प्रो. सर्वनारायण झा भास्कराचार्य द्वितीय सिद्धान्तज्योतिष के अत्यन्त उच्च कोटि के विद्वान हुए हैं। सम्पूर्ण विश्व में इनकी ख्याति रही है। इनके द्वारा रचित सिद्धान्त शिरोमणि एवं करण कुतूहल सर्वत्र प्रसिद्ध है। सिद्धान्त शिरोमणि के चार भाग हैं। १. लीलावती (पाटीगणित), २. बीजगणित ३. गोलाध्याय एवं ४. गणिताध्याय। विभिन्न स्थानों पर प्राप्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि भास्कर द्वितीय की कुछ और भी कृतियाँ रहीं होगी । जिनमें विवाहपटल, भास्कर-व्यवहार और सर्वतोभद्रयन्त्र का तो उल्लेख भी प्राप्त होता है। सिद्धान्त शिरोमणि सिद्धान्तग्रन्थ’ है और करणकुतूहल करणग्रन्थ आचार्य भास्कर का जन्म शक संवत् १०३६२ में यजुर्वेदीय माध्यन्दिनशाखाध्यायी शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मणकुल में सहयपर्वत के पास विज्जडविड् नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महेश्वर था। वे उनके गुरु भी थे। अकबर ने शके १५०६ में भास्कराचार्य के लीलावती का परशियन भाषा में अनुवाद करवाया था। उस अनुवादक का मत है कि भास्कराचार्य द्वितीय का जन्म बेदर में हुआ था। बेदर सोलापूर से लगभग १५० कि०मी० पूर्व मोगलई में है। वह स्थान सहय पर्वत के पास नहीं है। मोगलई में बेदर से लगभग पचास कि०मी० पश्चिम में कल्याण नाम का एक प्रसिद्ध शहर है। भास्कराचार्य के काल में वहाँ चालुक्य वंश का राज्य था। इतने पास में रहकर भी उस राज्य के साथ भास्कराचार्य जैसे विद्वान् का सम्बन्ध नहीं रहना अस्वाभाविक सा लगता है। चंगदेव के शिलालेख के ‘जैत्रपालेन यो नीतः५ वाक्य से पता चलता है कि भास्कराचाय के पुत्र लक्ष्मीधर को राजा जैत्रपाल ने पाटणपुर से बुलवाया था। पाटणपुर गाँव यादवों की राजधानी देवगिरि के पास ही है और सहयपर्वत की एक शाखा चाँदबड़ की पहाड़ी से लगी है। बहाल नामक गाँव जहाँ भास्कर के वंशज अनन्तदेव का बनवाया हुआ मन्दिर है, वह भी पाटण के पास लगभग तीस कि०मी० पर है। उसके पास १. त्रुट्यादिप्रलयान्तकालकलना मानप्रभेद: क्रमाच्चारश्च धुसदां द्विधा च गणितं प्रश्नास्तथा सोत्तराः। भूधिष्ण्यग्रहसंस्थितेश्च कथनं यन्त्रादि यत्रोच्यते सिद्धान्तः स उदाहृतोऽत्र गणितस्कन्धप्रबन्धे बुधैः ।। रसगुणपूर्णमही (१०३६) समशकनृपसमये ऽभवन्ममोत्पत्तिः। (सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय, प्रश्नाध्याय, श्लो० सं० ५८ पूर्वार्द्ध) आसीत् सह्यकुलाचलाश्रितपुरे त्रैविद्यविद्वज्जने नाना सज्जनधाम्नि विज्जडविडे शाण्डिल्यगोत्रो द्विजः । श्रौतस्मार्तविचारसारचतुरो निःशेषविद्यानिधिः साधूनामवधिर्महेश्वरकृती दैवज्ञचूडामणिः ।। तज्जस्तच्चरणारविन्दयुगलप्राप्तप्रसादः सुधीः (सिद्धान्तशिरोमणि, गोला, प्रश्ना, श्लो, ६१-६४) ४. पॉट्स अल्जेब्रा (१८८६) भाग-२। 5. चंगदेव का शिलालेख श्लो० सं० २२ (एपिग्राफिका इण्डिका, ग्र. १, पृष्ठ-३४०) भास्कराचार्य-द्वितीय ३४६ ३४८ ज्योतिष-खण्ड ही विज्जड़विड़ जैसा गाँव था। इस समय इसकी प्रसिद्धि नहीं है। संभवतः यही भास्कराचार्य का गाँव रहा हो।
वंश परम्परा
खानदेश में चालीस गाँव लगभग पन्द्रह कि०मी० दूर नैर्ऋत्य दिशा में पाटण नामक एक उजाड़ गाँव हैं। वहाँ भवानी मन्दिर में एक शिलालेख प्राप्त हुआ था। शिलालेख में इस . प्रसङ्ग से सम्बद्ध कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं। शाण्डिल्यवंशे कविचक्रवर्ती त्रिविक्रमोऽभूत्तनयोऽस्य जातः। यो भोजराजेन कृताभिधानो विद्यापतिर्भास्करभट्टनामा।।१७।। तस्मात् गोविन्दसर्वज्ञो जातो गोविन्दसन्निभः। प्रभाकरः सुतस्तस्मात् प्रभाकर इवापरः।।१८।। तस्मान्मनोरथो जातः सतां पूर्णमनोरथः। श्रीमन्महेश्वराचार्यस्ततोऽजनि कवीश्वरः।। १६।। तत्सूनुः कविवृन्दवन्दितपदः सद्वेदविद्यालता कन्दः कंसरिपुप्रसादितपदः सर्वज्ञविद्यासदः। यच्छिष्यैः सह कोऽपि नो विवदितुं दक्षो विवादी क्वचि च्छ्रीमान् भास्करकोविदः समभवत् सत्कीर्तिपुण्यान्वितः।।२०।। लक्ष्मीधराख्योऽखिलसूरिमुख्यो वेदार्थवित् तार्किकचक्रवर्ती। क्रतुक्रियाकाण्डविचारसारविशारदो भास्करनन्दनोऽभूत् ।। २१।। सर्व-शास्त्रार्थदक्षोऽयमिति मत्वा पुरादतः। जैत्रपालेन यो नीतः कृतश्च विबुधाग्रणीः ।।२२।। तस्मात् सुतः सिंघणचक्रवर्तिदैवज्ञवर्योऽजनि चंगदेवः। श्रीभास्कराचार्यनिबद्धशास्त्रविस्तारहेतोः कुरुते मठं यः।।२३।। भास्कररचितग्रन्थाः सिद्धान्तशिरोमणिप्रमुखाः। तद्वंशकृताश्चान्ये व्याख्येया मन्मठे नियमात् ।।२४।। शिलालेख के उपरिलिखित अंशों से दो प्रमुख बिन्दु स्पष्ट होते हैं। १. भास्कराचार्य के पौत्र चंगदेव यादववंशीय सिंघण राजा के ज्योतिषी थे। इस सिंघण राजा का राज्य देवगिरि में शके ११३२ से ११५६ तक था। भास्कराचार्य के पौत्र चंगदेव ने सिद्धान्त शिरोमणि आदि प्रमुख ग्रन्थों और उनके वंश के अन्य विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों के अध्यापन हेतु पाटण में एक मठ स्थापित किया था। राजा’ सिंघण के माण्डलिक निकुंभवंशीय सोइदेव ने शके ११२६ में उस मठ के लिए कुछ सम्पत्ति दान के रूप में दी थी। सोइदेव के भाई हेमाड़ी ने भी कुछ सम्पत्ति दान में दी थी। डॉ० शंकरबालकृष्ण दीक्षित जी का कहना है कि उनके समय में भी वह मठ तो नहीं था किन्तु मठ का चिह्न मात्र अवशेष था। उक्त शिलालेख से भास्कराचार्य के वंशावली का ज्ञान होता हैं। भास्कराचार्य की वंशावली त्रिविक्रम छठवें पूर्व पुरुष भास्करभट्ट पांचवें पुरुष गोविन्द चौथे पुरुष प्रभाकर प्रपितामह मनोरथ पितामह महेश्वर पिता भास्कर लक्ष्मीधर (पुत्र) चंगदेव (पौत्र) शिलालेख के आधार पर ऊपर लिखित वंशावली में भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर है और इनका गोत्र शाण्डिल्य है। भास्कर ने स्वयं भी सिद्धान्त शिरोमणि में पिता का नाम महेश्वर और गोत्र शाण्डिल्य लिखा है। वंशावली में भास्कर के पंचम पूर्वपुरुष का नाम भास्करभट्ट हैं। भास्करभट्ट को भोजराज का विद्यापति कहा गया है जिन्होंने राजमृगाक की रचना की थी। । जैसा कि बताया जा चुका है कि आचार्य भास्कर का जन्म शक सं० १०३६ में हुआ था। इनके पाँचवे पूर्व पुरुष भास्करभट्ट (भोजराज का विद्यापति) द्वारा राजमृगाङ्क की रचना शके ६६४ में होना संभव प्रतीत होता है। भास्कराचार्य की तरह यदि ग्रन्थ रचना ३५ वर्ष की उम्र के आस-पास की होगी तो उनका जन्म शके ६३० के आस-पास माना जा सकता है। तदनुसार भास्कर भट्ट और भास्कराचार्य में लगभग १०० वर्षों का अन्तर स्वाभाविक प्रतीत होता हैं। १. (क) जर्नल आफ आर.एम.एस.एन.एस., ग्रन्थ-१, पृष्ठ-४१४ (ख) एपिग्राफिका इण्डिका, ग्रन्थ-१, पृष्ठ-३४०। (ग) भारतीयज्योतिष, पृष्ठ ३४३, शंकरवालकृष्ण दीक्षित, हिन्दी अनुवाद-श्री शिवनाथ झारखण्डी, प्रका. उ० प्र० हिन्दी संस्थान, लखनऊ, वर्ष-१६६०, द्वितीय संस्करण। १. हेमाड़ी और सोइदेव द्वारा मठ के लिए सम्पत्ति दिए जाने की बात का ज्ञान शिलालेख के अन्य अंशों से हुआ होगा। क्योंकि उद्धृत अंश में यह प्रसंग नहीं हैं। शिलालेख का पता सर्वप्रथम कैलासवासी डॉ० भाऊदाजी ने लगाया था। जर्नल, आर.ए.एस.ए.एस. ग्रन्थ-१, पृ.-४१४ में प्रकाशित। ३. सिद्धान्त शिरोमणि, गोलाध्याय, प्रश्ना, श्लो, ६१।३५१ ज्योतिष-खण्ड शिलालेख में अङ्कित है कि राजा जैत्रपाल ने सिद्धान्त शिरोमणिकार भास्कराचार्य के पुत्र लक्ष्मीधर को लाकर अपनी सभा में रखा था। लक्ष्मीधर का पुत्र (भास्कर का पौत्र) चंगदेव सिंघण चक्रवर्ती का ज्योतिषी था। यादववंशीय राजा जैत्रपाल का राज्य देवगिरि में शके १११३ से ११३२ तक था और उनके पुत्र सिंघण का ११३२ से ११६६ तक था।’ वंशावली और इतिहास के मध्य विसंगति नहीं दिख रही हैं। _ खानदेश में ही चालीसगाँव से १५ कि० मी० उत्तर की ओर गिरण के नजदीक बहाल नाम का एक गाँव है। वहाँ सारजा देवी का मन्दिर है। उसमें एक शिलालेख पाया गया था जिसमें लिखा है कि शाण्डिल्यगोत्रीय मनोरथ के पुत्र महेश्वर हुए और उनके पुत्र श्रीपति। श्रीपति के पुत्र गणपति और गणपति के पुत्र अनन्तदेव हुए। ये यादववंशीय सिंघण राजा के दरबार में प्रधान ज्योतिषी थे। यहाँ भी मनोरथ के पुत्र महेश्वर थे ऐसा प्रमाण मिलता है। शिलालेख में लिखा है कि अनन्तदेव ने ११४४ में द्वारजा देवी का मन्दिर बनवाया। यह शिलालेख भी उन्हीं का बनवाया हुआ है। मनोरथ के पुत्र महेश्वर हुए और महेश्वर के पुत्र श्रीपति। पूर्व शिलालेख के आधार पर निर्मित वंशावली में महेश्वर का पुत्र भास्कर लिखा है। ऐसा संभव है कि महेश्वर के भास्कर के अतिरिक्त भी पुत्र हों, जिनका नाम श्रीपति हो। वास्तव में क्या स्थिति थी इसका स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त नहीं हैं। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि इस कुल में विद्वत्परम्परा बहुत काल तक रही और कुल बड़ा ही प्रतिष्ठित रहा है। चंदेल के शिलालेख के आधार पर निर्मित वंशावली के अनसार प्रथम परुष त्रिविक्रम-‘दमयन्ती कथा’ नामक ग्रन्थ के कर्ता हैं। _ भास्कराचार्य की अद्भुत प्रतिभा उनके कार्यो से स्पष्टतया लक्षित होती है। उनकी सूझ बूझ अन्य पारम्परिक आचार्यो की अपेक्षा कुछ भिन्न थी जिससे उनका एक पृथक् व्यक्तित्व स्थापित हुआ। इन्होंने कुछ नवीन सिद्धान्तों की स्थापना की जिससे ज्योतिष शास्त्र के स्थापित सिद्धान्तों में परिष्कार हुआ। इन में उदयान्तर बहुचर्चित हैं। इसके साथ -साथ उन्होंने पृथ्वी की अकर्षक शाक्ति का स्पष्ट उल्लेख किया, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यथा आकृष्टशक्तिश्च मही तथा यत् खस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या। आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात क्व पतत्वियं खे।। आर्थात् आकाश में कोई भी वस्तु हो उसे पृथ्वी आपनी आकर्षण शक्ति से अपनी ओर खींच लेती है तथा वस्तु गिरती हुई प्रतीत होती हैं। १. दक्षिण का इतिहास (अंग्रेजी) पृष्ठ ८२, प्रो० भाण्डारकर। २. इस विषयक लेख इण्डिका, ग्रन्थ-३, पृ.-११२ में छपा था। शंकरबालकृष्ण दीक्षित का कहना है कि इसमें सारजा देवी के स्थान पर द्वारजा देवी पाठ छपा है। भास्कराचार्य-द्वितीय भास्कर की इस उपलब्धि को इतिहासकारों ने प्रकाश में नहीं लाया, जब कि भास्कर से लगभग छह सौ वर्ष बाद सर आइजक न्यूटन इसी सिद्धान्त ‘पृथ्वी की आर्कषण शाक्ति’ को प्रतिपादित कर इतिहास पुरुष हो गये। इसी प्रसंग में आचार्य भास्कर ने पृथ्वी के गोलत्व और उसके ऊपर निवास करने वाले मनुष्य आदि की स्थिति का जो सजीव चित्रण किया है वह भी अद्वितीय हैं। इन्होंने लिखा है कि पृथ्वी पर जो व्यक्ति जहाँ है अपने आपको ऊपर मानता है। किन्तु पृथ्वी पर एक दूसरे के सापेक्ष्य मानवादि की स्थिति भिन्न भिन्न अवस्था में होती है। जो व्यक्ति अपने को ऊपर समझता है वहाँ से ६०° अंश की दूरी स्थित व्यक्ति ऊपर वाले के सापेक्ष तिर्यक् अर्थात् लेटा हुआ तथा १८०° की दूरी पर स्थित व्यक्ति उलटा लटका सिर नीचे पैर पृथ्वी पर पानी में छाया पुरुष की तरह प्रतीत होता है। वास्तविक स्थिति इसी प्रकार होती हैं। इस प्रकार के वर्णनों से ज्ञात होता हैं कि आचार्य भास्कर सृष्टि की अनेक गुत्थियों को सुलझा चुके थे। किन्तु परम्परा के भीरु होने से वे विशेषकर पृथ्वी के सम्बन्ध में बहुत से रहस्यों का उद्घाटन नहीं कर पाये। उन्हें अपनी परम्पराओं के प्रति अन्धविश्वास था इसलिए स्मृति वाह्य सिद्धान्तों को उन्होंने प्रकट नहीं किया ।
लीलावती
भास्कराचार्य विरचित सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थ का प्रथम भाग लीलावती के नाम से प्रसिद्ध है। इसे अङ्कगणित या पाटीगणित भी कहा जाता है। लीलावती ग्रन्थ में भास्कराचार्य के न केवल ज्योतिष विषयक पाण्डित्य का प्रदर्शन होता है अपितु एक सरस कवि का रूप भी दृष्टिगोचर होता है। इसमें २७८ पद्य हैं। उदाहरणों का स्पष्टीकरण आदि गद्य में भी किया गया है। लीलावती के प्रारंभ में जहाँ भास्कराचार्य ने अपने समय के प्रचलित सोने-चाँदी, भूमि, अन्न आदि के माप तौल के पारिभाषिकों’ (बराटक, काकिणी, पण, द्रुम, निष्क, गुजा, माषा, कर्ष, पल अङ्गुल, हस्त, दण्ड, क्रोश, योजन, खारिका, द्रोण, आढ़क, प्रस्थ, कुडव आदि) का उल्लेख किया है, वहीं दशगुणोत्तर अंकों की नामावली का भी वर्णन किया है। इसमें एक से आरम्भ कर दश, सौ, हजार, दश हजार, लाख, दशलाख, करोड़ अर्ब, दशअर्ब, खर्ब, दशखर्ब, महापद्म, शङ्कु, जलधि, अन्त्य, मध्य और परार्ध तक की संज्ञाओं का उल्लेख किया है। इसके बाद पूर्णाङ्कों का योग अन्तर, गुणा, भाग, वर्ग , वर्गमूल, घन और घनमूल के सूत्र और उदाहरण हैं। इन आठों को परिकर्माष्टक के नाम से जाना १. परिभाषा श्लो० सं० २-१० (लीलावती, टीकाकार पं० लषणलाल झा, पृष्ट संख्या २-४, चौखम्बा सुरभारती। वाराणसी-१६६४) २. लीलावती, अभिन्नपरिकर्माष्टक, संख्यास्थानानि, श्लो० २-३ । ३५२ ज्योतिष-खण्ड भास्कराचार्य-द्वितीय ३५३ जाता है। इसके बाद भिन्न परिकर्माष्टक, शून्यपरिकर्माष्टक, इष्टकर्म, त्रैराशिक, पञ्चराशि, श्रेढ़ी भिन्न-भिन्न प्रकार के क्षेत्रों और घनों के क्षेत्रफल, घनफल इत्यादि विषयों के सूत्र और उदाहरण हैं। अन्त में खात, राशि, छाया व्यवहार, कुट्टक, अङ्कपाश आदि के गणित सूत्र और उदाहरण वर्णित हैं। _ आधुनिक दशमलव पद्धति का मूल भास्कराचार्य के सावयव अङ्कों का सूक्ष्ममूल आनयन पद्धति में परिलक्षित होता है। ऐसा चिन्तन अनुचित नहीं है। क्योंकि, तत्कृत्योर्योगपदं कर्णः, दोः कर्णवर्गयोर्विवरात् मूलं कोटिः राश्योरन्तरवर्गेण द्विघ्ने घाते युतेः तयोः" इत्यादि के प्रसङ्ग में लीलावती में दशमलव पद्धति का मूल माना जा सकता है। _अवर्गाङ्क के सावयव सूक्ष्म मूल निकालने का भास्कर द्वितीय का मौलिक गणित इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं। जैसे भुज ३१, कोटि ३१८, इसका कर्ण निकालना हैं। कर्णों का मान ज्ञात करना हैं। यदि यह चतुर्भुज समलम्बक हो तो लम्ब और दोनों करें का मान ज्ञात करना है। भास्कराचार्य प्राचीनों (ब्रह्मगुप्तादि) के इस गणित को एकदेशीय कहकर अपना सिद्धान्त निःसंकोच स्थापित करते हुए कहते हैं कि, चतुर्भुज के चारों भुजाओं के मान नियत होने पर भी उसके नियत कर्ण नहीं होते हैं। कर्णों की नियत स्थिति नहीं होने से लम्ब मानों में भी अन्तर पड़ता है। जिससे चतुर्भुज का क्षेत्रफल एक रूप का न होकर अनेक रूप का हो सकता हैं। जैसे-दोनों भुजाएँ आधार से बड़ी नहीं होती है। इस कथन के अनुसार ५६ के स्थान पर कर्ण को ३२ मानने से इसी चतुर्भुज का दूसरा कर्ण ७६२२ आता हैं। २५ २५ (B) + (H) = कर्ण या १२६, १६ = कर्ण = कर्ण या १६६ १६६ /–+ – V१६ १६ = कर्ण १६८ ६० २२८५८ यहाँ ५ का मूल नहीं मिलता है। क्योंकि १६६ का मूल तो निरवयव १३ प्राप्त हो जाता है लेकिन ८ का निरवयव मूल नहीं मिलता है। इसका मूल सावयव (दशमलव में) आता है इसके लिए भास्कराचार्य का कहना हैं कि वर्गेण महतेष्टेन हताच्छेदांशयोर्वधात्। पदं गुणपदच्छिछन्नच्छिद्भुक्तं निकटं भवेत्।। अर्थात् हर और भाज्य के गुणनफल को किसी बड़े इष्ट अंक के वर्ग से गुणाकर गुणनफल के अङ्क के मूल में अभीष्ट बड़े अङ्क के मूल से भाग दे देने से उस अभीष्ट अवर्गाक का मूल सूक्ष्म या सूक्ष्मासन्न हो जाता है। इसे दशमलव पद्धति का मूल माना जा सकता है।
चतुर्भज क्षेत्र
एक चतुर्भुज क्षेत्र है जिसकी दोनों भुजाएँ क्रमशः ५२ और ३६ हैं। जिसकी भूमि आधार ६० के तुल्य और मुख २५ हाथ के तुल्य है। प्राचीनों ने इस क्षेत्र को अतुल्य लम्बक कहते हुए इसके दोनों कर्णों को क्रमशः ५६ और ६३ के तुल्य कहा हैं।’ यहाँ अन्य १. लीलावती क्षेत्रव्यवहार, सूत्र ३०, श्लो० १-२ (टीकाकार पं० लषणलाल झा)
लीलावती में वृत्तक्षेत्र गणित
भास्कराचार्य का वृत्त क्षेत्रफल, वृत्तपृष्ठफल, गोलक्षेत्र, घनफल आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने वृत्त के व्यास और परिधि का सम्बन्ध ७ और २२ का बताया है। उदाहरण के लिए यदि किसी वृत्त का व्यास ७ हैं। तो परिधि २२ होगी। भास्कराचार्य ने व्यास और परिधि का सम्बन्ध व्यासे भनन्दाग्निहते विभक्ते खबाणसूर्यैः परिधिः स सूक्ष्मः। द्वाविंशतिध्ने विहृतेऽथशैलैः स्थूलोऽथवा स्याद्व्यवहारयोग्यः।। सूत्र के द्वारा बताया हैं। यदि किसी के व्यास को मापकर उसकी परिधि को मापते हैं तो परिधि की लम्बाई व्यास की लम्बाई से लगभग २२/७ गुणी होती है। इसका AL १. लीलावती, क्षेत्रव्यवहार, श्लो० ४० (लषण लाल झा) ३५४ भास्कराचार्य-द्वितीय ३५५ ज्योतिष-खण्ड वास्तविक मान अङ्कों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसका आसन्न (लगभग) मान ग्रीक भाषा में (पाई) से व्यक्त किया जाता है। T का मान सात दशमलव अङ्कों तक ३.१४१५६२६ होता है। भास्कराचार्य ने इसका सूक्ष्ममान ३६२७/१२५० माना है। जो दशमलव में ३.१४१६ होता है। यह पूर्वोक्त मान के आसन्न है। अनुवाद हिन्दी’, अंग्रेजी, कन्नड़ और परसियन भाषा में इसका अनुवाद किया गया।
लीलावती में शरानयन पद्धति
यह एक अनुपम सूत्र है। शर का साधन तो अनेक प्रकार से किया जा सकता है किन्तु भास्कराचार्य ने लीलावती में जो सूत्र बताया है वह तो वास्तव में अनुपम है। उन्होंने कहा है ज्याव्यासयोगान्तरघातमूलं व्यासस्तदूनो दलितः शरः स्यात्। व्यासाच्छरोनाच्छरसंगुणाच्च मूलं द्विनिघ्नं भवतीह जीवा।। जीवार्थवर्गे शरभक्तयुक्ते व्यासप्रमाणं प्रवदन्ति वृत्ते’।। अर्थात् जीवा और व्यास के योग और अन्तर के गुणनफल के मूल को व्यास में घटाकर आधा करने से शर होता है और व्यास और शर के अन्तर को शर से गुणाकर उसके मूल को द्विगुणित करने पर जीवा होती है। जीवा के आधे के वर्ग में शर से भाग देकर लब्धि जो हो उसमें शरजोड़ने से वृत्त का व्यास होता है। इसीतरह समकोण त्रिभुज में आधार रेखा में सर्प का तथा कर्ण रेखा मयूर का समानगति से गमन अङ्कपाश कुट्टक’ आदि गणित अत्यन्त चमत्कारपूर्ण हैं। लीलावती के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भास्कराचार्य ने लीलावती की रचना के पूर्व अनेक पारम्परिक गणित ग्रन्थों का अध्ययन किया था। जैसे-ब्रह्मसिद्धान्त’, गणितसार सारसंग्रह, आर्यसिद्धान्त, सिद्धान्तशेखर आदि। इस कृति की बहुत प्रसिद्धि हुई। यही कारण है कि देश और विदेश में इसकी सैकड़ो मातृकाएँ यत्र-तत्र सुरक्षित हैं।
टीकाएँ
_ विवरणा,’ गणितामृतसागरी (अङ्कामृतसागरी), गणितामृतकूपिका, बुद्धिविलासिनी, कर्मप्रदीपिका, क्रियाक्रमकरी निःसृष्टार्थदूती” (निःसृष्टदूती), मितभाषिणी२ गणितामृतलहरी'३ सर्वबोधिनी’ लीलावतीभूषण'५ लीलावतीविवृत्ति'६ पाटीगणितकौमुदी,७ मनोरंजना,१८ तेलगू,१६ संस्कृत,२० मराठी२’ हिन्दी२२ आदि टीकाएं लिखी गईं। इनके अतिरिक्त मोषदेव (१४७२ के पूर्व), लक्ष्मीदास (१५०१), महीधर (१५८७), परशुराम (१६५६ के पूर्व), कृपाराम (लगभग १७६०), नीलाम्बर झा (लगभग १८५०), दामोदर, देवीसहाय, परशुराम (द्वितीय), रामदत्त, लक्ष्मीनाथ, वृन्दावन और श्रीधर मैथिल ने भी लीलावती की टीकाएं लिखीं। लीलावती के टीकाकारों की सूची बहुत लम्बी बन सकती है यदि सभी टीकाकारों के विषय में अनुसन्धान किया जाय। बहुत सारे ऐसे नाम और टीकाएं हैं जिनके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। १. अमीचन्द, जयपुर, १८४२। २. कोलब्रूक, जे० टेलर-१८६३, सन्दर्भ हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर-प्रो० डेविड पिंग्री से उद्धृत किया __ हैं। पृष्ट संख्या ६१ (ज्योतिष भाग) संख्या जेन गोण्डा। ३. राजादित्य, पाविनवेग, होयसाल बल्लाल को डोरसमूद्र (११७३-१२२०) द्रष्टव्य : मेथमेटिक्स इन कर्नाटक ऑफ द मिडिल एजेज। भरत कौमुदी ग्र.१, इलाहाबाद-१६४५, पृ. १२७-१३६ । एम.एम. भट्ट, व्यवहार गणित इन कन्नड-(मद्रास)। ४. अबु-अल् फैदी (१५५५-१६०५), मैदिनी मुल्ला (१६६३-४) तथा मोहम्मद अमीन (१६६१-७८)-हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर, ज्योतिष-प्रो. डेविड पिंग्री, संपादक-जेन-खोण्डा, पृ. ६१। परमेश्वर-अश्वत्थग्राम, केरला (१४३२)। ६. गंगाधरन, जम्बूसार, गुजरात (१४२०)। ७. सूर्यदास, पाथोपुरा, गोदावरी (१५४१)। ८. गणेश, नन्दीग्राम (१५४५)। ६. नारायण, केरला (१५५०)। १०. शंकर (इसके कुछ भाग केरला के नारायण ने पूर्ण किए) केरला (१५५६)। ११. मुनीश्वर (विश्वरूप), वाराणसी (१७०० के आरंभ में)। १२. रङ्गनाथ (मुनीश्वर के समकालीन) वाराणसी। १३. रामकृष्ण सह्याद्रि, जालपुर १६८७। १४. श्रीधर महापात्र, दोलापुर, नीलगिरि, ओड़िशा, १७१७। १५. रामचन्द्र एवं धनेश्वर। १६. मुनीश्वर लगभग १५५७ शक। १७. नारायण (नृसिंहदैवज्ञ का पुत्र) १३५७ । १८. रामकृष्णदेव (ससदादेव का पुत्र)। १६. ताड़कमल्ल बेंकटकृष्ण राव। २०. बापूदेव शास्त्री, वाराणसी, १८८३, मुरलीधर ठाकुर, मिथिला, १६२८, दामोदर मिश्र, मिथिला, सीताराम झा, मिथिला, वाराणसी १६७०, दयानाथ झा, मिथिला। २१. वी.पी. खानपुरकर, पूना, १८६७। . २२. आर.एस. शर्मा, १६०७, लषण लाल झा, १६६१, सीताराम झा, मिथिला, वारणसी-१६७०, आचार्य रामचन्द्र पाण्डेय, वाराणसी-१६६३ | १. लीलावती, क्षेत्रव्यवहार, श्लो० ४३-४४ पृष्ट २६० (सम्पादक, टीकाकार, डॉ० लषणलाल झा) २. लीलावती, पृष्ठ-१६४ । ३. वहीं, पृष्ठ-३६४। ४. वहीं, पृष्ठ-३२६। ब्रह्मगुप्त, शक ६५०। ६. श्रीधर, शक ७७५ के पूर्व । ७. महावीर, शक ७७५। ८. आर्यभट, द्वितीय, शक ८७५। ६. श्रीपति, शक ६६१। ३५६ ज्योतिष-खण्ड ३५७ ا
प्रकाशन
लीलावती यद्यपि बहुत पहले से प्रकाशित रही होगी, लेकिन जो साक्ष्य मिल जाए हैं उनमें लीलावती का प्रकाशन जे. टेलर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद १८१६ में बाम्बे से, एच.टी. कोलबूक के द्वारा अपने ग्रन्थ अलजेव्रा विथ अरिथमेटिक एण्ड मेंसुरेशन में लन्दन से १८१७ में, एच.सी. बैनर्जी के द्वारा कोलब्रूक के अंग्रेजी अनुवाद के साथ कलकत्ता से १८६३ और १६२७ में, १८३२ में पुनः कलकत्ता से, उसके बाद वहीं से तारानाथ शर्मा द्वारा महीधर की टीका के साथ सम्पादन और प्रकाशन १८४६, १८५२ और १८७८ में, मद्रास से वी. रामचन्द्रशास्त्री स्वामी द्वारा तेलगू टीका का सम्पादन और प्रकाशन १८६३ में, जीवाननन्द विद्यासागर द्वारा कलकत्ता से १८७६ में, सुधाकर द्विवेदी द्वारा वाराणसी से १८७८ में, हिन्दी अनुवाद १६१२ में वाराणसी से, म.म. वापूदेव शास्त्री द्वारा वाराणसी से १८८३ में, भुवनचन्द्र वशाक द्वारा कलकत्ता से १८८५ में, कोलबुक का अंग्रेजी अनुवाद, एच.सी. बैनर्जी द्वारा कलकत्ता से १८६३ में, उसका पुनर्मुद्रण वहीं से १६२७ में, वी.पी. खानपुरकर द्वारा मराठी टीका के साथ पूणे से १८६७ में, आर.एस. शर्मा के द्वारा हिन्दी टीका के साथ १६०७ में बाम्बे से, राधावल्लभ द्वारा १६१३ में कलकत्ता से, श्री मुरलीधर ठाकुर द्वारा अपनी संस्कृत टीका के साथ वाराणसी से १६२८ एवं १६३८ में, डी. आप्टे द्वारा गणेश और महीधर की टीका के साथ पुणे से १६३७ में, दामोदर मिश्र की टीका के साथ दयानाथ झा द्वारा दरभंगा से १६५६ में, एस. शर्मा द्वारा पं. लषणलाल झा की टीका के साथ १६६१ में वाराणसी से, संस्कृत एवं हिन्दी टीका के साथ सीताराम झा द्वारा वाराणसी से १६७० में, शंकर एवं नारायण की टीका के साथ के.वी. शर्मा द्वारा होशियारपुर से १६७५ में और हिन्दी अनुवाद के साथ प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय द्वारा १६६३ में काशी से प्रकाशित हुई। इसके बाद भी उपरिलिखित प्रकाशनों के पुनर्मुद्रण हो रहे हैं। अनेकों सम्पादक, प्रकाशक और टीकाकार इस सूची में आने योग्य होंगे। किन्तु जिनके उद्धरण या ग्रन्थ तक मेरी दृष्टि पहुंच सकी उनका उल्लेख करने का प्रयास किया है। भास्कराचार्य-द्वितीय ३५७ लोगों की कल्पित नायिका भी हुआ करती है। दोनों में से जो कुछ भी हो। अन्तः साक्ष्य दोनों की पुष्टि करती हैं। जैसे-१. अये बाले ! लीलावति ! मतिमति ब्रूहि सहितान् द्विपञ्चद्वात्रिंशत् त्रिनवति… उक्त श्लोक अंकों के योग के प्रसंङ् में लिखा हैं। यहाँ अये बाले ! प्रयोग किया हैं। उसके ठीक आगे ‘बाले बालकुरङ्गलोलनयने २ प्रयोग किया हैं। २. वर्गानयन के सन्दर्भ में एक श्लोक है-‘सखे नवानां च चतुर्दशानां ब्रूहि त्रिहीनस्य'३ __ यहाँ सखे! सम्बोधन किया है। ३. घनमूल साधन के क्रम में ‘घनपदं च ततोऽपि धनात्सखे’’ में भी सखे! सम्बोधन किया है। ४. व्यस्तगणित के उदाहरण में ‘राशिं वेत्सि हि चञ्चलाक्षि'५ में चञ्चलाक्षि सम्बोधन किया हैं। ५. विश्लेष जाति गणित का उदाहरण देते हुए ‘पञ्चांशोऽलिकुलात्’, कदम्बमगमत्… ……में मृगाक्षि और कान्ते सम्बोधन किया हैं। ७. ‘जीवानां वयसो मौल्ये तौल्ये वर्णस्य हैमने’ में १६ वर्ष की स्त्री का अधिक महत्त्व बताना और २० वर्ष की स्त्री का कम महत्त्व बताना आदि उद्धरण प्राप्त होता है। ‘प्राप्नोति चेत् षोडशवत्सरा स्त्री द्वात्रिंशतं विंशतिवत्सरा किम् । उपरिलिखित समस्त अन्तः साक्ष्य पर विचार करने से ऐसा सोचा जा सकता है कि कोई विद्वान् अपनी पुत्री से इस प्रकार गणित के प्रश्न नहीं पूछेगा। इसलिए अनुमान किया जा सकता हैं कि ग्रन्थ का नाम यदि किसी प्रिय व्यक्ति के नाम पर ही रखा गया है तो वह प्रिय व्यक्ति भास्कराचार्य की पत्नी हो इसकी सर्वाधिक संभावना है। पुत्री की संभावना तो नहीं ही हैं। हाँ ! एक बात संभव है कि अन्य कवियों की तरह किसी कल्पित नायिका का नाम लीलावती हो और उसे सम्बोधित कर लीलावती के प्रश्न पूछे गये हों। अस्तु ! लीलावती गणित की दृष्टि से जितना सूक्ष्म हैं उतना ही काव्य की दृष्टि से सरस भी हैं।
ग्रन्थ का नाम लीलावती क्यों?
इस प्रश्न के उत्तर में दो पक्ष उपस्थित हुए हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि लीलावती उनकी (भास्कराचार्य) पुत्री थी और कुछ विद्वानों का मत है कि लीलावती उनकी पत्नी का नाम था। इस विषय में बाहय साक्ष के रूप में कोई उद्धरण मुझे नहीं मिल पाया हैं। अन्तः साक्ष्य के रूप में कतिपय श्लोकों को उद्धत करते हुए मेरा मत है कि इस गणित ग्रन्थ का नाम यदि किसी की स्मृति में रखा गया है तो वह उनकी पत्नी तो हो सकती है किन्तु पुत्री होने की संभावना नहीं दिखती है। कदाचित् पत्नी को ऐसा सम्बोधन किया हो या कवि १. लीलावती, अभिन्नपरिकर्माष्टक पृष्ठ संख्या-१०, श्लोक संख्या-१। २. लीलावती, अभिन्नपरिकर्माष्टक पृष्ठ-१५ । ३. वहीं, पृष्ठ-२४। ४. वहीं, पृष्ठ-३१। ५. वहीं, पृष्ठ-७४। ६. वहीं, पृष्ठ-८०। ७. वहीं, व्यस्त त्रैराशिक उदाहरण १, सूत्र-१।। ३५६ भास्कराचार्य-द्वितीय चक्रवालगणित’ (वर्गप्रकृति और कुट्टक से सम्बद्ध) चक्र की तरह भ्रमणशील होने के कारण इस गणित का नाम चक्रवाल रखा गया हैं। इसका उदाहरण देखें का सप्तषष्ठिगुणिताकृतिरेकयुक्ता का चैकषष्ठिगुणिता च सखे सरूपा। स्यान्मूलदा यदि कृतिप्रकृतिनितान्तं तच्चेतसि प्रबद तां विततां लतावत्।। अर्थात् कौन सा वर्ग है जिसे ६७ से गुणाकर उसमें एक का वर्ग जोड़ देने से लब्धाङ्क वर्गाङ्क हो जाता हैं या उसका निरवयव मूल मिल जाता हैं। एकवर्णसमीकरण किसी एक व्यक्ति के पास ३०० रु० हैं और छ: घोड़े हैं और दूसरे के पास दश घोड़े हैं और १०० रू० कर्ज है। धन की दृष्टि से दोनों ही बराबर हैं तो एक घोड़े का मूल्य कितना है? यहां अव्यक्त कल्पना द्वारा एकवर्ण समीकरण किया गया है। ३५८ ज्योतिष-खण्ड
बीजगणित
यह संस्कृत माध्यम का एक विशिष्ट बीजगणितीय ग्रन्थ हैं। तुलनात्मक दृष्टि से यह कुछ अधिक कठिन ग्रन्थ है इसलिए लीलावती की तरह यह अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया हैं। इस ग्रन्थ में २१३ श्लोक और कुछ गद्य भी हैं। इसकी सैकड़ों मातृकाएँ देश और विदेश के ग्रन्थालयों में सुरक्षित हैं। इसमें मुख्य रूप से जिन बिन्दुओं का प्रतिपादन किया गया है उनमें प्रमुख हैं-धन और ऋण संख्याओं का जोड़ घटाव, गुणा और भाग, वर्ग और वर्गमूल, शून्य का संकलन (योग) और वियोग (घटाव), अव्यक्तादि की संकल्पना, उनके वर्ग और मूल, अनेकवर्ण षड्विध, करणी (अवर्ग) का योग, वियोग, गुणन, भाग, वर्ग और वर्गमूल, कुट्टक, वर्ग प्रकृति, चक्रवाल, एकवर्ण-समीकरण, अव्यक्तवर्गसमीकरण, अनेकवर्णसमीकरण, अनेक वर्ण मध्यमाहरण और भावित। यद्यपि भास्कराचार्य के बीजगणित के सभी विषय अपने-आप में महत्त्वपूर्ण हैं। फिर भी कतिपय महत्त्वपूर्ण स्थलों का संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। बीजगणित में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण विषय है। कुट्टक’ उदाहरण के लिए आप देखें-२२१ को किससे गुणा करें और उस गुणनफल में ६५ जोड़ दें और योगफल में १६५ का भाग दें तो वह संख्या निः शेष हो जाती हैं। इसके लिए भास्कराचार्य ने सूत्र प्रस्तुत किया है. भाज्यो हारः क्षेपकश्चापवर्त्यः केनाप्यादौ सम्भवे कुट्टकार्थम्। येनच्छिनौ भाज्यहारौ न तेन क्षेपश्चेत्तदुष्टमुद्दिष्टमेव ।। इस सूत्र का उपयोग प्राचीनाचार्य सृष्ट्यादि से वर्तमान शकवर्ष के किसी भी अभीष्ट दिन के अहर्गण ज्ञान से कल्पसावन दिन में कल्पग्रहभगण तो इष्ट अहर्गण में ग्रह की राश्यादि क्या होगी ? जैसे-क० ग्र० भ० x इ० अह. = इष्टग्रहभगण + भगणशेष। अतः भगणशेष को कल्प सावन दिन १२ से गुण करने पर भगणशेष x १२ = गतराशि + भगणशेष कल्प सावन दिन कल्प सावन दिन इसी प्रकार आगे विकलादि शेष ज्ञातकर गुणक और लब्धि के ज्ञान से विलोम क्रिया से विकलादि को शेषादि समझकर कल्प सावन दिन का ज्ञान करते थे। वर्ग प्रकृति’ ऐसा अक जिसका मूल पूर्णाङ्क हो जाता है। जैसे वह कौन सा वर्गाङ्क है जिसको ८ से गुणाकर उसमें एक जोड़ दें तो वह अंक वर्गाक ही रहता हैं। १. करणीषड्विधम्, कुट्टकाध्यायः श्लो-१।। २. . इष्टं ह्रस्वं तस्य वर्गः प्रकृत्या क्षुण्णो युक्तो वर्जितो वा स येन। मूलं दद्यात् क्षेपकं तं धनर्णं मूलं तच्च ज्येष्ठमूलं वदन्ति ।। बीजगणितम्, वर्गप्रकृतिः, श्लो० संख्या-१
वर्णात्मक अव्यक्त राशि का गणित
किसी भ्रमर झुण्ड के आधे का मूल मालती पुष्प पर, समग्र भ्रमर झुण्ड का ८/६ अलिनी पुष्प पर और शेष एक भ्रमर अपनी भ्रमरी की खोज में रात्रि में कमल पुष्प के निरुद्ध होने पर रातभर अपनी नायिका का द्वार खटखटाता रहा। सूर्योदय होने पर कमलपुष्प के स्वयं उद्घाटित होने पर दोनों का मिलन हो पाया। यहां वर्गात्मक अव्यक्त राशि की अपेक्षा की गई है। इसके हल में भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती श्रीधराचार्य का निम्नलिखित सूत्र सिद्धान्त रूप से स्वीकार किया गया है। चतुराहतवर्गसमै रूपैः पक्षद्वयं गुणयेत्। अव्यक्तवर्गरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम्।। __ यह सूत्र आज भी नवीन बीजगणितज्ञों द्वारा उतना ही आदर पा रहा है। १. ह्स्वज्येष्ठपदक्षेपान् भाज्यप्रक्षेपभाजकान्। कृत्वा कल्प्यो गुणस्तत्र तथा प्रकृतितश्च्युते।। गुणवर्गे प्रकृत्योने…….। बीजगणितम्, चक्रवालम्-श्लो, १-४ । २. बीजगणितम्, चक्रवालम्, उदाहरण श्लो-१।। ३. यावत्तावत् कल्प्यमव्यक्तराशेर्मानं तस्मिन् कुर्वतोद्दिष्टमेव। तुल्यौ पक्षौ साधनीयौ प्रयत्नात् त्यक्त्वा शिप्त्वा वापि संगुण्य भक्त्वा।। एकाव्यक्तं शोधयेदन्य…….बीजगणितम्, एकवर्णसमीकरणम्, श्लो, १-३, एकस्य रूपत्रिशती षडश्वा…..। बीजगणितम्, एकवर्णसमीकरणम्, उाहरणं, श्लोक-१। ४. अलिकुलदलमूलं मालतीं यातमष्टौ……..बीजगणितम्, एकवर्णमध्यमाहरणम्, उदाहरणम्, श्लोक-१। ३६० ज्योतिष-खण्ड ३६१ भास्कराचार्य-द्वितीय उदाहरण इसके अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी और मराठी में बाद में भी टीकाएँ लिखी गई जिनकी हरसंभव सूचना सञ्चित करने का प्रयास किया है।
भावित’
_ अनेक वर्गों के परस्पर गुणन, भजन, वर्ग घनवर्ग, मूल, घनमूल, ऋण और धनादि क्षेप संबंध के अव्यक्त समीकरणों में अ, क, ल, य आदि के अव्यक्त गणित संबंधों से अभीष्टराशि का ज्ञान कर सकना बीजगणित विद्या का एक सैद्धान्तिक चमत्कार है। आचार्य भास्कर ने बीजगणित की पूर्णता भावित नामक अध्याय से की है। वहाँ उदाहरण है चतुस्त्रिगुण्यो राश्योः संयुतिर्द्वियुता तयोः। राशिघातेन तुल्या स्यात् तौ राशी वेत्सि चेद्वद ।। अभिप्राय है कि कोई दो राशियाँ हैं जिन्हें क्रमशः ४ और ३ से गुणाकर दोनों के गुणनफल में २ जोड़ देते हैं तो वह अंक संख्या उक्त दोनों राशियों के गुणनफल के तुल्य हो जाती है। इस प्रकार के प्रश्नों का हल जानने के लिए भास्कराचार्य ने भावित नाम का अध्याय बीजगणित में सम्मिलित किया।
अनुवाद
इस ग्रन्थ का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। मैंने हर संभव प्रयास किया है कि अनुवादकों का नाम इसमें सम्मिलित कर सकूँ। फिर भी सभी लोगों तक मेरी दृष्टि पहुँच सकी ऐसा नहीं कहा जा सकता है। जितनी सूचना उपलब्ध हो सकी उसे सञ्चित करने का प्रयास किया है। इस ग्रन्थ का मराठी, पर्सियन, जर्मन, और अंग्रेजी,’ भाषा में अनुवाद होने का उद्धरण मिल पाया है।
टीका
भास्करीय बीजगणित की कुछ तो बहुत प्राचीन टीकाएँ हैं और कुछ बाद के ज्योतिर्विदों ने की हैं। प्राचीन टीकाएँ जिनका उल्लेख मिल पाया है वे हैं बीजनवांकुरा (बीजपल्लव या कल्पलतावतार), बीजप्रबोध, बीजविवृत्तिकल्पलता’ और कृपाराम के
प्रकाशन
कलकत्ता से १८३४, १८३८ और १८४६ में प्रकाशित हुआ। जर्मन अनुवाद के साथ १८५१ में प्रकाशित। पुनः १८५३ में कलकत्ता से प्रकाशित। बनारस से डॉ० गणेश पाठक द्वारा १८७८ में प्रकाशित। १८७८ में जीवानन्द विद्यासागर द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित । म० म० सुधाकर द्विवेदी द्वारा अपनी संस्कृत टीका सहित १८८८ में वाराणसी से प्रकाशित । वी०पी० खानपुर के द्वारा अपनी मराठी टीका सहित पुणे से १६१३ में प्रकाशित। राधावल्लभ द्वारा अपनी संस्कृत टीका सहित कलकत्ता से १६१७ में प्रकाशित। मुरलीधर झा द्वारा अपनी संस्कृत टीका और म०म० सुधाकर द्विवेदी की टीका के साथ १६२७ में वाराणसी से प्रकाशित। राधाकृष्ण शास्त्री और कृष्ण की संस्कृत टीका के साथ १६८५ में तजौर से प्रकाशित। कोलब्रूक का अंग्रेजी अनुवाद पुणे से १६३० में प्रकाशित। दुर्गा प्रसाद द्विवेदी द्वारा अपनी संस्कत टीका सहित लखनऊ से १६४१ में प्रकाशित। अच्युतानन्द झा द्वारा बनारस से जीवनाथ की सुबोधिनी टीका और अपनी संस्कृत और हिन्दी टीका १६४६ में प्रकाशित। एच्.टी. कोलब्रूक, लन्दन-१८१७ । डी.एम्. मेहता, भावनगर-१६३१। पं० श्री विशुद्धानन्द गौड़ द्वारा १६६२ में चौखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित और सविमर्श सोदाहरण संस्कृत “वासना" सुधा हिन्दी व्याख्या सहित पं० देवचन्द्र झा द्वारा १६८३ के आसपास कृष्णदास अकादमी, वाराणसी से प्रकाशित हुए।
सिद्धान्त शिरोमणि
- लीलावती और बीजगणित के बाद सिद्धान्त शिरोमणि के ग्रहगोलाध्याय और ग्रहगणिताध्याय का क्रम आता है। आजकल प्रायः विश्वविद्यालयों में पहले ग्रहगणिताध्याय का अध्यापन किया जाता है। उसके बाद गोलाध्याय का। इससे कई बार भ्रम की स्थिति पैदा होती है कि पहले ग्रह-गणिताध्याय की रचना हुई फिर बाद में गोलाध्याय लिखा गया। किन्तु गणिताध्याय में जो अन्तः साक्ष्य प्राप्त होते हैं इससे प्रतीत होता है कि पहले गोलाध्याय लिखा गया है और उसके बाद गणिताध्याय। इस प्रसङ्ग में गणिताध्याय के कुछ १. मुक्त्वेष्टवर्ण सुधिया परेषां कल्प्यानि मानानि यथेप्सितानि । _ तथा भवेद्भावितभङ्ग एवं स्यादाद्यबीजक्रिययेष्टिसिद्धिः ।। बीजगणितम्, भावितम्, श्लोक. सं.१ २. वी०पी० खानपुरकार, पूणे-१६१३। . ३. अता-उल्लाह रुशदी ने मुगल शाहजहाँ के लिए (१६२८-१६३६)। ४. “इयूवेर्दी अलजेव्रा देस भास्कर" -एच् ब्रॉखहाउस में प्रकाशित (१८५१) ५. इ. स्ट्रेची, विद नोट्स-एस्. डेविस. द्वारा कोलब्रूक, लन्दन-१६१३ । ६. कृष्ण (लगभग शक १५२४) ये जहाँगीर बादशाह के ज्योतिषी थे। ७. रामकृष्ण, अमरावती के रहने वाले पं० लक्ष्मण के पुत्र थे और महीश्वर के शिष्य थे। ८. परशुराम। १. सुधाकर द्विवेदी, वाराणसी-१८८८, कलकत्ता-१६१७, मुरलीधर झा, वाराणसी-१६२७, कृष्ण-१६५८, अच्युतानन्द झा, वाराणसी-१६४६ (जीवनाथ-सुबोधनी टीका)। २. दुर्गाप्रसाद द्विवेदी, लखनऊ १६४१, अच्युतानन्द झा, वाराणसी-१६४६, देवचन्द्र झा, वाराणसी-१६८३, विशुद्धानन्द गौड़ पुनः सम्पादित बलदेव मिश्र की टीका बनारस-१६६२ । ३. वी०पी० खानपुरकर, पुणे-१६१३ । भास्कराचार्य-द्वितीय ३६२ ज्योतिष-खण्ड साक्ष्य नीचे प्रस्तुत हैं। खखेषु वेद षड्गुणा’ ….. के वासनाभाष्य के अन्त में अत्रोपपत्तिोले समं भसूर्यावुदितौ इत्यादिना कथिता व्याख्याता च।………….धुचरचक्रहतो दिनसंचयः का भाष्य करते हुए कहा है कि तत्कारणं गोले कथितं व्याख्यातञ्च । चैत्रादियातास्तिथयः पृथक्स्थाः२ की उत्पत्ति लिखते हुए यथा गोले कथितम्-दर्शाग्रतः संक्रमकालतः प्राक् सदैव तिष्ठत्यधिमासशेषम् । साग्रात् सचक्राच्च खगात् श्लोक के भाष्य में इति प्रश्नाध्याये कुट्टक विधिना वक्ष्ये। लम्बज्यागुणितो’ भवेत् कुपरिधिः स्पष्टस्त्रिभज्याहृतः की उपपत्ति की जगह ‘अत्रोपत्तिोले’ लिखा है। प्रोक्तो योजनसंख्याय कुपरिधिः के भाष्य के आरम्भ में भूपरिधेरुपपत्तिर्गोले कथ्यते। यत्र रेखापुरे साक्षतुल्यः…..की उपपत्ति की जगह अत्रोपपत्तिस्त्रैराशिकेन गोलेऽभिहिता च। चरघ्नभुक्तिर्युनिशासु भक्ता श्लोक की उपपत्ति के अन्त में गोले सम्यगभिहिता इह संक्षिप्तोक्ता। तात्कालिकीकरणकारणता गोले कथिता व्याख्याता च। भाकृतीन् कृति-संयुतेः पदं की उपपत्ति की जगह अस्योपपत्तिर्गणिते कथिता ऐसा लिखा है। प्रसंग है छाया से कर्ण और कर्ण से छाया के आनयन का। इसकी संगति नहीं बैठ पायी है। उद्धृत अन्तः साक्ष्यों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि पहले गोलाध्याय लिखा है और उसके बाद में गणिताध्याय लिखा है। परम्परा से यह सुनता आ रहा हूँ कि सिद्धान्त शिरोमणि का मूल श्लोक पहले लिखा गया और वासनाभाष्य बाद में लिखा गया। मूल श्लोक पहले गणिताध्याय का लिखा गया और उसके बाद में गोलाध्याय का। जहां तक वासनाभाष्य का प्रश्न है तो उसके लिए तो अन्तः साक्ष्य स्पष्ट कहता है कि पहले गोलाध्याय का भाष्य लिखा गया और उसके बाद गणिताध्याय का। चूँकि अन्तः साक्ष्य सबसे बड़ा प्रमाण होता है। उसे ही आधार माना गया है। पूर्वापर लेखन में जो भी लिखा गया हो, लेकिन दोनों ही (गणिताध्याय और गोलाध्याय) एक दूसरे के पूरक हैं।
गणिताध्याय और गोलाध्याय
सिद्धान्तशिरोमणि के नाम से जाने जाने वाले गणिताध्याय और गोलाध्याय बहुत ही महत्वपूर्ण भाग हैं। भारतीय खगोलविद्या के ग्रन्थों में इनका अनुपम स्थान रहा है। विद्वान लोग इसे ब्राह्म पक्ष की परवर्ती कृति के रूप में देखते हैं। कहा जाता है सिद्धान्तशिरोमणि ब्रामपक्ष का एक ऐसा ग्रन्थ है जो ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त के बाद इस परम्परा को दृढ़ता से आगे ले जाता है। इतना ही नहीं मध्यमाधिकार के ग्रहभगणादिमान और परिध्यंश तो ब्रह्मगुप्त के ही है जबकि ऐसा प्रतीत होता है कि बीजसंस्कार राजमृगाङ्क के अनुसार हैं। इन दोनों अध्यायों का प्रारूप यदि देखा जाय तो लगेगा लल्लाचार्य का धीवृद्धिदतन्त्र ही हैं। सिर्फ ज्योत्पत्ति और ऋतुवर्णन पृथक् प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त भास्कराचार्य ने बहुत सारे संशोधन किए और प्राचीनाचार्यों के बहुत सारे मान आगम के रूप में स्वीकार किए। बहुत ही महत्त्वपूर्ण और नया सूत्र यदि खोजा जाय तो भास्कर की कृति में उदयान्तर संस्कार (कालसमीकरण) का उल्लेख मिलता हैं। यह ग्रन्थ काव्य की दृष्टि से उत्तम तो हैं ही विषय प्रतिपादन में समास शैली का आश्रय लिया है। भाष्य और उपपत्ति लेखन की दृष्टि से तो उस धारा की सर्वोत्तम कृति मानी जा सकती है। समीक्षा की दृष्टि से यदि देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस शास्त्र के इतने बड़े विद्वान ने अपना समय वेध करने में नहीं लगाकर सारा समय विचार में लगाया। हो सकता था कि इनकी दृष्टि यदि वेध की ओर गई होती तो संसार को और भी महत्त्वपूर्ण कोई कृति मिल पाती। सिद्धान्त शिरोमणि के अध्ययन से स्पष्ट पता चलता है कि यह ग्रन्थ वेधसाध्य ज्ञान से नहीं अपितु विचारसाध्य ज्ञान से भरा पड़ा है। सामान्य से सामान्य और गम्भीर से गम्भीर दोनों ही विषयों के सरल और प्रपञ्चपूर्ण भाष्य और उपपत्ति लेखन का भास्कर का पाण्डित्य अद्वितीय हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं सत्य है कि केवल सिद्धान्त शिरोमणि मात्र के अध्ययन से भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष का समग्र अध्ययन हो जाता है। यही कारण रहा होगा कि भास्कराचार्य की इतनी प्रसिद्धि हुई हैं। सिद्धान्त शिरोमणि की उत्कृष्टता के कारण तत्कालीन उत्तम और सामान्य न जाने कितने ग्रन्थों का लोप हो गया होगा। इन्होंने जिन ग्रन्थों को आगम माना है उनका भी प्रचार-प्रसार और अध्ययन अध्यापन सिद्धान्त शिरोमणि के बाद अत्यल्प हो गया फिर अन्य ग्रन्थों की जो भी स्थिति हुई हो। आर्यभट्ट प्रथम से भास्कर पर्यन्त का काल भारतीय ज्योतिष के पूर्णविकास का काल माना जा सकता है। यही समय है जब बगदाद के खलीफा भारत से ज्योतिषी ले गये। संस्कृत ज्योतिष ग्रन्थों का अरबी और लेटिनभाषाओं में अनुवाद हुआ। अरब और ग्रीस के लोग ज्योतिष शास्त्र में भारत के शिष्य बने और अयन गति का चिन्तन परकाष्ठा पर पहुँचा। अब इन बिन्दुओं से अनुमान किया जा सकता है कि ज्योतिष शास्त्र के इस उन्नति काल में न जाने कितने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकार हुए होंगे। लेकिन आज कुछ का तो नाम मात्र १. गणिताध्याय, मध्यमा, भगणा० श्लो० सं० ७। २. गणिताध्याय, मध्यमा० ग्रहानयनाध्याय श्लो० सं० ५। ३. गणिताध्याय, मध्यमा० ग्रहानयनाध्याय श्लो० सं० ७। ४. गणिताध्याय, मध्यमा० ग्रहानयनाध्याय श्लो० सं० १५ । ५. गणिताध्याय, मध्यमा० भूपरिधि स्फुटीकरण श्लो० सं० २। ६. गणिताध्याय, मध्यमा० भूपरिधि स्फुटीकरण श्लो० सं० १। ७. गणिताध्याय, मध्यमा० भूपरिधि स्फुटीकरण श्लो० सं० ३। ८. गणिताध्याय, स्फुटीकरण श्लो० सं० ५३ । ६. गणिताध्याय, त्रिप्रश्नाधिकार, श्लो० सं० ११। १०. सं० वि०वि० दरभङ्गा में जो ग्रन्थ पढ़ाया जाता था उसमें आरंभ गणिताध्याय से होता था और अन्तिम भाग गोलाध्याय था। लेकिन गोलाध्याय के भाष्य में गणिते प्रतिपादितम् न लिखकर गणिताध्याय में लिखा गया है कि गोले प्रतिपादितम्। ३६४ ज्योतिष-खण्ड पता है और अधिकांश का तो कुछ भी ज्ञात नहीं हैं। बेरुनी’ ने करणचूड़ामणि लोकानन्दकृत लोकानन्दकरण और भहिलकृत भहिलकरण का नाम लिखने के बाद (भाग-६, पृष्ठ १५७) लिखा है कि ऐसे असंख्य ग्रन्थ हैं। जबकि आज किसी भी ग्रन्थ का अता-पता नहीं है। भास्कराचार्य के ग्रन्थों का प्रचार उनके ग्रन्थ का महत्त्व और वंश की सम्पन्नता के कारण भारत के कोने-कोने तक तो है ही अनेक विदेशी भाषाओं में भी इनके अनुवाद किए गये। वेध की दृष्टि से कोई नई बात तो नहीं मिल पाई है लेकिन उपपत्ति मूलक चिन्तन तो नया है ही। गोल तो बिलकुल हस्तामलक की तरह था। त्रिप्रश्नाधिकार में इन्होंने बहुत सी नवीन बातें लिखी हैं। शंकु सम्बन्धी इष्ट दिक् छाया साधन, पातसाधन का नया सूत्र शर का क्रान्तिवृत्त पर लम्ब होने का विचार, उदयान्तर आदि बिल्कुल नया चिन्तन है। यद्यपि इक्वेशन ऑफ टाइम नाम का एक संस्कार प्राश्चात्य ज्योतिष में हैं लेकिन उसमें भुजान्तर और उदयान्तर दोनों अन्तर्निहित हैं। भास्कराचार्य-द्वितीय ३६५
गणिताध्याय
गणिताध्याय में ग्रहखगोल विषय का प्रधान रूप से प्रतिपादन किया गया है। विषय की दृष्टि से इसे बारह भागों में विभक्त किया गया है। इन्हें बारह अधिकार के नाम से जाना जाता है। १. मध्यमाधिकार, २. स्पष्टाधिकार, ३. त्रिप्रश्नाधिकार, ४. पर्वसम्भवा धिकार, ५. चन्द्रग्रहणाधिकार, ६. सूर्यग्रहणाधिकार, ७. ग्रहच्छायाधिकार, ८. उदायास्ता धिकार, ६. चन्द्रश्रृङ्गोन्नत्यधिकार, १०. ग्रहयुति अधिकार, ११. भग्रहयुति अधिकार और १२. पाताधिकार।
गोलाध्याय
ग्रहगोलाध्याय और ग्रहगणिताध्याय एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही अध्यायों में ग्रहसंबंधी गणित है। गोलाध्याय में कहीं-कहीं पर खगोलीय विषयों को अधिक स्पष्ट और विस्तृत किया है। विषयविभाग की दृष्टि से गोलाध्याय को चौदह भागों में बाँटा गया है। १. गोलप्रशंसाध्याय, २. गोलस्वरूपप्रश्नाध्याय, ३. भुवनकोश, ४. मध्यमगतिवासना, ५. छेद्यकाधिकार, ६. ज्योत्पत्ति-वासना ७. गोलबन्धाधिकार, ८. त्रिप्रश्नवासना, ६. ग्रहणवासना, १०. उदयास्तवासना, ११. शृङ्गोन्नतिवासना, १२. यन्त्राध्याय, १३. ऋतुवर्णनाध्याय और १४. प्रश्नाध्याय। __वासनाभाष्य, मिताक्षरा, मरीचि, शिरोमणिप्रकाश जैसे सुप्रसिद्ध टीका के अतिरिक्त म०म० मुरलीधर’ ठाकुर, गिरिजाप्रसाद द्विवेदी, केदारदत्त जोशी और धूलिपाल अर्कसोमयाजी प्रभृति विद्वानों ने गणिताध्याय पर टीकाएं लिखीं।
उदयान्तर
- सूर्य की गति क्रान्तिवृत्त में सदा एक सी नहीं रहती है (आधुनिक मत से पृथ्वी की वार्षिक गति प्रतिदिन एक सी नहीं रहती है।) इष्टकालिक मध्यम और स्पष्ट सूर्य के अन्तर (फलसंस्कार) के कारण स्पष्ट सूर्योदय आगे पीछे होता रहता है। इसे भुजान्तर संस्कार कहा हैं। पृथ्वी अपनी धूरी पर विषुववृत्त में घूमती है। इसलिए क्षितिज में क्रान्तिवृत्तीय ३०० का उदय होने में जितना समय लगता है नाड़ीवृत्त के ३०० का उदय होने में सदा उतना ही समय नहीं लगता हैं। इसी विवेचन को भास्कराचार्य ने उदयान्तर’ कहा है। यह संस्कार भास्कराचार्य का एक आविष्कार है। रङ्गनाथ ने सूर्य सिद्धान्त स्पष्टाधिकार की टीका लिखने के क्रम में यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि सूर्य सिद्धान्तकार को भी यह संस्कार अभीष्ट था। लेकिन स्वल्पान्तर के कारण उन्होंने इसका परित्याग कर दिया। सिद्धान्ततत्त्वविवेककार कमलाकर भट्ट ने उदयान्तर के खण्डन का दुराग्रह किया है यह बात सभी जानते हैं।
प्रकाशन
एल० विलकिन्सन, जीवानन्दविद्यासागर,६ वी०पी० खानुपरकर, आशुबोध भूषण और नित्यबोधविद्यारत्न दत्तात्रेयआप्टे, केदारदत्तजोशी,१० एशियाटिक सोसाइटी का … १. - भारतीय ज्योतिष, डॉ० शंकर बाल कृष्ण दीक्षित, पृष्ठ संख्या ३४७, (हिन्दी संस्करण-१६६०) . २. भानोः फलं गुणितमर्कयुतस्य राशेः……सि० शि० गणिताध्यायः, स्पष्टा० श्लो० संख्या ६१। ३. युक्तायनांशस्य तु मध्यमस्य भुक्तासवोऽर्कस्य निरक्षदेशे…..सि० शि० गणिता स्पष्ठा, श्लो० संख्या ६२-६३। . ४. सूर्यसिद्धान्त स्प० श्लो० संख्या ५६ (रङ्गनाथ की टीका)। १. काशी संस्कृत सीरिज १४६, बनारस-१६५०। २. लखनऊ-१६११। ३. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। ४. केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति। ५. कलकत्ता से मिताक्षरा के साथ १८४२-१८५३ । कलकत्ता से मिताक्षरा के साथ १८८१। । ७. मराठी अनुवाद और टीका, पुणे-१६१३ । ८. कलकत्ता से मिताक्षरा के साथ १६१५ । ६. मिताक्षरा और शिरोमणि प्रकाश के साथ पुणे १६३६-४१। १०. मिताक्षरा और अपनी संस्कृत और हिन्दी टीका के साथ वाराणसी से १६५०। भास्कराचार्य-द्वितीय ३६७ ३६६ ज्योतिष-खण्ड जर्नल’ और धूलिपाल अर्कसोमयाजी ने गणिताध्याय का प्रकाशन करवाया। ##### गोलाध्याय का अनुवाद गोलाध्याय के अनुवाद हिन्दी, बंगाली, मराठी, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं में हुए
करणकुतूहल
यह एक प्रमुख करण ग्रन्थ रहा है। इसे ब्रह्म पक्ष का पोषक माना जाता है। इसका आरंभकाल शक ११०५ (२३ फरवरी ११८३) है। भास्कराचार्य ने इस ग्रन्थ को ब्रह्मतुल्य कहा है लेकिन यह राजमृगाङ्गोक्त बीज संस्कृत ब्रह्तुल्य है। इसका नाम ग्रहागम कुतूहल भी है। पहले इसकी बहुत प्रसिद्धि थी। ग्रहलाघवोक्त ब्रह्मपक्षीय ग्रह इसी के हैं। इससे गणित करने के लिए जगच्चन्द्रिकासारिणी नामक एक विस्तृत ग्रन्थ है। इसमें दश अधिकार हैं। मध्यम, स्पष्ट, त्रिप्रश्न, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, उदयास्त, शृङ्गोन्नति, ग्रहयुति, पात और पर्वसंभव इन अधिकारों में क्रमश १७, २३, १७, २४, १०, १६, ५, ७, १६, ५ = १४० पद्य हैं। अन्त में नीरदाध्याय नाम का एक अध्याय है। उसमें ७ श्लोक हैं। यह उनका अपना भी हो सकता है।
टीकाएँ
वासनाभाष्य, मिताक्षरा, मरीचि, गणिततत्त्वचिन्तामणि, शिरोमणि प्रकाश, और वासनावार्त्तिक जैसे सुप्रसिद्ध टीकाओं के अतिरिक्त हिन्दी और मराठी में भी अनेक टीकाएँ लिखी गई है। शंकर बालकृष्ण दीक्षिता जी का कहना है कि ज्ञानराज के पुत्र सूर्यदास ने सूर्यप्रकाश नाम की टीका सम्पूर्ण सिद्धान्त शिरोमणि पर लिखी, जिनमें लीलावती और बीजगणित की टीका शक १४६३ की है। प्रथम आर्यभट के टीकाकार परमादीश्वर ने सिद्धान्तदीपिका नाम की टीका लिखी थी यह भी दीक्षित जी को सुनने को मिला था। इसके अतिरिक्त भी दीक्षित जी ने कुछ विद्वानों के नामों को अपने ग्रंथ में उद्धृत किया है। जैसे विश्वनाथ का उदाहरण, राजगिरि प्रवासी, चक्र चूड़ामणि, जयलक्ष्मण या जयलक्ष्मी, मोहनदास, लक्ष्मीनाथ, वाचस्पतिमित्र और हरिहर। हो सकता है और भी बहुत सारे टीकाकार हुए होंगे।
प्रकाशन
गोलाध्याय का प्रकाशन एल० विलकिन्सन, वापूदेवशास्त्री, चन्द्रदेव, गणपतिदेव, जीवानन्द विद्यासागर, आशुबोधिविद्यासागर और नित्यबोधिविद्यासागर, आर० एम० चट्टोपाध्याय, उदयनारायण, वी०पी० खानपुरकर, गिरिजाप्रसाद द्विवेदी,१२ राधावल्लभ,१३ और दत्तात्रेय आप्टे आदि विद्वानों ने करवाया। mॐ ॐ ॐ १. जर्नल आफ एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल। २. केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति, १९८०। ३. कलकत्ता १८१२, १८५६ । बनारस १८६६। बनारस १८६१। बनारस १८२६। ७. कलकत्ता १८८०, १८६६ ८. कलकत्ता १६१५ । कलकत्ता १६२१ १०. उदयनारायण सिंह, मुम्बई १६०५ । ११. वी०पी० खानपुरकर, मुम्बई १६११, पुणे १६१३ । १२. गिरिजा प्रसाद द्विवेदी, लखनऊ १६११, डॉ० केदारदत्त जोशी, का० हि० विश्व० वि०, वाराणसी-१६६१-६४। १३. रसिकमोहन चट्टोपाध्याय, कलकत्ता-१८८७।