१२ अरबी एवं भारतीय ज्योतिष

डॉ. गिरिजाशंकर शास्त्री

कहा जाता है कि ‘अलीइब्नजियाद अलतमीमी’ नामक अरबी ग्रन्थकार ने ‘जीजल शहरयार’ नामक पुस्तक का फारसी से अनुवाद किया था। पुस्तक के नाम से स्पष्ट होता. है कि यह ज्योतिष शास्त्र की पुस्तक थी। जिस समय अलेबरुनी ने अपना ग्रन्थ ‘काल गणना’ लिखी, उस समय यह ग्रन्थ विद्यमान था।’ इसी ग्रन्थ से प्रसिद्ध ज्योतिक्षी अलख्वारिज्मी ने फारसी ज्योतिष संबंधी जानकारी प्राप्त की थी जिसका परिचय उसने खलीफा मामू की आज्ञानुसार बनाए हुए अपने ग्रन्थ के सार में दिया है। अलख्वारिज्मी का पूरा नाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद इब्न-मूसा-अलख्वारिज्मी था। इसका जन्म ख्वारेज्म प्रदेश के खीवा नगर वर्तमान उजबेकिस्तान में ७८३ ई० में हुआ था। इसके करीब दो सौ साल बाद अलबेरुनी (६७३-१०४८ ई०) भी ख्वारेज्म में ही पैदा हुआ था। अलख्वारिज्मी ने भारत में खोजी गयी शून्य-सहित दस अंकों पर आधारित स्थानमान अंक-पद्धति का परिचय देने के लिए अरबी में एक पुस्तक लिखी थी। बारहवीं ईसवी में इस पुस्तक का लैटिन में अनुवाद हुआ था। लैटिन में इसका नाम है-लिबेर अलगोरिज्मी दे न्यूमेरो इन्दोरम अर्थात् हिन्द के अंकों के बारे में अलख्वारिज्मी की पुस्तक। यूरोप में यह पुस्तक इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि भारतीय अंक-पद्धति से की जाने वाली गणनाओं के अर्थ में वहाँ ‘अलगोरिज्म’ शब्द ही रूढ़ हो गया। भारतीय अंकों पर आधारित अंकगतिण के अर्थ में इस शब्द के विभिन्न रूप यूरोपीय भाषाओं में सदियों तक प्रचलित रहे। संगणकों के लिए गतिण के सूत्रों को दिए जाने वाले विशिष्ट रूप के अर्थों में आज भी ‘अलबोरिथम’ शब्द का खूब प्रयोग होता है। _ अलख्वारिज्मी ने अंकगणित के विषय में जो ग्रन्थ लिखा, उसका अरबी नाम था ‘हिसाब अल्-हिन्द’ या ‘किताब अल्-जाम व तफरीक बि हिसाब ‘अल्-हिन्द’ अर्थात्, हिन्द के हिसाब में जोड़ और घटाने की पुस्तक। इस पुस्तक में शून्य पर आधारित नयी दाशमिक स्थानमान अंक-पद्धति में अंकगणित को समझाया गया है। इस अंक-पद्धति का आविष्कार भारत में हुआ था, इसलिए अल-ख्वारिज्मी तथा अनेक अरबी गणितज्ञों ने इसे ‘हिन्द का हिसाब’ कहा है। अल्-ख्वारिज्मी की इस पुस्तक से पहले इस्लामी देशों को और बाद में यूरोप को व्यापक जानकारी मिली। अल-ख्वारिज्मी की यह पुस्तक मूल अरबी में आज उपलब्ध नहीं है, पर इसका लैटिन अनुवाद प्राप्य है। इंग्लैण्ड में बाथ स्थान के निवासी अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २२६ ‘एदेलार्द’ ने ११२६ ई० के आस-पास स्पेन के एक अरबी विद्या केन्द्र में इस पुस्तक का अनुवाद किया था। इस पुस्तक ने यूरोप के गणितज्ञों को इतना अधिक प्रभावित किया कि वहाँ नयी भारतीय अंक-पद्धति से की जाने वाली गणनाओं के लिए अल-ख्वारिज्मी का ही नाम (अलगोरिज्म) प्रचलित हो गया। __ अल्-ख्वारिज्मी ने अपनी पुस्तक में जिन भारतीय अंकों का प्रयोग किया है, उन अंकों को ‘गुबार अंक’ (हरूफ अल्-गुबार) कहा है। ये अंक भारतीय है, जो ब्राह्मी अंकों से विकसित हुए है। अरबों के साथ यही अंक स्पेन में पहुंचे और बाद में यूरोप में फैले। स्पेन में लिखी गई ६७६ ई० की एक हस्तलिपि में पहली बार भारतीय मूल के ये अंक देखने को मिलते है। दसवीं सदी के एक यूरोपीय विद्वान् ‘झेरबार’ ने भारतीय अंकों के प्रचार का बड़ा काम किया। स्पेन के यहूदी विद्वान् ‘रब्बी बेन एजरा’ (१०६५-११६७ ई०) ने भारतीय अंक तथा अंक गणित की जानकारी देने के लिए एक पुस्तक लिखी थी। इतालवी गणितज्ञ ‘लियोनार्दो’ ‘फिबोनकी’ (लगभग ११७०-१२४५ ई०) ने भारतीय अंकों के प्रचार में बड़ा योगदान दिया, परन्तु यूरोप के गणितज्ञों पर सबसे अधिक प्रभाव अल्-ख्वारिज्मी की ‘हिसाब अल्-हिन्द’ पुस्तक का ही पड़ा है। अल्-ख्वारिज्मी की बीजगणित से संबंधित पुस्तक है: ‘किताब अल्-जब्र’ व ‘अल्-मुकाबिलह’। यहां ‘जब्र’ का अर्थ है ‘पुनःस्थापना’ और ‘मुकाबिलह’ का अर्थ है ‘समान करना’। ये समीकरणों की रचना से संबंधित है। इस पुस्तक में अल-ख्वारिज्मी ने भारतीय बीजगणित की नयी विधियों को अपनाया है। अल्-ख्वारिज्मी के लिए ब्रह्मगुप्त (६२८ ई०) का बीजगणित अरबी अनुवाद में पहले से उपलब्ध था। अल्-ख्वारिज्मी ने बीजगणित का अपना यह ग्रन्थ बगदाद में ८२५ ई० के आस-पास रचा और इसे उसने अपने आश्रयदाता खलीफा अल्-मामू को समर्पित किया। अल्-ख्वारिज्मी की बीजगणित की इस पुस्तक का इंग्लैण्ड के चेस्टर निवासी ‘राबर्ट’ ने ११४५ ई० के आस-पास स्पेन के एक अरबी विद्याकेन्द्र में बैठकर लैटिन में अनुवाद किया। लैटिन में बीजगणित पर यह पहली पुस्तक थी, इसलिए इसके अरबी नाम का ‘अल-जब्र’ शब्द ‘अलजब्रा’ बनकर यूरोप की भाषाओं में बीजगणित के अर्थ में रूढ़ हो गया। अरबी वैज्ञानिक ज्योतिष के अध्ययन और इसमें त्रिकोणमिति के उपयोग को बड़ा महत्व देते थे। अल्-ख्वारिज्मी ने ज्योतिष-सारणियों और ज्या (साइन) तथा स्पर्शज्या (टैंजेट) सारणियों पर भी अरबी में एक पुस्तक लिखी थी, जिसका बाद में लैटिन में अनुवाद हुआ था। अल्-ख्वारिज्मी का ज्योतिष-विवेचन भारतीय ज्योतिष के सिद्धान्त-ग्रन्थों पर आधारित था। आर्यभट (४६६ ई०) के ग्रन्थ में त्रिकोणमिति का विवेचन है और ज्या-सारणी भी दी गई है। अरबी में त्रिकोणमिति भारतीय पद्धति की है, टालमी की त्रिकोणमिति पर आधारित नहीं। इसका एक स्पष्ट प्रमाण यह है कि आज त्रिकोणमिति में १. “क्रोनोलोजी आफ एन्शियन्ट नेशन्स”-एडवर्ड सी० साचाऊ, लन्दन। २. डर्क जे० स्त्रुइक, ए कन्साइज हिस्ट्री आफ मैथेमेटिक्स, लन्दन १६५६ ।२३१ २३० ज्योतिष-खण्ड प्रचलित यूरोप का ‘साइन’ शब्द संस्कृत के ‘जीवा’ शब्द से बना है। अरबी अनुवादकों ने संस्कृत के जीवा शब्द को ज्यों-का-त्यों अपनाकर इसे अरबी अक्षरों में ‘ज-ब’ के रूप में लिखा था। लैटिन अनुवादकों ने इसे ‘जेब’ (कुरते में छाती के ऊपर लगाने वाला पाकिट) समझकर इसका अनुवाद ‘सिनुस्’ (छाती) किया। सिनुस् से ही ‘साइन’ शब्द बना है। अल्-ख्वारिजमी ने बगदाद की वेधशाला में वेधकार्य तो किया ही, साथ-साथ ज्योतिष-यंत्रों और सूर्य-घड़ी पर भी एक पुस्तक लिखी। इसने ‘भूगोल’ पर भी एक पुस्तक लिखी थी- ‘किताब सूरत अल्-अर्ज’ (धरती का विवण)। इसमें ३८ मानचित्र थे, जिनमें से केवल चार बचे हैं। इन मानचित्रों में दो हजार से भी अधिक अरबी में यह पहली कृति थी।’ _ अल्-ख्वारिज्मी ने इतिहास के विषय में भी एक पुस्तक लिखी थी- ‘किताब अल्-तारीख’। आज यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है, पर मध्ययुग के अरबी ग्रन्थों में इसका अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। ८५० ई० के आस-पास अल-ख्वारिज्मी का देहान्त हुआ। अरबी एवं भारतीय ज्योतिष ग्रन्थों का अनुवाद कुछ बाद में हुआ। अलबेरुनी के भारत के अनुवादक एडवर्ड साचाऊ ने भी लिखा है- “पूर्व के देशों में ज्ञान-विज्ञान के इतिहास में ब्रह्मगुप्त का स्थान बहुत ऊँचा है। अरबवासियों को टालमी के ग्रन्थ का पता लगने से पहले उन्हें ब्रह्मगुप्त ने ज्योतिषशास्त्र सिखाया।" भारतीय अंकों की जानकारी अरबों को शायद पहले ही मिल गयी थी। पर ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थों के साथ उन्होंने भारतीय अंक-पद्वति तथा-संकेतों को पूरी तरह अपना लिया। बाद में महान् इस्लामी गणितज्ञ अल-ख्वारिज्मी (जन्म ७८३ ई०) ने एक पुस्तक भारतीय अंक पद्धति पर और एक पुस्तक बीजगणित पर लिखी, जिसमें भारतीय बीजगणित की कई विधियों का समावेश किया। बाद में अल-ख्वारिज्मी के इन दोनों ग्रन्थों का लैटिन में अनुवाद हुआ। यूरोप की भाषाओं में प्रचलित ‘अलगोरिथम’ शब्द अल-ख्वारिज्मी से और ‘अलजब्रा’ शब्द उनके बीजगणित की पुस्तक के नाम पर अस्तित्व में आया है। यूरोप के बौद्धिक नवजागरण में अरबी ज्ञान-विज्ञान ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।’ भारतीय इतिहासकारों के अनुसार भारत की पुस्तकें और विचार दो भिन्न-भिन्न मार्गों से बगदाद में पहुँचे। कुछ तो संस्कृत से अरबी में अनुवाद द्वारा सीधे गये और कुछ ईरान से होकर अर्थात् पहले इनका संस्कृत (पाली, प्राकृत) से फारसी में भाषान्तर हुआ और फिर वहाँ से अरबी में। इस रीति से कलीला और दिमना की कहानियां और चिकित्सा शास्त्र पर एक पुस्तक सम्भवतः प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक संहिता अरबियों को प्राप्त हुई थीं। भारत और बगदाद में यह व्यवहार न केवल दो मार्गों से हुआ है बल्कि साथ ही दो भिन्न-भिन्न कालों ७४३-७७४ ई० तक सिन्ध देश पर खलीफा मन्सूर का शासन था। इस समय सिन्ध से बगदाद में दूत आते-जाते रहते थे। इनमें प्रायः अनेक विद्वान् भी रहा करते थे, किसी समय एक भारतीय विद्वान् जिसका नाम संभवतः कङ्क या काङ्कायन था, जो अपने साथ ब्रह्मगुप्त का ब्रह्मसिद्धान्त (सिन्द-हिन्द अथवा सिन्धिक) और खण्डखाद्य (अल्-अरकन्द) लाया था। इसी की सहायता से अलफजारी ने और सम्भवतः याकूब इब्न तारिक ने भी उसका भाषान्तर किया था। अलफजारी और याकूब इब्न-तारिक का नाम प्रायः अरबी ज्योतिष के ग्रन्थों में एक साथ ही आता है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि इन दो लेखकों के मध्य अवश्य ही कोई निकट का सम्बन्ध था। सम्भव है ये दोनों इन्हीं काकायन के शिष्य रहे होंगे। अलबेरुनी ने अपने ग्रन्थ में दोनों का प्रायः साथ-साथ उल्लेख किया है। तथापि वह अलफजारी से अधिक याकूब इब्न-तारिक का उद्धरण देता है। अरबी ज्योतिष में (सिन्द-हिन्द अथवा सिन्धिक) और खण्डखाद्य (अल्-अरकन्द) इन दोनों पुस्तकों का ब्रह्मगुप्त ६२० ई० में जब अपने ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त की रचना कर रहे थे, तब मुहम्मद पैगम्बर जीवित थे। मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी खलीफाओं का इस्लामी शासन पूर्व में सिन्ध प्रान्त से लेकर पश्चिम में स्पेन तक फैल गया। अब्बासी खलीफा अल मंसूर (७५४-७७५ ई०) ने दजला नदी के पश्चिमी तट पर ७६२ ई० में राजधानी बगदाद की स्थापना की। बगदाद का वैभव तेजी से बढ़ता गया। अल मंसूर के शासनकाल में ही पहली बार संस्कृत के गणित-ज्योतिष के ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद शुरू हुआ। इस संबंध में पता चलता है कि सिन्ध से एक दूत मण्डली अल-मंसूर के दरबार में पहुंची थी। अल्-मंसूर के आदेश से उन ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद किया गया। यह ७७२-७३ ई० की घटना है। अरबी में सिन्द हिन्द और अल-अरकंद नामक ग्रन्थों की बड़ी ख्याति रही है, हालाँकि ये ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। ये ग्रन्थ ब्रह्मगुप्त के ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त (सिन्द हिन्द) और खण्ड-खाद्यक के (अल्-अरकंद) अरबी अनुवाद थे। पता चलता है कि भारतीय पण्डितों के सहयोग से फारस के विद्वान् याकूब इब्न तारिक और अरब के इब्राहिम अल्-फजारी के बेटे मुहम्मद ने ब्रह्मगुप्त के इन ग्रन्थों का पहली बार अरबी में अनुवाद किया था। बाद में इन ग्रन्थों के अरबी में कई अनुवाद हुए। इस प्रकार पहली बार ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थों से ही अरबी पण्डितों को भारतीय गणित तथा ज्योतिष सिद्धान्तों की जानकारी मिली थी। अरबी में टालमी और यूक्लिड के यूनानी है। १. गुणाकर मुले-संसार के महान गणितज्ञ । १. गुणाकर मुले, संसार के महान् गणितज्ञ । २. अरबी साहित्य की उत्पत्ति, पृ० ४२। अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २३३ २३२ ज्योतिष-खण्ड बहुत उपयोग हुआ है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर पहली बार अरबियों को ज्योतिष की वैज्ञानिक विधि का ज्ञान हुआ था। अरबी ज्योतिषियों ने टालमी की अपेक्षा पहले भारतीय आचार्य ब्रह्मगुप्त से शिक्षा प्राप्त की थी। भले ही ब्रह्मगुप्त अरब न जा सकें हों, किन्तु उनके ग्रन्थ ने अरब पहुँचकर वहाँ के लोगों को भारतीय ज्योतिष का परिचय कराया। भारतीय विद्या का दूसरा प्रभाव ७८६-८०८ ई० के मध्य हारु के शासन-काल में आया। पुरोहितों का बर्मक नामक एक कुल शासकों के साथ बल्ख से बगदाद में आया था। कहते हैं बर्मक शब्द भारतीय भाषा से निकला है और इसका अर्थ परमक (बिहार का उच्च पदाधिकारी) है। इसमें सन्देह नहीं कि बर्मक-वंश मुसलमान हो गया था, पर इसके सहयोगी इसे कभी सच्चा मुसलमान नहीं समझते थे। अपनी कुछ मर्यादा के अनुसार ये बर्मक-वंशीय लोग चिकित्सा के अध्ययनार्थ विद्वानों को भारत में भेजा करते थे। इसके अतिरिक्त ये कई भारतीय विद्वानों को सहयोगी बनाकर बगदाद में लाये थे और उन्हें अपने चिकित्सालयों का मुख्य चिकित्सक नियुक्त किया था। ये विद्वान् उनकी आज्ञानुसार चिकित्सा, भैषज्ञ संस्कार, विष विद्या, दर्शन शास्त्र, नक्षत्र विद्या (ज्योतिष) और अन्य विषयों की संस्कृत पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किये थे। १८वीं शताब्दी तक मुसलमान विद्वान् बर्मक वंश के वार्ताहर (अर्थात् संदेशवाहक) बन कर कई बार यात्रा करते रहे हैं। अलमुआफक, जो अलबेरुनी के कुछ ही समय पहले हुआ है, इसी प्रकार का वार्ताहर था। _ गणित, फलित ज्योतिष (विशेषतया जातक) औषध और और भैषज्य संस्कार विद्या की पुस्तकों के अतिरिक्त अरबियों ने सर्प विद्या, विष विद्या, शकुन परीक्षा, कवच, पशु चिकित्सा, तत्वज्ञान, तर्क विद्या, आचार शास्त्र, राजनीति और युद्ध विद्या पर भारतीय ग्रन्थों, अनेक कथाओं और बुद्ध की एक जीवनी का भी अरबी में भाषान्तर किया था। अरबियों का मनभाता विषय भारतीय गणित था। अर्कन्दी और अन्य पुस्तकों के प्रकाशन से इस विषय का ज्ञान अरब देश में अधिक फैला। ७७१ ई० में एक भारतीय यात्री बगदाद गया था। वह अपने साथ एक भारतीय ज्योतिष का ग्रन्थ ले गया था। उसी का अनुवाद मुहम्मद-इब्न-इब्राहिम अल फजारि ने मन्सूर की आज्ञानुसार अरबी में किया। यह अरबी भाषा में प्रथम ज्योतिष का ग्रन्थ था। थी। इस काल में पृथ्वी की परिधि और व्यास को नापा गया। पृथ्वी की परिधि के सिद्धान्त को सर्व-प्रथम मूसा इब्न-शकादिर के पुत्रों ने कार्यरूप में परिणत किया। उस काल का खगोल-विद्या का सबसे बड़ा ज्ञाता अबु-मुदखिल-इल-लम-हयात-अल-अलफाक था। मामून की ज्योषिभवन के अतिरिक्त उस समय तीन और ज्योतिषशालायें थीं।’ उस काल में खगोल विद्या का सबसे धुरन्धर विद्वान् अब-अबदुल्लाह-मुहम्मद-इब्न जाबिर-अल-बत्तानि था। इसका काल ८७७-६१८ ई० के बीच में माना जाता है। यह साबियन था और हरीन का रहने वाला था। अल-रक्काह में इसने अपनी ज्योतिषशाला बनाई थी। अल-बत्तानि ने सूर्य ग्रहण के विषय में अपना मूल सिद्धान्त प्रतिपादित किया। गणित ज्योतिष के क्षेत्र में इस समय सबसे बड़ा विद्वान् अबु-मशार था। इसके चार ग्रन्थों का लैटिन भाषा में अनुवाद हुआ। इसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि मनुष्य के जीवन में ग्रहों का बहुत बड़ा स्थान है।

प्रसिद्ध अरबी लेख अलबेरुनी

अलबेरुनी का जन्म ६७३ ई० में हुआ तथा मृत्यु १०४८ ई० में हुई। यह महमूद गजनवी के समय भारत आया। मूलतः यह साहित्यिक एवं ज्योतिष विषयक अभिरुचि वाला था। इसने भारतीयों और विदेशियों के बीच विद्या विषयक सेतु का काम किया तथा अरबों और ईरानियों को भारतीयों की विद्याओं का ज्ञान कराया और भारतीयों को अरबों तथा ईरानियों के नए-नए अन्वेषणों से परिचित कराया। इसी ने अरबी जानने वालों के लिए संस्कृत से और संस्कृत जानने वालों के लिए अरबी से पुस्तकों का अनुवाद किया, और इस प्रकार इसने वह ऋण चुकाया जो भारत का बहुत दिनों से अरबी भाषा की विद्याओं और विज्ञानों पर चला आ रहा था। इसने भारत के संबंध में तीन प्रकार की पुस्तकें लिखी। एक अरबी से संस्कृत में, दूसरी संस्कृत से अरबी और तीसरी भारतीय विद्याओं और सिद्धान्तों की खोज। अलबेरुनी द्वारा लिखित सभी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। यदि ये आज उपलब्ध होते, तो ज्योतिष को एक नवीन दिशा अवश्य मिलती। तथापि ‘अलबेरुनी का भारत’ नामक जो ग्रन्थ आज उपलब्ध है, उससे भारतीय एवं अरबी ज्योतिष के विषय में बहुत कुछ ज्ञान होता है। अलबेरुनी कहता है कि भारतीयों में नक्षत्र विद्या बहुत प्रसिद्ध है। क्योंकि उनके धार्मिक कार्यों का इसके साथ कई प्रकार से संबंध है। यदि मनुष्य ज्योतिषी बनना चाहता है तो उसे न केवल गणित ज्योतिष को अपितु फलित ज्योतिष को भी जानना चाहिए। वह

सिद्धान्त ज्योतिष

अरब ज्योतिष का आधार भारतीय ग्रन्थ ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त और खण्डखाद्य थे। इनका अनुवाद दो विभिन्न व्यक्तियों ने किया। नवीं शताब्दी में पहली बार ज्योतिष का अध्ययन करने के लिए ठीक प्रकार के यंत्र बनाये गये। अल-मामू के काल में एक ज्योतिषभवन का निर्माण किया गया जिसमें ज्योतिष के बड़े-बड़े विद्धान् अध्ययन किया करते थे। ज्योतिष के यंत्रों पर पहली पुस्तक अलि-इब्न-ईस-अल-अस्तुरलाबि ने लिखी १. अरब की सभ्यता तथा संस्कृति का विकास, पृ. १०७। २. अलबेरुनी का भारत, पृ० १२-१३ । अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २३५ ज्योतिःशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितं तत्कात्ोपनयस्य नाम मुनिभिः संकीर्त्यते संहिता। -अर्थात् गणित, फलित के साथ ज्योतिष के अन्य विधाओं से सम्बन्धित समस्त विषय एक साथ जिस ग्रन्थ में वर्णित हों, मुनियों ने उसी को संहिता ज्योतिष का नाम दिया
२३४ ज्योतिष-खण्ड कहता है कि मुसलमानों में जो पुस्तक सिधिन्द नाम से प्रसिद्ध है, उसे भारतीय सिद्धान्त कहते हैं। उसके अनुसार सिद्धान्त का अर्थ सीधा अर्थात् जो टेढ़ा या बदलने वाला न हो। अलेबेरुनी ने अपने समय में भारतवर्ष के जिस सिद्धान्त ज्योतिष के ग्रन्थों को देखा एवं पढ़ा था उनके नामों का उल्लेख करता हुआ वह कहता है कि भारतवर्ष में पाँच सिद्धान्त प्रसिद्ध हैं १. सूर्य सिद्धान्त- उसकी मान्यता के अनुसार यह लाट द्वारा रचित है। २. वशिष्ठ सिद्धान्त- उसकी मान्यता के अनुसार यह विष्णु चन्द्र द्वारा लिखा गया है। ३. पुलिस सिद्धान्त- उसकी मान्यता के अनुसार यह पोलिस नामक यूनानी ज्योतिषी के द्वारा लिखा गया है। ४. रोमक सिद्धान्त- उसकी मान्यता के अनुसार यह रोमन राज्य के प्रजाओं के नाम से कहा गया है। इसका लेखक श्रीषेण है। ५. ब्रह्मसिद्धान्त-अलबेरुनी पैतामह सिद्धान्त को ब्रह्मसिद्धान्त कहता है। उसकी मान्यता के अनुसार ब्रह्मसिद्धान्त जिष्णु के पुत्र ब्रह्मगुप्त की रचना है। वह लिखता है कि इन पुस्तकों के सभी लेखको ने एक ही स्रोत अर्थात् पितामह सिद्धान्त से ज्ञान प्राप्त करके पुस्तक बनायी है। पितामह ब्रह्मा के नाम पर है। उसके अनुसार वराहमिहिर ने पञ्चसिद्धान्तिका नामक एक ज्योतिष का गुटका बनाया है। अलबेरुनी भानुयश द्वारा रचित रसायन तन्त्र, आर्यभटीय तथा बलभद्र के दो तन्त्रों का उल्लेख करता है। करणों के विषय में ब्रह्मगुप्त कृत खण्ड खाद्य तथा सुग्रीव नामक एक बौद्ध के कारण ग्रन्थ दधिसागर का भी उल्लेख करता है। इसके अलावा काशी निवासी विजयनन्दिन् नामक टीकाकार द्वारा रचित एक ग्रन्थ ‘करणतिलक’ का तथा नागपुर के भदत्त के पुत्र वित्तेश्वर द्वारा रचित करणसार एवं भानुयशस के करण ग्रन्थों का भी वह उल्लेख करता है।

फलित ज्योतिष (जातक)

अलबेरुनी के अनुसार उसके समय में भारत वर्ष में जन्म पत्रिका का निर्माण एवं फल जानने के लिए जो ग्रन्थ उपलब्ध थे उसमें उपर्युक्त संहिताज्योतिषकार सात आचार्यों के अतिरिक्त सत्याचार्य, मणित्थ, यवनाचार्य तथा जीवशर्मा की फलित पर पुस्तकें थी तथा वराहमिहिर के दो जातक ग्रन्थ बृहज्जातक तथा लघुजातक विद्यमान थे, जिसका अनुवाद अरबी भाषा में अलबेरुनी ने किया था। कल्याणवर्मा की सारावली जो फलित की अच्छी पुस्तक है उसका प्रचार अलबेरुनी के समय में अधिक था।

अंक लिखने की पद्धति

अलबेरुनी के अनुसार विश्व की सभी जातियाँ इस विषय में एक मत हैं कि गणित में संख्याओं के सभी अनुक्रमों का दस के साथ एक विशेष संबंध होता है और प्रत्येक अनुक्रम अपने से पिछले का दसवां भाग और अपने से पहले से दस गुना होता है। अलबेरुनी लिखता है कि मैं विभिन्न देशों के संख्याओं को जानता हूँ। वे भारतीयों से बहुत पीछे हैं। अरबी लोग भी सहन पर जाकर रुक जाते हैं, किन्तु भारतीय ही ऐसे है जिनकी गिनती का क्रम परार्ध तक जाता है। भारतीय लोग गणित में संख्या वाचक चिह्नों का प्रयोग अरबी के समान ही करते हैं। किन्तु कोई अपनी संख्याओं को शब्दों के द्वारा भी प्रकट कर देते है। जैसे शून्य के लिए आकाश, एक के लिए चन्द्रमा, २ के लिए आँख, ३ के लिए गुण, ४ के लिए वेद, ५ के लिए बाण या इन्द्रिय, ६ के लिए रस या ऋतु, ७ के लिए पर्वत या मुनि, ८ के लिए वसु, ६ के लिए नन्द तथा १० के लिए दिशा का प्रयोग करते हैं। अलबेरुनी कहता है कि भारतीयों की भाषा में मौलिक और व्युत्पन्न दोनों प्रकार के शब्दों का बहुत बड़ा भण्डार है। भारतीय एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ कर देते हैं। एक सूर्य के लिए ही उनके यहाँ एक हजार नाम है। हो सकता है प्रत्येक ग्रह के लिए उनके यहाँ एक-एक हजार नाम हों। भारतीयों का इससे कम में काम ही नहीं चल पाता। वह लिखता है कि जिस प्रकार फारसी में शम्बिह शब्द सप्ताह दिवस की संख्या के पश्चात् आता है, उसी प्रकार सप्ताह के दिनों के नाम ग्रहों के परम प्रसिद्ध नामों के बाद वार शब्द जोड़कर बनाए गये हैं। जो इस प्रकार हैं

संहिता ज्योतिष

संहिता ज्योतिष के विषय में अलबेरुनी कहता है कि भारतवर्ष में सात संहिताएँ भिन्न-भिन्न आचार्यों की देखने को उसे मिली है जो क्रम से इस प्रकार हैं। १. माण्डव्य संहिता २. पराशर संहिता 3. गर्ग संहिता ४. ब्रह्म संहिता ५. बलभद्र संहिता ६. दिव्य-तत्त्व संहिता ७. बृहत्संहिता। वह कहता है कि संहिता का अर्थ है इकट्ठा किया हुआ, अर्थात् ऐसी पुस्तकें जिनमें प्रत्येक के विषय पर थोड़ा बहुत लिखा गया है, जैसे यात्रा के विषय में, उल्का शास्त्र संबंधी घटनाओं से निकाली हुई चेतावनियाँ, लक्षण के अनुसार भाग्य जानना, हाथ की रेखाओं को देखकर भविष्य कहना, शुभाशुभ चीजों का ज्ञान, स्वप्नों के अर्थ निकालना, पक्षियों के उड़ने या बोलने से शकुन लेना इत्यादि। भारतीय ज्योतिष की परम्परा में वराहमिहिर ने संहिता ज्योतिष का अर्थ करते हुए लिखा है कि २३६ अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २३७ संस्कृत रविवार सोमवार मंगलवार बुधवार बृहस्पतिवार = शुक्रवार शनिवार ज्योतिष-खण्ड अरबी यकशम्बिह दूशम्बिह सिंहशम्बिह चहारशम्बिह पञ्चशम्बिह

अक्षांश एवं देशान्तर की गणना

भारतीय देशान्तर की गणना पद्धति से अलग अरब ज्योतिष में देशान्तर की गणना का उल्लेख प्राप्त होता हैं। अरबी ज्योतिषी अलफजारी ने ज्योतिष के अपने ग्रन्थ में देशान्तर गणना का उल्लेख इस प्रकार किया है। उसके अनुसार दो स्थानों के अक्षों (अक्षांशों) की त्रिज्याओं के वर्गों को जोड़ना पुनः जोड़ का वर्गमूल लेना। यह मूल विभाग है, फिर इन दो त्रिज्याओं के भेद को वर्ग करें और इसमें विभाग को मिलाएँ। समाहार को ८ से गुणा और गुणनफल को ३७७ पर भाग देने पर जो भाग-फल होगा वह स्थूल गणना के अनुसार, दो स्थानों के बीच का अन्तर है। फिर दो अक्षों के बीच के भेद को पृथ्वी की परिधि के योजनों से गुणा करें, और गुणनफल को पुनः २६० से विभक्त करने पर देशान्तर ज्ञात होता है। जुमा शम्बिह

पृथ्वी के चार भाग

अलबेरुनी के अनुसार भारतीय ज्योतिषी वास-योग्य जगत् की द्राधिमा (देशान्तर) का निश्चय लंका से करते हैं जो कि इसके मध्य में विषुव रेखा पर स्थित है, और यमकोटि इसके पूर्व में, रोमक इसके पश्चिम में, और सिद्धपुर विषुव रेखा के उस भाग पर स्थित है जो लंका के अत्यन्त पृष्ठभाग में है। तारों के चढ़ने और छिपने के विषय में भारतीयों के मन्तव्यों से प्रकट होता है कि यमकोटि और रोमक का एक दूसरे से आधे चक्र का अन्तर है। याकूब और अलफजारी के अनुसार, यमकोटि वह देश है जहाँ समुद्र में तारनगर हैं। (अलबेरुनी) ने भारतीय साहित्य में इस नाम का कुछ भी पता नहीं पाया। वह कहता है कि हिन्दुओं ने सिद्धपुर के अस्तित्व की कल्पना कैसे कर ली यह मैं नहीं जानता, क्योंकि हमारी तरफ (अरब) विश्वास है कि बसे हुए आधे चक्र के पीछे ऐसे समुद्रों के सिवा और कुछ नहीं है, जो कि जहाजों के चलने के लिए अयोग्य है। हिन्दू लोग किसी स्थान का अक्ष (अक्षांश) किस प्रकार मालूम करते हैं इसका हमें पता नहीं लगा। वास-योग्य जगत् की द्राधिमा (देशान्तर) आध चक्र है यह सिद्धान्त उनके ज्योतिषियों में बहुत फैला हुआ है। उनका (पाश्चात्य ज्योतिषियों से) केवल उस बात पर भेद है जो कि इसका आरम्भ है। हिन्दुओं के रेखांश का आरम्भ उज्जैन है, जिसको वे (वास-योगय जगत् के) एक चर्तुथांश की पूर्वी सीमा समझते हैं, और दूसरे चतुर्थाश की पश्चिमी सीमा, यह सभ्य संसार के अन्त से कुछ दूरी पर पश्चिम में है। इस विषय पर पश्चिमी ज्योतिषियों का सिद्धान्त दुविधा में है। कई तो रेखांश का आरम्भ (अटलाण्टिक) सागर के तट को मानते और पहले चर्तुथांश का विस्तार वहां से बल्ख के समीप तक करते हैं। कई और लोग सुर्खियों के द्वीपों को रेखांश का आरम्भ मानते हैं, और वास-योग्य जगत् के चतुर्थांश का विस्तार वहां से जुर्जान और निशापुर के पड़ोस तक करते हैं।

काल-मान

मान और प्रमान का अर्थ माप है। याकूब इब्न तारिक ने अपनी पुस्तक “गगनमण्डल की रचना’ में चार प्रकार के मानों का उल्लेख किया है, परन्तु वह उनको पूरे तौर से नहीं जानता था, और इसके अतिरिक्त यदि टीका करने वाले का दोष नहीं है, तो नामों का वर्णविन्यास भी अशुद्ध है। सौर-मान- अर्थात् सूर्य सम्बन्धी माप। सावन-मान- अर्थात् वह माप जो चढ़ने पर आश्रित है (नागरिक माप)। (भारतीय गणना के अनुसार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के बीच के समय को एक सावन दिन कहते हैं। इसे पृथ्वी का भी दिन कहा जाता है। इन ३० सावन दिनों का एक सावन मास कहा जाता है। यही बारह मास होने पर सावन वर्ष हो जाता है और सावन मान कहा जाता है।) चान्द्र-मान- अर्थात् चाँद संबंधी माप। नाक्षत्र-मान- अर्थात् नक्षत्र संबंधी माप। ये चारों प्रकार के मान के दिन हैं अर्थात् अलग अलग प्रकार के दिन हैं, जिनका जब दूसरे दिनों के साथ तुलना की जाय तो मान का एक विशेष प्रभेद दिखायी देता है। परन्तु ३६० की संख्या उन सबमें सामान्य है। प्रत्येक श्रेणी के ३६० दिनों का उसी श्रेणी का एक वर्ष होता है। दूसरे दिनों का निश्चय करने के लिए नागरिक दिनों (सावन दिनों) का परिमाण के तौर पर उपयोग किया जाता है। अलबेरुनी के अनुसार हिन्दू लोग चान्द्र स्थानों का ठीक राशि चक्र की राशियों के सदृश ही उपयोग करते हैं। जिस प्रकार क्रांति मण्डल, राशियों द्वारा, १२ बराबर भागों २३८ ज्योतिष-खण्ड में विभक्त है, उसी प्रकार यह, नक्षत्रों (चान्द्र स्थानों) द्वारा, सत्ताइस बराबर भागों में विभक्त है। प्रत्येक नक्षत्र क्रांति मण्डल की १३.२० अंश या ८०० कला घेरता है। ग्रह उनमें प्रवेश करते हैं और फिर उनको छोड़कर निकल आते हैं, और अपने उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों में से आगे और पीछे घूमते हैं। फलित ज्योतिषी लोग प्रत्येक नक्षत्र के साथ एक विशेष प्रकृति, घटनाओं को पहले से बता देने के गुण और अन्य विशिष्ट मुख्य लक्षणों का उसी प्रकार आरोपण करते हैं जैसे कि वे राशियों के साथ करते हैं। संख्या २७ का आधार यह है कि चन्द्रमा सारे क्रांति मण्डल में से २७.२० दिन में लाँघ जाता है। इसी प्रकार अरब लोग, चन्द्रमा के पश्चिम में पहले पहल दिखाई देने से आरम्भ करके पूर्व में उसके दिखाई देने से बन्द हो जाने तक नक्षत्रों का निश्चय करते हैं।

फलित ज्योतिष

अलबेरुनी कहता है कि उसके समय तक मुस्लिम देशों में फलित ज्योतिष का प्रचार नहीं था, वे लोग भारतीयों के फलित ज्योतिष से तब तक परिचित नहीं हो सके थे और न ही किसी भारतीय पुस्तक के अध्ययन का कभी अवसर मिला था। अतः वे हिन्दुओं के मुहूर्त ज्योतिष को अपने ज्योतिष जैसा समझते थे। अलबेरुनी कहता है कि भारतीयों के फलित ज्योतिष का सर्वांगीण वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका कथन है कि ग्रहों की संख्या सात के विषय में अरबी और भारतीयों के बीच कोई भेद नहीं है, अरबी लोग . इन्हें शुभ मानते हैं। भारतीय कहते है कि बृहस्पति, शुक्र, चन्द्रमा और बुध शुभ है, शनि, मंगल और सूर्य क्रूर है। क्रूर ग्रहों में वे राहु को भी गिन लेते है, जबकि राहु कोई तारा नहीं है. गह की उच्चता या ऊचाई भारतीय भाषा में उच्चस्थ और इसका विशेष अंश परमोच्चस्थ कहलाता है ग्रह की गहराई या नीच स्थान नीचस्थ और इसका विशेष अंश परमनीचस्थ कहलाता है। मूल त्रिकोण एक प्रबल भाव है जो किसी ग्रह के साथ आरोपित किया जाता हैं। अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २३६ अरबी फारसी ग्रन्थों का लैटिन में अनुवाद किया गया। ज्योतिष की तालिकाओं को एगिस से ‘अलफिनसान टेबल्स’ के नाम १३ वीं शताब्दी में क्रमबद्ध किया। यह अरब ज्योतिष का ही विकसित रूप था। स्पेन के अरब खगोल वेत्ताओं ने इस देश के लिए पूर्व के ज्योतिष के आधार पर अनेक ग्रन्थों की रचना की। स्पेन का इस क्षेत्र में पहला वैज्ञानिक अबु-अल-कासिम मसलमह अल मजरीति था, जिसने अल्-ख्वारिज्मी की ग्रहों की तालिका का परिवर्द्धन और संशोधन किया। उसने इन तालिकाओं के आधारसिद्धान्त को बदल दिया। ११२६ ई० में ख्वारिज्मी की ग्रह तालिका का एडीलार्ड ने लैटिन में अनुवाद किया। टोलिडन तालिकाये पर्यवेक्षण और अध्ययन पर आधारित थीं। इनमें स्पेनिश मुस्लिम और यहूदी लोग थे जिनमें अल-जरकालि, अबुइशाक इब्राहीम और इब्न पहया का नाम विख्यात है। इनकी तालिकाओं से भौगोलिक ज्ञान प्राप्त होता है। इन समस्त ग्रन्थों की आधार शिला टालमी और ख्वारिज्मी के ग्रन्थ थे। रेमण्ड ने अपने खगोल के ग्रन्थों का आधार जरकालि के ग्रन्थों को बनाया। जरकालि उस युग का बहुत प्रसिद्ध खगोलशास्त्री था। उसने खगोल के अध्ययन हेतु एक यन्त्र का अविष्कार किया, जिसका नाम सफीहह था। कोपरनिकस ने अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख किया है। स्पेन के अन्तिम खगोलशास्त्रियों में नूर-उल-दी अबु-इशाक अल-बिजि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि विश्व सभ्यता में ज्योतिष के क्षेत्र में अरबों की बहुत बड़ी देन है। बहुत से यूरोपियन भाषाओं में ग्रहों और तारों के नाम अरब नामों से ग्रहण किये गये हैं। __ अरब के शासक फातिमिद खिलाफत खलीफाओं में अलहाकिम जिसका समय ६६६ ई० से १०२१ ई. शासन काल था खगोल ज्योतिष का अधिक विकास हुआ। हाकिम स्वयं ज्योतिष का बहत बड़ा प्रेमी था। उसने अल मकत्तम में एक वेधशाला की स्थापना भी की थी। अल हाकिम ही एक ऐसा खलीफा था जो विद्या और कला का बहुत प्रेमी था। उसके दरबार में अनेक प्रसिद्ध विद्वान् रहा करते थे। उसके दरबार में ज्योतिष का महान विद्वान अलि-इब्न-युनूस, अलि-अल-हसन और अनेक विषयों के विद्वान् दरबार की शोभा बढ़ाया करते थे। युनूस ने खगोल की प्रचलित तालिकाओं के अनेक दोषों को दूर किया। उसने अपने मौलिक अनुसन्धान के द्वारा इसका क्षेत्र विस्तृत किया। इस काल का दूसरा प्रसिद्ध विद्वान् इब्न-अल-हेथम था। कहा जाता है कि इसने गणित, खगोल, दर्शन और चिकित्सा विज्ञान पर सौ ग्रन्थों की रचना की थी।

खगोल

स्पेन देश वर्तमान में यूरोप का हिस्सा है। यह अरब एवं यूरोप के सीमाप्रान्त में स्थित है। दसवीं सदी के आस-पास अरबी लोग स्पेन आदि क्षेत्रों में फैलकर अपनी संस्कृति का प्रचार करने लगे थे। उन दिनों कोरडोवा के शासकों ने ज्योतिष विषय के विद्वानों को बहुत अधिक सम्मान प्रदान किया था। कोरडोवा के उपरान्त सिविलि और टोलिडो के राज्यों में अनेक गणित और ज्योतिष के विद्वानों को प्रश्रय मिलता था। __ अब-मशर के अनुसार मनुष्यों के जीवन और मरण में तारो का प्रभाव पड़ता है। अब-मशर की मृत्यु के पश्चात् उसके इस सिद्धान्त को अन्दलुशिया के ज्योतिषियों ने अपनाया। स्पेन से ही ज्योतिष और गणित पश्चिम में फैला। उन दिनों ज्योतिष के अनेक

भूगोल

भूगोल में भी अरब वासियों की विशेष रुचि थी। अरबों के धर्म में तीर्थ यात्रा का विधान है। प्रार्थना के समय काबा की ओर देखना जरुरी था इसलिए दिशा ज्ञान भी आवश्यक था। अरब व्यापारी रूस, चीन, फारस, भारत और अफ्रीका से व्यापार किया २४० ज्योतिष-खण्ड करते थे। इसके फलस्वरुप अरबवासियों को इन देशों में दिलचस्पी होने लगी। रूस देश की यात्रा का सबसे पहला वर्णन अहमद इब्न फदलान इब्न अहम्मान ने किया था। इसमें टालमी के भूगोल ग्रन्थ का भी अरबी भाषा में अनुवाद किया गया। अल ख्वारिज्मी ने इसी के आधार पर ‘सूरत-अल-अर्ध’ (पुथ्वी की मूर्ति) नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस पुस्तक में पृथ्वी का एक नक्शा भी था। अरबों ने भारत से यह ज्ञान प्राप्त किया कि पृथ्वी का एक केन्द्र बिन्दु होता हैं। उन्होंने दुनिया का केन्द्र बिन्दु अरीन या उज्जैन को माना। उज्जैन भारत का ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में सबसे बड़ा नगर था। अरबों की पहली मूल भूगोल की पुस्तक को हम मार्ग प्रदर्शक पुस्तक ही कह सकते हैं।

गणित

अरब वाले स्पष्ट रूप से कहते है कि उन्होंने भारतवासियों से १ से ६ तक के अंक का ढंग सीखा, और इसीलिए अरब वाले अंको से ‘हिन्दसा’ और इस प्रणाली को ‘हिसाब हिन्दी’ या ‘हिन्दी हिसाब’ कहते है। यह प्रणाली अरबों से यूरोप की जातियों ने सीखी थी, इसीलिये उनकी भाषाओं में इसका नाम अरेबिक अंक हैं। उस काल का ठीक पता तो नहीं चलता जिस समय अरबों ने यह सीखा था, पर समझा यही जाता है कि सन् १५६ हि० में सिन्ध से जो पण्डित सिद्धान्त को लेकर मन्सूर के दरबार में बगदाद गया था, उसी ने अरबों को यह अंक-पद्धति सिखलायी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस भारतीय . सिद्धान्त का अरबी में अनुवाद हुआ था, उसी के “तेइसहवें और चौबीसहवें प्रकरण में गणित और अंको का उल्लेख है और उसी के द्वारा यह ढंग अरबों में चला था। अरबी में पहले अक्षरों में संख्याए लिखते थे। फिर यहूदियों और यूनानियों की तरह अबजद के ढंग से (जिसमें अ से १, ब से २, ज से ३, आदि का बोध होता है) संख्या लिखने लगे थे। आज भी अरबी ज्योतिष में संक्षेप और शुद्ध लिखने की यही रीति चलती है और इसी ढंग से अरबी फारसी आदि में तिथि और सन् संवत् आदि लिखने की प्रथा हैं। संभवतः, सर्वप्रथम मुहम्मद बिन मूसा ख्वारिज्मी ने इस भारतीय हिसाब को अरबी सांचे में ढाला। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के ग्याहरवें संस्करण में अंको पर जो निबन्ध हैं, उसमें पुराने लेखों और हस्तलिखित पुस्तकों में लेकर पूर्वी अरबी, पश्चिमी अरबी और यूरोप के अंको के रूप लेकर दिए गए हैं। उसे एक ही बार देखने से पता लग सकता है कि हिसाब रखने का यह ढंग भारत से चलकर अरब के उसे रास्ते किस प्रकार आगे बढ़ा। अरबी में मायूँ रशीद के दरबारी ज्योतिषी ख्वारिज्मी (सन् ७८०-८४० ई०) ने इन अंको के स्वरुप को ठीक किया, और वही रूप अन्दलुस के मार्ग से यूरोप पहुँचा। यूरोप में गणित की एक विशेष शाखा को एलगोरिथ्म, एलगोरिटेम और एलगोरिज्म कहते हैं। ये सब इसी अलख्वारिज्मी के बिगड़े हुए रूप हैं। अन्दलुस वाले इन्हीं भारतीय अंकों को हिसाबुल गुबार (संस्कृत में धूलि-कर्म) कहते हैं। यूरोप के अंक इन्ही ‘गुबारी’ अंकों से निकले हैं। अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २४१ ये अंक अरब के नहीं, बल्कि भारत के हैं। इसका प्रमाण यह भी है कि अरबी लिपि लिखने के ढंग के बिल्कुल विपरीत ये बांए से दाहिने लिखे जाते है, लेकिन अरबवाले इन्हें लिखते समय दाहिने से बाएं पढते हैं। इब्न नदीम ने इन्हें भारतीय अंक (सिन्धी अंक) कहकर उद्धृत किया है और एक हजार तक लिखने का ढंग बतलाया है। इससे यह भी पता चलता है कि अरबी में यह भारतीय पंण्डितों के द्वारा चलाया गया था। डॉ० सम्पूर्णानन्द ने अपने ज्योतिर्विनोद नामक ग्रन्थ के ‘दिग्विजेता’ नामक अध्याय में लिखा है कि अरब वासियों ने हिन्दुओं से संख्याओं के लिखने की युक्ति सीख ली थी। हमारे यहाँ (भारतवर्ष) स्थान भेद से अंक का मान बढ़ जाता है। जैसे १११ ले, इसमें तीनों स्थानों पर ‘१’ ही हैं, लेकिन प्रथम में एक के बराबर हैं। द्वितीय में १० के एवं तृतीय में १०० के बराबर है। इस युक्ति से गुणा एवं भाग करने में बड़ा सुभीता होता है। अरब वालों ने इसे यूरोप में फैलाया। इसीलिए इन्हें हिन्दू नोटेशन कहते हैं। यूरोप की प्राचीन प्रथा बड़ी भद्दी थी। उनके अनुसार प्रत्येक संख्या के लिए अलग-अलग अंक लिखने पड़ते थे। १११ लिखना हो तो CXI लिखना पड़ता हैं। इससे लम्बे प्रश्नों में बड़ी कठिनाई पड़ती थी। अरब वालों में इर्बजूनिस, अबुल-वफा ओर समरकन्द का बादशाह उलुग बेग प्रद्धि ज्योतिषी हो गये। अलख्वारिज्मी के बाद, भारतीय गणित का प्रचार करने वाला दूसरा व्यक्ति बिन अहमद नसवी ने अलमुकन्नअ फिल् हिसाबिल हिन्दी पुस्तक लिखी।

गणित और फलित ज्योतिष

_ अलबेरुनी कहता है कि भारतीय ज्योतिष शास्त्र में काल का जो विभाग है, उसके सबसे बड़े भाग को ‘कल्प’ कहते हैं। दूसरी पुरानी जातियों की तरह भारतीयों का भी यही विश्वास है कि चन्द्र, सूर्य, शनि, बृहस्पति आदि सातों सितारे जिनकों अरब लोग ‘सबह (सात) सैयारा’ कहते है, सब के सब एक समय में गोलसन्धि में (जहाँ नाड़ी वृत्त, क्रान्ति वृत्त, पूर्वापरवृत्त और क्षितिजवृत्त इन चारों का सम्पात होता हैं) एक साथ उत्पन्न हुए और एक साथ उनकी गति आरम्भ हई। अब यह अपनी अपनी चाल चल रहे हैं। करोडों बरसों के बाद यह सातों उसी गोलसन्धि नामक बिन्दु पर एकत्र हो जायेगें, तब प्रलय होकर संसार का नाश हो जायेगा। वह फिर से बनेगा और फिर उसमें गति का आरम्भ होगा। उन सब की संख्या का नाम ‘कल्प’ है। ब्रहृमगुप्त के हिसाब से एक कल्प में ४ अरब, ३२ करोड़ वर्ष होते है, और फिर इन्हीं से दिनों का हिसाब लगाया जा सकता है। अरबों ने इसी कल्प का नाम ‘सनी उसृसिंद हिन्द’ सिद्धान्त के वर्ष और दिनों का नाम ‘अय्यामसिंद हिन्द’ रखा। _अरबों में करोड़ों बरसों का हिसाब लगाना बहुत कठिन होता था, इसलिये पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अन्त में आर्यभट ने जो सरलतापूर्वक विचार के लिए कल्प के कई हजार २४२ ज्योतिष-खण्ड भाग करके उसी के अनुसार गणना स्थापित की। इन्हीं भागों का नाम युग और महायुग है। इस सिद्धान्त का आर्यभट का जो ग्रन्थ हैं, उसको अरब लोग ‘अरजबहर’ या ‘अरजबहज’ और युग को ‘सनी अरजबहज’ अर्थात् आर्यभट के वर्ष कहने लगे। अरबों ने अस् हिन्द और अरजबहर के संस्कृत अर्थ समझने में यह भूल की। उन्होंने भूल से अलसिंद हिन्द का अर्थ “अद्दहरुद्दाहर” अर्थात अनन्त काल और अरजबहज का अर्थ हजारवां भाग मान लिया। इस अन्तिम पुस्तक का अबुलहसन अहबाजी ने अरबी अनुवाद किया था। याकूब बिन तारिका ने सन् १६१ हि० में किसी पण्डित से जो अरकन्द अर्थात् गुणनखण्ड की पद्धति सीखी थी, वह भी ब्रह्मगुप्त की ही रचना पर आधारित थी, पर इसकी कुछ बातें सिद्धान्त से अलग भी थी। आरम्भ में अरब ज्योतिषियों में सिद्धान्त का अधिक प्रचार हुआ। यद्यपि इसके कुछ ही दिनों बाद यूनानी बतलीमूस की “मजिस्ती’ नामक पुस्तक का अरबी में अनुवाद हो गया और मामू रशीद के समय रसदखाना या वेधशाला भी बन गई और बहुत सी नई बातों का भी पता लग गया तथापि बहुत दिनों तक अरब ज्योतिषी बगदाद से लेकर स्पेन तक इसी भारतीय सिद्धान्त के पीछे लगे रहे। उन्होंने इसके संक्षिप्त संस्करण बनाए, इस पर टीकाएँ लिखी, इसकी भूलें सुधारी, इसमें नयी बातें बढ़ायी गयी। हिजरी पाँचवी शताब्दी अर्थात् ग्यारहवी शताब्दी ईस्वी पर्यन्त (अलबेरुनी के समय तक) यह क्रम चलता रहा। अरबों ने भारतीय ज्योतिषशास्त्र के जो सिद्धान्त अपने यहाँ लिए हैं, उनमें से दो बाते ऐसी है जो वर्तमान परीक्षण से भी सत्य है। ब्रह्मगुप्त ने वर्ष के ३६५ दिन, ६ घण्टे, १२ मिनट और ६ सेकेण्ड निश्चित किए है, और आजकल जाँच से ३६५ दिन ६ घण्टे ६ मिनट ६ सेकेण्ड है। इसी प्रकार पृथ्वी की गति का पक्ष है। आर्यभट और उसके पक्ष के लोग यह मानते थे कि पृथ्वी घूमती है। और इस सम्बन्ध में आर्यभट पर जो आपत्तियाँ की जाती है, ब्रह्मगुप्त ने कहा है कि वे आपत्तियाँ ठीक नहीं हैं। और यही सिद्धान्त आजकल भी ज्यों का त्यों लोगों में माना जाता है।’ अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २४३ हर एक चीज कुण्डली खीच खींचकर बनायी गयी थी। पहले दरबार में ईरानी ज्योतिषियों की प्रधानता थी, फिर हिन्दू ज्योतिषियों ने वहाँ अपना अधिकार जमाया। जान पड़ता हे कि मन्सूर के ही समय में इस विद्या की भारतीय पुस्तकों का अरबी में अनुवाद हुआ था। इन ज्योतिषी पण्डितों में से अरबी में सबसे प्रसिद्ध नाम कनका पण्डित का है। इब्न अबी उसैबा ने लिखा है कि यह एक प्रसिद्ध चिकित्सक और वैद्य था। उखाऊ के अनुसार इस नाम का भारतीय रूप कंकनाय या कनकराय (कनकनाम) होंगा, क्योंकि इस नाम का एक प्रसिद्ध वैद्य भारत में पहले हो चुका है, जिसका मत भारतीय औषधों के सम्बन्ध में प्रामाणिक माना जाता है। इब्न नदीम ने अरबी में इस पण्डित की चार पुस्तकों का उल्लेख किया हैं: १. किताबुन नमूदार फिल् अअमार-आयुष्य के वर्णन की पुस्तक। २. किताब असरारुल मयालीद- उत्पत्तियों या जन्मों के भेद या जातक। ३. किताबुल किरानातुल् करीब- बड़े क्रिरान (बड़े लग्न) के वर्णन की पुस्तक। ४. किताबुल किरानातुल सगीर- छोटे लग्न के वर्णन की पुस्तक। रमल शास्त्र में जो सोलह घरों की खण्ड संख्या के नाम है, उसे अरबी तथा फारसी में आतसी, खाखी, आबी तथा बादी कहा गया है। नाम के जो क्रम दिये गये है, उसमें अरबी, फारसी एवं उर्दू के शब्दों का प्रयोग अधिक मिलता है। प्रस्तार को जाइचा कहा गया हैं। सोलह शकलों के नाम इस प्रकार हैं- लाह्यान शकल, कब्जुलदाखिल, कब्जुल खारिज, जमात, फरहा, उल्का, अंकीश, हुम्रा, बयाज, नुनुत् खारिज, नुस्त्रुदाखिल, अतबे खारिज, नकी, अतवेदाखिल, इज्जतमा, और तारीख। रमल शास्त्र में अलग-अलग प्रश्नों के देखने के लिए ग्यारह प्रकार के क्रम प्रयुक्त होते हैं। जो इस प्रकार है- शकुनक्रम, विजदहक्रम, अब्जदहक्रम, मिजाजक्रम, हर्फा क्रम, असहक्रम, हुम्रा क्रम, अर्जक्रम, माआद क्रम और मुसल्लस क्रम। उपर्युक्त सोलह शकलों को चार संकेतों में जिन समस्त शकलों का निर्माण हुआ था। उनके नाम उर्दू एवं अरबी ही है। यथा-१. खारिज, २. दाखिल, ३.साबित, ४. मुत्कलीब।। रमल शास्त्र पर भारतीय ज्योतिष में अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ। जिसमें कुछ लुप्तप्राय हो गये तथा जो शेष मिलते है, उनके नाम इस प्रकार है .. रमल, रमलआशसंग्रह, रमलग्रन्थ, रमलचक्रम्, रमल चिन्तामणि, रमल ज्योतिषम् रमल नवरत्नम्, रमल प्रश्नचिन्तामणि, रमल प्रश्नविचार, रमल प्रश्नसंग्रह, रमल रहस्यम्, रमल शास्त्रम्, रमल संग्रह, रमल सार, रमल सिन्धु, रमलामृतम्, रामलेन्दु प्रकाश, रमल ज्ञानम्, रमल नवरोज, रमल प्रकाश, रमल प्रश्न, रमल चिह्नानि, रमल रत्न तथा रमल वैचित्र्य। ये समस्त ग्रन्थ भारतीय ज्योतिषियों द्वारा ही लिखे गये हैं। इन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रमल शास्त्र की उत्पत्ति चाहे जहाँ भी हुई हो, किन्तु इसका

ज्योतिष और रमल

ऐसी मान्यता है कि रमल विद्या अरब से भारत में आयी है। अरबी में रमल विशेषज्ञों को रम्माल कहा जाता है। अब्बासी वंश के दूसरे खलीफा मन्सूर के ही समय से, जो १४७ हिजरी सन् में सिहांसन पर बैठा था, अरब में इन विद्याओं का प्रचार हुआ था। इस प्रकार की बातों में मन्सूर को बहुत अनुराग था। जब उसने बगदाद नगर बनवाया था, तब उसकी १. अरब और भारत के सम्बन्ध, पृष्ट ११८-११६ । २४४ ज्योतिष-खण्ड विकास अरबी ज्योतिष में ही हुआ है। इसमें ग्रह, नक्षत्र तथा राशि आदि के बिना ही भूत-भविष्य एवं वर्तमान का ज्ञान हो जाता हैं।

ताजिक शास्त्र

रमल शास्त्र की भाँति ताजिक ज्योतिष फलित ज्योतिष का एक अंग हैं। फलित ज्योतिष के अन्तर्गत एक वर्ष के वर्षफल में ग्रहों, नक्षत्रों और राशियों के अनुसार शुभाशुभ का फलादेश किया जाता है। ताजिक में वार्षिक, मासिक और दैनिक रूप में राशियों के अनुरूप शुभाशुभ का विचार होता है। इसे ज्योतिष का एक अंग माना गया है। ताजिक अरबी भाषा का शब्द है। इसमें मनुष्य के प्रत्येक वर्ष का शरीर, धन, भाई-बहन, माता-पिता, सन्तान, बुद्धि, विद्या, रोग, शत्रु स्त्री, धर्म, लाभ और व्यय आदि १२ प्रभेदों द्वारा शुभाशुभ का विचार किया जाता है। अरबी ज्योतिषियों के द्वारा ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र को यह विद्या मिली होगी। इसके इक्कबाल, इन्दुवार आदि सोलह योग कहे गये हैं। प्रागिक्कवालो पर इन्दुवारस्तथेत्थशालोऽपर ईसराफः। नक्तं ततः स्याद्यमयामणाऊ कंबूलतों गैरिकम्बूलमुक्तम्।। अरबी एवं भारतीय ज्योतिष २४५ ‘यवनाचार्येण पारसीकभाषया प्रणीतं ज्योतिषशास्त्रैकदेशरूपं वार्षिकादिनाना विध-फलादेशफलकशास्त्रं ताजिकशब्दवाच्यं तदनन्तरभूतैः समरसिंहादिभिः ब्राह्मणैस्तदेव शास्त्रं संस्कृतशब्दोपनिबद्धं ताजिकशब्दवाच्यम्। अतएव तैस्ता एव इक्कबालादयो यावन्यः संज्ञा उपनिबद्धाः।।” इस उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि ताजिक शाखा अरबियों से ली गयी है। पार्थपुरस्थ ढुण्डिराजात्मज गणेश का लगभग शक १४८० का ‘ताजिकभूषणपद्धति’ नामक एक दूसरा ग्रन्थ हैं। गर्गाद्यैर्यवनैश्च रोमकमुखैः सत्यादिभिः कीर्तितम् । शास्त्रं ताजिकसंज्ञकं निरवधिं तद् वारिधिं दुस्तरम्। एतत्ताजिकभूषणं नवतरातर्तुं समर्था तरि wक्तार्थं विमलोक्तिवाक्यविलसत्कर्णानुकीर्णा भृशम् ।। (ताजिक भूषण, ३) इससे भी ज्ञात होता है कि ताजिक अरबियों से लिया गया हैं। ताजिक के और भी अनेक ग्रन्थ हैं पूर्व में जिस सिंहल नामक भारतीय यवनाचार्य की चर्चा आयी है, उनके द्वारा एक अन्य सोलह योगों वाला ताजिक शास्त्र लिखा गया है। जो ‘सिंहलताजिकोक्ताः षोडशयोगाः’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये सोलह योग इस प्रकार हैं गुलाला गुलाली खुसाला खुसाली फलासा फलूसी वदारा वदारी। तमाला तमाली तगी तेग तेगा नमीसाव संजीर संजीव योगाः।। इन सोलह योगों का कथन संस्कृत में ही किया गया है किन्तु भाषा अरबी, फारसी या हिन्दी की किसी विशेष स्थान की बोली है कहना कठिन हैं। खल्लासरो रद्दमथो दुफालीकुत्थञ्च दुत्थोत्थदिवीरनामा। तंम्बीरकुत्थौ दुरफश्च योगाः स्युः षोडशेषां कथयामि लक्ष्म।।’ १. इक्कबाल २. इन्दुवार ३. इत्थशाल ४. ईसराफ ५. नक्त ६. यमया ७. मणऊ ८. कंबूल ६. गैरिकबूल १०. खल्लासर ११. रद्द १२. दुफालिकुत्थ १३. दुत्थोत्थदिवीर १४. तंवीर १५. कुत्थ १६. दुरफ। इन सोलह योगों के अतिरिक्त ताजिक शास्त्र में एक दशवां ग्रह है। जिसे मुन्था कहा गया हैं। अरबी ज्योतिषियों का कथन है यह सभी ग्रहों का माता-पिता है। इसके अतिरिक्त ताजिक शास्त्र में मुद्दा दशा, चौवन (५४) विद्या पुण्य आदि सहम, पंचवर्गीय बल में हद्दा, त्रिराशिपति, पंचाधिकारी ग्रहों का दीप्तांश तथा हर्ष बल आदि का विचार किया जाता है। शंकर बाल कृष्ण दीक्षित का ताजिक के विषय में कथन है कि जिस समय मनुष्य के जन्मकालीन सूर्य तुल्य सूर्य होता है अर्थात् जब उसकी आयु किसी भी सौरवर्ष में समाप्त होकर दूसरा सौरवर्ष लगता है, उस समय के लग्न ग्रह स्थिति द्वारा मनुष्य को उस वर्ष में होने वाले सुख-दुःख का निर्णय जिस पद्धति द्वारा किया जाता है उसे ताजिक कहते है। ‘दामोदरसुत बलभद्रकृत हायनरत्न’ नामक एक ताजिक ग्रन्थ है। जिसमें लिखा हैं

लाल किताब

अरबी ज्योतिष की एक और देन है लाल किताब। यह लाल किताब ज्योतिष शास्त्र की प्राचीन परम्परा से भिन्न ग्रह शान्ति का उपाय बताने वाला अद्भुत ग्रन्थ है। इसकी भाषा उर्दू एवं अरबी है। इस ग्रन्थ में भी ज्योतिष शास्त्र की भाँति भावों और ग्रहों को भविष्य कथन का आधार बनाया गया है किन्तु पद्धति भिन्न है। लाल किताब का महत्व इसलिये भी अधिक है कि इसमें फल कथन पद्धति तथा अनिष्टनिवारण उपाय अत्यन्त सरल एवं उपयोगी है। यदि समान्य जड़ी बूटी से किसी रोग की पीड़ा मिटती है तो वह प्रशंसनीय है तथा बहुमूल्य औषधि से पूर्णरूपेण रोग का शमन न हो रहा हो तो वह व्यर्थ हैं। प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थों के सिद्धान्त दुरूह एवं जटिल है जबकि लाल किताब सरल उपायों वाली हैं। इस ग्रन्थ में प्राचीन ज्योतिष की भांति नौ ग्रहों को ही जन्म कुण्डली में स्थान १. ताजिक नीलकष्ठी, २.१५-१६ । २४७ २४६ ज्योतिष-खण्ड दिया गया हैं। ग्रहों के नाम भी परम्परानुसार है, किन्तु लाल किताब में ग्रहों के अनेक नये रूपों की कल्पना यथा ग्रह फल का ग्रह, भाव फल का ग्रह, बराबर ग्रह, पाप एवं पापी ग्रह, नकली ग्रह, कायम ग्रह, धर्मी ग्रह, मुकाबले का ग्रह, साथी ग्रह, अन्धा ग्रह, सुप्त ग्रह, जाग्रत ग्रह, तथा अकेला ग्रह। लाल किताब में भी राहु केतु छाया ग्रह हैं। ग्रहों का लिंग, उच्च-नीच भी भारतीय ज्योतिष ग्रन्थों के प्रमाणानुसार हैं। पक्के घर के ग्रह अथवा ग्रहों का पक्का घर भी होता है। जैसे सूर्य का मेष पक्का घर है, चन्द्रमा का कर्क, मंगल का मिथुन एवं वृश्चिक, बुध का तुला, गुरु का वृष, सिंह तथा धनु, शुक्र का तुला, शनि का मकर, राहु का मीन तथा केतु का कन्या पक्का घर हैं। __ फल देने में जब ग्रह किसी दूसरे ग्रह के समान होता है, तब उसे बराबर का ग्रह कहते हैं। दशम भाव में स्थित ग्रह यदि नीच राशि, दृष्ट, पाप या पापी हों एक दूसरे के नैसर्गिक शत्रु हों, तो वे अन्धे ग्रह कहे गये है। दो ग्रहों की शक्ति मिलकर किसी तीसरे ग्रह की शक्ति के बराबर हो तो तीसरा ग्रह अकेला ही उन दो ग्रहों का स्थान ले लेता है इसीलिए उसे नकली ग्रह कहा जाता है। राहु केतु को ग्रह अकेला ही उन दो ग्रहों का स्थान ले लेता है इसीलिए उसे नकली ग्रह कहा जाता है। राहु केतु को पाप ग्रह की संज्ञा दी गयी है। राहु केतु एवं शनि सामूहिक रूप में पापी ग्रह कहे गये हैं। किसी भी बाधा के बिना जो ग्रह अपना फल देता है उसे कायम ग्रह कहा जाता है। राहु केतु एवं शनि पापी ग्रह हैं किन्तु विशेष स्थिति में ये धर्मी ग्रह बन जाते हैं। राहु या केतु चतुर्थ भाव में धर्मी बन जाते है। चन्द्रमा के साथ यदि राहु या केतु किसी भी भाव में हो तो धर्मी ग्रह हो जाते हैं। शनि लाभ स्थान में धर्मी बन जाता हैं। शनि गुरु के साथ स्थित होने पर किसी भाव में धर्मी ग्रह बन जाता है। धर्मी ग्रह सदैव शुभ फल देता हैं। लाल किताब में उच्च स्वग्रही तथा मित्रादि ग्रहों के स्थान पर मुकाबले के ग्रह, साथी ग्रह, अन्धा ग्रह तथा सुप्त ग्रह की संज्ञा दी गयी हैं। अरबी एवं भारतीय ज्योतिष कोटि के विद्वान् थे। भारतीय परम्पराओं से प्रभावित होकर उन्होंने ‘खेटकोतुकम्’ नामक जातक फलित ग्रन्थ की रचना की। इसका फलादेश भारतीय ग्रन्थों के अनुसार ही है, किन्तु कहीं-कहीं इसका अपना स्वतन्त्र मत भी हैं। खेटकौतुकम् ग्रन्थ में राजयोग के विषय में वर्णित एक प्रसिद्ध श्लोक है जो उसके स्वतन्त्र मत की पुष्टि करता है। यथा यदा मुश्तरी कर्कटे वा कमाने, यदा चश्मखोरा जमी वासमाने। तदा ज्योतिषी क्या लिखेगा, पढ़ेगा, हुआ बालका बादशाही करेगा।। (खेटकौतुकम्, श्लोक ११३) खानखानाँ ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखते है कि पूर्वाचार्यों ने फारसी शब्द मिश्रित संस्कृत पद्यों में अन्यान्य रचनायें की हैं। उन्हीं पूर्वाचार्यों के चरण-पथ का अनुसरण करता हुआ मैं (खानखाना नब्बाब) फारसी शब्द-मिश्रित संस्कृत पद्यों में ‘खेटकौतुक’ नामक ग्रन्थ की रचना करता हूँ। फारसीयपदमिश्रता ग्रन्थाः खलु पण्डितैः कृताः पूर्वेः। सम्प्राप्य तत्पदपथं करवाणि खेटकौतुकं पद्यैः।। (खेटकौतुकम्, श्लोक २)

उकरा

सावजूसयूसकृत ‘उकरा’ नामक एक अरबी ग्रन्थ का सम्पादन पण्डित विभूतिभूषण भट्टाचार्य ने किया है, जो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से १६७८ ई० में प्रकाशित हुआ हैं। इस ग्रन्थ में अरबी ज्योतिषी सावजूसयूस के द्वारा गणित (खगोल) ज्योतिष का प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रन्थ में कुल तीन अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में कुछ क्षेत्रों की चर्चा की गयी हैं। प्रथम अध्याय में कुल २२ क्षेत्र, दूसरे अध्याय में २३ क्षेत्र तथा तीसरे में १४ क्षेत्र वर्णित हैं। कुल ५६ क्षेत्रों का वर्णन हैं, किन्तु किसी-किसी ग्रन्थ में ५८ क्षेत्रों का ही वर्णन आता है। यह गन्थ सावजूसयूस ने अबूल अब्बरस अहमद नामक शासक की आज्ञा से बनाया था। इसमें प्राचीन भारतीय एवं अरबी ज्योतिषियों के मतों का संकलन मात्र हैं, तथापि अरबी ज्योतिष में लिखे जाने के कारण इसका महत्व अधिक हैं।

खेट कौतुकम्

भारतवर्ष में मुगलों के शासन काल में भी फलितज्ञ ज्योतिषियों का सम्मान होता रहा हैं। इसी मध्य अब्दुर्रहीम खानखानाँ ने खेटकौतुक्रम् नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना अरबी, फारसी एवं उर्दू भाषा में की। अब्दुर्रहीम खानखानाँ के पिता का नाम बैरंमखाँ था। इनकी माता मेवाती राजपूत घराने की लड़की थी। अतः अब्दुर्रहीम खानखानाँ के ऊपर भारतीय संस्कृति का विशेष प्रभाव था। पिता की मृत्यु के पश्चात् ये अकबर के कृपा पात्र बने और अपनी योग्यता के कारण मिर्जाखान की उपधि प्राप्त की। गुजरात के युद्ध की सफलता पर इन्हें खानखानाँ की उपाधि मिली थी। ये अरबी, फारसी, संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के उच्च राशियों का नाम करण भारतीयों की भाँति अरबी लोग भी बारह राशियाँ मानते हैं, तथा भारतीय ज्योतिषियों के सदृश राशियों को अनेक भागों में विभक्त करते हैं। होरा को अरबी लोग नीमबहर कहते हैं तथा द्रेष्काण को हैजानात कहतें है। नवांश को फारसी भाषा में नुहबहरात कहा गया हैं। इसी प्रकार अन्य वर्गो का भी विभाग मिलता हैं। २४८ ज्योतिष-खण्ड

मेष गृत्व of is in x si w तुला जूक ģ i wa धनु कमान कौश जघ्य विभिन्न देशों के अनुसार राशियों का नामकरण भारतीय यूनानी अंग्रेजी फारसी अरबी क्रिय एरीस बरे हमल २. वृष तावुर टॉरस सौर मिथुन जितुम जेमिनि दोपकर बोवझ (जोजा) कर्क कुलीर कॉनसर खरंचग सरतान ५. सिंह लेय लीओ शीर अशद कन्या पाथोन वर्गो खुशे सोमवेल लाइब्रा त्राजु मीजान वृश्चिक कौl स्काफर्पिओ कक्षदुम अकरब तौक्षिक सॉजिटेरिअस १०. मकर आकोकेर कॉप्रिकॉर्न गोझ ११. कुम्भ हृद्रोग ओक्वेरिअस दुल दलब १२. मीन अत्न्यभ पिसीजू माही हुत इस प्रकार जहाँ अरबवासियों ने भारतवर्ष की वैदिक सभ्यता से ज्योतिष के क्षेत्र में अनेक तथ्यों को जाना, वहीं भारतवर्ष ने भी यथायोग्य आंशिक ही सही ताजिक, रमल एवं लाल किताब आदि का ज्ञान अरबों से लिया। दोनों ने अपनी-अपनी परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार एक दूसरे के सिद्धान्तों को ग्रहण कर उसमें यथा अवसर संशोधन परिवर्धन करके ग्रहण किया। अल्-ख्वारिज्मी, अलबेरुनी, अलगजाली, अल्मन्सूर आदि ने भारतीय ग्रन्थों का अध्ययन एवं अनुवाद करके अरबी साहित्य को ज्योतिष की दृष्टि से समृद्ध बनाया। उसके पश्चात् यूरोप ही नहीं अपितु समस्त विश्व ने उन ग्रन्थों से लाभ उठाते हुए अपनी भाषाओं में अनुवाद किया। वस्तुतः ये ज्ञान-विज्ञान सतत गतिमान होकर परस्पर एक-दूसरे के पास पहुँचते रहते है। सत्य तो एक ही है, किन्तु विद्वज्जन इसे अनेक रूपों में वर्णन करते रहते है। यही स्थिति भारतीय एवं अरबी ज्योतिष में भी देखी जा सकती है। यही कारण था कि आचार्य वराहमिहिर जैसे मनीषी को भी कहना पड़ा कि