डॉ. अशोक थपलियाल अनेक रहस्यों से युक्त ज्योतिष शास्त्र महासमुद्र है। ब्रह्माण्ड के अनेक तत्त्वों रहस्योद्घाटन में प्रवृत्त ज्योतिषशास्त्र में ग्रह-नक्षत्र, धूमकेतु, उल्कापात आदि ज्योतिःपदार्थों के स्वरुप, गति, स्थित्यादि निरीक्षण करने पर ये तारे क्या वस्तु हैं? इनमें पूर्व की ओर गतिमान ज्योतिःपुंज क्या हैं? चन्द्र का स्वरुप प्रतिदिन क्यों बदलता रहता है? स्वच्छ पूर्णिमा की रात्रि को कभी चन्द्र धूमिल या कुछ देर के लिए अदृश्य सा क्यों हो जाता है? स्वच्छ दिन में कभी कभी सूर्य की प्रभा क्षीण क्यों पड़ जाती है? ऋतुओं का आवागमन का चक्र कैसे चलता है? इत्यादि क्या? क्यों? और कैसे? जैसे प्रश्नों ने उसे उद्वेलित किया। इन्हीं प्रश्नों के उत्तर जानने की चाह ने ज्योतिषशास्त्र की नींव रखी। हमारे ऋषि-महर्षियों एवं पूर्वाचार्यों ने भी ज्योतिःपदार्थों की गति-स्थित्यादि के अतिरिक्त आकाश में घटने वाली ग्रहण जैसी आश्चर्यजनक घटनाओं का भी सतत निरीक्षण करके द्वारा प्राणियों पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभाव का विश्लेषण कर ज्योतिषशास्त्र के मानक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। उनके द्वारा रचित ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्तरुपी अनमोल रत्न ज्योतिशास्त्र की अमूल्य धरोहर हैं। वैदिक दर्शन की अवधारणा पर आधारित ज्योतिशास्त्र वेदांग के नेत्र के रूप में प्रतिष्ठित है।’ वेदांग ज्योतिष में सभी वेदांगों में इसकी प्रधानता स्वीकार की गयी है। यथा होरा स्कन्ध विमर्श ३६६ . ज्योतिषशास्त्र के मुख्यतया सिद्धान्त, होरा एवं संहिता ये तीन स्कन्ध है।’ सिद्धान्त स्कन्ध गणितात्मक है। इसमें मुख्यतया ग्रहों की गति, स्थिति, दिग्देश एवं कालगणनाविषयकी विवेचना प्राप्त होती है। ग्रहों के प्रभाव का अध्ययन कर शुभाशुभफलनिरूपण होरा एंव संहिता का वर्ण्य विषय है। मुख्यतया काल को आधार बनाकर ही फलविवेचना के लिए जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति के अनुसार कुण्डली का निर्माण किया जाता है। जन्मकुण्डली के द्वादश भावों में स्थिति ग्रहों के परस्परसम्बन्धादि का विचार कर वैयक्तिकफल का विवेचन होरास्कन्ध में किया जाता है। समष्टिगतफल का विवेचन संहितास्कन्ध में प्राप्त होता है। संहितास्कन्ध में शकुन, वास्तुप्रभृति विषय भी आते हैं। इस प्रकार मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर उसे समुचित मार्गदर्शन देना ज्योतिषशास्त्र का मुख्य लक्ष्य है। पान
होरा स्कन्ध : अर्थ एवं प्रयोजन
मानव जीवन के सुख-दुःख, इष्टानिष्ट आदि सभी शुभाशुभविषयों का विवेचन करने वाले शास्त्र ही होराशास्त्र है। होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। अहोरात्र शब्द के प्रथम एवं अन्तिम अक्षर का लोप करने पर होरा शब्द निष्पन्न होता है। एक राशि में २ होराएं होती हैं। सम्पूर्ण अहोरोत्र में क्रान्तिवृत्तस्थ १२ राशियों का स्पर्श पूर्व क्षितिज में हो जाता है, जिस कारण १२ लग्न एक दिनरात में होते हैं। अतः १२ लग्नों की २४ होराएं होती है। वस्तुतः जन्मकुण्डली में लग्न का अत्यधिक महत्व है। साथ ही सूक्ष्म विवेचन हेतु होरा-कुण्डली का भी विचार किया जाता है। बृहज्जातक की होराभिप्रायनिर्णयटीका के अनुसार अहोरात्र का मेषादि राशि भेदों का अर्थात सप्तमांश, नवमांश, द्वादशांश, त्रिंशांशादियों का प्राणपर्यन्त होरा संज्ञा है। इसी आधार पर इसे होराशास्त्र के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। होराशास्त्र का दूसरा नाम जातकशास्त्र भी है। कि वैदिक दर्शन की पुनर्जन्म की अवधारणा के अनुसार मनुष्य निरन्तर शुभाशुभ कर्मों में निरत रहता है। ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ इस सूक्ति के अनुसार उसे यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्ववेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ।। _ ‘ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्’ ज्योतिषशास्त्र की इस व्युत्पत्ति के अनुसार सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहते हैं। वस्तुतः ग्रहनक्षत्रों की गतिविधि एवं प्रभाव के विषय में जो कुछ भी ज्ञान है वह सब ज्योतिष ही है। प्राणियों पर ग्रहादिकों के प्रभाव का अध्ययन कर उसके अनुसार शुभाशुभफलकथन ही ज्योतिष का मुख्योद्देश्य है। जैसा भास्कर ने भी कहा है “ज्योतिश्शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते।” १. ‘वेचचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषम्’। सि. शि. गणिताध्याय मध्य. कालमा. श्लो.११ २. आर्च ज्यो. श्लो. ३५ ३. भारतीय ज्योतिष-नेमिचन्द्र शास्त्री पृ. १७ ४. सिद्धान्त शिरोमणि गोलाध्याय गोलप्रशंसा ६ १. सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम् । वेदसस्य निर्मलं चक्षुर्योतिःशास्त्रममनुत्तम् ।। - नारद संहिता १/४ ज्योतिषशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितम् ।। बृहत्संहिता १/४ ज्योतिःशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितम्-बृहत्संहिता उपनयन, ६ २. त्रुट्यादिप्रलयान्तकालकलना मानप्रभेदः क्रमादित्यादि। सि. शि. गणिताध्याय मध्य. श्लो.६ किम ३. तत्कात्स्नोंपनयस्य नाम मुनिभिः संकीर्त्यते संहिता-बृहत्संहिता उपनयन. ६ ४. होरेत्यहोरात्रविकल्पमेके वांछन्ति पूर्वापरवर्णलोपात् १/३ जना ५. लग्न-‘यत्र लग्नमपण्डलं कुजे तद्गृहाद्यमिह उच्यते प्राचीति।’ सि. शि. गोला, त्रिप्रश्न. २६ ६. बृहज्जातक होराभिप्रायनिर्णयटीका, सम्पादन व अनुवाद-डॉ. वेदनारायण चौधरी, पृ. ८७होरा स्कन्ध विमर्श ३७१ ग्रहों की स्थिति एवं तदनुसार दशा इत्यादि के आधार पर शुभाशुभ फलकथन करना है। बृहत्संहिता के सांवत्सरसूत्राध्याय में होराशास्त्र के वर्ण्य विषय विशद रूप से वर्णित है।’
होरा स्कन्ध का उद्भव एवं विकास
भारतीय त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र की अवधारणा को वैदिककाल से ही अनुभव किया जा सकता है। वेद विश्व के प्राचीनतम साहित्य हैं। यद्यपि इनका वर्ण्य विषय ज्योतिष नहीं है परन्तु इनमें प्रसंगवश उपलब्ध व्यावहारिक ज्योतिषीय वर्णन तत्कालीन उत्कृष्ट ज्योतिषीयज्ञान का परिचायक है। ‘प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम्’ एवं ‘यादसे गणकम्’ जैसे मन्त्र उस समय के ज्योतिर्विदों के महत्व को द्योतित करते हैं। आचार्य शंकरबालकृष्ण दीक्षित के अनुसार तैतिरीयब्राह्मण से ज्योतिर्विद कुछ ऋषियों के नामों का वर्णन मिलता है। ज्यातिर्निबन्ध में नारद के मतानुसार ज्योतिश्शास्त्र के प्रवर्तक १८ ऋषियों के नाम प्राप्त होते हैं ३७० ज्योतिष-खण्ड कर्मों का फल अवश्य भोगना है परन्तु एक साथ ही या एक ही जन्म में समस्त कर्मों का फल मिलना सम्भव नहीं है। अतः उसे अनेक धारणा करने पड़ते हैं, जिसमें वह अपने कर्मों का फल भोगता है। इस प्रकार कर्मों के विपाक के तीन भेद बन जाते हैं-संचित प्रारब्ध एवं क्रियमाण। किसी भी प्राणी द्वारा वर्तमान क्षण तक किया समस्त कर्म, चाहे वह इस जन्म का हो अथवा पूर्व जन्मों का, संचित कर्म है। इसका फलविवेचन जन्मकुण्डली में योगायोगविचार से किया जाता है। जैसे-राजयोग, दरिद्रयोग आदि। अनेक जन्म-जन्मान्तरों के संचितकर्मों का फल एक साथ भोगना सम्भव नहीं है। अतः संचित कर्मों में से जितने कर्मों के फल का उपभोग को प्राणी पहले भोगना प्रारम्भ करता है वह प्रारब्ध या भाग्य कहलाता है। इसका विवेचन ज्योतिष में दशाविचार से होता है। जो कर्म अभी हो रहा है या किया जा रहा है, इसका विवेचन अष्टकवर्ग के आधार पर गोचर अथवा तात्कालिक ग्रहस्थित्यनुसार किया जाता है। इस प्रकार ज्योतिषशास्त्र का यह स्कन्ध जन्मकुण्डली की ग्रहस्थिति के आधार पर मनुष्य के द्वारा जन्म जन्मान्तरों में किए गए शुभाशुभ कर्मों के विपाक को जातक के शुभाशुभफल के रूप में प्रकाशित करता है।’ इसलिए आचार्य वराहमिहिर का कथन है कि यह शास्त्र मनुष्य के लिए उसी प्रकार पथनिर्देशन का कार्य करता है जैसे गहन अन्धकार में दीपक। अतः होराशास्त्र का प्रयोजन ग्रहनक्षेत्रों की गतिस्थित्यनुसार कुण्डली निर्माण कर जातक के जीवन में आने वाले सुख दुःखादि का अनुमान कर उसे अपने कर्तव्यों द्वारा अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रेरित करना है।
होरा स्कन्ध का वर्ण्यविषय
होरास्कन्ध में मुख्यतया ग्रह एवं राशियों का स्वरूपवर्णन, ग्रहों की दृष्टि उच्च-नीच, मित्रामित्र, बलाबल आदि का विचार, द्वादशभावों द्वारा विचारणीय विषय एवं उनमें स्थित ग्रहों का शुभाशुभ फलविवेचन, जातक का अरिष्टविचार, वियोनिजन्मविचार, राजयोग, प्रव्रज्यायोग, दरिद्रयोग आदि अनेकविध शुभाशुभ योगविचार, सूर्यकृत योग, चन्द्रकृत योग, नाभसयोग, आयुर्दायविचार, अष्टकवर्गविचार, होरा-सप्तमांशादि दशवर्ग साधन, ग्रहविशोपकादि बलसाधन, विंशोत्तरी आदि दशान्तर्दशादि का साधन, नक्षत्रादिजननफलविचार आदि विषय सम्मिलित हैं। वस्तुतः होराशास्त्र के विभिन्न मानकग्रन्थों में एक समान रूप से उपर्युक्त सभी विषय न होकर न्यूनाधिक रूप में प्राप्त होते हैं। वर्ण्यविषय में न्यूनाधिकत्व होते हुए भी सभी का मुख्य उद्देश्य व्यष्टिगत फलविवेचन अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का जन्मकालीन ब्रह्माचार्यो वशिष्ठोऽत्रिर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरंगिरा व्यासो नारदः शौनको भृगुः।। च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिःशास्त्रप्रयोजकाः।। _ कश्यप संहिता में वर्णित १८ प्रवर्तकों के नामों में उपर्युक्त ‘आचार्य’ के स्थान पर ‘सूर्य’, ‘रोमश’ के स्थान पर ‘लोमश’ तथा ‘पौलस्त्य’ के स्थान पर ‘पौलिश’ नामभेद मिलता है। आचार्य सुधाकरद्विवेदी ने १६ ज्योतिश्शास्त्र के प्रवर्तकों का उल्लेख गणकतरंगिणी में किया है विश्वसृङ्नारदो व्यासो वशिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशे यवनः सूर्यो च्यवनः कश्यपो भृगुः।। पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽड्रिंगरा। गर्गो मरीचिरित्येते ज्योतिःशास्त्र प्रवर्तकाः।। उपर्युक्त १८ या १६ ज्योतिश्शास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों में प्रायः वैदिक ऋषियों के नाम सम्मिलित हैं। ये सभी आचार्य त्रिस्कन्धज्योतिर्विद थे। इनमें से कुछ आचार्यों के ग्रन्थ आज १. कमौर्जितं पूर्वभवे सदादि यत्तस्य पक्तिं समभिव्यनक्ति। बृहज्जातक १/३ यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः पंक्तिम् । २. व्यंजयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव ।। लघुजातक १/३ १. बृहत्संहिता सांवत्सरसूत्राध्याय १७-१८ २. वाजसनेयी संहिता ३०/१० एवं ३०/२० ३. गणकतरंगिणी पृ. १ ३७२ ज्योतिष-खण्ड भी प्राप्य है। यथा-महर्षिपराशर कृत ‘बृहत्पाराशर होराशास्त्र’, नारदकृत ‘नारद संहिता’ एवं ‘नारदीय ज्योतिषम्’, ‘कश्यपसंहिता’, ‘वसिष्ठसंहिता’, ‘भृगुसंहिता’, ‘गर्गसंहिता’, ‘सूर्यसिद्धान्त’ इत्यादि, परन्तु इनमें आश्चर्यजनकरूप से ‘वेदांगज्योतिष’ के प्रणेता लगधमुनि का नाम नहीं है। अस्तु! इस प्रकार त्रिस्कन्धज्योतिषशास्त्र की प्राचीन वैदिक परम्परा अभिलक्षित होती है परन्तु यह परम्परा प्रायः आचार्य वराहमिहिर से पूर्व खण्डित एवं लुप्तप्राय अनुभूत होती है। यवनों ने भारतीय ज्योतिष के साथ अपनी पद्धति का समन्वय कर एक नयी पद्धति ‘ताजिकशास्त्र’ को प्रस्तुत किया, जिसमें जातकपद्धति के समान ही वर्षप्रवेशलग्न के आधार पर वर्षभर का शुभाशुभ फल विवेचित किया जाता है। आचार्य वराहमिहिर ने यवनों के ज्योतिष ज्ञान की प्रशंसा में कहा है- पर म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम्। ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैवविद्द्विजः।।’ जः।। वराहमिहिर एवं उनके पश्चाद्वर्ती जातकशास्त्र के मानकग्रन्थों में यवनों का प्रभाव स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है। नधि का जीविका
होराशास्त्र के प्रमुख आचार्य एवं ग्रन्थ
होरास्कन्ध पर ऋषि जैमिनी कृत ‘जैमिनी सूत्रम्’ ग्रन्थ है जो अपने सूत्रपद्धति के द्वारा फलकथन हेतु प्रसिद्ध है। पराशरमुनि कृत ‘बृहत्पाराशरहोराशास्त्र’ को होरास्कन्ध का सम्पूर्ण ज्ञान कराने वाला ग्रन्थ कहा जा सकता है। इनका ‘लघुपाराशरी’ नामक अन्य ग्रन्थ भी समुपलब्ध है। आचार्यवराहमिहिर (प्रायः पांचवी शती शककाल) रचित ‘बृहज्जातकम्’ एवं ‘लघुजातकम्’ अप्रतिम ग्रन्थ हैं। बृहज्जातक को होराशास्त्र का प्रतिनिधिभूत ग्रन्थ कहा जा सकता है, जिस पर भट्टोत्पल (नवीं शताब्दी शककाल) द्वारा की गई टीका अत्यन्त उत्कृष्ट है। इनके ग्रन्थों में मय, यवन, शक्ति, जीवशर्मा, मणित्थ, विष्णगुप्त देवस्वामी, सिद्धसेन, सत्याचार्य आदि पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। आचार्य कल्याणवर्मा कृत ‘सारावली’ (५५७ ई.), आचार्यवराहमिहिर के पुत्र पृथुयशा कृत षट्पंचाशिका, चन्द्रसेन कृत केवलज्ञानहोरा, श्रीपति विरचित श्रीपतिपद्धति, रत्नावली, रत्नामाला एवं रत्नसार, बल्लालसेन रचित अद्भुतसागर, पद्मसूरि कृत भुवनदीपक, नरचन्द्र कृत बेडाजातकवृत्तिः, प्रश्नशतक, ज्योतिषप्रकाश आदि ग्रन्थ, केशव रचित जातकपद्धति, ताजिकपद्धति आदि ग्रन्थ, ढुण्डिराज विरचित जातकाभरण, वैद्यनाथ कृत जातक पारिजात, नीलकण्ठ रचित ताजिकनीलकण्ठी, महिमोदय कृत ज्योतिषरत्नाकर, गणेश कृत जातकालंकर इत्यादि होरा स्कन्ध विमर्श ३७३ होराशास्त्र में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त भी फलितज्योतिष के कई प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं जिन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार नवीन प्रकार से ग्रन्थों की रचना की।
होरास्कन्ध की आवश्यकता एवं लोकोपयोगिता
म कुछ विद्वानों का कथन है कि जब पूर्वजन्मार्जित शुभाशुभकर्मों के फल की प्राप्ति अवश्यम्भावी है तो उसका ज्ञान कराने वाले होरास्कन्ध की क्या आवश्यकता है? क्योंकि जो होना है, वह तो होकर ही रहता है। परन्तु ऐसा नहीं है। सम्पूर्ण रूप से भाग्य के भरोसे बैठकर ही यदि कृषक खेती करना छोड़ दे तो अन्नादि की उत्पत्ति कैसे होगी? नीति वचनों में भी कहा गया है- ‘नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।’ होराशास्त्र तो कर्मप्रधान शास्त्र है जो पूर्वजन्मार्जित कर्मों के फल को क्रियमाण कर्म के द्वारा न्यूनाधिक करने में विश्वास रखता है। कुछ विद्वानों का कथन है कि यदि होराशास्त्र के द्वारा कर्मविपाक को न्यूनाधिक किया जा सकता है तो श्री राम, युधिष्ठिर जैसे शक्तिमान एवं सामर्थ्यशाली व्यक्तियों को दुःख नहीं भोगना पड़ता? अथवा होराशास्त्र के द्वारा भविष्यफल जानकर किसी को भी कभी दुःख नहीं उठाना पड़ेगा। यहाँ कर्मों की विचित्रता को ध्यान में रखना होगा। कुछ कर्म दृढ़ या स्थिर होते हैं तथा कुछ शिथिलमूलक या उत्पातसंज्ञक। जैसा कि वृद्धयवन में कहा गया है यद्यद्विधानं नियतं प्रजानां ग्रहह्मयोगप्रभवं प्रसूतौ। भाग्यानि तानीत्यभिशब्दयन्ति वार्ता नियोगेति दशा नराणाम्।। तदर्थविज्ञैर्द्विविधं निरुक्तं स्थिराख्यमौत्पात्तिकसंज्ञकं च। मालामाल कालक्रमाज्जातकनिश्चितं यत् कर्मोपसर्पिस्थिरमुच्यते तत्।। सप्तग्रहाणां प्रथितानि यानि स्थानानि जन्मप्रभवानि सद्भिः। . तेभ्यः फलं चारग्रहाः क्रमस्था दधुर्यदौत्पातिकसंचितं तत्।।’ अतः जहाँ पर जन्मपत्रिकादि से दशाफलकालक्रमद्वारा रोगसम्भावना या अरिष्ट सम्भावना है, अथवा जब सन्तान, विद्या, धनादि का अभाव होने के कारण प्रगट होता है वहाँ ग्रहशान्ति, मणिधारण, मंत्रजाप, दान, औषधिधारण आदि उपचारों से प्रतिबन्धक योगों को शिथिल करने का प्रयास किया जा सकता है। जिस प्रकार दृढमूलवृक्ष भी प्रबल झंझावात से हिलकर जीर्ण या कमजोर हो जाता है उसी प्रकार दृढ़कर्मों का अशुभ फल भी कम तो अवश्य किया जा सकता है। इसीलिए सूक्ति है- ‘हन्यते दुर्बलं दैवं पौरुषेण विपश्चिता’ । शुभाशुभफलप्रद भाग्य कब फलीभूत होगा? आपना पूर्ण फल देगा अथवा कुछ कम? इत्यादि १. बृहत्संहिता सांवत्सरसूत्रा. ३० २. भारतीय ज्योतिष-नेमचिन्द्र शास्त्री, पृ. ६५ १. वृद्धयवनजातक, संग्रहाध्याय १-३ २. होरारत्न, ११-१२ होरा स्कन्ध विमर्श ३७५ ३७४ ज्योतिष-खण्ड का ज्ञान भी होराशास्त्र से ही सम्भावित है। यह शास्त्र शुभाशुभफलविपाक को जन्मकुण्डलजी के लग्नादिद्वादशभावों में स्थित स्वोच्च मूल, त्रिकोण, स्वगृह, मित्रगृहादि शुभस्थानों अथवा शत्रुगृह, नीचगृह, अस्तादि अशुभ स्थानों या स्थितियों में स्थित नवग्रहो के परस्पर शुभाशुभ सम्बन्धों के आधार पर दशान्तर्दशादि के माध्यम से दिन, पक्ष, मास, वर्षादि के रूप में सूचित करता है। इसके आधार पर शुभाशुभफलविपाक समय में मनुष्य यथासम्भव जागरूक होकर मणि, मंत्र, औषधि आदि उपायों से अशुभफल को न्यून तथा शुभ ग्रह के बल में वृद्धि करके सत्फल प्राप्त कर सकता है। इसीलिए कल्याणवर्मा का दैवज्ञों के लिए निर्देश है कि शुभाशुभकर्मों का फल उसे वर्तमान जीवन में कब, कहाँ और किस रूप में प्राप्त होगा, इत्यादि समस्त जिज्ञासाओं का उत्तर जानने का एकमात्र उपकरण होराशास्त्र है। इसका मुख्यकार्य ग्रहनक्षत्रों की गतिस्थित्यनुसार कुण्डली निर्माण कर जातक के जीवन में आने वाले सुख दुःखदि का अनुमान कर उसे अपने कर्तव्यों द्वारा अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रेरित करना है। _ यही प्रेरणा मानव के लिए दुःखविघातक एवं पुरुषार्थसाधक होती है। विधात्रा लिखिता यस्य ललाटेऽक्षरमालिका। दैवज्ञास्तां पठेत् प्राज्ञः होरानिर्मलचक्षुषा।।’ होराशास्त्र के ज्ञान से मनुष्य भावी सुख-दुःखादि का ज्ञान कर अपने पौरुष से उसे अनकूल बना सकता है। यह शास्त्र मनोवैज्ञानिक रूप से उसे दुःखादि अशुभ परिस्थितियों को झेलने में सम्बल प्रदान करता है। इस प्रकार प्राणीमात्र पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभाव का अध्ययन कर फलकथन करना एवं मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर उसे समुचित मार्गदर्शन देना ही होराशास्त्र की लोकोपयोगिता सिद्ध करता है। यह शास्त्र रोग के साध्यासाध्यत्वादि का निर्णय करके एवं उसके सम्भावित काल का अनुमान प्रस्तुत कर आयुर्वेद की महान सहायता करता है। इसी प्रकार जातक की अभिरुचि, दक्षता, स्वभावादि का विश्लेषण करके उसे भावी जीवन में अपने कार्यक्षेत्र का चुनाव करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। अतः जातकशास्त्र की लोकोपयोगिता को द्योतित करते हुए आचार्य कल्याणवर्मा का कथन है अर्थार्जने सहायः पुरुषाणामापदणवे पोतः। यात्रासमये मन्त्री जातकमपहाय नास्त्यपरः।। भारतीय वैदिक दर्शन में ‘कर्मवाद’ का महत्वपूर्ण स्थान है। जिसके अनुसार संसार में प्राणी अनवरत कर्म में ही निरत रहता है। वह चाह कर भी इससे अलग नहीं हो सकता है। कर्म करने पर उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। आत्मा अजर एवं अमर है परन्तु कर्मबन्धन के फलस्वरूप उसे पुनर्जन्म लेना पड़ता है। कर्मबन्धन से मुक्ति केवल तभी मिल सकती है जब मनुष्य को आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान हो जाता है। प्राणी के १. सारावली २/१ २. सारावली होराशब्दनिरूपणाध्याय ५