प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय आचार्य आर्यभट का जन्म शक ३६८ (ई. सन् ४७६) में हुआ था। स्वयं अपने जन्म समय का उल्लेख गणितीय ढंग से करते हुए अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ आर्यभटीय में लिखा हैं _तीन युगपाद तथा साठ-साठ वर्षों की साठ आवृत्ति होने पर इनकी आयु २३ वर्ष की थी।’ इस के अनुसार गणना करने पर भी यही परिणाम आता है। यथा-कथन के अनुसार सत्य, त्रेता, द्वापर तीन युग पाद तथा कलि के ६० वर्षों की ६० आवृत्ति अर्थात् (६० x ६०) = ३६०० वर्ष बीत जाने पर आर्यभट की आयु २३ वर्ष की थी। वर्तमान शक १६२६ में कलि के ५१०८ वर्ष बीत चुके हैं। अतः ५१०५-३६००=१५०८ । शक १६२६-१५०५=४२१ शक। अर्थात् शक ४२१ में इनकी आयु २३ वर्ष की थी। इस लिए ४२१-२३=३६८ शक जन्म काल सुनिश्चित होता है। उक्त कथन की सार्थकता सिद्ध करते हुए डॉ० गोरख प्रसाद ने लिखा हैं कि कलि संवत् ३५७७ में इनका जन्म हुआ था तथा ग्रहों की गणना हेतु इन्होंने कलि संवत् ३६०० निश्चित किया था, क्योंकि इनके ग्रन्थ में कहीं भी शक, संवत् का उल्लेख नहीं हैं। _ इस सन्दर्भ में शंकरबालकृष्ण दीक्षित ने सैद्धान्तिक प्रमाण के आधार पर जन्म समय के औचित्य को प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि वर्षमान के आधार पर भी यही जन्मकाल सिद्ध होता है। पञ्चसिद्धान्तिकोक्त वर्षमान ३६५.१५.३१.३० दिनादि है तथा आर्यभट का वर्षमान ३६५.१५.३१.१५ दिनादि है। इस प्रकार दोनों में १५ विपल का अन्तर आता है। यह अन्तर ३६०० वर्षों में १५ घटी तुल्य हो जाता है। मूल पञ्चसिद्धान्तिकोक्त सूर्यसिद्धान्त में कलियुगारम्भ गुरुवार की मध्यरात्रि में माना गया है तथा आर्यभट ने उससे १५ घटी बाद अर्थात शुक्रवार के सूर्योदय से माना है। अतः कलियुग के ३६०० वर्ष बीत जाने पर, शक ४२१ में दोनों के अनुसार मध्यम मेष संक्रान्ति अर्थात वर्षारम्भ एकही समय में होता है। इससे प्रकट होता है कि सूर्योदय में युगारम्भ मानने के कारण जो १५ घटी का अन्तर पड़ा था उसी को दूर करने के लिए आर्यभट ने वर्षमान १५ घटी न्यून माना हैं। उक्त प्रमाणों के आधार पर भी आर्यभट का जन्म समय तो निर्विवाद है किन्तु जन्म स्थान को लेकर कुछ मतान्तर अवश्य है। आर्यभटीय में कुसुमपुर का उल्लेख करते हुए आचार्य ने लिखा है ‘कुसुमपुरेऽभ्यर्चितं ज्ञानम्’ इस कथन के आधार पर कुछ लोग इनका आर्यभट-प्रथम ३०१ जन्म स्थान कुसुम पुर (वर्तमान पटना) मानते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि इनका जन्म दक्षिण में केरल और कर्नाटक की सीमा पर कुसुमपुर नामक स्थान पर हुआ है। _ दक्षिण भारत में मानने के प्रमुख दो आधार हैं-१ भट उपधि प्रायः केरल में होती हैं। २ इनके ग्रन्थ (आर्यभटीय) की प्रथम उपलब्ध प्रति मलयालम लिपि में थी, जिसके आधार पर डॉ० केर्न ने आर्यभटीय का सम्पादन एवं प्रकाशन करवाया था। _ कुछ लोगों का मत है कि इनका जन्म महाराष्ट्र में अश्मक नामक स्थान पर हुआ था तथा बिहार के कुसुम पुर में राज्याश्रय प्राप्त कर वहीं इन्होंने अध्ययन और लेखन कार्य सम्पन्न किया। आर्यभटीय के भाष्यकार प्रथम भास्कर ने आर्यभट को अश्मक शब्द से ही संबोधित किया हैं। “सञ्चिन्त्याशु वदाश्मकस्य गणितं ज्ञातं त्वया चेद्यदि"।’ यहाँ ‘अश्मकस्य गणितम्’ का अभिप्राय अश्मक देशवासी आर्यभट की गणित से हैं। प्रथम भास्कर के अनुसार अश्मक देश नर्मदा और गोदावरी के बीच अवस्थित है। परन्तु बौद्धग्रन्थ दीर्घनिकाय के अनुसार बुद्ध के काल में अश्मक लोग पशचिमोत्तर प्रान्तों से आकर नर्मदा और गोदावरी के बीच बस गये। यहाँ भी यही आशय है कि अश्मक देशवासी आर्यभट अध्ययन हेतु कुसुमपुर (पटना) में आये थे। डी०जी० आप्टे के अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय में ज्योतिष शास्त्र के उच्च अध्ययन की समुचित व्यवस्था थी। सम्भवतः वहाँ वेधशाला की भी व्यवस्था उस समय थी। इसी आकर्षण में आर्यभट ने अपना कार्यक्षेत्र कुसुम पुर वर्तमान पटना को चुना। एक पद्य में आर्यभट को सूर्यावतार कहा गया है तथा उसी पद्य से नालन्दा विश्वविद्यालय के कुलपति होने का भी संकेत मिलता है। “सूर्यः स्वयं कुसुमपुर्यभवत् कलौ तु भूगोलवित् कुलप आर्यभटाभिधानः" । यद्यपि इस पद्य का लेखक ज्ञात नहीं है फिर भी इस पद्य का महत्व इस लिए है कि कवि ने एक ही पंक्ति में तीन बातों को स्पष्टरूप से व्यक्त किया है। एक तो आर्यभट को सूर्यावतार दूसरे उनका जन्मस्थान कुसुम पुर, तीसरा आर्यभट कुलप अर्थात् कुलपति थे। प्रसङ्गात् यहाँ खगौल रेलवे स्टेशन की चर्चा करना भी आवश्यक समझता हूँ जो पटना के निकटवर्ती दानापुर स्टेशन के पास है। खगौल स्टेशन के समीप ही खगौल नामक एक ग्राम भी है, जहाँ आर्यभट नामक एकविद्यालय भी हैं। पटना से पश्चिम दिशा में लगभग १५-२० कि०मी० की दूरी पर स्थित खगौल ग्राम भी खगोल वेत्ता आर्यभट की स्मृति का साक्षी हैं। १. आर्यभटीयम, २.१।। २. दीर्घ निकाय, ६८। सिद्धान्तपञ्चकविधावपि दृग्विरुद्धमौढ्योपरागमुखखेचरचारक्लृप्तौ। सूर्यः स्वयं कुसुमपुर्यभवत् कलौ तु भूगोलवित् कुलप आर्यभटाभिधानः।। भा०ज्यो०, पृष्ठ-२७४ । १. षष्ठ्यब्दानां षष्ठियर्यदा व्यतीतास्त्रयश्च युगपादाः। त्र्यधिकविंशतिरब्दास्तदेह मम जन्मनोऽतीताः ।३-२०। २. भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ ८१, ३. भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ २६६ । ३०२ ज्योतिष-खण्ड उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर ज्ञात होता है। कि ज्योतिषशास्त्र का अस्तित्व आर्यभट के पूर्व भी विकसित रुप में था किन्तु वेदांग काल के बाद एक अन्तराल दिखलाई देता है जिसमें किसी महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना उपलब्ध नहीं होती इस लम्बे अन्तराल को भंग करते हुए आचार्य आर्यभट ने ज्योतिष के क्षेत्र में क्रान्तिकारी कार्य कर अपना एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित कर दिया। आचार्य आर्यभट की लघुकाय रचना आर्यभटीम् के १२१ पद्यों में ही समस्त ज्योतिष . के सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया हैं, जो अपने आप में एक उदाहरण हैं। ये कुशल गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ होने के साथ साथ अत्यन्त निर्भीक थे। इनकी अद्भुत प्रतिभा के कारण इन्हें सूर्य का अवतार माना जाता है। आज भी इनकी असन्दिग्ध उपलब्धियाँ अनुसन्धान की दृष्टि से अद्वितीय मानी जाती हैं। गणित और खगोल उन्हें हस्तामलकवत् होचुका था। पूर्ववर्ती आचार्यों ने पृथ्वी पर दिन-रात्रि के परिवर्तन का कारण सूर्य भ्रमण को ही माना है किन्तु आर्यभट ने इस भ्रम का निवारण करते हुए पृथ्वी के भ्रमण को कारण माना। इन्होंने पृथ्वी की दैनन्दिन गति (अक्षभ्रमण) की घोषणा कर सम्पूर्ण ज्योतिष जगत को चमत्कृत कर दिया था। अक्षभ्रमण को उदाहरण पूर्वक बतलाते हुए कहा कि जब हम नौका पर बैठ कर यात्रा करते हैं तो नदी के किनारे स्थित बृक्षादि विपरीत दिशा में चलते हुए प्रतीत होते है तथा नौका स्थिर सी प्रतीत होती है। इसी प्रकार का भ्रम हम पृथ्वीवासियों को होता है। हमें पृथ्वी स्थिर तथा ग्रहनक्षत्रादि विपरीत दिशा में चलते हुए प्रतीत होते हैं। जब कि हम पृथ्वी के साथ-साथ स्वयं भ्रमण करते हैं। सैद्धान्तिक रूप से भूभ्रमण के उल्लेख की यह सर्व प्रथम घटना थी। यहाँ यह स्पष्ट है कि आर्यभट ने दैनन्दिन अक्षभ्रमण का ही उल्लेख किया है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा का उन्होंने “प्राणेनैति कलां भूः” द्वारा संकेत मात्र ही किया है। जिसका अभिप्राय है कि पृथ्वी एक प्राण (१० विपल) में एक कला चलती है। परमेश्वर प्रभृति परवर्ती आचार्यों ने आर्यभट के मूल पाठ ‘प्राणेनैति कलां भूः’ में पाठान्तर कर भू के स्थान पर भं कर दिया। इस परिवर्तन से आर्यभट का सिद्धान्त ही विपरीत होगया। इसकी व्याख्या की गई कि आचार्य ने पृथ्वी के भ्रमण को न बता कर भपञ्जर के भ्रमण का संकेत दिया है। यदि पाठान्तर को प्रमाण न माना जाय तो पृथ्वी की दैनन्दिन (अक्षभ्रमण) तथा वार्षिक (चक्र भ्रमण) दोनों का स्पष्ट ज्ञान आचार्य आर्यभट ने कर लिया था, यह स्वतः सिद्ध हो जाता है। किन्तु इसे पाठान्तर द्वारा विवादास्पद बना दिया गया है। सच्चाई यही है कि आर्यभट ने भूचलन के सिद्धान्त का रहस्य ज्ञात कर लिया था। उस काल के वैज्ञानिक जगत के लिए यह आविष्कार एक आर्यभट-प्रथम . ३०३ महत्वपूर्ण घटना थी। साथ ही इस प्रकार की घोषणा एक अदम्य साहस और निर्भीकता की परिचायक भी थी। इस महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन का श्रेय एकमात्र आचार्य आर्यभट को ही जाता है। आर्यभट ने किसी भी पूर्ववर्ती सिद्धान्त को यथावन स्वीकार नहीं किया। इन्होंने स्वयं वेध कर जो उचित परिणाम प्राप्त किया उसी को प्रमाण माना। इसके लिए इन्हें समकालीन आचार्यों द्वारा आलोचना का पात्र भी बनना पड़ा किन्तु इन आलोचनाओं से प्रभावित न होकर निर्भीकता से अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते रहे। काल विवेचन में भी इन्होंने अपनी मौलिकता प्रदर्शित की। इनकी कालगणना पूर्वाचार्यों की अपेक्षा अत्यन्त सरल है। इनकी कालगणना में ७२ महायुगों का एक मनु का प्रमाण माना गया है। जब कि अन्य सिद्धान्तों में ७१ महायुगों का एक मनु माना गया हैं। इनकी कालगना इस प्रकार हैं ४३,२०,००० सौर वर्षों का १ महायुग। ७२ महायुग का १ मनु। १००८ महायुग = १४ मनु का १ कल्प। इनकी कालगणना में सन्ध्या सन्ध्यांशों को स्थान नहीं दियागया है तथा चारों युग पादों के प्रमाण को समान माना है। इस गणना की विशेषता यह है कि प्रत्येक कल्प का प्रथम दिन एक ही होता है तथा प्रत्येक युगपाद के अन्त में सभी ग्रहों के भगण पूर्णाकों में आते हैं। इस प्रकार इनकी कालगणना अधिक सरल एवं वैज्ञानिक है। गणित के क्षेत्र में भी इनकी अनेक उपलब्धियाँ आज भी भारतीय मनीषा का मानबर्धन कर रही हैं। _गणित के क्षेत्र में आर्यभट द्वारा प्रतिपादित वर्गमूल और घनमूल की पद्धति आज भी प्रचलित है। व्यास और परिधि के सम्वन्ध का मान आर्यभट द्वारा साधित ही सूक्ष्मतम माना जाता है, जो सूक्ष्मता हेतु दशमलव के चार अंको तक ग्रहण किया गया है। पाश्वात्य गणित के यशस्वी विद्वान आर्किमिडीज ने इस सम्बन्ध को पाई द्वारा व्यक्त किया था, किन्तु इसका मान आर्यभट के मान की अपेक्षा स्थूल माना जाता है। व्यास और परिधि के सम्बन्ध को प्रतिपादित करते हुए आर्यभट ने ‘चतुरधिकं शतमष्टगुणं’ इत्यादि कारिका लिखी है। जिसका अभिप्राय यह है कि यदि व्यास का मान २०,००० फुट हो तो परिधि का मान ६२८३२ होगा। इसी से मिलता जुलता सिद्धान्त भास्कराचार्य ने भी प्रतिपादित किया है। यथा-व्यास को ३६२७ से गुणा कर १२५० से भाग देने पर सूक्ष्म परिधि का मान तथा व्यास को २२ से गुणा कर ७ से भाग देने पर स्कूल परिधि का मान ज्ञात होता हैं। _ ज्या साधन भी आर्यभट की अद्भुत देन हैं। इतिहासकारों ने यद्यपि इसका श्रेय ग्रीक और अरबदेशीय गणितज्ञों को दिया है किन्तु गणितीय दृष्टि से देखा जाय तो पाश्चात्य गणिवशों ने पूर्णज्या का ही प्रयोग किया है। आर्यभट ने ही सर्व प्रथम अर्धज्या का साधन कर ग्रह गणित को एक नया आयाम दिया। ग्रीक या अरबी गणित में नवम शताब्दी के पूर्व अर्धज्या का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। १. अनुलोमगतिौंस्थः पश्यत्यचत्लं विलोमगं यद्वत्। अचलानि भान्ति तद्वत् समपश्चिमगानि लङ्कायाम् ।। आर्यभ., ४.६। २. प्राणेनैति कलां भूः खयुगांशे ग्रहजवो भवांशेऽर्कः। आर्यभ, १.६ । ३०४ आर्यभट-प्रथम ३०५ 5 too १. क् क् क् ४. क् ५. क् M १. वर्गाक्षर और स्वरों के योग से संख्यायें अ = क = १ इ = . कि = १०० उ = कु = १०००० ऋ = कृ = लृ = क्लृ = । १००००००००
- . + + + + १००००००
Eu es a १०००००००००० ॐ + ॐ 9, 8 S + + + व ज्योतिष-खण्ड इसके अतिरिक्त गणित के अन्य पक्षों के प्रतिपादन के साथ-साथ इन्होंने वर्गसमीकरण और कुट्टक जैसी अद्भुत गणित प्रक्रिया का विवेचन कर विश्व के गणितज्ञों को एक मचत्कारिक उपहार दिया। इस प्रकार की गणित का ज्ञान इनसे पूर्व सम्भवतः किसी भी देश के गणितज्ञों को नहीं था। आर्यभट के समय में सबसे बड़ी समस्या अंको के सन्दर्भ में थी। अंको को प्रदर्शित करने का कोई भी सरल ढंग नहीं था। इस लिए आर्यभट ने अंकों को व्यक्त करने के लिए एक नई परम्परा का ही आविष्कार कर डाला। जिसके माध्यम से संख्या के बड़े से बड़े मान को सरलता से प्रकट किया जा सकता हैं। एकही पद्य में इन्हों ने अंको की प्रक्रिया को निर्धारित कर दिया है। वर्गाक्षराणि वर्गेऽवर्गेऽवर्गाक्षराणि कात् ङमौ यः। खद्विनवके स्वरा नव वर्गेऽवर्गे नवान्तवर्गे वा।। (आर्यभ-१/२) अर्थात् कवर्गादि वर्गाक्षरों के लिए १, १००, १०००० आदि वर्ग संख्याओं का तथा तथा यकारादि अवर्गाक्षरों में १०, १०००, १००००० आदि संख्याओं का बोध करना चाहिए। ङ और म के योग से (ङ = ५, म = २५ ) = ३० य का मान होता हैं। स्वर और वर्गाक्षर तथा स्वर और अवर्गाक्षर मिलकर कुल १८ संख्या स्थानों को प्रकट करते हैं, जो निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हैं वर्गाक्षर और उनकी संख्यायें क = १ च = ६ ट = ११ त = १६ ख = २ छ = ७ ठ = १२ थ = १७ ग = ३ ज = ८ ड = १३ द = १८ झ = ६ ढ = १४ ध = १६ ङ = ५ ञ = १० ण = १५ न = २० म = २५ अवर्गाक्षरों की संख्यायें __ = ३० र = ४० ल = ५० व = ६० श = ७० ष = ८० स = ६० ह =१०० स्वरों की संख्यायें संख्या ज्ञान हेतु केवल ६ स्वरों का ही ग्रहण किया गया हैं अ = १ इ = १०० उ = १००२ ऋ = १००३ ल = १००० ए =१००५ ऐ =१००६ ओ =१००७ औ =१००८ ॐ + Sc CSC GC ॐ ॐ १०००००००००००० को = १०००००००००००००० ६. क् + औ = कौ कौ = = १०००००००००००००००० २. अवर्गाक्षर और स्वरों के योग से संख्यायें १. य् + अ = य य = = ३० ३००० + उ = यु = ३००००० ३००००००० ५. य् + M = = ३०००००० _ + ए = ३००००००००००० ३००००००००००००० ८. य् + ओ = यो = ३००००००००००००००० ६. य् + औ = यौ = ३००००००००००००००००० इस प्रकार वर्गाक्षरों से ६ तथा अवर्गाक्षरों से ६ कुल १८ स्थानों की संख्यायें बनती हैं। इसी विधि से सभी अक्षरों से संख्याओं का निर्माण होता है। ख् + अ = ख = २ ख् + इ = खि = २०० , _ + अ = ग = ३ ग् + इ = गि = ३०० इत्यादि य् + अ = य = ३० य् + इ = यि = ३००० र् + अ = र = ४० ४००००० इत्यादि + هر فر فر فر فر بور ہر ہر + to ३०६ ज्योतिष-खण्ड इन्हीं नियमों से आर्यभट ने बड़ी से बड़ी संख्याओं का प्रयोग किया है। एक महायुग में ग्रहों के भगणों का उल्लेख करते हुए आचार्य ने लिखा है युगरविभगणाःख्युघृ शशिचयगियिकुशुलुकुडिशिबुण्लुखुष। . प्राक्शनिढुििवघ्वगुरुखिच्युभ कुजभलिझुनुख भृगुबुधसौराः। (आर्यभ, १.३) एक महायुग में रवि भगण ख्य॒घृ अर्थात् खु यु घृ इन अक्षरों की उक्त नियमानुसार संख्यायें इस प्रकार होंगी खु = २००००, यु = ३००००० घृ = ४०००००० इनका योग = ४३२०००० एक महायुग में रवि भगणों की संख्या इसी प्रकार शशि चयगियिङशुलु चन्द्रभगण च = ६, य = ३०, गि = ३००, यि = ३०००, डु = ५०००० शु = ७००००० छु = ७०००००० ल = ५००००००० इन सबका योग = ५७७५३३३६ एक महायुग में चन्द्रभगण। कु भूमि का भगण-ङि शि वु एल खु १ = १५८२२३७५०० शनि का भगण-दु डि वि घ व = १४६५६४ गुरु का भगण-खि रि चु यु भ = ३६४२२४ भौम का भगण-भ दि लि झु नु ख = २२६६८२४ इसी प्रकार सभी ग्रहों एवं उच्चों के भगण पठित किये गये हैं। यह आर्यभट की अद्भुत देन है। वर्तमान भारत में ज्योषितशास्त्र की तीन परम्परायें प्रचलित हैं। १. सौर परम्परा, २. आर्य परम्परा, ३. ब्राह्म परम्परा। १. सौर परम्परा-भगवान सूर्य द्वारा प्रवर्तित है। इस परम्परा का प्रमुख ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त है। २. आर्यपरम्परा आर्यभट से आरम्भ होती है, उस परम्परा का प्रमुख ग्रन्थ आर्यभट द्वारा विरचित आर्यभटी ३. ब्राह्मपरम्परा-यह परम्परा ब्रह्मगुप्त द्वारा व्यवहार में आई है तथा इसका प्रमुख ग्रन्थ ब्रह्मगुप्त द्वारा विरचित ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त है। _ आर्यभट की परम्परा का सम्मान उनके समकालीन आचार्य ब्रह्मगुप्त ने भी किया है। ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त द्वारा साधित ग्रहों में आर्यभटीय के अपेक्षा स्थूलता का न केवल अनुभव किया अपितु उसे स्वीकार करते हुए उसे शुद्ध करने का सफल प्रयास भी किया। अपने नवीन ग्रन्थ खण्डखाद्यकम् में आचार्य ब्रह्मगुप्त ने आर्यभटीयम् के ग्रहों की शुद्धता को स्वीकार करते हुए लिखा है- वक्ष्यामि खण्डखाद्यकमाचार्यार्यभटतुल्यफलम् (खण्ड, १.१) आर्यभट-प्रथम ३०७ आचार्य आर्यभट की दो कृतियों का उल्लेख मिलता है। १. आर्यभटीयम्, २. आर्य-सिद्धान्त। इनमें आर्य-सिद्धान्त उपलब्ध नहीं है। कहीं कहीं इसके विषय में आंशिक सूचनाएं ही उपलब्ध हैं। आर्यभटीय न केवल एक मौलिक रचना है अपितु इसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों एवं उपस्थापन पद्धति में भी सर्वत्र मौलिकता लक्षित होती है। अत्यन्त अल्प शब्दों में अधिक से अधिक विषयों का समावेष इनकी प्रमुख विशेषता है। मात्र १२१ पद्यों में लिखा गया यह ग्रन्थ चार भागों में विभक्त है। १. गीतिका पाद। (१३ पद्य) २. गणितपाद। (३३ पद्य) ३.. कालक्रियापाद। (२५ पद्य) ४. गोलपाद। (५० पद्य) गीतिका पाद में ग्रहों के महा युगीय भ्रमण, ब्राह्मदिवस मान, आकाशकक्षा का विस्तार, सूर्य-चन्द्र और पृथ्वी का योजन व्यास, मन्दोच्च एवं शीघ्रोच्चों का परिचय आदि विषय प्रतिपादित हैं। यहां एक ही पद्य में सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, और मंगल, गुरु बृहस्पति आदि के युगीय भगणों की संख्या पठित कर दी गई है। यहाँ सर्वाधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि पृथ्वी की भगण संख्या देकर आर्यभट ने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया कि पृथ्वी भी चक्रभ्रमण करती है। इस प्रकार की घोषणा उस काल के लिए न केवल आश्चर्योत्पादक रही अपितु अत्यन्त चुनौती पूर्ण थी। इसके साथ-साथ पृथ्वी, चन्द्र और सूर्य के बिम्ब व्यासों का मान, मन्द-शीघ्र परिधि का विवेचन तथा ३०, ४५° अन्तर पर ज्यामानों का अनयन किया गया है। २. गणित पाद में दसगुणोत्तर संख्याओं से लेकर कुट्टक तक की गणित का वर्णन किया गया है। बीच वर्ग, वर्गमूल, श्रेढी गणित, त्रैराशिक, घन-घनमूल, त्रिभुज-वृत्त और गोल का क्षेत्रफल, व्यास-परिधि का संबंध (दशमलव के चार अंकों तक, जो पाई के मान से सूक्ष्म है), समीकरण, व्यस्तविधि के साथ-साथ शंकु की छाया द्वारा ऊचाँई और कर्ण का आनयन आदि अनेक गणितीय विषयों का निरूपण किया गया है। ३. कालक्रियापाद में ज्योतिष के सैद्धान्तिक विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। जिसमें कालमान प्रमुख हैं। यहां एक कल्प का प्रमाण १००८ महायुग माना गया है। जबकि अन्य सभी आचार्यों ने १००० महायुगों का एक कल्प स्वीकार किया है। ४. गोलपाद में गोलीय विषयों का निरूपण किया गया है। जिसमें विषुवसम्पात, ग्रहों के पात, भूभ्रमण मार्ग, देशान्तरसाधन, ग्रहों के उदयास्त एवं कालांश, लग्नसाधन, ग्रहण गणित, दृक्कर्म, लम्बन, नति तथा ग्रहयुति की चर्चा है। इस प्रकार एक लघुकाय ग्रन्थ में अंक गणित, बीजगणित, रेखागणित इन तीनों प्रकार की गणित के साथ-साथ समस्त सैद्धान्तिक विषयों का जिस प्रकार सारगर्भित विवेचन किया गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही कारण है कि आर्यभटीय के प्रकाश में आने से अनेक सैद्धान्तिक तथा ऐतिहासिक भ्रान्तियों का निराकरण हो गया। ३०८ ज्योतिष-खण्ड __आर्यभट वस्तुतः विलक्षण प्रतिभा के वैज्ञानिक थे। इन्होंने सभी पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धान्तों का अवलोकन अवश्य किया होगा किन्तु अपने सिद्धान्तों को वेध और गणितीय परिष्कारों के आधार पर ही स्थापित किया है। यही कारण है कि भारतीय दैवज्ञों और वैज्ञानिकों में आर्यभट का स्थान सर्वोपरि है। आधुनिक वैज्ञानिक ने भी आर्यभट के वैदुष्य और अद्भुत प्रतिभा को सम्मान पूर्व स्वीकार किया है। इसीलिए प्रथम भारतीय उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया। आज भी आर्यभट उपग्रह अन्तरिक्ष में भ्रमण करते हुए अनुसन्धान कार्य में संलग्न है जो प्रतिदिन आर्यभट की स्मृति को जीवन्त रख रहा है। _ अपना जन्म काल बतलाते हुए आर्यभट ने ३६०० गत कलि का उल्लेख किया है। इसके अनुसार कलि के ३६०० वर्ष जिस दिन पूर्ण हुए उस दिन ग्रीगोरियन कैलेण्डर के अनुसार २१ मार्च ४६६ ई० रविवार था। ३६०० गत कलि में अयनांशाभाव के कारण सायन और निरयन दोनों मेषारम्भ एक ही दिन २१ मार्च को होते थे। वर्तमान समय में निरयन मेषारम्भ १३ अप्रैल को होता है। इसलिए बिहार रिसर्च सोसाइटी ने आर्यभट जयन्ती की तिथि १३ अप्रैल सुनिश्चित की है जो उचित एवं तथ्यपरक है। _आर्य सिद्धान्त के कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि यह आर्यभट की पहली रचना हो सकती है, क्योंकि आर्यसिद्धान्त के मानों की अपेक्षा आर्यभटीयम् के मान अधिक शुद्ध और सूक्ष्म हैं। उदाहरणार्थ कुछ मान प्रस्तुत हैं _आर्य सिद्धान्त आर्यभटीयम् १. आकाश कक्षा ३२४००० योजन २१६००० योजन भूव्यास १६०० योजन १०५० योजन ३. सूर्यबिम्ब व्यास ६४८० योजन ४४१० योजन ४. चन्द्रबिम्ब व्यास ४८० योजन ३१५ योजन इन साक्ष्यों के आधार पर स्वतः सिद्ध हो जाता है कि आचार्य अपनी ही मान्यताओं में यदि संशोधन कर रहे हैं तो निश्चय ही उसके पीछे कोई गहन अनुसन्धान ही कारण होगा। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि संशोधित रचना निःसन्देह बाद की होगी। इसी के साथ यहां संदेह का भी अवसर बनता है कि इतनी प्रौढ़ रचना २३ वर्ष की आयु में सम्भव नहीं है। अतः प्रबल सम्भावना है कि आर्यभटीयम की रचना प्रौढावस्था में हई हो. क्योंकि आचार्य ने ग्रन्थ रचना के काल का निर्देश नहीं किया है। उन्होंने केवल यही कहा है ३६०० कलिवर्ष बीतने पर उनकी आयु २३ वर्ष की थी। _आर्यभटीयम् के ऊपर प्राचीन आचार्यों के साथ-साथ अन्य अनेक विद्वानों ने विभिन्न भाषाओं में भाष्य किये हैं। प्राचीन भाष्यकारों में भास्कर प्रथम, प्रभाकर, सोमेश्वर, सूर्यदेव यज्वा, परमेश्वर, यल्लय, नीलकण्ठ सोमयाजी, रघुनाथ राजा आदि प्रमुख है। कोदण्ड रामा और विरूपाक्ष का तेलगु भाष्य तथा घटी गोपा का मलयालम भाष्य प्रसिद्ध है। आचार्य बलदेव मिश्र एवं डॉ० रामनिवास राय का हिन्दी अनुवाद तथा डॉ० कृपाशंकर शुक्ल का अंग्रेजी अनुवाद आज भी सुलभ हैं।