स्वरूप परम्परा एवं इतिहास
प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र यह विद्या कितनी पुरानी है, इसका ठीक-ठीक अनुमान वर्तमान संसाधनों से कठिनतम हैं। वेद से प्रारम्भ कर इतिहास पुराण, रामायण, महाभारत तथा वेदांगभूत ज्योतिषशास्त्र में तथा आज भी इसकी परम्परा गतिशील है। विभिन्न कालिक सामुद्रिकज्ञों के स्तर में भेद भी समीक्षकों से छिपा नहीं है। अंगविद्या के अनेक भेदों में सामुद्रिक महत्वपूर्ण है। वृहत्पाराशर, बृहज्जातक, बृहत्संहिता आदि के क्रम से हस्तसंजीवन, स्कन्धशरीरिकम्, हस्तपरीक्षा, आदि अनेक मूर्धन्य ग्रन्थ, भारतीय मूल के विस्तारक है। पाश्चात्यधारा के योग से भारत एवं यूरोप आदि में हिन्दी, तथा अंग्रेजी में प्रकाशित अनेक नवीन ग्रन्थ इस विद्या के सार्वजनिनता के वर्तमान साक्ष्य हैं। इस विद्या में अनेक समर्थ विद्वान् लेखकों ने अपने-अपने समय में इसे प्रमाणिक सिद्ध किया है। पराशर से वराह तक तथा वराह से हस्तसंजीवन तक एवं हस्तपरीक्षा तक वर्तमान आचार्यों एवं लेखकों तक का कालक्रम, इसकी दिव्यता के संकेत प्रदान करते हैं। दशवीं शताब्दी तक भारत में भी सामुद्रिक, के साथ-साथ हस्तसामुद्रिक, सामुद्रिकजातक तथा जातकसामुद्रिक का प्रचलन था। इसके प्रमाण तथा संकेत पूर्वापर ग्रन्थक्रम से स्पष्ट हो जाता है। जैन एवं बौद्ध परम्परा में भी इस विद्या की प्रमाणिकता को स्वीकारा है। हाथ देखकर जन्मकुण्डली बनाना हस्तसामुद्रिकजातक कहलाता था। हाथ के साथ स्वीकारा है। हाथ देखकर जन्मकुण्डली बनाना हस्तसामुद्रिकजातक कहलाता था। हाथ के साथ सर्वांगशरीर लक्षण द्वारा सही जन्मकण्डली का निर्धारण सामद्रिकजातक कहलाता था। हाथ देखकर जन्मपत्र बनाना, तथा इससे ही वर्षपत्र, मासपत्र, तिथिपत्र तथा दिन दशा तक का निर्धारण, हाथ एवं अंग स्पर्श से विभिन्न मूक प्रश्नों का सटीक उत्तर देने का क्रम हस्तसंजीवन तक में प्राप्त होता है। इस क्षेत्र में वर्तमान लेखकों ने भी महत्वपूर्ण कार्य किया है, उनमें हस्तपरीक्षाकार श्रीनिवास महादेव जी का जातक में जातकतत्व, तथा हस्तविद्या में हस्तपरीक्षा अद्वितीय कार्य हैं। अतः समुद्रऋषि से आज तक यह परम्परा न्यूनाधिक रूप से गतिशील है। १. हस्तसामुद्रिक-हस्तविद्या की प्रमुखता, हस्तपरीक्षा के प्रकार, हाथ देखकर प्रभाव निर्धारण की रीति, हाथ में सभी देवताओं के स्थान, पञ्चांगुली साधना से दिव्यता की प्राप्ति, एवं विद्या तथा साधना के योग से अचूक फलादेश तथा हाथ का सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २७६ व्यवहारिक महत्व, आदि हाथ देखने का विधान प्रथमतः द्रष्टव्य है। द्वितीयतः पुण्यसाधन, हाथ में विभिन्न तीर्थों के विन्यास, आदि भी इसे देखने की विधि, के अन्तर्गत आता है। यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे के विपरीत यद् ब्रह्माण्डे तत्पिण्डेऽपि के अनुसार हमारा शरीर भी एक लघुब्रह्माण्ड है। हाथ कर्मशक्ति का द्योतक है तथा दिव्य संबंध का भी। कुमारपाल के समय नृसिंहात्मज श्रीदुर्लभराज ने इस शास्त्र को संगठित करने की चेष्टा की। स्त्री पुरुष लक्षण से युक्त सामुद्रिक समुद्रऋषि द्वारा सर्वप्रथम प्रकट हुआ था। समुद्र से नारवादि क्रम से ऋषि परम्परा से सम्पूर्ण भूमण्डल में फैला। द्वापरान्त में गर्ग पाराशर तथा कलियुग में अनवमदर्शी वराह आदि के द्वारा यह शास्त्र गतिशील रहा। शास्त्र की परम्परा-यद्यपि इसकी परम्परा अतिप्राचीन है। नारद, लक्षक, षण्मुख, माण्डव्य, पराशर वराह, आदि के क्रम से यह शास्त्र सामुद्रिकलक्षण के रूप में अग्रिम-अग्रिम कालखण्ड में गतिशील होता रहा। महाराजा भोज के समय भी अतिगहन सामुद्रिकशास्त्र उपलब्ध था। राजाओं ने पादतल से सिर के केश तक क्रम से शरीर के अंग एवं उपांग के लक्षण निर्धारित किये। सामुद्रिक-प्रकृति, आकृति, लक्षण, चेष्टा, गति, वर्ण, स्वर, मानसिक चेतना, अंग लक्षण, हस्तरेखा तथा ग्रहह्मप्रभाव दर्शक लक्षणों एवं चिह्नों के निर्धारण के द्वारा मानवीय शुभाशुभ प्रदर्शक सामुद्रिक विद्या है। इसका संबंध संहिता तथा होरा दोनों से है। यह सर्वाधिक प्रचलित भाग है। त्रिकालज्ञानार्थ परीक्षण के १८ भेद इसके मूल हैं। आधुनिक काल में कालिकाप्रसाद मिश्र का सामुद्रिक रहस्य इस शास्त्र का अद्वितीय ग्रन्थ है। मराठी में ताम्बे लिखित ग्रन्थ के तीन अध्याय हैं। पूर्वाध, उत्तरार्ध तथा प्रत्याक्षिक खण्डों में क्रम से लक्ष्य एवं ग्रह प्रभाव, रेखा विचार एवं परीक्षण दृष्टांत वर्णित हैं। स्कन्द शारीरकम्-ग्रन्थकार-अज्ञात। सरस्वती भवन पुस्कालय सम्पूर्णनन्द सं० विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रकाशित ग्रन्थ। प्रधान सम्पादक श्री बलदेवोपाध्याय। सम्पादक-गणेशधर पाठक। प्रकाशनवर्ष १८६५ शकाब्द। मुद्रक-विद्याविलास प्रेस चौखम्बा वाराणसी। विषय सामुद्रिक लक्षण-सर्वांग शरीर लक्षण। अध्याय संख्या-८ । विषय निवेष-१. संज्ञाध्याय २. संकीर्ण रेखा लक्षण ३. स्थान, रेखा, वर्ण, लक्षण एवं फल तथा निम्नोन्नत भाग का लक्षण, कण्ठादि के लक्षण एवं फल, ४. नियत रेखा लक्षण, ५. मुखगत रेखा लक्षण एवं फल, ६. कण्ठादि के लक्षण एवं फल, ७. विप्रकीर्ण रेखा लक्षण, तथा ८, तटस्थ रेखा लक्षण। इस ग्रन्थ में सामुद्रिक के सभी विषय आ गये हैं। इस पर श्री गणेशधर पाठक की संस्कृत व्याख्या भी प्रकाशित है। २८० ज्योतिष-खण्ड सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २८१ ४. संस्थानाधिकार चतुर्थ में-स्त्री के पांव के शिर तक का सर्वांग शरीर लक्षण एवं फल वर्णित हैं। ५. पञ्चमाधिकार में-व्यञ्जन, मसा, तिल, प्रकृति मिश्रक प्रभृति लक्षण तथा फल कहे गये हैं। ६. षष्ठाधिकार में-गन्ध, आवर्त्त, सत्व, स्वर, गति, छाया प्रभृति स्त्री लक्षण एवं फल वर्णित हैं।
श्री सामुद्रिक शास्त्र
प्राचीन ग्रन्थ। पं० श्रीकान्त हीरालाल हंसराज जामनगर सं० १६६४ में श्री जैन भास्करोदय प्रिंटिंग प्रेस जामनगर से मूल मात्र सम्पादन कर प्रकाशित किये-गुरु चरित्र विजय मुनि। यह जैन सम्प्रदाय के ज्योतिर्विद् का सामुद्रिक विषयक संकलन है।
सामुद्रिकशास्त्र
समुद्र ऋषि प्रोक्त दुर्लभराज रचित। टीकाकार- अर्गलपुर निवासी श्री राधाकृष्ण मिश्र प्रकाशन वर्ष सं० १६६२ श० १८५७ १६३५ ई० कल्याण बम्बई। यह ग्रन्थ समुद्र ऋषि प्रोक्त सामुद्रिक शास्त्र का उपलब्ध मूल ग्रन्थ है। सामुद्रिक शास्त्र होरा तथा संहिता दोनों से सम्बद्ध होने पर पर अपना स्वतन्त्र महत्व रखता है। सामुद्रिक शास्त्र का प्रवर्तन समुद्र ऋषि से माना गया। किसी के मत में भगवान विष्णु समुद्र ऋषि के रूप में अवतरित होकर इसका प्रवर्तन किये। अन्य मत शिवपार्वती संवाद रूप विस्तृत सामुद्रिक शास्त्र का समुद्र ऋषि के माध्यम से प्रवर्तन हुआ। समुद्र ऋषि से प्रवर्तित होने से सामुद्रिक नाम पड़ना साभिप्राय है। इसका समावेश विभिन्न संहिताओं में होने से इसे संहिता का भाग माना जाता है। एक अन्य लघु ग्रन्थ भी श्री समुद्र प्रोक्त मिलता है। इस शाखा की प्राचीनता वैदिक साहित्य से भी सिद्ध है। महाराजाधिराज श्री राजपाल जगददेव महाराज ने अनेक प्राचीन नवीन ग्रन्थों की सहायता से इसे संशोधित कर संग्रहित किया। श्री नृसिंहात्मज दुर्लभराज विरचित सामुद्रिक तिलक नाम से यह ग्रन्थ प्रख्यात है। इस ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकार वंशवृक्ष मिलता है। दुर्लभ राज द्वारा इसे काव्यात्मक रूप प्रदान किया गया। श्री भीमदेव-श्रीराजपाल-श्रीनृसिंह-श्री दुर्लभ सिंह यह लेखक का वंशक्रम है। यह ग्रन्थ तीन खण्डों में वर्गीकृत है। श्री समुद्र नारद, माण्डव्य, तक्षक, वराह, षण्मुक्ष, भोजराज सुमन्द आदि के मत को देखकर ऐतिहासिक विकास कड़ी को दर्शाता है। इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय १. शारीराधिकार प्रथम-पुरुष सर्वांगशरीरलक्षण श्लो० १ से १३५ तक, रेखादि विचार श्लो० १३६ से २०४ तक, ऊर्धांगरेखा, लक्षण एवं फल श्लो० २०५ से २६८ तक पठित है। २. शरीराधिकार द्वितीय में- १. संहति २. सार ३. अनूप ४. स्नेह ५. उन्माद ६. प्रमाण ७. मान ८. क्षेत्र ६. प्रकृति १०. मिश्रफल लक्षण ११. पुरुष वर्ग आते हैं। ३. आवर्त्ताधिकार तृतीय में-१२. शीर्षादिलक्षण एवं फल १३. गति १४. छाया १५. स्वर १६. गन्ध १७. वर्ण १८. सत्व आदि का विस्तृत वर्णन है। ये १८ लक्षण पुरुषों के सर्वांगशरीर लक्षण एवं फल के अन्तर्गत किये गये। ये विभाग बृहत्संहिता में भी मिलते हैं। ये लक्षण वर्गीकृत ढंग से स्त्रियों के ऊपर भी लागू होते हैं।
हस्तसंजीवन
म०म० श्रीमेघ विजय गणिकृत। श्री विजय प्रभु नामक जैन मुनि के शिष्य की यह रचना ५२५ श्लोकों में हैं। इस ग्रन्थ का काल निर्धारण कठिन है, परन्तु ऐतिहासिक समीक्षा से गम्य है। हिन्दी अनुवादक डॉ० सुरेश चन्द्र मिश्र के कथन से इस ग्रन्थ पर उपलब्ध भाष्य में कुछ उदाहरण विक्रम संवत् १७३७ का होने से मूल लेखक का काल निःसन्देह इससे बहुत पूर्व का है। इसकी पद्धति पूर्ण भारतीय है। हाथ देखकर जन्मपत्र निर्माण, वर्षकुण्डली, मासकुण्डली, तिथिकुण्डली, दिनदशा, आदि विषयों की जानकारी, हाथ स्पर्श कर तथा देखकर मूकप्रश्नों के निर्णय इसकी विशेषता है। इस ग्रन्थ में चार अधिकार हैं १. दर्शनाधिकार में- १. हस्तविद्या की प्रमुखता एवं साधना २. पुण्य साधन न्यास विधि तथा देखने की रीति ३. मूकप्रश्न तथा नष्टकुण्डलीविचार ४. चक्रों से प्रत्येक स्थान तथा शरीरांग का फल जानना। २. स्पर्शनाधिकार- १. हाथ स्पर्श से फल ज्ञान २. हाथ स्पर्श से विविध प्रश्नफल ३. सांसारिक फल ज्ञान।। रेखाविमर्शनाधिकार- १. रेखाविमर्शार्थ विशेष तथ्य २. रेखाविचार ४. विशेषाधिकार-स्त्री तथा बालक का हस्त परीक्षण- इसमें ग्रन्थकार का आत्म कथन तथा परिशिष्ट है। जैन ज्योतिर्विदों के योगदान सामुद्रिक के क्षेत्र में कितना विशिष्ट रहा है, यह प्रस्तुत ग्रन्थ दर्शाता है।
हस्तपरीक्षा
श्रीनिवास महादेव पाठक-ग्रन्थकार। प्रकाशनवर्ष १६४७ ई० सं० २००४ श्री भुवनेश्वरी प्रिटिंग प्रेस रतलाम मध्य भारत। तृतीय संस्करण पं० श्री कान्तचन्द्र पाठक द्वारा सम्पादित। मूल संस्कृतोद्धारण हिन्दी समीक्षा के साथ पाश्चात्य अन्वेषण का समन्वय इस ग्रन्थ का वैशिष्टय है। ग्रन्थकार की अन्य महत्वपूर्ण कृति जातकतत्व होरा शास्त्र पर शोध पूर्ण विस्तृत ग्रन्थ हैं। इस हस्त परीक्षा ग्रन्थ के प्रारम्भ में भारतीय तथा पाश्चात्य हस्त रेखा के इतिहास पर प्रकाश डाला गया हैं। इसमें १५ प्रकरण हैं। in २८२ ज्योतिष-खण्ड १. सामुद्रिक का इतिहास एवं परीक्षण विधान। २. हाथ के सभी अङ्गों का परीक्षण एवं फल। (भारतीय एवं पाश्चात्य रीति से) ३. अंगुलियों के शुभाशुभ, छाप लेने की रीति। ४. रेखा विचार। ५. मस्तक रेख, जन्ममासादि निर्णय। ६. अन्तः करण एवं आयु रेखा। ७. भाग रेखा। ८. सूर्यरेखा। ६. स्वास्थ्य रेखा। १०. क्षुद्र रेखायें-पत्नी आदि का विचार तथा विभिन्न योग। ११. वर्ष, मास, दिन आदि का शुभाशुभ। १२. ग्रहपर्वत एवं चिन्ह। १३. व्यवसाय निर्धारण एवं वृत्तियोग। १४. रोग एवं कष्ट। १५. सर्वाशरीरलक्षण। यह ग्रन्थ भारतीय तथा पाश्चात्य सर्वाङ्ग शरीर लक्षण शास्त्र के अनुशीलन पर आधारित है। प्रयुक्त ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार १. बृहत्संहिता २. समुद्र प्रोक्त सामुद्रिक शास्त्र ३. रामायण ४. श्रीसूर्य ५. महाभारत ६. पराशर ७. व्यास ८. सामुद्रिकतिलक ६. सामुद्रिकचिन्तामणि-(सम्प्रति अनुपलब्ध ग्रन्थ) १०. कात्यायन ११. छागलेय १२. हस्तसंजीवनी १३. गर्ग १४. विवेकविलास-(सामुद्रिक ग्रन्थ) १६. शैव सामुद्रिक २०. भोजसामुद्रिक-ये प्राचीन ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार इस ग्रन्थ में आये सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २८३ आन्तरिक लक्षण-प्रकृति सत्व एवं बौद्धिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप एवं संरचना तथा गुणवत्ता आन्तरिक विभाग हैं। मन भी आन्तरिक तथा बाह्य भेद से दो खण्डों में विभाजित होने पर भी मानवीय प्रभाग हैं। _ मनोविज्ञान तथा सामुद्रिक- सामुद्रिकशास्त्र में मनोविज्ञान मुख्य घटक है, जो इससे सम्बद्ध हैं। सामुद्रिकशास्त्र में बाह्यशरीर ही मुख्य है। शरीराश्रय से ही अन्य अवयव तथा तत्व भी सम्बद्ध हैं। समस्त लक्षण शरीर के ही होते हैं। मन सभी इन्द्रियों का नियन्त्रक होने से मुख्य है। इन्द्रियों से मन तथा मन से इन्द्रियां प्रभावित होती हैं। अतः शरीर तथा मन दोनों की जानकारी एक दूसरे के पूरक हैं। सामुद्रिक के परीक्षण विधान- वराह के मत से सामुद्रिक के अन्तर्गत १४ प्रकार से परीक्षण कर विभिन्न शुभाशुभ निर्धारण करने के संकेत मिलते है। दुर्लभराज प्रणीत सामुद्रक तिलक में भी आठ प्रकार से परीक्षण करने के संकेत हैं। विभिन्न संकेतों एवं उनके प्रदत्त सूत्रों से सामान्य लोग सही-सही आकलन तब तक नहीं कर सकते जब तक इसके हर आयाम के परीक्षण निष्कर्ष सूची बद्ध कर प्रयोग नहीं कर लेते। शरीरावर्त्तगतिच्छाया स्वरवर्णगन्धसत्वानि। इत्यष्टविधं हयवत् पुरुषस्त्रीलक्षणं भवति। १. शरीर, २. आवर्त्त, ३. गति, ४. छाया-क्रान्ति एवं दीप्ति, ५. स्वर-वाणी, अक्षर एवं व्यञ्जनादि वर्ण ६. वर्ण-रंग रूप एवं गुणवतता, ७. गन्ध-शरीर का गन्ध, ८. सत्व अन्तः सत्व, दृढता, एवं शरीरस्थशक्ति एवं पराक्रम की दिशा। ये मानवीय पुंस्त्री भेदों के परीक्षण के प्रकार भेद हैं। नखशिखवर्णन- काव्य हो या सामुद्रिक देव लक्षण शिख नख विचारित होते हैं, वहीं मानवीय पुरुष तथा स्त्री लक्षण नख से शिखा तक विचार कर मानवीय क्षमता, उसकी विकास की दिशा, उसके जीवन में घटने वाली शुभ या अशुभ घटनाएँ शरीरस्थ विभिन्न लक्षणों के आधार पर निर्धारित करने की अद्वितीय विद्या का नाम सामुद्रिकशास्त्र है। सिर मूल है, तो पाद शाखा। गीतोक्त ऊर्ध्वमूलमधः शाखा के अनुरूप मानव शरीर भी विश्वबृक्ष या कल्पवृक्ष की तरह ऊर्ध्वमूल तथा अधःशाखा बाला हैं। अतः शाखा से मूल की ओर बोधविधान की दृष्टि से पहले नख शिख वर्णन पुंस्त्री भेद से करते हैं। परीक्षणक्रम- पहले पैर के सभी खण्डों का परीक्षण करना चहिए। जैसे-पादतल, पादतलस्थ रेखाएँ, अँगुष्ठ, अँगुलियाँ, अँगुलियों के नखों की संरचना, पैर का पृष्ठ अर्थात् उपरीभाग, टखना, एवं एड़ी, पिंडली जाँघ, तथा रोम कूप। इनके परीक्षण शरीरिक क्षमता निर्धारण एवं गति परीक्षण के लिए प्रथमतः करना चाहिये।
सामुद्रक के मुख्य अंगविभाग
सामुद्रिकशास्त्र सर्वाङ्ग शरीर लक्षण को व्यक्त करता है। मनुष्य के शरीर में आठ मुख्य अंग तथा शेष उपाङ् होते हैं। मस्तक आदि ऊरु, जठर, उरस्थल, दोनों हाथ, दोनों पैर, तथा पीठ, ये आठ मुख्य अंग हैं। अन्य अंग छोटे होने से उपाङ्ग होते हैं। पूर्वजन्म के प्रभाव से इस जन्म में स्वभावतः मानव शरीर में शुभ तथा अशुभ लक्षण उत्पन्न होते हैं। अतः सर्वाङ्ग शरीर लक्षणों को परीक्षित कर शुभाशुभ प्रभाव निर्धारित करना चाहिए। शरीरस्थ विभिन्न लक्षणों के परीक्षण दो प्रकार से करते हैं। बाहरी लक्षण-शरीर की बाहरी बनाबट एवं लक्षणों की परीक्षा की जाती हैं। वर्ण, स्वर, शरीर की बनाबट, संरचना, आकृति, उन्मानादि बाह्य लक्षण हैं। २८४ ज्योतिष-खण्ड __ऊरु-दोनों जाँघे, कमर की गोलाई एवं आयतन, दोनों कुक्षियाँ, पायु, गुदा, अण्डकोश, शिश्न, शिश्नमणि, धातु एवं वीर्य, मूत्र, रक्त, बस्ति-पेडू, आदि आरोग्य तथा प्रजनन क्षमता के साथ मानवीय कामशक्ति, तथा कार्यक्षमता के बोध में उपयोगी हैं। द्वितीयक्रम में नाभि-टूंडी, कुक्षि-कोख, पेट का आकार प्रकार एवं सलबट, हृदय, उर-कलेजा, कुच आदि परीक्षित किये जाते हैं।
पुरुषलक्षण-अंगोपाङ्ग लक्षण
१. पादतल- पसीना रहित, मांसयुक्त, गरम, चिकना, लालवर्ण, कमल के उदर के समान क्रान्ति पुष्ट, एक बराबर, पैर का तलबा हो, तो राजा या उसके जैसा सामर्थ्यशाली होता हैं जो पाँव से अधिक चले, उसका पाद तल यदि सुकोमल हो, तथा उसमें यदि ऊर्ध्वरेखा हो तो, सम्पूर्ण पृथ्वी का अधिपति या सम्प्रभुता सम्पन्न, ख्यात व्यक्ति होता है। यदि पाद तल कटा फटा, गंदा कठोर एवं रुक्ष हो तो कुल नाशक, पकी हुई मिट्टी जैसा रंग हो तो द्विजहत्या करने बाला होता है। यदि पीतवर्ण के हों तो अगम्या गमनकर्त्ता होता है। यदि काले हों तो मदीरापीने में अपनी आयु को समाप्त करता है। यदि पाण्डुवर्ण हो तो अभक्ष्य पदार्थ को खाने बाला, छोटा तथा हल्का पैर हो तो दरिद्री, रेखाहीन, कठिन, रुक्ष, कटा, खुरदरा, तथा फटे पाद तल से व्यक्ति दुखी होता है। जिस पुरुष का पादतल बीच में खाली हो, वह स्त्री के कारण मृत्यु को प्राप्त होता है। यदि पादतल में मांस नहीं हो तो मांसरहित, सूखा तथा पतले पादतल से रोगी, यदि खुरदरा हो तो चलने में दूत के रूप में समय बीतता हैं। २. पादतल तथा हाथ की हथेली के चिन्ह-इनमें सुन्दररेखाओं के साथ-साथ शंख, छत्र, अंकुश, चन्द्रमा, ध्वज, आदि शुभचिन्ह हों तथा रेखाएँ गहरी पतली तथा सुन्दर हों वह पूर्ण भाग्यशाली होता है। जिसके हाथ एवं पैर के तल में शंखादि चिन्ह तथा रेखाएँ मध्यभेद सहित परिपूर्ण हों, वैसे पुरुष प्रारम्भ से सुखभोक्ता होते हैं। गोधा, भैंस, गीदड़, चूहा, कौआ, कंकपक्षी, के चिन्ह हों तो वे दारिद्र्य से ग्रस्त होते हैं। (१) अंगुष्ठ तथा अंगुलियाँ- जिसके अंगुष्ठ वृत्ताकार, चिकना, सर्प के फण के आकार का, ऊँचा, मांसयुक्त, एवं शुभ चिन्हों से युक्त हो तो शुभप्रद होता है। जिसके अंगुष्ठ में शिराएँ दीखें, छोटा एवं पतला, हृस्व अंगुष्ट, चिपटा, चक्र से रहित, एवं चौड़ा हो तो अशुभ प्रदान करता हैं। (२) अंगुलियाँ- यदि चिकनी, गोल, कोमल, घनी, कमल के आकार की, एवं सीधी तथा सरल हों तथा खुरदरी एवं सूखी न हों तो, वह धनाढ्य तथा सुखी होता है। ऐसे हाथ की अंगुलियों से युक्त के घर में हाथी आदि की बहुलता होती थी। आजके समय में गाड़ी एवं वाहनों की बहुलता कहें। सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २८५ ञ (३) पैर की अंगुलियाँ के अशुभ भेद- यदि अंगुलियाँ चिपटी, सुखी, छौटी, टेढ़ी, हल्की, नसों से युक्त, हो तो दास बनकर उसे जीना पड़ता है। जिसके पैर की अंगुलियों में अंगुष्ठ के पास की अंगुली तर्जनी अंगूठे से बड़े हो, वह बुद्धिमान तथा व्यभिचारी होता हैं। यदि तर्जनी अंगुष्ट से छोटी हो तो पहले अशुभ, फिर पत्नी की मृत्यु या कलह से कष्ट पाता है। यदि पैर की मध्यमा अंगुली बड़ी तथा लम्बी हो, तथा आयताकार भी हो तो, कार्यनाशक तथा छोटा होने पर दुख देता है। यदि मध यमा तर्जनी या अनामिका से सटी हो, तथा तर्जनी या अनामिका के बराबर हो तो पुत्रों की संख्या कम एवं जो पुत्र होते हैं, उनकी भी अल्प आयु होती है। यदि अनामिका मध्यमा से बड़ी हो तो बुद्धिमान तथा छोटी हो तो अल्पबुद्धि तथा बहुतछोटी हो तो, स्त्री वियोगी होता हैं। जिस पुरुष की कनिष्टा अंगुली बड़ी हो वह धनाढ्य तथा सुवर्ण से युक्त होता है। यदि बहुत छोटी हो तो परदार रत होता हैं। जिसकी तर्जनी से कनिष्ठा अंगुली मोटी हो, उसकी माता बाल्यकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होती हैं। ४. नखविचार- निर्मल मूंगे के रंग के चिकनें, कछुआ के पीठ के समान ऊँचे चमकदार, दर्पणाकार, पतले, नख सुखप्रद होते हैं। पैर एवं हाथ के नखों की संरचना से ये प्रभाव सम्बद्ध हैं। मोटै फटे हुए, सूप के आकार के लम्बे, काले, श्रेत, दीप्ति तथा कान्ति रहित नखबाले दरिद्र होते हैं। ५. गुल्फ-टखनें- मांस में दबे हुए, कमल की कली के समान हो शिथिल, गुलगुले हो तो नित्य अर्थागम, और सुअर के रोम जैसे रोम से युक्त तथा खरदरे हो तो, कारागार और प्रशासनिक दण्ड के भागी होते हैं। मार खाना इनकी फितरत में होती है। यदि टखनें भैंस के आकार की, चिपटे, हों तो दुख प्राप्त होता है। यदि टखने रोम रहित हो तो सन्तान हीन बनाता है। पैर के टखनें कन्द के तुल्य नरम तथा गोलाकार हो, वह धन, स्त्री एवं पुत्र सुख से युक्त तथा ऐश्वर्यशाली होता हैं। ६. पाणि-एड़ीयाँ- एड़ी यदि बराबर हो तो सुखी, बड़ी हो तो दीर्घायु, छोटी हो तो अल्पायु, ऊँची हो तो सदा विजयी होता है। विपरीत से विपरीत फल जानें। ७. जाँघ-दोनों जाँघे- यदि पिंडली की नली मांस में घुसी हो और हिरण के जंघे के समान हो तो पुरुष धनवान् होता है। जिसकी पिंडली में दूर-दूर पर नरम रोम हो, तथा क्रम से वर्तुल हो तब भी पुरुष धनवान् होता है। सिंह, मछली तथा व्याघ्र के समान जंघे से युक्त (पिंडली) हो तो मनुष्य धनवान होता है। भालू के समान जंघे तथा पिंडली होने से वध, बन्धन, मरण, और दारिद्र्य आदि को प्राप्त होता है। मोटी, लम्बी, बंधी हुयी पिंडली बाले यात्री होते है। कुत्ता, गीदड़, ऊँट, गधा, कौवा, आदि की तरह यदि पिड़ली हो तो अशुभ एवं कष्टप्रद होता हैं। २८६ ज्योतिष-खण्ड ६. ८. रोम एवं रोमगुच्छ-रोम युक्त पुरुष भाग्यवान् होता है। बहुत रोम युक्त पुरुष पण्डित होता हैं गुच्छाकार रोम बाले पुरुष धनी होते हैं। एक रोम कूप बाले राजा या उसके जैसे होते हैं। दो रोमबाले रोमकूप से मानव वेदपाठी, धार्मिक, धनवान, तथा विद्वान् होते हैं। एक रोम कूप में तीन रोम हों तो श्रमिक तथा अधिक रोम से महादरिद्र होता है। रोम रहित पुरुष सन्यासी तथा वैरांगी होता हैं। मोटे, रूखे, खरदरे रोमबाले नीच होते हैं। भूरे रोम से पापी तथा धूर्त होते हैं। रोम के अग्रभाग फूटे तथा फटे हों तो दरिद्र होते हैं। देशभेद से रोम के स्वरूप में भेद तथा पृथ्वी के दोनों गोलार्ध में अतिशीत प्रदेश में शरीर प्रायः रोम रहित होते हैं। प्रभाव की दृष्टि से रोमहीन मानव या तो सर्व त्यागी होता है, या महापापी। वंशभेद से उष्णप्रदेश में भी रोम रहित लोग देखे जाते हैं। जानु-हाथी के समान जानु बाले भोगी, मोटी जानु से राजा या उसके जैसा, गूढ़, अदृष्ट जानुसन्धि बाले शतायु होते हैं। गहरे एवं नीचे जानु से स्त्री के वश में रहने बाला, गोल तथा मोटे जानु से राजा एवं प्रशासक, लम्बे तथा बड़ी जानु से दीर्घायु तथा छोटीजानु से सुन्दर रूपवान् तथा मध्यायु होता है। मांस रहित जानु, सुखी तथा पतली होने पर परदेश में निधन, घट के समान जानु से दारिद्र, ताल फल के समान जानु से मानव दुःखी होता है। बलहीन जानु से वध एवं बन्धन का भागी होता है। विषमजानु (छोटी-बड़ी ऊँची-नीची) से धन एवं कर्मठता से हीन होता हैं। १०. ऊरु-जंघा-जिसकी जाँघे मांसल, केले के समान चिकनें, नरम, तथा छोटे-छोटे नरमबालों से युक्त पुरुष राजा या उसके समान होते हैं। चिकने नरम, क्रम से मोटे, जाँघ बाले धनाढय होते हैं। यदि जाँघे चौड़ी हो तो स्त्री को प्रिय, रानें यदि मिली हुई हो तो गुणी, यदि जाँघे आगे से मोटी तथा बीच में झूकी हो तो चरदूत के रूप में मार्ग का अतिक्रमण करने बाला, कड़ी, चिपटी, चौड़ी, मांस रहित जाँचें होने पर कुरूप, एवं स्त्रियों को अप्रिय, तथा व्यसनी एवं कुरूप होता हैं।
हथेली में मत्स्यचिह्न एवं अन्य रेखाएँ
हथेली के भीतर बीच में दो पूर्ण मत्स्य (एक के मुख में दूसरे का पुच्छ, द्वितीय के मुख में प्रथम का पुच्छ) हो तो पूर्णधन योग होने पर भी दाता नहीं होता। हथेली के नीचले भाग में खुले मत्स्य हों तो धनी के साथ दाता भी होता है। पूर्णरेखा, खण्डित नहीं हो गम्भीर भी हो तथा, लाल कमल के पत्ते के समान कोमल भी हो, तथा भीतर से गोल तथा चिकनी भी हो, तो इस प्रकार की हथेली श्रेष्ठ लोगों की होती हैं। मधु के समान वर्ण की रेखा यदि पूर्ण तथा अखण्डित हो तो तो आजीवन सुखी बनाता है। लाल रंग की गम्भीर रेखा से दानी, पतली सूक्ष्मरेखाओं से बुद्धिमान्, पुरी लम्बी, अखण्डित, चिकनी रेखा से (जो मूल से अन्त तक हो), मानव सौभाग्यशाली सुन्दर तथा रूप रूपवान होता है। फैली, टूटी, ऊँची, नीची, रुक्ष, खुरदरी, फटी हुई, रूखी तथा सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २८७ बिखरी हुई छिछली, वीभत्स, बुरे रंग की, हरी, नीली, श्याम तथा काली रेखाएँ अशुभ प्रभाव दिखाती है। पत्ते युक्त, शाखा के समान फैली रेखाएँ दुख एवं कष्ट देती हैं। फटी रेखा से जीवन नाश का खतरा बढ़ जाता है। यदि आयु, जीवन, एवं मातृ-रेखा फटी हो तब तो निःसन्देह जीवन नाश का खतरा बढ़ जाता है। ऊँची नीची रेखा से धन का नाश, रुक्ष रेखा से कुत्सित भोजन करने वाला होता है। हथेली के मूलभाग से निकल कर अंगुष्ट तथा तर्जनी के मध्य में समाप्त होने वाली रेखा को जीवन, पितृ, गोत्र तथा द्रव्य रेखा कहते हैं। यदि यह रेखा खण्डित छिछली एवं विवर्ण हो तो क्रम से अल्पसन्तान, अल्पजीवन, तथा अल्पधन होता है। यदि यह रेखा लम्बी चिकनी, गहरी, फटी, टूटी, एवं रुक्ष नहीं हो तो ये तीनों पूर्ण होते हैं। आयु, मातृ तथा पितृ रेखा में काला बिन्दु यदि दो हाथ में हो तो उस आयु में असाध्य रोग से मरण होना निश्चित जानें। कमलपुष्प का चिह्न सौभाग्यप्रद होता है। _ मणिबन्ध के उपर-से तर्जनी मूल तक जाने वाली रेखा यदि अखण्डित, चिकनी तथा सुन्दर हो तो मानव का बन्धु-बान्धव एवं भाईयों की संख्या पर्याप्त होती है। यदि प्रदर्शिनी मूल से तदनुरोध से वंशादि का क्षय भी जानना चाहिये। यदि कनिष्ठा मूल से निकली रेखा अर्थात् मध्यमा अंगुली को पार कर जाए तो मानव शतायु होता है। यह रेखा प्रायः कनिष्ठा अंगुली के मूल से निकल कर मध्यमा मूल को लांघ जाए वा तर्जनी मूल तक पहुँच जाए तब भी इससे आयु निर्धारण सुगमता के किया जाता है। आयुरेखा जितने स्थानों पर खण्डित तथा क्षीण हो मानव उतनी अपमृत्यु का कष्ट भोगता है। कनिष्ठा से तर्जनी तक एक अंगुली से २५ वर्ष आयु का प्रमाण इस युग में होता है। जो रेखा पहुँचा से अंगुष्ट तथा तर्जनी के बीच में जाए, तो मानव बुद्धिमान्, धनधान्य से युक्त, तथा चतुर एवं व्यवहारिक होता है। जीवनरेखा-जीवन या पितृरेखा-तर्जनी तथा अंगुष्ठ के मध्य से निकलकर अंगुष्ठमूल तक जाए, तो मानव राजा या उसके बराबर सामर्थ्यशाली होता है। यदि यही रेखा तर्जनी तक भी जाए तो, राजाओं के राजा अथवा महामन्त्री होता है। भाग्यरेखा-मणिबन्ध से निकल कर तर्जनी तक, या मध्यमा तक जाने वाली रेखा को भाग्यरेखा या पुण्यरेखा कहते हैं। यदि यही भाग्यरेखा मणिबन्ध से मध्यमा तक जाए तो, राजा अथवा मन्त्री, अथवा सेनापति होता है। इसे ऊर्ध्वरेखा भी कहते हैं। इस रेखा के अविच्छिन्न होने से मानव आचार्य तथा परम सौभाग्यशाली होता है। यही ऊर्ध्व रेखा यदि टूटी फूटी न हो, तथा लम्बी, चौड़ी, बड़ी, हो लेकिन शाखायुक्त न हो, तो मानव सहस्त्र लोगों का पालन कर्ता बनता हैं। ऊर्ध्वरेखा या भाग्य रेखा-यदि यह अविछिन्न हो तो ब्राह्यण के लिए वेदज्ञता, क्षत्रिय के लिए साम्राज्य, वैश्य के लिए ऐश्वर्य, तथा शूद्रवर्ण के लिए सुखप्रदायक होता है। यहाँ २८८ ज्योतिष-खण्ड वर्ण प्रतीक है। यदि भाग्यरेखा मणिबन्ध से निकलकर अनामिका अंगुली तक जाए अथवा भाग्यरेखा से अतिरिक्त अन्य रेखा जिसे धन रेखा भी कहते हैं, यदि वह अनामिका मूल तक जाए तो मानव ऊच्चस्तरीय व्यापारी तथा राजमान्य होता है। यदि यही ऊर्ध्वरेखा कनिष्ठा तक जाए तो धनधान्य सुवर्ण एवं यश से युक्त सर्व प्रिय तथा राजमान्य होता है। यदि धनरेखा पर काकपद जैसा कोई चिन्ह हो तो अर्जित धन का शीघ्र व्यय होजाता है। मणिबन्ध की तीनों रेखाएँ- यदि मणिबन्ध में तीन यवमाला हो तथा अखण्डित एवं स्निग्ध हो तो राजा या तत् सदृश अद्वितीय धनाधिपति हो। यदि दोहरी सुन्दर यवमाला हो तब भी राजपुरुष, मन्त्री तथा अद्वितीय बुद्धिमान तथा चतुर बनाता है। एक यवमाला यदि सुन्दर तथा अखण्डित हो तब भी सेठ तथा धन से पूजित होता है। अर्थात् मणिबन्ध परिवेष्टित हो, तब भी उपर्युक्त प्रभाव जानें। हाथ के रिष्ट को आवेष्टित करती है। यह योग पूर्वोक्त योग से उत्तम तथा प्रभावशाली होता है। यदि जौमाला पूर्ण हो तो पुरी सम्पदा मिलती हैं। यदि आधी हो तो तो मध्यमसम्पत्ति तथा यदि छोटी हो तो अल्प सम्पदा मिलती हैं। _ भाग्यादि रेखायें-यदि ऊर्ध्वरेखा तथा तर्जनी आदि के मूल-जड़ तक जाए तो मानव धार्मिक तथा धर्म से धनी बनता है। यदि रेखा प्रशाखा युक्त होकर सभी अंगुलियों के मूल तक जाए तथा यव चिन्ह से युक्त हो तो सम्राट वा सर्वपूज्य ज्ञानी होता हैं। ललना रेखाएँ-कनिष्ठा मूल तथा आयुरेखा के मध्य-जितनी रेखाएँ हों उतनी पत्नियाँ होती हैं। स्त्री के हाथ में इसी प्रकार की रेखाएँ होने पर जितनी रेखाएँ हो उतने पुरुष की संख्या जानें । यदि ये रेखाएँ विषम हों अर्थात् कहीं मोटी कहीं पतली हो तो विषम स्त्री तथा बड़ी बराबर रेखा से अच्छी स्त्री मिलती है। यदि पतली, छोटी तथा फटी रेखा हो तो कुचालनी स्त्री मिलती हैं। पुत्र तथा पुत्रियों की रेखाएँ-अंगुष्ठ के मूल में जितनी मोटी तथा एकमुखी रेखाएँ हों उतने पुत्र तथा पतली द्विमुखी रेखाओं से पुत्री की संख्या जानें। खण्डित से मृतवत्सा या नुकसान कहना चाहिये। इसी प्रकार कनिष्ठा मूल में खड़ी रेखाओं से भी पुत्र तथा पुत्री का ज्ञान होता हैं। भाई एवं बहन की रेखाएँ-आयुरेखा तथा मणिबन्धमूल के ऊपर पार्श्व में जितनी एकमुखी रेखाएँ होती है, वे मोटी रेखाएँ भाई की तथा पतली द्विमुखी रेखाएँ बहन की संख्या बताती हैं। अखण्डित मोटीरेखा भाई की पतली द्विमुखी रेखा बहन की परिचायिका होती हैं। _ आयुरेखा-या हृदयरेखा-आयुरेखा जितने स्थान पर टूटी फूटी तथा खण्डित हो उतनी बार अपमृत्यु तथा अखण्डित पूर्ण तथा स्निग्ध हो तो पूर्ण आयु अन्यत्र तारतम्य से निर्धारण करना चाहिये। तर्जनी मूल तक १०० मध्यमा तक ७५ अनामिका के अन्त तक ५० वर्ष प्रमाण से जीवन जानना चाहिये। सात्विक में १०० को १२० तथा कुसंयमी एवं सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास ૨૬૬ व्यसनी के लिए १०० की जगह ७५ जानें। भारत में अखण्डयोग से समाधिस्थ होकर निर्धारित आयुभोग को परिवर्तित करने की विद्या हाल-हाल तक प्रचलित थी। ज्योतिष में १२० वर्षों से २४० तक तथा अनेक युगायु एवं अमितायु के भी प्रमाण मिलते हैं। अतःतारतम्य से विभिन्न अरिष्ट एवं मारकादि बोधक चिन्हों का विमर्श कर सभी निर्धारण कर्त्तव्य है।
हस्ततल में अवस्थित विभिन्न चिन्ह
हाथ में किसी भी रेखा पर यव उत्तम फलद, मत्स्य शंख, कमलपुष्प, आदि अगर भीतर मुख किये हों तो सदा शुभ फलद, यदि बाहर मुख किये हों तो उत्तरार्ध में फलप्रद होता हैं। मत्स्य चिन्ह से कोटी पति, कमल से अर्बुदपति जानें। कमल आदि के प्रमाण एवं निर्दुष्टता के तारतम्य से निर्धारण करें। यदि ये चिन्ह टूटे तथा खण्डित हों तो फल का अभाव कहना चाहिये। इस प्रकार के चिन्ह सभी महापुरुष, राजा महाराजा के हाथ में भी नहीं होते तो सामान्य जन की गणना क्या ? रथ, पालकी, हाथी, घोड़े, बैल आदि की रेखाओं से भी उत्तमफल तथा राजयोग बनते हैं। १. ग्रहपर्वत एवं विभिन्न चिन्ह-यदि सभी ग्रहपर्वत ऊँचें हो तो उत्तमोत्तम, कुछ ऊँचें हों तो उत्तम, यदि ग्रहपर्वत मध्यम हो तो मध्यम, तथा यदि दबे हों तो न्यूनफल जानें। सारे ग्रहपर्वत ऊँचे हो सम्राट या महाज्ञानी, व ३ से अधिक ग्रहपर्वत ऊँचें हो, तब राजा या राजपुरुष होता है। यदि करतल में चन्द्रमा, नाव, भेड़ा, वा कोई पूर्णपात्र हो तो मन्त्री, बड़ा व्यापारी, तथा जलयान के प्रयोग से अकूत धन कमाने वाला होता है। रत्न से इस प्रकार के व्यक्ति का घर भरा रहता है। श्रीवत्स चिन्ह से सुखी, एक या १० चक्र से राजा, तथा ऐश्वर्यशाली, वज्ररेखा से सर्वोत्तम ऐश्वर्य, तथा मत्स्यपुच्छ रेखा से परम बुद्धिमान होता है। त्रिकोण जिस किसी भी रेखा पर हो वह उसके उत्तमप्रभाव को बढ़ाता हैं। हाथ में त्रिकोणरेखा से कूप तलाब, बाबड़ी आदि बनाने वाला तथा धार्मिक होता हैं। हल की रेखा से कृषक, ओखल के चिन्ह से यज्ञकर्ता एवं धनवान् होता हैं। तलवान, अंकुश एवं धनुषबाण से दिग्विजयी राजा या सेनापति होता है। यह मुख्यरूप से विजय योग हैं। मन्दिर रेखा तथा माला रेखा से धनवान् कमण्डल, कलश तथा ध्वजा रेखा से नवनिधि का नायक होता है। दण्ड, छत्र, दो चामर, हो तो राजा या तत् तुल्य होता है। यज्ञस्तम्भ रेखा हो तो विश्वपति या अग्निहोत्री होता है। यदि ब्राह्मण के हाथ में इस प्रकार की रेखा हो तो तब वह यज्ञपति होता हैं। ब्रह्मतीर्थ के आकार की रेखा हो तब भी विश्वपति या यज्ञपति होता अंगुष्ठ के चिन्ह-अंगुष्ठ के मूल के पोर में जौ का चिन्ह हो तो शास्त्रज्ञ तथा पुत्रवान् होता हैं। यदि अंगुष्ठ के मूल में यवचिन्ह हो तो अतिसौभाग्यवान् एवं पालक बनाता है। यदि यही चिन्ह मध्यपोर में हो तो धनाढ्य तथा भोगी बनाता है। यदिसामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २६१ २६० ४. ज्योतिष-खण्ड सदण्ड छत्र हो तथा दो चामर विद्यमान हों तो आसमुद्र पृथ्वी का भोक्ता बनता है। अंगुष्ठ के मूल में यवमाला हो तौ महामन्त्री तथा राजपूज्य होता है। यदि जौमाला द्विगुणित हो तो राजपूज्य होता है। एक जौमाला से धनाढय होता है। अंगुष्ठ के नीचे काक के समान आकृति हो तो उत्तर अवस्था में शूल से मृत्यु होती है। अंगुष्ठमूल में नेत्राकृति से भविष्यद्रष्टा होता हैं। ३. समस्त रेखाओं के शुभाशुभ लक्षण-यदि रेखा स्वच्छ नहीं हो, खण्डित तथा पतली हो तो दरिद्रयोग एवं असौभाग्य बढ़ाता है। शुभरेखा से शुभ तथा अशुभरेखा से अशुभफल होता है। अशुभचिन्ह से अशुभ तथा शुभचिन्ह से शुभप्रभाव जानना चाहिये। _ अंगुष्ठ आदि के प्रभाव-सीधा सुन्दर एवं दृढ अंगुष्ठ, ऊँचा गोल एवं दाहिनी ओर झुके धनवानों के होते हैं। इसका कठिन दृढ तथा पर्यों का बराबर होना भी जरूरी होता है। हाथ की सभी अंगुलियाँ यदि सटी (मिली) हों तो व्यक्ति बुद्धिमान होता हैं। यदि लम्बी हो तो दीर्घायु बड़े पोर से भाग्यवान्, विरल, टेढ़ी तथा सुखी अंगुलियों से धनहीन होता है। मोटी अंगुली से धनहीन, बाहर झुकी अंगुलियो से शस्त्रजीवी, तथा छोटी, पतली, एवं चिपटी अंगुली बाले दास होते हैं। जिसकी अंगुष्ठ या अन्य अंगुलियों में संख्या बढ़ती घटती रहे तो छ: संख्यक अंगुलियों से मानव धनहीन, तथा आयु से भी हीन होता है, अर्थात् पूर्ण आयु का भोग नहीं कर पाता। यदि कनिष्ठा में छिद्र हो तो बुढ़ाफा सुखमय, अनामिका में छिद्र हो तो युवावस्था मध्यमा तथा प्रदेशिनी (तर्जनी) में छिद्र हो तो बाल्यकाल में जीवन सुखमय होता हैं। अर्थात् अंगुलियों को परस्पर सटाने पर यदि दो-दो अंगुलियों के बीच में स्वाभाविक छिद्र हो, तभी उपर्युक्त फल कहना चाहिये। कुछ अन्यग्रन्थों में इसके विपरीत विधान भी मिलते हैं। अर्थात् यदि दो-दो अंगुलियों को सटाने पर छिद्र नहीं हो तभी कनिष्ठा अनामिका से बुढाफा, अनामिका मध्यमा से जवानी, तथा मध्यमा एवं तर्जनी के सटाने पर छिद्र नहीं रहने पर बाल्यकाल सखमय होना कहना चाहिये। ५. नखों के शुभाशुभ लक्षण-यदि नख मूंगे के रंग के चिकने कछुए के पीठ के समान चारों ओर से ढ़ाल युक्त चमकदार तथा प्रथमपर्व के आधेभाग में फैला हो तो, मानव या तत् सदृश होता हैं। बहुत लम्बे, टेढ़े, रूखे, सफेद धब्बे से युक्त, शिखा विहीन, चमक से रहित, स्वच्छता से हीन हो तो दरिद्र तथा रोगी होता है। छोटे पुष्पयुत नख से दुःशील, अर्थात् कुटिल, सफेद से भिखारी, तुष (भूसा) के समान होने पर नपुंसक, विवर्ण से कुतर्की, चिपटे टूटे फूटे नख से धनहीन तथा रोगी होते हैं। दाहिनें या बाभ हस्त तथा पैर के नखों में सफेद बिन्दु सुन्दरभविष्य के संकेत करने वाले होते हैं।
शरीर के अन्य प्रमुख लक्षण
१. संहति-अंग संधि-अंगों की जोड़- मांस, स्नायु, अस्थि, आदि के सन्धिबन्ध को संहति कहते हैं। सप्तधातुओं की संधि भी संहति हैं। अंग प्रत्यंग के जोड़ को भी संहति कहते हैं। यदि ये जोड़ सुन्दर तथा सुदृढ हो तो उत्तम तथा ढीले अंग संधि से न्यूनफल होता है। यदि मांस तथा अस्थि का सन्धिबन्ध दृढ हो तो दीर्घायु ढीले होने पर मध्यायु तथा बहुत ढीले होने पर अल्पायु होता है। दृढ़ संहति नहीं हो, तथा रुक्ष, क्रान्ति विहीन, मांसरहित, बड़ी नसों से युक्त शरीर, ढीला अंगबन्ध तथा मोटी-मोटी हड्डी हो तो पुरुष दुःखभागी होता हैं। सार-सप्तसार चर्मादि-मानव शरीर में सात सार होते हैं। १. चर्म, २. रक्त, ३. मांस, ४. चर्बी, ५. मज्जा, ६. अस्थि, तथा ७. वीर्य, । ये सात सार हैं। भोजन से रसादि वीर्यान्त सप्तसार शरीर की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजर कर बनते हैं। आयुर्विज्ञान में इनकें विधिवत् वर्णन हैं। ज्योतिष में भी ग्रहाधिपत्य के आधार पर सूर्य से अस्थि तथा शुक्र से वीर्य का सम्बन्ध जोड़ा गया है। इस विषय की अधिक समीक्षा उन विषयों के आधार पर करनी चाहिये। (१) त्वचा-चमड़ा- चिकनी खालबाले बुद्धिमान्, पतली खालवाले खोटीबुद्धि के नरमखालबाले सुन्दर मृदुत्वचा बाले सौभाग्यशाली, मोटी त्वचाबाले मोटी बुद्धि के तथा रुक्ष त्वचा बाले दुःखी होते हैं। पतली, चिकनी क्रान्ति युक्त त्वचा से व्यक्ति धनवान् तथा बुद्धिमान होता है। इसके आधार पर त्वचा की दीप्ति तथा कोमलता से आयु का भी ज्ञान होता हैं। (२) रक्तसार-रक्तप्रधान सत्व- जीव, होठ, मसूढ़े, हाथ, पांव, गुदा, तालु, तथा नेत्रों के अन्तभाग यदि लाल वर्ण के हों तो मानव रक्तसार होते हैं। रक्तसार धन, सन्तान, स्त्री आदि से सुखी तथा देखने में सुन्दर होते हैं। (३) मांससार-मांसप्रधान सत्व-सघन मांस तथा जब चाहें मांस का वह खण्ड दृढ हो जाये, उसे मांससार कहते हैं। मांस सार सभी प्रकार से विद्या धन रूप तथा सभी प्रकार के भोगों को पाता है। मांस प्रधान शरीर को मांस सार कहते हैं। (४) मेदसार-नख, दांत, तथा दृष्टि यदि चिकनी हो तो मेद सार मानव सुखी तथा पुत्रवान् होता है। शरीर की चिकनाहट से इसकी पहचान होती है। (५) अस्थिसार-हड्डी प्रधान सत्व-मोटे एवं दृढ़ हड्डी का व्यक्ति अस्थिसार होता है। इस तरह का व्यक्ति बलवान् तथा विद्वान् होता है। विद्या एवं वीरता के संगम को अस्थिसार कहते हैं। अस्थिसार ओजप्रधान एवं पराक्रमी मानव अस्थिसार हैं। (६) मज्जासार-कठिन शुक्र समूह से युक्त, बहुत वीर्यवान् चिकनी मज्जा एवं बहुत बलवान् पुरुष मज्जा सार होता है। यह धनपुत्र से संयुक्त तथा स्त्रीभोग में निपुण एवं परमसंतुष्ट होता है। २६२ ज्योतिष-खण्ड (७) शुक्रसार-वीर्यप्रधानसत्व-बहुत सुन्दर, वीर्यप्रधान, ओजयुक्त विद्या, सन्तान एवं सौभाग्य युक्त मानव होता हैं। . स्नेह-(शरीर की चिकनाहट)-शरीर की चिकनाहट स्नेह (तैलांश) के कारण होता है। यह सौन्दर्य का आधार है। सुख एवं सौभाग्य के निर्धारण में इस की महती भूमिका है। जीभ, दाँत, त्वचा, नेत्र, नख, और केश की चिकनाहट से स्नेह सार पुरुष होता है। चिकनी जिह्वा से सुन्दरभोजी तथा मधुरभाषी, चिकनें दांत से सुभोजी, चिकनी त्वचा से सुन्दरभोजी रमणशील तथा अतिसुखी, चिकने नेत्र से सर्वप्रिय विशेषतः स्त्रियों को प्यारा, तथा धनी, नखों की चिकनाहट से धनाढय, केश की चिकनाई से सर्वप्रिय तथा भोक्ता होता है। स्नेह सार व्यक्ति को उसकी चिकनाहट एवं चमक से पहचानना चाहिये। शरीर में तैलांश की अधिक मात्रा से इसकी पहचान होती है। उन्मान-लम्बाई चौड़ाई ऊँचाई तथा वजन- देशभेद, से कालभेद से तथा वंशभेद से ये चारों प्रमाण अलग-अलग होते हैं। युग भेद से भी ये तत्व परिवर्तित होते है। ढ़ाईभार का नरपति, १ भार का कोटिपति, तथा सपाद एकभार का मानव सभी प्रकार से सुखी होता हैं। चतुर्थाश भारयुक्त दुःखी तथा दरिद्र होता है। काष्ठ, मणि, वज्र, खनिजपदार्थ, तथा अन्य पदार्थ में जिस तरह चिकनाहट रुक्षता एवं वजन एवं कठोरता होती है वैसे ही मानव में भी चिकनाहट तथा वजन प्रमाण से उसके शुभ तथा अशुभ का निर्धारण करना चाहिये। एकभार का अर्थ आजकल ४० से ५० किलो तक समझना चाहिये। एक व्यक्ति की भारवाहक क्षमता पहले अधिक थी अतः युगभेद से भारवहन प्रमाण भी बदलता जाता है। लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, एवं शरीर का सघनत्व भी युगभेद से बदलता हैं। मान-प्रमाण-पाँव से लेकर शिर के बाल तक के मापप्रमाण को मान या प्रमाण कहते हैं। पुरुष भेद से १०८ अंगुल उत्तम, ६६ अंगुल मध्यम, तथा ८४ अंगुल की लम्बाई अधम है। अंग भेद से टकने की लम्बाई ४ अंगुल, पिंडली की २४ अंगुल, जानु की ४ अंगुल, उरु और जंघे की लम्बाई बराबर होती है। बस्ति की लम्बाई १२ अंगुल, नाभी सहित उदर की लम्बाई बस्ति का आधा, हृदयप्रदेश १२ अंगुल, गर्दन ४ अंगुल, मुखमण्डल ठोढ़ी से केश सहित १२ अंगुल की होती है। अंगुलियों के प्रमाण अपनी अंगुलियों के अनुसार जानना चाहिये। नाभी शरीर के मध्य में होता है। आजकल इंच तथा फीट से लम्बाई मापते हैं। एक अंगुल का २४ वाँ भाग व्यंगुल, २४ अंगुल का १ हाथ या १८ इंच प्रमाण से तुलना कर आज के हिसाब से इस प्रक्रिया को समझ सकते हैं। किसी किसी के मत में उत्तमपुरुष १०८ अंगुल, मध्यम १०० अंगुल, तथा अधम ६६ अंगुल प्रमाण का होना स्वीकारा है। उत्तम, मध्यम, तथा अधमभेद से १०८, ८०, तथा ६० वर्ष आयुप्रमाण मध्यम मान से समझना चाहिये। ६० वर्ष से कम अधम आयु प्रमाण है। लम्बाई के साथ अंगसन्धि दृढता तथा चिकनाहट आदि के अनुसार ही उत्तम, मध्यम तथा अधमभेद करना सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २६३ चाहिये। समय तथा क्षेत्र के अनुमान से वंश तथा वातावरण के भेद से युग भेद से उत्तम भेद मध्यम, तथा अधमभेद मनुष्य के शुभाशुभ शरीरसर्वांग लक्षण तथा अंगुलियों के पोर के आधार पर निश्चय किया जाता हैं। मान-वजन-जल से भरे कटाह में बैठने पर कटाह के चारो तरफ बाहर की ओर ३२ सेर प्रमाण से पानी निकलने को मान कहते हैं। मान युक्त शरीर से मानव दीर्घायु, तथा ऐश्वर्य युक्त होते हैं। इससे कम प्रमाण या अधिक प्रमाण में पानी निकले तो मानव कष्ट पाता है, शारीरिक क्षमता भी न्यूनाधिक होती है। कमलासन में बैठे पुरुष की जानु सहित समस्त माप को उस मान का परिणाह क्षेत्रांश) कहते हैं। अर्थात् बैठनें पर जितना आयतन घेरे वह मान परिणाह है। आसन से ललाट तक ऊर्ध्वमान को उच्छ्रय कहते हैं। यदि परिणाह तथा उच्छ्रय बराबर हो तो उत्तमपुरुष तथा न्यूनाधिक से न्यूनाधिक जाने। अंग उपांग के विस्तार आयाम, तथा परिधि भेद से विभिन्न रूपक शुभ तथा अशुभ प्रभाव निर्धारित करना चाहिये। मानवीय क्षमता निर्धारण में यह परमउपयोगी होता है। युग भेद से क्षमता भेद अलग अलग होते हैं अतः इस युग में फिर से इस विषय का प्रत्येक अंगभेद से मध्यक्रमसे निर्धारण अपेक्षित है। आज के परम तथा परमाल्प सर्वमानाभिप्राय से बोध के बिना मानव की लम्बाई तथा चौड़ाई आदि के भेद से अंगुली की चौड़ाई में भी अन्तर होना निश्रित है। अत; पूर्व कालखण्ड के मापतौल इस कालखण्ड में पुनः परीक्षित कर ही उपयोग में लाया जासकता हैं। क्षेत्रकथन-१०० वर्ष तक मध्यप्रमाण से मानव जीता है। एक भाग में १० वर्ष होता हैं। अतः पाद तल से सिर के केश तक १० भाग करने पर एक भाग केलिए १० वर्ष प्रमाण आता हैं। टखने सहित पांव प्रथम, जानु तथा जंघा द्वितीय ऊरु,गुह्य, तथा मुष्क तृतीय, कटि तथा नाभि चतुर्थ, उदर पञ्चम, सकुर्च छाती षष्ठ, हंसली सहित कन्धे सप्तमक्षेत्र, हैं। गर्दन तथा ओठ आठवाँ क्षेत्र भौंह तथा नेत्र नवम ललाट तथा सिर दशम क्षेत्र है। मनुष्यों के भी क्षेत्रभेद से १० प्रकार के दशा भेद क्षेत्र के शुभ अशुभ भेद के अनुसार ही तय किया गया जो आधान से जन्म काल तक निर्मित मूल प्रकृति भेद से शुभ तथा अशुभ प्राकृतिक चक्र से प्रभावित होते हैं। जन्म से निधनान्त अवस्था भेद से यथा १…..बाल्यावस्था २. बृद्धि (विकास की गति) ३. बल ४. बुद्धि, ५. त्वचा, ६. वीर्य, ७. पराक्रम, ८. चित्त, ६. कर्म. १०. इन्द्रिय, ये दशभेद हैं। अतः मानव शरीर के दश क्षेत्र अपने शुभत्व तथा अशुभत्व के अनुसार दश प्रकार के दशा क्रम से दश अवस्था भेद से गुजरते हुए निर्याण को प्राप्त करता हैं। ये सभी बृद्धि तथा ह्रास जन्य पाञ्चभौत्तिक परिणाम को भी दर्शाते हैं। शरीरस्थ क्षेत्र कई अर्थों में अति महत्वपूर्ण हैं। शरीर की भौतिक क्षमता का परिज्ञान शरीर से ही किया जाना प्राचीन प्रमाण से भी सिद्ध हैं। २६४ ज्योतिष-खण्ड सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २६५ कुछ विशेष लक्षण चिन्ह तथा योग-यदि दोनों हथेली में बाजू जैसा दो चक्र या दो दक्षिणावर्त्त भौरी के चिन्ह हों तो मानव चक्रवर्ती सम्राट् या तत् सदृश होता है। यह अद्वितीय पराक्रम का योग योग बनाता है। यदि हाथ के हथेली में दक्षिणावर्त्त चिन्ह या शंख अति व्यक्त हो तो मानव धार्मिक तथा धनवान होता हैं। भाग्यवानों के हाथ में पांचों अंगुलियों में दक्षिणावर्त चक्र या शंख अग्रभाग में हो तो अतिसुखदायक होता हैं। यदि बामावर्त्त चक्र या आवर्त या शंख हो तो कष्ट देता है। कान तथा नाभी में दक्षिणवर्त्त या चक्र दक्षिणावर्त्त हो तो अति शुभप्रदायक होते हैं। यदि सिर में एक दक्षिणावर्त्त चक्र या चूड़ा का आवर्त्त हो अति शुभप्रद होता है। यदि सिर में यही चक्र चूड़ा या आवर्त्त बामावर्त्त हो तो भिक्षाटन से उदर पोषण येन केन प्रकारेण करने बाला होता है। बाये हाथ में दक्षिणावर्त्त, तथा दाहिने हाथ में बामावर्त्त आवर्त्त हो तो पूर्व अवस्था अति भोगमय होता हैं। यदि ललाट में बाम या दक्षिण आवर्त्त का चक्र वा भौंरी हो वह दुःखी होता है। उसकी आयु कम होती है। अर्थात् वह अल्पायु होता है। पैर के तलवे में यदि दो चक्र हो तो अति दीन हीन तथा मूर्ख एवं घूमक्कड़ होता है। इस प्रकार ये चिन्ह विभिन्नरेखाओं के प्रभाव को कम तथा अधिक करते हैं। प्रकृति-पञ्चभूतात्मक प्रकृति-वा त्रिगुणात्मक प्रकृति-प्रकृति से पाञ्चभौतिक प्रकृति के साथ-साथ मानव, देवता राक्षस, प्रेत, चतुष्पद पशु, आदि के स्वभाव, स्वभाव जन्य प्रकृति के अन्तर्गत लिए जाते हैं। (१) पृथिवी-सुगन्धित चन्दन या पुष्प के गन्ध से युक्त मुखमण्डल होने से पृथ्वी प्रकृति, का मानव भोगी प्रियवक्ता, बहुत जल पीने बाला रस प्रिय तथा सौम्य होता हैं। (२) अग्निप्रकृति-इस प्रकृति के लोग अग्नि के समान ही दीप्त होते हैं। तेज तथा क्रोध इनकी पहचान है। चंचल, मीठा, तेज, तथा बहुत खाने बाला, अग्नि के समान तेज, तथा क्रोधी, अग्नि प्रकृति के पुरुष होते हैं। ये अधिक दीप्त होते हैं। (३) वातप्रकृति-वातप्रकृति से चंचल, दुबला पतला, शीघ्रकोपी, एवं पवन प्रकृति होती हैं। (४) आकाशप्रकृति-आकाश प्रकृति बाले ज्ञानी, पण्डित, अच्छी वाणी बोलने बाले, खुली आँखें सुशिक्षित, शान्त तथा धीर प्रकृति बाले होते हैं। (५) देवप्रकृति-दानप्रियता, प्रेमपूर्वकव्यवहार, व्यवहारपटु, सत्यनिष्ठा पर आघात होने पर बहुत क्रोधी, आदि इसके गुण होते हैं। (६) मानवप्रकृति-मानवप्रकृति, भूषणप्रियता, गानकुशल, व्यवस्थापक तथा राजसी वृति होती हैं। (७) राक्षसप्रकृति-उग्रकर्म, दुष्टचेष्टा, पापरति, क्रोधी तथा दम्भी होता हैं। (८) पिशाचप्रकृति-प्रेतप्रकृति, मलीन, मोटा, चलायमान, बकवादी, तथा बुरी आत्माओं के चपेट में अनर्थ करने बाला होता हैं। (६) चतुष्पदप्रकृति-पशु के समान आचरण, मोटा शरीर तथा मोटी बुद्धि का बहुत खाने बाला एवं नीच संगति बाला होता हैं। कुछ विशेष लक्षण-सभी लम्बे बुद्धिमान नहीं कि सभी नाटे मूर्ख नहीं होते। नाटेलोग यदि पतली चमड़ी के शुभ लक्षणों से युक्त हो तो बुद्धिमान होते हैं। पिंगलनेत्र, तथा कालाक्ष, अतिकृष्ण नेत्र बाले पवित्र तथा सुशील नहीं होते। अर्थात् अपवाद स्वरूप ही कोई-२ व्यक्ति होते हैं सामान्यतः नहीं होते। दीर्घ दन्तबालों का मूर्ख होना, रोमयुक्त मानव का अल्पायु होना लम्बे मानव का निष्ठुर होना, आदि ये विपरीत लक्षण भी अपवाद स्वरुप दिखाई पड़ते हैं। कहा भी हैं दीर्घदन्ताः क्वचिन्मूर्खाः क्व खल्वाटोऽपि निर्धनः। क्वचित्काणो भवेत्साधुः क्वचिद्गानवती सती।। ये सब विपरीत फल भी सामुद्रिक परीक्षण में दिखाई देते हैं। अतः वहाँ अन्य लक्षणों के परीक्षण भी करने चाहिये। ये सब विपरीत फल भी अपवाद स्वरूप दीखे तो तारतम्य से निर्धारण करना चाहिये।
छायाविचार
अप्रकाश पिण्ड-में छाया होती हैं। स्व प्रकाशपिण्ड में छाया नहीं होती। सूर्य स्वप्रकाश पिण्ड है, अतः सूर्यपिण्ड पर किसी भी प्रकार की कोई छाया बनने का कोई स्थान नहीं हैं। भूपृष्ठ पर पाञ्चभौत्तिक पदार्थो की छाया सूर्यप्रकाश रहने पर पार्थिव पदार्थो की छाया सूर्यप्रकाश के विरुद्धदिशा में अवरोधक वस्तु से बनती हैं। मानव के शरीर में पञ्चमहाभूतों में जिस तत्व की अधिकता होती है उस भूतविशेष की छाया मुख्य होती है। मानवशरीर स्पर्शित प्रकाश से शरीर का एक भाग प्रकाशित तथा मानव संस्पर्शित तेज के विरुद्धदिशा में शरीर की छाया बनती है। जिन भूततत्वों की प्रधानता होती है, उससे अन्य लक्षण आच्छादित हो जाते हैं। इसी को मानव छाया (कान्ति) कहते हैं। अर्थात् मानव के शरीर में जिस भूत की प्रधानता होती है वह भूत विशेष अन्य भूतलक्षणों को गौण कर स्वयं मुख्य हो जाता है। _ये शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के प्रभाव को दर्शाते हैं। देह के बाहर यही छाया अपने तेज को फैलाती है। जैसे निर्मल स्फटिक के घड़े में रखा दीप की ज्योति की तरह प्रकाशवान् छाया के महाभूत भेद से ५ भेद बनते हैं। (१) पार्थिवच्छाया-दांत, नख, रोम, बाल, त्वचा, चमकीले, स्थिररेखा, नेत्र सुन्दर, तथा मन प्रफुल्लित होता है तथा इसका प्रभाव उत्तम होता है। धन, सुख तथा उत्तम भोग प्रदायक होता है। २६६ ज्योतिष-खण्ड (२) जलच्छाया-नवीन मेघ से गिरे जल के समान जलछाया होती है। यह सर्व सिद्धि दायिनी तथा सौभाग्यदायिनी होती है। (३) अग्निच्छाया-सूर्य, मूंगा, सोना, अग्नि तथा रत्न के दीप्तांश की तरह अग्निछाया होती है। पौरुष, पराक्रम, विजय तथा धन को साधने वाली यह छाया होती है। (४) वायवीच्छाया-रुक्ष, मलिन, दीनता, चंचलता, दुष्टता आदि वायवी छाया के लक्षण हैं। यह छाया. मारण, बन्धन, प्रदायिका तथा धननाशिनी होती है। (५) आकाशच्छाया-इस की छाया-‘निर्मल, स्फटिकमणि के समान, सुन्दर, छाया को आकाशछाया कहते हैं। यह कल्याण, धन, सुख, पुत्र, तथा सौभाग्य प्रदायक है। ये पाञ्चभौतिक छाया मानवीय संरचना से सम्बद्ध होने से महत्वपूर्ण तथा विभिन्न प्रभावों को एक दिशा प्रदान करने में आधार स्तम्भ होते हैं। इनके अतिरिक्त सूर्य, विष्णु, इन्द्र, यम तथा चन्द्र की छायाएँ भी होती हैं। कुछ आचार्य पूर्व भूतछाया से इसे भी जोड़ते हैं तथा उनके समान प्रभाव बताते हैं, लेकिन प्राचीनशास्त्र में इनके अलग लक्षण तथा फल फल प्राप्त होते हैं। स्वर-वाणी तथा स्वर-अच्छी बोली, मन को प्रसन्न करने वाली, सारस या कोयल, या मृदंग के समान धीर गम्भीर, उदात्त वाणी ऊंची तथा बड़ी हो तो ये सम्पत्ति दायिनी होती हैं। नगाड़ा, बैल, मेघ, मृदंग, मोर, हिरण, चकवा के समान वाणी से मानव बड़ा आदमी, राजा या उसके जैसा होता है। _टूटी-फूटी, बहुत धीरे या अस्पष्ट, खैची हुई, बड़े जोर या बहुत धीरे, रुक रुक कर, दीन एवं हीन बोली सौभाग्यहीनों की होती है। भेड़िया, कौआ, उलूक, बन्दर, ऊंट, गीदड़, गधा, सुअर, जैसी बोली वाले दुष्ट तथा नीच प्रकृति के होते हैं। मधुर कर्कश रूक्ष, तेज, मन्द, मध्यम आदि के आधार पर मानवीय चेतना आदि का तथा कण्ठ के स्फुटता आदि का भी ज्ञान होता है। गन्ध-गन्ध भेद नासिका द्वारा गन्ध ग्रहण करते हैं। हमारी नासिका कितनी निर्दुष्ट है, इसका ज्ञान इससे होता है। स्वांस एवं पसीना से उत्पन्न गन्ध शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। यदि गन्ध में मन रम जाए तो उत्तम, तथा वितृष्णा उत्पन्न हो तो अधमगन्ध जानना चाहिय । कर्पूर, अगर, चन्द्र, कस्तूरी, चमेली, तमाल, (आमनूस) के पत्ते के समान, तथा हाथी के मद के समान शरीर का गन्ध सुख, धन एवं भोग प्रदायक है। दुर्गन्ध, अप्राकृतिक गन्ध, मच्छी के अंडे के सड़ने का गन्ध, रक्त का गन्ध नीम, चरबी, काक के अंडे, बगुले के अंडे तथा बुरे गन्ध यदि शरीर से वा पसीने एवं कपड़े से निकले तो दुःख एवं दारिद्र्य कारक होते हैं। वर्ण-रंग तथा गुणवत्ता-गुणवत्ता के भेद से बुद्धिविज्ञान, बल विवेक एवं अनुशासन, उद्योग व्यवसाय तथा औदार्य, तथा श्रम एवं शिल्प ये प्रधान व्यक्तित्व भेद होते हैं। सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास २६७ सात्विकता एवं बुद्धिमत्ता प्रथमवर्ग में सर्वविध व्यवहार का नियन्त्रक होता हैं। अनुशासन एवं रक्षा प्रयुक्त बल द्वितीय भेद में परिगणित होते है बल का नियन्त्रक बुद्धि होती है। उद्योग कृषि वाणिज्य तथा दानशीलता तृतीय भेद के अन्तर्गत है। इनकी रक्षा तथा नियमन में बुद्धि तथा बल दोनों घटक महत्वपूर्ण होते हैं। सर्वविध व्यवहारिक कार्य तथा प्रयुक्तश्रम चतुर्थवर्ग के अन्तर्गत आते हैं। ये चारो प्रकार की क्षमताएँ व्यक्ति तथा राष्ट्र दोनों के सर्वाङ्गीण विकास में मुख्य घटक हैं। वैसे बुद्धि, बल तथा अर्थ के विकास में श्रम मुख्य घटक है। यद्यपि ये चारो क्षमताएँ मानव में न्यूनाधिक रूप से होती है, लेकिन स्वभाव से प्रकृति के अनुसार जो क्षमता मुख्य होती है, उसके आधार पर मानवीय वर्ण त्रिलोकीय सापेक्षता से निर्धारित करना ज्योतिष शास्त्रीय वर्ण विचार हैं। __ वर्ण का एक अन्य अर्थ रंग एवं रूप भी हैं। गोरा, एवं काला दो मुख्य वर्ण दृष्ट होते हैं। गोरे के श्वेत रक्त एवं पीत ये तीन भेद है। काले के श्याम नीलश्याम, दूर्वाश्याम, हरितश्याम, तथा पूर्ण काला आदि अनेक भेद हैं। ये सभी वर्ण अपने आप में अच्छे होते हैं। यदि ये चमकयुक्त तथा दीप्त हो तथा मानव स्वस्थ्य हो तथा शरीर से कोई दुर्गन्ध नहीं निकलता हों तो शुभप्रद है। इसके विपरीत लक्षण से युक्त रहने पर अशुभ होता है। सभी प्रकार के गोरे तथा सांवले अच्छे होते हैं यदि वे रुक्ष आदि दुर्गुणों से युक्त नहीं हों। अति काला, अतिगोरा, कुछ काला तथा कुछ गोरा, तथा संकीर्ण अच्छा नहीं होता कमल के फूल के पराग के समान गौर, प्रियंगु-धाय के फूल के समान सांवरा तथा काजल के तुल्य काला बहुत चमकनें बाला वर्ण भी शुभप्रद नहीं होता है। अतः वर्ण गुणवत्ता बौद्धिकक्षमता तथा रंग आदि के द्योतक हैं। सत्व-आन्तरिक सत्त्व तथा दृढता-दुःख में दुःखी नहीं की, सुख में उद्वेग नहीं, शंका तथा शोक से हीन, उत्सव में आनन्दित, तथा सदा धीरज से रहने बाला, सात्त्विक होता है। जिनमें ये सभी लक्षण हों, लक्ष्मी जी की सदा उस पर कृपा बनी रहती है। त्वचा में भोग, मांस में सुख, अस्थि में धन, नेत्र में सौभाग्य चलने में मान, शब्द में आज्ञा का बोधक यह सत्त्व है। सत्त्वनिष्ठा में सभी समाहित हैं स्त्रियों का सौभाग्य तथा आभूषण, की तरह पुरुषों में सत्त्व का महत्त्व है। सत्त्वहीन निरादर पाता है। पुरुष के गति से वर्ण, वर्ण से स्वर, स्वर से भी महत्वपूर्ण सत्त्व होता है। अतः सत्त्व की अधिकता से पुरुष धन्य होता है। सत्त्वहीन भाग्यहीन होता है। __मुख्य से रूप, रूप से धन, धन से सत्त्व महत्त्वपूर्ण होता है। सत्त्व के अनुसार गुण होते हैं। अतः सत्त्व सभी गुणों तथा लक्षणों में मुख्य होता है। सद्भाव, सद्विचार, सच्चिन्ता, शान्तमन ये सब सत्त्व के गुण हैं। सभ्यपत्ति तथा विपत्ति में सात्विक सदा अविचल रहता है। यदि सत्त्व बाह्यलक्षण में किसी भी प्रकार नहीं दीखे उसकी लक्ष्मी स्थिर नहीं होती। अन्य २६६ २६८ ज्योतिष-खण्ड समस्त लक्षण एक ओर तथा सत्त्व को एक पलड़े पर रखकर विमर्श करना चाहिये। अतः अंगलक्षण के शुभ होने तथा सत्त्व के प्रकटभेद से शुभाशुभ का निर्धारण कर हस्तरेखाओं के अनुसार मानवीय त्रिकाल जन्य शुभाशुभ निर्धारण ही इस शास्त्र का वास्तविक उद्देश्य हैं। स्त्रीलक्षण-नारी लक्षण परीक्षण में पुरुष की तरह-आकार प्रकार, रंग रूप, सुगंध, दीप्ति-क्रान्ति, चक्रादि चिह्न, सत्त्व, स्वर, गति आदि मुख्य लक्षण विचारणीय होते हैं। नारियों के भी पांव के तलवे से सिर के बाल तक नख शिख वर्णनक्रम से समस्त लक्षण परीक्षणीय होते हैं। प्रकृति लक्षण-स्वभाव एवं प्रकृति की दृष्टि से श्लेष्मादिक तथा स्वभावस्था दो मुख्य भेद हैं। प्रथम के ३ तथा द्वितीय भेद के भी १२ उपभेद बनते है। कमल तथा दूर्वा के समान श्यामा स्वभावतः स्थिर नारी स्नेह की चाहतबाली, सत्यभाषिणी, सुमधुरभाषिणी, श्यामा, रक्तवर्णीया. श्वेतवर्णीया. तथा सकोमलाङगी बहत सौभाग्यवान पत्रों की जननी होती है। चिकने नख, बाल, त्वचा, तथा सुन्दर नेत्र बाली क्षमाशील, तथा सत्यनिष्ठ, होती है। इस प्रकार की नारी परम कल्याण कारिणी होती है। सीमन्त के दोनों भाग बराबर हो, तथा दोनों जुड़े बराबर तथा लम्बे हो, हाथ पैर बराबर तथा समाङ्ग हो, ऐसी नारी सत्यनिष्ठा, सौभाग्यशाली पराक्रमी सन्तान, से युक्त तथा स्वयं भी पराक्रमी होती है। शरीर स्थूल नहीं हो, चमकीले नरम रसमयी त्वचा तथा पुष्प जैसे अनुलेपन से युक्त धर्माचरणशीला, दयावती, कमल के समान हाथपैर बाली रमणी सभी प्रकार से सौभाग्यवती होती है। ये सब नारी के उत्तमभेद हैं। उत्तमप्रकृति एवं तदुत्पन्न गुण के साथ मानसिक तथा आत्मबल का परीक्षण भी करना चाहिये। चेष्टा, स्वर, वाणी, तथा व्यवहार एवं विभिन्न अवस्थाभेद से किए गये परीक्षण आज भी ठीक परिणाम देते हैं। _मध्यम प्रकृति प्रभेद-तथा मिश्रप्रकृति की अंगना में गुण तथा दोष दोनों सन्दर्भ होते हैं जो उपर्युक्त परीक्षण से स्पष्टतः जाने जाते हैं। त्रिविध गुण अंकपाश के भेद से ५ महाभूत, आनुवंशीकी भेद, वातावरण, ताप एवं शीत भेद, मिट्टी, जल एवं वायु के योगजभेद, तथा शिक्षादीक्षा, आदि के भेद से पुंस्त्री भेदों की परीक्षा विधिवत् करने के बाद ही सामुद्रिक की सापेक्षता से हस्तादि परीक्षण कर सर्वविध आजन्म निधनान्त शुभाशुभ निर्धारण करना चाहिये। विशुद्ध प्रकृति-इससे समबद्ध पुरुष तथा नारी विरले हैं। अधिकांश मिश्रित प्रकृति के होते हैं। इसमें अनेक कारण हैं मनुष्यों के मिश्रित प्रकृति के अनेक भेद होते हैं मानव की प्रकृति सामान्यतः सौम्य होती है, लेकिन राग द्वेष से मुक्त नहीं होती। मानव देह धारी के देवता, विद्याधर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, असुर, दानव, नाग, पिशाच, नर, बन्दर, गदहा, बिल्ली, सिंह, बाघ, आदि के समान प्रकृति होती है, जिसे बड़ी साबधानी से जानना तथा निर्धारित करना होता हैं। सामुद्रिक शास्त्र स्वरूप परम्परा एवं इतिहास मिश्र लक्षण-जो नारी नीचे से तनु तथा ऊपर से भारी हो, मेढ़क के समान कुक्षी (कोख) हो, तथा बृक्ष के समान दीखे इस प्रकार की नारी एक पुत्र को जन्म देती है जो चक्रवर्ती सम्राट् या उसके समान पराक्रमी होता है। स्त्री के ललाट में त्रिशूल का नैसर्गिक चिन्ह से वह हजारों स्त्रियों की स्वामिनी होती है। _ शहद के समान वर्ण की सुन्दर आँखें चिकना कमनीय सुन्दर शरीर, श्यामाङ्गी हंस के समान गति तथा वाणी, बाली नारी धनधान्य से परिपूर्ण, सम्राज्ञी होती है, तथा आठ पुत्रों की माता होती है। वे पुत्र भी परम पराक्रमी होते हैं। यह उत्तमोत्तम योग हैं। पुरुष तथा नारी के चार-चार मुख्य भेद ४ x ४ = १६ हो जाते हैं। दिशा भेद, देशभेद तथा कालभेद से इसके असंख्यभेद हो जाते हैं। १६ x १६=२५६ भेदों को सूक्ष्म पारखी परख सकता है। इससे अधिक भेद अतीन्द्रियता के त्रिविध भेदों से गम्य है। शश, मृग, अश्व, तथा गर्दभ पुरुष का पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी तथा हस्तिनी से क्रमशः उत्तम योग होता है। इस युग में आहार, विहार तथा निष्ठा के दूषण के कारण शशपुरुष तथा पद्मिनी नारी इस युग में दुर्लभ हैं। शश का चित्रिणी से योग मध्यम, शंखिनी से अधम तथा हस्तनी से अधमाधम होता है। इसी प्रकार मृग का शंखनी से मध्यम, तथा हस्तिनी से अधम योग होता है। पद्मिनी से उत्तम चित्रिणी से उत्तमोत्तम योग होते हैं। इसी प्रकार अश्वपुरुष का चित्रिणी से उत्तम, हस्तिनी से मध्यम तथा पद्मिनी से अधम योग होता है। गर्दभ का शंखनी योग मध्यम, चित्रिणी योग अधम है। अपने वर्ग को छोड़कर आसन्न दो भेद मध्यम तथा अन्य भेद अधम योग कारक होते हैं।