१९ भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा

प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय

जैन ज्योतिष के मूल सिद्धान्त

ज्योतिष के क्षेत्र में जैन आचार्यों का भी बहुत बड़ा योगदान हैं। जैन साहित्य में ज्योतिष ग्रन्थों का विपुल भण्डार हैं। ज्योतिष के क्षेत्र में फलित और गणित की समानताओं के होने पर भी जैन-ज्योतिष में जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में कुछ अन्तर हैं। इनका कारण दार्शनिक मान्यताओं में तात्विक अन्तर का होना हैं। जैन ज्योतिष के मूल सिद्धान्तों को सार रूप में प्रस्तुत करने की दृष्टि से सिद्धान्त-संहिता-होरा तीनों स्कन्धों से कुछ विषयों पर यहाँ विचार किया गया हैं।

१. ग्रह भ्रमण का केन्द्र

जैनाचार्यों ने ग्रह-भ्रमण का केन्द्र सुमेरु पर्वत को माना है, जबकि अन्यत्र ध्रुव देश या निरक्ष को केन्द्र माना है। जहाँ वैदिक आचार्यों द्वारा सम्पूर्ण गणित और फलित ध्रुव केन्द्र के आधार पर प्रतिष्ठित है, वहाँ जैनाचार्यों का ग्रह गणित सुमेरु केन्द्र’ के आधार पर स्थित है। ग्रह नित्य गतिशील होते हुए मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं। ग्रहों की गति द्वारा ही काल की स्थिति मानी जाती है। जैन मान्यता के अनुसार इस जम्बू द्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्रमा माने गये हैं। एक सूर्य जम्बू द्वीप की पूरी प्रदक्षिणा दो अहोरात्र में करता है। सूर्य प्रदक्षिणा की गति उत्तरायण और दक्षिणायन इन दो भागों में विभक्त है और इनकी वीथियाँ-गमन मार्ग १८३ से कुछ अधिक है, जो सुमेरु की प्रदक्षिणा के रूप में गोल, किन्तु बाहर की ओर फैलते हुए हैं। इन मार्गो की चौड़ाई ४८/६१ योजन है तथा एक मार्ग से दूसरे मार्ग का अन्तर दो योजन बतलाया गया है। इस प्रकार कुछ भागों की चौड़ाई और . अन्तरालों का प्रमाण ५१० योजन है, जो कि ज्योतिषशास्त्र की परिभाषा में चार (संचार) क्षेत्र कहलाता है। ५१० योजन में से १८० योजन चार क्षेत्र जम्बू द्वीप में और अवशेष ३३० योजन लवण समुद्र में हैं। सूर्य एक मार्ग को लगभग दो दिन में पूरा करता है, जिससे ३६६ दिन या एक वर्ष उसे पूरा करने में लगता हैं। सूर्य जब जम्बूद्वीप के अन्तिम आभ्यन्तर मार्ग से बाहर की ओर निकलता हुआ लवण समुद्र की ओर जाता है, तब बाह्य लवण समुद्र के अन्तिम मार्ग पर चलने तक के काल को दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र के बाह्य अन्तिम मार्ग से भ्रमण करता हुआ له १. तत्वार्थसूत्र ४/१३। २. तत्वार्थसूत्र, ४/१३। ३. वही, ४/१४। ४. तिलोयपण्णत्ति, ७/११७ ।३१० ज्योतिष-खण्ड भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३११ mr आभ्यन्तर जम्बूद्वीप की ओर आता है, उसे उत्तरायण कहते हैं। इस प्रकार उत्तरायण और दक्षिणायन वर्षमान, योजनात्मिका गति एवं भ्रमण मार्गों की स्थिति सुमेरु के आधार पर ही वर्णित हैं। इतना ही नहीं ‘विषुव’ का विचार भी सुमेरु के अनुसार ही बतलाया गया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि ‘त्रिलोकसार’ और ‘जम्बूद्वीपपण्णत्ति’ में ‘विषुव’ का विचार उक्त केन्द्रानुसार ही किया गया है। यहाँ इस विचार को स्पष्ट करने के लिये नाक्षत्र, चान्द्र, सावन । और सौर मानों का प्रतिपादन किया जाता है। जैन चिन्तकों ने पञ्चवर्षात्मक युग का मान श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से माना’ हैं। एक नाक्षत्र वर्ष = ३२७ ५१ दिन हैं एक चान्द्र वर्ष = ३५४ १२, दिन एक सावन वर्ष = ३६० दिन एक सौर वर्ष = ३६६ दिन । आधिक मास सहित एक चान्द्र वर्ष = ३८३ दिन २१ १८. मुहूर्त । सुमेरु केन्द्रानुसार एक पंचवर्षीय युग में चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र का भोग (संयोग) ६७ बार करता है। ये ही ६७ चन्द्रमा के भगण कहलाते हैं। अतः पंचवर्षीय एक युग के दिनादि का मान इस प्रकार होगा एक युग में सौर दिन = १८०० एक युग में चान्द्र मास = ६२ एक युग में चान्द्र दिन = १८६० एक युग में क्षय दिन भगण या नक्षत्रोदय = १८३० चान्द्र भगण = ६७ चान्द्र सावन दिन = १७६८ एक अयन से दूसरे अयन पर्यन्त सौर दिन = १८० एक अयन से दूसरे अयन तक सावन दिन = १८३ चान्द्र वर्ष = २६ २२५ x १२ = ३५४ १२४२ अधिक मास सहित चान्द्र वर्ष . = ३८३ ४४६२ दिन _ सौर वर्ष = ३० x १२ = ३६६ दिन, यहाँ / मान गणित के अनुसार पूरा नहीं आता हैं। किन्तु %E मुहूर्त का अन्तर आता है। अतएव वर्ष ३६५ दिन से कुछ अधिक होता है, जो कि आजकल के वर्षमान के तुल्य हैं। जैन मनीषियों ने तिथि का आनयन भी उक्त प्रक्रिया द्वारा ही किया हैं, जो इस प्रकार है-जो चान्द्र संवत्सर में ३५४ १२४२ दिन होते है, अतएव एक चान्द्र मास में ३५४ १२४ १२ = २६ ३२४ दिन होते है और एक चन्द्रमास में दो पक्ष होते हैं। इसलिए २६ ३२४ दिन = २६ ३२८४ १५ मुहूर्त = ४४२ ४६८, मुहूर्त शुक्ल पक्ष और इतने ही मुहूर्त कृष्ण पक्ष के भी होते है। इसी हिसाब से एक तिथि का मान = २६ ३२/६२ ३० दिन = ६१, दिन = ६१/६२ x ३० x ३० = २५ ३२४ मुहूर्त। तिथि के भी दिन और रात्रि के भेद से दो भेद हैं। सौर दिन की अपेक्षा से दिन तिथि और रात्रि तिथि के पाँच-पाँच भेद हैं। इस प्रकार पर्व तिथियों, दैनिक तिथियों एवं सौर तिथियों का आनयन भी मेरु केन्द्र के आधार पर किया है। पञ्चवर्षात्मक युग का मान मानकर पञ्चांग गणित और ग्रह गणित दोनों की साधनिका उक्त गणनानुसार घटित की गयी है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर जैन चिन्तकों द्वारा निरूपित मान में किंचित् स्थूलता है, और उत्तरकालीन ज्योतिषियों द्वारा प्रतिपादित मान में सूक्ष्मता है। को इस स्थूलता का परिहार महेन्द्र सूरि ने नाड़ी वृत्त के धरातल में गोल पृष्ठस्थ सभी वृत्तों का परिणमन करके नयी विधि द्वारा किया है। इनके इस ग्रन्थ का नाम यन्त्रराज है। इस ग्रन्थ पर मलयेन्दु सूरिकी संस्कृत टीका भी है। सुमेरु केन्द्र मानने पर भी परमा क्रान्ति तेईस अंश पैतीस कला मानी गयी है। इसमें क्रमोत्क्रमज्यानयन, भुजकोटिज्या का चाप साधन क्रान्तिसाधन धुज्याखण्डसाधन, धुज्याफलानयन, अक्षांश से उन्नतांश साधन, अभीष्ट वर्ष के ध्रुवादि का साधन, दृक्कर्म साधन, द्वादश राशियों के विभिन्न वृत्त सम्बन्धी गणितों का साधन, इष्टशंकु से छायाकर्ण-साधन, यन्त्र शोधन प्रकार और उसके अनुसार विभिन्न १. सावण बहुल पंडिवये-सूरप्रज्ञप्ति। ३१२ ज्योतिष-खण्ड भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३१३ राशि और नक्षत्रों के गणित का साधन, द्वादश भाव और नवग्रहों के स्पष्टीकरण का गणित एवं ग्रह साधन द्वारा तिथि नक्षत्रादि गणित का साधन किया गया है। अतएव संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि मेरु को केन्द्र मानने पर भी ग्रहों के साधन में विशेष अन्तर नहीं आता है। स्पष्ट ग्रहों के आनयनार्थ जो ऋणात्मक या धनात्मक संस्कार किये जाते हैं, उनका वर्णन भी ‘सूर्यपण्णत्ति’ ज्योतिष्करण्डक एवं यन्त्रराज आदि ग्रन्थों में आया हैं। चन्द्र गगन खण्ड = १७६८ रवि गगन खण्ड = १८३० । ये गमन करने के कलात्मक खण्ड हैं, सूक्ष्म गणित नक्षत्र गगन खण्ड =१८३५ ) के अनुसार इनका चापात्मक मान प्रतिविकलात्मक हैं। अभिजित का मान ६३० गगनखण्ड, जघन्य नक्षत्रों का १८०५ गगन खण्ड, मध्यम नक्षत्रों के २०१० गगन-खण्ड, उत्तम नक्षत्रों के ३०१५ गगनखण्ड हैं। यह नक्षत्रों की कलात्मक मर्यादा का मान हैं।

ग्रह-कक्षा एवं ग्रह-गति सम्बन्धी विशेषताएँ

ग्रह कक्षाओं का वर्णन सूर्य सिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणि, सिद्धान्त तत्व विवेक आदि जैनेतर ग्रन्थों में आया हैं। जैन ग्रन्थों में भी ग्रह कक्षाओं का निर्देश सर्वार्ध सिद्धि, राजवार्तिक, तिलोयसार, तिलोयपण्णत्ति एवं जम्बूदीवपण्णत्ति जैसे ग्रन्थों में भी सर्वत्र विद्यमान हैं। जैन मनीषियों ने बतलाया है कि इस समान भूमितल से ७१० योजन ऊपर तारागण विचरण करते हैं। इससे दस योजन ऊपर जाकर सूर्य की कक्षा हैं। इससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा की कक्षा हैं। चन्द्रकक्षा से चार योजन ऊपर नक्षत्र कक्षा है और इससे चार योजन ऊपर बुध कक्षा हैं। बुध कक्षा से तीन योजन ऊपर शुक्र कक्षा, शुक्र कक्षा से तीन योजन ऊपर बृहस्पति कक्षा और बृहस्पति कक्षा से तीन योजन ऊपर भौम कक्षा और तीन योजन ऊपर शनिश्चर कक्षा हैं। इस प्रकार ग्रहों की कक्षाएँ तिर्यक रुप से अवस्थित हैं। जैन मान्यता में भी वातवलयों के आधार पर भूमि और ग्रह कक्षाओं को अवस्थित माना हैं। लोक को वातवलय वेष्टित किये हुए हैं और ग्रह कक्षाएँ पृथ्वी की आकर्षण शक्ति द्वारा अवस्थित हैं। ग्रह कक्षाओं की स्थिति में जो अन्तर दिखलाई पड़ता हैं, उस अन्तर के रहने पर सूक्ष्म गणित मान में कोई विशेष भेद नहीं आता है। अवएव ग्रह कक्षाओं की दृष्टि से जैन ज्योतिष की अपनी विशेषता हैं।

ग्रहण विषयक विशेषता

ग्रहण के सम्बन्ध में प्राचीन काल से ही विचार होता आ रहा हैं। जिस प्रकार मेघ सूर्य को ढ़क देता है, वैसे ही राहु चन्द्र को और केतु सूर्य के विमान को आच्छादित कर देता हैं। इस मान्यता की समीक्षा उत्तरकालीन ज्योतिषियों ने करते हुए ग्रहण का यथार्थ कारण अवगत कर गणित द्वारा आनयन का प्रयास किया है। छादक, छाद्य, छादनकाल और छादन की स्थिति का आनयन गणित प्रक्रिया द्वारा किया गया हैं। तिलोयपण्णत्ती में राहु और केतु को ग्रहण का कारण बतलाया है तथा गणित विधि द्वारा ग्रहण की आनयन विधि को प्रस्तुत किया है। यन्त्रराज में सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का विवेचन करते हुए लम्बन, और नति का आनयन कर ग्रहण की स्थिति ज्ञात की है। तिलोयपण्णत्ती में चन्द्रमा की कलाओं और ग्रहण को अवगत करने के लिए चन्द्र बिम्ब से चार प्रमाणांगुलि नीचे कुछ कम एक योजन विस्तार वाले कृष्ण वर्ण के दो प्रकार के राहुओं की कल्पना की गई है। इनमें एक तो दिनराहु और दूसरा पर्वराहु के विमान का बाहुल्य २५०/- योजन है। दिन राहु की गति चन्द्रमा की गति के समान मानी गयी है और उसे ही चन्द्रकलाओं का कारण कहा’ हैं। पर्व राहु चन्द्र ग्रहण का कारण है। राहु का इस स्थिति में आना गति विशेष के कारण नियमित रूप से होता हैं। सूर्य के १८४ वलय माने हैं। प्रत्येक वलय का विस्तार सूर्य व्यास के समान है, तथा प्रथम वलय और मेरु के बीच का अन्तराल ४४८२० योजन हैं। चन्द्र का भी इतना ही अन्तराल माना गया हैं। प्रत्येक वलय वीथि का अन्तराल दो योजन’ है। जम्बूद्वीप के मध्य बिन्दु को केन्द्र मानकर सूर्य के प्रथम पथ त्रिज्या ४६८२० योजन है। दोनों सूर्य और चन्द्र सम्मुख स्थित रहते हैं। अन्तिम वलय वृत्त में स्थित रहने पर दोनों ८००० ALL

ग्रहगति सम्बन्धी विशेषता

. जैनाचार्यों ने गगन खण्ड कर ग्रहों की गतियों का आनयन किया है। यह गति तीन प्रकार की हैं-(१) गगन खण्डात्मक, (२) योजनात्मक और (३) अंशात्मक। गगनखण्डात्मक गति का आनयन त्रिलोकसार में किया गया है। इसी ग्रन्थ के आधार पर योजनात्मिका गति भी निकाली जा सकती हैं। अंशकलात्मक गति आनयन की विधि ज्योतिष्करण्डक और यन्त्रराज में वर्णित हैं। यों तो सूर्यादि ग्रह के गमन मार्ग दीर्घ वृत्ताकार हैं। अतः उससे अंशात्मक गति के निकालने में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं आती हैं। आरम्भ में योजनात्मिका गति को कलात्मिका गति बनाने की युक्ति दी गयी हैं। गगनखण्डों को प्रतिविकलात्मक माना गया हैं। १. तिलोयपण्णत्ती, ७/२०१। २. वही, गाथा, ७/२१६.२१७। ३. वही, ७/२२८॥ १. तिलोयसार, गाथा ३३२ तथा सर्वार्ध सिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ-२४५। ३१४ ज्योतिष-खण्ड सूर्यो के बीच का अन्तर २ x (५००३३०) योजन रहता है। सूर्य के वलय वृत्त भी चन्द्र के वलय वृत्त के समान समापन, असमापन और कुन्तल के समान होता है। इस प्रकार चन्द्रमा के पन्द्रह वलय और सूर्य के १८४ वलय होते है। अपनी गगनखण्डात्मक गति के अनुसार जब राहु और चन्द्र एक समान सूत्र में बद्ध जैसे प्रतीत होते है, तो चन्द्र ग्रहण लगता है और केतु जब सूर्य के गमन वलय में समान सूत्र में आ जाता है तो सूर्य ग्रहण होता हैं। __ भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न नगरों में ये ग्रहण की स्थिति कब और किस प्रकार घटित होगी इस की जानकारी परिधियों के आनयन द्वारा की गयी हैं जिसे आज की भाषा में अक्षांश और रेखांश कहते हैं। नगरियों की परिधि का विकास क्रम उत्तरोत्तर ७१५७ सही ६/८ और १४७८६ योजन बढ़ता हुआ’ बतलाया हैं। परिधियों का असमानत्व भी है। इस असमानत्व का आनयन समत्वरण गति द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए यों कहा जा सकता है कि ४८ मिनट में प्रथम वलय की गति ५२५१ सही २६/६० है, तो एक मिनट में कितनी योजन होगी। इस प्रकार योजनात्मक गति निकाल कर ग्रहण का समय आनयन किया है। इस विधि से सूर्य और चन्द्र ग्रहणों का समय प्रत्येक नगर और स्थान में जाना जा सकता हैं। भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३१५ अन्त में कर्मभूमि की रचना रहती है। इस तृतीय काल के अन्त में चौदह कुलकर उत्पन्न होते है, जो प्राणियों को विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ देते हैं। प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति के समय में जब मनुष्य को सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े, तो वे इनसे सशंकित हए और अपनी शंका दूर करने के लिए उनके पास गये। उन्होंने सूर्य और चन्द्रमा सम्बन्धी ज्येतिष विषयक ज्ञान की शिक्षा दी। द्वितीय कुल करने नक्षत्र विषयक शंकाओं का निवारण कर अपने युग के व्यक्तियों को आकाश मंडल की समस्त बातें बतलाई। _ठाणांग’ और प्रश्न व्याकरण अंग में पञ्चवर्षात्मक युग एवं युगानुसार ग्रह नक्षत्र आदि की आनयन विधि प्रतिपादित है। इस प्रकार जैन चिन्तकों ने नक्षत्रों का कुल, उपकुल और कुलोपकुलों में विभाजन का वर्णन किया है। चन्द्रमा के साथ स्पर्श करने वाले एवं उसका वेध करने वाले नक्षत्रों का भी कथन आया है। अतएव इस आलोक में यह कहा जा सकता है कि ग्रहगणित सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ जैन ज्योतिष में समाहित है। भारतीय ज्योतिर्ग्रन्थों में ज्योतिष्करण्डक पहला जैन ग्रन्थ है, जिसमें लग्न का विचार किया गया है। राशि और लग्न के संबंध में फैली हुई भ्रान्त धारणा कि “भारतीयों ने इन सिद्धान्तों को ग्रीक से अपनाया है", ई० पूर्व शताब्दी में रचे गये उक्त ग्रन्थ से निरस्त हो जाती है।

सृष्टि प्रलय

जैन मान्यता में संसार का कोई स्रष्टा स्वीकार नहीं किया गया है। यह संसार स्वयं सिद्ध हैं, अनादिनिधन हैं, किन्तु भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पण काल के अन्त में खण्ड प्रलय होता है, जिससे कुछ पुण्यात्माओं को, जो विजयार्द्ध की गुफाओं में छिप गये थे, छोड़ सभी जीव नष्ट हो जाते है। उपसर्पण के दुःषम-दुःषम नाम प्रथम काल में जल, दुग्ध और घृत की वृष्टि से जब पृथ्वी स्निग्ध रहने योग्य हो जाती है, तो वे बचे हुए जीव आकर पुनः बस जाते हैं और उनका संसार चलने लगता है। जैन मान्यता में बीस कोड़ा-कोड़ी अद्धा सागर का कल्प काल बताया गया हैं। इस कल्प काल के दो भेद है- एक अवसर्पण और दूसरा उत्सर्पण। अवसर्पण काल के सुषम-सुषम, सुषम-दुःषम, दुःषम-सुषम, दुःषम और दुःषम-दुःषम ये छः भेद तथा उत्सर्पण के दुःषम-दुःषम-सुषम, सुषम-दुषम और सुषम-सुषम ये छः भेद माने गये हैं। सुषम-सुषम का प्रमाण चार कोड़ा-कोड़ी सागर, सुषम का तीन कोड़ा-कोड़ी सागर, सुषम-दुःषम का दो कोड़ा-कोड़ी सागर, दुःषम-सुषम का बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर, दुःषम का इक्कीस हजार वर्ष होता है। प्रथम और द्वितीय काल में भोग-भूमिकी रचना, तृतीय काल के आदि में भोगभूमि और

जातक फल निरूपण संबंधी विशेषताएँ

जैन मान्यता में ग्रह कर्मफल के सूचक बतलाये गये हैं। कुवलयमाला में लिखा है “पुव्व-कय-कम्म-रइयं सुहं च दुक्खं च जायए देहे” अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के उदय, क्षयोपशम आदि के कारण जीवधारियों को सुख और दुःख की प्राप्ति होती है। सुख-दुःख का देने वाला ईश्वर या अन्य कोई दिव्य शक्ति नहीं है। ग्रह कर्मफल की सूचना देते हैं। अतः वे सूचक निमित्त हैं, कारक निमित्त नहीं। निश्चित राशि और अंशों में रहने वाले ग्रह व्यक्तियों के कर्मोदय, कर्मक्षयोपशम या कर्मक्षय की सूचना देते है। जैन मान्यता में अट्ठासी ग्रह, अगणित नक्षत्र और तारिकाएँ बतलायी गयी हैं, इन इनमें प्रधान नव ग्रह ही हैं, और ये ज्ञानावरणादि कर्मों के सूचक हैं। बृहस्पति को ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम का प्रतीक माना जा सकता है। इसका विचार राशि अंश आदि के अनुसार कर, बाह्य व्यक्तित्व और अन्तरंग व्यक्तित्व का निरूपण किया जाता है। मोक्षगामी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विश्लेषण प्रधान रूप से बृहस्पति द्वारा ही सम्भव है। दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशमादि का प्रतीक बुध है। इस ग्रह द्वारा बुध संबंधी १. ठाणांग, ५/३/१० तथा समवायांग ६१ सूत्र। २. तहा कहन्ते कुला उवकुला कुलावकुला आहितोत्ति वदेज्जा, -प्रश्न व्याकरण १०/५। ३. ठाणांग, ८/१००। १. तिलोयणण्णत्ति, गाथा ७/२४६ । ३१६ ज्योतिष-खण्ड ३१७ भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा नामकर्मोदय का प्रतीक रवि या सूर्य है। इसकी सात किरणें मानी गयी हैं, जो मोहनीय और गोत्रकर्म की छोड़ शेष कर्मों की अभिव्यंजना करती हैं। मनुष्य विकास में सहायक इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति इन तीनों की सूचना सप्त किरणों द्वारा प्राप्त होती है। आत्मिक दृष्टिकोण की अपेक्षा से यह प्रभुता, ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता, महत्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मनियन्त्रण, विचार और भावनाओं का संतुलन एवं सहृदयता का प्रतीक है। इस प्रकार जैन चिन्तकों के अनुसार ग्रहों का फलसूचक निमित्त के रूप में उपस्थित होता है। व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा, सूचित फलादेश में उत्कर्ष, अपकर्ष, संक्रमण आदि कर सकता हैं। चांचल्य, वाक्-चातुर्य, नेत्रज्योति, आनन्द, उत्साह, विश्वास, अहंकार आदि बातों का विचार किया जाता है। साधारणतः यह आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है। __अनात्मिक दृष्टिकोण की अपेक्षा गुरु और बुध इन दोनों प्रतीकों द्वारा (ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न मिश्रित) स्कूलीय शिक्षा, कालेज शिक्षण, वैज्ञानिक प्रगति, साहित्यिक शक्ति, लेखन क्षमता, प्रकाशन क्षमता, धातुओं के परखने की बुद्धि, खण्डन-मण्डन शक्ति, चित्र और संगीत कला आदि का विचार किया जाता है। शारीरिक दृष्टिकोण से इस प्रतीक द्वारा मस्तिष्क, स्नायु क्रिया, जिह्वा, श्रवणशक्ति, ज्ञानेन्द्रियों की अन्तरंग और बाह्यक्षमता आदि का विश्लेषण विवेचन किया जाता है। . वेदनीय कर्मोदय का प्रतीक शुक्र है। शुक्र को शुभ दशा साता वेदनीय की सूचक है और अशुभ दशा असाता वेदनीय की। यह आन्तरिक व्यक्तित्व का भी प्रतीक है। सूक्ष्म मानव चेतनाओं की विधेय क्रियाओं का प्रतिनिधित्व भी इसके द्वारा होता है। प्राणी की भोगशक्ति का परिज्ञान भी शुक्र से प्राप्त किया जाता है। _अन्तराय कर्म क्षयोपशम को मंगल की स्थितियों द्वारा अवगत किया जाता है। यह मानव जाति के कल्याण का प्रतीक है और विभिन्न प्रकार विपत्तियों और बाधाओं का सूचक है। यों इसे बाह्य व्यक्तित्व के मध्यम रूप का व्यञ्जक माना है। , दर्शन मोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम का प्रतीक शनि है। यह समस्त ग्रहों में विशेष महत्वपूर्ण है। मानव प्राणी सांसारिक विषयभोगों में आसक्त हो, आधिभौतिक और आधिदैविक साधनों से त्रस्त हो जब वह आत्मा की ओर उन्मुख होता है, तो दर्शन मोहनीय कर्म के प्रतीक शनि का फलादेश माना जाता है। … चारित्र मोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम का सूचक राहु है। यह विचारशक्ति और क्रिया शक्ति का भी द्योतक है। जिस व्यक्ति पर राहु का पूर्ण प्रभाव रहता है, वह व्यक्ति संसार त्यागी बनता है अथवा घर में उदासीन रूप से निवास करता है। भक्ति योग, असम्प्रज्ञात समाधि, अनासक्त योग, ध्यानावस्था, आत्मानुभूति आदि का प्रतिनिधि भी इसे माना गया है। __ आयुकर्मोदय का प्रतीक चन्द्रमा है। चन्द्रमा के द्वारा मनुष्य की आयु, अरिष्ट, मानसिक क्षमता, आन्तरिक शक्ति आदि का ज्ञान किया जाता है। शरीर पर इसका प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है। __ आत्मिक दृष्टिकोण की अपेक्षा से यह संवेदन, आन्तरिक इच्छा, उतावलापन, भावना, कल्पना सतर्कता एवं लाभेच्छा पर प्रभाव डालता है। गोत्र कर्म का प्रतीक केतु ग्रह है। यह जीवन की उच्च एवं नीच भावनाओं की अभिव्यंजना करता है। इसके द्वारा कुल, जाति एवं रहन-सहन की जानकारी प्राप्त की जाती है। केतु को कष्ट और विपत्तियों के विश्लेषण का प्रतीक भी माना गया है।

स्वप्न शास्त्र एवं निमित्त शास्त्र सम्बन्धी विशेषताएँ

जैन मान्यता में शरीर के स्वस्थ रहने पर स्वप्न कर्मोदय के अनुसार घटित होने वाले शुभाशुभ फल के द्योतक बतलाये गये है। स्वप्न का अन्तरंग कारण ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय के क्षयोपशम के साथ मोहनीय का उदय है। जिस व्यक्ति के जितना अधिक इन कर्मो का क्षयोपशम होगा, उस व्यक्ति के स्वप्नों का फल भी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा। तीव्र कर्मों के उदय वाले व्यक्तियों के स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं। इसका मुख्य कारण जैनाचार्यों ने यही बतलाया है कि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा तो जागृत ही रहती है। केवल इन्द्रियों और मन की शक्ति विश्राम करने के लिए सुषुप्त सी हो जाती है, पर ज्ञान की उज्ज्वलता से क्षयोपशम जन्म शक्ति के कारण निद्रित अवस्था में जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवन से रहता है। इस प्रकार स्पप्न सम्बन्धी विशेषताएँ प्राप्त होती है। दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, भाविक और विकृत ये सात प्रकार के स्वप्न विस्तृत फलादेश सहित निरूपित किये गये हैं। किस स्वप्न का फल कितना किस अवस्था में घटित होता है, इसका भी विचार किया गया है। बाह्य निमित्तों को देखकर आगे होने वाले इष्टानिष्ट फल का निरूपण निमित्त शास्त्र में आया है। निमित्त शास्त्र विषयक स्वतंत्र रचनाएँ जैनाचार्यों की ही उपलब्ध होती हैं। जैनेतर ज्योतिष में संहिता शास्त्र के अन्तर्गत निमित्त के कतिपय विषयों का विवेचन अवश्य किया गया है पर कुछ विषय ऐसे है, जिसका विवेचन केवल जैन ज्योतिष में ही प्राप्त होता है। व्यंजन, अंग, स्वर, भौम, छिन्न, अन्तरिक्ष, लक्षण और स्वप्न इन आठ निमित्तें में से छिन्न, लक्षण और स्वर का जितना और जैसा विवेचन जैन ज्योतिष में पाया जाता है, वैसा अन्यत्र नहीं। अन्तरिक्ष, अंग, भौम और स्वप्न का संहिता ग्रन्थों में कथन आया है, पर छिन्न और स्वर निमित्त के संबंध में संहिता ग्रन्थ मौन है। ऋषि पुत्र निमित्त शास्त्र और १. भद्रबाहु संहिता, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १/८-१४ । ३१८ ज्योतिष-खण्ड ३१६ भद्रबाहु निमित्त के साथ ज्ञान दीपिका में छिन्न और स्वर का विस्तारपूर्वक निरूपण आया है। अतएव निमित्त वर्णन की दृष्टि से भी जैन ज्योतिष का पृथक् स्थान है।

  • ज्योतिष को प्रतिपादन का कारण बतलाते हुए भद्रबाहु संहिता के प्रारम्भ में बताया है कि मुनियों की निर्विघ्न चर्या, श्रावकों के कल्याण एवं राजाओं के राज्य व्यवस्था के परिज्ञानार्थ इस शास्त्र का निरूपण किया जाता है। बीतरागी साधु इस शास्त्र का अध्ययनकर संघ के निर्विघ्न विचरण हेतु विचार करते हैं, और श्रावक अपने कर्तव्य और धर्म के निर्वाह के हेतु परिवेश और परिस्थिति का विचार करते हैं। इस तरह ज्योतिष का उपयोग धर्म, संस्कृति और समाज सेवा के लिये किया गया है।

जैन ज्योतिष साहित्य का उद्भव और विकास

आगमिक दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र का विकास विद्यानुवादांग में किया गया है। षटूखंडागम धवलाटीका’ में रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित, रोहष, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन् और भाग्य ये पन्द्रह मुहूर्त आये हैं। _ मुहूर्तो की नामावली वीरसेन स्वामी की अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व परम्परा से प्राप्त श्लोकों को उन्होंने उद्धृत किया है। अतः मुहूर्त चर्चा पर्याप्त प्राचीन है। प्रश्नव्याकरण में नक्षत्रों की मीमांसा कई दृष्टिकोणों से की गई है। समस्त नक्षत्रों को कुल, उपकुल और कुलोपकुलों में विभाजन कर वर्णन किया गया है। यह वर्णन प्रणाली ज्योतिष के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल एवं उत्तराषाढ़ ये नक्षत्र कुलसंज्ञक, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहणी, पुनर्वसु, अश्लेषा, पूर्वफल्गुनी, हस्त स्वाति एवं पूर्वाषाढ़ा ये नक्षत्र उपकुलसंज्ञक और अभिजित, शतभिषा, आर्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल संज्ञक है। यह कुलोपकुल का विभाजन पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है। अभिप्राय यह है कि श्रावण मास के धनिष्ठा. श्रवण और अभिजित् भाद्रमास के उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद और शतभिषा, आश्विन मास के अश्विनी और रेवती, कार्तिक मास के कृत्तिका और भरणी, अगहन या मार्गशीर्ष मास के मृगशिरा और रोहिणी, पौष मास के पुष्य, पुनर्वसु और आर्द्रा, माघ मास के मघा और अश्लेषा, फाल्गुन मास के उत्तराफल्गुनी और पूर्वाफल्गुनी, चैत्रमास के चित्रा और हस्त, वैशाख मास के विशाखा और स्वाती, ज्येष्ठ मास के ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं आषाढ़ मास के भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा उत्तराषाढ़ा और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र बताये गये हैं। प्रत्येक मास की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुलसंज्ञक, दूसरा उपकुलसंज्ञक और तीसरा कुलोपकुल संज्ञक होता है। इस वर्णन का प्रयोजन इस महीने का फल निरूपण करना है। इस ग्रन्थ में ऋतु, अयन, मास, पक्ष और तिथि संबंधी चर्चाएँ भी उपलब्ध हैं। समवायांग में नक्षत्रों की ताराएँ, उनके दिशाद्वार आदि का वर्णन है। कहा गया है “कत्ति-आइया सत्तणमवत्ता पुव्वदारिया। मराइया सत्तषमवत्ता दाहिणदारिआ। अणुराहा-इया सत्तणक्खत्ता। धाणिट्ठाइया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया। अर्थात् कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा ये सात नक्षत्र पूर्वद्वार, मघा, पूर्वाफल्गुनी, उत्तराफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये नक्षत्र दक्षिणद्वार, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूल पूर्वाषाढ़ा उत्तरषाढ़ा अभिजित् और श्रवण ये सात नक्षत्र पश्चिमद्वार एवं धनिष्ठा, शतभिषा पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी ये सात नक्षत्र उत्तर द्वार वाले हैं। समवायांग १/६, २/४, ३/२, ५/८ में आयी हुई ज्योतिष चर्चाएँ महत्वपूर्ण है। _ठाणांग में चन्द्रमा के साथ स्पर्श योग करने वाले नक्षत्र का कथन किया गया है। वहाँ बतलाया गया है- कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा ये आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ स्पर्श योग करने वाले हैं। इस योग का फल तिथियों के अनुसार विभिन्न प्रकार का होता है। इसी प्रकार नक्षत्रों की अन्य संज्ञाएँ तथा उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व दिशा की ओर से चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्रों के नाम और उनके फल विस्तार पूर्वक बतलाये गये हैं। ठाणांग में अंगारक, काल, लोहिताक्ष, शनैश्चर कनक, कनक-कनक, कनकवितान, कनक-संतानक, सोमहित, आश्वासन, कज्जोवग, कर्वट, अयस्कर, दंदुयन, शंख, शंखवर्ण, इन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि, पिंगल, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राहु, अगस्त, भानवक्र, काश, स्पर्श, धुर, प्रमुख, विकट, विसन्धि, विमल, पीपल, जटिलक, अरुण, अगिल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवास्तिक, वर्द्धमान, पुष्पमानक, अंकुश, प्रलम्ब, नित्यलोक, नित्योदयित, स्वयंप्रभ, उसम, श्रेयंकर, प्रेयंकर, आयंकर, प्रभंकर अपराजित, अरज, अशोक, विगतशोक, निर्मल, विमुख, वितत, विलस्त, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्तक, एकजटी, द्विजटी, करकरीक, राजगल, पुष्पकेतु एवं भावकेतु आदि ६६ ग्रहों के नाम बताए गये हैं। समवायांग में भी उक्त ६६ ग्रहों का कथन आया है। ऐतिहासज्ञ विद्वान् गणित ज्योतिष से भी फलित को प्राचीन मानते हैं। अतः अपने कार्यों की सिद्धि के लिये समयशुद्धि की आवश्यकता आदिम-मानव को भी रही होगी। इसी १. भद्रबाहु संहिता, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १/८-१४। २. धवलाटीका, जिल्द ४, पृ० ३१८ । वैदिक वाङ्मय में शंकु की छाया के आधार पर मुहूत्र्तों का विवेचन किया गया है, जो इस प्रकार है १. रौद्र, २. श्वेत, ३. मैत्र, ४. सारभट, ५. सावित्र, ६. वैराज, ७. विश्वावसु, ८. अभिजित् इस क्रम तथा अभिजित् से व्युत्क्रम से १५ मुहूर्त कहे गये हैं। १. प्रश्नव्याकरण, १०५। २. समवायांग, सं. ७, सं. ५ । ३. ठाणांग, पृ० ६८-१०००। ३२० ज्योतिष-खण्ड कारण जैन आगम ग्रन्थों में फलित ज्योतिष के बीज-तिथि नक्षत्र, योग, करण, वार, समयशुद्धि, दिनशुद्धि आदि की चर्चाएँ विद्यमान है। जैन ज्योतिष-साहित्य का सांगोपांग परिचय प्राप्त करने के लिये निम्न चार कालखण्डों में विभाजित कर हृदयंगम करने में सरलता होगी। आदिकाल - ई० पू० ३०० से ६०० ई० तक। पूर्वमध्यकाल - ६०१ ई० से १००० ई० तक। उत्तर मध्यकाल - १००१ ई० से १७०० ई० तक। अर्वाचीन काल - १७०१ से १६६० ई० तक। आदिकाल की रचनाओं में सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, अंगविज्जा, लोकविजयन्त्र एवं ज्योतिष्करण्डक आदि उल्लेखनीय है। सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में लिखित एक प्राचीन रचना है। इस पर मलयगिरि की संस्कृत टीका है। ई० सन् से दो-सौ वर्ष पूर्व की यह रचना निर्विवाद सिद्ध है। इस में पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का साधन किया गया है। भगवान महावीर शासन तिथि श्रावणकृष्ण प्रतिपदा से, जबकि चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र पर रहता है, युगारम्भ माना गया है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के गमनमार्ग, आयु, परिवार आदि के प्रतिपादन के साथ पंचवर्षात्मक युग में अयनों के नक्षत्र, तिथि और मास का वर्णन भी किया गया है। चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय प्रायः सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है। विषय की अपेक्षा यह सूर्यप्रज्ञप्ति से अधिक महत्वपूर्ण है इसमें सूर्य की प्रतिदिन की योजनात्मिका गति निकाली गयी है तथा उत्तरायण और दक्षिणायन की वीथियों का अलग-अलग विस्तार निकाल कर सूर्य और चन्द्र की गति निश्चित की गई है। इसके चतुर्थ प्राभृत में चन्द्र और सूर्य का संस्थान तथा तापक्षेत्र का संस्थान विस्तार से बताया गया है। इसमें समचतुन, आदि विभिन्न आकारों का खण्डन कर सोलह वीथियों में चन्द्रमा को समचतुम्न गोल आकार बताया गया है। इसका कारण यह है कि सुषम-सुषम काल के आदि में श्रावणकृष्ण प्रतिपदा के दिन जम्बूद्वीप का प्रथम सूर्य पूर्व दक्षिण अग्निकोण में और द्वितीय चन्द्रमा पश्चिम-दक्षिण नैऋत्य कोण में चला। अतएव युगादि में सूर्य और चन्द्रमा का समचतुन संस्थान था, पर उदय होते समय ये ग्रह वर्तुलाकार निकले, अतः चन्द्रमा और सूर्य का आकार अर्धकपीठ-अर्ध समचतुम्न गोल बताया गया है। चन्द्रप्रज्ञप्ति में छाया साधन किया गया है और छाया प्रमाण पर से दिनमान भी निकाला गया है। ज्योतिष की दृष्टि से यह विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रश्न किया गया है कि जब अर्धपुरुष प्रमाण छाया हो उस समय कितना दिन व्यतीत हुआ और कितना भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३२१ शेष रहा? इसका उत्तर देते हुए कहा है कि ऐसी छाया की स्थिति में दिनमान का तृतीयांश व्यतीत हुआ समझना चाहिए। यहाँ विशेषता इतनी है कि यदि दोपहर पहले अर्धपुरुष प्रमाण छाया हो तो दिन का तृतीय भाग गत और दो तिहाई भाग अवशेष तथा दोपहर के बाद अर्धपुरुष प्रमाण छाया हो तो दो तिहाई भाग प्रमाण दिन गत और एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिए। पुरुष प्रमाण छाया होने पर दिन का चौथाई भाग गत एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिये। पुरुष प्रमाण छाया होने पर दिन का चौथाई भाग नत और तीन चौथाई भाग शेष, डेढ़ पुरुष प्रमाण छाया होने पर दिन का पंचम भाग गत और चार पंचम भाग (४/५ भाग) अवशेष दिन समझना चाहिए।’ इहं ग्रन्थ में सोल, त्रिकोण, लम्बी, चौकोर वस्तुओं की छाया पर से दिनमान का आनयन किया गया है। चन्द्रमा के साथ तीस मुहूर्त तक योग करने वाले श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढ़ ये पन्द्रह नक्षत्र बताए गये हैं। चन्द्रप्रज्ञप्ति के १६वें प्राभृत में चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बतलाया है तथा इसके घटने बढ़ने का कारण भी स्पष्ट किया है। १६वें प्राभृत में पृथ्वी तल से सूर्यादि ग्रहों की ऊँचाई बतलायी गयी है। ज्योतिष्करण्ड एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें अयनादि के कथन के साथ नक्षत्र लग्न का भी निरूपण किया गया है। यह लग्न निरूपण की प्रणाली सर्वथा नवीन और मौलिक है लग्गं च दक्षिणाय विसुवे सुवि अस्स उत्तरं अयणे। लग्गं साईवि सुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे।। अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न बताये गये हैं। जिस प्रकार नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था को राशि कहा जाता है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था को लग्न बताया गया है। इस ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि, भरण्यादि, श्रवणादि एवं अभिजित आदि नक्षत्र गणनाओं की विवेचना की गयी है। ज्योतिष्करण्ड का रचना काल ई० पू० ३०० के लगभग है। विषय और भाषा दोनों ही दृष्टियों से ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। _अंगविज्जा का रचनाकाल कुषाण-गुप्त युग का सन्धिकाल माना माना गया है। शरीर के लक्षणों से अथवा अन्य प्रकार के निमित्त या चिन्हों से किसी के लिए शुभाशुभ फल का कथन करना ही इस ग्रन्थ का वर्ण्य विषय है। इस ग्रन्थ में कुल साठ अध्याय है। लम्बें अध्यायों का माहात्म्य प्रभृति विषयों का विवेचन किया है। गृह प्रवेश, यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा आदि के द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। प्रवासी घर कब और कैसी स्थिति में लौटकर आयेगा, इसका विचार ४५वें अध्याय में किया गया है। ५२वें अध्याय में इन्द्र धनुष, विद्युत, चन्द्रग्रह, नक्षत्र, तारा, उदय, अस्त्र, अमावस्या, पूर्णमासी १. गए वा सेसे वा जाव चऊ भाग गए सेसे वा। चन्द्र प्रज्ञप्ति, ६-५। ३२२ ज्योतिष-खण्ड भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३२३ मंडल वीथी, युग, संवत्सर, ऋतु मास, पक्ष, लव मुहूर्त, उल्कापात, दिशादाह आदि निमित्तों से फलकथन किया गया है। सत्ताईस नक्षत्र और उनसे होने वाले शुभाशुभ फल का भी विस्तार से उल्लेख किया गया है। संक्षेप में इस ग्रन्थ में अष्टांग निमित्त का विस्तारपूर्वक विभिन्न दृष्टियों से कथन किया गया है। _लोकवियज यंत्र भी एक प्राचीन ज्योतिष रचना है। यह प्राकृत भाषा में ३० गाथाओं में लिखा गया है। इसमें प्रधान रूप से सुभिक्ष, दुर्भिक्ष की जानकारी बतलायी गयी है। आरम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहा है पणमिय पयारविंदे तिलोयनाहस्स जगपईवस्स। पुच्छामि लोयविजयं जंतं जंतूण सिद्धिकायं ।।’ जगत्पति-नाभिराय के पुत्र त्रिलोकनाथ ऋषभ देव के चरण कमलों में प्रणाम करके जीवों की सिद्धि के लिये लोकविजय यन्त्र का प्रतिपादन किया गया है। कृषि शास्त्र दृष्टि से भी ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। कालकाचार्यः- यह निमित्त और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने अपनी प्रतिभा से शककुल साहि को स्ववश किया था तथा गर्दभिल्ल को दण्ड दिया था। जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है। यदि यह आचार्य निमित्त और संहिता का निर्माण न करते, तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को पाप श्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते। वराहमिहिर ने बृहज्जातक में कालक संहिता का उल्लेख किया है। इनके मत से ग्रहों का केन्द्र सुमेरू पर्वत है, यह नित्य गतिशील होते हुए मेरू की प्रदक्षिणा करते हैं। चौथे अध्याय में ग्रह-नक्षत्र प्रकीर्णक और तारों का भी वर्णन किया गया है। __पूर्वमध्यकाल में गणित और फलित दोनों ही प्रकार के ज्योतिष का यथेष्ट विकास हुआ। इसमें ऋषिपुत्र, महावीराचार्य, चन्द्रसेन, श्रीधर प्रभृति ज्योतिर्विदों ने अपनी अमूल्य रचनाओं के द्वारा साहित्य की श्री वृद्धि की। __ भद्रबाहु के नाम पर अर्हच्चूड़ामणिसार नामक एक प्रश्नशास्त्र संबंधी ७४ प्राकृत गाथाओं में रचना उपलब्ध है। यह रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की है, इसमें तो सन्देह है। हमें ऐसा लगता है कि यह भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अतः संभव है कि इस कृति के लेखक यह द्वितीय भद्रबाहु ही होंगे। आरम्भ में वर्गों की संज्ञाएँ बतलायी गयी है। अ इ ए ओ, ये चार स्वर तथा क च ट त प य श ग ज ड द ब ल स ये चौदह व्यंजन अलिंगित संज्ञक हैं। इनका सुभग, उत्तर और संकट नाम भी है। आ ई ऐ ओ, ये चार स्वर तथा ख छ ठ थ फ ए ष घ झ ढ ध भ व ह ये चौदह व्यंजन दग्ध संज्ञक है। इनका विकट, संकट, अधर और अशुभ नाम भी है। प्रश्न में सभी अलिंगित अक्षर हों, तो प्रश्नकर्ता की कार्य सिद्धि होती है। प्रश्नाक्षरों के दग्ध होने पर भी कार्यसिद्धि का विनाश होता है। उत्तर संज्ञक व्यंजनों में संयुक्त होने से उत्तरतम और उत्तराधर तथा अधर स्वरों से संयुक्त होने पर उत्तर और अधर संज्ञक होते हैं। अधर संज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनों में संयुक्त होने पर अधराधरतर संज्ञक होते हैं। दग्धसंज्ञक व्यंजनों से मिलने से दग्धतम संज्ञक होते हैं। इन संज्ञाओं के पश्चात् फलाफल निकाला गया है। जय-पराजय, लाभालाभ, जीवन-मरण आदि का विवेचन भी किया गया है। इस छोटी सी कृति में बहुत कुछ निबद्ध कर दिया गया है। इस कृति की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इसमें मध्यवर्ती क ग और त के स्थान पर य श्रुति पायी गयी है। _करलक्खण- यह सामुद्रिक शास्त्र का छोटा सा ग्रन्थ है। इसमें रेखाओं का महत्व, स्त्री और पुरुष के हाथों के विभिन्न लक्षण, अंगुलियों के बीच के अन्तराल, पर्यों के फल, मणिबन्ध, विद्यारेखा, कुल, धन, उर्ध्व, सम्मान, समृद्धि, आयु, धर्म, व्रत आदि रेखाओं का वर्णन किया है। भाई, बहन, सन्तान आदि की द्योतक रेखाओं के वर्णन के उपरान्त अंगुष्ट के अधोभाग में रहने वाले यवका विभिन्न परिस्थितियों में प्रतिपादन किया गया है। यवका यह प्रकरण नौ गाथाओं में पाया जाता है। इस ग्रन्थ का उद्देश्य ग्रन्थकार ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है। इयं करलक्खणमेयं समासओ दंसिअं जइजणस्स। पुव्वायरिएहि णरं परिक्खउणं वयं दिज्जा।।६१।। यतियों के लिए संक्षेप में करलक्षणों का वर्णन किया गया है। इन लक्षणों द्वारा व्रत ग्रहण करने वाले की परीक्षा कर लेनी चाहिए। जब शिष्य में पूरी योग्यता हो, व्रतों का निर्वाह कर सके तथा व्रती जीवन को प्रभावक बना सके, तभी उसे व्रतों की दीक्षा देनी चाहिए। अतः स्पष्ट है कि इस ग्रंथ का उद्देश्य जनकल्याण के साथ नवागत शिष्य की परीक्षा करना ही है। इसका प्रचार भी साधुओं में रहा होगा। ऋषिपुत्र का नाम भी प्रथम श्रेणी के ज्योतिर्विदों में परिगणित है। इन्हें गर्ग का पुत्र भी कहा गया है। गर्ग मुनि ज्योतिष धुरन्धर विद्वान थे, इसमें कोई सन्देह नहीं। इनके संबंध में लिखा मिलता है। जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः। तेन स्वयं विनिर्णीते यं सत्पाशास्त्रकेवली।। एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनर्षिभिरुदाहृतम्। प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना।। १. भारतीय ज्योतिष, पृ० १०७ । १. अर्हच्चूड़ामणिसार, गाथा-१०-८ । ३२४ ज्योतिष-खण्ड ३२५ सम्भवतः इन्हीं गर्ग के वंश में ऋषिपुत्र हुए होंगे। इनका नाम ही इस बात का साक्षी है कि किसी ऋषि के वंशज थे अथवा किस मुनि के आर्शीवाद से उत्पन्न हुए थे। ऋषिपुत्र का एक निमित्त शास्त्र ही उपलब्ध है। इनके द्वारा रची गई एक संहिता का भी मदनरत्न नामक ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है। ऋषिपुत्र के उद्धरण वृहत्संहिता की महोत्पली टीका में उपलब्ध है। ऋषिपुत्र का समय वराहमिहिर के पहले होना चाहिए। यतः ऋषिपुत्र का प्रभाव . वराहमिहिर पर स्पष्ट है। यह दो एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। ससलोहिवण्णहोवरि संकुण इत्ति होइ णायब्बो। संगामं पुंण घोरं खग्गंसूरो णिवेदई।। (-ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्र) भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा इस ग्रंथ में संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कलासवर्णव्यवहार, प्रकीर्ण व्यवहार, त्रैराशिक व्यवहार, मिश्रक व्यवहार, क्षेत्र गणित व्यवहार, खातव्यवहार एवं छायाव्यवहार नाम के प्रकरण है। मिश्रक व्यवहार में समकुट्टीकरण, विषमकुट्टीकरण और मिश्रकुट्टीकरण आदि अनेक प्रकार के गणित है। पाटीगणित और रेखागणित की दृष्टि में इसमें अनेक विशेषताएँ हैं। इसके क्षेत्र व्यवहार प्रकरण में आयत को वर्ग और वर्ग को वृत्त में परिणित करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। समत्रिभुज, विषमत्रिभुज, समकोण, चतुर्भुज, विषमकोण, चतुर्भुज, वृत्तक्षेत्र, सूची व्यास, पंचभुजक्षेत्र एवं बहुभुज क्षेत्रों का क्षेत्रफल तथा घनफल निकाला गया है। _ज्योतिषपटल में ग्रहों के चार क्षेत्र सूर्य के मण्डल, नक्षत्र और ताराओं के संस्थान, गति, स्थिति और संख्या आदि का प्रतिपादन किया है। चन्द्रसेन- के द्वारा केवलज्ञान होरा नामक महत्वपूर्ण विशालकाय ग्रन्थ लिखा गया है। यह ग्रन्थ कल्याण वर्मा के पीछे रचा गया प्रतीत होता है। इसके प्रकरण सारावली से मिलते जुलते हैं पर दक्षिण में रचना होने के कारण कर्णाटक प्रदेश के ज्योतिष का पूर्ण प्रभाव है। इन्होंने ग्रन्थ के विषय को स्पष्ट करने के लिये बीच-बीच में कन्नड़ भाषा का भी आश्रय लिया है। यह ग्रन्थ अनुमानतः चार हजार श्लोकों में पूर्ण हुआ है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कहा है शश-रूधिरुरनिभे भानौ नभस्थले भवन्ति संग्रामाः। (-वराहमिहिर) अपने निमित्त शास्त्र में पृथ्वी पर दिखाई देने वाले, आकाश में दृष्टि गोचर होने वाले और विभिन्न प्रकार के शब्द श्रवण द्वारा प्रगट होने वाले इन तीन प्रकार के मिमित्तों द्वारा फलाफल का अच्छा निरूपण किया। वर्षोत्पात, देवोत्पात, राजोत्पात, उल्कोत्पात, गंधर्वोत्पात इत्यादि अनेक उत्पातों द्वारा शुभाशुभत्व की मीमांसा बड़े सुन्दर ढंग से की है। हरिभद्र की लग्नशुद्धि या लग्नकुंडिका नाम की रचना मिलती है। हरिभद्र दर्शन, कथा और आगम शास्त्र के बहुत बड़े विद्वान् थे। इनका समय आठवीं शती माना जाता है। इन्होंने १४४० प्रकरण-ग्रंथ रचे हैं। इनकी अब तक र रचनाओं का पता मुनि जिन-विजयजी ने लगाया है। इनकी २६ रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। . लग्नशुद्धि प्राकृत भाषा में लिखी गयी ज्योतिष रचना है। इसमें लग्न के फल, द्वादश भावों के नाम, उनसे विचारणीय विषय, लग्न के संबंध में ग्रहों का फल, ग्रहों का स्वरूप, नवांश, उच्चांश आदि का कथन किया गया है। जातकशास्त्र या होराशास्त्र का यह ग्रन्थ है। उपयोगिता की दृष्टि से इसका अधिक महत्व है। ग्रहों के बल तथा लग्न की सभी प्रकार से शुद्धि पापग्रहों का अभाव, शुभग्रहों का सद्भाव वर्णित है। _ महावीराचार्य-ये धुरन्धर गणितज्ञ थे। ये राष्ट्रकूट वंश के अमोधवर्ष नृपतुंग के समय में हुए थे। अतः इनका समय ई० सन् ८५० माना जाता है। इन्होंने ज्योतिष पटल और गणितसार-संग्रह नाम के ज्योतिष ग्रंथों की रचना की है। ये दोनों ही ग्रन्थ गणितज्योतिष के हैं? इन ग्रन्थों से इनकी विद्वत्ता का ज्ञान सहज ही में आँका जा सकता है। गणितसार के प्रारम्भ में गणित की प्रशंसा करते हुए बताया है कि गणित के बिना संसार के किसी भी शास्त्र की जानकारी नहीं हो सकती है। कामशास्त्र, गान्धर्व, नाटक, सूपशास्त्र, वास्तुविद्या, छन्दःशास्त्र, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण, कला प्रभृति का यथार्थ ज्ञान गणित के बिना सम्भव नहीं है, अतः गणित विद्या सर्वोपरि है। होरा नाम महाविद्या वक्तव्यं च भवद्धिदम्। ज्येतिर्ज्ञानैकसारं भूषणं बुधपोषणम्।। इन्होंने अपनी प्रशंसा भी प्रचुर परिमाण में की है आगमः सदृशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः। केवली सद्दशी विद्या दुर्लभा सचराचरे।। इस ग्रन्थ में हेमप्रकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिकाप्रकरण वृषप्रकरण, कर्पास गुल्म-वल्कल-तृण-रोम-चर्म-पटप्रकरण, संख्याप्रकरण, नष्टद्रव्य प्रकरण, निर्वाह प्रकरण, अपत्य प्रकरण, लाभलाभप्रकरण, स्वरप्रकरण, स्वपन प्रकरण, वास्तु प्रकरण, भोजन प्रकरण, देहलोहदीक्षा प्रकरण, अंजनविद्या प्रकरण एवं विष प्रकरण आदि हैं। ग्रन्थ के आद्योपान्त देखने से अवगत होता है कि यह संहिता विषयक रचना है, होरा विषयक नहीं। श्रीधर-ये ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान हैं। इनका समय दशवीं शती का अन्तिम भाग है। ये कर्णाटक प्रान्त के निवासी थे। इनकी माता का नाम अष्बोका और पिता का नाम बलदेव शर्मा था। इन्होंने बचपन में अपने पिता से ही संस्कृत और कन्नड़ साहित्य ३२६ ज्योतिष-खण्ड का अध्ययन किया था। प्रारम्भ में ये शैव थे, किन्तु बाद में जैन धर्मानुयायी हो गये थे। इनकी गणितसार और ज्योतिर्ज्ञानविधि संस्कृत भाषा में तथा जातकतिलक कन्नड़-भाषा में रचानाएँ हैं। गणित-सार में अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागनुबन्ध, भागमात्र जाति, त्रैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिमाण्ड, मिश्रक व्यवहार, भाव्यक व्यवहार, एकपत्रीकरण, सुर्वणगणित, प्रक्षेपक, गणित, समक्रय विक्रय, श्रेणी व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार, खातव्यवहार, चित्रिव्यवहार, काष्ठकव्यवहार, राशिव्यवहार एवं छाया व्यवहार आदि गणितों का निरूपण किया है। सम्भवतः ज्योतिज्ञान विधि और जातक तिलक भी इन्हीं की रचनायें हैं। मल्लिसेन-संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनके पिता का नाम जिनसेन सूरि था, ये दक्षिण भारत के धारदण्ड जिले के अन्तर्गत गदगतालुका नामक स्थान के रहने वाले थे। इनका समय ई० सन् १०४३ माना गया है। इनका आयसद्भाव नामक ज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आरम्भ में ही कहा गया हैं: सुग्रीवादिमुनीन्द्रैः रचितं शास्त्रं यदायसद्भावम्। तत्सम्प्रत्यार्थाभिर्विरच्यते मल्लिषेणेन।। ध्वजधूमसिंहमण्डल वृषाश्वगजवायसा भवन्तयायाः। ज्ञायन्ते ते विद्वद्भिरिहैकोत्तरगणनया चाष्टौ।।। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि इनके पूर्व भी सुग्रीव आदि जैन मुनियों के द्वारा इस विषय की और रचनाएँ भी हुई थीं, उन्हीं के सारांश को लेकर आयसद्भावकी रचना की गई हैं। इस कृति में १६५ आर्याएँ और अन्त में एक गाथा, इस तरह कुल १६६ पद्य है। इसमें ध्वज, धूम, सिंह मण्डल, वृष, खर, गज ओर वायस इन आठों आर्यों के स्वरूप और फलादेश वर्णित हैं। भट्टवोसरि-आयज्ञानतिलक नामक ग्रन्थ के रचयिता दिगम्बराचार्य शमनन्दी के शिष्य भट्टवोसरि है। यह प्रश्न-शास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें २५ प्रकरण और ४१५ गाथाएँ हैं। ग्रन्थकर्ता की स्वोपज्ञ वृत्ति भी हैं। दामनन्दीका उल्लेख श्रवणवेल्गोलक शिलालेख नं० ५५ में पाया जाता हैं। ये प्रभाचन्द्राचार्य के सधर्मा या गुरु भाई थे। अतः इनका समय’ विक्रय संवत् की ११ वीं शती है और भट्टवोसरि का भी समय इन्हीं के आस-पास का हैं। इस ग्रन्थ में ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, श्वान, वृष, ध्वांक्ष इन आठों आर्यो द्वारा प्रश्नों के फलादेश का विस्तृत विवेचन किया है। इसमें कार्य-अकार्य, हानि-लाभ, जय-पराजय, सिद्धि-असिद्धि आदि का विचार विस्तारपूर्वक किया गया है। प्रश्न शास्त्र की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३२७. उदयप्रभदेव-इनके गुरु का नाम विजयसेन सूरि था। इनका समय ई० सन् १२२० बताया जाता हैं। इन्होंने ज्योतिष विषयक आरम्भ सिद्धि अपरनाम व्यवहार चर्या ग्रन्थ की रचना की हैं। इस ग्रन्थ पर वि० सं० १५४४ में रत्नशेखरसूरि के शिष्य हेमहंसगणि ने एक विस्तृत टीका लिखी है। इस टीका में इन्होंने मुहूर्त सम्बन्धी साहित्य का अच्छा संकलन किया हैं। लेखक ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थोक्त अध्यायों का संक्षिप्त नामकरण निम्न प्रकार दिया हैं। दैवज्ञदीपकलिकां व्यवहारचर्यामारम्भसिद्धिमुदयप्रभदेवानाम्। शास्ति क्रमेण तिथिवारमयोगराशि-गोचर्यकार्यगमवास्तुविलग्नाभिः। हेमहंसगणि ने व्यवहारचर्या नाम की सार्थकता दिखलाते हुए लिखा हैं “व्यवहारः शिष्टजनसमाचारः शुभतिथिवारमासादिषु शुभकार्यकरणादिरुपन्तस्य चर्या।” यह ग्रन्थ मुहूर्त चिन्तामणि के समान उपयोगी और पूर्ण है। मुहूर्त विषय की जानकारी इस अकेले ग्रन्थ के अध्ययन से की जा सकती हैं। राजादित्य-इनके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था। इनका जन्म कोंडिमण्डल के “यूविनबाग” नामक स्थान में हुआ था। इनके नामान्तर राजवर्म, भास्कर और वाचिराज बताये जाते हैं। ये विष्णुवर्धन राजा की सभा के प्रधान पण्डित थे। अतः इनका समय सन् ११२० के लगभग है। यह कवि होने के साथ-साथ गणित और ज्योतिष के माने हुए विद्वान थे। ‘कर्णाटक कवि चरिते’ के लेखक का कथन है कि कन्नड़ साहित्य में गणित का ग्रन्थ लिखने वाला यह सबसे बड़ा विद्वान् था। इनके द्वारा रचित व्यवहार गणित, क्षेत्रगणित, व्यवहार रतन तथा जैन-गणित सूत्रटीकोदाहरण और लीलावती ये गणित ग्रन्थ उपलब्ध हैं। पद्मप्रभ सूरि-नागौर तापागच्छीय पट्टावली से पता चलता है कि ये वादिदेव सूरि के शिष्य थे। इन्होंने भुवनदीपक या ग्रहभावप्रकाश नामक ज्योतिष का ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ पर सिंहतिलक सूरि ने वि० सं० १३६६ में एक विवृति लिखी है। “जैन-साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रन्थ में इन्होंने इनके गुरु का नाम विवुधप्रभ सूरि बताया है। भुवनदीपक का रचनाकाल वि० सं० १२४४ है। यह ग्रन्थ छोटा होते हुए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, इसमें ३६ द्वार प्रकरण हैं। राशि स्वामी, उच्चनीचदत्व, मित्र-शत्रु राहु का ग्रह, केतुस्थान, ग्रहों के स्वरूप, द्वादश भावों से विचारणीय बातें इष्टकालज्ञान, लग्न सम्बन्धी विचार विनष्टग्रह राजयोग का कथन, लाभालाभ विचार, लग्नेशकी सिथति का फल, प्रश्न द्वारा गर्भ प्रश्न द्वारा प्रसवज्ञान, यमजविचार, मृत्युयोग, चौर्य ज्ञान, द्रेष्काणादिके फलों का विचार विस्तार से किया है। इस ग्रन्थ में कुल १७० श्लोक है। इसकी भाषा संस्कृत हैं। नरचन्द्र उपाध्याय-ये कासद्रुहगच्छ के सिंहसूरि के शिष्य थे। इन्होंने ज्योतिष शास्त्र के कई ग्रन्थों की रचना की है। वर्तमान में इनके बेड़ा जातक वृत्ति, प्रश्नशतक, प्रश्न १. प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, संपादक-जुगलकिशोर मुख्तार, प्रस्तावना, पृष्ट ६५-६६ तथा पुरातन वाक्य सूची की प्रस्तावना, १०१-१०२ । ३२८ ज्योतिष-खण्ड भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३२६ चतुर्विंशतिका, जन्मसमुद्र टीका, लग्नविचार और ज्योतिष प्रकाश उपलब्ध हैं। नरचन्द्र ने सं० १३२४ में माघ सुदी ८ रविवार को बेड़ाजातक वृत्ति की रचना १०५० श्लोक प्रभाव में की है। ज्ञानदीपिका नाम की एक अन्य रचना भी इनकी मानी जाती है। ज्योति प्रकाश, संहिता और जातक संबंधी महत्वपूर्ण रचना है। __ अट्ठकवि या अर्हदास-ये जैन ब्राह्मण थे। इनका समय ई० सन् १३०० के आस-पास है। अर्हदान के पिता नागकुमार थे। अर्हदास कन्नड़ भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इन्होंने कन्नड़ से अट्ठगत नामक ज्योतिष का महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। शक संवत् की चौदहवीं शताब्दी में भास्कर नाम के आन्ध्र कवि ने इस ग्रन्थ का तेलगू भाषा में अनुवाद किया था। अट्ठमत में वर्षा के चिन्ह, आकस्मिक लक्षण, शकुन, वायुचक्र, गृहप्रवेश, भूकम्प, भूजातफल, उत्पात लक्षण, परिवेषलक्षण, इन्द्रधनुर्लक्षण, प्रथमगर्भलक्षण, द्रोणसंख्या, विद्युतलक्षण, प्रतिसूर्यलक्षण, संवत्सरफल, ग्रहद्वेष, मेघों के नाम, कुलवर्ण, ध्वनिविचार, देशवृष्टि, मासफल, राहुचन्द्र, १४ नक्षत्रफल, संक्रान्ति फल आदि विषयों का निरूपण किया गया है। महेन्द्रसूरि-ये भृगुपुर’ निवासी मदन सूरि के शिष्य फिरोज शाह तुगलक के प्रधान सभापण्डित थे। इन्होंने नाड़ीवृत्त के धरातल में गोल पृष्ठ सभी वृत्तों का परिणमन करके यन्त्रराज नामक ग्रह गणित का उपयोगी गन्थ लिखा है। इनके शिष्य मलयेन्दु सूरि ने इस पर सोदाहरण टीका लिखी है। इस ग्रन्थ में परमाक्रान्ति २३ अंश ३५ कला मानी गयी है। इसकी रचना शक संवत् १२६२ में हुई है। इसमें गणिताध्याय, यन्त्रघटनाध्याय, यन्त्ररचनाध्याय यन्त्रशोधनाध्याय और यन्त्रविचारणाध्याय ये पाँच अध्याय हैं। क्रमोत्क्रमज्यानयन, भजकोटिज्या का चापसाधन. क्रान्तिसाधक धज्याखंडसाधन. धज्याफलानयन. सौम्य गणित के विभिन्न गणितों का साधन, अक्षांश से उन्नतांश साधन, ग्रन्थ के नक्षत्र ध्रुवादिक से अभीष्ट वर्ष के ध्रुवादिक का साधन, नक्षत्रों के दृक्कर्मसाधन, द्वादश राशियों के विभिन्नकृत संबंधी गणितों का साधन, इष्ट शंकु से छायाकरण साधन यन्त्रशोधन प्रकार और उसके अनुसार विभिन्न राशि नक्षत्रों के गणित का साधन, द्वादश भाव और नवग्रहों के स्पष्टीकरण का, गणित एवं विभिन्न यन्त्रों द्वारा सभी ग्रहों के साधन का गणित बहुत सुन्दर ढंग से बताया गया है। इस ग्रन्थ में पंचांग निर्माण करने की विधि का निरूपण किया गया है। भद्रबाहुसंहिता अष्टांग निमित्त का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके आरम्भ के २७ अध्यायों में निमित्त और संहिता विषय का प्रतिपादन किया गया है। ३०वें अध्याय में अरिष्टों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ का निर्माण श्रुत केवली भद्रबाहु के वचनों के आधार पर हुआ है। विषयनिरूपण और शैली दृष्टि से इसका रचना काल ८-६वीं शती १. अभूभृगपुरे वरे गणक-चक्रचूड़ामणिः कृती नृपतिसंस्तुतो मदनसूरिनामा गुरुः । तदीयपदशालिना विरचिते सुयन्त्रागमे, महेन्द्रगुरुणोद्धृताजनि विचारणा यन्त्रजा। -यन्जराज, अ० ५ श्लोक ६७। के पश्चात् नहीं हो सकता है। हाँ, लोकोपयोगी रचना होने के कारण उसमें समय-समय पर संशोधन और परिवर्तन होता रहता है। इस ग्रन्थ में व्यंजन, अंग, स्वर, भौम, छत्र, अंतरिक्ष, लक्षण एवं स्वप्न इन आठों निमित्तों का फलनिरूपण सहित विवेचन ग्रहयुद्ध, स्वप्न, मुहूर्त, तिथि, करण, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु इन्द्रसम्पदा लक्षण, व्यंजन, चिन्ह, लन्न, विद्या, औषध, प्रभृति सभी निमित्तों के बलाबल, विरोध और पराजय आदि विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। यह निमित्तशास्त्र का बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी ग्रन्थ है। इससे वर्षा, कृषि, धान्यभाव एवं अनेक लोकोपयोगी बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। _ केवलज्ञान प्रश्न चूड़ामणि के रचयिता समन्तभद्र का समय १३वीं शती है। ये समन्तभद्र विजयप के पुत्र थे। विजयप के बड़े भाई नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठातिलक की रचना आनन्द संवत्सर में चैत्रामास की पंचमी को की है। अतः समन्तभद्र का समय १३वीं शती है। इस ग्रन्थ में धातु, मूल, जीव, नष्ट, लाभ, हानि, रोग, मृत्यु, भोजन, शयन, शकुन, जन्म, कर्म, अस्त्र, शल्य, वृष्टि, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सिद्धि, असिद्धि आदि विषयों का प्ररूपण किया गया है। प्रश्नकर्ता के वाक्य या प्रश्नाक्षरों को ग्रहण कर संयुक्त, असंयुक्त, अभिहित और अभिघातित इन पाँचों द्वारा तथा आलिंगित अभूधूमित और दग्ध इन तीनों क्रियाविशेषणों के द्वारा प्रश्नों के फलाफल का विचार किया गया है। इस ग्रन्थ में मूक प्रश्नों के उत्तर भी निकाले गये हैं। यह प्रश्न शास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। __ हेमप्रभ-इनके गुरू का नाम देवेन्द्र सूरि था। इनका समय चौदहवीं शती का प्रथम पाद है। संवत् १३०५ में त्रैलोक्य प्रकाश रचना की गयी है। इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं- त्रैलोक्यप्रकाश और मेघमाला।’ _त्रैलोक्यप्रकाश बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ११६० श्लोक हैं। इस एक ग्रन्थ के अध्ययन से फलित ज्योतिष की अच्छी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। आरम्भ में ११० श्लोकों में लग्न ज्ञान का निरूपण है। यह ग्रन्थ २५ अध्यायों में विभक्त है। तथा जातक एवं संहिता स्कन्ध के अनेक विषयों का समावेष यहाँ किया गया है। इस ग्रन्थ की प्रशंसा स्वयं ही इन्होंने की है। श्रीमद्देवेन्द्रसूरीणां शिष्येण ज्ञानदर्पणः। विश्वप्रकाशः कलितः श्रीहेमप्रभसूरिणा।। १. जैन ग्रंथावली, पृ० ३५६, २. त्रैलोक्य प्रकाश, श्लोक-४३० ।३३० भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३३१ ज्योतिष-खण्ड

गणित में जैनाचार्यों का योगदान

गणित के क्षेत्र में भी जैनाचार्यों ने मौलिक रचनायें प्रस्तुत की हैं। उनके अनुसार कुछ बिन्दु यहाँ प्रस्तुत हैं गणित के दो प्रधान तत्व हैं-संख्या और आकृति। संख्या से अंकगणित और बीजगणित की उत्पति हुई है तथा आकृति से ज्यामिति और क्षेत्रमिति की। बेबीलोन और सुमेर सभ्यता के समानान्तर ही भारत वर्ष में भी ज्योतिष तथा गणित के सिद्धान्त प्रचलित थे। वैदिक यज्ञ और कुण्डमान के सम्पादनार्थ शुल्वसूत्र एवं वेदांग ज्योतिष का प्रचार ईस्वी सन् से ८०० वर्ष पूर्व ही हो चुका था। कर्मकाण्ड शुभ समय पर सम्पन्न करना आवश्यक माना जाता था। अतः समय शुद्धि को ज्ञान करने के हेतु पंचांग बनने लगे थे। जैन ग्रन्थ ज्योतिषकरण्डक में ग्रीक पूर्व लग्न प्रणाली उपलब्ध होती हैं। जैनाचार्यों के त्रिलोक प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति प्रभृति ग्रन्थों में गणित के अनेक ऐसे मौलिक सिद्धान्त निबद्ध हैं, जो भारतीय गणित में अन्यत्र नहीं मिलते। _ भारतीय गणित एवं ज्योतिष के अध्ययन के आधार पर जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत की गयी गणित सम्बन्धी मौलिक उद्भावनाओं को निम्नांकित रूप में उपस्थित किया जा सकता एयादीया गणना बीयादीया दृवंति संखेज्जा। तीयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा’ ।। __ (त्रिलोकसार गाथा १६) एकादिका गणना द्वयादिका संख्याता भवन्ति त्र्यादीनां नियमात् कृतिरिति संज्ञा ज्ञातव्या। यस्य कृतौ मूलमदनीय शेषे वर्गिते वर्धिते साकृतिरिति । एकस्य द्वयोश्च कृति-लक्षणाभावात् एकस्य नो कृतित्वं द्वयोरवक्तव्यमिति कृतित्वं त्र्यादीनामेव तत्लक्षणयुक्तत्वात् कृतित्वं युक्तम् । -माधवचन्द्र टीका। अर्थात् एकादि को गणना, दो आदि को संख्या एवं तीन आदि को कृति कहते हैं। एक और दो में कृतित्व नहीं है, यतः जिस संख्या के वर्ग में से मूल को धटाने पर जो शेष रहे, उसका वर्ग करने पर उस संख्या से अधिक राशि की उपलब्धि हो, वही कृति हैं। यह धर्म तीन आदि संख्याओं में ही पाया जाता हैं। एक के संख्यात्व का निषेध करते हुए लिखा हैं-“इहैको गणना संख्यां न लभते, यतः एकस्मिन् घाटे दृष्टे घटादि वस्तु दूदं विष्ठति इत्यमेव प्रायः प्रतीतिरुपपद्यते, नैक संख्या विषयत्वेन अथवा दानसमर्पणादिव्यवहारकाले एक वस्त न प्रायः कश्चित गणयति यतोऽसं व्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणनसंख्यां लभते तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनसंख्या।‘२ अर्थात् एककी गिनती गणना संख्या में नहीं है। यतः घट को देख कर यहाँ घट हैं, इसकी प्रतीति होती हैं, उसकी तादाद के विषय में कुछ ज्ञान नहीं होता अथवा दान, समर्पणदि काल में एक वस्तु की प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असंव्यवहार सम्यक् व्यवहार का अभाव अथवा गिनने से अल्पत्व का बोध होना हैं। _ जैनमनीषियों ने गणित के तर्क ज्ञान द्वारा गणना और संख्या में अन्तर व्यक्त किया हैं। संख्या का मूलाधार तत्व ‘समूह’ है और समूह ‘एक’ वस्तु से नहीं बनता। समूह का निर्माण दो आदि वस्तुओं से ही होता है, अतः एक को संख्या नहीं कहा जाता। अनुमान यह है-“दो आदि राशियाँ संख्या हैं, क्योंकि इनसे समूहों का निर्माण होता है। जिससे समूह का निर्माण सम्भव न हो, वह संख्या नहीं। एक राशि में समूह निर्माण की क्षमता नहीं है, अतः एक राशि संख्या नहीं हैं” (१) संख्या स्वरूप निर्धारण एवं संख्याओं का वर्गीकरण। (२) स्थानमान सिद्धान्त। (३) घातांक सिद्धान्त। (४) लघुगणक सिद्धान्त। (५) अपूर्वांक भिन्न राशियों के विभिन्न उपयोग और प्रकारान्तर। (६) गति स्थिति प्रकाश प्यवमान गणित सम्बन्धी सिद्धान्त। (७) ज्यामिति और क्षेत्रमिति सम्बन्धी विभिन्न आकृतियों के प्रकार परिवर्तन एवं रूपान्तरों के गणित। (८) अलौकिक गणित का निरूपण। (E) गणित सिद्धान्तों के आध्यात्मिक उपयोग एवं व्यावहारिक प्रयोगों का विवेचन।

संख्या-स्वरूप

जिससे जीव, अजीव आदि पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे संख्या कहते हैं। जैनाचार्यों ने एक से गणना तो मानी है, पर एक को संख्या नहीं माना। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा हैं १. संख्यायन्ते परिच्दिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते। सम्यक् रूपाय्यते प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या-अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७, संख्या शब्द। अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७, पृ० ६७ एयादीय गयणा दो आदीया वि जाय संखेत्ति। तीयादोणं णियमा कदित्तो सण्णादु बोदव्वा ।। घवला टीका ६, पृ० २७६ । ३३२ ज्योतिष-खण्ड _अंक विज्ञान का कार्य एक के बिना सम्भव नहीं है। यतः गणना-गिनती एक से मानी जाती है और गणित की समस्त क्रियाएँ इसी अंक से आरम्भ होती है। इस प्रकार गणना और संख्या के सूक्ष्म भेद का विश्लेषण कर गणित सम्बन्धी तार्किक प्रतिभा का परिचय दिया है। आज गणित विज्ञान में तर्क का उपयोग किया जा रहा है और तर्क का आधार गणित को स्वीकार किया जा रहा है।

संख्या की उत्पति एवं उसके लिखने के प्रकार

संख्या की उत्पत्ति के दो कारण हैं-(१) व्यवहारिक या व्यावसायिक और (२) धार्मिक। संख्या ज्ञान के बिना लेन-देन सम्बन्धी कोई भी व्यवहारिक कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है। धर्म के साथ भी संख्या का सम्बन्ध हैं। जैनाचार्यों के आत्मानुसन्धान के लिए संख्या का अन्वेषण किया हैं। व्यक्त वस्तुओं के पूर्व ज्ञान द्वारा आत्मा की शक्ति के विकास को अवगत किया जाता हैं। वैदिक ज्योतिष की तरह ही जैन सहित्य में संख्याओं को लिखने की परम्परा रहीं हैं। विशेषतः तीन परम्पराओं का उल्लेख मिलता हैं-१. अंकों द्वारा, २. अक्षर संकेतों द्वारा, ३. शब्द संकेतों द्वारा। अक्षर संकेतों द्वारा संख्या की अभिव्यक्ति आचार्य नेमिचन्द्र चर्कवर्ती के गोम्मटसार में उपलब्ध होती है। छेदागम और चूर्णियों में भी यह प्रणाली पायी जाती हैं। इस क्रमानुसार अंकों का परिज्ञान निम्न प्रकार किया जाता । क = १, ख = २, ग = ३, घ = ४, ङ = ५, च = ६, छ = ७, ज = ८, झ = ६, ञ = ०, ट = १, ठ = २, ड = ३, ढ = ४, ण = ५, त = ६, थ = ७, द = ८, ध = ६, न = ०, प = १, फ = २, ब = ३, भ = ४, म = ५, य = १, र = २, ल = ३, व = ४, श = ५, ष = ६, स = ७, ह = ८, अ से अः तक सभी स्वर = ०। जैन साहित्य में ज्योतिष शास्त्र का विपुल भण्डार हैं। सिद्धान्त संहिता होरा तीनों स्कन्धों पर जैनाचार्यों के महत्वपूर्ण कार्य हैं। जातक स्कन्ध में प्रायः प्राचीन भारतीय ज्योतिष शास्त्र के ही विषय है। किन्तु संहिता और सिद्धान्त में कुछ मौलिक में कार्य भी है। सैद्धान्तिक विषयों के सामान्य परिचय के अनन्तर कुछ गणितीय विषयों का उल्लेख भी आवश्यक हैं। भगवान महावीर की वाणी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग ओर द्रव्यानुयोग, इन चार अनुयोगों में विभाजित है। करणानुयोग में अलौकिक और लौकिक गणित शास्त्र सम्बन्धित तत्वों का स्पष्टीकरण किया गया है। लौकिक जैन गणित की मौलिकता और भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३३३ महत्ता के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किये हैं। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है। कि जैनाचार्यों ने केवल धार्मिकोन्नति में ही जैन गणित का उपयोग नहीं किया, बल्कि अनेक व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिये इस शास्त्र का प्रणयन किया है। भारतीय गणित के विकास एवं प्रचार में जैनाचार्यों का प्रधान हाथ रहा है। जिस समय गणित का प्रारम्भिक रूप था, उस समय जैनों ने अनेक बीजगणित एवं मेन्सुरेशन सम्बन्ध समस्याओं को हल किया था। प्रो० वेबर ने इन्डियन एन्टीक्वैरी नामक पत्र में अपने एक निबन्ध में बतलाया है कि जैनों का ‘सूर्यप्रज्ञप्ति’ नामक ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण गणित-ग्रन्थ है। वेदाङ्ग ज्योतिष के समान केवल धार्मिक कृत्यों के सम्पादन के लिये ही इसकी रचना नहीं हुई हैं, बल्कि इसके द्वारा ज्योतिष की अनेक समस्याओं को सुलझा कर जैनाचार्यों ने अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया हैं। __मैथिक सोसाइटी के जर्नल में डॉ० शामशास्त्री, प्रो० एम० विन्टरनित्स, प्रो० एच० बी० ग्लासनेप और डॉ० सुकुमार रंजन दास ने जैन गणित की अनेक विशेषताएँ स्वीकार की हैं। डॉ० बी० दत्त ने कलकत्ता मैथेमेटिकल सोसाइटी से प्रकाशित बीसवें बुलेटिन में अपने निबन्ध “On Mahvira’s Solutions of Ratinal Triangles and Quadri laterals” में मुख्य रूप से महावीराचार्य के त्रिभुज एवं चतुर्भुज के गणित का विश्लेषण किया है। हमें जैनागमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए गणित सूत्र मिलते हैं। इन सूत्रों में से कितने ही सूत्र अपनी निजी विशेषता के साथ वासनागत सूक्ष्मता भी रखते हैं। प्राचीन गणित सूत्रों में ऐसे भी कई नियम हैं, जिन्हें अन्य गणितज्ञ १४ वीं और १५ वीं शताब्दी के बाद व्यवहार में लाये हैं। गणितशास्त्र के संख्या सम्बन्धी इतिहास के ऊपर दृष्टिपात करने से यह भँली-भाँति अवगत हो जाता है कि प्राचीन भारत में संख्या लिखने के अनेक कायदे थे-जैसे वस्तुओं के नाम, वर्णमाला के नाम, डेनिश ढंग के संख्या नाम, मुहावरों के संक्षिप्त नाम और भी कई प्रकार के विशेष चिन्हों द्वारा संख्याएँ लिखी जाती थीं’। जैन गणित के फुटकर नियमों में उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त दाशमिक क्रम के अनुसार संख्या लिखने का भी प्रकार मिलता है। जैन गणित ग्रन्थों में अक्षर संख्या की रीति के अनुसार दशमलव और पूर्ण संख्याएँ भी लिखी हुई मिलती हैं। इन संख्याओं का स्थान-मान बाई ओर से लिया गया है। श्रीधराचार्य की ज्योतिर्ज्ञान विधि में आर्यभट के संख्या से भिन्न संख्या क्रम लिखा गया है। इस ग्रन्थ में प्रायः अब तक के उपलब्ध सभी संख्याक्रम लिखे हुए मिलते हैं। हमें वराहमिहिर विरचित “बृहत्संहिता’ की भट्टोत्पली टीका में भद्रबाहु की सूर्यप्रज्ञप्ति-टीका के कुछ अवतरण मिले हैं। जिनमें गणित सम्बन्धी सूक्ष्मताओं के साथ संख्या लिखने के सभी १. कटपयपुरस्थवर्णे नवनवपंचाष्टकल्पितैः क्रमशः। स्वरञनशून्यं संख्यामात्रोपारिमाक्षरं त्याज्यम् ।। जीवकाण्ड गाथा १५७ की टीका। १. संख्या सम्बन्धी विशेष इतिहास के लिये देखिये ‘गणित का इतिहास’ प्रथम भाग, पृष्ट २-५४। ३३४ ज्योतिष-खण्ड भारतीय ज्योतिष में जैन परम्परा ३३५ व्यवहार काम में लाये गये हैं। भट्टोत्पलने ऋषिपुत्र, भद्रबाहु और गर्ग, इन तीन जैनाचार्यों के पर्याप्त वचन उद्धृत किये हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भट्टोत्पल के समय में जैन गणित बहुत प्रसिद्ध रहा था, अन्यथा वे इन आचार्यों का इतने विस्तार के साथ स्वपक्ष की पुष्टि के लिये उल्लेख नहीं करते। अनुयोग द्वार के १४२ वें सूत्र में दशमलव क्रम के अनुसार संख्या लिखी हुई मिलती है। जैन शास्त्रों में जो कोड़ा-कोड़ी का कथन किया गया है, वह वर्गिक क्रम से संख्याएँ लिखने के क्रम का द्योतक है। जैनाचार्यों ने संख्याओं के २६ स्थान तक बताये हैं। १ का स्थान नहीं माना है क्योंकि १ संख्या नहीं हैं। अनुयोग द्वार के १४६ वें सूत्र में इसी को स्पष्ट करते हुए लिखा है-“से किं तं गणणासंखा? एक्को गणणं न उवइ, दुप्पभिइ संखा’। इसका तात्पर्य यह है कि जब हम एक वर्तन या वस्तु को देखते है तो सिर्फ एक वस्तु या वर्तन, ऐसा ही व्यवहार होता है, गणना नहीं होती। इसी को मलधारी हेमचन्द्र ने भी लिखा हैं। जैन गणितशास्त्र की महानता के द्योतक फुटकर गणित सूत्रों के अतिरिक्त स्वतंत्र भी कई गणित-ग्रन्थ हैं। इनमें त्रैलोक्यप्रकाश, (श्रेष्ठचन्द्र), गणित साठसौ (महिमोदय), गणितसर, गणितसूत्र (महावीराचार्य), लीलावती कन्नड़ (कवि राजकुँवर), लीलावती कन्नड़ (आचार्य नेमिचन्द्र), एवं गणितसार (श्रीधर) आदि ग्रन्थ प्रधान हैं। अभी हाल में ही श्रीधराचार्य का जो गणितसार उपलब्ध हुआ है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पहले मुझे सन्देह था कि कहीं यह अजैन ग्रन्थ तो नहीं है, पर इधर जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, उनके आधार से यह सन्देह बहुत कुछ दूर हो गया है। एक सबसे प्रबल प्रमाण यह उपलब्ध हुआ कि महावीराचार्य के गणितसार में “धर्म-धनर्णयोर्वर्गो मूले स्वर्णे तयोः क्रमात्! ऋणं स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्मान्न तत्पदम्’-यह श्लोक श्रीधराचार्य के गणितसार का है। इससे यह जैनाचार्य महावीराचार्य से पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं। श्रीपति के ‘गणिततिलक’ पर सिंहतिलक सूरिने एक वृत्ति लिखी है। इस वृत्ति में श्रीधर के गणितसार के अनेक उद्धरण दिये गये हैं। इस वृत्ति की लेखन-शैली जैन गणित के अनुसार है, क्योंकि सूरिजी ने जैन गणितों के उद्धरणों को अपनी वृत्ति में दध-पानी की तरह मिला दिया है। जो हो, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैनों में श्रीधर के गणित सार की पठन-पाठन प्रणाली अवश्य रही थी। श्रीधराचार्य की ज्योतिर्ज्ञान विधि को देखने से भी यही प्रतीत होता है कि इन दोनों ग्रन्थों के कर्ता एक ही हैं। इस गणित शास्त्र के पाटीगणित, त्रिंशतिका और गणितसार भी नाम बताए गये हैं। इसमें अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न-समच्छेद, भाग-जाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नव-राशिक, भाण्ड-प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, समक्रयविक्रय गणित, श्रेणी व्यवहार एवं छाया व्यवहार के गणित उदाहरण सहित बतलाये गये हैं। सुधाकर द्विवेदी जैसे प्रकाण्ड गणितज्ञ ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है “भास्करेणाऽस्यानेके प्रकारास्तस्करवदपहृताः। अहो अस्य सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदुषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् संशयः। प्राचीना एकशास्त्रमात्रैकवेदिनो नाऽऽसन् ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्नत्र न संशयः।” इससे स्पष्ट है कि यह गणितज्ञ भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती प्रकाण्ड विद्वान थे। स्वतंत्र रचनाओं के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अनेक अजैन ग्रन्थों पर वृत्तियाँ भी लिखी हैं। सिंहतिलक सूरिने ‘लीलावती के’ ऊपर भी एक बड़ी वृत्ति लिखी है। इनकी एकाध स्वतंत्र रचना गणित संबंधी भी होनी चाहिये। _ लौकिक जैन गणित को अंकगणित, रेखागणित और बीजगणित इन तीन भागों में विभक्त कर विचार करने की चेष्टा की जायेगी। _ इन पंक्तियों में विद्वान् लेखक ने महावीराचार्य की विशेषता को स्वीकार किया है। महावीराचार्य ने वर्ग करने की अनेक रीतियाँ बतलाई हैं। इनमें निम्नलिखित मौलिक और उल्लेखनीय हैं- “अन्त्य अंक का वर्ग करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी अंक को दूना करके शेष अंकों से गुणा करके रखना, फिर अग्रिम अंक का वर्ग कर रखे तथा उसी अंक को द्विगुणित कर शेष अंकों को गुणा कर रखें। इसी क्रम से गुणनफल को एक स्थान आगे बढ़ाकर रखे। अन्त में अग्रिम संख्या का वर्ग रखकर योग करने से अभीष्ट संख्या का वर्ग होगा। फिर जिसका वर्ग किया है उसी अंक को दूना करके शेष अंकों से गुणा कर एक अंक आगे हटाकर रखना। इस प्रकार अन्त तक वर्ग करके जोड़ देने से इष्टराशि का वर्ग हो जाता है।” उदाहरण १३२ का वर्ग करना है (११) १ = १ x २ = २, २ र ३ = . १ x २ = २, २ x २ = السد لعبه ३ x २ = ६, ६ x २ = (२२) = ३३६ ज्योतिष-खण्ड __तिलोयपण्णत्ति में संकलित घन लाने वाले सूत्र १-२ निम्नलिखित प्रकार से बनाये गये हैं १. पद के वर्ग को चयसे गुणा करके उसमें दुगने पद से गुणित मुख को जोड़ देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें से चयसे गुणित पद प्रमाण को घटा कर शेष को आधा कर देने पर प्राप्त हुई राशि के प्रमाण संकलित घन होता है। पद का वर्ग कर उसमें से पद के प्रमाण को कम करके अवशिष्ट राशि को चयके प्रमाण से गुणा करना चाहिये। पश्चात् उसमें पद से गुणित आद्य को मिला कर और फिर उसका आधा कर प्राप्त राशि में मुख के अर्द्ध भाग से गुणित पद के मिला देने पर संकलित घन का प्रमाण निकलता है।