१४ महामहोपाध्याय बापूदेवशास्त्रीः

डॉ. विनोद राव पाठक काशी नगरी के धार्मिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक महत्व उसका विद्या की उपासना स्थली होना हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उपनिषत् काल से ही ज्ञान पिपासु-मनीषी काशी आकर अपनी ज्ञानतृषा शान्त करते हैं। यह परम्परा आज भी अविच्छिन हैं। इसी परम्परा के अभिन्न अङ्ग एक ऐसे महामनीषी, जिन्होंने महाराष्ट्र प्रदेश की कोकणभूमि से काशी आकर अपने ज्ञान को इतना परिमार्जित एवं समृद्ध किया कि उन्हें काशी के विद्वत् समुदाय में मूर्धन्य पद प्राप्त हुआ तथा उनके वैदुष्य की प्रभा सम्पूर्ण भूमण्डल पर उद्भासित हुयी। ये महामनीषी थे महामहोपाध्याय पं० बापूदेव शास्त्री सी० आई० ई०। २५४ ज्योतिष-खण्ड है, जिसके अन्तर्गत बहुत सारे यन्त्रों की कल्पना स्वयं ज्ञानराज ने की है और उसका व्यवहार भी बताया है। ग्रन्थावलोकन से यह प्राप्त होता है कि इन्होंने बहुत स्थलों पर पुराण के मतों का मण्डन करते हुए सौरपक्ष के विरुद्ध पक्षों का खण्डन भी किया है। इसमें भास्कर के मत शामिल हैं। उन्होंने सूर्यसिद्धान्त में बीजसंस्कार करके उसको सामयिक बना दिया। आचार्य लोकमणि दाहाल ने लिखा है कि सिद्धान्तसुन्दर नामक ग्रन्थ की कोई प्रधान विशेषता नहीं दिखाई देती केवल बीजाधान ही महत्त्वपूर्ण हैं। इस ग्रन्थ में करण ग्रन्थ की तरह क्षेपक और वर्ष गतियाँ पढ़ी गई हैं। अयनांश का उल्लेख कहीं भी ग्रन्थ में ज्ञानराज ने नहीं किया हैं परन्तु अयनांश के बारे में लिखा है कि, मध्याह्नछाया द्वारा लाया गया रवि और करणागत स्पष्ट रवि का अन्तर ही अयनांश है। चन्द्रकला के क्षय वृद्धि प्रसंग में उन्होंने लिखा है कि वेदों में सूर्य किरणों को ही देवता कहते हैं जो शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष में कलायें देती रहती है। पं० सुधाकर द्विवेदी ने लिखा है कि आचार्य ज्ञानराज ने कहीं-कहीं उचित कल्पना की है, परन्तु कहीं-कहीं युक्तिशून्य भी लगता है जो, गोलज्ञान से बहिर्भूत दिखता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सिद्धान्तसुन्दर ग्रन्थ अपने नाम जैसा ही सुन्दर ग्रन्थ है जिसके सुन्दर पद्य एवं शैली तथा छन्द पाठकों को प्रभावित करते रहते हैं। सिद्धान्तसुन्दर ग्रन्थ के ऊपर ज्ञानराज के वंशज चिन्तामणि ने टीका की है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पं० सुधाकर द्विवेदी ने लिखा है कि ज्ञानराज द्वारा रचित बीजगणित भी है जो, भास्करीय बीज की छायानुरूप हैं। जहाँ भास्करीय “सरूपके वर्णकृती तु यत्रेति" सूत्र का खण्डन किया गया हैं। ११ सूर्य ने भास्करीय बीजभाष्य में लिखा है कि ज्ञानराज ने सिद्धान्तसुन्दर के अतिरिक्त जातक, साहित्य और सङ्गीत विषयक ग्रन्थ भी बनाये हैं सरस्वती भवन के पाण्डुलिपि संग्रह में निम्न ग्रन्थ पूर्णापूर्ण रूप में पाये जाते हैं। १. सिद्धान्तसुन्दर क्र०सं० ३४६७०। २. सिद्धान्तसुन्दरीय बीजम्-क्र०सं० ३५६२६ (अपूर्ण) लिपिकाल-१६७२। ३. सुन्दर सिद्धान्त, क्र०सं० ३६६०६ अपूर्ण।

(क) पूर्वज तथा जन्मस्थान

उपलब्ध इतिहास के आधार पर ज्ञात होता है कि पं० बापूदेव शास्त्री के पूर्वज महाराष्ट्र के पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित वेलवणेश्वर नामक ग्राम के निवासी थे। वेलणेश्वर महादेव से अधिष्ठित इस प्रख्यात ग्राम में वेद-पाठ-परायण परांजये उपाधि से विख्यात चित्तपावन ब्रह्मण निवास करते थे। महादेव के सेवक होने के कारण इन्हें “देव परांजये" अभिधान भी प्राप्त था। इसी ग्राम में श्री चिन्तामणि परांजये नामक वेद विद्यानिष्णात विद्वान हुये। पं० चिन्तामणि जी कालान्तर में अहमदनगर मण्डल के “काम गाँव टोका’ नामक ग्राम में आकर बस गये। इनके पुत्र पं० सदाशिव तथा उनके पुत्र पं० सीताराम परांजपे हुये। पं० सीताराम जी की पत्नी का नाम सत्यभामा था। ये दोनों परमधार्मिक दम्पती ही पं० बापूदेव शास्त्री के माता-पिता थे। पं० बापूदेव शास्त्री का जन्म कार्तिक शुक्ल षष्ठी, रविवार संवत् १८७६ तदनुसार २४ अक्टूबर सन् १८१६ को हुआ था। इनके पिता ने शास्त्रीय विधि के अनुसार इनका नाम “नृसिंह परांजपें” रखा था, किन्तु परिवार के अत्यन्त प्रिय होने के कारण सभी लोग इन्हें बापू कह कर बुलाते थे। यह नाम इतना प्रसिद्ध हो गया कि जीवन में ये इस नाम से ही विख्यात हुए। बापू शैशवावस्था में अत्यन्त कृशकाय थे तथा प्रायः रुग्ण ही रहते थे। बालक की रुग्णता के कारण माता सत्यभामा हमेशा चिन्तित एवं उदास रहती थी, क्योंकि उनकी पूर्वकी अनेक सन्तानें कालकवलित हो चुकी थीं। फलतः माता अपने शिशु के दीर्घायुष्यके लिये निरन्तर कुलदेवता भगवान् नृसिंह की आराधना में निमग्न रहतीं थीं। संवत् १६७८ में बापू के जन्मदिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को ही भगवान् नृसिंह ने स्वप्न में आकर माता से कहा-“चिन्ता मता करो, तुम्हारा पुत्र चिरंजीवी तथा भाग्यशाली होगा। ये कुल की प्रतिष्ठा २५६ ज्योतिष-खण्ड महामहोपाध्याय बापूदेवशास्त्रीः २५७ को दिग्दिगन्त तक विश्रुत करेगा।" भगवान् की इस प्रसादमयी वाणी से माता चिन्ता विमुक्त हो गयीं, वे उस दिन को बालक का पुनर्जन्म दिवस मानने लगीं। उस दिन के बाद बालक निरन्तर स्वस्थ होने लगा।

(ख) प्रारम्भिक शिक्षा

बालक बापूदेव बाल्यावस्था से ही विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे। उन्होंने तत्कालीन दाक्षिणात्य परम्परा के अनुसार अक्षरज्ञान के बाद अष्टाध्यायी, रूपावली, अमरकोश, शिक्षा, पिंगलसूत्र तथा आयुर्वेदीय ग्रन्थ माधवनिदान आदि अक्षरशः कण्ठस्थ कर लिये। उपनयन संस्कार के अनन्तर अपनी शाखानुसार वेद तथा वेदङ्गों का अभ्यास भी अल्पसमय में ही कर लिया, किन्तु पुनः किसी दारुण रोग से पीड़ित हो गये। गहन उपचार के बाद स्वस्थ तो हो गये किन्तु उनके द्वारा अर्जित किया गया समस्त ज्ञान स्मृति से विलुप्त हो गया। पिता सीताराम जी नागपुर में कार्यरत थे, वे पुत्र को अपने साथ नागपुर ले आये। यहाँ उन्होंने पुनः बालक को लघुकौमुदी, रघुवंश आदि पढ़ाना आरम्भ किया। बापू की धारणा क्षमता को शनैः-शनैः जागृत देखकर वे आशान्वित हो गये। महाराष्ट्र की बौद्धिक राजधानी पूना आकर उन्होंने बापू को पण्डित पाण्डुरंग तात्या दिवेकर की पाठशाला में गणित शास्त्र का अध्ययन करने के लिये प्रविष्ट करा दिया। गणित पढ़ने से बापू की बुद्धि का विकास और शीघ्रता से होने लगा। कुछ दिन बाद वे पिता के साथ पनुः नागपुर आ गये। यहाँ उन्होंने पं० ढुण्डिराज मिश्र से लीलावती तथा बीजगणित आदि ज्योतिष ग्रन्थों का आद्योपान्त गहन अध्ययन किया।

(घ) अध्यापन-कार्य तथा ग्रन्थ रचना

_ सन् १८४० में कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम कालेज के सेक्रेटरी कैप्टन जे०जी० मार्शल तथा प्रख्यात विद्वान् जयनारायण तर्कपञ्चानन ने काशी के गवर्नमेन्ट सं० कालेज का निरीक्षण कर संस्तुति की कि यहाँ उच्चस्तर की गणित पढ़ाने के लिये एक विद्वान की तत्काल आवश्यकता है। उस समय तक विल्किन्सन दिवंगत हो चुके थे तथा बापू देव की सिफारिश करने वाला कोई उच्चाधिकारी नहीं था। सौभाग्य से यल० विल्किन्सन के भाई टी० विल्किन्सन नागपुर में रेजिडेन्ट थे। वे बापूदेव की विद्वत्ता से परिचित थे, अतः उन्होंने बापूदेव को काशी में नियुक्त कराने की सिफारिश कलकत्ता भेज दी। सिफारिस मान ली गयी और पं० बापूदेव शास्त्री को १५ फरवरी १८४२ को काशी के गवर्नमेन्ट सं० कालेज में गणिताध्यापक पद पर नियुक्त कर लिया गया। काशी में विपुल जिज्ञासु छात्र-सम्पदा प्राप्त कर विद्याव्यसनी बापूदेव शास्त्री अत्यन्त हर्षित हुये। उनका कक्ष दिन भर छात्रों से भरा रहता था। उस समय क्रमबद्ध गणित की पाठ्यपुस्तकों के अभाव को दूर करने के लिये शास्त्री जी ने सिद्धान्त तथा गणित की समुचित पाठ्यपुस्तकों का निर्माण तथा सम्पादन कर एक क्रान्तिकारी सृजन का सूत्रपात किया। इसी समय शास्त्री जी ने अंग्रेजी भाषा भी सीख ली। शास्त्री जी की विद्वत्ता, सरलस्वभाव, तथा ग्रन्थलेखन से कालेज के विद्वानों के साथ प्रिंसपल वैलेण्टाइन अत्यधिक प्रभावित थे। उस समय जो भी यूरोपीय विद्वान् काशी आते थे, वे शास्त्री जी से मिलने को लालायित रहते थे क्योंकि शास्त्री जी उनके प्रश्नों का उत्तर अंग्रेजी भाषा में देने में पूर्णतः समर्थ थे। इस प्रकार बहुमुखी प्रतिभा के धनी बापूदेव शास्त्री का नाम काशी और भारतवर्ष के साथ विदेशों में भी विख्यात हो गया। तत्कालीन जिलाधीश मेकलोड ने सन् १८५० में शास्त्री जी से गणित के प्रौढ़ ग्रन्थों के निर्माण का आग्रह किया। आग्रह को स्वीकार करते हुए उन्होंने बीजगणित नाकम ग्रन्थ लिख कर बुम्बई से प्रकाशित कराया। ‘इंग्लिश जर्नल ऑफ एजुकेशन’ नामक शोधप्रत्रिका में निकले सिद्धान्त ज्योतिष विषयक एक लेख में बापूदेव शास्त्री ने अनेक दोष निकाल कर उसके लेखक को स्वीकार कराये। १८६१ ई० में मिलट विल्किन्सन द्वारा किये गये सूर्यसिद्धान्त के अंग्रेजी अनुवाद को अपनी उपपत्तियों तथा टिप्पणियों से विभूषित कर “एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल’ से प्रकाशित कराया। इसी ग्रन्थ के “गोलाध्याय’ का अंग्रेजी अनुवाद भी शास्त्री जी ने १८६१ में प्रकाशित कराया। शास्त्री जी द्वारा लिखित “सरल त्रिकोणमिति" पाश्चात्य गणित के सिद्धान्तों को संस्कत में व्यक्त करने वाला एक महनीय ग्रन्थ है। इसकी महत्ता आज भी उतनी ही प्रतिष्ठित है। शास्त्री जी के निर्देशन में तत्कालीन गणित के प्रवर पाण्डित श्री नीलाम्बर झा ने ‘गोलप्रकाश’ ‘चापीय त्रिकोणमिति’ नामक ग्रन्थ लिखे। इन्हें शास्त्री जी ने ही प्रकाशित कराया। ये ग्रन्थ इतने महत्वपूर्ण हैं कि आज भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में विशिष्ट पाठ्यग्रन्थ के रूप में निर्धारित हैं।

(ग) गणितशास्त्र का प्रौढ़-पाण्डित्य

बापू देव शास्त्री द्वारा गणित शास्त्र के प्रौढ़ पाण्डित्य अर्जन करने का उपक्रम एक घटना के साथ आरम्भ हुआ। उस समय मध्य प्रदेश के सीहोर नगर में ब्रिटिस सैनिक छावनी थी जहाँ एक उच्चाधिकार प्राप्त प्रशासक नियुक्त रहता था। मिस्टर लान्सलाट विल्किन्सन १८३० से १८४० ई० तक यहाँ के प्रशासक थे तथा बापू जी के पिता के मित्र थे। उन्होंने पिता जी से बापू की गणितविद्या में प्रगति सुनकर उन्हें बुलवाया तथा बीजगणित सम्बन्धित कुछ कठिन प्रश्न पूँछे। बापू के सटीक उत्तरों को सुनकर गुणग्राही विल्किन्सन् बड़े प्रसन्न हुए किन्तु सिद्धान्त गणित में बापू को कुछ कमजोर जान कर वे उन्हें अपने साथ सीहोर लेते आये। सीहोर की संस्कृत पाठशाला में गणित अध्यापन के लिये विल्किन्सन सा० ने काशी के प्रकाण्ड गणितज्ञ पं० सेवाराम जी को बड़े आग्रह से बुला कर नियुक्त किया था। बापू देव ने इन्हीं पं० सेवाराम जी के चारणों में बैठ कर “सिद्धान्तशिरोमणि" आदि गणित के प्रौढ़-ग्रन्थों का अक्षरशः अध्ययन किया। विल्किन्सन ने स्वयं इन्हें बीजगणित तथा रेखागणित की उच्च शिक्षा दी। बापूदेव शीघ्र ही गणित की तीनों विधाओं में पूर्णपाण्डित्य प्राप्त कर ख्याति प्राप्त करने लगे। २५८ ज्योतिष-खण्ड महामहोपाध्याय बापूदेवशास्त्रीः २५६ पं० बापूदेव शास्त्री द्वारा न केवल संस्कृत में अपि तु हिन्दी भाषा में भी अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया गया। उसके द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची निम्नाङ्कित हैं

(क) संस्कृत के ग्रन्थ

१. सूर्यसिद्धान्तः-सोपपत्तिकः । फलितविचारः। सायनवादः। ४. मानमन्दिरवर्णनम्। ५. प्राचीनज्योतिषाचार्यवर्णनम् । ६. तत्वविवेक-समीक्षा। ७. विचित्रप्रश्नसंग्रहः (सोत्तरः)। ८. अतुलयन्त्रम्। ६. पञ्चक्रोशीयात्रानिर्णयः। १०. नूतनपञ्चाङ्गनिर्माणम् । ११. पञ्चाङ्गोपपादनम्। १२. सिद्धान्तशिरोमणि-ग्रन्थे चलगणितम् ।

(ख) हिन्दी के ग्रन्थ

१३. बीज गणित, १४. व्यक्तगणित, १५. भूगोलवर्णन, तथा १६. खगोलसार। उक्त ग्रन्थों की सूची देखकर शास्त्री जी की विद्वत्ता का आकलन किया जा सकता हैं। ये ही संस्कृत के प्रथम विद्वान थे जिन्होंने हिन्दी में ज्योतिष के ग्रन्थों का प्रणयन आरम्भ किया। परवर्ती आचार्यों ने इन्ही का अनुसरण करके अन्य ग्रन्थों को हिन्दी में अनूदित किया था। बापूदेव शास्त्री ने अंकगणित तथा बीजगणित को अंग्रेजी भाषा में भी निबन्धित किया था। इन ग्रन्थों के नाम थे क्रमशः ‘एलिमेन्ट्स ऑफ अर्थमेटिक’ (दो भागों में) तथा ‘एलिमेन्ट्स ऑफ अलजेब्रा’ (एक भाग)। शास्त्रीजी के ग्रन्थ प्रणयन को देख कर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि-पं० बापूदेव शास्त्री गणित की अभिवृद्धि के लिये सर्वतोभावेन समर्पित विद्वान् थे। वे प्रथम संस्कृत के विद्वान् थे जिन्होंने गणित शास्त्र के प्रचार-प्रसार के लिये हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषाओं को सहर्ष स्वीकार किया। (ङ) नवीन पञ्चाङ्ग-एक क्रान्तिकारी पदन्यास पं० बापूदेव शास्त्री के भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों गणितों का समन्वय करके पञ्चाङ्ग निर्माण के एक नवीन सिद्धान्त का प्रवर्तन किया। इस पञ्चाङ्ग का नाम है “दृक्सिद्ध पञ्चाङ्ग” इस सर्वथा नवीन सिद्धान्त का प्रवर्तन भारत वर्ष में एक महान् क्रान्तिकारी पदन्यास था, क्यों कि यह आधुनिक यन्त्रों द्वारा निर्मित ग्रहवेधों पर आधारित था। इसमें लन्दन की ‘ग्रीनविच वेधशाला” तथा “भारतीय नाटिकल अलमनक” को आधार मान कर ग्रहवेध स्वीकार किये गये थे। यद्यपि शास्त्री जी ने यह दृक्सिद्ध पञ्चाङ्ग काशी नरेश श्री ईश्वरी प्रसाद नारायण के आदेश से निर्मित किया था, किन्तु उस समय काशी के विद्वानों के समर्थन के विना कोई सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता था। अतः शास्त्री जी ने पण्डितों का अनुमोदन प्राप्त करने के लिये तथा इस पञ्चाङ्ग की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये एक पण्डित सभा बुलायी। सभा में पण्डितों ने शास्त्री जी से अपने पञ्चाङ्ग की शुद्धता तथा प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये उपपत्ति पूर्वक प्रमाण प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। शास्त्रीजी ने पहले से ही तैयार किये गये, वासिष्ठ तथा बह्मसिद्धान्त के वचनों से समर्थित विस्तृत प्रमाण प्रस्तुत किये। नीलाम्बर ओझा नामक प्रसिद्ध मैथिल ज्योतिषी ने बड़े आडम्बर के साथ शास्त्री जी के पञ्चाङ्ग सिद्धान्त को अमान्य सिद्ध करने का प्रयास किया तथा सूर्यसिद्धान्त के पक्ष को ही मान्य ठहराया, किन्तु शास्त्री जी के प्रबल तर्को के सामने उनकी एक न चली। वे सभा से उठ कर चले गये। अन्य कोई काशी का ज्योतिर्विद परम्परावादी पक्ष में नहीं आया। सभी ने सर्वसम्मति से पञ्चाङ्ग का समर्थन कर दिया। उस सभा में काशी के सभी मूर्धन्य विद्वान् उपस्थित थे। पं० बापूदेव शास्त्री द्वारा प्रवर्तित यह ‘दृसिद्ध पञ्चाङ्ग’ भारतीय ज्योतिष के इतिहास में सर्वथा नवीन अध्याय है। इसने पाश्चात्य जगत् में भारतीय ज्योतिष को प्रतिष्ठा प्रदान करायी। सन् १८७६ से प्रवर्तित यह पञ्चाङ्ग निरन्तर प्रकाशित होता आ रहा हैं। शास्त्री जी के बाद इसका प्रकाशन उनके शिष्यों द्वारा होता रहा। आज भी सं० सं० वि० वि० से इसका प्रकाशन होता हैं। बल्लभाचार्य के पुष्टि मार्गीय सम्प्रदाय में तिथि उत्सवादि का निर्णय इसी पञ्चाङ्ग के आधार पर होता है।

(च) सम्मान-उपाधियाँ-एवं अवसान

पं० बापूदेव शास्त्री ने अपने जीवन काल में अनेक सम्मान आस्पद तथा उपाधियाँ प्राप्त की थीं। इनको काशी भेजने वाले टी० विल्किन्सन ने इनके द्वारा की गयी एक शिलालेख की शुद्ध तथा सुन्दर नकल से प्रभावित हो कर इन्हें दो सौ रुपये के पुरस्कार से सम्मानित किया था। यह सम्मान शास्त्री जी को कर्मनिष्ठ बनाने का एक महान प्रेरणा स्त्रोत था। सन् १८५० में शास्त्री जी द्वारा लिखित ‘दिन्दी बीजगणित’ की उपयोगिता से प्रभावित होकर तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त के गवर्नर ने इन्हें दो हजार रुपये के पुरस्कार से सम्मानित किया था।

महामहोपाध्याय बापूदेवशास्त्रीः २६१ २६० ज्योतिष-खण्ड सन् १८६४ में शास्त्री जी के अलौकिक पाण्डित्य से प्रभावित होकर अंग्रेज विद्वानों ने इन्हें रायल एशियाटिक सोसायटी का मानित सदस्य बना कर सम्मानित किया। सूर्यसिद्धान्त पर इनके विद्वत्तापूर्ण कार्य से अवगत होकर तत्कानीन पंजाब के गवर्नर मेकलोड ने इनकी भूरि-भूरि प्रसंशा की थी। अनेक परिष्कारों के साथ बीजगणित की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित होने पर इन्हें उ०प्र० के गवर्नर द्वारा प्रयाग में रेशमी वस्त्र तथा एक हजार मुद्राओं से पुनः सम्मानित किया गया। सन् १८७० में भारत के वायसराय ने शास्त्री जी को कलकत्ता वि०वि०का फेलो (मानित सदस्य) नियुक्त कर सभाजित किया। सन् १८७३ में सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के एक क्षणात्मक त्रुटि से भी रहित समय बताने पर काश्मीर नरेश ने शास्त्री जी को एक सहस्त्र मुद्रा सहित बहुमूल्य पश्मीने का शाल भेंट कर सम्मानित किया। दृक्सिद्ध-पञ्चाङ्ग के निर्माण के लिये काशी नरेश इन्हें दो सौ रुपये प्रतिवर्ष पेंसन देते थे। _शास्त्री जी की विद्वत्ता से प्रभावित होकर भारत के वायसराय ने इन्हें अनेक उपाधियों से विभूषित किया था। महारानी विक्टोरिया के राजराजेश्वरी पदवी ग्रहण करते समय १८७७ में जिन पचास भारतीय विद्वानों को सम्मानित किया गया था उनमें बापदेव शास्त्री अन्यतम थे। अगले वर्ष १८७८ में इनकों उसी उपलक्ष्ध में सी० आई० ई० की महनीय उपाधि से विभूषित किया गया था। ज्ञातव्य है कि शास्त्री जी सी० आई० ई० उपाधि पाने वाले प्रथम संस्कृत विद्वान थे। १८८७ में महारानी विक्टोरिया की स्वर्णजयन्ती के उपलक्ष्य में संस्कृत विद्वानों के लिये सर्वप्रथम “महामहोपाध्याय’ पदवी का सृजन किया गया। इस पदवी को प्राप्त करने वाले भी सर्वप्रथम संस्कृतज्ञ पं० बापूदेव शास्त्री ही थे। इस प्रकार शास्त्री जी ने उस काल में संस्कृतज्ञों को प्राप्त होने वाले प्रायः सभी सम्मानों तथा उपाधियों को प्राप्त कर जो गौरवमयी कीर्ति अर्जित की थी उनके अनन्तर वैसी कीर्ति अर्जित करने वाले विद्वान् विरले ही हुये हैं। ४७ वर्षों के सुदीर्घ काल तक काशी के राजकीय कालेज में अध्यापन करने के बाद शास्त्री जी ने ७० वर्ष की अवस्था में सन् १८८६ में अवकाश ग्रहण किया। इसके एक वर्ष बाद २७ जून १८६० को काशी में शरीर त्याग कर शिव सायुज्य प्राप्त किया।

(छ) सन्तति तथा शिष्यमण्डली

शास्त्री जी के दो पुत्रों में पं० गणपति देव शास्त्री ज्येष्ठ थे। ये पिता के समान ही सुयोग्य गणितज्ञ थे। इन्होंने सं० विश्वविद्यालय में ज्योतिष विभाग में अध्यापन करते हुये पिता द्वारा प्रवर्तित ‘दृक्सिद्धपचाङ्ग’ का अनेक वर्षों तक सम्पादन किया। इनका देहावसान सन् १६७३ में ८६ वर्ष की अवस्था में काशी में हुआ। शास्त्री जी प्रभूतशिष्यधन से समृद्ध थे। उस काल में शास्त्री जी से गणित अध्ययन किये बिना गणितज्ञ कहलाना सम्भव नहीं था, अतः काशी के अतिरिक्त अन्यप्रान्तों के जिज्ञासु भी शास्त्री जी को निरन्तर घेरे रहते थे। उनके अगणित शिष्यों में पं० विनायक शास्त्री अग्रगण्य थे। ये गणित तथा फलित दोनों विधाओं के व्युत्पन्न पण्डित थे। इन्हें उदयपुर नरेश ने अपने यहाँ बुलाकर प्रधानाध्ययापक पद पर नियुक्त किया था।

(ज) वैदुष्य चरित्र एवं उपलब्धियाँ

पं० बापूदेव शास्त्री का वैदुष्य अप्रतिम था। वे वेद वेदाङ्ग पुराण तथा धर्मशास्त्र के भी सुयोग मनीषी थे। आजीवन विद्याध्यवसाय में ही उनका समय व्यतीत हुआ था। गणित के जटिल प्रश्नों का समाधान करते-करते जब उनका मस्तिष्क क्लान्त हो जाता था तब वे पौराणिक तथा धर्मशास्त्रीय चर्चाओं द्वारा मनोरञ्जन करते थे। वे बड़े गुणग्राही थे। “बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम्” यह उक्ति उन पर पूर्णरूप से चरितार्थ थी। एक बार उनके विभागीय छात्र पं० सुधाकर द्विवेदी ने शास्त्री जी के बीजगणित में कुछ अशुद्धियों का निर्देश किया। शास्त्री जी ने पुनरालोडन कर पाया कि अशुद्धियाँ सत्य हैं। वे न तो विचलित हुये न ही क्रुद्ध, प्रत्युत सुधाकर जी की पीठ ठोक उनकी प्रतिभा की प्रशंसा की तथा प्रिन्सिपल ग्रिफिथ साहब से संस्तुति कर उन्हें विशिष्ट छात्रवृत्ति दिलवा दी। उनकी गुणग्राहिता सर्वत्र विख्यात थी। हमेशा विद्वानों के सम्मान और सहयोग को तत्पर रहते थे। न्यायशास्त्र के प्रख्यात विद्वान पं० कैलासचन्द्र शिरोमणि अपने आरम्भिक दिनों में बंगाल से काशी आकर अपनी निजी पाठशाला में न्याय पढ़ाते थे। उनकी विद्वत्ता तथा अध्ययन कौशल जब शास्त्री जी को ज्ञात हुआ तो उन्होंने तत्काल अपने निजी प्रभाव से प्रिन्सिपल तथा अन्य अधिकारियों को अनुकूल कर शिरोमणि जी को गवर्नमेन्ट कालेज में न्यायाध्यापक पद पर नियुक्त करा दिया। शास्त्री जी ने ऐसे ही अनेक विद्वानों को सम्मान दिलवा कर अपनी विद्वत्प्रियता प्रख्यापित की थी। हिन्दी एवं संस्कृत में गणित की पाठ्यपुस्तकों का निर्माण, दृक्सिद्ध-पंचांग का निर्माण एवं आधुनिक पाश्चात्य गणित का प्राच्य भारतीय गणित के साथ समन्वय के बल पर पाश्चात्य गणित की महत्ता का आकलन कर उन्होंने भारतीय ज्योतिष के साथ उसका ऐसा समन्वय किया कि मिश्रण का विवेक करना असम्भव हो गया। इस प्रणाली का परिष्कार एवं परिवर्धन उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी किया किन्तु इस प्रणाली के प्रथम उद्भावक शास्त्री जी ही थे।