डॉ. शत्रुघ्न त्रिपाठी आचार्य नीलकण्ठ का नाम ताजिकशास्त्र के इतिहास में अतिमहत्वपूर्ण माना जाता है। इनके बहुविश्रुत प्रतिभा का आदर समस्त ज्योतिषवेत्ता पद-पद पर करते रहे हैं। ताजिक शास्त्र का “नीलकण्ठी” नामक ग्रन्थ प्राचीन भारतीय ज्योतिष की उदात्त भावना को प्रदर्शित करता है। … आचार्य नीलकण्ठ ने अपने ग्रन्थ “ताजिक नीलकण्ठी में न केवल अपना अपितु अपने पितामहादि का भी परिचय दिया है। आचार्य नीलकण्ठ ने उपसंहाराध्याय में अपना कुल परिचय देते हुये लिखा है’ - “गर्ग गोत्र में उत्पन्न अनेक गुणों से सुशोभित तथा महाभाष्य के व्याख्याकार त्रिस्कन्ध ज्योतिष शास्त्रज्ञ श्रीमान् चिन्तामणि नामक विद्वान हुए। उनके सुपुत्र अनन्त गुणों से युक्त अनन्त दैवज्ञ हुए। ज्योतिर्वेत्ता आचार्य नीलकण्ठ के पिता अनन्त दैवज्ञ तथा माता पद्मा थे। _ भारतीय ज्योतिष इतिहास के प्रामाणिक इतिहासकार श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने मराठी भाषा में अनन्त के परिचय प्रसंग में नीलकण्ठ का परिचय दिया है। उन्होंने लिखा है कि आचार्य नीलकण्ठ ने अपना ग्रन्थ शक १५०६ में बनाया। इनका मूल निवास स्थान गोदा नदी के किनारे विदर्भ देश में धर्मपुरी नामक गांव में था। अनन्त वहाँ से अध्ययन के लिए काशी आये और बाद में इनके वंशज काशी में ही निवास करने लगे। आचार्य ने जिस समय नीलकण्ठी ग्रन्थ का निर्माण किया, उस समय इनके पिता अनन्त दैवज्ञ जीवित थे। ऐसा नीलकण्ठ के ‘अस्ति’ पद से ज्ञात होता है। __ श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है कि अनन्त के दो पुत्र नीलकण्ठ और रामदैवज्ञ थे। रामदैवज्ञ ने मुहूर्तचिन्तामणि में अपने वंशवृत्त का वर्णन किया है। गोविन्द दैवज्ञ ने पीयूषधारा टीका में अपने पिता का नाम नीलकण्ठ निरूपित किया है। श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित, म०म० पं० सुधाकर द्विवेदी तथा आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री आचार्य नीलकण्ठ के जन्म संवत् के बारे में सामान्यतः कुछ मतभेद व्यक्त करते हैं, परन्तु उनका काल अकबर के शासन काल से कई अंशों में समानान्तर बैठता है। ‘नीलकण्ठी’ के हिन्दी टीकाकार श्री केदारदत्त जोशी भी आचार्य नीलकण्ठ को अकबर बादशाह के सभा में पण्डित होना स्वीकार करते हैं। म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम्। ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैवविद्-द्विजाः।।। १. श्री गर्गान्वयभूषणं गणितविच्चिन्तामणिस्तत्सुतो- नन्तोऽनन्तमतिर्व्यधात्खलमतध्वस्त्यै जनुःपद्धतिम् । (-ताजिक नीलकण्ठी) २. सम्भूतः खलु नीलकण्ठविदुषो गोविन्दनामा सुतः। -पीयूषधारा टीका, उपसंहाराध्याय।२५० ज्योतिष-खण्ड आचार्य नीलकण्ठ तथा ज्ञानराज २५१ इस प्रकार के विभिन्न मीमांसा के आधार पर हम देखते हैं, कि आचार्य नीलकण्ठ का जीवन वैदुष्यपूर्ण एवं सम्माननीय था। महान् विद्वान् कुल में उत्पन्न होने का लाभ भी नीलकण्ठ ने उठाया, और यावनी भाषा होने के कारण भी ज्ञान को पवित्र मानते हुए, ताजिक शास्त्र में अमूल्य ग्रन्थ की रचना की। आचार्य ने वर्षतन्त्र पर अति महत्त्वपूर्ण कार्य करके समाज को वार्षिक फलादेश ज्ञान को सरल बनाया। इन्होंने अरबी एवं फारसी ज्योतिष ग्रन्थों के आधार पर ‘ताजिक नीलकण्ठी’ नामक गन्थ की रचना की। इनके ग्रन्थ को देखने पर यह पता चलता है, कि इन्होंने गणित शास्त्र के साथ ही फलित शास्त्र में भी प्रवीणता ग्रहण की। आज ताजिक नीलकण्ठी इतना सम्पूर्ण ग्रन्थ ताजिक शास्त्र के इतिहास में दूसरा नहीं हैं। गोविन्द दैवज्ञ के कथनानुसार आचार्य नीलकण्ठ मीमांसा एवं सांख्य शास्त्र के भी विद्वान थे और अकबर के राजसभा में पण्डितेन्द्र भी थे। या की।
नीलकण्ठ का कृतित्व
१- “ताजिक नीलकण्ठी’-फलित ज्योतिष शास्त्र में ताजिक नीलकण्ठी का प्रमुख स्थान है। आचार्य नीलकण्ठ ने “न पठेत् यावनी भाषां न गच्छेज्जैनमन्दिरम्’ के उद्घोष करने वाले कट्टर पन्थियों को दृढ़ता से उपेक्षा एवं चुनौती देते हुए, ताजिक शास्त्र के विकास के लिए ताजिक नीलकण्ठी नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ फारसी एवं अरबी भाषा रूपी शरीर से निर्मित है, परन्तु इस ग्रन्थ में आत्मा भारतीय ज्योतिष की ही दिखाई देती है। इस ग्रन्थ के माध्यम से वर्ष पर्यन्त शुभाशुभ भविष्य फल बताया जा सकता है। इसके प्रधान तीन तन्त्र (खण्ड) संज्ञा-वर्ष एवं प्रश्न नाम से प्रसिद्ध हैं। इसमें वर्षतन्त्र का सर्वाधिक महत्त्व है। वर्षफल सम्बन्धी गणित में पिण्ड रहित किन्तु मतिशील ग्रह की तरह मुथहा नामक एक ग्रह की कल्पना स्वतन्त्र रूप में की गई है। यद्यपि भारतीय होराशास्त्र में वृहस्पति ग्रह के सदृश इसकी गत्यादि पाई जाती हैं। इतना ही नहीं मुंथहा के स्थनानुसार शुभाशुभ फल का विवेचन भी किया गया हैं। मुथहा की समानता लग्नेश के समकथा मानी गई हैं। इसी लिए वर्षेश निर्णय में भी इसका विचार होता हैं। पं० केदारदत्त जोशी जी ने लिखा है कि जातक ग्रन्थों में वृहज्जातकम् मुहूर्त ग्रन्थों में मुहूर्तचिन्तामणि एवं ताजिक शास्त्रों में नीलकण्ठी-इन तीन ग्रन्थों के सम्यग् अध्ययन से किसी भी दैवज्ञ को सरलता से फलित ज्योतिष का ज्ञान हो जाता हैं। ये तीनों ग्रन्थ सभी दैवज्ञों को कण्ठस्थ होते थे। ताजिक नीलकण्ठी के ऊपर शक १५४४ में “शिशुबोधिनी-समाविवेकविवृत्ति” नाम की टीका में गणितीय खण्डों के उदाहरण भी दिये गये हैं। नीलकण्ठी ग्रन्थ पर ही आचार्य विश्वनाथ ने शक १५५१ में सोदाहरण टीका लिखी, जिसका प्रचार आज भी देखा जाता हैं।’ यद्यपि आचार्य विश्वनाथ ने नीलकण्ठी के दो ही तन्त्रों पर टीकाएं की पर वर्तमान में ताजिक नीलकण्ठी की बहुत सारी हिन्दी एवं संस्कृत टीकायें उपलब्ध हैं।
अन्य ग्रन्थ
पं० सुधाकर द्विवेदी ने गणकतरंगिणी में लिखा हैं कि, आचार्य नीलकण्ठ ने एक जातकपद्धति की रचना की है, जो मिथिला प्रदेश में प्रसिद्ध हैं और उसमें ६० श्लोक हैं। परन्तु यह वर्तमान में अनुपलब्ध है। आचार्य शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने भी एक जातक पद्धति की चर्चा की है परन्तु उन्होंने ग्रन्थकार का नाम अनन्त दैवज्ञ बताया है। आचार्य लोकमणि दाहाल ने ‘भारतीयज्योतिषशास्त्रस्येतिहासः’ नामक ग्रन्थ में लिखा हैं कि आचार्य नीलकण्ठ के दो ग्रन्थ हैं, एक का नाम ताजिक नीलकण्ठी और दूसरा ग्रन्थ ‘टोडरानन्द’ हैं।’ इस बात की पुष्टि दीक्षितजी ने भी की है। जैसा कि अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि टोडरानन्द में गणित, मुहूर्त और होरा तीनों स्कन्धों की चर्चा हैं। इतिहास के साक्ष्यानुसार ऐसा लगता है कि अकबर के प्राधानामात्य टोडरमल के नाम पर निर्मित इस ग्रन्थ का निर्माण आचार्य नीलकण्ठ ने यशोगाथा रूप में किया होगा। श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है कि, आफ्रेच सूची के अनुसार नीलकण्ठ ने तिथिरत्नामाला, प्रश्नकौमुदी नामक प्रश्नग्रन्थ तथा दैवज्ञवल्लभा नामक ज्योतिष ग्रन्थों की भी रचना की तथा जैमिनिसूत्र की सुबोधिनी टीका भी की हैं। उसी सूची के अनुसार ज्ञात होता है कि उन्होंने ग्रह कौतुक, ग्रह लाघव, मकरन्द और एक मुहूर्तग्रन्थ की टीकाएँ भी की हैं। आचार्य नीलकण्ठ के चार ग्रन्थ संग्रह में उपलब्ध हैं जिनमें केवल एक ही ग्रन्थ प्रकाशित हैं। १. ताजिक नीकण्ठी, (प्रकाशित) २. प्रश्न कौमुदी-लिपिकाल १८५४ क्र०सं०-३४४०२ (अपूर्ण) ३. जैमिनिसूत्र सटीक-क्र०सं०-३४३७६ (अपूर्ण) सारिणी-क्र०सं० ३४३३ »
आचार्य “ज्ञानराज”
आचार्य ज्ञानराज का जन्म एक ऐसे विद्वत्कुल में हुआ था, जिनकी विद्वत्परम्परा १६ वीं शती तक विद्यमान रहीं। ज्ञानराज के ग्रन्थ सिद्धान्तसुन्दर की पुष्पिका के अनुसार इनके पिता का नाम नागनाथ था। ज्ञानराज के विषय में विशेष जानकारी हमें इनके पूर्ववर्ती एवं परवर्ती वंशालियों से मिलती हैं। ज्ञानराज के पुत्र सूर्य ने भास्करीय लीलावती की टीका में अपने पिता एवं पितामह का वर्णन किया हैं। इस वर्णन के अनुसार गोदावरी के उत्तर तट १. चन्द्रबाणशरचन्द्र सम्मिते हायने नयति शलिवाहने। मार्गशीर्षसित पञ्चमीतिथौ विश्वनाथ-विदुषा समर्पितम् ।। -नीलकण्ठी टीका। १. आचार्य लोकमणि दाहाल, ज्योतिषशास्त्रस्येतिहासः-पृष्ठ १६६। २. सरस्वती भवन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी की “संस्कृत मेन्यूस्क्रिप्टस्’ वोल्यूम, ६। आचार्य नीलकण्ठ तथा ज्ञानराज २५३ विज्ञानेश्वर, १५७५ २५२ ज्योतिष-खण्ड पर पार्थपुर नामक गाँव में विद्वानों में अग्रणी श्री नागनाथ नामक दैवज्ञ भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न हुए। इसी प्रकार का द्वितीय वर्णन भास्करीय बीजगणित की सूर्यकृत टीका में भी किया गया है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने भी अपने भारतीय ज्योतिष में इसका उल्लेख किया हैं। उन्होंने एक वंशावली लिखी है, जिसमें ज्ञानराज के ही वंशजों के साथ काशीनाथ शास्त्री के साक्षात्कार का भी उल्लेख किया गया है। जो इस प्रकार हैं (शक-१२१५) राम (भारद्वाज गोत्रीय) पुरुषोत्तम, १६०५ १२४५, नीलकण्ठ १२७५, विष्णु १३०५, नीलकण्ठ १३३५, नागनाथ १३६५, नृसिंह काशीनाथ, १६३५ इस प्रकार दीक्षित जी ने लिखा है कि सम्प्रति पैठण नामक स्थान से लगभग ६० मील पूर्व गोदावरी नदी के उत्तरतट के पास ही पाथरी नामक गाँव हैं। यह देवगिरि (दौलतावाद) से लगभग ८५ मील आग्नेय में स्थित है। जो संभव है प्राच्य काल का पार्थपुर हो। कमलाकर दैवज्ञ ने बताया है कि यह पार्थपुर विदर्भ में ही है। कुछ अन्य आचार्यों ने भी विदर्भ में ही पार्थपुर का उल्लेख किया हैं। यदि हम आचार्य ज्ञानराज के जन्म काल का अन्वेषण करते हैं तो पाते हैं कि ज्ञानराज ने शक १४२५ में सिद्धान्तसुन्दर नामक ग्रन्थ की रचना की, जैसा कि सिद्धान्तसुन्दर ग्रन्थ के लघुअहर्गण प्रसंग में अंकित हैं। यदि हम इन पूर्वोक्त वंशावली में ३० वर्ष का अन्तराल स्वीकार करते हैं तो पाते हैं कि राम का काल १२१५ शक संभव है। इस प्रकार अन्य लोगों का भी आसन्न मान निश्चित किया जा सकता हैं। इस प्रकार ही हम यदि ज्ञानराज के ग्रन्थ रचना के समय आयु ३० वर्ष मानते हैं तो इनका जन्म शक १३८५ के आसन्न आता हे। यद्यपि भारतीय ज्योतिष के किसी भी इतिहासकार ने इनके जन्म काल का प्रामाणिक निर्णय नहीं उपस्थित किया है, तथापि ग्रन्थकारों की वंशावली एवं टीका आदि साक्ष्यों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है। श्री दीक्षित जी ने आचार्य काशीनाथ शास्त्री के पत्रों के अनुसार उल्लेख किया है कि ज्ञानराज का जन्म शक् १५६५ है, जो कि युक्ति से बहिर्भूत दिखता है। क्यों कि ग्रन्थकार ने स्वयं अपने ग्रन्थ का काल १४२५ बताया है। अतएव १३६५ के आसन्न ही हम इनका जन्म काल स्वीकार करते हैं, जिससे बाद के वंशजों का निर्धारण संभव हो जाता हैं। ज्ञानराज ने सूर्यसिद्धान्त में बीजसंस्कार करके तत्कालीन समाज को अपने विद्वत्ता का परिचय दिया था तथा बहुत सारे गणीतीय पक्षों का मण्डन एवं खण्डन के द्वारा सौर पक्ष को स्थापित किया हैं। इस प्रकार ज्ञानराज का कुल विभिन्न शास्त्रों में निपुण तथा ज्योतिष शास्त्र में प्रवीण देखा जाता हैं। सिद्धान्तसुन्दर ग्रन्थ के गोलाध्याय के अध्ययन से यह सिद्ध होता हैं कि यह ग्रन्थ ज्ञानराज द्वारा निर्मित है। सिद्धान्तसुन्दर ग्रन्थ की प्रति सरस्वती भवन, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में आज भी सुरक्षित हैं। इसमें इसका लिपिकाल १५८६ वर्णित हैं। इस ग्रन्थ में दो अध्याय हैं। प्रथम गोलाध्याय है एवं दूसरा गणिताध्याय है। गोलाध्याय के अन्तर्गत सृष्टिक्रम आदि अनेक अध्याय हैं जिनमें यन्त्रमाला नामक अध्याय १३६५, नागनाथ ढुण्डिराज १४२५, (ज्ञानराज) . गणेश सूर्य, १४५५ चिन्तामणि नागनाथ, १४८५ गोपाल, १५१५ रामचन्द्र, १५४५