प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय सिद्धान्तज्योतिष को परिभाषित करते हुये आचार्य भास्कर ने लिखा है कि जहाँ त्रुटि (काल की लघुतम इकाई) से लेकर प्रलयान्त काल तक की काल गणना की गई हो, कालमानों के सौर-सावन-नाक्षत्र आदि भेदों का निरूपण किया गया हो, ग्रहों की मार्ग वक्र-शीघ्र-मन्द आदि गतियो का निरूपण हो, अंक (पाटी) गणित, एवं बीजगणित दोनों गणित विधाओं का विवेचन किया गया हो, उत्तर सहित प्रश्नों का विवेचन हो. पृथ्वी की स्थिति, स्वरूप एवं गति का निरूपण हो, ग्रहों की कक्षा क्रम एवं वेधोपयोगी यन्त्रों का जहाँ वर्णन किया गया हो उसे सिद्धान्त ज्योतिष कहा गया है।' इस परिभाषा से ही व्यक्त होता रहा है कि सिद्धान्त का क्षेत्र कितना विस्तृत तथा प्रामाणिक है। यहाँ जो भी नियम या सिद्धान्त ग्रह गणना के लिए बनाये जाते है वे गणित और वेध द्वारा परीक्षण के बाद ही प्रकाश में लाये जाते हैं। आज की प्रमुख विडम्बना है कि ग्रन्थों का अध्ययन तो हो रहा है, किन्तु प्रयोग पक्ष (वेध) पूर्णतः उपेक्षित हो गया है। परिणामतः सिद्धान्तज्योतिष में कई शतकों से परिष्कार अवरुद्ध है। भारत का यह एक विशिष्ट विज्ञान स्थूल होता जा रहा है। _ सिद्धान्त के क्षेत्र में सर्व प्रथम ब्राह्म-वसिष्ठ-रोमक-पौलिश तथा सूर्य इन पाँच सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है, जिनका संकलन आचार्य वराहमिहिर ने ४२७ शक के आसन्न किया था। इनके अतिरिक्त मौलिक रचना के रूप में प्रथम की आर्यभटीयम् लगभग ४२१ शक में आयी। इस लघुकाय ग्रन्थ के आने से सिद्धान्त के क्षेत्र में एक नई दृष्टि का संचार हुआ। आर्यभट ने परम्परा से हटकर युग एवं मनु के मानों में परिवर्तन किया। ७१ महायुग के स्थान पर ७२ महायुगों का एक मन्वन्तर माना। इसी प्रकार पृथ्वी को स्थिर न मानकर उसे चल बतलाया। शक ५५० के आसन्न भिन्नमाल निवासी बाह्मसिद्धान्त को आधार माना किन्तु अति प्राचीन होने के कारण ब्राह्मसिद्धान्त को आधार माना किन्तु अति प्राचीन होने के कारण ब्राह्मसिद्धान्त के त्रुटियों को देखते हुये उसे यथावत स्वीकार न करते हुये उन्हें परिष्कृत सिद्धान्तज्योतिष ३७७ किया। प्रायः आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त इन्हीं दोनों आचार्यों की कृतियों को आधार मान कर परवर्ती आचार्यों ने अपने-अपने सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की। . सिद्धान्त ग्रन्थों में प्रायः एक साम्य देखा जाता है। सभी ग्रन्थों में मध्यमाधिकार, त्रिप्रश्नाधिकार, चन्द्रग्रहणाधिकार तक प्रायः साम्य रहता है। इसके बाद अध्यायों में भिन्नता रहती है। इन अधिकारों के नाम सार्थक हैं तथा विषयानुसार हैं। इसीलिए इन नामों को सभी आचार्यों ने स्वीकार किया। मध्यमाधिकार में सर्वप्रथम अहर्गण का साधन किया जाता है। सिद्धान्त ग्रन्थों के अहर्गण का साधन कल्पारम्भ से इष्ट दिन तक, तन्त्र ग्रन्थों में युगारम्भ से इष्ट काल तक, तथा करण ग्रन्थों में शकारम्भ से अभीष्ट काल पर्यन्त अहर्गण निकालने का विधान दिया गया है। अहर्गण ज्ञात होने पर अनुपात (त्रैराशिक) से मध्यम ग्रहों का साधन किया जाता है। अनन्तर स्पष्टाधिकार में मन्दफल-शीघ्रफल दोनों संस्कारों का साधन कर मध्यम ग्रह में संस्कार करने से इष्टकालिक स्पष्ट ग्रह होते हैं। त्रिप्रश्नाधिकार-इस अधिकार का नाम दिक्-देश और काल सम्बन्धी प्रश्नों के समाधान के कारण रखा गया है। इस अधिकार में सर्वप्रथम दिक् साधन की विधि बतलाई गई है। अनन्तर अक्षांश, देशान्तर साधन द्वारा किसी स्थान अथवा स्थान विशेष को ज्ञात करने की विधि दी गई है। स्थान का ज्ञान हो जाने पर वहाँ की पलभा ज्ञात कर उस स्थान के क्षितिज पर सभी राशियों के उदयमान का आनयन किया जाता है। उदयमान ज्ञान कर क्षितिजस्थ लग्न का साधन किया जाता है। लग्न-राशिचक्र के दैनिक भ्रमण काल ६० घटी में (२४ घण्टे) में राशिचक्र का प्रत्येक भाग स्थानीय क्षितिज को स्पर्श करता है। जिस समय क्षितिज पर जिस राशि के भाग का स्पर्श होगा उसके काल की वही लग्न होगी। पलभा-सायन मेष संक्राति के समय समतल धरातल पर द्वादश अंगुल शंकु की छाया अंगुलात्मक मान में स्थानीय पलभा होती है। - अक्षांश-स्थानीय क्षितिज से ध्रुवतारा की उन्नति कोणीय मान से अक्षांश तुल्य होती है। यह दूरी दोनों ध्रुवों एवं खमध्य में जाने वाली याम्योत्तर वृत्त में मापी जाती है। यह दक्षिणोत्तर अन्तर को व्यक्त करता है। _देशान्तर-दो स्थानों के पूर्वापर अन्तर को देशान्तर कहा जाता है। इसका मापन रेखादेश से किया जाता है। प्राचीन काल में रेखादेश लंका, उज्जैन, कुरुक्षेत्र आदि देशों से होता हुआ उत्तर में ध्रुव प्रदेश तक जाता था। नाड़ी वृत्त-ध्रुव स्थान से ६०° अंश पर स्थित वृत्त (आकाश के मध्य में पूर्व से पश्चिम जाने वाला वृत्त) नाड़ी वृत्त होता है। इसे काल वृत्त भी कहते है। इसी में काल गणना की जाती है। १. त्रुट्यादिप्रलयान्तकालकलना-मानप्रभेदः क्रमा च्चारश्च धुसदां द्विधा च गणितं प्रश्नास्तथा सोत्तराः। भूधिष्णग्रहसंस्थितेश्च कथनं यन्त्रादि यत्रोच्यते सिद्धान्तः स उदाहृतोऽत्र गणितस्कन्धप्रबन्धे बुधैः ।। (सिद्धान्तशिरोमणि, गणिताध्याय, श्लो. ६) २. अनुलोमगतिर्नोस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्। अचलानि भान्ति तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीयम्) सिद्धान्तज्योतिष ३७६ सिद्धान्त ज्योतिष में जिन आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान है उनका तथा उनकी कृतियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है आचार्य समय प्रमुख कृति आर्यभट शक ३६८ १. आर्यभटीयम् वराहमिहिर शक ४०७ १. पंचसिद्धान्तिका २. बृहत्संहिता ३. बृहज्जातक ४. योगयात्रा ५. लघुजातक ३७८ ज्योतिष-खण्ड कदम्ब-ध्रुव स्थान से स्थूल मान से २४० अंश की दूरी पर ध्रुव के चतुर्दिक भ्रमण करने वाला वृत्त कदम्ब वृत्त कहलाता है। __ क्रान्ति वृत्त-कदम्ब स्थान से ६०° अंश की दूरी पर क्रान्ति वृत्त होता है। यह कदम्ब के अनुसार २४ अंश तक उत्तर से दक्षिण तक चलता है। इसे राशि वृत्त भी कहते है। यह सूर्च के भ्रमण का पथ भी है।
- ग्रह कक्षा-भारतीय ज्योतिष में ग्रह कक्षा भूकेन्द्रिक बतलायी गई है। पृथ्वी के ऊपर चन्द्र-बुध-शुक्र-सूर्य-मंगल-गुरु तथा शनि की ऊर्ध्व-ऊर्ध्व क्रम से कक्षायें है। सभी ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में समान गति से समान योजन चलते हैं। जिनकी कक्षा का प्रमाण छोटा है वह शीघ्र ही अपनी कक्षा में भ्रमण पूर्ण कर लेते हैं तथा जिनकी कक्षा बृहद् है उनके भ्रमण काल में अधिक समय लगता है। इसलिए समान गति होने पर सभी ग्रह समान काल में भगण पूर्ति नहीं कर पाते। ग्रहों की कोणीय मान से गति भिन्न-भिन्न होती है। उसी को मध्यमगति के रूप में ग्रहण किया गया है। _चन्द्र ग्रहण-चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को सम्भव होता है। भूमि की छाया में प्रवष्टि होने से चन्द्रविम्ब अदृश्य हो जाता है। उसे ग्रहण कहते है। यह ग्रहण दो प्रकार का होता है-खण्ड ग्रहण, तथा खग्रास (पूर्णग्रहण)। सूर्य ग्रहण-अमावस्या को चन्द्र और सूर्य एक ही राशि पर होते है। अतः भूवासियों के लिए चन्द्रमा सूर्य विम्ब के लिए अवरोधक हो जाता है। इसलिए सूर्य विम्ब का कुछ भाग कुछ स्थानों से दृश्य नहीं होता। किन्तु वही भाग दूसरे स्थान से दीख सकता है। सूर्य ग्रहण तीन प्रकार का होता है-खण्ड ग्रहण, कंकण तथा खग्रास ग्रहण। पृथ्वी का ग्रहण-पृथ्वी का ग्रहण-अमावस्या को होता है। चन्द्रपिण्ड की छाया पृथ्वी पर पड़ती है। यह दृश्य किसी अन्य पिण्ड से देखने पर दिखलाई पड़ता है। जितना भाग छाया से आच्छादित होता है, पृथ्वी के उतने भाग का ग्रहण होता है। इन सब विषयों का विस्तृत विवेचन तथा इनके साधन की प्रक्रिया सिद्धान्त, तन्त्र एवं करण ग्रन्थों में दिखलाई गई है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर भारत में प्रचलित पच्चांगों का निर्माण होता है। इनके अतिरिक्त चन्द्रश्रृगोन्नति, ग्रहयुति एवं ग्रहों के उदयास्तादि का भी साधन किया जाता है। ब्रह्मगुप्त शक ५२० १. ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त लल्ल शक ५६० १. धीवृद्धिद तन्त्र मुजाल शक ८५४ १. लघुमानस भास्कराचार्य शक १०३६ १. सिद्धान्त शिरोमणि (लीलावती + बीजगणित, गणिताध्याय + गोलाध्याय) २. करण कुतूहल केशव शक १४१८ १. ग्रहकौतुक गणेश शक १४२० १. ग्रहलाघव २. बृहच्चिन्तामणि ३. लघुचिन्तामणि १. छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं भूमिभा छादकच्छाद्यमानैक्यखण्डं कुरु। तच्छरोनं भवेच्छन्त्रमेतद्यदा ग्राहृाहीनावशिष्टं तु खछन्नकम् ।। (ग्रहलाघवम्, चन्द्रग्रहणाधिकार, श्लो.५) अपि च-छादको भास्करस्येन्दुरधस्ताद् घनवाद् भवेत्। । भूच्छायां प्राङ्मुखश्चन्द्रो विशत्यस्य भवेदसौ।। (सूर्यसिद्धान्त, चन्द्रग्रहणाधिकार, श्लो. ६) २. किंचेन्दुविम्बस्य रविग्रहे या छाया पृथिव्यां पतितास्ति दृष्टा। तत्सम्मुखेन्दुस्थितदृग्वशाच्च बुधैः प्रकल्प्यं ग्रहणं पृथिव्याः ।। (सि.त.वि., सू.ग्र. २,३) मुनीश्वर शक १५२५ १. सिद्धान्त सार्वभौम ३८० ज्योतिष-खण्ड सिद्धान्तज्योतिष ३८१ कमलाकर शक १५३० १. सिद्धान्त तत्त्व विवेक लेखक जयसिंह शक १६१५ १. वेधशालाओं का निर्माण वापूदेव शास्त्री (नृसिंह) शक १७४३ १. रेखागणित २. त्रिकोणमिति १. प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी श्री लाल बहादुर शा.रा.सं. विद्यापीठ, ज्योतिष विभाग नई दिल्ली-१६ ६. प्रो. मोहन गुप्त कुलपति महर्षि पाणिनी सं. एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन वेंकटेश वाबू केतकर शक १७७५ १. केतकीग्रहगणितम् सुधाकर द्विवेदी शक १७८२ १. दीर्घवृत्तलक्षणम् २. भाभ्रमरेखानिरूपणम् ३. प्रतिभाबोधकम् ४. वास्तवचन्द्रश्रृङ्गोन्नति ५. विचित्रप्रश्नसभङ्गः ६. धुचरचार ७. गोलीय रेखागणित ८. गणकतरंगिणी। २. स्व. चौधरी श्री नारायण सिंह संस्थापक-राष्ट्रभाषा विद्यालय, रामनगर-वाराणसी ७. डा. रविशंकर भार्गव वरिष्ठ सहायक सम्पादक बापू दे शास्त्री पंचाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी ३. प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी श्री बिहारी लाल शर्मा प्रवक्ता ज्योतिष विभाग-श्री लाल बहादुर साताको कुराकानी … ४. डा. सच्चिदानन्द मिश्र अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू वि.वि., वाराणसी ८. डा. विनय कुमार पाण्डेय प्रवक्ता-ज्योतिष विभाग काशी हिन्दू विश्व विद्यालय वाराणसी ५. डा. पी.वी.वी. सुब्रहमण्यम् असि. प्रो., ज्योतिष विभाग, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, ६. डा. गिरिजा शंकर शास्त्री अध्यक्ष संस्कृत विभाग ईश्वर शरण डिग्री कालेज इलाहाबाद विश्व विद्यालय, इलाहाबाद भोपाल ३८२ ज्योतिष-खण्ड १०.डा. शत्रुध्न त्रिपाठी राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान श्री रणवीर परिसर, शास्त्री नगर जम्मू १३. प्रो. सर्व नारायण झा प्राचार्य, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान गंगानाथ झा परिसर, इलाहाबाद ११. डा. विनोद राव पाठक व्याख्याता, रणवीर संस्कृत महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्व विद्यालय वाराणसी १४.डा. अशोक थपलियाल – असि. प्रो. (ज्योतिष) राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, भोपाल १२.प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय पूर्व अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ३८, मानस नगर दुर्गाकुण्ड वाराणसी १५. श्री बिहारी लाल शर्मा प्रवक्ता, ज्योतिष विभाग श्रीलाल बहादुर शा. रा.सं. विद्यापीठ, दिल्ली सम्पादक प्रो.रामचन्द्रपाण्डेय BE संक्षिप्त परिचय : जन्म- ०३ जुलाई १६४१ ई० उच्च शिक्षा १६६५ में वा.संस्कृतविश्वविद्यालय, वाराणसी से सिद्धान्त ज्योतिष में दो स्वर्णपदक प्राप्त तथा १६७१ ई. में फलित ज्योतिष से प्रथम श्रेणी में आचार्य। १६६६ ई. में सं.स.वि.वि. वाराणसी से सिद्धान्त ज्योतिष में विद्यावारिधि (पी.एच.डी.)। शोधप्रबन्ध प्रकाशित। सेवा कार्य केन्द्रियसंस्कृतविद्यापीठ, जम्मू (राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थान, नई दिल्ली) के ज्योतिष विभाग में व्याख्याता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग में रीडर, प्रोफेसर, विभागाध्यक्ष तथा संकायप्रमुख। कृतियाँ सम्पादन विश्वपंचांग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी,काशिका ट्रिनीडाड पंचांग के प्रधान सम्पादक, नैसर्गिकी अर्धवार्षिक पत्रिका का सम्पादन ,१४ पुस्तक व ६० लेख प्रकाशित, वामनपुराण, कूर्म पुराण का संयुक्त प्रकाशन। सम्मान- पुरस्कार राष्ट्रपति सम्मान- संस्कृत, महामहिम राष्ट्रपति द्वारा। दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा वर्ष २०११ में भास्कराचार्य सम्मान; २०११ में महामहिम राष्ट्रपति द्वारा ब्रह्मर्षि सम्मान; २००७ में आर्यभट सम्मान-राजभवन, जयपुर, अ.भा.प्रा.ज्यो.संस्थान, जयपुर। २००६ में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का विशिष्ट सम्मान; वेद-ज्योतिष अनुसन्धान संस्थान, मोदीनगर, मेरठ से कणाद सम्मान अन्यकार्य ५५ राष्ट्रिय, १२ अन्ताराष्ट्रिय संगोष्ठियों में अध्यक्ष, मुख्यवक्ता, वक्ता के रुप में प्रतिभागिता ६ संगोष्ठियों का आयोजन, ३० छात्रों का शोधनिर्देशन- २५ शोध उपाधि प्राप्त। नैसर्गिक शोध संस्था की स्थापना। ज्योतिष प्रयोगशाला एवं लघु तारामण्डप की स्थापना। प्रायोगिक ज्योतिष . शिक्षण का प्रारम्भ, जम्मू, वाराणसी, जयपुर। सम्मानित पद पीठाध्यक्ष- सवाई जयसिंह ज्योतर्विज्ञान पीठ, ज.रा.राजस्थान संस्कृतविद्यालय, जयपुर, २००६-२००६ अध्यक्ष- सार्वभौम संस्कृत प्रचार संस्थान, वाराणसी। सचिव/प्रबन्धक- नैसर्गिक शोध संस्था, वाराणसी। अध्यक्ष- भारतीय वैज्ञानिकों की विश्वस्तरीय मान्यता प्रतिष्ठापन समिति। “संस्कृत वाङ्मय का बृहद इतिहास” के षोडश खण्ड ज्योतिष में त्रिस्कन्ध ज्योतिष के साथ-साथ वेद, वेदांग से लेकर ज्योतिष के आधुनिक आचार्यों तक का क्रमबद्ध इतिहास परक विकास प्रस्तुत किया गया है।
- इस खण्ड के तेईस अध्यायों में लेखकों ने भारतीय ज्योतिष की प्राचीनता, अरबी और भारतीय ज्योतिष, स्वरविद्या, वास्तुविद्या, सामुद्रिक शास्त्र सहित भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा आदि विषयों पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया है।
- प्रथम अध्याय में वेदांग ज्योतिष, द्वितीय अध्याय में वेद वेदांग एवं पुराणों में ज्योतिष, तृतीय अध्याय में भुवनकोश का निरुपण हुआ है। चतुर्थ एवं पंचम अध्यायों में क्रमशः स्वर विद्या तथा वास्तुविद्या का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया गया है। षष्ठ से एकादश अध्यायों में काल विज्ञान का क्रमिक वर्णन, ग्रहण, चन्द्र सूर्य पृथ्वी, भारतीय पंचांग, वराहमिहिर और पंचसिद्धान्तिका, दृग्गणित, वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा पर चिन्तन किया गया है। द्वादश अध्याय में अरबी एवं भारतीय ज्योतिष पर विद्वान् लेखक ने मथन किया है। त्रयोदश से पंचदश अध्यायों में आचार्य नीलकण्ठ और ज्ञानराज, म०म० बापूदेव शास्त्री तथा म०म० सुधाकर द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित कराया गया है। षोडश से अंतिम तेइसवें अध्याय तक में क्रमशः संहितास्कन्ध, सामुद्रिक शास्त्र का स्वरुप परम्परा एवं इतिहास, आर्यभट्ट प्रथम, भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य द्वितीय, होरा स्कन्ध विमर्श तथा सिद्धान्त ज्योतिष को स्थान दिया गया है। सम्पादक प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय और प्रधान सम्पादक प्रो. श्रीनिवास रथ की भमिका, नैवेद्यम एवं अस्मदीयम से अलंकत यह ज्योतिष खण्ड भारतीय विज्ञान विशेषकर ज्योतिष शास्त्र में अभिरुचि रखने वाले अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।