिरिष्टघटिकास्तथार्कोदयानन्तरमेव राशेर्भाग्यांशाः क्रमेणोद्गच्छन्ति । अतः औदयिकार्कस्य भोग्यं ग्रहीतुं युज्यते न तात्कालिकस्य ।
तथा प्रतीत्यर्थमुदाहरणम्। यत्र किल पञ्चाङ्गुला ५ विषुवतीतत्रमेषादिगेऽर्के स्फुटमहोरात्रं चतुश्चत्वारिंशदसुभिरधिकाः षष्टिघटिकाः ६०। ७ । २ । अथ उदयानन्तरमहोरात्रसमे काले ६० । ७ । २ यावत् तात्कालिकार्कालग्नं साध्यते तावदर्काधिकं स्यान्न समम् । यावदौदयिकार्कात् क्रियते तावत् सममेव। अतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रतीतेर्युक्तितश्चर्कतात्कालिकीकरणमयुक्तमिव प्रतिभाति । सत्यम्। अतएवोक्तं लग्नार्थमिष्टघटिका इत्यादि।
अत्रेष्टघटिकाः सावनास्तावदाचार्य्यैरङ्गीकृतास्तासां नाक्षत्रत्वं कर्त्तव्यम्। तच्चैवम्। यथा प्रागुक्तस्वाहोरात्रसम्बन्धिन्यो या गतिकलास्ताः स्वोदयासुभिः संगुण्य राशिकलाभिर्विभज्य फलासुभिरधिकाः सावनतुल्या नाक्षत्राः षष्टिघटिका अहोरा-
त्रवृत्तेनाक्षत्राःस्युः। एवमिष्टघटीसम्बन्धिन्यो वा गतिकलास्ताः स्वोदयासुभिः संगुण्य राशिकलाभिर्विभज्यफलासवस्तास्विष्टघटिकासु सावनासु प्रक्षेप्याः। एवं नाक्षत्राः स्युः । ततऔदयिकार्कस्य भोग्यासवः शोध्याः। एवं सत्याचार्य्येण लाघवार्थमिष्टघटीसम्बन्धिन्यो गतिकला अर्केप्रक्षिप्तास्ततो ये भोग्यामवस्त औदयिकार्कभोग्यासुभ्यो न्यूना जातास्ते यावदिष्टघटिकाभ्यः शोध्यन्ते तावत् ता इष्टघटीसम्बन्धिगतिकलासुभिरधिकाः कृताः स्युः। एवं तासां सावनानां नाक्षत्रीकरणार्थमर्कस्यतात्कालिकीकरणमुपपन्नम्।
ननु यद्येवं तर्हि किं सावना अङ्गीकृत्य नाक्षत्रीकरणप्रयामेन। किमु नाक्षत्रा एव नाङ्गीकृताः। सत्यम् । तदप्युच्यते । अत्र त्रिप्रश्ने छायार्थं ग्रहाणांस्वस्वसावनमेवोदितं ग्राह्यम् । तद्यथा । इष्टकाले स्वाहोरात्रवृत्ते यत्र ग्रहः स्थितः। यत्र च क्षितिजमङ्गस्तयोरन्तरे यावन्तो घटीविभागास्तावत्यः सावना नाड्यस्ता हि क्षेत्र विभागात्मिकाः। अथ चोदयकाले यत्र स्थितो ग्रह आसीत् तत्कुजमध्ये यावत्यस्तावत्यो नाक्षत्रास्तास्तु कालविभागात्मिकाः। यथा पौर्णमास्यां छायाकरणे चन्द्रस्यासकृद्विधिनोदिता नाडिकास्ताश्छायार्थंन युज्यन्ते । यत्तु कैश्चिच्छायार्थमप्यसकृद्विधिनानीतास्तदसत्। अतएव वक्ष्यति।
चन्द्रप्रभार्थमसकृद्विधिनोदितं यत्
कैश्चित् कृतं खलु न सत् तदसावनत्वात्।
जानन्ति ये न निपुणं गणितं सगोलं
तेषां तु तन्त्रकरणव्यसनं वृथैव ॥ इति।** **
छायायाः क्षेत्रात्मकत्वात् सावनाभिरेव साध्या। अय-
मर्थस्त्रिप्रश्ने व्याख्यात एव। एतत्सावनघटिकाप्रसङ्गाल्लग्नार्थमपि सावनाअङ्गीकृता इत्यर्थः।
इदानीं देशविशेषेण राशीन् सदोदिताननुदितांश्चाह।
त्र्यंशयुड्नवरसाःपलांशका
यत्र तत्र विषये कदाचन।
दृश्यते न मकरो न कार्मुकं
किञ्च कर्किमिथुनौ सदोदितौ ॥ २८॥
यत्र साङ्घ्रिगजवाजिसंमिता-
स्तत्र वृश्चिकचतुष्टयं न च ।
दृश्यतेऽथ वृषभाच्चतुष्टयं
सर्वदा समुदितं च लक्ष्यते ॥ २९॥
यत्र तेऽथ नवतिः पलांशका-
स्तत्र काञ्चनगिरौ कदाचन।
दृश्यते न भर्दलंतुलादिकं
सर्वदा समुदितं क्रियादिकम् ॥ ३० ॥** **
अयमर्थेस्त्रिस्त्रिप्रश्ने लम्बाधिका क्रान्तिरुदक् च यावत् तावद्दिनं मन्ततमव तो त्यादिना सम्यक् कथित एव । यत्र वृश्चिकान्तक्रान्तितुल्यो लम्बस्तत्रैते पलांशाः ६९ । २० । तत्रधनुर्मकरौ क्षितिजादधःस्थितावेव भ्रमतः । कर्किमिथुनौ तूपर्य्येव। यत्र तुलान्तक्रान्तितुल्यो लम्बस्तत्राष्टमसप्ततिःसप्तदशकलाधिका ७८ । १७ पलांशास्तत्र वृश्चिकादिचतुष्टयं क्षितिजादधोवृषभादिकमुपरि । एवं मेरौ नवतिः९० पलांशास्तत्रतुलादिषट्कमधो मेषादिकमुपरीति सर्वं भगोले भ्रामिते सति दृश्यते।
इदानीं लल्लोक्तस्यदृश्यादृश्यत्वलक्षणस्य दूषणमाह ।
राशेर्यस्यनिरक्षजोदयसमाः स्वीयाश्चरार्धासवो
दृश्यस्तत्र सदा स राशिरिति यन्निर्युक्ति लल्लोदितम् ।
यद्येवं रसषट् ६६ पलांशविषये सर्वेऽप्यमीसर्वदा
दृश्याः स्युर्युगपञ्चरोदयघटीसाम्यादसत् तत् तथा ॥३१॥
एकद्वित्रिराशीनां चराख्यधोऽधःशोधितानि तानि चरखण्डानि राशीनां पृथक् पृथक् खचरार्धानि चोच्यन्ते। निरक्षोदयासवो गमनभूधरषट्कचन्द्रा १६७० इत्यादयो यत्र देशे यस्व राशेःखचरार्धसमाः स राशिस्तव देशे सदा दृश्य इत्यत्र का युक्तिः ।अन्यथा दृश्यादृश्यं सर्वं युक्तिशून्यमुक्तम् । यद्येवं तर्हियत्रषट्षष्टिः ६६ पलांशास्तत्र सर्वेषां खचरोदयसाम्यं स्यात्। युगपत् सर्वेषांसदा दृश्यत्वं मेरावपि न घटते किन्त्वन्यवातस्तदसत्।
इदानीमन्यद्दूषणमाह।
षट्षष्टिः सदला लवाःपलभवा यस्मिन् न तस्मिन् धनु-
र्नक्रश्चापि न वृश्चिको न च घटःपञ्चाद्रयो ७५ । ० यत्र च ।
दृश्यः स्यादिति यत् सदा प्रलपितं लर्ल्लेन गोले निजे
गोलज्ञ ! त्रिलवोनितास्त उदिताः केनोच्यतां हेतुना ॥ ३२ ॥
अत्रत्र्यंशयुङ्नवरसा इत्यादिभिर्भवितव्यम् । ६९ । २१॥७८ । १५ । एषां स्थान एते \। । त्रिभिस्त्रिभिरंशैरूनाः केन हेतुना लल्लेन निजे गोले पठिताः। हे तद्गोलज्ञतत् प्रोच्यताम् ।
[ तथा नहि तेषां राशीनां निरक्षोदयसमानि स्वचरखण्डानि । तत्रश्चरार्धान्यपि नागच्छन्ति। चरच्यायास्त्रिज्यातोऽधिकत्वात् । अतः पूर्वश्लोकेऽतिदुष्टत्वमित्यर्थः । ]
अथाक्षलम्बज्ञानार्थमाह।
यन्त्रवेधविधिना ध्रुवोन्नति-
र्यानतिश्च भवतोऽक्षलम्बकौ।
तौ क्रमाद्विषुवदङ्काहर्दले
येऽथवा नतसमुन्नता लवाः ॥ ३३ ॥
**चक्रयन्त्रेण ग्रहवेधवद्ध्रुवं विध्येत्। तत्र यन्त्रनेम्यां य उन्नतांशास्तेऽक्षांशाः । येनतास्ते लम्बांशाः । अथवा विषुवद्दिनार्धे येऽर्कस्य नतोन्नतांशास्तऽक्षलम्बांशा इतियुक्तियुक्तम् । **
इदानीं शङ्कानयनवासनां संक्षिप्तामाह।
उन्नतंद्युनिशमण्डले कुजात्
मावनं द्युतिविधौ हितज्ज्यका ।
तिर्य्यगक्षवशतोऽक्षकर्णव-
च्छेदको न तु नर’ म लम्बवत्** **॥ ३४ ॥
अस्य वासना त्रिप्रश्न कथितैव।
इदानीं केषाञ्चिद्दषण्माह।
चन्द्रप्रभार्थमसकृद्विधिनोदितं यत्
कैश्चित् कृत खलु न सत् तदसावनत्वात् ।
जानन्ति ये न निपुणं गणितं सगोलं
तेषां तु तन्त्रकरणव्यसनं** दृगैव **॥ ३५ ॥
व्याख्यातमेव ।
इदानीं शङ्कुस्थानमाह।
दृष्टिमण्डलभवा लवाःकुजा-
दुन्नता गगनमध्यतो नताः।
शङ्कुरुन्नतलवज्यका भवे-
दृग्गुणश्च नतभागशिञ्चिनी॥ ३६ ॥
भास्करेऽत्र सममण्डलोपगे
यो नरः स समशङ्कुरुच्यते।
कोणशङ्कुरथ कोणवृत्तगे
मध्यशङ्कुरिति दक्षिणोत्तरे ॥ ३७॥
कुपृष्ठमानां कुदलेन हीनं
दृङ्मण्डलार्धं खचरस्यदृश्यम्।
कुच्छन्नलिप्तानुरतो विशोध्याः
खभुक्तितिथ्य शमिताः प्रभार्थम् ॥ ३८ ॥
दृङ्मण्डले क्षितिजादुपरि ग्रहपर्य्यन्तं येऽशास्त उन्नताः ।खमध्यादधस्तेनताः । उन्नतांशानां ज्या शङ्कुः। नतांशज्यादृग्ज्या। शङ्कुः कुच्छन्नलिप्ताभिरुनः कार्य्यः। द्रष्टुः कुदलेनोच्छित्वात्। अयमर्थोग्रहच्छायाधिकारे व्याख्यात एव ।
इदानीमयामुदयास्तसूत्रंचाह।
क्ष्माजे द्युरात्रसममण्डलमध्यभाग-
जीवाग्रका भवति पूर्वपराशयोः सा।
अग्राग्रयोः प्रगुणमत्रनिबद्धसूत्रं
यत् तद्वदन्ति गणका उदयास्तसूत्रम् ॥ ३९॥
सूत्राद्दिवाशङ्कुतलं यमाशं
याम्यां गतं हि द्युनिशं कुजोर्ध्वं।
अधश्च सौम्यां निशि सौम्यमस्मात्
सद्युक्तियुक्तंमृतलं निरुक्तम्॥ ४० ॥
सौम्याग्रकाग्रावृतलं हि याम्यं
याम्याग्रकाग्रात्पुनरेव याम्यम् ।
तदन्तरैक्यं समवृत्ताखेट
मध्यांशजीवां भुविं बाहुमाहुः ॥४१॥
दृग्ज्यां श्रुतिंचाथ तयोस्तु कोटिं
पूर्वापरां वर्गवियोगमूलम्।
क्षितिजस्वाहोराग्रवृत्तसम्पातयोर्बद्धंसूत्रमुदयास्तसूत्रम् । ग्रहस्थानाल्लम्बः शङ्कुः। तस्यतलमुदयास्तसूत्राद्दक्षिणतो भवति। यतः क्षितिजादुपरि दक्षिणतोऽहोरात्रवृत्तं गतम् ।
अधसूत्ररतो मतम्।अतोनिश्युत्तरं वृत्तजम्।अथ भुजउच्यतेउत्तरगोलेऽग्रोत्तरा नृतलंयाम्यसतस्तेमोनाद्याबाहुर्भवति । वाहुर्नांम शङ्कुग्राह्यपरसूत्रयोन्तरम।
**तदाग्राशङ्कुतखादूना तदा तयोरन्तरं दक्षिणंशङ्कु तलं बाहुःस्यात्। एवं समवृत्तप्रप्रवेशादुपरि । दक्षिणगोले त्वग्रायाम्या शङ्कु तलं च याम्यंतयोयोगे कृते बाहुःस्यात्। रविसममण्डलयोरन्तरांशानां ज्या बाहुः। तत्र या दृग्ज्यासकर्णः। तयोर्वर्गान्तरपदंपूर्वापरा कोटिः। **
इदानी क्रान्तिक्षेत्राण्याह।
क्षेत्राणि वक्ष्येऽपमसम्भवानि
संक्षेपतोऽक्षप्रभवाणिचातः ॥ ४२ ॥
भुजोऽपमः कोटिगुणो जीवा
कर्णस्त्रिभज्या त्रिभुजेऽपमोत्ये।
मेषादिजीवाः श्रुतयोऽपवृत्ते
तद्भूमिजेक्रान्तिगुणा भुजाः स्युः॥ ४३ ॥
तत्कोटयः स्वद्युनिशाख्यवृत्ते
व्यासार्धवृत्ते परिणामितानाम् ।
चापेषु तासामसवस्वतो ये
तेऽधो विशुद्धाउदया निरक्षे॥३४॥** **
**स्पष्टम् । एषां क्षेत्राणामुपपत्तिः स्वष्टाधिकारे दर्शितैव। **
अथाक्षक्षेत्राण्याह।
भुजोऽक्षमा कोटिरिनाङ्गुलो ना
कर्णोऽक्षकर्णस्त्रिभुजं यथेदम्।
तथाक्षलम्बौभुजकोटिरूपौ
त्रिज्या श्रुतिर्दक्षिणसौम्यवृत्ते ॥ ४५ ॥
उन्मण्डले प्रागपरीत्थसूत्रात्
क्रान्तिज्यका कोटिरथ द्युरात्रे।
कुज्या भुजोग्रा क्षितिजे च कर्णः ।
क्षेत्रं तथेदं त्रिभुजं प्रसिद्धम्॥ ४६ ॥
अथा भुजः स्वेसमना च कोटि
द्युरात्रके तद्वृत्तिरत्र कर्णः ।
भुजोऽयभज्या समना च कर्णः
कुज्योनिता तद्वृत्तिरेव कोटिः॥ ४७॥
तद्वृत्तेना दोरपमः श्रुतिः स्या-
दग्रादिखण्डंखलुतत्रकोटिः।
उद्वृत्तना कोटिरथाग्रकाग्र-
खण्डं भुजस्तच्छ्रवणः क्षितिज्या॥ ४८ ॥
कोटिर्नर,शङ्गुतलं च बाहु-
श्छेदः श्रुतिस्त्रास्रमहस्रमेवम् ।
उत्पाद्यसद्यःस्फुटगोलविद्यै-
श्छात्रायशास्त्रं प्रतिणदनीयम् ॥ ४९ ॥** **
अक्षक्षेत्राणांसाधनानामप्युपपत्तिस्त्रिप्रश्ने दर्शिता।
इति श्रीभास्करीये गोलभाष्येमिताक्षरे त्रिप्रश्नवावासना।
अत्र ग्रन्थसंख्या१९०।
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अथ ग्रहणवासनां। चन्द्रार्कग्रहणयोः स्पर्शे मोक्षेच दिग्व्यत्यस्योपपत्तिमाह।
पश्चाद्भागाज्जलदवदधः संस्थितोऽव्येत्व चन्द्रो
भानोर्विम्बं स्फुरदसितया क्वादयत्यात्ममूर्त्या।
पश्चात् स्पर्श्येहरिदिशि ततो मुक्तिरस्थात एव
क्वापिच्छन्नः क्वचिदपिहितो नैष कक्षान्तरत्वात् ॥१॥
अर्कादधश्चन्द्रकक्षा यथा मेघोऽधः स्थःषण्मासादानत्वरविं छादयति।एवं चन्द्रोऽपि शीघ्रत्वात् पश्चादागत्य रविं छादयति।अतःपश्चात् खण्डः।निःसरति चन्द्रे पूर्वतो मोक्षो रवेः।अतएव कक्षाभेदात् क्वचिदर्कचन्द्रो दृश्यतेक्वचिदेवन छन्नः। यथाधस्थे मेघेकैश्चिद्रविर्नदृश्यते कैश्चिदृश्यते प्रदेशान्तरस्थैः।
इदानीं नतिलम्बनयोः कारणमाह।
पर्वान्तेऽर्कं नतमुडुपतिच्छन्नमेवप्रपश्येत्
भूमध्यस्थोन तु बहुमतीपृष्ठनिष्ठस्तदानीम्।
तदृक्सूत्राद्विमरुचिरधो लम्बितोऽर्कग्रहेऽतः
कक्षाभेदादिह खलुनतिर्लम्बनं चोपपन्नम् ॥२॥
समकलकाले भूभा लगति मृगार्द्धेयतस्तथास्नानम् ।
सर्वे पश्यन्ति समं समकक्षत्वात्रलग्ननावनती ॥ ३ ॥
पूर्वाभिमुखो गच्छन् कुच्छांयान्तर्यतः यशीविशति ।
तेन प्राक् प्रग्रहणं पश्चान्मोक्षोऽस्य निःसरतः ॥ ४ ॥
भानोर्विम्बपृथुत्वादपृथुपृथिव्याःप्रभाहि सूचग्रा।
दीर्घतया शशिकक्षामतीत्यदूरं बहिर्याता ॥ ५ ॥
अनुपातात् तद्दैर्घ्यंशशिकक्षायां च तद्बिम्बम् ।
भूमेन्दोरन्यादिशि व्यस्तः क्षेपः शशिग्रहे तस्मात् ॥ ६ ॥
दर्शान्तकाले रविं पूर्वतः पश्चिमतो वा नतं चन्द्रेण छन्नमेव अपश्यति भूमध्यस्थोद्रष्टा। यतो दर्शान्ते समौ भवतः। यो भूपृष्ठस्थोद्रष्टा स तदार्कंछन्नंन पश्यति । यतस्तदृष्टिसूत्राच्चन्द्रोऽधो लम्बितोभवति। अतःकक्षामेदाल्लम्बनं नतिश्चोपपद्यते । चन्द्रग्रहे तु लम्बननत्योरभावः । यतःसमकलकाले भूमा चन्द्रे लगति । तया छन्नंसर्वे विदेशान्तरस्थाअपि नतमपि तं चन्द्रं समं पश्यन्ति । यतस्तत्र छाद्यच्छादकयोरेकैव कक्षा
जाता। तथा भूमा तावत् पूर्वाभिमुखमर्कगत्या गच्छति । चन्द्रस्य स्वगत्या । स शीघ्रत्वात्पूर्वाभिमुखो गच्छन् भूमां प्रविश्यति । तेन तस्य प्राक् स्पर्शः । भूमायां निःसरतः पश्चान्मुक्तिः ।भानोर्बिम्बं विपुलं पृथ्वी लघुः । अतो भूमा सूच्यग्राभवति । दीर्घत्वेन चन्द्रकक्षामतीत्य दूरं गता । तद्दैर्घ्यंमनुपातात् साध्यते । चन्द्रकक्षाप्रदेशे भूमा चन्द्रबिम्बं चेति सर्वे ग्रहणे प्रतिपादितमेव ।
इदानीं छादकनिर्णयमाह ।
छादकः पृथुरस्ततो विधो-
रर्धखण्डिततनोर्विषाणयोः ।
कुण्ठता च महतौ स्थितिर्यतो
लक्ष्यते हरिणलक्षणग्रहे॥ ७ ॥
अर्द्धखण्डिततनोर्विषाणयो-
स्तीक्षणता भवति तीक्ष्णदोधितेः ।
स्यात् स्थितिर्लघुरतो लघुः पृथक्
छादको दिनकृतोऽवगम्यते॥ ८ ॥
दिग्देश कालावरणादि भेदान्
न च्छादको राहुरिति ब्रुवन्ति ।
यन्मानिनः केवलगोलविद्या-
स्तत्संहितावेदपुराणबाह्यम् ॥ ९ ॥
राहुः कुभामण्डलगःशशाङ्कं
शशाङ्कगश्छादवतीनबिम्बम् ।
तमोमयः शम्भुवरप्रदानात्
सर्वागमानामविरुद्धमेतत्॥ १० ॥
**अर्कच्छादकाच्चन्द्रच्छादकः पृथुतरोऽवगम्यते । कृतः । यतोऽर्धखण्डितस्येन्दोर्विषाणयोः कुण्ठता दृश्यते स्थितिश्चमहती। **
अर्कस्यपुनरर्धखण्डितस्य तीक्ष्णता विषाणयोः स्थितिश्चलघ्वी। एतत्कारणद्वयान्यथानुपपत्यार्कस्यछादकोऽन्यः ।स चलघुः । एवं रवोन्द्वोर्नच्छादकोराहुरिति वदन्ति। दिग्देशकालावरणादिभेदात् । एकस्यप्राक् स्पर्शः। इतरस्य पश्चात् रवेः क्वापि ग्रहणमस्ति । क्वापि दर्शान्तादग्रतः क्वापि पृष्ठतः। अतोराहुकृतं न ग्रहणम् । नहि बहवो राहवः। एवं के वदन्ति । केवलगोलविद्यास्तदभिमानिनंश्च। इदं संहितावेदपुराणबाह्यम् । यतः संहितासु राहुरष्टमो ग्रहः। स्वर्भानुर्हवा आसुरः सूर्यतमसा विव्याधेति माध्यन्दिनीश्रुतिः।
सर्वं गङ्गासमं तोयं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः ।
सर्वं भूमिसमं दानं राहुग्रस्ते दिवाकरे ॥** **
इत्यादिपुराणवाक्यानि । अतोऽविरुद्धमुच्यते। राहुरनियतगतिस्तसोमयो ब्रह्मवरप्रदानाद्भूमां प्रविश्य चन्द्रं छादयति चन्द्रं प्रविश्य रविं छादयतीति सर्वागमानामविरुद्धम्।
इदानीं ते लम्बनावनतो कुतो हेतोः कुत इति कुदलेन साध्येते इत्यस्य प्रश्नोत्तरमाह।
यतः क्वर्धोच्छ्रतो द्रष्टा चन्द्रं पश्यति लम्बितम्।
साध्यते कुदलेनातो लम्बनं च नतिस्तथा ॥ ११ ॥** **
स्पष्टम्।
इदानींबालावबोधार्थं छेद्यप्रकारेण लम्बनमाह।
इष्टापवर्तितां पृथ्वीं कक्षे च शशिसूर्य्ययोः ।
भित्तौ विलिख्य तन्मध्ये तिर्य्यग्रेखा तथोर्ध्वगाम् ॥१२॥
तिर्य्यग्रेखावृतौ कल्प्यं कक्षायां क्षितिजं तथा।
ऊर्ध्व रेखायुतौ खार्धं दृग्ज्याचापांशकैर्नतौ ॥ १३ ॥
कृत्वार्केन्दू समुत्पत्तिंलम्बनस्य प्रदर्शयेत् ।
एकं भूमध्यतः सूत्रं नयेच्चण्डांशुमण्डलम् ॥ १४ ॥
द्रष्टुर्भूपृष्ठगादन्यददृष्टिसूत्रं तदुच्चते।
कक्षायां सूत्रयोर्मध्ये यास्ता लम्बनलिप्तिकाः ॥ १५ ॥
गर्भसूत्रे , सदा स्यातांचन्द्रर्कोसमलिप्तिको ।
दृग्सूत्रालम्बितश्चन्द्रस्तेनतल्लम्बनं स्मृतम्॥ १६ ॥
दृग्गर्भसूत्रयोरैक्यात्खमध्ये नास्ति लम्बनम् ।
सष्टार्थमपि स्वरूपमात्रं व्याख्यायते कुदलेनोच्छ्रितेद्रष्टा दृङ्मण्डले खस्थानान्नतं ग्रहंपश्यति। अतस्तनूज्ञानार्थं पृथिवोव्यासार्धस्य,योजनानि कक्षाव्यासार्द्धस्यव योजनान्येकेन चिद्धरेण छित्वा तेन प्रमाणेन भित्तौविलिखेत् । एतदुक्तं भवति। भूव्यासः कुभुजङ्कसायकभू १५८१ मितानि योजनानि । एतानि केनचिन्महता हरेणछिन्नानि । तद्दलं भूव्यासार्धम् । तेनैव छेदेन चन्द्रार्ककक्षाव्यासार्द्धेछिन्ने। ते तद्व्यासार्द्धे भवतः । एवं कृत्वा भित्तावुत्तरपार्श्वेबिन्दुं कृत्वा तस्माद्विन्दोर्भूव्यासार्द्धेन भूवृत्तं कृत्वाकक्षाव्यासार्द्धाभ्यां कक्षावृत्त च कार्य्ये । तस्माद्विन्दोरूर्ध्वरेखातिर्य्यग्रेखा च कार्य्या। तिर्य्यग्रेखा यत्र कक्षायां लग्ना तत्र क्षितिजं कल्प्यम् । ऊर्ध्वरेखा यत्र लग्ना तत्र खमध्य कल्प्यम्। एवं चन्द्रकक्षायां रविकक्षायां च। ते चकक्षे भगणेशै ३६० रङ्कनौये। ते चन्द्रार्कयोर्दृङ्मण्डले। अथ दर्शान्तेऽर्कस्यया दृग्ज्या तच्चापांशैःखमध्यान्नतो बिन्दुः कार्य्यः। एवं चन्द्रकक्षायामपि तावद्भिरेव नतांशैः। तौबिन्दूरविचन्द्रौ कल्प्यौ। अथ भूमध्याद्रविबिन्दुगामिनी रेखा कार्य्यासा रेखाचन्द्रं भित्वा रवि याति । अथ भूपृष्ठगाद्द्रष्टुरन्या रेखा रविबिन्दुं नेया सा रेखा चन्द्रे नलगति। तयोः सूत्रयोरन्तरे चन्द्रकक्षाया याः कलादृश्यन्ते ता लम्बनलिप्ताः । अथवा द्रष्टुश्चन्द्र- बिन्दूपरिगता रेखा रविकक्षायां नेयातत्रसूत्रयोरन्तरे याः कला दृश्यन्ते तावा लम्बनलिप्तास्तुल्या एव भवन्ति । भूगर्भाद्या-
नीता रेखा तद्गर्भसूत्रम् । समकन्तौ चन्द्रार्कौतत्रसदेव भवतः अथ या रेखाद्रष्टुंरविबन्दुंनीतातदृकसूत्रमुच्यते। दृक्सूत्राचन्द्रो लम्बितोभवति । अतस्तलम्बनम् । अथ यदा चन्द्रार्कोखमध्ये भवतस्तदागर्भदृष्टिसूत्रयोरैक्यमतस्तत्रलम्बनाभावः। इयंदृङ्मण्डले लम्बनस्योपपत्तिर्दर्शिता।
**इदानीं नत्युपपत्तिमाह। **
अथयाम्योत्तरायां तु भित्तौपूर्वोक्तमालिखेत् ॥ १७॥
ये कक्षामण्डले तत्र ज्ञेये दृक्षेपमण्डले।
त्रिभोनलग्नदृग्ज्या या स दृक्क्षेपोद्वयोरपि॥ १८ ॥
तच्चापांशैनतौबिन्दुं कृत्वा वित्रिभसंज्ञकौ ।
तल्लम्बनकलाः प्राग्वजक्षेयास्ता नतिलिप्तिकाः॥ १९॥
कक्षयोरन्तरं यत् स्याद्वित्रिभे सर्वतोऽपि तत् ।
याम्योत्तरं नतिःस्रात्रदृक्क्षेपात् साध्यते ततः ॥ २०॥
इदमेव छेद्यकं याम्योत्तरायां भित्तौपूर्वपार्श्वेलिखित्वा नत्युपपत्तिर्दर्शनीया। ये तत्रकक्षामण्डले ते दृक्क्षेपमण्डले। दर्शान्ते त्रिभोनलम्बस्य या दृगज्या स दृक्क्षेपः । द्वयोरपि बावान्। ब्रह्मगुप्तमते तु तच्चापांशा वित्रिभलग्नशरसंस्कृताश्चन्द्रदृक्षेपचापांशाः स्युः। तयोर्वृत्तयोः खार्द्धात् स्वस्वदृक्क्षेपचापांशेर्नतौ बिन्दू कार्य्यौ।तौच वित्रिभमज्ञो। ततः प्राग्वद्भूमध्याद् भूपृष्ठाच्च सूत्रेप्रसार्य्य लम्बनलिप्तिका ज्ञेयास्ता नतिलिप्तिकाः। नतिर्नाम चन्द्रार्ककक्षयोर्याम्योत्तरमन्तरम् । तद्वित्रिभलग्नस्थाने यावत् सर्वतोऽपि तावदेव भवति। अतो दृक्क्षेपात् साधिता नतिः।
इदानीं स्फुटलम्बनार्थमाह।
यत्र तत्र नतादर्कादधचन्द्रावलम्बनम् ।** **
तदृग्वृत्तेऽन्तरं चन्द्रभान्वोःपूर्वापरं तु तत् ॥ २१ ॥
पूर्वापरं च याम्योदग्जातं तेनान्तरद्वयम् ।
अत्रापमण्डलंप्राचीतत्तिर्य्यदक्षिणोत्तरा ॥२२ ॥
यत् पूर्वापरभावेन लम्बनाख्यः तदन्तरम् ।
यद्याम्योत्तरभावेन नतिसंज्ञंतदुच्यते ॥ २३ ॥
नतिलिप्ताभुजः कर्णो दृग्लम्बनकलास्तयोः ।
कृत्वन्तरपदं कोटिःस्फुटलम्बनलिप्तिकाः ॥ २४ ॥
परलम्बनलिप्ताघ्नीत्रिज्याप्ता रविदृग्ज्यका ।
दृग्लम्बनकलास्ताः स्युरेवं दृक्षेपतोनतिः ॥ २५ ॥
गत्यन्तरस्यतिथ्यंशः परलम्बनलिप्तिकाः ।
गतियोजन$\begin{matrix} {११८५६} \\ १ \\ ४ \\ \end{matrix}$ तिथ्यंशः कुदलस्य यतो मितिः ॥ २६ ॥
स्युर्लम्बनकला नाह्योगत्यन्तरलवोद्धृताः ।
प्रागग्रतो रवेश्चन्द्रः पश्चात् पृष्ठेऽवलम्बितः ॥ २७ ॥
शीघ्रेऽग्रगे युतिर्याता गम्या पृष्ठगते यतः ।
प्रागृणं तद्घनं पश्चात् क्रियते लम्बनं तिथौ ॥ २८ ॥
याम्योत्तरं शरस्तावदन्तरं शशिसूर्य्ययोः ।
नतिस्तथा तथा तस्मात् संस्कृतः स्यात् स्फुटःशरः ॥ २९ ॥** **
स्पष्टार्थमिदं ग्रहणवासनायांव्याख्यातं च ।** **
अथ वलनवामनामाह।
तुलाजाद्योर्हि संपाते विषुवत्क्रानिवृत्तयोः ।
स्यातां याम्योत्तरे भिन्नेएरक्रान्त्वन्तरे च ते ॥ ३० ॥
आयनं वलनं तत्रजिनांशज्यासमं ततः।
एकैवायनसन्धौ तु तयोः स्याद्दक्षिणोत्तरा ॥ ३१ ॥
एकैव तद्वशात् प्राचीतत्र नो वलनं ततः ।
तदन्तरेऽनुपातेन खेटकोटिक्रमज्यका ॥ ३२ ॥
जिनज्याघ्नो द्युजीवाप्तायनदिग्वलनं भवेत् ।
एवमेव हि सम्पाते विषुवत्समवृत्तयोः ॥ ३३ ॥
उन्मणडलं भवेत्तत्र विषुवद्दक्षिणोत्तरा।
क्षितिजं समवृत्तस्य पलज्या च तदन्तरम् ॥ ३४ ॥
क्षितिजेऽक्षज्यया तुल्यमक्षजं वलनं ततः ।
तयोरेकैव याम्योदङ्नमध्येवलनंततः ।॥ ३५ ॥
नतक्रमज्ययासाध्यमन्तरे त्वनुपाततः ।
नतं खाङघाहतं भक्तं देयुदखेनाप्तभागकैः॥ ३६ ॥
क्रमज्याक्षज्यया क्षुणा द्युज्याभक्ताक्षजं भवेत् ।
प्राक् सौम्यं पश्चिमे याम्यंतच्चायैक्यान्तरात्स्फुटम्॥ ३७ ॥
एवमेव च सम्पातो यः क्रान्तिसमवृत्तयोः ।
परमं तत्र तत्कालवलनैक्यान्तरं स्फुटम् ॥ ३८ ॥
अग्रतः पृष्ठतस्तस्मात् क्रान्तिवृत्ते त्रिभेऽन्तरे।
तयोर्याम्योत्तरैकत्वात् तत्रनो वलनं स्फुटम् ॥ ३९ ॥
न स्पष्टबलनाभावस्तत्र स्यादुत्क्रमज्या ।
क्रमज्यया ततः कार्य्यंदार्व्यार्थंकष्यतेपुनः ॥ ४० ॥
सर्वतः कान्तिसूत्राणांध्रुवेयोगो भवेद्यतः ।
विषुवन्मण्डलप्राच्याध्रुवे याम्या तथोत्तरा ॥४१॥** **
सर्वतः क्षेपसूत्राणां ध्रुवाज्जिनलवान्तरे।
योगः कदम्बसंज्ञोऽयं ज्ञेयो वलनबोधकृत् ॥ ४२ ॥
तत्रापमण्डलप्राच्यायाम्या सौम्या च दिक् सदा।** **
कदम्बभ्रमवृत्तं च बध्नोयात् परितो ध्रुवात् ॥ ४३ ॥
गोले तु जिनतुल्यांशैस्तत्रज्या क्रान्तिशिञ्चिनौ।
सर्वतः समवृत्ताश्चयाम्योदक्कुजसङ्गमे॥ ४४ ॥
तत्तिर्य्यम्मतसूत्राणां योगः स समसंज्ञकः ।
समध्रुवकदम्बानामुपरि द्युचरान्नयेत् ॥ ४५ ॥
सूत्राणि वृत्तरूपाणि वलनानि तदन्तरे।
अक्षजंवलनं मध्ये स्यात् समध्रुवसूत्रयोः ॥ ४६॥
कदम्बध्रुव सूत्रान्तरायनं च त्रिभेग्रहात्।
कदम्बसमसूत्रान्तः स्फुटं सर्वदिशांच तत् ॥४७॥
अथवापरितःखेटात् स्वाङ्घमागान्तरे न्यसेत् ।
त्रिज्यावृतं ततस्तत्रविषुवत्समवृत्तयोः ॥४८॥
मध्येऽक्षवलनं विद्याद्विषुवत्क्रान्तिवृत्तयोः ।
अन्तरं चायनं क्रान्तिसमवृत्तान्तरे स्फुटम् ॥ ४९ ॥
तत्रापमण्डलं प्राचीतस्यायाम्योत्तरः शरः ।
वलनायने क्षेपोयैः क्षिप्तस्ते तु कुबुद्धयः ॥ ५० ॥
नक्रादिश्च कदम्ब स्यातां याम्योत्तरे समम् ।
आयनंवलनं तस्मान्नयनादौ प्रजायते ॥ ५१ ॥
ततो भ्रमति गोले स मकरादिर्यथा यथा।
तथा तथा भ्रमत्येष कदम्बोनिजमण्डले ॥ ५२ ॥
कुम्भादावध मीनादौ याम्योदम्वलयस्थिते।
जायते वलनं तद्यत् सौम्यसूत्रकदम्बयोः ॥ ५३ ॥
अन्तरं शिञ्चिनीरूपं कदम्बभ्रममण्डले।
अयनाद्गतकालांशक्रमक्रान्तिज्यका हि सा॥ ५४॥
उत्क्रमज्या यतो बाणः शिञ्चिनो तु क्रमज्यका ।
सत्रिभार्कात् क्रमक्रान्तिज्यातो वलनमायनम् ॥ ५५ ॥
यैरुक्तमुत्क्रमकान्त्या भ्रान्त्यातैर्नाशितं हि तत् ।
युक्त्यानयेव विज्ञेयमक्षजं च क्रमज्यया ॥ ५६ ॥
पराक्तरन्यथा ब्रूयाद्यःपरान् न प्रदूषयेत् ।
तस्यैव दूषणं तद्दिन दोषोऽतोऽन्यदूषणे ॥ ५७॥
उत्क्रमज्यानिरामोऽयमन्यथा वाथकथ्यते।
जिनांशेर्जिनवृत्ताख्यं कदम्बात् परितो न्यसेत् ॥ ५८ ॥
क्रान्तियाम्योत्तरं वृत्तं कदम्बद्वयकीलयोः ।
प्रोतं कृत्वा चलं न्यस्तं इन्द्वान्ते स्याद्ध्रुवोपरि ॥ ५९ ॥
द्वन्दान्ताश्चाल्यतेऽंशैर्वयैस्तैरेव चलति ध्रुवात्।
जिनवृत्ते तदंशानांतत्र ज्या ने क्रान्तिशिश्चितो ॥ ६० ॥
आयनंसैव वलनं द्युज्याग्रे जायते ग्रहात् ।
ग्रहध्रुवान्तरे यस्मादद्युज्याचापांशकाः सदा ॥ ६१ ॥
त्रिज्यावृत्तेयतो देयं तवातः परिणाम्यते ।
एवमक्षांशकैर्वृत्तं समाख्यात्परितो न्यसेत् ॥ ६२ ॥
समकीलकयोः प्रोतं तथा याम्योत्तरं चलम् ।
तत्तत्खेटोपरि न्यस्तं यैरंशैःखार्धतो नतम् ॥ ६३ ॥
समवृत्तेऽक्षवत्ते च तैरेव स्यान्नतं ध्रुवात्।
समवृत्तनतांशज्याक्षज्यापरिणताक्षजम् ॥ ६४ ॥
द्युज्याग्रे वलनं प्राग्वत् त्रिज्याग्रेपरिणाम्यते ।
उपपत्त्यानया सम्यक् समवृत्तनतांशजम् ॥ ६५ ॥
वलनं स्यात् तथा वक्ष्ये स्वाहोरात्रनतादपि ।
अग्रानृतलयोर्योगः समदिक्त्वेऽन्यथान्तरम् ॥६६॥
तत्त्रिज्यावर्गविश्लेषपदभक्ताक्षशिञ्चिनी।
नतासुदोर्ज्यया क्षुणा वलनं पलजं स्फुटम् ॥ ६७ ॥
नतं खाङ्काहतं भक्तं द्युदलेनाप्तभागकैः ।
क्रमज्याक्षज्यया क्षुणा स्थूलं वा द्युज्यया हृता ॥ ६८॥
द्युज्यावृत्तापवृत्तैक्येन्यसेद्वारविमण्डलम् ।
बिम्बाग्रेवलनं तद्यदन्तरं वृत्तयोस्तयोः॥ ६९ ॥
बिम्बान्तबिम्बमध्योत्थक्रान्तिमौर्व्योस्तदन्तरम् ।
अर्कदोर्भोग्यखण्डघ्नं बिम्बार्धं तत्वदस्रहृत् ॥ ७० ॥
जिनज्याघ्नं त्रिभज्याप्तमेवं स्यादन्तरं हि तत्। ।
विम्बार्धात् त्रिभज्याघ्नमेवं त्रिज्यागतं भवेत् ॥ ७१ ॥
गुणहारकबिम्बार्धत्रिज्यानाशेकृते सति ।
भोग्यखण्डं जिनांशज्यागुणं तत्त्वाश्विभाजितम् ॥७२॥
सत्रिमार्कात् क्रमक्रान्तेस्तत् तुल्यं जायतेऽथवा ।
क्रमक्रान्तेरिदेवीक्ष्यभ्रान्तिं त्यजत बालिशः॥ ७३॥
ज्यामितं छत्रवद्बिम्बंतिर्य्यक्क्रान्तिस्तु सा समा ।
अत्र द्युज्यानुपातो हियस्तत्तिर्य्यक्करणाय सः॥ ७४॥
अत्र वलनेषु दृक्कर्मणिचरेत्क्रमज्यानिराकरणाय मूलसूत्रेऽपि यद्भक्तं तथापि किञ्चिदिहोच्यते ।विषुवद्वृत्तं समवृत्तं प्रकल्प्यदक्षिणोत्तरवृत्तस्थे ग्रहआयनवलनस्थोपपत्तिप्रतीत्यर्थं पृथक्दर्शयेत्। अपमण्डलप्राच्यपराया एकः कदम्बोयाम्यान्यः सौम्या दिक्। एवं विषुवद्वृत्तप्राच्यपराया ध्रुवौ। यदा मकरादिर्याम्योत्तरवृत्ते तदेव कदम्बोऽपि। अतो विषुवत्क्रान्ति वृत्तयोरेकैवयाम्योदक् । तथा दक्षिणोतरवृत्तस्य कुम्भादेश्चमध्ये स्वाहोरात्रवृत्तेपञ्चगुणाङ्कचन्द्रा १९३५ असवोवर्त्तन्ते । ते षष्ट्युहुताः कलांशाः स्युः ३२ । १५ । अथ कुम्भादिर्यावद्दचिह्नोत्तरवृत्तंनीयतेतावत् कदम्बो निजमण्डले चक्रांशाङ्कितेतावद्भिरेव कालांशैः ३२ । १५ र्दक्षिणोत्तरवृत्तसंपातात् प्रत्यगवलम्बते। कदम्बयाम्योत्तरसवयोरन्तरं वलनम् । सा च तेषामंशानां कदम्बवृत्तेज्या । अतःक्रमज्या उत्क्रमज्या तु बाणरूपा भवति। कदम्बवृत्ते या ज्या सा क्रान्तिज्या। अतस्तषामंशानां क्रमक्रान्तिज्या वलनम्। अथवैकराशेःक्रमक्रान्तिज्या त्रिज्यागुणा द्युज्याहृता तथापि सैव भवति।
अथवान्यप्रकारेणोत्क्रमज्यानिराकरणं द्युज्यानुपातश्च प्रतिपाद्यते । क्रान्तिवृत्तेऽर्कस्थानेऽर्कबिम्बं मुद्रिकाकार विन्यस्यबिम्बपरिधौयत्र स्वाहोरात्रवृत्तं लग्नंयत्रच क्रान्तिवृत्तंतयोरन्तरं यद्दक्षीणोत्तरं तत् तत्रबिम्बे प्राच्यपरयोर्वलनम् । तच्चार्कक्रान्तिबिम्बार्धकलायुतस्यार्कस्य क्रान्तेश्चान्तरम्। अतस्तस्यानयनम् । रविदार्ज्यायां क्रियमाणायां यभ्भोग्यखण्डं तेन
मानार्धकला गुण्याःशरद्विदस्रैः२२५ र्भाज्याः । फलं दोर्ज्ययोरन्तं स्यात् । तत्र तावत् स्फुटभोेग्यखण्डज्ञानायानुपातः ।यदि त्रिज्यातुल्यायां कोटी प्रथमं ज्यार्धशरद्विदया भोग्यखण्डंतदाभिमतायामस्यांकिमिति । फलं स्फुटंभोग्यखण्डम्। तेन गुणितं बिम्बार्धंशरद्विदस्रैर्भाज्यम् । एवं स्थिते शरद्विदस्रमितयोर्गुणहरयोर्नाशे कृतेबिम्बार्धस्यकोटिज्यागुणत्रिज्या हरः । फलं दोर्ज्ययोरन्तरम् । ततः क्रान्त्यर्थमनुपातः। यदि त्रिज्ययाजिनज्या लभ्यते तदानेन दोर्ज्यान्तरेण किमिति । फलं क्रान्त्यन्तरम् । तद्बिम्बव्यासार्द्धवृत्ते वलनम्। अथान्योनुऽनुपातः। यदि बिम्बस्य सार्द्धवृत्त एतावद्वलनं तदा त्रिज्याव्यासार्द्धवृत्ते किमिति। अत्र त्रिज्यातुल्ययोर्गुणहरयोस्तथा बिम्बार्द्धमितयोश्च तुल्यत्वान्नाशे कृते कोटिज्याया जिनांशज्या गुणत्रिज्या हरः । फलं कोटिक्रमक्रान्तिज्या। तत् त्रिज्यावृत्ते वलनम् । एवं विषुवद्वृत्तस्थितं एव ग्रहे । यतो भूमध्यात् स्व-स्वस्तिकस्यबिम्बमध्यं प्रति यत् सूत्रं नीयते तत्त्रिज्यासूत्रं दण्डवत् । तदुपरिस्थंबिम्ब छत्रवत् समन्तात् सममेव। यत तत्परितस्त्रिज्यावृत्तं यत्र च वलनज्यादेया तदपि भूसममेव स्थितम् । अतस्तत्र यथागतमेव वलनम्। यदा किल मेषान्ते ग्रहस्तदा तत्कान्त्या स्वस्वस्तिकादुत्तरे नतं बिम्ब स्यात् । त्रिज्यासूत्रंतदा कर्णरूपम् । बिम्बमध्याच्चलम्बसूत्रंध्रुवयष्ट्यन्तं द्युज्या । सा तत्रकोटिः। क्रान्तिज्याभुजः। यथा किञ्चित् कर्णस्थित्या धृते दण्डेछत्रमपि तत्स्पर्धिन्यां दिशि कर्णरूपं भवति । तस्यवलनज्यायापि कर्णरूपिण्या भवितव्यम् । यत् पूर्वमानीतं क्रान्त्यन्तरंलम्बसूत्रप्रतिस्पर्धि तत् कोटिरूपं जातम्। तस्य कर्णकरणायानुपातः। यदि द्युज्याकोट्यात्रिज्याकर्णस्तदानया किमिति। पूर्वं कोटिज्याया जिनज्या
गुणस्त्रिज्या हरः । इदानीं त्रिज्यागुणोद्युज्याहरः । अत्रापि त्रिज्यातुल्ययोर्गुणहरयोर्नाशेकृते कोटिज्याजिनाज्यागुणा द्युज्यया भक्तावलनं स्यादिवत्युपपन्नम् ।
युक्त्यानयैवविज्ञेयमक्षजंच क्रमजायेति । यथायनवलनज्ञानार्थंध्रुवात् परितो जिनभागैः कदम्बभ्रमवृत्तंनिबद्धंतथा याम्योत्तरक्षितिजयोर्थः सम्पातः स समसंज्ञकः । तस्मादस्यक्षांशैः परितोऽक्षवलनज्ञानार्थं वृत्तं बध्नीयात् । तत् किलाक्षवलयसंज्ञम् ।तदपि भांशैरङ्क्यम् तत्राक्षवलनोपपत्तिर्दर्शनीया। तद्यथा। मध्याङ्केऽर्कात् समचिह्नंप्रति नीयमानं वृत्ताकारं सूत्रं ध्रुवचिह्नलग्नं याति। अतस्तत्र विषुवत्समवृत्तयोरेकैव याम्योत्तरा। वलनाभाव इत्यर्थः । अथ यदि दिनार्धान्नतं सूर्य्यं कृत्वासमचिह्नात् सूर्य्यंप्रति नीयमानं सूत्रं यत्नसममण्डले लगति तत्स्वस्वखस्तिकयोर्मध्ये यावन्तोऽंशास्तावन्त एवाक्षवृत्ते समसूत्रध्रुवयोर्मध्ये भवन्ति । यतस्तत्समवृत्तानुकारं बद्धम् । तेषां भागानामक्षवलये यावती क्रमज्या तावदेव समसूत्रध्रुवयोरन्तरम् । अथ क्षितिजस्थेऽर्के क्षितिजमेव समसूत्रम्। तत्राक्षवृत्ते समवृत्ते च नवतिर्नवांशाः । तेषां ज्याक्षवलयेऽक्षज्यातुल्या स्यात्। अतःसममण्डलगतैर्नतांशेर्वलनंसाधयितुं युज्यते । ते तु महायासेन ज्ञायन्ते । न तु सुखेन । अतस्तज्यज्ञानार्थं स्थूलोऽनुपातः सुखार्थं कृतः । यदि दिनार्द्दतुल्येन स्वाहोरात्रनतेन नवतिः सममण्डलनतांशा लभ्यन्ते तदेष्टेन किमिति । लब्धनतांशानां या क्रमज्यासाक्षज्यावृत्ते कियतीति । यदि त्रिज्यावृत्त एतावतीज्या तदाक्षज्यावृत्तेकियतीति । लब्धं किल वलनज्या स्यात् । परं सा दुज्याग्रेन त्रिज्याग्रे। यतः समसूत्रध्रुवयोरन्तरं तत्। गृह ध्रुवयोर्मध्ये द्युज्याचापांशा एव वर्तन्ते । यदि द्युज्यावृत्त एतावती तदा त्रिज्यावृत्ते कियतीति ।
एवं मति पूर्वत्रैराशिके त्रिज्या हरः । इदानीं गुणः । तुल्यत्वात् तयोर्नाशेकृते नतांशज्याया अक्षज्या गुणी द्यु ज्या हरः ।फलं स्थूला वलनज्या स्यात्।
अथ सूक्ष्माप्युचते। ग्रहणकालेऽर्कस्य शङ्कुःशङ्कुतलमग्राच माध्या। अग्राशङ्कुतलयोः समदिशीरैक्यमन्यथान्तरं स किल बाहुः पूर्वं प्रतिपादित एव । ग्रहसमवृत्तयोरन्तरं ज्यारूपं दक्षिणोत्तरं बाहुतुल्यंस्यात्। यथा विषुवद्सवृत्तादुत्तरतो दक्षिणगतो वा क्रान्तिज्यान्तरेद्युज्यावृत्तंतथा समवृत्तादपि बाहुवशादुत्तरतोदक्षिणतोवा बाहुतुल्येऽन्तर उपवृत्तं कल्प्यम् । तदपि भांशैरङ्क्यम् । बाहुवर्गोन त्रिज्यावर्गस्य पदं तस्मिन् वृत्ते द्युज्यावद्व्यासार्द्धम् । अथ द्युज्यावृत्तापवृत्तयोयौप्राक्पश्चात्सम्पातौतयोर्जीवावद्यत् सूत्रंनिबध्यते तस्यार्धमुपवृत्ते नतांशानां ज्या । सैवाहोरात्रत्तवृनतांशानां भुजज्या। अथ तदानयनम् । नतासूनां या भुजजीवा साद्युज्यावृत्ते परिणाम्यते। यदि त्रिज्यावृत्त एतावती तदा द्युज्यावृत्ते कियतीति। एवमुपवृत्तनतांशज्या भवति। ततो यद्युपवृत्तव्यासार्द्धएतावतीतदाक्षज्याव्यासार्द्धेकियतीति । ततो द्युज्याग्रएतावती वलनज्यातदा त्रिज्यग्रेकियतीति। अत्र प्रथमेऽनुपातेत्रिज्याहरो द्युज्या गुणः । तृतीयेऽनुपाते त्रिज्या गुणो द्युज्याहरोऽतस्तुल्यत्वात् तयोर्नाशेकृते नतामूनां भुजज्याक्षजीवया गुणितोपवृत्तव्यासार्धन भक्तासा सूक्ष्मावलनज्यास्यात्। अत उक्तमग्रानृतलयोर्याग इत्यादि।
अथ दृष्टान्तः। यत्र किल वृषभान्तक्रान्तितुल्योऽक्षः२० । ३८ तत्र वृषभान्तस्योऽर्को दिनार्धे स्वस्वस्तिके भवति । तदा क्रान्तिवृत्तं दृङ्मण्डलाकारं स्यात् । सत्रिग्रहोऽर्को राशिपञ्चक सिंहान्तः। स च तदा क्षितिजे वर्तते । तत् प्राच्या-
परयोरतरं क्षितिजे प्रत्यक्षंवलनंदृश्यते । सा च सिंहान्तःस्याग्रा। तत्कथंसत्रिगृहार्कोत्क्रमक्रान्तिर्वलनम् ।अतोऽसत् । अस्मदानयनं विना नेदमग्रारूपंवलनमुत्पद्यतइत्यर्थः ।
**अथान्योमहान् दृष्टान्तः। यत्र देशेषट्ष्टिभागा६६ अक्षः **;तत्रमेषादौक्षितिजस्थेसर्वेऽपि राशयःसमकालमेव क्षितिजस्याभवन्ति । तदा क्रान्तिवृत्तमेव क्षितिजंभवतीत्यर्थः । तत्र मेषादौवृषभादौ मिथुनादौवा स्थितेरवौपरमंत्रिज्यातुल्यमेव स्फुटं वलनं स्यात् । यतः क्रान्तिवृत्तग्राच्युत्तरा जाता ।तथा विक्षेपाभावे सति तदा रवेर्दक्षिणस्यांदिशि स्पर्शः । चन्द्रस्योत्तरस्यामित्यर्थः। एतदुक्तं भवति । तत्रदेशे तस्मिन् काले तस्य त्रिज्यातुल्यस्य वलनस्यान्यथानुपपत्त्यास्पदीयमेव वलनायनं समीचीनम् । तत्र देशेऽक्षज्या३१४० । मेषादिगे रवौ द्युज्या३४३८ । चरज्यासवः ०। क्षितिजस्थेऽर्के नतघटिकाः १५ । आयनवलनचापांशाः२४। अक्षवलनचापांशाः ६६ ।स्फुटवलनस्यचापांशाः९०। वृषादिगे रवी द्युज्या३३६६ । चरज्यासवः १६७० । नतघटिकाः१९ । ३८ ! आयनवलनचापांशाः २१ । ४ । अक्षजस्य ६८ । ५६ । स्फुटवलनस्य चापांशाः ९० । मिथुनादिगे द्युजा ३२१८ । चरासवः ३४६५ । नतघटिकाः २४ । ३७ । आयनवलनांशाः१२। ३२ । अक्षजस्य ७७ । २८ । स्फुटस्य९० । एवं सर्वत्र ।
अतएव प्रतिवादिनं प्रत्याह ।
यत् स्वस्वस्तिकरोरवौभवलये दृग्वृत्तवत् संस्थिते
प्रत्यक्ष वलनं कुजे त्रिभयुतार्कग्रासमं दृश्यते ।
त्वं चेदुत्कामजीवया नयसियत् तादृक् सखे गोलविन्
मन्ये तर्ह्यमलं तदेव वलनं धीवृद्धिदाद्योदितम् ॥
यत्राक्षोऽङ्गरसा लवा दिनमणेस्तत्रोदयं गच्छतो
मेषे वा वृषभेऽपि वाप्यनिमेषेकुम्भेस्थितस्यापि वा।
स्पर्शोदक्षिषतस्तदा क्षितिजवत् स्यात् क्रान्तिवृत्तं यत-
स्तद्ब्रूह्युत्क्रमजीवयात्र वलनं व्यासार्धतुल्यं कथम्॥
अनेनैवोत्क्रमज्यानिराकरणेनदृक्कर्मपि क्रमज्ययासाध्यम्।
वलनमूलत्वाद्दृकर्म्मणोऽतस्तयोरकैव वासना।** **
इति श्रीभास्करीये सिद्धान्तशिरोमणिगोखवासनाभाष्ये मिताक्षरे ग्रहणवासना।
__________
अथोदयास्तवासना तत्रादावुदयेऽस्ते च दृक्कर्मकारणमाह।
क्रान्तिवृत्तग्रहस्थानचिह्नंयदा
स्यात्कुजे नो तदा खेचरोऽयं यतः ।
स्वोषुणोत्क्षिप्यते नाम्यते वा कुजात्
तेन दृक्कर्म खेटोदयास्ते कृतम् ॥ १ ॥
नैव बाणः कुजेऽसौ कदम्बोन्मुख-
स्तत्समुत्क्षेपणं नामनं च द्विधा।
आयनं चाक्षजं तेन कर्मद्वयं
तत्प्रपञ्चः पुनःसंविविच्योच्यते ॥२॥** **
स्पष्टार्थम् ।
अथ तत्कर्माह।
क्षितिजे वलने येस्त स्तद्वशादिषुणा ग्रहः ।** **
याम्येन नाम्यते क्ष्माजात् सौम्येनोन्नाम्यते तथा ॥३॥
तद्व्यस्तंवलने याम्येव्यस्तंप्रत्यक्कुजेऽप्यतः।
आयनं त्रिज्ययाचेत् स्यादस्पष्टेन शरेण किम् ॥ ४ ॥
लम्बज्ययाक्षजंचेत् स्याद्वलनं किं स्फुटेषुणा ।
इति त्रैराशिकाल्लब्धेत्रिज्याघ्नोद्युज्ययोद्धृते ॥ ५ ॥
तच्चापैक्यान्तरप्राणैः कुजात् खेटो नतोन्नतः ।
तैः प्राणैर्यत् क्रमाल्लग्नं नतात् खेटात्प्रजायते ॥ ६॥
उत्कमेणोन्नताद्यच्च तद्ग्रहोदयलग्नकम् ।
उक्तव्यत्ययतः प्रत्यगस्तलग्नं सषड्ग्रहात्॥ ७॥
शरे महति भानांतु चरार्धं मध्यमापमात् ।
शरस्फुटात् तथा कृत्वा तच्चापैक्यान्तरासुभिः ॥ ८॥
विभिन्नैकदिशोर्विद्यादक्षजेन नतोन्नतम्।
आयनाक्षजयोर्योगवियोगाल्लमबनमुक्तवत्॥९॥
**अत्र गोलेयथोक्तंक्रान्तिमण्डले विमण्डले च ग्रहंदत्वा विमण्डलस्थग्रहोपरि द्युज्यावृत्तेच बद्धेयथेय दृक्कर्मोपपत्ति सुखेन बालैरपि बुध्यते तथायं सूत्रपाठः कृतोऽतःसुगमा तथा ग्रहच्छायाधिकार द्वयमुपपत्तिःसम्यक् कथितैव । **
अथ शरस्य स्पष्टीकरणमाह ।
सत्रिराशिग्रहद्युज्यानिघ्नत्रिज्योद्धृतः शरः ।
स्फुटोऽसौ क्रान्तिसंस्कारे दृक्कर्मण्यवक्षजेतथा ॥ १० ॥
अयं सङ्घिप्तोगौणप्रकारः। मुख्यस्तु पूर्वं व्याख्यात एव । तथापीह युक्तिमात्रमुच्यते । विषुवदुवृत्तात्क्रान्तिर्ध्रुवाभिमुखी। क्रान्त्यग्राच्छरः कदम्बाभिमुखः । कथंतेन तिर्य्यक्स्थेन सा संस्कार्य्या । अतः क्रान्त्यग्रे यद्द्युज्यावृत्तंतस्यशराग्रस्य च यदन्तरमृजु तेन संस्कृता सती स्फुटा भवति। तच्चान्तरं कोटिरूपम्। शरः कर्णरूपः । तद्वर्गान्तरपदं द्युज्यावृत्ते भुजः । एतत् त्रास्रंदिग्वलनजत्रास्रसम्भवम् । तत्र सत्रिराशिग्रहकान्तिः कदम्बध्रुवसूत्रयोरन्तरम् । तज्ज्याभुजः। तद्द्युज्या काटिस्त्रिज्या कर्णः । यदि त्रिज्ययेयं कोटिस्तदा शरेण केत्युपपन्नम् । कोटिरूपस्यैव शरस्य ध्रुवोन्मुखस्याक्षज्ययाक्षजं दृक्कर्म कर्तुंयुज्यते। शेषोक्तिः स्पष्टार्था ।
अथ ब्रह्मगुप्तादिभिः किं स्पष्टो नोक्त इत्याशङ्क्याह।
ब्रह्मगुप्तादिभिः स्वल्पन्तरत्वान्नकृतः स्फुटः ।
स्थित्यर्थपरिलेखादो गणितागत एव हि॥ ११ ॥
नक्षत्राणां स्फुट एव स्थिरत्वात् पठिताः शराः ।
दृक्कर्मणायननैषां संस्कृताश्च तथा ध्रुवाः॥ १२॥
स्पष्टार्थम् ।
अथसदूषणानुपहसन्नाह ।
क्रान्तिसूत्रेशरंकेचिन्मन्यन्ते तु ते कुबुद्धयः ।
यद्येवमायनंतैश्चदृक्कर्मान्यैश्च कृतम् ॥ १३ ॥
किं स्पष्टवालने सूचे दत्तो मध्यशरश्चतैः ।
कोटिवद्वलनात् सूत्रात् स्पर्शमुक्तिशरौ च किम् ॥ १४॥
किञ्च कृत्वा शरं कोटिं स्थित्यर्धानयनं कृतम् ।
तादृक्चेत् स शरत्वेन नानुपातेन सिध्यति ॥ १५ ॥
**यदि क्रान्तिसूत्रे शरस्तदा ध्रुवाभिमुखः स्यात् । निरक्षदेशे क्षितिजस्थोध्रुवः। ध्रुवाभिमुखशराग्रस्थोग्रहः क्षितिज नत्यजति । नामनोन्नामनाभावात् । किं तत्रायनदृक्कर्मणा। अथवाचार्यैःकृतं येन न मन्यन्ते तैरपि कृतं भ्रान्तत्वात्। तथा परिलेखे बिम्बमध्यात् स्पष्टवलनाग्रोपरिगतं सूत्रंक्रान्तिवृत्तप्राची। तस्याः कोटिवच्छरः किं दत्तः। तत्पक्षे ध्रुवसूत्रे ज्ञेयः। **
**शेषं स्पष्टम्। **
अथोत्क्रमज्यानिवृत्तिमाह।
दृष्टिकर्म वलनं च केनचिद्
भ्रान्तितः कथितमुत्क्रमज्ययया।
तत् कृतं तदनुगैस्ततोऽपरै-
रन्धपूरुषपरम्परोपमैः ॥ १६ ॥
ब्रह्मगुप्तकृतिरत्र सुन्दरी
सान्यथा तदनुगैर्विचार्य्यते।
नोद्धता कृतिरथोद्वतास्तु वा
मामिका सुगणका विचार्य्यताम् ॥ १७ ॥** **
अत्र ब्रह्मगुप्तकृतिः सुंन्दर्य्यपि चतुर्वेदाचार्य्यैरन्यथा व्याख्याता। अथात्मन् औद्धत्याशङ्कां मत्योक्तम्। हे सुगणयका इयं मामिका त्वोजाम्। हे सुगणकाः इयं मामिका कृतिर्नोद्धता । अथ वास्तूद्धता । सम्यग्विचार्य्यताम् । अत्र रथोद्धते छन्दोनामापि सूचितम् ।
अथ व्यभिचारमाह ।
उत्क्रमज्याविधानेन दृक्कर्म वलनं तथा।
यत्रु तैरुक्तं न तत्तथ्यं व्यभिचारोऽत्र कथ्यते ॥ १८ ॥
जिनात्यकाक्षांशगुणत्रिभज्या-
घातो जिनज्याविहृतोऽभ्य चापम् ।
तेन त्रिभोनन समः प्रतीच्यां
प्राक सत्रिभेण द्युचरः कुजे चेत् ॥ १९॥
दृङ्मण्डलाकारतयापवृत्तं
तद्याम्यसौम्यं क्षितिजं तदा स्यात् ।
क्षिप्तोऽपि खेटः परमेषुणात्र
याम्योत्तरत्वात् क्षितिजं न जह्यात् ॥ २० ॥
दृक्कर्मसम्भूतफलद्वयस्य
नाशो भवेदत्र धनर्णसाम्यात् ।
नैवोत्क्रमज्याविधिनात्र साम्यं
दृक्कर्मकार्य्यं क्रमजीवयातः ॥ २१ ॥
तथैव नाशो वलनद्वयस्य
साम्याद्दिगन्यत्ववियोजनेन ।
न साम्यमत्रोत्क्रमजीषया स्यात् ।
क्रमज्ययातो वलनं विधेयम् ॥ २२ ॥** **
यत्र चतुर्विंशतिभागेभ्योऽल्पोऽक्षस्तत्राक्षज्यात्राक्षज्यात्रिज्योर्घातो जिनांशज्याभक्तः। फलस्य यावच्चापं तावतो भुजस्यक्रान्तिज्योत्तराक्षज्यासमाभवतीत्यर्थः। तद्यथा भक्षांशाःएषां ज्या १२१० अस्यास्त्रिज्यागुणाया जिनज्या श्चापंराशिद्वयम् २ । अनेन सत्रिभेण समोग्रही५ यदा पूर्वक्षितिजे । अथवा वित्रिभेण ११ समः प्रत्यक्क्षितिज ग्रहो भवति तदा वृषभान्तः खस्वस्तिके । अतो दृङ्मण्डलाकारंक्रान्तिवृत्तस्यात् । अस्यक्रान्तिवृत्तस्यक्षितिजप्रदेशे क्षितिजमेव दक्षिणोत्तरंस्यात् । यतस्तदा कदम्बक्षितिज वर्तते । अतः क्षितिजस्थोग्रहः परमेणापि शरेणकदम्बान्मुखेन विक्षिप्तः क्षितिजं न त्यजति। क्रान्तिवृत्तग्रहस्थानमेवोदयलग्नंस्यात् एवं दृक्कर्मफलयोर्धनर्णयोः साम्यं भवति । तत क्रमज्याविधानेन तयार्चसाम्यं स्यात् । अतः क्रमज्ययैव कर्त्तव्यम् । एवं तत्रैव वर्त्तमानस्यार्कस्यवलनाभावः । वलनयोर्भिन्नदिशोसाम्यात् । उत्क्रमज्ययानैव साम्यमित्यर्थः । अथ यत्स्वस्वस्तिकगे रवाविति श्लोकद्वय पूर्व व्याख्यातमेव ।
अथ तन्मतिभ्रमे कारणमाह।
गर्वाद्रसराभस्यात् परविश्वासात् प्रमादतश्चापि ।** **
मुह्यन्त्यपि मतिमन्तः किं मन्दोऽन्येस्तथा चोक्तम् ॥२३ ॥
गण्यन्ति नापशब्दंवृत्तभङ्गंक्षयं न चार्थस्य।
रसिकत्वनाकुलिता वेश्यापतयः कुकवयश्च ॥ २४ ॥** **
**स्पष्टम् । **
इति श्रीभास्करीये गोलभाष्ये मिताक्षर उदयास्तदृक्कर्मवासना।
__________
अथ शृङ्गोवति वासना। तत्र शुक्लत्वे कृष्णत्वे च कारणमाह ।
तरणिकिरणसङ्कादेषपीयूषपिण्डो
दिनकरदिशि चन्द्रश्चन्द्रिकाभिश्चकास्ति ।
तदितरदिशि बालाकुन्ततश्यामलश्ची-
घट इव निजमूर्त्तिच्छाययैवातपस्थः॥ १ ॥
सूर्य्योदधःस्थस्य विधोरधःस्थ-
मर्धं नृदृश्यं सकलासितं स्यात् ।
तत् पौर्णमास्यां परिवर्त्तनेन ॥ २ ॥
कक्षाचतुर्थे तरणेर्हि चन्द्र-
कर्णान्तरे तिर्य्यगिनो यतोऽजात् ।
पादोनषट्काष्टलवान्तरेऽतो
दलं नृदृश्यस्य दलस्य शुक्लम् ॥ ३ ॥
उपचितिमुपयाति शौक्यमिन्दो-
स्त्यजत इनं ब्रजतश्च मेचकत्वम् ।
जलमयजलस्य गोलकत्वात्
प्रभवति तीक्ष्णविषाणरूपतास्य ॥ ४ ॥
यद्याम्योदक् तपनशशिनोरन्तरं सोऽत्र बाहुः** **
कोटिस्तूर्ध्वाधरमपि तयोर्यश्च तिर्यक् स कर्णः ।
दोर्मूलेऽर्कः शशिदिशि भुजोऽग्राच्चकोटिस्तदग्रे
चन्द्रः कर्णो रविदिगनया दीयते तेन शौल्क्यम् ॥ ५ ॥
स्पष्टम् । अस्य वासना पूर्वं कथितैव । तथापि किञ्चिदिहोच्यते । प्राग्वद्भित्तेरुत्तरपार्श्वे चन्द्रकक्षां च विलिख्य तत्रार्ध्वरेखां तिर्य्यग्रेखां च कृत्वा चन्द्रकक्षोर्ध्वरेखासम्पाते चन्द्रबिम्बंविलिख्येदं दर्शयेत् । तिर्य्यग्रेखाया उपरि चन्द्रकक्षाव्यासार्धमितेऽन्तरेऽन्यां तिर्य्यग्रेखां कुर्य्यात् । सा रेखा प्रत्य-
**ग्रविकक्षायांयत्र लम्ना तत्र स्थित एवार्क ऊर्ध्वरेखावच्छिन्नचन्द्रबिम्बार्धंपश्चिमतः शुक्लंभवति । तस्यार्धमधस्तनं मनुष्यदृश्यम् तत्रस्थेऽर्केव्यर्केन्दुःसंपादचतुर्भागोन राशित्रयंभवति २ । २५ । ४५ । एतावत्येव व्यर्केन्दुभुजे बिम्बार्धं पश्चिमं पूर्वं वा शुक्लंभवितुमर्हति । न त्रिभे । **
अथाध्यायोपसंहारश्लोकमाह ।
ईषदीषदिह मध्यगमादौ
ग्रन्थगौरवभयेन मयोक्ता।
वासना मतिमता सकलोह्या
गोलबोध इदमेव फलं हि ॥ ६॥
हि यस्मात् कारणात् गोले ज्ञात इदमेव फलं यदश्रुतापि वासनोह्यते।
इति श्रीभाष्करीये सिद्धान्तशिरोमणिगोलाभाष्ये मिताक्षरे शृङ्गोन्नतिवासनाध्यायः।
ग्रन्थसंख्या १८ ।
__________
अथ यन्त्राध्यायो व्याख्यायते । तत्रादौ तदारम्भप्रयोजनमाह ।
दिनगतकालावयवा ज्ञातुमशक्या यतो विना यन्त्रैः ।
वक्ष्ये यन्त्राणि ततः स्फुटानि संक्षेपतः कतिचित् ॥१॥
गोलो नाडीवलयं यष्टिः शङ्कुघंटीचक्रम् ।
चापं तुर्य्यं फलकं धीरेकं पारमार्थिकं यन्त्रम् ॥ २ ॥** **
**स्पष्टम् । **
अथ प्रथमं गोलयन्त्रमाह।
अपवृत्तगरविचिह्नंक्षितिज्जे धृत्वा कुजेन संसक्ते ।
नाड़ीवृत्ते बिन्दुंकृत्वा धृत्वाथ जलसमंक्षितिजम् ॥ ३ ॥
रविचिह्नस्यच्छाया पतति कुमध्ये यथा तथा विधृते।
उडुगोले कुजबिन्द्दोर्मध्ये नाडी द्युयाताः स्युः ॥ ४ ॥
यथोक्तविधिना खगोलान्तर्भगोलं बध्वातत्रक्रान्तिवृत्ते मेषादेरारभ्यरविभुक्तराशिभागाद्यंदत्वातदग्रेयच्चिह्नंतदपवृत्तगरविचिह्नमुच्यते । भगोलं चालयित्वा रविचिह्नंक्षितिजे धार्य्यम् । तथा धृतेसति क्षितिजं प्राच्यांविषुवन्मण्डले यत्र लग्नं तत्र खटिकया बिन्दुः कार्य्यः । ततः क्षितिजवृत्तं जलसमं यथा भवति तथा गोलयन्त्रंस्थिरं कृत्वा भगोलस्तथा चाल्यो यथा रविचिह्नस्य छाया भूगर्भे पतति । तथा कृते सति विषुववृत्तेक्षितिजबिन्दोर्मध्ये यावत्यो घटिकास्तावत्यस्तस्मिन् काले दिनगता ज्ञेयाःअपवृत्ते मेषादेरारभ्य प्राक्क्षितिजपर्य्यन्तं यद्राशिभागाद्यं तल्लग्नंज्ञेयम् । इति गोलयन्त्रम् ।
अथ नाड़ी**वलयमाह। **
अपवृत्तेकुजलग्ने लग्नं चाथो खगोलनलिकान्तः ।
भूस्थंध्रुवयष्टिस्थंचक्रं षष्ट्यानिजोदयैश्चाङ्क्यम् ॥ ५ ॥
व्यस्तेर्यष्टोभायामुदयेऽर्कं न्यस्य नाडिका ज्ञेयाः ।
इष्टच्छायासूर्य्यान्तरेऽथ लग्नं प्रभायां च ।
केनचिदाधारेणध्रुवाभिमुखकीलकेऽत्रधृते।
अथवा कोलच्छायातलमध्ये स्युनता नाड्यः ॥ ७ ॥
**अत्र चारु दारुमयमिष्टप्रमाणं चक्राकारं समं नेम्यां षष्टिघटिकाङ्कंयन्त्रं खगोलमध्यस्थायां ध्रुवयष्टौ पृथ्वीमध्यस्थाने प्रोतं कार्य्यम् । तथा स्वोदयप्रमाणैर्मेषादिराशिभिरसमैरुभयपार्श्वयोः षड्वर्गेण च बुद्धिमताङ्कनीयम्। तैश्चोदयोर्विलोमैरङ्क्यम् । मेषात् पश्चिमतो वृषो वृषात् पश्चिमतो मिथुन इत्यादि। **
म चाङ्कनप्रकारः सर्वतोभद्रयन्त्रेयथा मया पठितः।
वृतौ चक्रभागैस्तदन्तर्घटीभिः
स्वदेशोदयैश्चाङ्कयेदस्यपार्श्वम् ।
प्रतिस्वोदयं खाग्निभिः क्षेत्रभागै-
स्त्रिभागाभिधैर्द्वादशांशैनवांशैः॥
त्रिभागैर्द्विभागैस्तथा स्वस्वनाथैः
प्रयत्नेन षड्वर्गमेवं विभज्य।
एवं यन्त्रं कृत्वायस्मिन् दिने तेन कालज्ञानं तस्मिन् दिने यावानौदयिकोरविस्तद्भुक्तान् राशीन् मेषादेर्दत्त्वाभुज्यमानराशेर्भागान् क्षेत्रभागेषु दत्त्वाग्रेरविचिह्नंकार्य्यम् । तस्मिन् दिन उदयकाले यष्टिच्छाया या पश्चिमतो गता तस्यां छायायां रविचिह्नंयथा भवति तथा यन्त्रं स्थिरं कार्य्यम् । ततोऽनन्तरं रविर्यथा यथोपरि याति तथा तथा छायाधी गच्छति। छायार्कचिह्नयोर्मध्ये या घटिकास्ता दिनगता ज्ञेयाः । तथा यष्टिच्छायायां यो राशिर्येच क्षेत्रांशास्तल्लग्नंज्ञेयम्। स च षड्वर्गः । अथवा किं खगोलान्तःस्थेन यष्टिप्रोतेन। चक्रान्तरिष्टप्रमाणं कीलकं प्रोतं कृत्वास कीलको ध्रुवाभिमुखो यथा भवति तथा केनचिदाधारेण चक्रं स्थिरं कार्य्यम्। तथा कृत इष्टकाले कीलच्छाया यत्र लगति तस्य यन्त्राधश्चिह्नस्य च मध्येनतनाडिका ज्ञेयाः इति नाडीवलयम् ।
**अथ घटिकामाह। **
घटदलरूपा घटिता घटिका ताम्री तले पृथुच्छिद्रा।
द्युनिशनिमज्जनमित्या भक्तं द्युनिशं घटीमानम् ॥ ८ ॥
अत्र दशभिः शुल्बस्य पलैरित्यादि यद्घटीलक्षणं कैश्चित् कृतं तद्युक्तिशून्यं दुर्घटचेत्येतदुपेक्षितम्। इष्टप्रमाणाकारसुषिरं पात्रं घटीसंज्ञमङ्गीकृतम्। द्युनिशनिमज्जनसङ्ख्यया यदि षट्त्रिंशच्छतानि पानीयपलानि लभ्यन्ते तदैकेन निमज्जनेन किमिति त्रैराशिकम्। इति घटीयन्त्रम् ।
अथ शङ्कुमाह।
समतलमस्तकपरिधिर्भ्रमसिद्धोदन्तिदन्तजः शङ्कुः।** **
तच्छायातः प्रोक्तं ज्ञानं दिग्देशकालानाम् ॥ ९ ॥
स्पष्टम् इति शङ्कुयन्त्रम् ।
**अथ चक्रमाह। **
चक्रं चक्रांशाङ्कंपरिधौ श्लथशृङ्खलादिकाधारम् ।
धात्रीत्रिभ आधारात् कल्पा भार्द्धेऽत्र खार्द्धंच ॥ १० ॥
तन्मध्ये सूक्ष्माक्षं क्षिप्तार्काभिमुखनेमिकं धार्य्यम् ।
भूमेरुन्नतभागास्तत्राक्षच्छायया भुक्तः ॥ ११ ॥
तत्खार्द्धान्तश्च नता उन्नतलवसंगुणोकृतं द्युदलम् ।
द्युदलोन्नतांशभक्तं नाड्यःस्थूलाः परैः प्रोक्ताः॥ १२ ॥
धातुमयं दारुमयंवा समं चक्रं कृत्वा तन्नेम्यां शृङ्खलादिराधारः शिथिलः कार्य्यः । चक्रमध्ये सूक्ष्मं सुषिरमाधारात् सुषिरोपगामिनी लम्बवदूर्ध्वरेखाकार्य्या। तन्मत्स्यतोऽन्या तिर्य्यग्रेखा चात्र कार्य्या। तच्चक्रं परिधौ भगणांशैरङ्कयित्वाधारात् त्रिभ इति नवतिभागान्तरे तिर्य्यग्रेखातत्परिधिमम्पाते धात्री क्षितिः कल्प्या। भार्द्धेऽन्तर ऊर्ध्वरेखानेमिसम्पाते खार्द्धंकल्प्यम्। सुषिरे सूक्ष्मा शलाका प्रदातव्या। सा चाक्षसंज्ञा । तच्चक्रमर्काभिमुखनेमिकं च यथा भवति तथाधारे धार्य्यम् । तथा धृतेऽक्षस्य छाया परिधौ यत्र लगति तत्कुजचिह्नयोरन्तरेयेंऽशास्ते रवेरुन्नतांशाः । ये छायाखार्द्धयोरन्तरे ते नतांशाज्ञेयाः। एवमत्र नतोन्नतांशज्ञानमेव भवति । अतोऽन्यैर्घटिका अप्यानीताः। तद्यथा । तस्मिन् दिने गणितेन मध्यन्दिनोन्नतांशान् र्दिनार्द्धमानं च ज्ञात्वानुपातः कृतः । यदि मध्यन्दिनोन्नतांशैर्दिनार्द्धनाड्यो लभ्यन्ते तदैभिः किमित्येवं स्थूला घटिकाः स्युः।
अथ वेधेन ग्रहज्ञानमाह ।
पैत्रर्क्षपुष्यान्तिमवारुणाना-
मृक्षद्वयंनेमिमतं यथा स्यात्।
दूरेऽन्तरेऽल्पेषुमुखेचरौवा
तथात्रयन्त्रंसुधिया प्रधार्य्यम् ॥ १३॥
नेमिस्थदृष्ट्याक्षगतं प्रपश्येत्
खेटं च धिष्णस्यच योगताराम् ।
नेम्यङ्क्योरक्षयुजोस्तु मध्ये
येऽंशाःस्थिता भध्रुवको युतस्तैः ॥ १४ ॥
प्रत्यक् स्थिते भेऽथपुरःस्थिते तै-
र्हीनो ध्रुवः स्यात् खचरस्य भुक्तम् ।** **
**तत्रयन्त्रस्याधोनेम्यां दृष्टिं कृत्वोर्ध्वनेम्यामुक्तर्क्षाणां मध्ये भद्वितयं युगपन्नेमिगतं यथा स्यात् तथा यन्त्रं स्थिरं कृत्वा नेम्यां धिष्ण्ययोरेकतरं स्थानमङ्कयेत्। ततोऽग्रेपृष्ठतो वा दृष्टिं चालयित्वा ग्रहं विध्येत् । ग्रहः प्रायोऽक्षगतो दृश्यते । अक्षमूलस्य ग्रहस्यचान्तरं शरो ग्रहावधिः । अक्षमूलं नेम्यां यत्र लग्नं दृश्यते तत् स्थानमप्यङ्क्यम् । अथ भग्रहाङ्कयोर्मध्ये येऽंशास्तैर्भध्रुवो युतः स्फुटग्रहो भवति । यदा ग्रहात् पश्चिमस्थं नक्षत्रम् । यदा पूर्वस्थं नक्षत्रंतदा भध्रुवो हीनः स्फुटग्रहो भवति। अथवाल्पशरं नक्षत्रं रोहिण्याद्यंततो दूरेऽन्तरे यदा ग्रहस्तदा तावेव विध्वा प्रोक्तवद्ग्रहज्ञानम् । इति चक्रयन्त्रम् । **
अथ चापं तुर्य्यगोलं चाह।
दलीकृतं चक्रमुशन्ति चापं
कोदण्डखण्डं खलु तुर्य्यगोलम् ॥ १५ ॥
**स्पष्टम्। **
अत्रयन्त्रेषु गोलो गोल एव। नाडीवलयं विषुवद्वृत्तम्।
तयोर्घटिकाज्ञाने गोलयुक्तिरेव वासना। सम्यग्ध्रुवाभिमुखयष्टिके गोले धृते यथोक्ताःस्वत एव घटिका ज्ञावन्त इत्यर्थः । यत्तु नाड़ीवलयं चक्रं कृत्वा यष्ट्यांप्रोक्तं तत् षड्वर्गाङ्कनार्थमेव । यत्तु चक्रं तद्दृङ्मण्डलम् । तत्र नतोन्नतांशज्ञानमेव गोलयुक्त्या भवति। दृङ्मण्डले क्षितिजादुपरि यैर्भागैरविर्भवति तैरेव पश्चिमक्षितिजादधःकीलकच्छाया लगतीत्यर्थः। ग्रहवेधे यदक्षेपधिष्ण्यद्वयंनेमिस्थंकृत्वा यन्त्रं धृतं क्रान्तिवृत्ताकारावस्थानार्थम् । अतस्तत्रापि गोलयुक्तिरैव वासना। इति चापतुर्य्ये।
अथ फलकयन्त्रार्थमाह ।
दृमण्डलेऽत्र स्फुटकाल उक्तः
मुखेन नान्यैर्यतितं मयातः।
सद्गोलयुक्तेर्गणितस्य सारं
स्पष्टं प्रवक्ष्ये फलकाख्ययन्त्रम् ॥ १६ ॥** **
स्पष्टार्थम् ।
इदानीमभीष्टदेवतानमस्कारपूर्वकमाह।
नित्यं जाड्यतमोहरं सुमनसामुल्लासनं सप्रभं
चाक्लेशं समयावबोधनविधौ प्रोद्बोधितज्योतिषम्।
सेव्यं मण्डलमध्यगं सुकृतिभिर्यन्त्रं स्फुटं वच्म्यहं
नत्वैतद्गुणमेव देवममलं श्रीभास्करं भास्करः ॥ १७ ॥
वच्मि कथयामि । किम् । यन्त्रम् । किंविशिष्टम् । स्फुटमव्यभिचारि। कः । कर्ताहं भास्करः। किं कृत्वा। नत्वा प्रणिपत्य। कम् । भास्करं सूर्य्यम् । किंविशिष्टम् । मण्डलमध्यगं सूक्ष्मरूपावस्थानम्। पुनःकिंविशिष्टमिति प्रतिविशेषणं सम्बध्यते। नित्यमविनाशिनम्। तथा जाड्यतमोहरं शैत्यतमोहरम् । तथा सुमनसां कमलादीनामुल्लासनम् । तथा
सप्रभं सदीप्तिकम् । तथा चक्रोशं निरावासम्। क्व।समयावबोधनविधौ कालज्ञानविधानेप्रोहोधितज्योतिषमुल्लासिततारकम् । यदेतत् तारकाणांतेजस्तद्रविंतेजः संजनितमेवेत्यर्थः । तथा सेव्यमुपास्यम् । कैः। सुकृतिभिः पुण्यकृद्भिः।
अथैतान्येव विशेषणानि यन्त्रेव्याख्यायन्ते। किंविशिष्टं यन्त्रम्। जाह्यतमोहरम् । जाह्यं मौढ्यंतदेव तमो हरतीति जाड्यतमोहरम् । कदा । नित्यं प्रत्यहम् । तथा सुमनसां विदुषामुल्लासनम् । तथा सप्रभंछायासहितम् । तथा अक्लेशं समयावबोधनविधौ । अत्र सुखेन कालज्ञानं भवतीत्यर्थः । तथा प्रोद्बोधितज्योतिषमुज्ज्वलीकृतज्योतिःशास्त्रम्। तथा सुकृतिभिः सुगणकैःसेव्यम् । तथा मण्डलमध्यगम्। मण्डलंमध्यगं यस्येति मण्डलमध्यगमन्तर्लिखितवृत्तमित्यर्थः । तथामलमिति।
**इदानीं यन्त्रलक्षणमाह। **
कर्तव्यंचतुरस्रकं सुफलकं खाङ्का ९० ङ्गुलैर्विस्तृतं विस्तारादिगुणा १८० यतं सुगाकेनायाममध्ये तथा ।
आधारः श्लथशृङ्खलादिघटितः कार्य्याच रेखा ततस्त्वाधारादवलम्बसूत्रसदृशो सा लम्बरेखोच्यते ॥ १८ ॥
लम्बंनवत्य ९० ङ्गुलकैर्विभज्य
प्रत्यङ्गुलं तिर्य्यगतः प्रसार्य्य।
सूत्राणि तत्रायतसूक्ष्मरेखा
जीवाभिधानाः सुधिया विधेयाः ॥ १९ ॥
आधारतोऽधः खगुणा ३० ङ्गुलेषु
ज्यालम्बयोगे सुषिरंसूक्ष्मम् ।
इष्टप्रमाणा सुषिरे शलाका
क्षेप्याक्षसंज्ञाखलु सा प्रकलप्या ॥२०॥
षष्ट्यङ्गुलव्यासमतश्च रन्ध्रात्
कृत्वा सुवृत्तं परिधो तदङ्क्यम् ।
षष्ट्याघटीनां भगणांश३६० कैश्च
****प्रत्यंशकं चाम्बुपलैश्च दिग्भिः॥२१॥ ****
अग्रे सरन्ध्रातनुपट्टिकैका
षष्ट्यङ्गुला दीर्घतया तथाङ्क्या।
अत्रादौधातुमयं श्रीपर्ण्यादिदासमय वा फलकं चतुरस्त्रं लक्ष्य समं कर्तव्यम्। तव नवत्यङ्गुलविस्तारं द्विगुणविस्तारदैर्घ्यम्। तत्समीपे दैर्घ्यमध्ये तस्याधारः शिथिलः शृङ्खलादिः कार्य्यः। आधारे धृतं यन्त्रंयथा लम्बमानं स्यात् तथा धृते फलक आधारादधः सूत्रमवलम्बरेखा कार्य्या । साच लम्बसंज्ञा। तं लम्बंनवतिभागं कृत्वाभागे भागे तिर्य्यग्रेखा दीर्घाकार्य्या। तिर्य्यक्त्वं तु लम्बभवान्मत्स्यात् । सा रेखा ज्यासंज्ञाज्ञेया। आधारादधस्त्रिंशदङ्गुलान्तरे या ज्या तस्या लम्बस्य च सम्पाते सुषिरम्। तत्रेष्टप्रमाणा शलाका क्षेप्या। साक्षसंज्ञा । तस्माद्रन्ध्रात् त्रिंशदङ्गुलेन कर्कटकेन वृत्तरेखा कार्य्या। सा षष्टि ६०घटिकाभिर्भगणांशकैःखषडग्निसंख्यैः ३६०प्रत्यंशं दशभिर्देशभिः पानोयपलैश्चङ्क्या। अथ ताम्रादिमयीवंशशलाका मयो वा पट्टिका षष्ट्यङ्गुला६०दीर्घतया तैरेव फलकाङ्गुलैस्तथेवाङ्किता कार्य्या। सा पट्टिकार्धाङ्गुलविस्तृता। एकस्मिन्नग्रेऽङ्गुलविस्तृता कुठाराकारा कार्य्या। तत्रविस्तारमध्ये छिद्रं कार्य्यम् । अक्षप्रोतायाः पट्टिकाया लम्बोपरि धृताया एकं पार्श्वंयथा लम्बरेखां न जहाति तथा सरन्ध्राकार्येत्यर्थः ।
इदानींयन्त्रोपकरणमाह।
****यत् खण्डकैः स्थूलचरं पलाद्यं ****
तद्गोकु १९ हृत् स्याच्चरशिञ्चिनीह ॥ २२ ॥
यत् खण्डकोत्थंचरार्द्धंपानीयपलात्मकंतस्यैकोनविंशति १९ भागोऽत्र चरज्या ज्ञेया। तानि चरखण्डानि। दिङ्नागसत्र्यैंशगुणैः१० । ८ । ।र्विनिध्नोपलप्रभा स्युश्चरखण्डका नीति। तानि यया सार्द्धचतुरङ्गुले४ । ३०। पलंप्रमादेशे ४५ ।३६ । १५ ।
अत्रोपपत्तिः । खण्डकैश्वरसाधने कथितैव ।तच्चरं रूपतश्चरज्यारूपमेवागच्छति। तच्च पानीयपलात्मकम् । अतस्तत् षड्गुणितमस्वात्मकं स्यात् । स्वल्पत्वादस्यज्या तावत्येव भवति। ततोऽनुपातः । यदि त्रिज्याव्यासार्धंएतावतीचरज्यातदा त्रिंशद्व्यासार्धेकियतीति। अत्र त्रिंशच्चरज्याया गुणकत्रिज्या हरः । अतः षड्भिस्त्रिंशताच त्रिज्यापवर्तने कृते जात एकोनविंशतिर्हरः १९ । रूपं १ गुणः । फलमत्र यन्त्रेचरज्येत्युपपन्नम् ।
इदानीं यष्टिसाधनमाह।
वेदा४ भवाः ११ शैलभुवो १७ धृतिश्च१८
विश्वे १३ च बाणाः ५ पलकर्णनिघ्नाः।
****अर्कोधृताः स्युःक्रमशः स्वदेशे ****
राश्यर्द्धलभ्यानि हि खण्डकानि ॥ २३ ॥
षष्ट्युद्धृताक्षश्रवणेन युक्ता।
दिग्घ्नोकृताप्ताभवतीह यष्टिः
**सा पट्टिकायां सुषिरात् प्रदेया ॥२४॥ **
४ । ११ । १७ । १८ । १३ । ५ एतानि खण्डकानि निरक्षदेशे पलकर्णगुणानि द्वादशभक्तानि स्वदेशे भवन्ति । पञ्चदशभिः पञ्चदशभिर्भागैरेकैकं लभ्यते। एवं तैः खण्डकैः सायनांशार्काद्भुजच्या साध्या । सा षष्टिभक्तापलकर्णयुता ततो दशगुणा
चतुर्भक्ताङ्गुलात्मिका यष्टिर्भवति। सा यष्टिः पट्टिकायां सुषिराद्देया । यष्टिमितान्यङ्गुलानि पट्टिकायां रन्ध्रादारभ्य गणयित्वाग्रे चिह्नंकार्य्यमित्यर्थः।
अत्रोपपत्तिः। अत्र सुषिरोपरि याज्यारेखा सा मध्यरेखेति ज्ञातव्या। इह किलदृङ्मण्डलाकारे धृते यन्त्रे कीलच्छाया यत्रपरिधौलगति तन्मध्यरेखयोरन्तरे धृते यउन्नतभागास्तेषां ज्योन्नतज्या। मध्यरेखाच्छाययोर्मध्ये यावन्त्यङ्गुलानि तावत्युन्नतज्येत्यर्थः। सैवेष्टकाले शब्दः। स एव पलकर्णगुणो द्वादशहृत इष्टहृतिः स्यात्। सा त्रिज्यागुणा द्युज्यया भक्तेष्टान्त्यका स्यात्। अथ त्रिज्योत्तरगोले चरज्यया युता दक्षिणेलोना सत्यन्त्यास्यात्। अन्त्याया इष्टान्त्यकोनाया यच्छेषं सानतकालस्योत्क्रमज्यास्यात्। अतस्तस्या उतक्रमचापिकृते नतकालोज्ञायत इति किल गोले कालज्ञानवासना। इद धूलीकर्म यन्त्रादेवोपसंहर्तुं यष्टिः कृता। यत्र तावदाश्यर्धं भुजे द्युज्या३४१८ । राशौ ३३६६ । सार्धे राशौ ३२९२ । राशिद्वये३२१८। सार्द्धराशिद्वये ३१६१ । राशित्रये ३१४१ । यदा किल द्वादशाङ्कु लशङ्गु त्रिज्यया गुण्यत आभिर्द्युज्याभिः पृथक् पृथग्विभज्यते तावत् सर्वत्र द्वादशाङ्गुलानि लभ्यन्ते। अधोवेदा इत्यादोनि व्यङ्गुलानि। उपरितनान् द्वादश परित्यज्यैषामेवान्योऽनुपातः। एतान्येव स्वदेशे पलकर्णगुणानि।द्वादशहृतानि पञ्चदशभागलभ्यानिखण्डकानि कल्पितानि। ते खण्डकैःसायनांशार्कस्य भुजज्या व्याङ्गुलात्मिका भवति । अतः षष्ट्युद्धृता। इयमक्षकर्णेऽतो योज्या। यतो य उपरि त्यक्ता द्वादश ते यावदक्षकर्णेन गुण्यन्ते द्वादशभिर्विभज्यन्ते तावदक्षकण एव लभ्यते। एवं द्वादशाङ्गुलस्य शङ्कोरिष्टान्त्या जाता। इयं धूलीकर्मापसंहारार्थं त्रिंशदङ्गुलस्यशङ्कोःपरि-
**णामिता। तत्रानुपातः। यदि द्वादशाङ्गुलस्वेयं तदा त्रिंशदङ्गुलस्यकेति । अत्रगुणकभाजको त्रिभिरपवत्त्य गुवकस्थाने दश १० भागहारेचत्वारः ४ कृताः। एवमनुपातेन त्रिंशदङ्गुलशङ्कोरिष्टान्त्यायष्टिसंज्ञाभवतीत्यर्थः। यदि त्रिंशच्छङ्कोर्यष्टिमितेष्टान्त्यातदेष्टशङ्कोः कियतीति।एवमिष्टशङ्कर्यष्ट्यागुण्यस्त्रिंशता भाज्यः। फलमिष्टान्त्येति स्थितम् । तदर्थं सा यष्टिः पट्टिकायां दत्ता तदग्रेचिह्नं च कृतम् । **
इदानीं यष्टिप्रयोजनमाह।
धार्य्यं तथा फलकयन्त्रमिदं यथैव
तत्पार्श्वयोर्लगति तुल्यमिनस्य तेजः ।
****छायाक्षजा स्पृशति तत्परिधौ यमंशं ****
****तत्रांशके मतिमता तरणिः प्रकल्प्यः॥ २५ ॥ ****
अक्षप्रोतां रविलवगतां पट्टिकां न्यस्य तस्माद्
यष्टेरग्रादुपरि फलकेऽधश्च गोलक्रमेण ।
यन्त्राद्देयश्चरदलगुणस्तत्रया ज्या तयात्र
**छिन्ने वृत्ते तलगघटिकाः स्युर्नता लम्बकान्ताः ॥२६॥ **
तद्यन्त्रमाधारेऽवलम्बमानं तथा धार्य्यं यथा यन्त्रोभयपार्श्वयोस्तुल्यकालमेवार्कतेजो लगति। अर्काभिमुखनमिकं दृङ्मण्डलाकारमित्यर्थः। तथा धृते सुषिरे प्रोतस्याक्षस्य छाया वृत्तपरिधौ यस्मिन्नंशे लगति तत्रांशेऽर्कः कल्प्यः। अथाक्षप्रोतैव पट्टिका रविचिह्नेस्थाप्या। तथा धृतायां पट्टिकायां यत् पूर्वं कृतं यष्टिचिह्नंतस्मादुपर्युत्तरगोले। दक्षिणगोले तु तदधश्चरज्यामितान्याङ्गलानि फलके गणयित्वातत्रचिह्नंकार्य्यम्। चिह्नस्थाने या ज्यारेखा सा वृत्ते यत्र लग्ना तस्मादधो वृत्ते लम्बरेखावधेर्यावत्यो घटिकास्तावत्यस्तत्कालेनता ज्ञेयाः।
तद्रविचिह्नंयदि रेखयोर्मध्ये स्थितं तदा तदनुसारिणीं तत्रान्यां रेखां प्रकल्प्यनाड्योज्ञेयाः।
**अत्रोपपत्तिः। अत्रोत्तरगोले सुषिरादुपरि दक्षिणे तदधश्चरज्यामितान्यङ्गुलानि दत्वा तदग्रेचिह्नं कार्य्यम्। तदन्त्याग्रं ज्ञेयम्। एवं वृत्तस्याधोव्यासार्द्धंचरज्यया युतोनं कृतं भवति । अतःसान्त्या। अथवृत्तपरिधौयत्र छाया लग्ना तन्मध्यरेखयोरन्तरं किल शङ्कुः। छायोपरि पट्टिकायां न्यस्तायां यत्र यष्टिर्चिह्नंतन्मध्यरेखयोरन्तरमिष्टान्त्या। यदि त्रिज्याग्रे शङ्कुतुल्यो विप्रकर्षस्तदा यष्ट्याग्रेकियानित्येवं त्रैराशिकं कृतं भवति। सा द्युदलेऽन्त्यायाः शोध्या। अन्त्याग्रंतु चरज्यया मध्यज्यया उत्तरगोल उपरि दक्षिणेऽधो वर्तते । अतो यष्ट्याग्रादुपर्य्यवश्वरज्या दत्ता। तदग्रेया ज्यारेखा तयावच्छिन्नेऽधोवृत्तखण्डे बाणरूपमन्त्याया अवशेषं भवति। अतस्तदुत्क्रमज्यायाश्चापं नतघटिका भवन्ति । तस्या ज्यारेखायाःसकाशाल्लम्बरेखावधि नतघटिका वृत्ते विगणय्य ग्राह्याइत्यर्थः । **
एवं छायादर्शनात् कालज्ञानमुक्त्वेदानीमेतावत्यभीष्टे काले नते क्वछाया लगिप्यतीत्येतदर्थमाह।
लम्बाद्देया विनतघटिकास्तज्ज्यकातश्चरज्या
व्यस्ता देया भवति च तथा यापरा तत्रमौर्वी ।
धार्य्यापट्टी स्पृशति हि यथा तज्ज्याकां यष्टिचिह्नं
पट्टीस्थाने निपतति तदाक्षस्य नूनं प्रभास्य ॥ २७ ॥
अधस्तनाल्लम्बवृत्तसम्पातादूर्ध्वंवृत्ते नतघटिका गण्याः । तदग्रेया ज्यारेखा तस्या अध उत्तरगोले दक्षिणे तु तदुपरि फलके चरज्यामितान्यङ्गुलानि गणयित्वाग्रे चिह्नंकार्य्यम् । तत्रया ज्यारेखा तस्यां रेखायां पट्टीस्थितयष्टिचिह्नंयथा लगति तथाक्षप्रोतैव सा पट्टी धार्य्यापट्टीस्थाने तस्मिन् कालेऽक्षस्य छाया पतिष्यतीति ज्ञेयम्।
अत्रोपपत्तिः कथितप्रकारवैपरीत्येन।
यदस्य यन्त्रस्य नवत्यङ्गुलविस्तारस्तद्द्विगुणं दैर्य्यमुक्तंतत् सर्वदेशाभिप्रायेण । अथवायावदेव स्वदेश उपयोगि तावदेव बुद्धिमता कार्य्यम् । तद्यथा। वृत्तमध्यरन्ध्रादुपरि परमचरज्यामिता रेखाश्चाधश्चाष्टात्रिंशत् एवं षट्चत्वारिंश ६४ दङ्गुलानि विस्तारे। परमयष्टिमितान्यङ्गुलानि द्विगुणानि षट्सप्ततिदैर्घ्ये७६ । एतावता कुरुक्षेत्रपर्य्यन्तं यावत् कालज्ञानं स्यात्।
इति फलकयन्त्रम्।
अथ यष्टियन्त्रमाह।
****त्रिज्याविष्कम्भार्द्धंवृत्तं कृत्वा दिगङ्कितं तत्र । ****
दत्त्वाग्रां प्राक् पश्चाद्युज्यावृत्तं च तन्मध्ये ॥ २८ ॥
तत्परिधौ षष्ट्यङ्कंयष्टिर्नष्टद्युतिस्ततः केन्द्रे।
****त्रिज्याङ्गुला निधेया यष्ट्यग्राग्रान्तरं यावत् ॥ २९ ॥ ****
****तावत्या मौर्वा यद् द्वितीयवृत्ते धनुर्भवेत् तत्र । ****
दिनगतशेषा नाड्यः प्राक् पश्चात् स्युः क्रमेणैवम् ॥ ३० ॥
समायां भूमौ त्रिज्यामिताङ्गुलेन कर्कटेन वृत्तं दिगङ्कितं च कृत्वा तत्र प्राक् पश्चादग्रागोलवशादुत्तरा दक्षिणा वा ज्यार्द्धवद्दया। अग्राग्रयोर्बद्धंसूत्रमुदयास्तसूत्रमुच्यते। अथतस्यैव वृत्तस्य मध्ये द्युज्यामितेन कर्कटेनान्यद्वृत्तं कृत्वा नाड़ीषष्ट्याङ्कनीयम्। ततस्त्रिज्यामिताङ्गुलाया ऋजुयष्टेर्मूलं केन्द्रे लग्नं कृत्वाग्रमर्काभिमुखं तथा धार्य्यं यथा यष्टिर्नष्टच्छाया स्यात् । ततः प्राच्या दिशि त्रिज्यावृत्ते यदग्राग्रचिह्नंतस्य यष्ट्यग्रस्य च मध्यमृजुशलाकया मित्त्वा सा शलाका द्युज्यावृत्तेजीवावद्धार्य्या। न ज्यार्धवत् । ततः शलाकाग्रयोर्मध्ये धनुषियावत्यां घटिकास्तावत्यस्ता दिनगता ज्ञेयाः। एवं पश्चिमाग्राग्रयष्ट्याग्र-
योर्मध्ये शलाकया दिनशेषा ज्ञेयाः। दिनशेषोनं दिनमानं दिनगतनाड्यो भवन्ति । यतस्तदैक्यंदिनमानम् ।
अत्रोपपत्तिर्गोलयुक्त्यैव। यष्टिस्त्रिज्या। यद्भुवि वृत्तं लिखितं तत् क्षितिजम्। तत्र पूर्वतः पश्चिमतश्चाग्रा। अग्राग्रयोरुपरिगता रैखोदयास्तंसूत्रम् । अग्राग्रउदितो रविर्यथा यथाहोरात्रवृत्तगत्योपरि गच्छतितथा तथा केन्द्रे निवेशितमूलाया यष्टेरग्रे भ्राम्यमाणे यष्टिर्नष्टद्युतिः स्यात्।यतो यष्ट्यग्रे रविः । अग्राग्रादर्कं यावदहोरात्रवृत्तेयावत्यो घटिकास्तावत्यो दिनगता भवन्ति। तत्राकाशेद्युज्यावृत्तं लेखितुं नायाति । अतोऽग्राग्रयष्ट्यग्रयोरन्तरं शलाकया मित्वा गृहीतम्। ततो भुवि लिखिते द्युज्यावृत्ते तया शलाकया ज्यारूपया धनुषिघटिकाज्ञानं युक्तियुक्तम्।
**अथान्यदाह। **
यष्ट्याग्राल्लम्बोनाज्ञेया दृज्यानृकेन्द्रयोर्मध्ये।
****नष्टद्युतेर्यष्टेरग्रादधोयावान् नम्बस्तावांस्तम्मिन् काले शङ्कुः।शङ्कुकेन्द्रयोर्मध्ये दृग्ज्या ज्ञेया। शङ्कुप्राच्यपरयोरन्तरं बाहुः । प्रागपराशानरान्तरं बाहुरिति वक्ष्यति।
केवल दिग्ज्ञाने सत्यक्षभामाह।
उदयेऽस्ते यष्ट्यग्रप्राच्यपरा मध्यमग्रा स्यात् ॥ ३१ ॥
शाङ्कूदयास्तसूत्रान्तरमर्कगुणं नरोद्धृतं पलभा।
उदयकालेऽस्तकाले वा यष्टिर्नष्टद्युतिर्ध्रियमाणा सकलैव भूलग्नास्यात्। एवं यष्ट्याग्रप्राच्यपरयोरन्तरं त्रिज्यावृत्ते ज्यार्धवत् स्थितम् । साग्राज्ञेया। ततः प्राग्वदुदयास्तसूत्रमिष्टकाले शङ्कुश्च। शङ्कूदयास्तसूत्रयोरन्तरं द्वादशगुणं शङ्कुना भक्तंपलभास्यात् ।
अत्रोपपत्तिस्त्रैराशिकेन । तद्यथा। यद्यस्य शङ्कोः शङ्कुदया-
स्तसूत्रयोरन्तरंशङ्कुतलं भुजस्तदा द्वादशाङ्गुलस्य शङ्कोःक इति। फलं विषुवती भवति।
अथोद्यन्तमर्कमदृष्ट्वापि।
**भुजयोरेकान्यदिशोरन्तरमैक्यं रविक्षुणम् ॥ १२ ॥ **
**शङ्क्वन्तरहृत् पलभाप्रागपराशानरान्तरं बाहुः । **
स्पष्टार्थम्।
अत्रोपपत्तिः। यत्र देशे विषुवतौ४ । तत्रोत्तरगोले प्रथमशङ्गुस्त्रिंशदङ्गुलो दृष्टः। तस्य याम्यो भुजः पञ्चाङ्गुलः। अन्यश्च षट्त्रिंशदङ्गुलः । तस्य याम्यो भुजः सप्ताङ्गुलः । अत्राग्रया विना किल शङ्कुतलं न ज्ञायते। किन्तु भुजाग्रयोर्यावदन्तरं शङ्कुतलयोरपि तावदेवान्तरं भवति। तच्छङ्कुतलं कल्पितम् २ । कस्य । शङ्कुच्छयान्तरतुल्यस्य शङ्कोः ६। यद्यस्य शङ्कीरिदं शङ्कुतलं तदा हादशाङ्गलस्व किमिति। फलं पलभा ४।
अथवा पलभाप्रमाणं या १ । यदि द्वादशाङ्गुलस्य शङ्कोः पलभा शङ्कुतलं तदा त्रिंशदङ्गुलस्य षट्त्रिंशदङ्गुलस्य वा किमिति १२ । या १ । ३० ॥ १२ । या १ । ३६ । एवं ज्ञाते शङ्कुतले पृथक् पृथक् या । या । एते स्वस्वयाम्यभुजाभ्यां रहिते जाते उत्तरे अग्रे यारू ६० । या रू ८४ । अनयोरग्रयोः समीकरणे छेदगमे च क्रियमाण इयं क्रियोपपद्यते।
इदानींदिगदेशकालानामज्ञाने केवलार्कदर्शनादेव सर्वमाह।
यष्ट्याशङ्कत्रितयं ज्ञात्वा वा कथ्यते सर्वम् ॥ ३३ ॥
आद्यन्तशङ्कुशिरसोस्तिर्य्यक् सूत्रं निबध्य तत्सक्ते ।
****मध्यमशङ्क्वग्राद्द्वेसूत्रे भूमिंपृथङ्नेये॥ ३४ ॥ ****
भूचिह्नद्वितयोपरि सूत्रं तत्रोदयास्तसूत्रं स्यात् ।
****तत्केन्द्रान्तरमग्रासूत्रादग्रान्तरे ततः प्राची॥ ३५ ॥ ****
****प्राग्वदतोऽक्षच्छाया तच्छ्रुतिविहृताग्रकार्कसंगुणिता। ****
क्रान्तिज्या त्रिज्याघ्नोजिनभागज्योद्धृता दोर्ज्या॥ ३६॥
**त्रिज्यावृत्तं विलिख्य प्राग्वद्यष्ट्याशङ्कुत्रितयमभीष्टे काले ज्ञात्वा प्रथमतृतीयशङ्क्वयोरेकं सूत्रं तिर्य्यग्बड्घामध्यस्थशङ्कोरग्रेऽन्यसूत्रस्यैकमग्रं बड्घातत् सूत्रं तिर्य्यक्सूत्रलग्नं यथा भवति तथा प्रथमशङ्क्वभिमुखमधः कर्णगत्या त्रिज्यावृत्तपरिधिं नीत्वा तत्र पूर्वभागे चिह्नं कार्य्यम्। ततोऽन्यत् सूत्रं तदेव वा तृतीयशङ्क्वभिमुखमनेनैव प्रकारेण नीत्वा वृत्तपश्चिमभागे चिह्नं कार्य्यम्। तयोश्चिह्नयोरुपरि गतं सूत्रमुदयास्तसूत्रं स्यात्। सूत्रकेन्द्रयोरन्तरमग्रा। उदयास्तसूत्रादग्रातुल्येऽन्तरे केन्द्रोपरि प्राच्यपरा रेखा कार्य्या। ततः शङ्कूदयास्तसूत्रान्तरमित्यादिना पलभाज्ञानम् । शेषं स्पष्टम्। **
अत्र गोलेऽहोरात्रवृत्ते यथोक्तं क्षितिजसम्पातयोरुदयास्तसूत्रं बद्ध्वातस्मिन्नेवाहोरात्रवृत्ते चिह्नत्रयं कृत्वा तानि शङ्कुशिरांसिप्रकल्पाद्यन्तचित्रयोस्तिर्य्यक्सूत्रंनिबध्य मध्यसूत्रात् तिर्य्यक् सूत्रसक्तमधःसूत्रंनीयमानमुदयास्तसूत्र एवलगतीत्युपपत्तिर्दर्शनीया। ततोऽग्रादिक्पलभाज्ञानं युक्तियुक्तम्। पलभाज्ञाने तद्देशज्ञानम्।
अथ कालज्ञानमाह।
तद्वनुराद्येचरणे वर्षस्यार्कःप्रजायतेऽन्येषु ।
भार्धात्च्युतः सभार्धोभगणात् पतितोऽब्दचरणानाम् ॥३७॥
ऋतुचिह्नैर्ज्ञानंस्यादृतुचिह्नान्यग्रतस्ततो वक्ष्ये ।
भात्रितयाद्भाभ्रमणं न सदस्माद्दिक्पलाद्यं च ॥ ३८॥
छायातोऽग्रातोवा भानुः संक्रान्तिपात एव स्यात् ।
पातोनः स्फुटभानुः स्फुटभानूनो भवेत् पातः ॥ ३९॥
अत्राग्रातस्तच्छ्रुतिविहृताग्रकार्कसंगुणितेत्यादिविलोमविधिनाया स्फुटार्कदोर्ज्यानीता तस्या यद्धनुः स रविर्भवति। एवं वर्षस्यप्रथमचरणे। द्वितीये भार्धात् च्युतस्तृतीये सभार्द्धश्चतुर्थे भगणात् पतित इति व्यस्तविधिः । वर्षचरणज्ञानमृतुचिह्नैः।
**अत्रान्यैराचार्य्यैर्भात्रितयादिग्ज्ञानं दिग्ज्ञाने भाभ्रमरेखां चोत्पाद्य केन्द्रभाभ्रमरेखयोर्यद्याम्योत्तरमन्तरं सा मध्यच्छाया। ततः क्रान्तिज्या। विलोमविधिना तस्या रविरक्षश्चैवं वक्ष्यमाणमहाप्रश्नभङ्गार्थं यत् कृतं तदसत्। कुतः ? यद्भात्रितयाद्भाभ्रमणं तदपि तावदसत्। अन्यान्यभाग्रहणादन्यथान्यथा भाभ्रमरेखा स्वादिति निपुणैरवलोक्यम्। भाभ्रमनाशेदिक्पालादिकमपि न घटते । अतो यष्ट्या शङ्कत्रितयं ज्ञात्वेत्यादिना महाप्रश्नभङ्गो युक्तः । **
अत्र किलाग्रातो रविर्ज्ञातः । योऽत्राग्राश्छायातो वा रविर्ज्ञायते स संक्रान्तिपात एव स्यात्। अतः पातोनो रविर्भवति। रव्यूनश्च पातो भवतीति युक्तियुक्तम्। एवं स्फुट रवेर्मध्यमो मध्यमादहर्गणोऽहर्गणात् कल्पगतमिति कालज्ञानम्। इति यष्टियन्त्रम्।
इदानीं धीयन्त्रं विवक्षुरादौ तत्प्रशंसामाह।
अथ किम् पृथुतन्त्रैधीमतो भूरियन्त्रैः
स्वकरकलितयष्टेर्दत्तमूलाग्रदृष्टेः ।
न तदविदितमानं वस्तु यदृश्यमानं
**दिवि भुवि च जलस्थं प्रोच्यतेऽथ स्थलस्थम् ॥ ४० ॥ **
अत्र प्रश्रः।
****वंशस्य मूलं प्रविलोक्य चाग्रं ****
****तत्स्वान्तरं तस्य समुच्छ्रयं च । ****
यो वेत्ति यष्ट्यैव करस्थयासौ
धीयन्त्रवेदीवद किं न वेत्ति ॥ ४१ ॥
स्पष्टार्थम्।
**अथ यष्ट्याध्रुववेधेन पलभामाह। **
यष्ट्यग्रमूलसंस्थंविध्वाध्रुवमग्रमूलयोर्लम्बौ।
****बाहुर्लम्बान्तरभूर्लम्बोच्छ्रायान्तरं कोटिः ॥ ४२ ॥ ****
कोटिर्द्वादशगुणिता बाहुविभक्तापलप्रभा ज्ञेया।
अत्रसमायां भूमौ स्थित्वा गणकेन वेधः कर्तव्यः । यष्ट्यग्रमूलसंस्थमिति । यष्टेरग्रेमूले चैकहेलया यथा ध्रुवः संलम्बोदृश्यते तथा यष्टिर्धार्य्या। ततस्तदग्रान्मूलाच्च लम्बनिपातौकार्य्यौ। भुवि लम्बनिपातयोरन्तरे यावन्त्यङ्गुलानि तावान् भुजः। एवं लम्बोच्चद्यायोरन्तरे यावन्ति तावतीकोटिः । यष्टिप्रमाणं कर्णः। सर्ववेधेष्वप्ययमेव विधिर्ज्ञेयः । ततोऽनुपातः । यद्यनेन बाहुनैतावती कोटिस्तदा द्वादशाङ्गुलेन किमिति फलं पलभा स्यात्।
**इदानीं वंशादिवेधमाह। **
विद्धैवं वंशतलं दृष्ट्युच्छ्रायाहताद्बाहोः ॥ ४३ ॥
कोट्या लब्धं ज्ञेयं स्ववंशमध्ये महीमानम्।
विद्ध्वाथो वंशाग्रंभूमानं कोटिसंगुणं भक्तम् ॥ ४४ ॥
दोष्णा वंशोच्छ्रायो दृष्ट्युच्छ्रायेण संयुतो ज्ञेयः।
उदाहरणम् ।
पञ्चशक्राङ्गुला १४५ यष्टिरष्टषष्टिर्दृगुच्छ्रयः।
षट्करास्तलवेधे दोः कोटिः सप्तदशाङ्गुला ॥
अग्रवेधे रसेशा ११६ दोः कोटिस्तुरगकुञ्जराः ८७ ।
वंशस्य यस्य तन्मानं चात्मवंशान्तरं वद ॥
यष्टिः १४५ । दृगुच्छ्रायः ६८ । तलवेधे बाहुः १४४ ।कोटिः१७ । अग्रवेधे बाहुः ११६ । कोटिः८७ । अत्रतलवेधेऽग्रवेधे वा ध्रुववद्यष्ट्यग्रमूललम्बयोरन्तरभूर्भुजः।
लम्बोच्छ्रायान्तरं कोटिः । एवं यथोक्तकरणेन लब्धमात्मवंशान्तरम् । ५७६ । वंशोच्च्यम् ५००।
अत्रोपपत्तिः। आत्मवंशान्तरभूमिर्भुजः। दृष्ट्युच्छ्रायःकोटिः। दृष्टिमूलवंशयोर्बद्धंसूत्रंकर्णः। एतत्र्यस्रानुसारमेव..ष्ट्या वेधेन त्र्यस्रमुत्पद्यते । तत्र लम्बान्तरभूर्भुजः । लम्बोच्चान्तरं कोटिः। यष्टिः कर्णः। अतोऽनेनानुपातः । यद्यनया कोट्यायं भुजो लभ्यते तदा दृगुच्छ्रायकोट्याक इति। फलमात्मवंशान्तरभूमिः। एवमग्रवेधेऽपि । एवं वंशमूलादुपरि दृष्ट्युच्छ्रायमितेऽन्तरे चिह्नंकल्प्यम्। तदृष्ट्योरन्तरेरेखा भूमानमिता स भुजः। चिह्नोपरिस्थंवंशखण्डंकोटिः । दृष्टि वंशाग्रयोर्बद्धंसूत्रं कर्णः। एतक्षस्त्रानुसारमेव वेधत्र्यस्रंभवत्यताऽनुपातः। यदि वेदभुजेन वेधकोटिलभ्यतेतदा भूमितेन भुजेन केति। फलंचिह्नोपरितनवंशखण्डम् । तदृष्ट्युच्छ्रायेणयुत मकलवेगाप्रमाणम् ।
अथ केवलायवेधेनाह।
**अग्रं विध्वोर्द्धस्थः पुनरुपविष्टश्च तद्विद्ध्यत् ॥ ४५ ॥ **
****निजभुजभक्त कोटीतदन्तरहृतो दृगोच्च्यविश्लेष। ****
**भूमिर्वंशौच्च्यमतः पृथक् पृथक् पूर्ववजज्ञेयम् ॥ ४६ ॥ **
**अत्रप्रश्नः। **
ऊर्द्धस्थस्य गृहादिभिर्व्यवहितस्याप्यग्रमात्रसखे
****वंशस्य प्रगुणस्य यस्यसुसमे देशे समालोक्यते । ****
अत्रैव त्वमवस्थितो यदि वदस्यस्यान्तरं चोच्छ्रयं
**मन्ये यन्त्रविदां वरिष्ठपदवी यातोऽसि धीयन्त्रवित् ॥४७॥ **
उदाहरणम्।
**इष्टयष्टयोसंस्थेन वंशान विध्यता भुज । **
दृष्टश्चतुष्करोऽथान्ययष्ट्या खाङ्काङ्गुलःसखे ॥
**निविष्टेन तथा कोटिरङ्गुलं वेधयोरपि। **
आत्मवेशान्तरं ब्रूहि वंशोच्छ्रायंच वेधवित्॥
ऊर्द्धवेधेमुजः ९३। कोटिः१ । उपविष्टवेधे भुजः ९० ॥कोटिः१ । अत्रेष्टौ दृगुच्छ्रायौ कल्पितौ ७२। २४ । यथोक्तकरणेनलब्धं भूमानं हस्ताः २८८०। वंशोच्च्येच हस्ताः ३३।
अत्रोपपत्तिरव्यक्तकल्पनया। तत्रात्मवंशान्तरभूः । या १ । यष्ट्युर्ध्ववेधभुजेन ९६ अनेनेयं कोटिर्लभ्यते तदा यावत्तावता किमिति। फलं पूर्ववदृगुच्छ्रायेणयुतं जातं वंशमानम् । या १ रू । एवमुपविष्टवेधेन च वंशमानम् । या १ रू । एतौ समाविति समच्छेदीकृत्य छेदगमे शोधनार्थं न्यासः ।^(_(या९६रु२०७३६०)^(या९०रु६२२०८०))समीकरणेन लब्धं भूमानाङ्गुलानि ६९१२०।
वंशयोरत्रोत्थापितयोरुभयत्रापि वंशमानं सममेवाङ्गुलानि ७९२ । ततश्चैवं क्रियोपपद्यत इत्यर्थः ।
**अथ जलान्तर्वेधमाह। **
एवं तोयेऽप्योच्च्यंतत्र दृगौच्च्योनितं भवति ।
**किंवा यष्ट्याकोटीदृष्ट्युच्छ्रायौ जलान्तरे बाहू॥४९॥ **
अत्र प्रश्नः ।
**दूरस्थस्य न दूरगस्य यदि वादृष्टस्य दृष्टस्य वा **
वंशस्य प्रतिबिम्बितस्य सलिले दृष्ट्वाग्रमात्रं सखे।
अत्रैव त्वमवस्थितो यदि वदस्यस्यान्तरं चोच्छ्रयं
**त्वां सर्वज्ञमतीन्द्रियज्ञमनुजव्याजेन मन्धेभुवि ॥४९॥ **
उदाहरणम्।
दृष्टा चेत् व्यङ्गुला कोटिर्बाहुश्चचतुरङ्गुलः ।
ऊर्ध्वस्थेनोपविष्टेन बाहुरेकादशाङ्गुलः ॥
कोटिरष्टाङ्गुलातोये वंशाग्रं विध्यता सखे।
च्च्येकहस्तौदृगुच्छ्रायौ वंशौच्च्यंचान्तरं वद ॥
ऊर्ध्व वेधे कोटिः३ । भुजः ४ । उपविष्टवेधे कोटिः ८ । भुजः ११ दृष्ट्युच्छ्रायो क्रमेण ७२ ।२४ । लब्धमात्मवंशान्तरं हस्ताः ८८। वंशौच्च्यंहस्ताः ६३।अत्रोर्ध्ववेधेऽन्योपविष्टवेधे चान्या यष्टिरिति।
**अत्रोपपत्तिः । अत्र भित्तेःसुसमे पार्श्वेतिर्य्यग्रेखा दीर्घाकार्य्या। सा किल जलसमा भूः । तत्रैकस्मिन्नेकान्तप्रदेश ऊर्ध्वरेखा कार्य्या। स किल वंशः। वंशमूलादधोगामिनी वंशप्रमाणैवान्या रेखा कार्य्या। तत् किल वंशप्रतिबिम्बम् । अथ भूरेखाया उपर्यन्यप्रान्ते दृगुच्छितान्या रेखा कार्य्या। दृगुच्छ्रायात् प्रतिबिम्बवंशाग्रगामिनी कर्णरेखा कार्य्या। सा कर्णरेखा भूरेखायां यत्र लग्ना तत्रस्थे जले वंशाग्रं द्रष्टा पश्यति। जलादुभयतो द्वेत्र्यस्रे भवतः। तत्रजलवंशमूलयोरन्तरं बाहुः। प्रतिविम्बवंशः कोटिः। अधः कर्णखण्डं कर्णः। अन्यदात्मजलान्तरं बाहुः। दृष्ट्युच्छ्रायः कोटिः। ऊर्ध्वंकर्णखण्डं कर्णः। एते त्र्यस्रेपरस्परानुमते। षष्टिवेधेन ये भुजकोटी ते अप्येतदनुसारे। अत उक्तम् तोयेऽपीति । किंत्वत्रयदोच्चमागच्छति तदृगोच्चेन हीनं कार्य्यम्। प्रतिबिम्बितस्याधोमुखत्वादृगोच्येनसहागच्छति। अतस्तदूनं कृतमिति सर्वमुपपन्नम्। **
किंवा यष्ट्येत्यस्योदाहरणम्।
षड़ङ्कैरमरैस्तुल्यान्यघङ्गुलान्यथवा क्रमात् ।
आत्मतोयान्तरं दृष्ट्वा वंशौच्च्यंचान्तरं वद ॥
ऊर्ध्वस्थस्य जलान्तरम् ९६ । उपविष्टस्य जलान्तरम् ३३ । दृष्ट्युच्छ्रायौ७२ । २४ । लब्धं तदेव भूमानं हस्ताः ८८। वंशौच्च्यंहस्ताः ६३ । इति धीयन्त्रम्।
**अथ स्वयंवहमाह। **
लघुदारुजसमचक्रे समसुषिराराः समान्तरा नेम्याम् ।
किञ्चिद्वक्रातोज्याः सुषिरस्यार्धेपृथक् तासाम् ॥ ५० ॥
रसपूर्णे तच्चक्रं द्व्याधाराक्षस्थितं स्वयं भ्रमति ।
ग्रन्थिकीलरहिबे लघुदारुमये भ्रमसिद्धेचक्रआराः । किंविशिष्टाः। समप्रमाणाःसमसुषिराः समतौल्याः समान्तरा नेम्यां योज्याः। ताच्च नद्यावर्त्तवदेकत एव सर्वाः किञ्चिद्वक्रातोज्याः। ततस्वासामाराणां सुषिरेषु पारदस्तथा क्षेप्यो यथा सुषिरार्धमेव पूर्णं भवति। ततो मुद्रिताराग्रं तच्चक्रमयस्कारशाणवद्याधारस्थं स्वयं भ्रमति। अत्र युक्तिः। यन्त्रैकभागे रमो ह्यारामूलं प्रविशति । अन्यभागे त्वाराग्रं धावति । तेनाकृष्टं तत् स्वयं भ्रमतीति।
अथान्यदाह।
उत्कोर्य नेमिमथवा परितो मदनेन संलग्नम् ॥ ५१ ॥
तदुपरि तालदलाद्यंकला सुषिरेरसं क्षिपेत् तावत्।
यावद्रसैकपार्श्वेक्षिप्तजलं नान्यतो याति ॥ ५२ ॥
पिहितच्छिद्रतदतश्चक्रं भ्रमति स्वयं जलाकृष्टम् ।
यन्त्रनेमिं भ्रमयन्त्रेणसमन्तादुत्कीर्य द्व्यङ्गुलमात्रंसुषिरस्य वेधोविस्तारश्च यथा भवति ततस्तस्य सुषिरस्योपरि तालपत्रादिकं मदनादिना संलग्नं कार्य्यम् । तदपि चक्रं द्व्याधाराक्षस्थितं कृत्वोपरि नेम्यां तालदल विद्ध्वा सुषिरेरसस्तावत् क्षेप्यो यावत् सुषिरस्याधोभागो रसेन मुद्रितः। पुनरेकपार्श्वेजल प्रक्षिपेत्। तेन जलेन द्रवोऽपि सो गुरुत्वात् परतः सारयितुं न शक्यते। अतो मुद्रितच्छिद्र तच्चक्रं जलेनाकृष्टं रूपं भ्रमतीति।
**अथान्यदाह। **
ताम्रादिमयस्याङ्कुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य ॥ ५३ ॥
एकं कुण्डजलान्तर्द्वितीयमग्रंत्वधोमुखं च बहिः ।
युगपन्मुक्तं चेत् कं नलेनकुण्डाद्बहिः पतति ॥ ५४॥
नेम्यां बद्ध्वा घटिकाश्चक्रंजलयन्त्रवत् तथा धार्य्यम्।
****नलकल्पप्रच्युतसलिलं पतति यथा तद्वटीमध्ये ॥ ५५ ॥ ****
भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभिः समाकृष्टम्।
चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया ॥ ५६ ॥
ताम्रादिधातुमयस्याङ्कुशरूपस्य वक्रीकृतस्य नलस्य जलपूर्णस्यैकमग्रंजलभाण्डेऽन्यदग्रं बहिरधोमुखं चैकहेलया यदि विमुच्यते तदा भाण्डजलं सकलमपि नलेन बहिः क्षरति । तद्यथा छिन्नकमलस्य कमलिनीनलस्य जलभृद्भाण्डे क्षिप्तस्य जलपूर्णसुषिरस्यैकमग्रं भाण्डाबहिरधोमुखं द्रुतं यदि ध्रियते तदाभाण्डजलं सकलमपि नलेन बहिर्याति। इदं कुक्कुटनाड़ीयन्त्रमिति शिल्पिनां हरमेखलिनां च प्रसिद्धम् । अनेन बहवश्चमत्काराःसिद्ध्यन्ति। अथ चक्रनेम्यां घटीर्बद्ध्वाजलयन्त्रवत् द्व्याधाराक्षसंस्थितंतथा निवेशयेद्यथा नलकप्रच्युतजलं तस्य घटीमुखे पतति। एवं पूर्णघटीभिराकृष्टं तद्भ्रमत् केन निवार्य्यते। अथ चक्रच्युतस्योदकस्याधःप्रणालिकया कुण्डगमने कृते कुण्डे पुनर्जलप्रक्षेपनैरपेक्ष्यम् ।
**इदानीमन्येषां स्वयंवहमुपहसन्नाह। **
****यदधोरन्ध्रनलं तत् सापेक्षत्वात् स्वयंवहं ग्राम्यम् । ****
****चतुरचमत्कारकरी युक्तिर्यन्त्रंनहि ग्राम्या ॥ ५७ ॥ ****
एवं बहुधा यन्त्रं स्वयंवहॆ कुहकविद्यया भवति ।
नेदं गोलाश्रितया पूर्वोक्तत्वान्मयाप्युक्तम् ॥ ५८॥
स्पष्टार्थमिदम्।अत्र भ्रमणं कालानुसारं स्वबुद्ध्याविधातव्यमित्यध्याहार्य्यम्।
इति श्रीभास्करीय सिद्धान्तशिरोमणौ वासनाभाष्येमिताक्षरेगोले यन्त्राध्यायः ।
अत्र ग्रन्थसंख्या ३७५ ।
__________
**अथ ऋतुवर्णनमाह। **
****उत्फुल्लन्नवमल्लिकापरिमलभ्रान्तभ्रमद्भ्रामरे ****
****रे पान्थाःकथमव्यथानि भवतां चेतांसि चैत्रोत्सवे। ****
मन्दान्दोलितचूतनूतनघनस्फारस्फुरत्पल्लवै-
रुद्वेलन्नववल्लरीष्विति लपन्त्युच्चैः कलं कोकिलाः ॥ १ ॥
स्वकुसुमैर्मलिनामिव मालती-
****मवहसन्ति वसन्तजमल्लिकाः । ****
उपवनं विनिवारयतीव ताः
किसलयै र्मलयानिलकम्पितैः ॥ २ ॥
****विहाय मौधं तृणकुड्यमण्डपे ****
****प्रमिच्यमाने सलिलैःसमन्ततः । ****
****शुचौरमन्ते विरलं विलासिनः ****
****प्रियाजनैः मीकरसेचनोन्मुखाः ॥ ३ ॥ ****
****निदाघदाहार्तिविघातहेतवे ****
****वनाय कामोच्छ्रितचूतकेतवे। ****
****व्रजन्ति वापीजलके लिलालसाः ****
****शुचौ रतिस्वेदगलज्जलालसाः ॥ ४ ॥ ****
मदनदहनखिन्नामागतेऽप्येत्य काले
****परिमलबहलानां मालतीनां नदीनाम् । ****
****अदय दयित सिञ्चस्यात्मदृग्वारिणा किं ****
परिमलबहलानां मा लतीनां नदीनाम् ॥ ५ ॥
उच्चैर्विरौति हि मयूरकुलं यदम्ब
****मन्दं कदम्बमकरन्दविमिश्रितश्च । ****
वातः प्रवाति पतिरति न तेन मन्ये
निर्घ्राणनिर्घृणविकर्णविहृत्वमस्य ॥ ६ ॥
एवंविधं विरहिणीविरहेण खिन्ना
भिन्नाञ्चनच्छविधने गगने घनर्तौ।
मत्वा प्रियं तमदयंहदयं प्रविष्टं
ब्रूते सपेशलमलं परिहासमिश्रम् ॥ ७॥
****स्वतनुजवनराज्या पुष्पवन्त्याश्लिषन्त्या ****
ह्यनुयचितकृतसङ्गोऽस्मीति शैलोऽनुतप्तः ।
निशि शशिकरचञ्चन्निझरैरश्रुकल्पैः
शरदि हृदिजखेदस्वेदवान् रोदितीव ॥ ८ ॥
सहस्यकाले बहुशस्यशालिनीं
चितामवश्यायकमोक्तिकोत्करैः।
प्रहृष्टपुष्टाखिलगोकुलामिलां
विलोक्य हृष्यन्त्यधिकं कृषीबलाः ॥ ९॥
****अरुणनीलनिमीलितपल्लवं ****
प्रचुरफुल्लसमुल्लसनैः श्रियम् ।
वहति काञ्चन काञ्चनकाननं
****नवतरां नितरां शिशिरागमे ॥ १० ॥ ****
अपुटतिग्ममरीचिमरीचिभि-
र्नहि तथा शिशिरे शिशिरक्षतिः।
निशि यथोष्मलपीनघनस्तनी
भुजनिपीड़नतः स्वपतां नृणाम् ॥ ११ ॥
****ऋतुर्व्यावर्णनव्याजादीषदेषा प्रदर्शिता। ****
कविता तद्विदां प्रीत्यै रसिकानां मनोहरा॥ १२ ॥
सरसमभिलषन्तो तत्कवीनां विदग्धा-
नवरतरमणीया भारती कामितार्थम् ।
न हरति हृदयं वा कस्य सा सानुरागा
नवरतरमणीया भारती कामितार्थम् ॥ १३ ॥
न भवति हृतचित्तो वाचमाकर्ण्य रम्यां
परभृतसरसां ना कोऽमलां सत्कवीनाम् ।
****सततमुपगतानां साम्बुजैर्वा पयोभिः ****
****परभृतसरसांनाकोमलां सत्कवीनाम् ॥ १४ ॥ ****
त्रिदिवमधरयन्तस्तीरपङ्केन नाना-
रुचिरसिकतया वाश्लेषिताङ्गैःसुवृत्तैः।
कृतिन इहरमन्ते रम्यसारस्वतौघे
**रुचिरसिकतया वाश्लेषिताङ्गैः सुवृत्तैः ॥ १५ ॥ **
वर्षाकाले हृदयस्थमदयं दयितं प्रति विरहिणोकिलैवं ब्रूते। हे दयित ! निर्दयास्मिन्नप्यागते काले एत्यागत्य किं न सिञ्चसि । काम्। मा इति माम्। कथम्भूताम् । मदनदहनखिन्नाम्। कामाग्निदाहाकुलाम्। पुनःकिं विशिष्टाम्। दीनाम् । केन । आत्मदृगवारिणा स्वदृक्मलिलेन। कामां सम्बन्धिनि काले। नदीनाम् । कथम्भूतानाम् । परिमलबहलानाम् । परि समन्तात् । मलबहलानाम् । न केवलं तासाम् । मालतीनामपि। परिमलबहलानामामोदबहलानाम् । न केवलं तासामपि। लतीनामिति रतीनाम्। तासां च परिमलबहलानाम्। तत्र परस्य भावः परिमा। परिमणो लवःपरिमलवः। तं हरन्तीति परिमलवहराः। तासां परिमलवहराणाम् । रलयोर्बवयोश्चैक्यस्य श्लेषे तु गृहीतत्वात्। मानिनीनां मानिनां वा कामातुराणां मानभङ्गेनतुच्छत्वमापादयन्तीनां रतीनामित्यर्थः।
अथ कविवर्णनम्। का सत्कवीनां विदग्धा भारती वाणी कस्य हृदयं न हरति। अपि तु सर्वापि सर्वस्य। अनवरतरमणीया। सततं रम्या। किं कुर्वती। अभिलपन्ती। कम् । अमितार्थम्। असंख्यमर्थम् । किंविशिष्टम् । सरसम्। सा च कस्य न हरति । किम् । अर्थं हृदयं वा । या । का । नवरतरमणी । अपूर्वसुरता युवती किंविशिष्टा । भारती भरतसम्बन्धिनी नर्त्तकस्त्रीं। कथम्भूता सती। कामिता। पुनः किंविशिष्टा । सानुरागा । किं कुर्वती। सरसमभिलषन्ती। विदग्धा।
कःना नराःसत्कवीनां वाचमाकर्ण्यहृतचित्तो न भवति। किंविशिष्टाम्। अमलां निर्दूषणाम् । पुनः कम्भूताम् । सततं रम्याम् । पुनः किंविशिष्टाम् । परभृतसरमाम् । परभृतस्य कोकिलस्येव सरसां रसवतीम्। अथ द्वितोयोऽर्थः । के उदके वयः पक्षिणः सन्तश्चते कवयश्च सत्कवयो हंसाद्या जलपक्षिणः । तेषां वाचं सततं रम्यामाकर्ण्य कः ना हृतचित्तो न भवति । किंविशिष्टाम् । न अकोमलाम् । कोमलाम् । कथम्भूतानां तेषां। उपगतानां तोरविलासिनामित्यर्थः केषाम् । परभृतसरसाम् । पराणि च तानि भृतानि पूर्णानि सरांसि तेषां परभृतसरसाम् । कैः । पयोभिः । कथम्भूतैः साम्बुजैः। अथवा। उपगतानां नगरनिकटवर्तिनां सरसां सत्कसंबन्धिनो वयः सत्कवयस्तेषाम् ।
अथ किमेवंविधयात्र ग्रन्थे प्राकृतिकानां गणकानामित्याशङ्क्योच्यते। नहि मन्दार्थमेव ग्रन्थ आरभ्यत इत्याह । इह कवीनां द्वेगती। इयमियं वा। एतत्परोऽयं श्लोकः । रमन्ते । के। कृतिनो विद्वांसः। क्व । रम्यसारस्वतौघे। सरस्वतीनदीप्रवाहे। सरस्वत्याः सर्वगतत्वाद्गङ्गाद्या अपि सरस्वत्य
उच्यन्ते। अत्र किंविशिष्टा उपलक्षिताः। कैः सुवृत्तैः रम्याचारैः। पुनः कैः । आश्लेषिताङ्गैः। अवलिप्ताङ्गैः। केन । नदीतीरपङ्केन। नकेवलं तेन । नानारुचिरसिकतया वा। किं कुर्वन्तः। तथा रमन्ते। अधरयन्तः। अधरीकुर्वन्तः । किम्। त्रिदिवम् । अस्मादप्युपरितनं स्थानं वाञ्छन्तः । अथ द्वितीयोऽर्थः । नानारुच्यारसिकत्वं रसिकता तयेह रम्यसारस्वतौघे वाक्समूहे चतुरवचनानिधये कृतिनो रमन्ते। कैः कृत्वा। सुवृत्तैःश्लक्षणैःश्लोकैः। मालिनीप्रभृतिभिः। किंविशिष्टैः। श्लेषिताङ्कैः। श्लेषोक्तियुक्तचरणैः। पादावृत्तिप्रभृतिभिः । किं कुर्वन्तः। त्रिदिवमधरयन्तः । त्रिदिवसुखादपि काव्यरतिसुखमधिकं मत्वेत्यर्थः। शेषं स्पष्टम्।
इति श्रीभास्करीये सिद्धान्तशिरोमणिवासनाभाष्ये गोलाध्याये मिताक्षरे ऋतुवर्णनं समाप्तम् ।
अत्रग्रन्थसंख्या ६०।
__________
अथ प्रश्नाध्यायो व्याख्यायते। तत्रादौ तदारम्भप्रयोजनं तत्प्रशंसां चाह।
****प्रौढ़िप्रौढ़सभासु नैति गणकः प्रश्नेर्विना प्रायशो
ऽतस्तान् वच्मि विचित्रभङ्गिचतुरप्रोतिप्रदानाय यान् ।
आकर्ण्यापि सुवर्णवर्णवदनं वैवर्ण्यमेति क्षणात् ****
तस्याखर्वकुगर्वपर्वतशिरः प्रौढ्याधिरूढ़ोऽत्र यः ॥ १॥
****पाट्या च बीजेन च कु्ट्टकेन ****
वर्गप्रकृत्या च तथोत्तराणि।
गोलेन यन्त्रैःकथितानि तेषां
**बालावबोधे कतिचिच्चवच्मि ॥२॥ **
स्पष्टार्थम् ।
अथ बुद्धिमतः प्रशंसामाह।
अस्ति त्रैराशिकं पाटीबीजं च बिमला मतिः।
किमज्ञातं सुबुद्धीनामतो मन्दार्थमुच्यते ॥ ३ ॥
****वर्गं वर्गपदं घनं घनपदं संत्यज्य यद्गण्यते ****
तत् त्रैराशिकमेव मेदबहुलं नान्यत् ततो विद्यते ।
एतद्यद्बहुधास्मदादिजड़धीधीवृद्धिबुद्ध्याबुधै-
र्विद्वच्चक्रचकोरचारुमतिभिः पाटीति तन्निर्मितम् ॥ ४ ॥
नैव वर्णात्मकं बीजं न बीजानि पृथक् पृथक् ।
एकमेव मतिर्बीजमनल्पाकल्पना यतः ॥५॥
स्पष्टम् ।
अथ प्रश्नानाह ।
अहर्गणस्यानयनेऽर्कमासा-
****श्चैत्रादिचान्द्रै र्गणकान्विताः किम् ****
कुतोऽधिमासावमशेषके च
**त्यक्तेयतः सावयवोऽनुपातः ॥ ६ ॥ **
अयमस्य भङ्गश्च पूर्वं व्याख्यातएव ।
अथान्यमाह।
चन्द्रश्चन्द्रगुहो रवीरविगुणश्चाङ्गारकोऽङ्गाहत-
स्तद्योगो गुणसंगुणात् सुरगुरो राश्यादिकात् पातितः ।
शेषं चापरपर्य्ययोत्थखचरेणोनं युतं वा शनिः
**स्यात् केऽन्ये भगणा वदेति तव चेदस्ति श्रमो मिश्रके ॥ ७॥ **
अथास्य भङ्गः।
उद्देशकालापवदेव कार्य्यं
****योगान्तराद्यंग्रहपर्य्ययाणाम् । ****
दृष्टस्य चक्राणि तदूनितानि
तैरूनितं तत् क्रमशो विधेयम् ॥ ८ ॥
अज्ञातखेटः स्वमृण कृतश्चे
दज्ञातचक्राणि भवन्ति तानि ।
क्वहाः प्रदेया अविशुद्धशुद्धौ
**क्वहैश्च तक्ष्यं कुदिनाधिकं चेत् ॥ ९ ॥ **
उदाहरणे ग्रहाणां यथा यथा योगोऽन्तरं वाभिहितं तथा तथा ग्रहयुगभगणानामपि कार्य्यम्। यदि शोध्यं न शुध्येत् तदा कुदिनानि दत्त्वा शोधयेत्। तथा गुणकैर्गुणने योगे च कृते यदि राशिः कुदिनाधिको भवति तदा कुदिनैस्तक्ष्यः । एवं योगान्तरादि यद्भवति तेन दृष्टग्रहस्य युगभगणा एकत्रोनाःकार्य्याः । अन्यत्र तैर्भगणैस्तदूनं कार्य्यम्। एवं कृते प्रथमस्थाने यदवशेषं तेऽन्यभगणा भवन्ति। यद्यन्यभगणा उदाहरणे धनं कृताः। यदि ऋणं कृतास्तदा द्वितीयस्थाने यदवशेषं तेऽन्यभगणा इति।
अत्रोपपत्तिः। यद्ग्रहाणां योगवियोगादिकं तत् तद्युगभगणानां कृतम् । तथाविधैर्भगणैरहर्गणाद्ग्रहवत् फलं आनीते तद्योगवियोगादिकमुत्पद्यते। यत्र शोध्यं न शुद्ध्यति तत्र यत् कुदिनानि दत्तानि तत्रेयं युक्तिः। यैर्भगणैर्यादृशो ग्रहो राश्यादिको भवति तैरेव कुदिनाधिकैस्तादृश एव राश्यादिकः स्यात्। भगणशेषयोस्तुल्यत्वात्। किन्तु तद्भगणा अधिका आगच्छन्ति ते परित्यक्ताःप्रयोजनाभावात्। उदाहरणं हि राश्यादिकग्रहाणामेव। अनयैव युक्त्या यत्र गुणनादिके कृते कुदिनाधिकत्वं दृश्यते तत्र राशिः कुदिनैस्तस्य इत्युक्तम् । अथैवं योगवियोगादिके ये भगणा जातास्तेऽन्यभगणैरूनाः सन्ती दृष्टग्रहभगणा भवन्ति। दृष्टभगणैरूना अन्यभगणा भवन्तीति विलोमविधिः । यदान्यभगणैर्युक्ताः सन्तो दृष्टभगणा भवन्ति तदा तैरेवोना दृष्टभगणा अन्यभगणा भवन्तीत्यर्थात् सिद्धम्।
अथ बालावबोधार्थं कल्पितभगणैरुदाहरणम्। तत्ररवेर्भगणास्त्रयः ३ ।चन्द्रस्यचत्वारः ४ भौमस्य पञ्च५। गुरोः सप्त ७ । शनेर्नव९ । कुदिनानि षष्टिः ६० ।त्रयोविंशति २३ महर्गणं प्रकल्प्यसाधिता ग्रहाः$\begin{matrix} र \\ १ \\ {२४} \\ \end{matrix}$ $\begin{matrix} {चं} \\ ६ \\ {१२} \\ \end{matrix}$$\begin{matrix} {मं} \\ {११} \\ ० \\ \end{matrix}$$\begin{matrix} {गु} \\ ८ \\ ६ \\ \end{matrix}$$\begin{matrix} {शु} \\ ५ \\ {१२} \\ \end{matrix}$।अत्रद्वादशगुणोऽर्कः एकगुणश्चन्द्रःषड्गुणो भौमः । र.। चं.। मं. । एषां योगः। १० । ० । अमुं त्रिगुणाद्गुरोर्विशोध्य २४ ।१८ शेषम् २ । १८ । अथाज्ञातभगणगज्ञानार्थं ग्रहयुग भगणानां यथोक्ते योगे वियोगे च कृते जातम् ११ । ० । एतच्छनिभगणेर्नवभिरूनीकृतं जाताबन्धभगणौ २ । यद्यन्यभगणा ऋणं तद्भगणद्वयसम्भूतो ग्रहः९ । ६ । अस्मिन् पूर्वस्मात् २ । १८ शोधिते जातः शनिः ५ । १२ । यद्यज्ञातः खेटःस्वं तदा शनिभगणेषु ९ कुदिनानि ६० प्रक्षिप्यैकादश ११ विशोध्य जाता अन्यभगणाः ५८। एभ्यो जातो ग्रहः २ । २४ । अनेन पूर्वशेषे युते जातः शनिः ५ । १२ ।
अथान्यं प्रश्नमाह।
ये याताधिकमासहीनदिवसा ये चापि तच्छेषके
तेषामैक्यमवेक्ष्य यो दिनगणान् ब्रूतेऽत्र कल्पे गतान् ।
संश्लिष्टम्फुटकुट्टकोद्भटबटुक्षुद्रैणविद्रावणे
**तस्याव्यक्तविदो वि्दो विजयते शार्दूलविक्रीड़ितम् ॥१०॥ **
अथास्य भङ्कः।
कृताष्टाष्टिगोब्ध्यब्धिशैलामरर्तु-
**द्विप ८६३३७४४९१६८४ ने सशेषाधिमासावमैक्ये । भवेद्व्येकचन्द्राह १६०२९९८९९९९९९ भक्तोऽवशेषं गवेन्दुद्युराशिस्वतः साक्नाद्यः॥ ११ ॥ **
स्पष्टार्थम्।
**उदाहरणम्। **
ये याताधिकमासहीनदिवसा येचापि तच्छेषके
तेषामैक्यमवेक्ष्यजिष्णुजकृतच्छास्त्राद्यथैवागतम्।
भूशैलेन्दुखखाभ्रषट्करयुगाष्टाब्धाङ्ग६४८४२६०००१७१ तुल्यं यदा****
काले कल्पगतं तदा वदति यः स ब्रह्मसिद्धान्तवित् ॥ १२॥
अहर्गणानयने ये लब्धा अधिमासाः क्षयाहाश्च ये च तच्छेषके तेषामैक्यं भूशैलेन्दुखखाभ्रषट्करयुगाष्टाब्ध्याङ्क६४८४२६०००१७१ तुल्यं कृताष्टाष्टिगोऽब्धवादिभि८६३३७४४९१६८४ गुणितं जातम् ५५९८३४४६८२९२३२६४२२०७७९६४ । व्येकचन्द्राहै १६०२९९८९९९९९९र्भक्तं लब्धम् ३४९२४१९३२३३६ । जातोऽवशेषमितो गतेन्दुद्युगणाः १०३०० । अस्मात् प्राग्वदवमानि १६१ । अवमशेषं च २६७४२६०००००० । सावनाहर्गण १०१३९ । अथ पुथग्गतेन्दुद्युगणोऽधिमासैर्गुणितो युगेन्दुदिनैर्भक्तोलब्धं गताधिमासाः१० । अधिमासशेषं च ३८१०००००००००। लब्धाधिमासैर्दिनीकृतै३०० रून इन्दुद्युगणः १०३००। सौराहर्गणो भवति १००००। अतः कल्पगतम् । सप्तविंशति २७ र्वर्षाणि। नव ९ मासाः । दश १०दिनानि।
अस्योपपत्तिर्बीजगणितेन । एको हरश्चेद्गुणकौविभिन्नावित्यादिना । कथमस्य विषय इति चेत्। उच्यते । गतसौरदिनेभ्यो यावन्तोऽधिमासा यच्च शेषं गतचन्द्रदिनेभ्योऽपि तावन्त एव भवन्ति तावदेव चावशेषम् । अवमान्यवमशेषं च चन्द्रदिनेभ्यः एव सिध्यति । अतस्तथोः शेषयोच्च योगउदाहृते युगाधिमासावमयोगोगुणो युगेन्दुदिनानि हरः । गतेन्दुदिनप्रमाणं यावत्तावत् १। तद्गुणेन गुणितं हरेण
भक्तम्। तत्र लब्धिप्रमाणं कालकः१ ।तद्गुणितं हरं गुणकगुणिताद्यावत्तावतो विशोध्य ज्ञातं शेषम्। या २६६७५८५००००का १६०२९९०००००० एतदधिमासावमशेषैक्यम्। यो लब्धःकालकः १ स गताधिमासावमानामैक्यम्। तच्छेषे यदि क्षिप्यते तदा चतुर्णांयोगःकृतोभवति । या २६६७५८५०००० का १६०२९९८९९९९९९ ।अस्य चतुर्णां योगस्योद्दिष्टयोगेन समीकरणे क्रियमाणेऽधिमासावमयोगो भाज्यः । व्येकेन्दुदिनानि हरः। उद्दिष्टयोग ऋणक्षेपः । एवं सति लाघवार्थं रूपशुद्धवाचार्य्येण स्थिरः कुट्टकः कृतः। स च कृताष्टाष्टीत्यादि।
**इदानींमहाप्रश्नमाह। **
चक्राग्राणि गृहाग्रकाणि च लवाग्राणि ग्रहाणां पृथग्-
****यानि स्युः कलिकाग्रकाणि विकलाग्राणीह धीवृद्धिदे। ****
****चन्द्रार्कारगुरुज्ञभार्गवचलच्छायासुतानां तथा ****
पूर्वं सिद्धमहर्गणागमविधौ न्यूनाहशेषं च यत् ॥ १३ ॥
षट्त्रिंशत् सहितानि तानि कुदिनैस्तष्टानि दृष्ट्वाग्रका-
ण्याचष्टे स्फुटकुट्टके पटुमतिः खेटान् दिनौघं च यः ।
तं मन्ये गणिताटवीविघटनप्रौढ़िप्रमत्ताखिल-
ज्योतिर्वित्करिकुम्भपीठलुठनप्रोत्कण्ठकण्ठीरवम् ॥ १४ ॥
अथास्य भङ्गः ।
उद्दिष्टं क्वह १५७७९१७५०० तष्टमम्बुधिहृतं शुध्येन्नचेत् तत्
खिलंलब्धंरामनखाद्रिलोचनरसत्र्यङ्कद्वि२९३६२७२०३ निघ्नं ततः ।****
पञ्चाद्रित्रिनवाद्रिसागरयुगच्छिद्राग्निभिः ३९४४७९३७५
संभजेच्छेषं स्याद्द्युगणो हरेणस युतो यावद्भवेदीप्तितः ॥ १५ ॥****
**अस्योदाहरणम्। **
पञ्चत्रिंशदहोसखे दिविषदांचक्रादिशेषाणि वा-
न्येषां सावमशेषमैक्यमपि यद्धीवृद्धिदे जायते। ****
तत् तष्टं कुदिनैः सखेषुभरविच्छिग्रेन्द्र१४९१२२७५००तुल्यं
गुरोरिन्द्रोर्वाह्निकुजस्य वावद यदा कीदृग्द्युपिण्डस्तदा ॥ १६ ॥
धीवृद्धिदे तन्त्रेग्रहाणां चक्रादिशेषाणि मिलितान्यवमशेषयुतानि च १४९१२२७५००। एतानि किलोद्दिष्टानि चतुर्भिर्विभज्य लब्धंरामनखाद्रिलोचनरसत्र्यङ्कद्विभिः २९३६२७२०३ संमुख्य पञ्चाद्रित्रिनवाद्रिसागरयुगच्छिद्राग्नि- ३९४४७९३७५ भिर्विभज्यशेषमहर्गणोजातःखखाभ्रदिङ्मितः १००००। अयं जातः कुजदिने । द्विगुणे हरे क्षिप्तेजातः सोमवासरे ७८८९६८७५० । त्रिगुणे क्षिप्ते जातो गुरुदिने ११८३४४८१२५।
अत्रोपपत्तिरेको हरश्चेद्गुणकौविभिन्नावित्यनेनैव । अत्र गुणकाविति द्विवचनमुपलक्षणार्थम्। तेन बहुगुणानामैक्यं गुणो भवति। अग्राणामैक्यमग्रम्। तद्यथा । रूपमहर्गणं प्रकल्प्यग्रहाणां चक्रादिशेषाण्यानीय तेषामैक्यं युगावमयुतं भाज्यःकल्प्यः। कुदिनानि हरः। उद्दिष्टषट्त्रिंशच्छेषाणां योग ऋणक्षपः । एषां भाज्यहारक्षेपाणां चतुर्भिरपवर्तः कृतः । गतो लाघवार्थं रूपशुद्धौलब्ध रामनखाद्रीत्यादिस्थिरकुट्टकः कृतः ।
इदानीं निरग्रचक्रादपि ग्रहादहर्गणमाह ।
लिप्तार्धंदशयुग्भवन्ति विकलास्तासां वियोगस्त्रियुग-
भागा भागदलं गृहाणि शशिनः खत्रीन्दवस्तद्युतिः।
****दृष्टा चन्द्रदिने कदा वद पुनस्तादृक् चकाव्याहनि ****
व्यक्ताव्यक्तविविक्तयुक्तिगणितं विद्वन् विजानासि चेत् ॥ १७॥
अस्य भङ्गः।
राश्यादेर्विकला दृढ़कुदिनगुणाश्चक्रविकलिकाभक्ताः ।
शेषत्यागे लब्धं रूपयुतं भगणशेषं स्यात् ॥ १८ ॥
शेषोनहरो विकलाशेषं तस्मिन् क्वहाधिके ज्ञेयः ।
स खिलःखेटर्स्त्वाखिले विकलाशेषाद्द्युपिण्डो वा ॥ १९ ॥
दृढ़भगणा येन गुणाश्चक्राग्रोना दृढ़क्वहैः शुद्धाः ।
स द्युगणा दृढ़कुदिनयुतस्तावद्यावदीप्सिता वारः ॥ २० ॥
उदाहरणम्।
चक्राग्रं शशिनः खखाभ्रगगनप्राणर्तुभूमि १६५०००० र्हृतं
****शुद्धेच्चेन खिलं फलं कृतगुणाष्टाङ्गाहिनागा ८८६८३४ हतम् । ****
विश्वाग्न्यङ्गशराङ्कैकै ९५६३१३ श्व विभजेत् स्याच्छेषमह्नांगण-
स्तावत् तत्र हरं क्षिपेदभिमते यावद्भवेद्वासरे ॥ २१ ॥
लिप्तार्धं दशयुगित्यत्र लिप्तप्रमाणं यावत्तावत् १ प्रकल्प्योक्तविधिं कृत्वाद्यबीजक्रियया ज्ञातःशशी ११ । २२ । ५८ । ३९ । अस्य भगणाना कुदिनानां चापवर्तः १६५०००० दृढ़भगणाः३५००२। दृढ़क्वहाः ९५६३१३ । जातोऽहर्गणः२५७१५१ । अयं जातः शनिवासरे। द्विगुणे क्षेपे क्षिप्तं जातः सोमवासरे २१६९७७७। षड्गुणे क्षिप्ते जातःशुक्रवासरे ५९९५०२९। सप्तगुणं क्षिप्तेऽनेकधा सोमवासरे २१६९७७७ । वा ८८६३९६८ । वा १५५५८१५९इत्यादि। अथवा शुक्रवासरे ५९९५०२९। वा १२६८९२२० वा १९३८३४११ इत्यादि। एवमन्येषां ग्रहाणां स्थिरकुट्टकः कार्य्यः ।
अत्र वासना। भगणशेषं चक्रविकलाभिर्यदि गुण्यते क्वहैविभज्यते तदा विकलात्मको ग्रहो लभ्यते । शेषं विकलाशेषं
स्यात्। अतो विलोमविधिना भगणशेषानयनम्। राश्यादेर्विकलाः १२७०७१९। दृढ़कुदिनै९५६३१३र्गुणिताश्चक्रविकलाभिः १२९६००० भक्ताः लब्धम् ९३७६५८ । शेषम् ३३१०४७। शेषत्यागे लब्धं रूपयुतमतः कृतम्। यतो विकलाशेषं विधा चक्रविकलाभिर्भाज्याः। तद्विकलावशेषमज्ञातम्। अथ विकलाशेषज्ञानमुच्यते। यदत्रावशेषं त्यक्तं तेनोनाश्चक्रविकला न पूर्य्यन्ते तास्तत्रक्षिाप्ता यदि भागो ह्रियते तदा लब्धिः सरूपा लभ्यते । अतस्तदेव विकलाशेषम्। विकलाशेषेण कुदिनेभ्योन्यूनेन भवितव्यम् । एवं यज्ज्ञातं तत् किञ्चिदधिकमपि भवति । तदसत् । उद्दिष्टग्रहस्य खिलत्वात् ।
**अथ खिलोदाहरणम् । **
राशयः खं ०लवाः पञ्च ५ कलाः षड्वर्ग ३६ संमिताः।
विकला गोभुवो १९नेदृङ्मध्येन्दुरुदये क्वचित् ॥ २२॥
**चं० । ५ । ३६ । १९। अतोराश्यादिर्विकला इत्यादिके कृते शेषं सप्तविंशतिः २७ । शेषोनहरोविकलाशेषमिदम् १२९५९७३ । अस्मिन् दृढ़क्वहाधिके ज्ञातः खिलःखेटः । ईदृशश्चन्द्रो मध्यम औदयिको न कदाचिद्भवतीत्यर्थः । **
एवमनेकथाखिलत्वं कुट्टकविषयमभिधायेदानीं वर्गप्रकृतिविषयमाह।
स्याद्यस्मिन्नधिमासशेषककृतिर्दिग्घ्नीसरूपा कृति-
र्व्यकाशेषकृतिर्हता च दशभिः स्यान्मूलदा का यदा।
काले कल्पगतं तदा वदति यस्तत्पादपद्मं बुधाः
सेवन्ते बहुधा प्रमेयवियति भ्रान्ता भ्रमन्तोऽलिवत् ॥ २३ ॥
****उद्दिष्टं कुट्टके तज्ज्ञैर्ज्ञेयंनिरपवर्तनम् । ****
व्यभिचारः क्वचित् क्वापि खिलत्वापत्तिरन्यथा ॥ २४ ॥
स्मष्टार्थम् । अस्य वर्गप्रकृत्या भङ्गः। तत्राधिमासशेष-
प्रमाणं यावत्तावत् । अस्य कृतिर्दिग्घ्नीसरूपा जाता। याव १०रू १ । इष्टं हृस्वमित्यादिना जाते हृस्वज्येष्ठमूले ६ । १९। वा २२८ । ७२१। अत्र हृस्वं यावत्तावन्मानं तदेवाधिमासशेषम् । वा २२८। अथ द्वितीयोदाहरणेऽधिमासशोषप्रमाणं यावत्तावत् । अस्य कृतिर्व्येका दशहृता च जाता याव रु १ । अस्य मूलप्रमाणं कालकः १ । अतःकालकवर्गसमीकरणे शोधने च कृते जातं प्रथमपक्षमूलम् । या १ । परपक्षस्यास्य काव १० रू १ । वर्गप्रकृत्या मूले जातेते एव६ । १८ । वा २२८। अत्र कनिष्ठंकालकमानं ज्येष्ठं यावत्तावन्मानं तदेवाधिमामशेषम्। १९वा ७२१ । अतः कल्पगतानयनं कुट्टकेन । तत्राधिमासाभाज्यः। रविदिनानि हारः। अधिमासशेषं षट्कमितमृण्क्षेपः । ननु कथमयं क्षपः अत्रभाज्यभाजकयोर्लक्षत्रयेणापवर्तनं तत्तु नास्य क्षेपस्यति। खिलत्वापत्तिः। सत्यम् । अत उक्तमुद्दिष्टं कुट्टके तजज्ञेरित्यादि। अतो लक्षत्रयेणपवर्तने कृतेऽधिमासशेषं षडदृष्टम्। अतः कुट्टकेन ज्ञातं कल्पगतं चतुर्भिरूनानि त्रयोविंशतिशतवर्षाणि२२९६ । तया षण्मासाः ६ । षट्तिथयश्च६।
इदानींदेविशेषमुद्दिश्य पलांशप्रश्नानाह।
प्राच्यामुज्जयिनीपुरात् कुपरिधेस्तुर्येऽंशके यत् पुरं
तस्मात् पश्चिमतोऽपि तावति ततोऽप्यन्यत् पुरारेर्दिशि।
नैर्ऋत्यां यदतोऽपि तेषु नगरेष्वाचक्ष्यमेऽक्षांशकान्
गोलक्षेत्रविचक्षण क्षणमिदं संचिन्त्य चित्ते मुहुः ॥ २५ ॥
अस्य भङ्गः।
दिगज्यापलभाक्षुणेत्रिज्यार्कहृते च बाहुकोटिज्ये ।
अपसृतियोजनलवजे तदन्तरं दक्षिणे भागे ॥ २६ ॥
ऐक्यं सौम्ये भूमेर्व्यस्तं पादाधिकऽपसरे।
रविगुणमक्षश्रमा भक्तं तच्चापमक्षांशाः ॥ २७॥
अत्रतद्देशवशेन दिशो ज्ञेयाः। न स्वदेशवशेन।अत्र प्रथमे प्रश्नेऽपमारयोजनलवा नवतिः ९० । तद्दोर्ज्यात्रिज्या ३४३८ । कोटिज्या पूर्णम् ० । दिग्ज्यादोर्ज्ययोर्घातः पूर्णम् ० । कोटिज्यापालभयोर्घातश्च पूर्णम्० । एते त्रिज्ययार्कैश्च यथाक्रमं हृते तथापि शून्ये एव ० ।०। तयोर्योगे वियोगे वा शून्यमेव ०। एतद्रविगुणमक्षश्रवणहृतं शून्यमेव । अतोयमकोटिपत्तने शून्यं पलांशाः ० ।
अथ द्वितीयप्रश्नेऽप्येवं शून्यं पलांशाः। अतो यमकोटेःप्रतीच्यां न लङ्केव।
अथ तृतीयप्रश्ने दिग्ज्या २४३१ । इयमपमाग्दोर्ज्यया त्रिज्यामितया गुण्या त्रिज्यया च भाज्या। अत इयमेव २४३१ । लङ्कायां पलभा पूर्णम् ०तद्गुणार्कहृताच कोटिज्या पूर्णम् । तयोर्योगस्तादृश एव २४३१ । इयमर्कगुणा लङ्काक्षकर्ण १२ हृताविकृतेव २४३१ दोर्ज्या । अस्याश्चापंपलांशाः ४५। यत्रैते पलांशास्तत्र पलभा १२ । पलकर्णश्च १६ । ५८ । १४ ।
****अथ चतुर्थप्रश्ने सैव दिग्ज्या २४३१ । तथैवोक्तविधौकृतेऽविकृतेव"। किन्तु इयमर्कगुणाक्षकर्ण १६ । ५८ । १४ हृताअस्याश्चापं पलांशाः ३० । ****
अथान्यदाहरणम्।
क्षितिपरिधिषड़ंशेप्राचि धारानगर्या
स्त्रिनयनदिशि यद्वापत्तने चाग्निभागे।
कथय गणक तत्र क्षिप्रमाक्षांशकान् मे
****क्षितिपरिधितृतीयेऽथांशके तत्र तत्र ॥ २८ ॥ ****
धारायामक्षप्रभा ५ । पलकर्णः१३ । अत्रापसारयोज-
****नलवाःषष्टिः ६० । तद्दोर्ज्या२९७७ । कोटिज्या १७१९ दिग्ज्यायाः प्राच्यामभावः । तस्माद्भुजज्यापूर्णमेव । अतः कोटिज्या पलभा५ गुणा । अक्षकर्णा १३ प्ता। फलस्य चापमक्षांशाः । एवं प्राच्यां गतस्याक्षांशाः ११ । ५ ।० । ईशानदिशं गतस्य दिग्ज्या २४३१ । दोर्ज्यादिग्ज्यागुणा त्रिज्याभक्ताकार्य्या । कोटिज्या तु पलमा ५ गुणा द्वादशभक्ताकार्य्या । तयोर्योगो द्वादशगुणः पलकर्ण१३ हृतःफलस्य चापमक्षांशाः ४९ । १८ । २४ ।ईशान्यां गतस्य। एवमाग्नेय्यां च २१ ।५४ । ३४ । अथ त्र्यंशेऽपसारे लवाः१२० । एषां दोर्ज्याकोटिज्ये एते एव २९७७ । १७१९। यथोक्तकरणेन जाताः प्राच्यां पलांशाः ११ । ५ । ०। ऐशान्याम् २१ । ५४ । ३४ । आग्नेय्याम् ४९ । १८ । २४ । ****
अत्रोपपत्तिः। गोले खस्वस्तिकादिच्छादिक्चिह्नोपरि दृङ्मण्डलं निवेश्यम् । तत्र खस्वस्तिकं स्वस्थानं कल्प्यम् । ततोऽपसारलवाग्रे दृङ्मण्डले पुरचिह्नंकार्य्यम्। ध्रुवात् पुरचिह्नोपरि नीयमानं वृत्ताकारं सूत्रं यत्र विषुवन्मण्डले लगति तत्पुरचिह्नयोरन्तरं तस्मिन् पुरेपलांशाः । अथ तज्ज्ञानार्थमुपायः । अपसारयोजनलवानां दोःकोटिज्ये कृते दिग्लवानां च दिग्ज्या। ततोऽनुपातःयदि त्रिज्यामितया दोर्ज्यया दिग्ज्या भुजो लभ्यते तदापसारलवज्यया किमिति। फलं पुरसममण्डलयोरन्तरं याम्योत्तरं ज्यारूपम् । स भुजः । पुरविषुवद्वृत्तयोर्यावदन्तरं तावतैवान्तरेण सर्वत्र विषुवद्वृत्तादुत्तरतोऽन्यत् स्वाहोरात्रवृत्तं निवेशनीयम्। तस्य क्षितिजेन सह यत्र सम्पातस्वत्प्राच्यपरयोरन्तरमग्रा। यत्रोन्मण्डले लग्नं तत्प्राच्चपरयोरन्तरं पलांशाः क्रान्तिरूपाः । अथ तज्ज्ञानार्थमपसारलवानां कोटिज्या । स पुरचिह्नल्लम्बः शङ्कुः। स पलभया गुण्यो द्वादशभक्तो जातं शङ्कुतलम्। उत्तरगोल उत्तर-
****भुजस्य शङ्कुतलस्य च योगेऽग्रा भवति । तदन्यथान्तरे कृते सत्यग्रा । अतो वैपरीत्येन क्रान्तिः । तदर्थमनुपातः । यदि पलकर्णे द्वादश कोटिर्लभ्यते तदाग्रया किमिति । फलं क्रान्तिज्यारूपाक्षज्या । अतस्तच्चापमक्षांशा इत्युपपन्नम्। भूमेःपादाधिकेऽपसारेऽतो व्यस्तं यतो विषुवद्वृत्तमधः सममण्डलादुत्तरतः। ****
अथोक्तानपि प्रश्नानेकोकर्त्तुमाह ।
******मित्र मित्रस्त्रिनेत्रस्य दिश्युद्गमं ******
******याति यत्र त्रिनेत्रक्षमध्यस्थितः । ******
******तत्र मे तान्त्रिकाक्षुब्धमक्षप्रभां ******
******क्षिप्रमाचक्ष्व दक्षोऽसिगोले यदि ॥ २९ ॥ ******
एकद्वित्रिचतुःपञ्चषड्भिर्यत्रोदितो रविः ।
मासैरस्तमयं याति तत्राक्षांशान् पृथक् वद ॥३०॥
द्युज्यकापमगुणार्कदोर्ज्यका-
संयुतिं खखखवाणसंमिताम् ।
वीक्ष्य भास्करमवेहि मध्यमं
****मध्यमाहरणमस्ति चेच्छ्रुतम् ॥ ३१ ॥ ****
द्युज्यापक्रमभानुदोर्गुणयुतिस्तिथ्युद्धद्धृताब्ध्याहता
******स्यादाद्यो युतिवर्गतो यमगुणात् सप्तामरा ३३७प्तोनिताः । ******
नागाद्र्यङ्गदिगङ्ककाः ९१०६७८पदमतस्तेनाद्य ऊनो भवे-
द्व्यासार्धेऽष्टगुणाब्धिपावकमिते क्रान्तिज्यकातीरविः ॥३२॥
क्रान्तिज्यासमशङ्कुतद्धृतिमहीजीवाग्रकाणां युति-
******र्दृष्टा खाम्बरपञ्चखेचरमिता पञ्चाङ्गुलाक्षप्रभे। ******
देशे तत्र पृथक् पृथग्गणक ता गोलेऽसि दक्षोऽक्षज-
क्षेत्रक्षोदविधौ विचक्षण समाचक्ष्याविलक्षोऽसि चेत् ॥ ३३ ॥
क्रान्तिज्यां विषुवत्प्रभारविहतेस्तुल्यां प्रकल्प्यपराः
******कृत्वाग्र्यासमशङ्कुतद्धृतिमहीजीवा अभीष्टास्ततः । ******
द्याद्यास्तद्युतिभाजिताः पृथगथ प्रोद्दिष्टयुत्या हता
उद्दिष्टा खलु यद्युतिः पृथगिमा व्यक्ता भवन्ति क्रमात् ॥३४॥
अग्रापमज्यक्षितिशिञ्जनीनां
******योगं सहस्रद्वितयं विदित्वा। ******
पृथक् पृथक् ता गणक प्रचक्ष्व
रूढ़ा सगोले गणिते मतिश्चेत् ॥ ३५ ॥
आस्तां तावत् स गोलः सुगणक गणितस्कन्धबन्धप्रसिद्धः
सिद्धान्तो लग्नमिद्ध्यैकिमिति वत कृतस्तत्र तात्कालिकोऽर्कः ।
नाड़ीषष्ट्याद्युरात्रंदशपलयुतया भानवीयं किलार्क्ष्या
लग्नं तात्कालिकार्कात् प्रवद किमधिकं तद्द्युरात्ने पलोने ॥ ३६॥
******नाक्षत्राउत सवनास्तनुकृतौनाड्योऽथ चेत् सावना ******
******नाक्षत्राउदयाः कथं विसदृशास्ताभ्यो विशोध्या वद । ******
नाक्षत्रायदि तद्द्युरात्रसदृशे काले गतेऽर्काधिकं
किं लग्नं न समं ततो दिनकरस्तात्कालिकः किं कृतः ॥३७॥
पञ्चाङ्गुला गणक यत्र पलप्रभा स्यात्
तत्रष्टमानवमिता दशनाड़िकासु।
दृष्टा यदा वदतदा तरणिं तवास्ति
यद्यत्र कौशलमलं गणिते सगोले ॥ ३८॥
दिनकरे करिवैरिदलस्थिते
******नरसमा नरभापरदिङ्मुखो। ******
भवति यत्र पटो पुटभेदने
******कथय तान्त्रिक तत्रपलप्रभाम् ॥ ३९ ॥ ******
******मार्तण्डः सममण्डलं किल यदा दृष्टः प्रविष्टः सखे ******
काले पञ्चघटीमिते दिनगते यद्वानते तावति।
केनाप्युज्जयिनीगतेन तरणेः क्रान्तिं तदा वेत्सिचे-
******न्मन्येत्वां निशितं सगर्वगणकोन्मत्तेमकुम्भाङ्कुशम् ॥ ४०॥ ******
मार्तण्डे सममण्डलं प्रविशति च्छाया किलाष्ट्यङ्गुला
दृष्टाष्टासु घटीषु कुत्रचिदपि स्थाने कदाचिद्दिने ।
******अर्कक्रान्तिगुणं तदा वदसि चेदक्षप्रभां तत्रच ******
श्रिप्रश्नप्रचुरप्रपञ्चचतुर मन्ये त्वदन्यं नहि ॥ ४१ ॥
यत्र क्षितिज्या शरसिद्ध २४५ तुल्या
स्यात् तद्धृतिस्तत्त्वकुरामसंख्या ३१२५ ।
तत्राक्षभार्कौगणक प्रचक्ष्व
चेदक्षजक्षेत्रविचक्षणोऽसि ॥ ४२ ॥
****क्रान्तिज्यासमशङ्कुतद्धृतियुतिं कुज्योनितां वीक्ष्य यो ****
विंशत्यश्वरसै ६७२०र्मितामथपरां षष्ट्यङ्कचन्द्रै १९६०र्मिताम् ।
******कुज्याग्रापमशिञ्जिनीतुतिमिनं वेत्त्यक्षभां चापि तं ******
ज्योतिर्वित्कमलावबोधनविधौ वन्दे परं भास्करम् ॥ ४३ ॥
******क्रान्तिज्यासमशङ्कुतद्धृतियुतिं कुज्योनितां वीक्ष्य यः ******
******पूर्णाब्धाब्धिमहीमिता १४४० मथ परां खाभ्राष्टभू १८००संमिताम् । **अग्राज्यापमशङ्कुतद्धृतियुतिं वेत्त्यक्षभार्कौच त-
ज्योतिर्वित्कमलावबोधनविधौ वन्दे परं भास्करम् ॥ ४४॥
यत्र त्रिवर्गेण ९ मिता पलभा
तत्र त्रिनाडीप्रमितं चरं स्यात्।
यदा तदार्कं यदि वेत्सिविद्वन्
सांवत्सराणां प्रवरोऽसि नूनम् ॥ ४५ ॥
याम्योदक्समकोणभाः किल कृताः पूर्वैःपृथक्साधनै-
******र्यास्तद्दिग्विवरान्तरगता याः प्रच्छकेच्छावशात् । ******
ता एकानयनेन चानयति यो मन्ये तमन्य भुविः
ज्योतिर्विद्वदनारविन्दमुकुलप्रोल्लासने भास्करम् ॥ ४६ ॥
दृष्ट्वेष्टभांयोऽत्र दिगर्कवेदी
छायाद्वयं वा प्रविलोक्य दिग्ज्ञः।
वेत्त्यक्षमामुद्धतदैववेदि-
********दुर्दर्पसर्पप्रशमे स तार्क्ष्यः॥ ४७ ॥ ********
भाद्वयस्य भुजयोः समांशयो-
र्व्यस्त कर्णहृतयोर्यदन्तरम् ।
ऐक्यमन्यककुभोःपलप्रभा
जायते श्रुतिवियोगभाजितम् ॥ ४८ ॥
अक्षाभांतरणिं दिशो युगगतं मासं तिथिं वासरं
यः कूपोद्धृतवन्न वेत्ति महमा पृष्टो दिगर्कादिकम् ।
ब्रूहोत्याशु परैः कथं स कथयत्यस्योत्तरं वक्ति यो
वन्देतच्चरणावमुष्य गणकाः के वान सेवापराः ॥ ४९ ॥
वंशस्य मूलं प्रविलोक्य चाग्रं
********तत्स्वान्तरं तस्य समुच्छ्रयं च । ********
यो वेत्ति यष्ट्यैव करस्थयासौ
********धीयन्त्रवेदी वद किं न वेत्ति ॥ ५० ॥ ********
ऊर्द्धस्थस्य गृहादिभिर्व्यवहितस्याप्यग्रमात्रंसखे
********वंशस्य प्रगुणस्य यस्य सुगमे देशे समालोक्यते । ********
अत्रैव त्वमवस्थितो यदि वदस्यस्यान्तरं चोच्छ्रयं
मन्ये यन्त्रविदां वरिष्ठपदवीं यातोऽसि धीयन्त्रवित् ॥ ५१ ॥
दूरस्थस्य न दूरगस्य यदि वादृष्टस्य दृष्टस्य वा
********वंशस्य प्रतिबिम्बितस्य सलिले दृष्ट्वाग्रमात्रं सखे। ********
********अत्रैव त्वमवस्थितो यदि वदस्यस्यान्तरं चोच्छ्रयं ********
त्वां सर्वज्ञमतीन्द्रियज्ञमनुजव्याजेन मन्ये भुवि ॥ ५२ ॥
तिग्मांशुचन्द्रौकिल सायनांशी
चतुर्द्विराशी च विपातचन्द्रः ।
गृहाष्टकं तत्र वदाशु पातं
********धीवृद्धिदं त्वं यदि बोबुधीषिः॥ ५३ ॥ ********
युक्तायनांशोऽंशशतं शशीचे-
दशीतिरर्को द्विशतीविपातः ।
चन्द्रस्तदानीं वद पातमाशु
धीवृद्धिदं त्वं यदि बोबुधीषि ॥ ५४ ॥
असम्भवः सम्भवलक्षणेऽपि
स्यात् सम्भवोऽसम्भवलक्षणे किम् ।
पातस्य सिद्धान्तमिह प्रचक्ष्व
********चेत् क्रान्तिसाम्ये प्रमृता मतिस्ते ॥ ५५ ॥ ********
********भागोयुक्तं त्रिभ- । मर्कचन्द्रौ ********
********चेत् सायनांशौच विपातचन्द्रः । ********
भागद्वयोनो भगण- स्तदानीं
पातं वद त्वं यदि बोबुधीषि ॥ ५६ ॥
********यातेऽपि पाते क्वचिदेव्यलक्ष्म ********
********गम्ये न गम्यं वद चित्रमत्र । ********
यत् सम्भवासम्भववैपरीत्यं
सांवत्सराचार्य्य विचार्य्य नूनम् ॥ ५७ ॥
एते प्रश्रा व्याख्याता एव ।
इदानीं सिद्धान्तग्रथनकालमाह ।
रसगुणपूर्णमही१०३६ समशकनृपसमयेऽभवन्ममोत्पत्तिः।
रसगुण ३६ वर्षेण मया सिद्धान्तशिरोमणी रचितः ॥ ५८ ॥
******इदानीं विद्वज्जनानुनयादनौद्धत्यप्रतिपादनद्वारेणात्मनः **प्रागलभ्यं प्रार्थयन्नाह।
गणितस्कन्धसन्दर्भाऽदभ्रदर्भाग्रधीमतः ।
उचितोऽनुचितो यन्मेधार्ष्ट्यंतत् क्षम्यतां विदः ॥ ५८ ॥
गणितस्कन्धस्य सन्दर्भो नाम रचनाविशेषः। असावदभ्रदर्भाग्रधीमत एवोचितः । मूलप्रदेशादुपरि यानि पुष्टानि दीर्घाणि दर्भपत्राणि। असावदभ्रदर्भस्तस्याग्रंयथा तीक्ष्णं तथा यस्यमतिस्तीक्ष्णा । अभेद्यमपि प्रमेयं भित्त्वान्तः प्रविशति। तथाविधस्य गणितस्कन्धप्रबन्ध उचितः। अनुचितो मे तथापि कृतः। तद्धार्ष्ट्यंहे विद्वज्जना गणकास्तत् क्षम्यताम्।
इदानीमाद्यदूषणापराधं परिहरन्नाह।
******ये वृद्धा लघवोऽपि येऽत्र गणका बध्वाञ्जलिं वच्मि तान् ******
क्षन्तव्यं मम तैर्मया यदधुना पूर्वोक्तयो दूषिताः ।
कर्त्तव्ये स्फुटवासनाप्रकथने पूर्वोक्तिविश्वासिनां
तत्तद्दूषणमन्तरेण नितरां नास्ति प्रतीतिर्यतः ॥ ६० ॥
स्पष्टार्थम् ।
आसीत् सह्यकुलाचलाश्रितपुरे त्रैविद्यविद्वज्जने
नानासज्जनधाम्नि विज्जड़विड़े शाण्डिल्यगोत्रो द्विजः ।
********श्रौतस्मार्त्तविचारसारचतुगे निःशेषविद्यानिधिः ********
साधूनामवधिर्महेश्वरकृती दैवज्ञचूड़ामणिः ॥ ६१ ॥
तज्जस्तच्चरणारविन्दयुगलप्राप्तप्रसादः सुधी-
र्मुग्धोद्बोधकरं विदग्धगणकप्रीतिप्रदं प्रस्फुटम् ।
एतद्व्यक्तसदुक्तियुक्तिबहुलं हेलावगम्यं विदां
सिद्धान्तग्रथनं कुबुद्धिमथनं चक्रे कविर्भास्करः ॥ ६२ ॥
केचित् पिपठिषन्त्येनं प्रश्नाध्यायं हि केवलम् ।
तदर्थं लिखिता अत्र प्रश्नाः प्राग्गदिता अपि ॥ ६ ॥
प्रश्नानमून् प्रपठतो गणकस्य गोल-
कून्दोल्लसत्सरलयुक्तिशतप्रवालैः ।
प्रश्नोत्तरार्थपरिचिन्तनवारिसिक्त-
********मूलामला मतिलता समुपैति वृद्धिम् ॥ ६४ ॥ ********
********स्पष्टार्थम्। ********
इति श्रीमहेश्वरोपाध्यायसुतभास्कराचार्यविरचितेसिद्धान्तशिरोमणिवासनाभाष्ये मिताक्षरे गोलाध्यायः समाप्तः।
अत्र गोलाध्याये ग्रन्थसंख्या २१००।
__________
********आचार्याणां पदवीं ज्योत्पत्या ज्ञातया यतो याति । ********
विविधां विदग्धगणकप्रीत्यै तां भास्करो वक्ति॥ १ ॥
इष्टाङ्गुलव्यासदलेन वृत्तं
कार्य्यं दिगङ्कंभलवाङ्कितं च ।
ज्यासंख्ययाप्ता नवतेर्लवा ये
तदाद्यजीवाधनुरेतदेव ॥ २ ॥
**********द्वित्र्यादिनिघ्नं तदनन्तराणां **********
चापे तु दत्त्वोभयतो दिगङ्कात् ।
ज्ञेयं तदग्रहयबद्धरज्जो-
********रर्धंज्यकार्धं निखिलानि चैवम् ॥ ३ ॥ ********
अथान्यथा वा गणितेन वच्मि
**********ज्यार्धानि तान्येव परिस्फुटानि ।
त्रिज्याकृतिर्दोर्गुणवर्गहीना
मूलं तदीयं खलु कोटिजीवा ॥ ४ ॥ **********
दीःकोटिजीवारहिते त्रिभज्ये
**********तच्छेषके कोटिभुजोत्क्रमज्ये । **********
**********ज्याचापमध्ये खलु योऽत्रः बाणः **********
सैवोत्क्रमज्या मुधियात्र वेद्या ॥ ५॥
त्रिज्यार्धंराशिज्या तत्कोटिटिज्या च षष्टिभागानाम्।
**********त्रिज्यावर्गार्द्धपदंशरवेदांशज्यका भवति ॥ ६ ॥ **********
त्रिज्याकृतीषुघातात् त्रिज्याकृतिवर्गपञ्चघातकस्य ।
मूलोनादष्टहृतान्मूलं षट्त्रिंशदंशज्या ।
गजहयगजेषु ५८७८ निघ्नोत्रिभजीवा वायुतेन १००००संभक्ता ।
**********षट्त्रिंशदंशजीवा तत्कोटिज्याकृतेषूणाम् ॥ ८॥ **********
त्रिज्याकृतीषुधातान्मूलं त्रिज्योनितं चतुर्भक्तम् ।
अष्टादशभागानां जीवा स्पष्टा भवत्येवम् ॥ ९ ॥
क्रमोत्क्रमज्याकृतियोगमूलादू-
दलं तदर्धांशकशिञ्चिनी स्यात् ।
त्रिज्योत्क्रमज्यानिहतेर्दलस्य
मूलं तदर्धांशकशिञ्चिनो वा ॥ १० ॥
तस्याःपुनस्तद्दलभामकानां
कोटेश्च कोट्यंशदलस्य चैवम् ।
अन्यज्यकासाधनमुक्तमेवं
पूर्वैःप्रवक्ष्येऽथ विशिष्टमस्मात् ॥ ११ ॥
त्रिज्याभुजज्याहतिहीनयुक्ते
**********त्रिज्याकृती तद्दलयोः पदे स्तः ।
भुजोनयुक्तत्रिभखण्डयोर्ज्ये
कोटिं भुजज्यां परिकल्प्य चैवम् ॥ १२ ॥ **********
यद्दोर्ज्ययोरन्तरमिष्टयोर्यत्
**********कोटिज्ययोस्तत्कृतियोगमूलम् । **********
दलीकृतं स्याद्भुजयोवियोग-
खण्डस्य जीवैवमनेकधा वा ॥ १३ ॥
दोःकोटिजीवाविवरस्य वर्गो
दलीकृतस्तस्य पदेन तुल्या।
स्यात् कोटिबाह्वोर्विवरार्द्धजीवा
वक्ष्येऽथ मूलग्रहणं विनापि ॥ १४ ॥
दोर्ज्याकृतिासदलार्हभक्ता
लब्धत्रिमौर्व्योर्विवरेण तुल्या।
दोःकोटिभागान्तरशिञ्जिनीस्या-
ज्ज्यार्द्धानि वा कानिचिदेवमत्र॥ १५ ॥
खगोऽङ्गेषुषड़ंशेन ६५६९वर्जिता भुजशिञ्चिनी।
कोटिज्या दशभिः क्षुणात्रिसप्तेषु ५७३ विभाजिता ॥ १६ ॥
**********तदैक्यमग्रजीवा स्यादन्तरं पूर्वशिञ्जिनी। **********
प्रथमज्याभवेदेवं षष्टिरन्यास्ततस्ततः ॥ १७ ॥
व्यासार्धेऽष्टगुणाधाग्नितुल्ये स्युर्नतिर्ज्यकाः।
कोटिजीवा शताभ्यस्ता गोदस्रतिथि १५२९भाजिता ॥ १८ ॥
**********दोर्ज्यास्वाद्यङ्गवेदांश ४६७ हीना तद्योगसम्मिता। **********
तदग्रज्या तयोश्चापि विवरं पूर्वशिञ्जिनी॥ १९ ॥
तत्त्वदस्रानगांशोना २२४ । ५१ एवमत्राद्यशिञ्चिनी ।
ज्यापरस्परयैवं वा चतुर्विंशतिमौर्विकाः ॥ २० ॥
चापयोरिष्टयोर्दोर्ज्येमिथःकोटिज्यकाहते ।
त्रिज्याभक्ते तयोरैक्यं स्याच्चापैक्यस्य दोर्ज्यका ॥ २१ ॥
चापान्तरस्य जीवा स्यात् तयोरन्तरसंमिता ।
अन्यज्यासाधने सम्यगियं ज्याभावनोदिता ॥ २२ ॥
समासभावना चैका तथान्यान्तरभावना ।
**********आद्यज्याचापभागानां प्रतिभागज्यकाविधिः ॥ २३ ॥ **********
या जानुपाततः सेष्टव्यासार्धे परिणाम्यते ।
आद्यदोःकोटिजीवाभ्यामेवं कार्य्याततो मुहुः ॥ २४ ॥
भावनास्युस्तग्रज्याइष्टे व्यासदले स्फुटाः।
स्थूलं ज्यानयनं पाट्यमिह तन्नोदितं मया ॥ २५॥
इति ज्योत्पत्तिः।
__________
उक्ता संक्षेपतः पूर्वं ज्योत्पत्तिः सुगमा च सा।
सविशेषाधुना तत्रविशेषाद्विवृणोम्यतः ॥ १ ॥
तत्र तावदाचार्य्याणां पदवीमित्यादि श्लोकपञ्चकं सुगमम् । अत्र गणितेन ज्याज्ञानार्थं मूलभूतज्याचतुष्कसिद्धप्रकारमेवाह। तत्प्रकारो हि बीजगणिक्रियया। त्रिज्यार्द्धंराशिज्येत्यादि। त्रिज्यार्द्धेन १७१९तुल्या त्रिंश ३० दंशानां ज्या भवति । तस्याः कोटिज्याषष्टि ६० भागानाम्। त्रिज्यावर्गार्द्धपदं पञ्चचत्वारिंशदंशानां ४५ ज्याभवति ।
अथ त्रिज्यावर्गात् पञ्चगुणात् त्रिज्याकृतिवर्ग पञ्चघातस्य मूलेन हीनादष्ट ८ हृतात् पदं षट्त्रिंशदंशानां ज्या।
********अथवा गजहयगजेषु ५८७८ निघ्नो त्रिज्यायुतेन १०००० भक्ता षट्त्रिंशदंशानां ज्यास्यात् । इति गणितलाघवम् । तत् कोटिज्यार्थाच्चतुष्पञ्चाशदंशानां ज्या। ********
तथा त्रिज्यावर्गस्य पञ्चगुणस्य मूलं त्रिज्याहीनं चतुर्भक्तं सदष्टादशभागानां ज्या भवति। तत्कोटिज्यार्थात द्विसप्तति भागानाम्।
अत्रोऽन्यथासाधनमाह। क्रमोत्क्रमज्योत्यादि । कोटिज्योना त्रिज्या भुजस्योत्क्रमज्या स्यात् । भुजज्योना त्रिज्या कोट्युत्क्रमज्या स्यात्। भुजक्रमज्योत्क्रमज्ययोश्च वर्ग योगपददलं भुजांशानामर्द्धस्य ज्या स्यात्। अथवा त्रिज्योत्क्रमज्याघातदलस्य मूलं तदर्द्धांशकशिञ्चिनीस्यादिति क्रियालाघवम्।
एवमुत्पन्नज्यायाअपि कोटिज्या सा तत्कोटिभागानाम् । ततःपुनरेवमन्यास्तदर्द्धांशकज्याः साध्याः। कोटेश्चैवमन्याः । तद्यथा। यत्र चतुर्विंशत्रिज्यास्तत्र त्रिज्यार्द्धमष्टमं ज्यार्द्धम्। तत्कोटिज्या तु षोड़शम् । शरवेदांश ज्या द्वादशम् । अथाष्टमात् तदर्द्धांशप्रकारेण चतुर्थम् । ४ । तत्कोटिज्या विंशम्। २०। एवं चतुर्थात् द्वितीयं २ द्वाविंशं च २२ । द्वितीयादाद्यं १ त्रयोविंशं च २३ ।विंशतितमाद्दशमं १०चतुर्दशं च १४ । दशमात् पञ्चमं ५ एकोनविंशं च १९। द्वाविंशादेकादशं ११ ।त्रयोदशं च १३ । चतुर्दशात् सप्तमं ७ सप्तदशं च १७। अथ द्वादशात् षष्ठ ६ मष्टादशं च १८। षष्ठात् तृतीय ३ मेकविंशं च २१ । अष्टादशन्नवमं९ पञ्चदशं च १५ । त्रिज्या चतुर्विंशमिति। एवं किल पूर्वैरन्त्यज्यासाधनमुक्तम् ।
इदानीं विनाप्युतक्रमज्ययाभिनवप्रकारणाह। त्रिज्याभुजज्याहतीत्यादि। त्रिज्याभुजज्याघातेन त्रिज्याकृतिरेकत्रोनान्यत्र युता। द्वेचार्द्धिते। तयोर्मूले । आद्यं भुजोनखाङ्कांशानां दलस्य ज्या। द्वितीयं भुजाट्यखाङ्कांशानां दलस्य । एवमतोऽप्यन्याः। तद्यथा। अष्टमात् षोड़शं १६ ज्यार्द्धम् । षोड़शाच्चतुर्थं ४ विंशं च २० । चतुर्थाद्दशमं १० चतुर्दशं च १४। एवं सर्वाण्यपि।
प्रकारान्तरमाह। यद्दोर्ज्ययोरन्तरमित्यादि । इष्टदोर्ज्ययोयदन्तरं कोटिज्ययोश्च यत् तयोर्वर्गैक्यमूलस्य दलं भुजयोरन्तरार्द्धस्य ज्या भवति। एवमन्ययोरन्यान्याः । यथैका किल चतुर्थो ४ । अन्याष्टमी८ दोर्ज्या । ताभ्यां द्वितीया सिध्यति । द्वितीयाचतुर्थीभ्यां प्रथमेत्यादि।
तथा दोःकोटिज्यायोरन्तरवर्गदलस्य मूलं दोःकोटिभागान्तरार्द्धस्य ज्या स्यात् । यथाष्टमी ८ दोर्ज्या । षोड़शी१६ काटिज्या। ताभ्यां चतुर्थी ४ स्यादित्यादि।
अथ मूलग्रहणक्रियया विनापि दोःकोटिभागान्तरज्यानयनमाह। दोर्ज्याकृतिरित्यादि। दोर्ज्यावर्गस्त्रिज्यार्धेनभक्तः। तस्य त्रिज्यायाश्च विवरं दोःकोट्यन्तरस्य ज्यास्यात् । कानिचिदेवमत्रज्यार्धानि साध्यानि। तद्यथा । यत्र किल त्रिंशज्ज्यार्धानि तत्रत्रिज्यार्धं दशमम् । १० । तत्कोटिज्या विंशतितमम् । शरवेदांशज्यापञ्चदशम् । षट्त्रिंशज्ज्या द्वादशम्। तत्कोटिज्याष्टादशं ज्यार्धम् । अष्टादशभागानां ज्या षष्ठम् । ६ । तत्कोटिज्या चतुर्विंशमिति। क्रमोत्क्रमज्याकृतियोगमूलादित्यादिना पूर्वोक्तप्रकारेण दशमात् पञ्चमम् । तत्कोटिज्यपञ्चविंशम् । एवं द्वादशात् षष्ठं चतुर्विशं च । षष्ठात् तृतीयं सप्तविंशं च । अष्टादशान्नवममेकविंशं च । एतान्येवानन प्रकारेण सिध्यन्ति नान्यानि । अत उक्तं कानिचिदेवमत्रेति । तद्दोर्ज्ययोयोरन्तरमित्यादिप्रकारेण । अतोऽत्र पञ्चममेका दोर्ज्या ।नवममन्या । आभ्यां यद्दोर्ज्ययोरन्तरमित्यादि प्रकारेण । भुजयोरन्तरार्धस्य ज्योत्पद्यते । तच्च द्वितीयं ज्यार्धम् । तत्कोटिज्याष्टाविंशम् । आभ्यां क्रमोत्क्रमज्याकृतियोगमूलाद्दलमित्यादिप्रकारेणाद्यं चतुर्दशं च । एवमन्याश्चतुर्दश सिध्यन्ति।
अथ ज्याभावना। साच द्वेधा । एका समासभावना । अन्यान्तरभावना । तदर्थमाह । स्वगोङ्गेषुषडंशेनेत्यादि। यत्र किल वसुत्रिवेदाग्नि ३४३८ तुल्या त्रिज्या नवतिश्च ज्यार्धानि तत्र तावदुच्यते ।तत्र मूलभूतज्यानां मध्ये काचनेष्टा भुजज्या तत्कोटिज्या च पृथक् स्थाप्या । भुजज्या स्वनषषड़िषुरस ६५६९विभागेन रहिता कार्य्या । कोटिज्या तु दशगुणा त्रिसप्तपञ्चभिर्भाज्या। तयोरैक्यं तदग्रज्या । अन्तरं पूर्वज्या स्यात् । यथा त्रिज्यार्धं त्रिंशत्संख्याकं ज्यार्धम् ३० । ततः समासभावनयैकत्रिशत्संख्यम् । तस्मादुद्वात्रिंशत्संख्याभि-
त्यादि। अन्तरभावनया त्वेकोत्रिंशमष्टाविंशमित्यादि । पूर्णं दोर्ज्या कोटिर्ज्यां त्रिज्यां च प्रकल्प्यप्रथमं खण्डमेवं षष्टिः ६० स्यात्।
अथ यदि सैव त्रिज्या चतुर्विंशतिज्यार्धानि तदर्थमाह । कोटिजीवाशताभ्यस्तेत्यादि। अत्रापि त्रिज्यार्धष्टमं ज्यार्धं साभुजज्या । षोड़शं कोटिज्या सा कोटिज्या शतगुणा गोदस्रतिथि १५२९भाजिता । या तु दोर्ज्यासा तु निजेन सप्ताङ्गवेदांशेन हीना कार्य्या। यदि तयोरैक्यंक्रियते तदा नवमं ज्यार्धंभवति । यद्यन्तरं तदा सप्तमं स्यात् । एवं समासभावनया नवमाद्दशमं दशमादेकादशमित्यादि । तथान्तरभावनया सप्तमात् षष्ठं षष्ठात् पञ्चममित्यादि । एवं प्रथमं सप्तांशोनतत्त्वदस्रमितं भवति । अथवा पूर्णं दोर्ज्यांत्रिज्यां च कोटिज्यां प्रकल्प्य साध्यते तथापि तदेव। ततःसमासभावनया द्वितीयादीन्यखिलानि भवन्ति । अथवा त्रिज्यां दोर्ज्यांप्रकल्पा पूर्णकोटिज्यां च प्रकल्प्यसाध्यते तदा त्रयोविंशमुत्पद्यते तस्मादन्तरभावनया द्वाविंशम् । २२ । ततोऽप्येकविंशम् २१ ।एवमखिलान्यपि निष्पद्यन्ते ।
अथ भावनामाह । चापयोरिष्टयोरित्यादि । इष्टयोश्चापयोर्ये दोर्ज्येते कर्मभूमौ स्थाप्ये । तयोरधस्तात् कोटिज्ये च । ततः प्रथमकोटिज्या द्वितीयदोर्ज्यं या गुण्या। ततो द्वितीयकोटिज्या प्रथमदोज्या द्वितीयदोर्ज्ययागुण्या । द्वेअपि त्रिज्यया भाज्ये । फलयोः समासश्चापैक्यभुजस्य ज्या भवति । अन्तरं चापान्तरस्य ज्याभवति । इयं सिद्धज्यातोऽन्यज्यासाधने भावना। तद्यथा। तुल्यभावनया प्रथमज्यार्धस्य प्रथमज्यार्धेन सह समासभावनया द्वितीयं द्वितीयस्यद्वितीयेनैवं चतुर्थमित्यादि । अथातुल्यभावनया । द्वितीयतृतीययोः समासभावनया पञ्चमम् । अन्तरभावनया प्रथमं स्यादित्यादि।
अथेष्टव्यासार्धे ज्याज्ञानार्थमाह । आश्रज्याचापभागानामित्यादि । यावद्भिरंशैरेका ज्या लभ्यते त आद्यज्याचापांशाः। प्रतिभागज्यकाविधिरिति । त्रिसप्तपञ्चभि ५७३ र्मक्तेत्यादिना प्रागुक्तप्रकारेणैकभागस्य ज्यामानीय तद्भावनातो भागद्वयस्यैवं तेषां भागानां ज्या साध्या साभीष्टत्रिज्यया हृता वस्वनलाब्धिवह्निभि ३४३८ र्भक्ता प्रथमज्या स्यात् । तस्यास्तयैव सह भावनया द्वितीयाद्याःसिध्यन्ति । इति ज्योत्पत्तिवासना।
समाप्तोऽयं सिद्धान्तशिरोमणिर्वासनाभाष्यसहितः ।
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