प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र
१. काल विधायक प्रत्यक्ष विद्या
ज्योतिष से कालचक्र समस्त दृश्यादृश्य विश्व, खगोलीय ज्योतिषपिण्ड, पिण्डाण्डीय संस्थान, मान, संचार, संरचना आदि तथ्य जुड़े हैं। काल एवं पिण्डाण्डों का सापेक्षिक प्रभाव, मानव तथा विश्व एवं समस्त विश्वाभिप्रायिक त्रिगोलीय प्रभाव निरूपक यह शास्त्र त्रिस्कन्धात्मक ज्यौतिष है। वेद एवं वैदिक दर्शन अनादि अनन्त सीमाहीन अव्यक्त-महाकाल एवं सीमाहीन महाकाश में सृष्टिचक्र को पर्ययात्मक मानता है। यह चक्र भी अनवरत संरचरणशील तथा परिवर्तनशील है। कालान्तर एवं क्षेत्रान्तर जन्य निष्पत्ति व्यक्त सापेक्षिक काल तथा ग्रहह्म पिण्डों के आधार पर व्यक्त होते हैं। अन्यथा पिण्डहीन महाकाश में महाकाल भी तदन्तर्भुक्त होता है। विभिन्न पिण्डाण्डीय सापेक्षता से उत्पन्न व्यक्त काल भूत, वर्त्तमान एवं भविष्य का विभाग प्रस्तुत करता है। काल को सभी का पाचक, सृष्टि स्थिति एवं संहार का मूल माना जाता हैं। २६८ ज्योतिष-खण्ड सवैया तथा कवित्त लिखते थे। उनको सामान्य हिन्दी ही मान्य थी, संस्कृत निष्ठ तथा ऊर्दू मिश्रित हिन्दी के वे विरोधी थे। उनके हिन्दी-प्रेम की एक घटना विख्यात हैं। सन् १८६८-६६ में न्यायालयों में नागरी लिपि को मान्यता दिलाने के लिये मालवीय जी के नेतृत्व में जनान्दोलन चल रहा था। ऊर्दूवालों का यह दावा था कि न्यायालयीय विषयवस्तु जितनी स्पष्ट और शीघ्रता से ऊर्दू में लिखी जा सकती है उतनी हिन्दी में नहीं। इस चुनौती को हिन्दी समर्थकों को ओर से पं० द्विवेदी ने स्वीकार किया। जिलाधिकारी ने निश्चित किया कि दोनों लिपियों के एक-एक लेखक मेरे द्वारा दिये गये वक्तव्य को लिखेंगे, जिसका लेखन हर तरह से शुद्ध होगा वह विजयी माना जायेगा। नागरी में लिखने के लिये पं० द्विवेदी जी उपस्थित हुये। जिलाधिकारी समुचितगति से बोलने लगे तथा दोनों लेखक लिखने लगे। लेखन समाप्त होते ही द्विवेदी जी ने यथावत् पढ़कर सुना दिया। उसमें एक भी वर्तनी या वाक्यात्मक अशुद्धि नहीं थी। ऊर्दू वाले अटक-अटक कर पढ़ने लगे। उनके लेख में अनेक अशुद्धियाँ तथा छूटे थी। जनकोलाहल के बीच द्विवेदी जी विजयी हुये। अधिकारियों का सन्देह निवृत्त हो गया। उ०प्र० के शासक सर एण्टनी मैकडोनल के समय में अदालती काम-काजों में नागरी लिपि को मान्यता दे दी गयी। नागरी की इस विजय का श्रेय शीघ्र, स्वच्छ तथा शुद्ध लेखन के महारथी पं० सुधाकर द्विवेदी को जाता हैं। आधुनिक ज्योतिष शास्त्र के इतिहास में म०म०पं० सुधाकर द्विवेदी का नाम सिद्धान्त ज्योतिष के उन्नायक के रूप में सदा अमर रहेगा। उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के लुप्तप्राय प्राचीन ग्रन्थों को प्रकाश में लाकर तथा अपनी व्याख्या, भाष्य एवं उपपत्तियों से सुबोध बनाकर, अपनी ऋतंभरा प्रतिभा का जो चमत्कार दिखलाया है वह अभूतपूर्व तथा विद्वानों को आश्चर्य में डाल देने वाला है। साथ ही हिन्दी भाषा तथा साहित्य के संरक्षण तथा उन्नयन के लिये उनके द्वारा जो कार्य किये गये हैं वे भी अत्यन्त उपादेय तथा आदरणीय हैं। उनके विषय में महान् ज्योतिर्विद् पद्मभूषण पं० सूर्यनारायण व्यास की निम्नांकित उक्ति अक्षरशः सत्य हैं-“ज्योतिविद्या के सम्बर्धन में पं० सुधाकर जी ने जो कार्य किया हैं वह असाधारण हैं। गणेश दैवज्ञ के बाद ३०० वर्षों में सुधाकर जी को छोड़कर कोई ऐसा कृती-शूर-मनीषी नहीं हुआ जिसने इस शास्त्र की इतनी सेवा की हो। सुधाकर जी ने ज्योतिषविद्या को सप्राण और समृद्ध बनाया। यद्यपि म०म० बापूदेव शास्त्री ने इस दृष्टि कोण का प्रवर्तन किया था किन्तु इसे पल्लवित, प्रथित और सुरक्षित सुधाकर जी ने ही किया। सुधाकर जी इस देश की विद्वद्विभूति थे। बहुमुखी प्रतिभा तथा पाण्डित्य के धनी थे। उन्होंने भारतीय ज्योतिषशास्त्र की गरिमा से विश्व को परिचित कराया।” विज्ञानवीथीपथिकैरुपास्यः सिद्धान्तसिंहासनसार्वभौमः। प्राचीप्रतीचीगणितज्ञवन्द्यः सुधाकरोऽयं महनीयकीर्तिः। कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव सहात्मना। अन्ते स पक्वस्तेनैव सहाव्यक्ते लयं व्रजेत् ।। अर्थात् काल समस्त भूतों का पाचक है। परम अव्यक्त से ही समस्त व्यक्त उत्पन्न होते हैं। ब्राह्मदिनादि में सृष्टि तथा दिनान्त में लय का सिद्धान्त यहां प्रतिपादित है। अव्यक्त से क्रमानुरोध से एक कालावच्छेदेन समस्त सृष्टि निःसरित होती है तथा एक साथ लय को प्राप्त होती है। उत्पत्ति से परम विकास तथा ह्रासानुरोध से विनाश तक व्यक्त विश्व व्यष्टि एवं समष्टि दोनों भेदों को दर्शाता हैं। संहिता स्कन्ध -दिव्य, नाभस तथा भौम प्रभावों का सर्वविश्वाभिप्रयिक निरूपक विधान संहिता स्कन्ध अनेक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ज्यौतिषाङ्ग है। इस के अनेक विद्याविभाग आज भी उपलब्ध हैं। दिव्य, नाभस तथा भौम ये तीन मुख्य प्रभाव भेद दर्शक हैं। ज्यौतिष शास्त्र में संहिता स्कन्ध का उद्भव विकास एवं स्थिति-संहिता स्कन्ध का मूल ऋग्वेद में ही विद्यमान है। ऋग्वेद से नवीनतम विकास तक की यात्रा काफी लम्बी है। इस मध्य विकास तथा हास के अनेक दौर गुजर गये। वैदिक सभ्यता के साथ अन्य सभ्यताओं में भी ज्यौतिष संहिता स्कन्ध का प्रयोग होता था। वैदिकज्यौतिष तथा मध्यकालीन सिद्धान्तों का अनुशीलन कर भारतीय ज्योतिष मराठी में श्री बालकृष्ण दीक्षित की अद्वितीय कृति है। इसमें वैदिक, बेबीलोन, ग्रीक तथा२७० ज्योतिष-खण्ड चीन आदि की सभ्यताओं में ज्योतिष के अस्तित्व एवं स्वरूप पर श्री दीक्षित का अन्वेषणं एवं संकलन स्तुत्य प्रयास रहा है। वैदिक ज्यौतिष इस विद्या के पूर्वसामयिक परम विकास को दर्शाता है। वैदिक ज्यौतिष से वेदाङ्ग ज्योतिष तक का प्रवर्तन तथा प्रायोगिक-विकास लगध आर्यभट वराह आदि आचार्यो के माध्यम से हुआ है। संहिता की दृष्टि से बृहत्संहिता वैदिक मूलसंहिताओं, ब्राह्मणों अरण्यकों पुराणों में भी अनेक संहिता स्कन्धीय सिद्धान्त मिलते हैं। श्री दीक्षित का अन्वेषण वेदाङ्ग ज्यौतिष से जयसिंह तक की यथार्थ समीक्षा हैं। भारत की तरह अन्य देशों में भी ज्यौतिष शास्त्रीय अन्वेषण इस विद्या के सार्वदेशिक रूप को व्यक्त करता है। वैदिक संहिता तथा ब्राह्मण ज्यौतिष शास्त्रीय मूल ग्रन्थ न होने पर भी प्रसंगानुरोध से मन्त्रात्मक शैली में उच्चतम ज्यौतिष शास्त्रीय सिद्धान्तों का वर्णन प्रस्तुत किये हैं। यजुर्वेदीय प्रमाण “प्रज्ञानाय नक्षत्र दर्शनम्। यादसे गणकम्” से ज्योतिर्विद् का स्वतन्त्र महत्व प्रकट होता हैं। सूत्रकाल तथा वेदाङ्काल में स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रणयन की प्रक्रिया तथा संहितोक्त मन्त्रों का ब्राह्मणों में प्रयोगात्मक रूप मिलते है। ज्योतिषशास्त्रीय समस्त मूल तथ्य वैदिक वाङ्मय में उपलब्ध हैं। अष्टादश ज्योतिष शास्त्र प्रवर्तकों (ब्राह्मादिक सूर्यादि) के मूल ग्रन्थ आज नहीं मिलते, फलतः क्रमिक विकास की समीक्षा यथार्थ रूप में करना संभव नहीं हैं। वेदाङ्गकाल से आज तक का विकास क्रम स्पष्ट है। ऋषि मुनियों सिद्ध योगियों के बाद सिद्ध तान्त्रिकों के कालखण्ड एवं तत्पश्चात् पौरुष ग्रन्थकारों के कालखण्डों की अनेक कड़ियों को जोड़ने हेतु व्यापक अन्वेषण के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। _आदिकालीन सिद्धान्त मध्यकालीन सिद्धान्त तथा संहिता प्रयोगात्मक हैं। परन्तु वैदिक ज्यौतिष के उत्कर्ष के आख्यानात्मक रूप को देखने पर पता चलता है, कि सिद्धान्तकालीन ज्यौतिष तथ्य काफी पीछे हैं। महाभारत से वेदाङ्गकाल तक का क्रम स्पष्ट नहीं। क्योंकि वैदिक ज्यौतिष सिद्धान्त कैसे व्यवहार बाह्य हुये तथा अष्टादश ज्यौतिष शास्त्र प्रवर्तकों के ग्रन्थ कैसे लुप्त हुए ये सब अन्वेषण योग्य तथ्य हैं। वेदाङ्काल में पूर्ववर्ती त्रिस्कन्धात्मक सिद्धान्तों को संग्रहीत कर पूर्व ऋषि के नाम पर स्वतन्त्र ग्रन्थ अवश्य बनें। महाभारतादि ऐतिहासिक महाकाव्यों में भी त्रिस्कन्धात्मक ज्यौतिषसिद्धान्त बिखरे पड़े हैं। तैत्तरीय संहिता, तैत्तरीय ब्राह्मण तथा अर्थर्ववेदीय नक्षत्रकल्प त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष के महत्व एवं दिव्य विस्तार को प्रकट करते हैं। वैदिक संहिता तथा ब्राह्मणकाल में ज्यौतिष विज्ञान कितना विकसित था, इसका निर्धारण अभी तक नहीं हो सका है, क्योंकि अनेक उच्चतम अन्वेषण-गम्य तथ्य जो आख्यानात्मक रूप में वैदिक संहितादि में मिलते हैं, वहाँ तक पहुँचने में अभी हमें कितने शताब्दी तक संघीय अन्वेषण पूर्ण करने होंगे, यह कहा नहीं जा सकता। पौरुषग्रन्थ क्रम वेदाङ्गकाल से प्रारम्भ हुआ। इसका विवरण बृहत्संहिता में मिलता है। उससे पूर्व ऋषियों एवं मुनियों के द्वारा प्रणीत ग्रन्थ संहितास्कन्ध २७१ प्रचलित थे। बृहत् संहिता में पूर्व संहिताकारों के नाम स्पष्टतः वर्णित हैं, जिनके मूल संहिता ग्रन्थ अब नहीं मिलते। _ योगयात्रा-संहिता स्कन्धान्तर्गत मुहूर्त विषयक रचना है। बृहज्जातक में प्राचीन जातककारों के नाम मिलते हैं। वराह के समय वेध परम्परा एवं शास्त्रीय संगठन की प्रक्रिया नये सिरे से प्रारम्भ होने के कारण अच्छी थी, इसमें सन्देह नहीं। आर्यभट्ट, वराह, लल्ल, ब्रह्मगुप्त, श्रीपति, भोजराज, भास्कर तथा बल्लालसेन तक भारतीय ज्यौतिष का क्रमिक विकासक्रम स्पष्ट है। तत्पश्चात् गणेश के क्रम से मुनीश्वर कमलाकर, जयसिंह तक विभिन्नबाधा के मध्य में भी विकास क्रम चलता रहा। फिर अंग्रेजी कालखण्ड में भी नीलाम्बर, कृष्णदत्त, बापूदेव, लोकमान्य तिलक, सुधाकर केतकर, चुलैट, एन०सी० लाहरी, मेघनाथशाहा दीक्षित, गोरखप्रसाद, सोमयाजी आदि का अन्वेषण हमें प्राप्त होता है। गणेश से बापूदेव तक ज्यौतिष सिद्धान्त में पञ्चाङ्ग तक भारतीय अन्वेषणधारा सीमित रही। नवीन वैज्ञानिक विकास के साथ भारतीय ज्यौतिष संहितास्कन्ध के पाञ्चभौतिक सापेक्षिक विद्याओं का उदघाटन फिर से संभव हो रहा हैं। बल्लालसेन के पश्चात् अवरुद्ध संहितोक्त अन्वेषणक्रम में कुछ अधिक नहीं हो सका। ज्योतिर्निबन्ध, दैवज्ञ कामधेनु तथा बृहदैवज्ञरञ्जन, मयूरचित्रक, प्रभृति रचित ग्रन्थ भी बल्लालसेन से आगे नहीं जा सके। क्रमिक अन्वेषणाभाव में समयबद्ध प्रगति रुक जाने से अनेक प्राचीन अन्वेषण प्रयोग-बाह्य होते गये। म०म० सुधाकर द्विवेदी द्वारा पुनर्जागरणकाल में बृहत्संहिता का भट्टोत्पलीटीका सहित प्रकाशित कराने के बाद फिर से संहितोक्त गौरव का अहसास हम कर रहे हैं। __ अद्भुतसागर का प्रकाशन पं० श्री मुरलीधर झा के अन्वेषण से १६०५ ई० में सम्भव हो सका। अन्वेषणावरोध से अनेक सिद्धान्तों की उत्पत्ति तथा मूल समझना कठिन हो गया है ‘लेकिन प्राचीन ऋषियों के विद्याओं को नवीन अन्वेषण पद्धति से तथा आध्यात्मिक पद्धति से जोड़ दिया जाए तो व्यवहार-बाह्यों को फिर से व्यवहार-गम्य बनाया जा सकेगा। भारतीय त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष गणित, गोल पञ्चमहाभूत, एवं त्रिगुणात्मक विभाग, गोलीययन्त्र तथा गोलीय वेध से सम्बद्ध है। इसकी हर शाखा पूर्ण वैज्ञानिक है। नवीन वैज्ञानिक विकास का मूल भी त्रिस्कन्ध ज्यौतिष है। इसके अनेक प्रबल प्राचीन तथा नवीन प्रमाण प्राप्त हैं। परन्तु संहितोक्त कुछ विद्याएँ दिव्य होने से आज भी अन्वेषणान्तर्गत नहीं किये जा सके। भारतीय वैदिक वाङ्मय योगनिष्ठ मन्त्र, तन्त्र एवं यन्त्राश्रित विज्ञानों का समन्वित रूप होने पर भी उपेक्षित होता गया। (१) मन्त्रात्मक विज्ञान- वैदिक संहिता तथा तन्त्रागम ध्वनिविज्ञान एवं ज्योतिर्विद्या का .. परमोत्कर्ष रूप अपरिवर्तनीय माना गया है। २७३ २७२ संहितास्कन्ध V.. ज्योतिष-खण्ड (२) अमन्त्रात्मक विद्या- इसमें अर्थ भाव तथा पाञ्चभौतिक प्रयोगात्मक विधान आते हैं। इसमें शब्द प्रधान नहीं है। एक अर्थ तथा भाव को अनेक शाब्दिक माध्यमों से व्यक्त किये जा सकते हैं। बृहत्संहिता में जिन-जिन संहिताकारों के विवरण मिलते हैं, उनके मूल ग्रन्थ आज नहीं मिलते। वराह से बल्लाल सेन तक जिन संहितोक्त विद्याओं के समावेश है, उनमें परवर्ती काल में मुहूर्त को छोड़कर अन्य शाखाएँ गौण तथा संघसाध्य विद्या शाखाएँ प्रयोग बाह्य होती गयीं। सूक्ष्म निरयण तथा सायण पद्धति के समन्वय पर आधारित द्विविध गणनाश्रित सूक्ष्मनिरयण पञ्चाङ्ग भी अन्वेषणाभाव में उत्तरोत्तर स्थूल होते गये। _ जहाँ गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त तथा दूरदर्शक के आविष्कार के पश्चात् उत्तरोत्तर विकास . रूप नवीन खगोलशास्त्र भू-भौतिकी खगोलभौतिकी ज्यौतिष की सीमा में प्रविष्ट है, वहाँ स्वतन्त्रता के बाद भी नवीन खगोल शास्त्रीय सम्बद्धता से जोड़कर संहितोक्त विद्याओं के विकासार्थ संघीय प्रयत्न न के बराबर हुए। त्रिस्कन्ध ज्यौतिष की सीमा को हम वेदाङ्गकाल से ग्रहण वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं, जब कि वैदिक ज्यौतिष मूल से सम्बद्ध होने पर भी वेदाङ्ग ज्यौतिष काफी पीछे है। त्रिस्कन्ध ज्यौतिष सम्बद्ध अनेक शाखाएँ नवीन विकास के अन्तर्गत पूर्ण वैज्ञानिक पद्धतियां बन गयी तथा बन रही हैं। वैदिकवाङ्मय से प्रारम्भ कर इस यान्त्रिक युग तक में प्रवेश का इतिहास अनेकों उत्थान तथा पतन के बाद फिर से उत्थान का संकेत देता है। सभी देश तथा काल में ज्योतिर्विद्या का अस्तित्व इसके सार्वकालिक तथा सार्वदेशिक विशिष्ट स्वरूप को दर्शाता है। त्रिस्कन्ध ज्यौतिष का विस्तार एवं संहितोक्त विज्ञानवाद भारतीय ज्यौतिष के वैशिष्ट्य को आज भी सिद्ध करता है। प्राचीन ऋषियों के सिद्धनिष्कर्ष आज भी काफी महत्वपूर्ण हैं। संहिता स्कन्ध-आज संहिता स्कन्ध की अनेक शाखाएँ पाश्चात्य भारतीय अन्वेषण से विज्ञान का रूप धारण कर चुकी हैं परन्तु दुर्भाग्य से भारत में समन्वयात्मक पद्धति उत्तरोत्तर उपेक्षित होती गयी। शतपथ तथा गोपथ ब्राह्मण की परम्परा अन्तिम वैदिक वैज्ञानिक परम्परा थी। वराह के वर्णनानुसार सृष्ट्यारम्भ कालिक कश्यप से प्रारम्भ कर समास संहिता तक की चर्चा विशिष्ट विस्तृत परम्परा का संकेत देता है। वराह से बल्लाल सेन तक ७०० वर्षों का अन्तर है। ११००+७०० = १८०० शकाब्द के बाद भारतीय मूल ज्ञान पाश्चात्य माध्यम से फिर प्रकट हो रहा है, वहाँ संहितोक्त प्रयोग धाराएँ क्षीण होते-होते आख्यानों तथा ग्रन्थों तक संकुचित हो गयी हैं। संहिता स्कन्ध का विस्तार-१. दिव्यभाग, २. नाभसभाग, ३. भौमभाग एवं त्रिगोलीय विश्वव्यापी ४. योगज प्रभाव ५. शुभशकुन-कालप्रभावावगमक सर्वविधपार्थिव लक्षणशास्त्र। (यह भी मूल रुप से संहिता का भाग हैं।) इसमें काल, वातावरण, पशुपक्षी आदि के चेष्टा के आधार पर विभिन्न शुभाशुभ प्रभाव निर्धारित किये जाते हैं। ६. केरली तन्त्र-द्वादश मात्रायुक्त कवर्गादि, पञ्चभूत स्वरसंचार, अङ्गो का वैशिष्टय, चेष्टा कालखण्ड, प्रश्नभेद, पात्र की स्थिति आदि के आधार पर शुभ शकुनादि युक्त यह प्रश्न तन्त्र हैं। जीव, वनस्पति आदि का सम्यक् प्रकृति एवं लक्षण ज्ञान इसका पूरक विषय है। यह भाग भी संहिता का अंग हैं। बृहत्संहिता में शुभशकुन तथा अन्यत्र केरलीतन्त्र का वर्णन इन दोनों को संहिता का भाग सिद्ध करता हैं। इन दोनों विद्याओं पर केरलप्रश्नरत्न, केरलप्रश्नसंग्रह प्रभृति केरली विद्या तथा शकुन वसन्तराज प्रभृति शकुन ग्रन्थ हैं। संहिता-यह स्कन्ध मेदिनीय ज्यौतिषसंज्ञक एवं अत्यधिक विस्तृत हैं। समहितं करोतीति……संहिता ज्यौतिष त्रिगोलीय विश्वप्रभाव को दर्शाता है। दिग्देशकाल एवं क्षेत्रांश द्वारा समष्ट्याभिप्रायिक विश्वप्रभाव निरूपक स्कन्ध संहिता स्कन्ध है। नक्षत्र, ग्रह तथा केतु प्रभाव, भौमप्रभाव तथा नाभस प्रभाव इसके मुख्य प्रतिपाद्य हैं। संहितास्कन्ध पर उपलब्ध प्रामाणिक ग्रन्थों में प्रथम भद्रबाहुसंहिता एवं बृहत्संहिता अद्भुत वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं। वराह के समय तक (शक० ४२७) उपलब्ध संहिताकारों के नाम बृहत्संहिता में आ गये हैं। काश्यप, नारद, अत्रि, मनु, गर्ग, पराशर, व्यास देवल प्रभृति ऋषियों के प्रमाणों को बृहत्संहिता में संक्षिप्त रूप में संघटित करने का व्यापक प्रयत्न हुआ। वराही संहिता में नक्षत्र, ग्रह, केतु दिव्य प्रभाव से गन्धर्व नगर परिवेष, उल्का पातादि नाभस तथा भूकम्प ज्वालामुखी, भूगर्भीय एवं पृष्ठीय प्रभाव तथा प्रभावावगमक सिद्धान्त मौलिक रूप में विद्यमान हैं। वराहकाल में संहितोक्त अधिकांश विद्याएँ प्रयोगान्तर्गत थी। केतुचार में पराशर गर्ग देवल अथर्वण आदि के मतानुरोध से २७ चर्मक्षु दृश्य केतु तथा १००० केतु दृश्य चक्रान्तर्गत यन्त्र दृश्य माने गये। बल्लाल सेन का अद्भुत सागर संहिता स्कन्ध का समतुल्य अद्भुत ग्रन्थ उपलब्ध है। इसमें १०८ केतुओं को नंगी आँखों से दृश्य होना माना हैं। वराह के समय से ही मुहूर्त ग्रन्थ ने स्वतन्त्र शाखा का रूप ग्रहण कर लिया। बल्लाल सेन के पश्चात् संहिता स्कन्ध में मुहूर्त ज्यौतिष का प्राधान्य रहा। इसमें एक अहोरात्र को मानक मानकर शुभाशुभ, नक्षत्र, संस्कार, गोचर, विवाह, यात्रा, वास्तु-कूप, तड़ाग, गृहनिर्माण, देवालयारम्भ, प्रभृति विषय मुख्य रूप से कहे गये हैं। बृहत्संहिता में निरूपित विभिन्न वैज्ञानिक शाखाओं पर अन्वेषण क्रम क्षीण होता गया जो बल्लालसेन के बाद व्यवहार बाह्य होता गया। यद्यपि बृहत्संहिता को मूल मानकर बाद में अनेक संहिता ग्रन्थ रचे गये परन्तु अन्वेषणक्रम क्षीण रहा। त्रिगोलीय विश्वप्रभाव का भूगोलाभिप्रायिक स्वरूप दर्शक संहिता अनेक प्रयोगात्मक विद्या प्रभेदों के रूप में मूल रूप में वराह के समय व्यवहारान्तर्गत था। २७४ ज्योतिष-खण्ड संहितास्कन्ध २७५
संहिता स्कन्ध के मुख्य विषय विभाग
प्रभाव की दृष्टि से संहिता के मुख्य तीन भाग हैं १. दिव्य प्रभाव-सूर्य, द्वादशादित्य, एकादशरुद्र, अष्टवसु दो अश्विनी तथा, नक्षत्रमण्डलीय दिव्य प्रभाव तथा दिव्य केतु मण्डलीय प्रभाव। धुलोक अर्थात् नक्षत्र मण्डल, सौर क्रान्तिक्षेत्रीय नक्षत्रपुञ्जों का साक्षात् प्रभाव। ग्रह, नक्षत्र तथा केतु ये दिव्य प्रभावोत्पादक हैं। २. नाभस प्रभाव-अन्तरिक्ष जन्य प्रभाव इसके अनेक प्रभेद बनते हैं। ३. भौम प्रभाव-पृथ्वी का प्रभाव-गर्भीय प्रभाव तथा पृष्ठीय प्रभाव। ये तीन मुख्य प्रभेद हैं। पञ्चमहाभूत, ग्रहह्मसंरचना संचरण, उदयास्त, युति, भेद, लोप, ग्रहण आदि प्रभावोत्पादक है। पञ्चमहाभूत समस्त प्रभावों का आश्रय भूत है। भूतत्व के आश्रय से भौमप्रभाव व्यक्त होते हैं।
दिव्य प्रभाव
१. नक्षत्रपुञ्ज २. ग्रह ३. उपग्रह ४. केतु। ये चार दिव्यप्रभावोत्पादक हैं। केतु-नाक्षत्रकेतु, ग्रहकेतु तथा भौम केतु ये तीन भेद इसके बनते हैं। केतुओं के अनन्त विस्तार में २७ तथा १०८ चर्मचक्षु दृश्य केतु साक्षात् भूपृष्ठ को प्रभावित करते हैं। उदय, अस्त, स्पर्श, धूमन, घात, द्वारा प्राकृतिक संरचना तथा वर्ण द्वारा विभिन्न केन्द्रिक केत शभाशभ प्रभावोत्पादक हैं।
भौमप्रभाव एवं योगज प्रभाव
वास्तुविद्या-गृहारम्भ विधि, वास्तुभूमिपरीक्षण, वास्तुस्थापत्य-वास्तुशिल्प त्रिगोलीय प्रभाव प्रभृति-इस विद्या के अन्तर्गत आते हैं। यह भूपृष्ठीय भेद में गणित है। इस विद्या पर अनेक ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं। भूगर्भविद्या-भूकम्प, ज्वालामुखी, भुम्यन्तर्वर्ती जलस्तर तथा जलीय स्रोत, धातु, रत्न, शक्ति के विभिन्न स्त्रोत, तथा भूपृष्ठीयस्तर विभाग आदि विद्याएँ इसके अन्तर्गत आते हैं। दकार्गल विद्या के रूप में बृहत्संहिता में भूम्यन्तर्जलीय स्त्रोत विद्या दकार्गल के रूप में प्राप्त होती है।
नाभसप्रभाव एवं योगज प्रभाव
वृष्टिविद्या-वर्षा, वातावरण,, मौसम, जलवायु, भूपृष्ठीय कटिबन्ध भेद तथा त्रिगोलीय ग्रहसंचारोत्पन्न वृष्टियोग आदि इसके अन्तर्गत हैं। भूगोलीय कटिबन्ध विभाग, वातचक्र शीतोष्ण मात्रा तथा त्रिगोलीय ग्रहह्म संचार से वृष्टि शस्य वनस्पति सुभिक्ष तथा दुर्भिक्ष आदि का सम्यक् ज्ञान होता हैं।
भौमप्रभाव एवं योगज प्रभाव
शुभशकुन-जीवों एवं वनस्पतियों के तथा अन्य प्राकृतिक लक्षण तथा विकृति के द्वारा शुभाशुभ घटनाचक्र विधायक प्रत्यक्ष विधान शकुन शास्त्र हैं। इसमें भूपृष्ठस्थ जैव विश्व वनस्पत्यादि तथा प्राकृतिक चक्रों का यथार्थ ज्ञान अपेक्षित है। चेष्टा, शब्द, वर्ण, गति, क्रान्ति आदि के माध्यम से परीक्षणार्थ दशविध शकुन आदि को विश्लेषित करना अपेक्षित होता हैं। _सामुद्रिक-प्रकृति, आकृति, लक्षण, चेष्टा, गति, वर्ण, स्वर, मानसिक चेतना, अंग लक्षण, हस्तरेखा तथा ग्रहक्षप्रभाव दर्शक लक्षणों एवं चिन्हों के निर्धारण के द्वारा मानवीय शुभाशुभ प्रदर्शक सामुद्रिक विद्या है। इसका सम्बन्ध संहिता तथा होरा दोनों से है। यह सर्वाधिक प्रचलित भाग है। स्वरविद्या-ज्यौतिष तन्त्र तथा योग पर आधारित यह सर्वाधिक चमत्कारी दिव्य विद्या होने पर भी ह्रासोन्मुख है। हंसस्वर संचार, वर्णस्वर, पञ्चमहाभूत तथा त्रिगोलीय संस्थान एवं संचार गत सम्बद्धता पर आधारित हैं। इस विद्या के अनेक ग्रन्थ आज भी मिलते हैं। इसके प्रथम प्रवर्तक भगवान शिव माने जाते हैं। संहिता तथा होरा दोनों से इसका सम सम्बन्ध है। ब्रह्माण्ड तथा सौर विश्व का पिण्डीय संचरण दर्शानेवाली प्रत्यक्षाश्रित यह सार्वकालिक विद्या है। शरीरस्थ ब्रह्माण्ड को व्यक्त करने का प्रत्यक्ष विधान प्रस्तुत करनेवाली, शान्ति से युद्ध तक में प्रयोज्य है। ज्यौतिष योग एवं तन्त्र के समन्वय से त्रिकाल ज्ञान तथा मानवीय सवामीण विकास का असीमत्व स्वर शास्त्र के आख्यानों से प्रत्यक्ष हैं। _अर्घविद्या-पदार्थ एवं सस्य आदि की वृद्धि, हास, विनाश, एवं तेजी-मन्दी आदि का निर्धारण इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। त्रिगोलीय सम्बन्ध से पदार्थादि को जोड़कर मूल्य निर्धारक यह विद्या इस आर्थिक युग में भी ब्रह्माण्ड सम्बद्धता के ज्ञान से सर्वोपकारक है। इसके विना अर्थविद्या पूर्ण नहीं मानी जा सकती। __ धातुविज्ञान-खनिजविद्या- भू उत्खनन से प्राप्त खनिज, धातुरत्न, धातुशोधन प्रभृति इसके विषय हैं। समुद्र गर्भ से प्राप्त रत्नादि भी इसके अन्तर्गत आते हैं। इस क्षेत्र में भारतीय मूल भले आज सुप्तप्राय है, लेकिन समग्र परवर्ती विकास इससे जुड़ा हैं। सुभिक्ष-दुर्भिक्षविद्या-पृथ्वी पर होने वाले सुभिक्ष तथा दुर्भिक्ष का अध्ययन इसका मुख्य प्रतिपाद्य हैं। ग्रहह्मसंचार तथा भूगोलीय पदार्थ सम्बन्ध से दिव्यनाभस एवं भौम प्रभाव का वर्षाभिप्रायिक शुभाशुभ प्रभाव निरूपण इसके अन्तर्गत होता है। _प्रतिमाविद्या-मूर्त्तिनिर्माण, मूर्त्तिभेद, मुर्तिलक्षण, प्रकृतिविकार, देवप्रतिमादि विधान आदि इसके मुख्य प्रतिपाद्य हैं।
दिव्य एवं नाभसप्रभाव
रश्मिविद्या-प्रकाश, प्रकाशपुञ्ज, प्रकाशवर्ण, प्रकाशतरंग आदि इनके शुभाशुभ प्रभाव विधायक हैं। विकिरण आदि इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। विभिन्न गोलीय रश्मिपुञ्जों का २७६ ज्योतिष-खण्ड अपवर्त्तन परावर्त्तन ग्रहगोलीय गुरुत्वाकर्षणानुरोध से सघन एवं विरल माध्यमों में संचरण, वर्णभेद प्रभृति इसके अन्तर्गत आते हैं। ग्रहक्षप्रभाव निर्धारण में ग्रहक्षरश्मि का अध्ययन वैदिककाल में भी होता था। संचरण माध्यम के गरुत्वाकर्षणभेद से. वर्णभेद, तथा प्राकतिक लक्षण भेद से शुभाशुभ फल निर्धारण में इसका स्वतन्त्र महत्त्व था, तथा हैं। जीवविद्या-मानव, पशु, पक्षी, कीट, सरिसृप, पतंग प्रभृति के आकृति, प्रकृति, चेष्टा, गुण, दोष, वर्ण, गति प्रभृति का १८ प्रकार से अध्ययन इसका मुख्य प्रतिपाद्य हैं। यह संहिता तथा आयुर्विज्ञान का अंग था। वनस्पति विद्या-इसके अन्तर्गत वनस्पतियां, औषधिवर्ग वनस्पति चिकित्सा, ग्रहों तथा नक्षत्रों से सम्बद्ध वनस्पतियां तथा वनस्पतियों का त्रिगोलीय सम्बन्ध प्रभृति आते हैं। आज यह विद्या स्वतन्त्र है, परन्तु ग्रहादि से सम्बद्धता के आधार पर अन्वेषण नहीं हो रहा। वास्तुविद्याओं में भी इसका प्रयोग होता है। यह काष्ठशिल्प का भी आधार है। __कूर्मविद्या-कूर्मपृष्ठ विचार- इसके अन्तर्गत पृथ्वी के विभिन्न स्थान तथा देश वर्गीकृत हैं। किस ग्रह तथा नक्षत्र से कौन सा भाग सम्बद्ध है, इत्यादि के प्रतिपादन मिलते हैं। ग्रहों तथा नक्षत्रों का स्थानाधिपत्य, देशाधिपत्य; प्रभावक्षेत्र तथा प्रभाव मात्रा भी इसके अन्तर्गत आते हैं। नक्षत्रव्यूह विद्या-इसमें नक्षत्रों तथा ग्रहों का चराचर जीव तथा पदार्थगत सम्बन्ध पदार्थाधिपत्य; जैवाधिपत्य; तथा विभिन्नरूपक प्रभाव परिगणित हैं। दिग्गज विद्या-गुरुत्वाकर्षण प्रभाव का भूगोलाभिप्रायिक रूप इसका विषय है। आकर्षण एवं विकर्षण के अनुरोध से त्रिगोलीयाकर्षण का भूगोलीय रूप निर्धारण इसका मुख्य प्रतिपाद्य होने पर भी आज केवल संकेत मात्र अवशिष्ट है। नवीन गुरुत्वाकर्षणशास्त्र की सहायता से पूर्व निष्कर्षों को व्यवहार गम्य किया जा सकता हैं। __नाग तथा शेष विद्या-गुरुत्वाकषर्ण की अन्तिम सीमा शेष है, जिसे पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड दोनों से जोड़ा गया है। इसे भी आकर्षण शास्त्र के भेद के रूप में प्रयोग किया जाता था। भूमि के गर्भ में ठोस तथा द्रव्य के मध्य तरलनागाकृति पट्टियों के संकेत भी मिलते हैं। ग्रहह्मगोचर-खगोलीय पिण्डों के संचार से जो तात्कालिक गोलीय सम्बन्ध बनते हैं, उन्हें व्यक्त करने तथा शुभाशुभ जानने का विधान ग्रहर्स्टगोचर है। इसके दो भेद हैं १ दिग्देश कालाभिप्रायिक त्रिगोलीय संचार शुभाशुभत्व प्रभाव से उत्पन्न विश्वाभिप्रायिक। २. त्रिगोलीय गोचरीय प्रभाव से व्यक्तिगत दिग्देशकालाभिप्रायिक शुभाशुभ निर्धारण। ग्रहक्षफल परिपाक-विभिन्न नैसर्गिक प्राकृतिक घटना चक्रों तथा त्रिगोलीय संचार से उत्पन्न शुभाशुभ फल परिपाक से प्राप्त शुभाशुभ फल का प्राप्ति समय का ज्ञान इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। किसका प्रभावकाल क्या है? का निर्धारण आज अन्वेषणीय है। प्राचीनों ने जिस संहितास्कन्ध २७७ प्रकार निर्धारण किया, उसे पुनः व्यवहार गम्य बनाना असंभव नहीं पर संघीयान्वेषण गम्य है। इसका सम्बन्ध संहिता तथा होरा दोनों से हैं। _मूहूर्त्तविद्या-एक अहोरात्र में निर्दिष्ट लघुकालखण्ड. का कार्य, कर्ता एवं काल का दिग्देशकाल भेदानुरोध से शुभाशुभत्व का निर्धारण मुहूर्त विद्या का मुख्य प्रतिपाद्य है। “किस कार्य को किस काल में कैसा व्यक्ति किस विधि से करे तो शुभ तथा किस तरह अशुभ होगा” का निर्धारण मुहूर्त हैं। ४८ मिनट का काल खण्ड १ मुहूर्त माना जाता हैं। __ शान्तिकल्प-इसके दो मुख्य भेद हैं। संहिता सम्बद्ध शान्ति कल्प तथा होरा सम्बन्ध शान्ति कल्प। संहितोक्त शान्तिकल्प प्रायः व्यवहार बाह्य है। अशुभ उत्पातों की शान्ति तथा अभिषेक इसके मुख्य प्रतिपाद्य हैं। शान्तिकल्पद्रुम इसका प्रमाणिक ग्रन्थ हैं। ज्यौतिष, योग आयुर्वेद’ कर्मकाण्ड तथा तन्त्रागम का समवेत रूप शान्तिकल्प हैं। मानव सम्बद्ध प्रत्येक उत्पात तथा अभीष्ट योगों का शमन इस विद्याका मुख्य लक्ष्य हैं। मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र, औषधि, अभिषेक, यज्ञ, अनुष्ठान, दान ये निदानात्मक प्रभाग हैं। इसका बहु आयामी विस्तार उत्तरोत्तर क्षीणता की ओर अग्रसर है।
भौमप्रभाव
पृथ्वी पर घटने वाली घटना न तो अकारण है न तो आकस्मिक। लेकिन कहाँ दिव्य प्रभाव हेतु है, कहाँ नाभस तथा कहाँ भौम, इन्हें अलग २ कर समझना आज भी कठिन है। क्योंकि भूगर्भीय तथा भूपृष्ठीय परिवर्तन त्रिगोलीय सापेक्षता पर आधारित हैं। धुलोकीय दिव्य प्रभाव (नाभस प्रभाव) भौम प्रभाव गत निष्पत्ति बृहत्संहिता तथा आधुनिक अन्वेषण से सिद्ध हैं, परन्तु भूपृष्ठस्थ भौमप्रभाव की तीव्रता को मानव विभिन्न रूपों में सर्वाधिक अनुभव करता हैं। भौम प्रभाव निर्धारण में भूगर्भ के साथ भूपृष्ठीय वातावरणादि का स्वतन्त्र महत्व है। भूपृष्ठ पर अवस्थित पर्वत मालाएँ, नदियाँ, सागर, हिमाच्छादित प्रदेश, पर्वत, समुद्री धाराएँ, वनप्रदेश, मरुप्रदेश, पठार, निम्न आर्द्रभूमि, भूगोलीय सौरक्रान्ति क्षेत्र, चुम्बकीय क्षेत्र, वातदाव, विभिन्न स्थानीय वातावरणान्तर, ताप, शीत, के साथ भूगर्भीय संरचना एवं प्रभाव आकलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। भूगर्भीय संरचना गैस, द्रव्य तथा पदार्थ रुप, ज्वालामुखी (अग्निपर्वत) भूकम्प, भूस्तर, भूगर्भीयस्तरगत जलीय स्त्रोत, खनिजों के ठोस, द्रव्य तथा गैस रूप में स्वतन्त्र महत्व रखने पर भी भौम प्रभाव के अन्तर्गत आते हैं। १. भूगर्भीय संरचना तथा प्रभाव-ज्वालामुखी तथा भूकम्पादि २. भूपृष्ठीय संरचना तथा प्रभाव-कटिबन्धादि भौम प्रभाव में आधार पर पृथ्वी होती है, त्रिगोलीय परिवर्तन कारण तथा घटना विशेष कार्य रूप। आश्रय पाञ्चभौतिक होता हैं।