२० ब्रह्मगुप्त

प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय ब्राह्म परम्परा के अनुयायी तथा वेध प्रक्रिया के संस्थापक आयार्च ब्रह्मगुप्त का जन्म शक ५२० में राजस्थान और गुजरात के मध्यवर्ती क्षेत्र में हुआ था। श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित के अनसार इनका जन्म आब पर्वत के निकट आब से ४० मील पश्चिमोत्तर दिशा में लूणी नदी के पास उत्तरी गुजरात तथा मारवाण की सीमा पर स्थित भिन्नमाल नामक स्थान में हुआ था। प्राचीन काल में यह स्थान गुजरात का हिस्सा था। इसे भिलमाल या श्रीमाल नाम से भी जाना जाता है। सिद्धान्त के संज्ञाध्याय के अनुसार चाप वंश के व्याघ्रमुख नामक राजा के शासनकाल शक ५५० में इन्हों ने ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त की रचना की तथा शक ५५० में इनकी आयु ३० वर्ष की थी। इनका जन्म शक ५२० अर्थात् ई० सन् ५६८ में हुआ था। इनके पिता का नाम जिष्णुगुप्त था। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री वेनसांग के अनुसार भिल्लमाल उस समय उत्तर गुजरात की राजधानी थी। व्याघ्रमुख राजा के शासनकाल में इन्होंने अपने ग्रन्थ की रचना की थी। इस लिए इन्हें भिल्लमालकाचार्य भी कहा जाता था। शंकरबालकृष्ण दीक्षित के अनुसार चावणे या चापोत्कट वंश का राज्य सन् ७५६ ई० से ६४१ ई० पर्यन्त रहा। सम्भवतः यह चावणे वंश ही ब्रह्मगुप्त द्वारा निर्दिष्ट चापवंश रहा होगा। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त इनकी पहली कृति हैं। ब्राह्मसिद्धान्त नाम से कई सिद्धान्त प्रचलित रहे हैं। कुछ लोगों ने पञ्चसिद्धान्तोक्त ब्राह्म सिद्धान्त को तथा कुछ लोगों ने विष्णुधर्मोत्तर पुराणान्तर्गत ब्राह्मसिद्धान्त को इनकी रचना का आधार माना हैं। महान भाषाशास्त्री अलबेरुनी (अबू रेहान मुहम्मद इब्न अहमद अलबरूनी) को केवल ब्रह्मगुप्त विरचित ब्रह्म सिद्धान्त की ही जानकारी थी। उपलब्ध ब्राह्मसिद्धान्त का परिचय प्रस्तुत करते हुये अलबरूनी ने लिखा हैं कि-इसका नाम ब्रह्मा के नाम पर पड़ा है और इसकी रचना ब्रह्मगुप्त ने की हैं जो जिष्णु का पुत्र था, मुल्तान एवं अनहिलवाड़ा के वीच अनहिलवाड़ा से १६ योजन की दूरी पर स्थित भील्लमाल नामक नगर का निवासी था।’ कुछ लोग ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त को इनकी मौलिक रचना मानते है तथा कुछ लोग पूर्ववर्ती ब्राह्म सिद्धान्तों में से किसी एक को इसका आधार मानते हैं। परन्तु स्वयं ब्रह्मगुप्त के अनुसार ब्रह्मोक्तं ग्रहगणितं महता कालेन यत् खिलीभूतम्। अभिधीयते स्फुटं तज्जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन ।। संसाध्य स्पष्टतरं बीजं नलिकादियन्त्रेभ्यः। तत्संस्कृतग्रहेभ्यः कर्तव्यौ निर्णयादेशौ।। १. श्रीचापवंशतिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्। पञ्चाशत् संयुक्तैर्वर्षशतैः पञ्चव्यतीतैः।। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितज्ञगोलवित्प्रीत्यै। त्रिंशद्वर्षेण कृतो जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन ।। ब्रास्फु० सि० ७,८. २. भारत अलबेरुनी पृष्ट, ६६-६७ (डॉ० एडवर्ड सी० सखाऊके अंग्रेजी अनुवाद का नूरनबी अब्बासी द्वारा हिन्दी अनुवाद) ३३८ ज्योतिष-खण्ड अर्थात् ब्राह्मसिद्धान्त जो अत्यन्त प्राचीन होने से त्रुटिपूर्ण हो गया था। उसे जिष्णु के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने परिष्कृत कर स्पष्ट कर दिया। नलिकादि यन्त्रों द्वारा स्फुटबीज साधन कर उससे संस्कृत ग्रहों द्वारा निर्णय और आदेश करना चाहिये। ब्रह्मगुप्त के इन वाक्यों तथा इनके द्वारा गृहीत मानों के आधार पर इनके ग्रन्थ का प्रमुख स्रोत विष्णुधर्मोत्तर पुराणान्तर्गत ब्रह्मपुराण ही माना जाता है। परन्तु इनकी मौलिकता भी उल्लेखनीय हैं। (१) ब्रह्मगुप्त का वर्ष मान सभी सिद्धान्तों से भिन्न है। पञ्च-सिद्धान्तिका के सूर्यसिद्धान्त का वर्षमान ३६५-१५-३१-३०, आर्य-सिद्धान्त का वर्षमान ३६५-१५-३१-१५ तथा ब्रह्मगुप्त का ३६५-१५-३०-२२-३० हैं। उक्त सिद्धान्तों की तुलना में ब्रह्मगुप्त का वर्षमान क्रमशः १-७-३० पलादि तथा ५२-३० विपलादि न्यून है। (२) ब्रह्मगुप्त ने सायन सङ्क्रान्तियाँ ग्रहण की है। यह तथ्य शक ५४० में मेष सङ्क्रान्ति की गणना से प्रकाश में आया, क्यों कि जिस समय ब्रह्मगुप्त के मत से सूर्य का मेष राशि में संक्रमण हुआ उस समय से ५४-१-५३ घट्यादि पश्चात् आर्य सिद्धान्त से तथा ५४-५-५१ घट्यादि पश्रात् सूर्यसिद्धान्त से सूर्य का सङ्क्रामण मेष राशि में हुआ था। इतना ही नहीं उस काल में किसी भी समय की सायन संक्रान्ति का काल ब्रह्मगुप्त की गणना से साम्य रखता था। शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने दूसरा उदाहरण देते हुए लिखा हैं कि शक ५०६ में ब्राह्मसिद्धान्तानुसार स्पष्ट मेषसंक्रान्ति चैत्रशुक्ल ३ भौमवार दिनांक १८ मार्च सन् ५८७ के उज्जयिनीके मध्यम सूर्योदय से ५६ घटी ४० पल पर आती हैं। उस वर्ष में सायन स्पष्ट रवि की संक्रान्ति भी उसी दिन उसी समय आती है। ब्रह्मगुप्त का जन्म शक ५२० में हुआ था। उन्हों ने शक ५४० के आसन्न वेध करना आरम्भ किया होगा। शक ५४० में ब्राह्मसिद्धान्तानुसार स्पष्ट मेष संक्रान्ति चैत्र कृष्ण १ शनिवार को ५७ घटी २२ पल पर आती है तथा उस समय सायन स्पष्ट रवि का मान ० राशि ० अंश ३० कला आता है। अर्थात् ब्रह्मगुप्त की मेष संक्रान्ति के लगभग ३० घटी पूर्व सायन मेष संक्रान्ति होती है। मेष संक्रान्ति के समय ३० घटी में सूर्य की क्रान्ति लगभग १२ कला बढ़ती है। अतः शक ५४० में ब्राह्मसिद्धान्तीय मेष संक्रान्ति के समय सूर्य विषुव वृत्त से केवल १२ कला उत्तर रहा होगा। यदि उस दिन सूर्योदय के समय ही ब्राह्मसिद्धान्त की संक्रान्ति हुई होती तो उस समय पूर्व विन्दु से १२ कला उत्तर की ओर सूर्य का मध्यविन्द दिखाई दिया होगा। इस अन्तर के कारण यही हो सकते हैं-१. मेष संक्रान्ति सूर्योदय में ही नहीं हुआ करती थी। २. दिक्साधन में भी कुछ कलाओं की अशुद्धि होने की सम्भावना है। ३. वेध के साधन स्थूल थे। इन कारणों को ध्यान में रखते हुए यह सहज में जाना जा सकता है कि १२ कलाओं की अशुद्धि होना असम्भव नहीं है। इससे निश्चित रूप से यही ज्ञात होता है ब्रह्मगुप्त ३३६ सायन रवि के मेषसंक्रमण को ही मेष संक्रमण माना था। इस सन्दर्भ में ब्रह्मगुप्त का यह पद्य भी विचारणीय हैं। यदि भिन्नाः सिद्धान्ता भास्करसंक्रान्तयोऽ पि भेदसमाः। स स्पष्टः पूर्वस्यां विषुवत्यर्कोदयो यस्य ।। २४.४।। अर्थात् यदि सिद्धान्त भिन्न हैं तो सूर्य की संक्रांतियाँ भी उसी भेदानुसार ही होनी चाहिए। परन्तु वह सूर्य तो विषुव दिन में उदय के समय पूर्व में स्पष्ट दिखाई देता है। इसका आशय यही है कि सूर्य की संक्रान्तियाँ आकाश में भिन्न-भिन्न समयों में नहीं दिखाई देगी। यहाँ विषुव दिन के सूर्योदय कालीन सूर्य का उल्लेख हैं। अतः वह सायन ही है और यह भी स्पष्ट है कि ब्रह्मगुप्त ने यह बात वेध के आधार पर लिखी है। उन्होंने अयन की चर्चा नहीं की हैं। इससे यह अनुमान है कि उन्हें अयन गति का ज्ञान नहीं था। यदि उस समय अयनगति का ज्ञान रहा भी होगा तो यह स्पष्ट है कि ब्रह्मगुप्त ने अयन का विचार नहीं किया है। अतः उनकी दृष्टि में सायन और निरयन दो भिन्न पदार्थ नहीं थे। उन्होंने अपने सिद्धान्त को इस प्रकार बनाया कि उससे सायन ही सूर्य आये। सायन और निरयन की यह अभेद व्यवस्था उन्हीं के काल तक थी। इसका कारण यही था कि आचार्य ब्रह्मगुप्त ने प्राचीन परम्परा से प्रभावित होकर अपने काल में पड़ने वाले संक्रान्ति के अन्तर (५४ घटी) को कलियुगारम्भ से ग्रन्थरचना काल के अन्तर्गत विभक्त कर अपनी त्रुटि का समाधान कर लिया। इस संशोधन से यद्यपि वर्षमान में कुछ न्यूनता आगई किन्तु मेष संक्रान्ति में सूर्योदय ठीक पूर्व दिशा में होने की गणित को उन्होंने व्यवस्थित कर लिया। इस प्रक्रिया से तत्काल तो वे सन्तुष्ट होगये किन्तु एक बहुत बड़ा प्रश्न छोड़ गये कि सायन संक्रान्तियों को ग्रहण करते हुये सायन वर्षमान का ग्रहण क्यों नहीं किया? अन्ततः उनके समर्थक आचार्य भास्कर को यह कहना पड़ा .. “नहि क्रान्तिपातो नास्तीति वक्तुं शक्यते। प्रत्यक्षेण तस्योपलब्धत्वात्। उपलब्धिप्रकारमग्रे वक्ष्यति। तत् कथं ब्रह्मगुप्तादिभिर्निपुणैरपि नोक्त इति चेत्। तदा स्वल्पत्वात् तै!पलब्धः।” (वासनाभाष्य : गो०ब० १७-१६) आचार्य भास्कर ने स्वयं प्रश्र उठा कर स्वयं समाधान भी कर दिया कि अत्यन्त स्वल्प होने के कारण ब्रह्मगुप्त ने अयन गति का ग्रहण नहीं किया। अब अधिक होने के कारण उसका ग्रहण करनाआवश्यक है। यद्यपि सायन निरयन का विवाद आज भी है। परम्परा यही है कि वेध हेतु गणना सायन की की जाती है किन्तु पञ्चाङ्गों का निर्माण निरयन पद्धति से ही किया जाता है। आचार्य ब्रह्म गुप्त का वर्षमान भगण आदि उनकी मौलिक कल्पना हैं। इससे स्पष्ट हैं कि ब्रह्मगुप्त ने गोल गणित को भली भाति समझ लिया था। किन्तु परम्परा का अनुसरण एवं पूर्वाचार्यों का सम्मान भी उन्हें अभीष्ट था। इस लिए अपने मत का केवल संकेत कर पुनः परम्परा पर आगये। ३४० ज्योतिष-खण्ड

ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त

इस ग्रन्थ में कुल २४ अध्याय हैं तथा कुल श्लोक संख्या १००८ है। इनमें से आरम्भ के दस अध्यायों में सामान्यतया ज्योतिष के सैद्धान्तिक विषयों का प्रदिपादन किया गया है। शेष अध्यायों में गणितीय विषयों के साथ-साथ कुछ अन्य विषयों का भी उल्लेख किया गया है। यथा-दूषणाध्याय, अङ्कगणित, बीजगणित तथा यन्त्रों का वर्णन पृथक्-पृथक् चार अध्यायों में तथा अन्य अध्यायों में उपपत्तियाँ दी गई हैं। अलबेरुनी ने भी ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त की अध्याय क्रम से सूची दी हैं। प्रथम अध्याय में भूमण्डल की प्रकृति, आकाश और पृथ्वी का आकार, अ. २-में ग्रहों की परिक्रमा, कालगणना, मध्यमग्रहानयन, वृत्तांश की ज्या साधन, अ.३-ग्रहों के स्थानों का शोधन, अ. ४-छाया नतांश- उन्नतांश का साधन, अ. ५-ग्रहों के उदयास्त का साधन अ. ६. श्रृङ्गोन्नति का साधन, अ. ७- चन्द्रग्रहण, अ. ८-सूर्यग्रहण, अ. ६-चन्द्रमा का प्रतिविम्ब साधन, अ. १०-ग्रहों के समागम और युति का साधन आदि २४ अध्यायों की विषय सूची दी गई है। सूची के अन्त में लेखक ने स्वयं लिखा है कि ये चौवीस अध्याय हैं। लेकिन एक पचीसवाँ अध्याय भी हैं। जिसका शीर्षक ध्यानग्रह अध्याय है तथा जिसमें अनुमान से निर्मयों का समाधान करने का प्रयत्न किया है, गणितीय परिकलन से नहीं। मैंने इस अध्याय को सूची में इस लिये नहीं गिनवाया है कि उसने जो दावे किये हैं उनका गणितज्ञों ने खण्डन किया है। मेरा विचार है कि ये स्थापनायें इस लिये की गयी हैं कि उनसे सभी खगोल शास्त्रीय पद्धतियों का तात्विक अनुपात निकल आये वरना इस विज्ञान के किसी भी निर्भय का भला गणित से इतर किसी अन्य विषय के द्वारा कैसे समाध न किया जा सकता हैं।’ प्रतिपादित विषयों एवं मानों का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त आचार्य की मौलिक रचना है। बहुत सम्भव है कि पूर्व उल्लिखित ब्राह्म सिद्धान्तों से भिन्न यह नवीन सिद्धान्त हो। डॉ० एस० बालचन्द्रराव के इस कथन से भी इस धारणा को समर्थन मिल रहा हैं। “पूर्व में कहा गया था कि ब्रह्मगुप्त के इस सिद्धान्त के अलावा दो और ब्राह्म या पैतामह सिद्धान्त हैं जो शाकल्य तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण में संकलित हैं परन्तु ब्रह्मगुप्त की रचना इन दोनों से खगोलीय तत्त्वों के सन्दर्भ में स्वतन्त्र हैं। वस्तुतः ब्रह्मगुप्त के बाद केवल उनका ग्रन्थ ही ब्राह्मसिद्धान्त के नाम से जाना जाता रहा हैं।“२ शंकरबालकृष्णदीक्षित ने भी संकेत किया है कि ब्राह्मसिद्धान्त की ग्रहभगण संख्यायें अन्य सिद्धान्तों से भिन्न हैं, पर ब्राह्म सिद्धान्त और आधुनिक यूरोपियन ग्रन्थों द्वारा लाए ब्रह्मगुप्त ३४१ हुए शके ४२१ के मध्यम ग्रहों में विशेष अन्तर नहीं हैं। इससे ज्ञात होता है ब्रह्मगुप्त ने अपने समय में वेधानुकूल ग्रह लाने के लिए उनके भगणों की स्वयं कल्पना की हैं। मन्दोच्च और पातों की तुलना से भी उनका तद्विषयक अन्वेषण ज्ञात होता है। इस प्रकार वर्षमान, ग्रहभगण संख्या और उच्च पात भगणों से यह स्पष्ट सिद्ध होता हैं कि ब्रह्मगुप्त स्वयं वेध करने वाले अन्वेषक थे और ज्योतिषशास्त्र में यही सबसे अधिक महत्व की बात है। स्पष्टाधिकार के द्वितीय अध्याय में उन्होंने लिखा है कि ब्रह्मोक्त रवि-शशि और उनके द्वारा लाई हुई तिथि ही शुद्ध है। अन्य तन्त्रों द्वारा लाई हुई दूरभ्रष्ट हैं। यह विश्वास पूर्ण उक्ति भी यही संकेत देती है कि ब्रह्मगुप्त गणितागत मानों का वेध द्वारा परीक्षण भी किया करते थे। पूर्ववर्ती अन्य सिद्धान्तों पर कटाक्ष करते हुए कहा हैं कि अन्य सिद्धान्तों से साधित सूर्य संक्रान्तियाँ भिन्न आती हैं। एसी स्थिति में किस सिद्धान्त को शुद्ध और प्रामाणिक माना जाय। स्पष्ट सिद्धान्त वही होगा जिससे साधित मेष और तुला की सूर्यसंक्रान्ति के समय पूर्व स्वस्तिक पर ही सूर्योदय दृश्य हो।'

अंक गणित

ब्रह्मगुप्त निःसन्देह महान् गणितज्ञ थे। उन्होंने अपने गणित की प्रशंसा में स्वयं लिखा हैं नाचार्यों ज्ञातैरपि तन्त्रैरार्यभटविष्णुचन्द्राद्यैः। यो ब्रह्मधूलिकर्मविदाचार्यत्वं भवति तस्य। अर्थात् आर्यभट विष्णुचन्द्र आदि आचार्यों के तन्त्रों को जान लेने मात्र से कोई आचार्य नहीं होता। आचार्यत्व तभी प्राप्त होता है, जब ब्रह्मगुप्त के धूलिकर्मादि गणित का ज्ञान कर लेता हैं। अपनी गणित का परिचय देते हुए आचार्य ने लिखा हैं बीस परिकर्म तथा संकलितादि छायान्त आठ व्यवहारों का ज्ञान जिसे हो जाता है वहीं गणितज्ञ होता हैं।' उक्त कथन से यह व्यक्त होता है कि ब्रह्मगुप्त ने गणित को अत्यधिक महत्व दिया हैं। यही कारण है कि सोदाहरण सभी परिक्रमों तथा व्यवहारों का विस्तृत विवेचन अपने ग्रन्थ में किया हैं। कुछ विद्वानों का मत हैं कि संकलन-व्यवकलन, शून्य तथा ऋण अंक का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रह्मगुप्त ने ही किया था। व्यास और परिधि के सम्बन्ध को भी १० के वर्गमूल के तुल्य परभाषित किया है। १. भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ-३०६ । २. यदि भिन्नाः सिद्धान्ता भास्करसंक्रान्तयोपि भेदसमाः। स्पष्ट: पूर्वस्यां विषुवत्यर्कोदयो यस्य ।। ब्र० स्फु० सि० २४.४। ३. ब्रा० स्फु० सि०, भग्रहयुत्यधिकार, ६२। ४. परिकर्म विंशतिं यः संकलिताद्यां पृथक् विजानाति। अष्टौ च व्यवहारान् छायान्तान् भवति गणकः ।। -ब्र.स्फु.सि., ग. अ.-१। १. भारत, अलबेरुनी, पृष्ठ-६६-६७। २. इण्डियन मेथामेटिक्स एण्ड एस्ट्रोनोमी, पृष्ठ १०४। ३४२ ज्योतिष-खण्ड ब्रह्मगुप्त ३४३ | चन्द्रोच्च | ४८८१०५८५८ …….. …….. | शुक्र । ७०२२३८६४६२ । ६५३ ८ ६३ | राहु २३२३१११६८ |…….. | …….. | शनि । १४६५६७२६८ | ४१ ५८४ ।

बीजगणित

वस्तुतः अंक गणित का मूल भी बीजगणित में ही निहित है, जैसा कि भास्कराचार्य ने लिखा हैं मंगल २२६६८२८५२२ २६२ २६७ । उत्पादकं यत् प्रवदन्ति बुद्धरधिष्ठितं सत्पुरुषेण सांख्या। व्यक्तस्य कृत्स्नस्य तदेकबीजमव्यक्तमीशं गणितं च वन्दे ।। (बीजग.) अर्थात् सभी अंक गणित के सूत्रों या प्रक्रियाओं का मूल बीजगणित में ही निहित है। बीजगणित की गूढ़ प्रक्रिया भी कुट्टक में निहित है। इसी लिए ब्रह्मगुप्त ने कहीं पर बीजगणित को भी कुट्टक गणित के नाम से व्यवहृत किया है। कुट्टक का महत्व बतलाते हुए आचार्य ने लिखा हैं कि प्रायः बहुत से प्रश्रों के उत्तर कुट्टक के बिना नहीं मिल पाते हैं। अतः मैं कुट्टक गणित को (प्रश्नों उदाहरणों के साथ) कह रहा हूँ। यथा प्रकरण के आरम्भ में ही लिखा हैं प्रायेण यतः प्रश्नाः कुट्टाकारादृते न शक्यन्ते। ज्ञातुं वक्ष्यामि ततःकुट्टाकारं सह प्रश्नैः।। कु.१। इसके अतिरिक्त बीजगणित के अन्तर्गत, शून्यपरिकर्म, संकलन, व्यवकलन, समीकरण, मध्यमाहरण, वर्गप्रकृति तथा भावित आदि गणित प्रक्रियाओं का विस्तृत विवेचन किया है।’ इनकी गणितीय विवेचनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि पाइथागोरस और पेल्स आदि के नामों से प्रसिद्ध अनेक प्रमेयों को आचार्य ब्रह्मगुप्त ने बहुत पहले ही सिद्ध कर लिया था।

खगोल

प्रायः सभी सिद्धान्तकारों ने कल्पारम्भ तथा सृष्ट्यारम्भ को पृथक्-पृथक् काल में माना है, किन्तु ब्रह्मगुप्त ने दोनों को साथ-साथ माना हैं। इनके द्वारा दिये गये सभी ग्रहों के भगणों के मान कल्पारम्भ के अतिरिक्त किसी भी अन्य समय में एक साथ एक ही विन्दु पर सभी ग्रहों की स्थिति सूचित नहीं करते हैं। जैसा कि भारतीय ज्योतिष में दर्शाया गया हैं। कल्पीय भगणमान मन्दोच्च | भोगभगण पृथ्वी के स्वरूप को समुचित रूप से प्रतिपादित करने के साथ-साथ पृथ्वी के आकर्षण शक्ति का भी निरूपण किया है। ब्रह्मगुप्त के इस सिद्धान्त को प्रकाशित करते हुए पाश्वात्य विद्वान् थामस खोसी ने लिखा है कि जैसे पानी का प्रवाह उसका स्वभाव है उसी प्रकार किसी भी पिण्ड को अपनी ओर आकर्षित करने का पृथ्वी का भी स्वभाव है। इसी लिए आकाशस्थ पिण्ड पृथ्वी की ओर गिरता है। आचार्य भास्कर ने इसी आशय को सिद्धान्त शिरोमणि में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरुं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या। आकृष्यते तत् पततीव भाति समं समन्तात् क्व पतत्वियं खे।। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का स्पष्ट उल्लेख दोनों आचार्यों ने कर दिया है। अनन्तर भू केन्द्रिक ग्रहकक्षा के आधार पर दो दिनों के मध्यम ग्रहों का साधन कर उनके अन्तर को ग्रहगति मान कर अनुपात द्वारा कल्पग्रह-भगण के साधन का सूत्र दिया है कि ज्ञातं कृत्वा मध्यं भूयोऽन्यदिने तदन्तरं भुक्तिः। त्रैराशिकेन भुक्त्या कल्पग्रहमण्डलानयनम् ।। अर्थात् यदि एक दिन में दिनद्वयान्तर तुल्य गति तो कल्पकुदिन में क्या? कल्पग्रहभगण। इस प्रकार ब्रह्मगुप्त ने अंकगणित से लेकर ग्रहगणित तक अनेक सिद्धान्तों का प्रदिपादन कर अपनी अद्भुति प्रतिभा का परिचय दिया, जिसका सम्मान परवर्ती विद्वानों ने भी किया है। आज भी गणित के क्षेत्र में ब्रह्मगुप्त का नाम आदर के साथ लिया जाता हैं।

खण्डखाद्यकम्

यह ब्रह्मगुप्त की दूसरी प्रसिद्ध कृति है। इसकी रचना आचार्य ने ६७ वर्ष की अवस्था में की थी। इसके नामकरण के सम्बन्ध में कोई प्रमाणिक आधार उपलब्ध नहीं हैं। सम्भवतः रुचिकर एवं सरल सिद्धान्त सूचित करना ही उद्देश्य रहा हो। इस सन्दर्भ में अलबरूनी ने लिखा है “सुग्रीव नामक एक बौद्ध ने खगोलशास्त्र पर एक पुस्तिका लिखी जिसका नाम उसने ‘दधिसागर’ रखा। उसके एक शिष्य ने भी उसी प्रकार की एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ग्रह भोगभगण | पातभगण ग्रह मन्दोच्चभगण |पातभगण भगण सूर्य | ४३२००००००० ४८० १७६३६६६८६८४ | ३३२ ५२१ चन्द्र ५७७५३३००००० ३६४२२६४५५ ८५५. ६३ १. कुट्टकर्णधनाव्यक्तमध्यहरणैकवर्णभावितकैः। आचार्यस्तन्त्रविदां ज्ञातैर्वर्गप्रकृत्या च।। कु. २। २. भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ-३०२। १. एलीमेन्टरी नम्बर थियोरी बिद् एप्लीकेशन्स, पृष्ठ-५६७। २. सिद्धान्त-शिरोमणि, (गो०अ०)। ३. ब्रा० स्फु० सि०, शं० छा० १२ । ३४४ ज्योतिष-खण्ड ब्रह्मगुप्त ३४५ था ‘कुरबाबय’ अर्थात् धान्यपर्वत। बाद में उसने एक और पुस्तक लिखी जिसका नाम रखा लवणमुष्टि अर्थात् मुट्ठी भर नमक इस लिए ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक का नाम खाद्यक रखा जिसका उद्देश्य यह बताना था कि इस विज्ञान पर जो भी ग्रन्थ लिखा जाय उसके नाम में सभी प्रकार की खाद्यसामग्री (जैसे दही, चावल, नमक आदि) का उल्लेख किया जाय।” _ आगे अलबेरुनी लिखता है-“करण खण्डखाद्यक नामक पुस्तक में आर्यभट के सिद्धान्त का प्रतिपादन मिलता है। इस लिए ब्रह्मगुप्त ने बाद में एक और पुस्तक लिखी जिसे उसने उत्तर खण्डखाद्यक यानी खण्डखाद्यक की व्याख्या नाम दिया। इस पुस्तक के बाद एक और पुस्तक लिखी गई जिसका नाम था खण्डखाद्यक टिप्पणी जिसके बारे में मुझे यह जानकरी नहीं है कि उसका रचयिता ब्रह्मगुप्त है या कोई और। उसमें खण्डखाद्यक में प्रयुक्त परिकलनों के स्वरूप के कारण स्पष्ट किये गये हैं। मेरा ख्याल है कि यह बलभद्र की रचना हैं। नामकरण का कारण जो भी हो किन्तु ग्रन्थ रचना का उद्देश्य तो स्पष्ट है। ब्रह्मगुप्त ने स्वयं लिखा है इसके अतिरिक्त भी खण्डखाद्यकम् में कुछ मूलभूत परिवर्तन किये गये हैं। इस ग्रन्थ में ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के वर्षमान का ग्रहण न कर मूल सूर्यसिद्धान्त के वर्षमान का ग्रहण किया गया है, जो ३६५-१५-३१-३० है। युग प्रवृत्ति का समय सूर्योदय में न मान कर सूर्य सिद्धान्त की तरह मध्यरात्रि में माना गया है। शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है कि गन्थ के आरम्भ में ५८७ शक का उल्लेख है। उस वर्ष स्पष्टमान से वैशाख शुक्ल प्रतिपदा रविवार को आती है। इसमें क्षेपक उसके पूर्व की मध्यरात्रि अर्थात् चैत्रकृष्ण अमावास्या शनिवार की मध्यरात्रि के हैं और वहीं से अहर्गण साधन किया गया है। मूल सूर्यसिद्धान्तानुसार मध्यम मेष संक्रान्ति उसी शनिवार को १२ घटी ६ पल पर आती है। जो क्षेपक ग्रहण किये गये हैं वे निम्न लिखित तालिका में दर्शाये गये हैं।’ वि. वि | सूर्य । ०० चन्द्र । ०० अं| ०० ०६ क ३२ ०६ २२ | बुध ४३ | चन्द्रोच्च १० राहु ०० | २३ मंगल ०३ | १० १३ ०६ ….. वक्ष्यामि खण्डखाद्यकमाचायार्यभटतुल्यफलम्। प्रायेणार्यभटेन व्यवहारः प्रतिदिनं यतोऽशक्यः। उद्वाहजातकादिषु तत्समफललघुतरोक्तिरतः।। आर्यभट की गणना के अनुसार विवाह, जातक आदि से सम्बन्धित प्रतिदिन के कार्यो की सिद्धि सम्भव नहीं होपाती है इसलिए आचार्य आर्यभट के तुल्य (शुद्ध) फल देने वाले सरल रीतियों से युक्त खण्डखाद्यकम् की रचना कर रहा हूँ। इस सन्दर्भ में यह भी सम्भावना की जाती है कि आर्यभट सिद्धान्त उनकी गणनायें शुद्ध और सूक्ष्म थी। उनके अनुपात में ब्रह्मगुप्त की गणना में कुछ त्रुटियाँ दिखलाई दी। इसलिए अपने सिद्धान्त की त्रुटियों का निराकरण करते हुए परिष्कृत एवं सरल खण्डखाद्यकम् की रचना की, जो शुद्धता में आर्यभट के तुल्य है। यद्यपि ब्रह्मगुप्त आर्यभट के प्रबल आलोचक थे फिर भी उन्हों ने आर्यभट की विशेषताओं को न केवल स्वीकार किया अपितु अपनी त्रुटियों का परिष्कार भी किया। खण्डखाद्यकम् दो भागों में हैं। १. पूर्वखण्ड, २. उत्तर खण्ड। (सम्भवतः उत्तर खण्ड को ही अलबेरुनी ने उत्तर खण्डखाद्यम् नामक दूसरी रचना लिखा हैं।) पूर्वखण्ड में ६ अधिकार तथा १६४ पद्य (आर्यायें ) हैं तथा उत्तर खण्ड में ५ अधिकार और ७१ आर्यायें हैं। पूर्वार्ध की अपेक्षा उत्तरार्ध अधिक परिष्कृत है। क्यों कि पूर्वार्ध में स्वीकृत मानों को उत्तरार्ध में संशोधित किया है। शक ५८७ के चैत्र कृष्ण अमावास्या शनिवार की मध्यरात्रि के मूल सूर्यसिद्धान्त के भगणादि द्वारा लाये गये ग्रहों में से चन्द्रोच्च और राहु को छोड़कर शेष सभी उपर्युक्त क्षेपकों से बिलकुल ठीक-ठीक मिलते हैं। आर्यभटीय सिद्धान्त द्वारा लाये गये ग्रह इनसे नहीं मिलते। इससे सिद्ध होता है कि वर्षमान, अहर्गणारम्भ और प्रायः क्षेपक इन सब बातों में खण्डखाद्यकरण का मूल सूर्यसिद्धान्त से साम्य रखता है। अलबेरुनी का यह कथन कि ‘खण्डखाद्यकम्’ में आर्यभट के सिद्धान्तों को ग्रहण किया गया हैं-उसकी या अनुबादकों की भूल भी हो सकती है। यह स्पष्ट है- कि ब्रह्मगुप्त ने अपने सिद्धान्तों के परिष्कार में सूर्यसिद्धान्त का आधार लिया है न कि आर्यभट का। वस्तुतः ब्रह्मगुप्त महान् गणितज्ञ होने के साथ-साथ सफल बेधकर्ता भी थे। इसलिये उन्होंने अपने ही सिद्धान्तों में त्रुटियाँ देख कर स्वयं ही उनके परिष्कार का प्रयास किया। १. भारत, अलबेरुनी, पृष्ठ-६७। १. भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ-३०८ ।

३४६ ज्योतिष-खण्ड पूर्व खण्ड में ब्रह्मगुप्त ने सूर्य का मन्दोच्च २ राशि २० अंश लिखा है, किन्तु उत्तर खण्ड में शुद्ध कर २ राशि १७ अंश कर दिया। इसी प्रकार अन्य ग्रहों के मन्दोच्चों में भी परिष्कार किया है। बुध और शुक्र के शीघ्रफल तथा शनि के गणितागत मन्द फल में संशोधन किया गया है, जो निम्न तालिका द्वारा दर्शाया गया हैं। | ग्रह पूर्वखण्ड उत्तर खण्ड | अन्तर सूर्य मन्दोच्च । २ रा. २० अंश | २०, १७’ । -००.०३० भौम मन्दोच्च ३ रा. २० अंश | ४ रा. ७ अंश | +००.१७° | गुरु मन्दोच्च ५ रा. १० अंश | ५ रा. २० अंश _ +००.१०° शुक्र शीघ्रफल गणितागत -००.०१०.१४’ शनि मन्दफल गणितागत -००.०५° बुधशीघ्रफल गणितागत बुधशी.फ.. बुशी.फ १६ उक्त विवरणों से स्पष्ट है कि खण्डखाद्यकम् के पूर्व खण्ड में प्रतिपादित विषयों की अपेक्षा उत्तर खण्ड में अधिक सूक्ष्म गणितीय विवेचन उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ में आचार्य ब्रह्मगुप्त की गणितीय एवं खगोलीय ज्ञान एवं प्रतिभा का पूर्ण परिचय मिलता हैं।