१५ महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी

डॉ. विनोदराव पाठक पं० सुधाकर द्विवेदी का जन्म सन् १८६० में काशी के निकट स्थित खजुरी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पूर्वज मूलतः गोरखपुर के निवासी थे। प्रपितामह दत्तकपुत्र के रूप में अपने धनसम्पन्न मातामह (नाना) के घर रहने लगे थे सुधाकर जी के जन्म के समय इनके परिवार में पितामह की छत्रछाया में चार पितृव्य तथा अनेक भाई बन्धु संयुक्त रुप से रहते थे। फलतः जन-धन एवं ज्ञान से सम्पन्न परिवार में सुधाकर का लालन-पालन बड़े स्नेह से होने लगा। दुर्भाग्य से नौ मास की अवस्था में ही मातृवियोग के कारण सुधाकर जी ने दादा-दादी के संरक्षण में बाल्यावस्था व्यतीत की। समृद्ध परिवार के लालित पुत्र होने के कारण सात वर्ष की अवस्था तक इनका अक्षरारम्भ नहीं हो सका। आठवें वर्ष घर पर ही अक्षरज्ञान कराकर पिता ने ज्योतिष पढ़ने के लिए गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज में इन्हें प्रविष्ट करा दिया। पिता यजमानी वृत्ति करते थे। उनका उद्देश्य केवल यही था कि पुत्र सामान्य ज्योतिष तथा कर्मकाण्ड में निपुण हो जाय। कालेज में सुधाकर जी ने पं० दुर्गादत्त शास्त्री से व्याकरण पढ़ना आरम्भ किया। पिताजी ने उन्हें ज्योतिष पढ़ने का निर्देश दिया तथा स्वयं कालेज ले जाकर ज्योतिष कक्ष में जाकर पढ़ने का संकेत किया। ज्योतिष कक्ष में पं० बापूदेव शास्त्री तथा पं० देव कृष्ण मिश्र आमने-सामने बैठ कर पढ़ाते थे। सुधाकर देवकृष्ण जी के पास जाकर पढ़ने लगे। दो-तीन दिन बाद चर्चावश पिता को ज्ञात हुआ कि बालक बापूदेव शास्त्री से न पढ़कर देवकृष्ण जी से पढ़ता है तो वे अत्यन्त क्रद्ध हुये और उसे बापू देव जी से पढ़ने का निर्देश दिया। किन्तु किशोर सुधाकर ने बड़ी दृढ़ता से उत्तर दिया-“गुरु मान कर जिसके समक्ष पोथी खोली है उसके प्रति अश्रद्धा व्यक्त करना शास्त्र विरुद्ध होगा। मैं ने जिन्हें गुरु मान लिया है उन से ही यथार्थ ज्ञान प्राप्त होगा। अतः मैं उन्ही से पढूँगा।" इसके बाद सुधाकर जी ने सम्पूर्ण ज्योतिष का अध्ययन पं० देवकृष्ण जी से ही किया जब कि बापूदेव शास्त्री उस समय के सबसे श्रेष्ठ गणितज्ञ थे। कुछ दिन बाद एक अविस्मरणीय तथा रोचक घटना हुयी जो सुधाकर जी की गणितीय ऋतम्भरा प्रतिभा को व्यक्त करती है। म०म० बापूदेव शास्त्री ने स्वरचित पुस्तक बीजगणित प्रथम भाग की एक प्रति अपने सहायक श्रीदेवकृष्ण जी को भेंट की। उस पुस्तक को सुधाकर जी पढ़ने के लिये माँग कर घर ले गये। उन्होंने रात्रि में बड़े मनोयोग से उसका अध्ययन कर अनेक गणित सम्बन्धी अशुद्धियाँ निकाली तथा उनका संशोधन भी लाल स्याही से पुस्तक पर ही कर दिया। दूसरे दिन जब उन्होंने वे अशुद्धियाँ तथा संशोधन गुरुजी को दिखाये तो देवकृष्ण जी अपने शिष्य की इस “छोटे मुँह बड़ी बात" को जान कर हतप्रभ तथा भयभीत हो गये। महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी २६३ बापूदेव शास्त्री तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माने जाते थे, उनकी पुस्तक में अशुद्धि निकालना एक बहुत बड़ी धृष्टता थी। देवकृष्ण जी ने सुधाकर को चुप रहने का संकेत कर चर्चा बदलनी चाही किन्तु उसी कक्ष में दूसरी और बैठे बापूदेव जी गुरु शिष्य की फुसफुसाहट सुन रहे थे। उन्होंने जिज्ञासा की तो देवकृष्ण जी कुछ छिपा न सके, अपने शिष्य की इस ‘प्रातिभ-उद्दण्डता’ को गुरु जी को बता दिया। विशालहृदय गुणैकपक्षपाती पं० बापूदेव जी उस संशोधन को देखकर बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने प्रिन्सिपल को सुधाकर के विषय में एक प्रशंसा पत्र लिखा-“अयं सुधाकर शर्मा गणिते बृहस्पतिसमः" तथा उन्हें पारितोषिक देने की संस्तति भी की। फलतः सधाकर जी को अनेक पारितोषिक प्राप्य हये, उनकी ख्याति भी चारों ओर हो गयी। सुधाकर जी इस घटना को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानते थे। उनके अनुसार इस घटना के बाद उत्पन्न हुये आत्मविश्वास ने ही उन्हें गणित के गम्भीर अध्ययन के लिए प्रेरित किया था। सुधाकर जी छात्रावस्था से ही अध्ययन के साथ अध्यापन के लिये भी उत्सुक रहा करते थे। अध्ययन समाप्त होते ही उनके कछ मैथिल छात्रों के कहने पर मिथिला नरेश ने उन्हें काशीस्थ ‘दरभंगा सं० पाठशाला’ में प्रधानाध्यापक बना दिया। कुछ दिन बाद डॉ० ग्रिफिथ के अवकाश लेने के बाद डॉ० थीबो गवर्नमेन्ट कालेज में प्रिन्सिपल नियुक्त हुये। ये गणित के प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने सुधाकर जी की विद्वता से प्रभावित होकर उन्हें ‘सरस्वती भवन पुस्तकालय’ का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। सुधाकर जी ने इस पद पर रहते हुये वहाँ संगृहीत हस्तलिखित ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया। छह वर्ष बाद पं० बापूदेव शास्त्री के अवकाश ग्रहण करने पर रिक्त हुये ज्योतिष विभागाध्यक्ष पद पर सुधाकर जी को प्रतिष्ठित कर दिया गया। केवल २६ वर्ष की अवस्था में उक्त महनीय पद को प्राप्त करने वाले सुधाकर जी ने उस पद को इक्कीस वर्षों तक सुशोभित किया। इस कालमें द्विवेदी ने अनेक शिष्यों को गणितशास्त्र में पारंगत बनाने के साथ अनेक मौलिक ग्रन्थों का प्रणयन तथा दुरूह प्राच्य ज्योतिष ग्रन्थों का सम्पादन कर प्रभूत यश अर्जित किया। २८ नवम्बर १६१० ई० को केवल ५० वर्ष की आयु में ही पं० सुधाकर द्विवेदी अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़कर गोलोकवासी हो गये।

पं० सुधाकर द्विवेदी द्वारा प्रणीत एवं सम्पादित ग्रन्थ

मौलिक ग्रन्थ

(१) दीर्घवृत्तलक्षणम्- पाश्चात्य गणित शास्त्र की अत्यन्त दुरूह गुत्थियों को सुलझाने वाले इस महनीय एवं नवीन विद्या के ग्रन्थ की रचना द्विवेदी जी ने केवल २१ वर्ष की अवस्था में की थी। दीर्घवृत्त सम्बन्धी गणित की संस्कृत में यह सर्व प्रथम रचना है। इससे उनकी अलौकिक प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है। २६४ ज्योतिष-खण्ड (२) वास्तवचन्द्र-शृंगोन्नतिसाधनम्-इस ग्रन्थ में अनेक आचर्यों के मतों का उल्लेख करते हुये चन्द्रमा के वास्तविक शुक्ल वृत्त एवं दृश्य वृत्त का अध्ययन किया गया है। (३) भाभ्रमरेखानिरूपणम्- इस लघुकाय ग्रन्थ में छया भ्रमण के मार्गों के ज्ञान हेतु परवलय एवं अतिपरवलय का निरूपण किया गया है। (४) ग्रहणे छादकनिर्णयः। (५) यन्त्रराजः। (६) प्रतिभाबोधकः- नूतन पाश्चात्य गणितानुसर प्रतिछाया द्वारा बनने वले क्षेत्रों के गणित का संक्षिप्त प्रतिपादन इस ग्रन्थ में किया गया है। (७) धराभ्रमे प्राचीननवीनयोर्विचारः-पृथ्वी के चलाचलत्व का निरूपण इस ग्रन्थ में रोचक ढंग से किया है। पिण्डप्रभाकरः। (E) गणकतरंगिणी- यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें कालक्रमानुसार ज्योतिषशास्त्र के इतिहास को प्रमाणिक रूप से प्रथमवार प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रन्थ द्विवेदी जी की गवेषणा प्रवृत्ति तथा अनुशीनल गाम्भीर्य का द्योतक है। इसमें सन् ५०० से १८०० तक हुये ज्योतिषियों का जीवनचरित, उनके ग्रन्थ एवं सिद्धान्तों का प्रामाणिक प्रतिपादन है। (१०) धुचरचारः (११) समीकरणमीमांसा तथा (१२) दिङ्मीमांसा।

सम्पादित ग्रन्थ

द्विवेदी द्वारा सम्पादित ग्रन्थों में भी कुछ अप्रतिम विशेषतायें हैं। सर्वप्रथम तो उन्होंने उपलब्ध समस्त पाण्डुलिपियों को एकत्र कर समुचित पाठ निर्णय किया है तथा उन पर अपनी टीका, व्याख्या या उपपत्ति लिखकर उन्हें सरल-बोधगम्य बनाया है। इनका विवरण हैं-(१) पञ्चसिद्धान्तिका, (२) सिद्धान्ततत्वविवेक (३) शिष्यधीवृद्धितन्त्रम् (४) करणकुतूहलवासना (५) लीलावती (६) बृहत्संहिता (७) ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त (८) ग्रहलाघव (६) त्रिंशिका (१०) सिद्धान्तशिरोमणि (११) करणप्रकाश (१२) बीजगणितम् (१३) सूर्यसिद्धान्त (१४) चनलकलन तथा (१५) चलराशिकलन (१६) अंकगणित का इतिहास- इस ग्रन्थ में पाश्चात्य तथा पौरस्त्य अंकगणित से सम्बन्धित अंक, लिपि, दशमलव, गुणा, भाग, वर्गमूल तथा घनमूल आदि प्रक्रियाओं की उत्पत्ति तथा विकास का इतिहास सप्रमाण प्रस्तुत किया गया हैं। (१७) वेदांग ज्योतिष भाष्य-वेदांगज्योतिष दो रूपों में उपलब्ध होता हैं-यजुर्वेदीय तथा ऋग्वेदीय । सुधाकर जी ने यजुर्वेदीय ज्योतिष पर भाष्य लिखकर इसकी अनेक विसगतियों को दूर किया हैं। महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी २६५ हिन्दी ग्रन्थों का उद्धार किया अपि तु स्वयं भी अनेक हिन्दी काव्यों का प्रणयन किया। जायसीकृत ‘पद्मावत’ महाकाव्य का अनेक प्रतियों के आधार पर अपनी टीका के साथ प्रामाणिक सम्पादन कर द्विवेदी जी ने इसका उद्धार किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने तुलसी सतसई के आधार पर तुलसीसुधाकर, रामचरितमानस के बालकाण्ड का संस्कृतानुवाद तथा विनयपत्रिका का संस्कृतानुवाद भी किया था। द्विवेदी जी गणितज्ञ होने के साथ एक सरस साहित्यकार भी थे। हिन्दी साहित्य के प्रति उनका बड़ा अनुराग था। चलते-चलते स्फुट दोहे रचना एवं मित्रमण्डली को सुनाना उनका दैनिक कृत्य था। गणित के वे प्रख्यात विद्वान् थे किन्तु फलित पर उनकी आस्था नहीं थीं। केवल फलित जानकर ज्योतिषी कहलाने वालों पर किया गया उनका कटाक्ष दर्शनीय है छाया है कराल कलिकाल जगती पै आज। तीसी के जौ भाव सारे ज्योतिषी विकायेंगे।। द्विवेदी जी के तीन पुत्र थे। तीनों ही “प्रवर्तितो दीप इव प्रदीपात्” की उक्ति को चरितार्थ करते हुये पिता के समान ही उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हुये थे। कनिष्ठ पुत्र पद्माकर द्विवेदी ने गवर्नमेन्ट’ सं० कालेज में ही अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में ज्योतिष विभागाध्यक्ष का पद अलंकृत किया। द्विवेदी जी के असंख्य शिष्य थे। म० म० पं० मुरलीधर झा मुरलीधर झा ने ज्योतिषशास्त्र का सामन्य ज्ञान मिथिला के प्रसिद्ध ज्योतिषी पं० विद्याधर झा से प्राप्त किया। तदनन्तर काशी आकर पं० सुधाकर द्विवेदी के अन्तेवासी बने। ज्योतिषाचार्य परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। सन् १६०६ में राजकीय संस्कृत कालेज में ज्योतिषाध्यापक नियुक्त हुये। सन् १६२२ में ब्रिटिश सरकार द्वारा महामहोपाध याय की पदवी दी गयी। ज्योतिषशास्त्र के अनेक प्रौढ़ ग्रन्थों का टीका टिप्पणी के साथ सम्पादन कर उन्हें सुगम बनाया। अपने गुरु के समान ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं० मुरलीधर झा का देहावसान सन् १६२६ में हुआ। पं० बलदेव मिश्र पं० बलदेव मिश्र सहरसा जिले के प्रसिद्ध वन गाँव से सन् १९१० में काशी आये। यहाँ पं० सुधाकर द्विवेदी से सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन किया। ज्योतिषाचार्य करने के बाद सन् १६२२ से १६३० तक काशी विद्यापीठ में गणिताध्यापक रहे। १६४० से १६५५ तक सरस्वती भवन पुस्तकालय में हस्तलिखिति पुस्तकों के कैटलागर के रूप में महत्वपूर्ण कार्य किया। पं० सुधाकर द्विवेदी लिखित अनेक ग्रन्थों की टीकायें लिखी। आर्यभटीयम् ग्रन्थ की संस्कृत हिन्दी टीका इनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।

द्विवेदी जी द्वारा प्रणीत हिन्दी ग्रन्थ

पं० सुधाकर द्विवेदी हिन्दी साहित्य के भी मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन्होंने न केवल प्राचीन २६६ ज्योतिष-खण्ड

पं० रामयत्न ओझा

मूलरूप से बिहार के निवासी पं० रामयत्न ओझा पं० सुधाकर द्विवेदी के योग्यतम शिष्य थे, पं० मदन मोहन मालवीय ने इन्हें अपने विश्वविद्यालय के अन्तर्गत संस्कृत महाविद्यालय में ज्योतिषविभागाध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित किया मालवीय जी की सम्मति से इन्होंने एक विशिष्ट पंचांग का निर्माण किया। इसमें सभी पर्वो से सम्बन्धित धर्मशास्त्रीय तथा पौराणिक आख्यान यथास्थान दिये गये। यह पंचांग ‘विश्व पंचांग’ नाम से आज भी प्रकाशित हो रहा है। ओझा जी द्वारा विरचित दो प्रधान ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- (१) जैमिनी सूत्र की टीका तथा (२) फलित विकास।

पं० बलदेव दत्त पाठक

पं० बलदेव दत्त पाठक द्विवेदी जी के प्रिय शिष्य थे। इनका जन्म उ०प्र० के गोरखपुर जनपद में हुआ था। पिता काशी में ही रहते थे। अतः इनका शिक्षारम्भ काशी में हुआ। ज्योतिषशास्त्र का सांगोपांग अध्ययन कर पाठक जी ने ज्योतिषाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। खगोलविद्या में इनकी विशेष अभिरुचि थी। इन्होंने ‘नाड़ीवलय यन्त्र’ का निर्माण किया जिसका उपयोग का०हि०वि०वि० में होता था। इन्होंने काशी तथा अन्य स्थानों पर अनेक ‘धूप घड़ियाँ’ स्थापित करायीं। पाठक जी द्वारा विरचित एकमात्र ग्रन्थ “कुण्डमण्डपसिद्धि" प्रकाशित है। इन्होंने काशी के प्रसिद्ध गोयनका संस्कृत महाविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष पद पर रहते हुए अनेक योग्य शिष्य तैयार किये।

महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी

२६७ मिलने को कहा। दूसरे दिन वही सज्जन जब द्विवेदी जी के घर पहुँचे और उन्हें देखा तो द्विवेदी जी ने सान्त्वना देकर तीसरे प्रश्न का समाधान बता दिया। सज्जन ने पूँछा-आप इस प्रश्न का समाधान कल ही कर सकते थे फिर क्यों नहीं किया ? द्विवेदी जी बोले यदि मैं तीनों प्रश्नों का समाधान कर देता और स्वयं को सुधाकर द्विवेदी बताता तो शायद आप को विश्वास न होता और आप की सुधाकर द्विवेदी से मिलने की अभिलाषा भी पूर्ण नहीं हो पाती। द्विवेदी जी भारतीय गणित के साथ पाश्चात्य गणित के भी उद्भट विद्वान् थे। उस समय एक ही कालेज में संस्कृत तथा अंग्रेजी की कक्षायें चलती थीं। यदा कदा वे बी०एससी० के छात्रों को गणित पढ़ाने जाया करते थे। उनका अंग्रेजी उच्चारण निपट संस्कृत था छात्रों ने उनकी स्पष्ट स्वर-व्यञ्जनों वाली अंग्रेजी सुनकर खिल्ली उड़ानी चाही किन्तु जब नियमों की व्याख्या करते हुए द्विवेदी जी ने गणितधारा प्रवाहित की तो छात्र स्तब्ध रह गये। पीरियड समाप्त होते ही सभी छात्र इन धोती-टीका वाले पण्डित के चरणों पर झुक कर क्षमा याचना करने लगे। संस्कृतज्ञ होने के साथ द्विवेदी जी परम सामाजिक तथा राष्ट्र भक्त थे। सन् १६०३ में वायसराय लार्ड कर्जन वाराणसी आने वाला था। जिले के अधिकारियों को हिन्दू तथा मुस्लमान एक-एक ऐसा प्रतिनिधि चुनना था जो वायसराय से मिलकर अपने-अपने समाज की समस्याओं को उससे कह सके। हिन्दुओं का प्रतिनिधि चुनना कठिन था। अनेक अंग्रेजी दाँ वकील, राजनेता तथा काशी के रईस उपलब्ध थे, किन्तु अन्त में म०म० सुधाकर द्विवेदी पर सर्वसम्मति बनी। दोनों सज्जन बारी-बारी से वायसराय से मिले, अपनी-अपनी समस्यायें रखीं। कर्जन ने उ०प्र० के लेफ्टिमेन्ट गवर्नर से जो प्रतिक्रिया की उसका खुलासा बाद में हो गया। कर्जन के शब्दों में हिन्दू प्रतिनिधि बड़ा ही प्रगल्भ था। उसने अपनी समस्यायें बड़े प्रभावी तथा निर्भीक शब्दों में रखीं, परन्तु मुसलमान तो केवल टटोलता ही रह गया। उसी दौरान लार्ड कर्जन ने द्विवेदी जी से उनकी महत्वाकांक्षा पूँछी। द्विवेदी जी ने कहा-“महाशय में ग्रीन विच जाना चाहता हूँ तथा वहाँ होने वाली गणित की अशुद्धियों का परिष्कार कर उन्हें दूर करना चाहता हूँ।" कर्जन ने तत्काल प्रसन्नता पूर्वक सरकारी खर्च पर उन्हें जाने की अनुमति दे दी। किन्तु द्विवेदी जी ने समुद्र लङ्घन का साहस नहीं किया।

वैदुष्य, व्यक्तित्व एवं संस्मरण

तिमा सम्पन्न प्रखर व्यक्तित्व वाले मनीषी थे। गणित जैसे नीरस शास्त्र के वेत्ता होते हुये भी वे परम रसिक तथा विनोदी स्वभाव के थे। साथ ही सनातनधर्म तथा हिन्दी भाषा के परम समर्थक भी थे। गणितशास्त्र में उनका वैदुष्य अपार था। उस समय के विश्वविख्यात गणितज्ञ डॉ० गणेश प्रसाद जी भी द्विवेदी जी को अपने से बड़ा गणितज्ञ मानते थे। पं० सुधाकर जी जितने बड़े गणितज्ञ थे उतने ही बड़े व्यवहार पटु एवं विनोदी भी थे। एक बार वे रेलयात्रा कर रहे थे। उनके बगल में एक सज्जन बैठे थे, पुँछने पर पता चला कि वे अच्छे गणितज्ञ है। किन्तु तीन गणित के जटिल प्रश्नों का, समाधान सुधाकर जी से पूँछने काशी जा रहे हैं। सुधाकर जी ने अपना परिचय दिये बिना ही उनसे प्रश्न पूँछे। सज्जन ने कहा आप जान कर क्या करेंगे, प्रश्न जटिल हैं, सुधाकर जी भी शायद ही समाधन कर सकें। विशेष आग्रह करने पर उन्हेंने प्रश्न सुधाकर जी को बता दिये। द्विवेदी जी ने दो प्रश्नों का समाधान तो तत्काल कर दिया तीसरे के लिये सुधाकर जी से

द्विवेदी जी का हिन्दी प्रेम तथा कवित्व

बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं० द्विवेदी जी ने राष्ट्र भाषा हिन्दी के संरक्षण तथा संवर्धन में अपूर्व योगदान किया था। जायसी, तुलसीदास तथा अन्य भक्तिकालीन कवियों के ग्रन्थों के उद्धार में द्विवेदी जी ने बड़े मनोयोग से कार्य किया। वे स्वयं भी हिन्दी में दोहा,