डॉ. विनय कुमार पाण्डेय ज्योतिष शास्त्र में वेध एवं बेधशालाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इस कथन में भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ज्योतिष शास्त्र की आत्मा वेध एवं वेधशालाओं में ही निवास करती है, जिसकी उपेक्षा से इस शास्त्र की स्थिति अकिञ्चित्कर सी हो जाएगी। वेदाङ्गों में ज्योतिष का स्थान नेत्रत्वेन मूर्धा रूप में वर्णित है, जिसका कारण इसकी प्रत्यक्षता भी है। अन्य वेदाङ्ग शास्त्रों में प्रत्यक्ष अनुमानादि प्रमाण द्वारा समस्त तथ्यों का सम्पादन होता हैं, परन्तु यहाँ प्रत्यक्षता का सर्वोत्कर्ष है। इसलिये यहाँ गणितागत तथ्यों का भी प्रत्यक्षीकरण आवश्यक होता है। यद्यपि गणित शास्त्र स्वयं ही प्रमाणभूत हैं, तथापि ज्योतिष जगत में जब तक गणितागत तथ्यों का भी प्रत्यक्षीकरण नहीं होता तब तक उसकी प्रमाणिकता भी स्वीकार्य नहीं होती। अतएव ग्रन्थों में प्रति पद दृग्गणितैक्य का उद्घोष प्राप्त होता है।' गणित द्वारा साधित ग्रहनक्षत्रादिकों की स्थिति का खगोल में प्रत्यक्ष अवलोकन ही दृग्गणितैक्य है। गोल स्थिति के अवलोकन मात्र से ही स्पष्ट ग्रह का वेध विनिगमकत्व सिद्ध होता है। यद्यपि ग्रह भगण एवं अहर्गण द्वारा मध्यम ग्रह साधन पूर्वक फल संस्कार से स्पष्ट ग्रह का साधन विहित हैं, परन्तु गणित सिद्ध ग्रह के सत्यासत्य ज्ञान में वेध को छोड़कर अन्य कोई सरणि नहीं हैं। स्पष्ट ग्रहों का साधन नलिकादि यन्त्रों द्वारा करना ही सर्वथा अनुकूल हैं, परन्तु प्रति पल वेध क्रिया की कठिनता के कारण प्राचीन आचार्यों ने आगमोक्त ग्रह भगण द्वारा ग्रहानयन का विधान बनाया हैं। लेकिन साथ ही समय-समय पर उनकी शुद्धि परीक्षण के लिए वेध का भी आदेश दिया है। गणितीय सिद्धान्तों के कालजन्य दोष से अतिक्रमित होने के कारण गणितागत ग्रह के दृसिद्ध न होने की स्थिति में सिद्धान्त एवं ग्रणित जन्य दोष निवारण के लिए वेध द्वारा ही बीजादि संस्कारों की व्यवस्था शास्त्रों में प्राप्त होती हैं। _ब्रह्माण्डस्थ ग्रहनक्षत्रादि पिण्डों के अवलोकन को वेध कहा जाता है। संस्कृत व्याकरण में वेध व्यध् घातु से निष्पन्न होता है। परिभाषा रूप में नग्ननेत्रया शलाका, यष्टि, नलिका, दूरदर्शक इत्यादि यन्त्रों के द्वारा आकाशीय पिण्डों का निरीक्षण ही वेध है। नलिकादि यन्त्रों से ग्रहों के विद्ध होने के कारण ही इस क्रिया का नाम वेध विश्व विश्रुत हैं। दृष्टि एवं यन्त्र भेद से वेध दो प्रकार का होता हैं। १. यात्रा विवाहोत्सवजातकादौ, खेटैः स्फुटैरेव फलस्फुटत्वम्। स्यात् प्रोच्यते तेन नभश्चराणां, स्फुटक्रिया दुग्गणितैक्यकृद्या ।। सि०शि०-स्व०, श्लोक०-१. २२० ज्योतिष-खण्ड दृष्टि वेध भी अन्तर्दृष्टि वेध एवं बाहय दृष्टि वेध के भेद से दो प्रकार का होता है। यहाँ महार्षियों द्वारा यम-नियम-आसन-प्राणायामादि तपस्याओं से भक्ति ज्ञानजन्य नेत्र द्वारा ब्रह्माण्डस्थ पिण्डों के अवलोकन को अन्तर्दृष्टि वेध तथा स्व-स्व नग्न नेत्र द्वारा खस्थ पिण्डावलोकन को बाह्य दृष्टि वेध माना जाता है। जब हम चक्र, नलिका, शङ्कु, दूरदर्शक आदि वेध उपकरणों से सूर्यादि ज्योतिष पिण्डों को देखते है तो यन्त्र वेध होता है। ब्रह्माण्ड की अनन्त रमणीय सत्ता तक मानव भले ही न पहुँच पाये परन्तु उसका नाचिकेत भाव ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्रादि पिण्डों के बारे में जानने के लिए सदा ही उद्यत रहा है। सृष्ट्यारम्भ काल से ही गगनस्थ पिण्डों की गति स्थिति इत्यादि से चमत्कृत मनुष्यों ने सतत अन्वेक्षण पूर्वक वेध प्रक्रिया विकसित की “प्रयोजनमनदिदश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते” सिद्धान्त के अनुसार न केवल आकाशीय चमत्कार अपितु काल ज्ञान की जिज्ञासा ने भी मानवों को आकाश के अन्वेक्षण के लिए वाध्य किया। प्राचीन काल में मनुष्य जंगलों में वास करता था रात्रि काल में वन के हिंसक पशुओं के भय से वृक्षों या गुफाओं में शरण लेकर सूर्योदय या चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करता था। इस आत्मरक्षा रूप सूर्योदय की प्रतीक्षा ने भी मानवों को गगनान्वेक्षण में प्रवृत्त किया। वस्तुतः ज्योतिष शास्त्र का उद्भव ही महर्षियों के आश्रमों तपोवनों में आकाश दर्शन परम्परा से ही हुआ होगा, इस कथन में भी मिथ्या प्रतीति नहीं होती। परन्तु यह भी सत्य है कि उस समय विकसित वेधोपकरणों एवं वेधशालाओं का अभाव था। परन्तु कुछ यन्त्र अवश्य ही रहे होंगे, जिनका वर्णन लिखित रुप में प्राप्त नहीं होता। _वैदिक काल से ही नक्षत्रों श्वान-नौका प्रजापति ब्रह्मादि तारापुंजों का सप्तर्षि मण्डल एवं नक्षत्रों की युति अन्तर आदि का वर्णन मिलता हैं, जिनका ज्ञान वेध के बिना सम्भव नहीं था। वेदों में वर्णित आकाशीय घटनाओं का उल्लेख वेध सम्बन्धित कुछ साक्ष्य उपस्थापित करता हैं। ‘अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहतिः” इस प्रसङ्ग में नक्षत्रों के मध्य चन्द्रमा की स्थिति सूचित हैं। ऋग्वेद संहिता के एक प्रसङ्ग में बृहस्पति का पुष्य नक्षत्र के साथ उदय निर्दिष्ट हैं-‘बृहस्पतिः प्रथमन्जायमानो तिष्यं नक्षत्रमभिसम्बभूव’ (४।५० ।५) यजुर्वेद में नक्षत्र दर्शन का वर्णन भी प्राप्त होता हैं। वाजसनेयी संहिता के ‘प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शनम्’ उक्ति से भी स्पष्टतया वेध परिलक्षित होता हैं। शतपथ ब्राह्मण के ‘स एव शुक्रः यो हि चमत्कृतो सर्वाधिकः’ (४.२.१) के अनुसार सबसे अधिक प्रकाशवान ग्रह शुक्र है। ऐतरेय ब्राह्मण (४०.५) के अनुसार अमावस्या में चन्द्रमा वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा २२१ सूर्य में प्रवेश करता है तथा सूर्य से चन्द्रमा की उत्पत्ति होती है। इस मत के अनुसार ‘दर्शः सूर्येन्दु सङ्गमः’ का सिद्धान्त ध्वनित होता है जिसका ज्ञान वेध के बिना असम्भव हैं। क्रम बद्ध रूप में आकाश दर्शन की परम्परा से ‘न क्षरतीति नक्षत्रम्’ गच्छतीति ग्रहः इत्यादि ग्रह नक्षत्रों की व्याकरण शास्त्रीय व्युत्पत्तियां सिद्ध हो पायी हैं। वेदों के समग्रावलोकन से प्राप्त ज्योतिषीय तथ्यों के अवगमन द्वारा सारांश रूप में कह सकते हैं कि वैदिक काल में भी वेध परम्परा अबाघ गति से प्रचलित थी, परन्तु किन स्थलो (वेधशालाओं) पर किस साधनों (यन्त्रों) द्वारा वेध सम्पादित होते थे इस विषय में दृढ़ता पूर्वक कुछ भी कहना बड़ा ही कठिन होगा। वैदिक काल के अनन्तर लगघ प्रणीत ‘वेदाङ्ग ज्योतिषम्’ नामक ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ में भी स्पष्टतया कहीं भी वेध एवं वेधशालाओं का वर्णन प्राप्त नहीं है, परन्तु उत्तरायण सूर्य के दिन वृद्धि एवं दक्षिणायन के दिन ह्रास प्रसङ्ग में दिन मापक किसी पानीय यन्त्र का संकेत प्राप्त होता है।’ शङ्कर बाल कृष्ण दीक्षित के अनुसार ‘अथर्वज्योतिष’ नामक ग्रन्थ में द्वादशाङ्गुल शकु की छाया का वर्णन भी प्राप्त होता है। लेकिन वहाँ भी कालान्तर जन्य दोषों के निवारणार्थ किसी भी विधि का निर्देश नहीं है। शुल्बसूत्रों में यज्ञ सम्पादन के प्रसङ्ग में कुण्ड मण्डपादि साधन के लिए शकु द्वारा दिग् साधन का उल्लेख प्राप्त होता है। कौषीतकी ब्राह्मण में सूर्योदय बिन्दु के चल होने का स्पष्ट वर्णन हैं। महाभारत काल में भी ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का समुचित ज्ञान था। शल्य पर्व में शुक्र एवं मंगल के चन्द्रमा से युति का वर्णन प्राप्त होता है। भीष्म पर्व में तो ग्रहों के युति-अन्तरादि विषयों के अनेक उदाहरण उपलब्ध है। भारतीय ज्योतिष नामक ग्रन्थ में गोरख प्रसाद ने स्वीकार किया है कि ग्रहगणित का सम्यक् ज्ञान अत्रि गोत्रीय लोगों के पास था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक काल वेदाङ्ग काल एवं महाभारत काल में वेधोपयोगी यन्त्रों एवं वेधशालाओं का स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता, तथापि तत्कालीन दैवज्ञगण किसी न किसी प्रकार से आकाशीय पिण्डों का निरीक्षण अवश्य ही करते थे जिसके परिणम आज के आधुनिक यन्त्रों द्वारा वेधित परिणामों के भी आसन्न दिखाई देते हैं। यद्यपि पाश्चात्य विद्वानों का आक्षेप है कि वेधं क्रिया से अपरिचित भारतीयों ने ग्रीक देशीय विद्वानों का अनुकरण कर वेध सम्बन्धि ज्ञान प्राप्त किया परन्तु वेद वेदाङ्गादि ग्रन्थों में वर्णित ग्रहों के युति-अन्तरादि सम्बन्धि दृष्टान्त एवं अन्य खगोलीय सूक्ष्म तथ्य पाश्चात्यों के आक्षेप के समुचित उत्तर हैं। सम्भवतः प्राचीन काल में प्रायोगिक एवं व्यवहारिक ज्ञान के लेखन की परम्परा नहीं थी। १. धर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणे तो विपर्यासः षड्मुहूर्त्ययनेन तु।।८।। २. भृगुसूनु धरापुत्रौ शशिजेन समन्वितौ। महाभारत-शल्पपर्त ११/१८. ३. भारतीय ज्योतिष-गोरखप्रसाद, पृष्ठ ३४. ४. भारतीय ज्योतिष-बा.कृ.दी., पृष्ट, १३६ १. ऋग्वेद-१०/८५/२. २. यजुर्वेद-३०/१०. २२२ ज्योतिष-खण्ड वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा २२३ सभी ज्योतिष ज्ञानार्थी गण गुरु आश्रम में वास करते हुए तत सम्बन्धि ज्ञानों का अभ्यास करते थे। अतएव प्राचीन भारतीय ज्योतिष के इतिहास में लिखित रूपेण तेधोपकरणों एवं वेधशालाओं का वर्णन प्राप्त नहीं होता। __ ‘सूर्यः पितामहो व्यासो वशिष्ठोऽत्रि’………….इत्यादि ज्योतिष शास्त्र प्रवर्तकों में सूर्य का वर्णन सर्व प्रथम उद्धृत है, अतः सूर्योक्त सूर्यसिद्धान्त ज्योतिष शास्त्र का प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ स्वीकृत है। सूर्य सिद्धान्तोक्त प्रमाण के अनुसार इस ग्रन्थ का अपौरुषेयत्व एवं कृतयुगान्त रचना काल सिद्ध होता है। इसके स्पष्टाधिकार में स्पष्ट वर्णन है कि जिस विधि से ग्रह दृष्टि में उपलब्ध होते हैं, उस क्रिया को कह रहा हूँ।’ ग्रन्थ के अन्त में गोल, बीज, शङ्कु, कपाल एवं मयूर इत्यादि यन्त्रों का वर्णन मिलता हैं। परन्तु वहाँ भी यन्त्रों के निर्णाण एवं प्रयोग की विधि नहीं दी गयी है। फिर वेध विधि विकास पथ में अग्रसरित दिखाई देती है। पौरुषेय ज्योतिषशास्त्रीय सिद्धान्त ग्रन्थों में सर्व प्रथम ‘आर्य भट्टीय’ उपलब्ध हैं। इसकी रचना ३६८ शक में आर्यभट ने किया था। इस ग्रन्थ में कालमापक स्वयंवह यन्त्र की निर्माण एवं प्रयोग विधि निर्दिष्ट है तथा शङ्कु यन्त्र का भी वर्णन मिलता है। इसके बाद मध्ययुगीय परम्परा में वेध की दिशा में क्रमशः सार्थक प्रयास दिखाई देता है। वाराहमिहिर के पञ्चसिद्धान्त में वेध सम्पादन पूर्वक बीज संस्कार भी दिखाई देता है। वराहमिहिर के अनन्तर वेध परम्परा में ब्रह्मगुप्त का महत्वपूर्ण योगदान हैं। इनका जन्म ५२० शकाब्द में हुआ था। ब्रह्मगुप्त महान दैवज्ञ वेधकुशल एवं दृक्सिद्ध ग्रहों के पोषक थे। इन्होंने वेध द्वारा यह अनुभव किया कि प्रचलित विभिन्न सिद्धान्तों के द्वारा दृक् सिद्ध ग्रह प्राप्त नहीं होते। अतः ब्रह्मगुप्त ने स्फुट दृक्सिद्ध ग्रहों के आनयन के लिए ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त’ की रचना की। इस ग्रन्थ में स्पष्ट सङ्केत प्राप्त होता है कि नलिकादि यन्त्रों द्वारा स्पष्टतर बीज का साधन कर उससे संस्कृत ग्रहों द्वारा ही निर्णय एवं आदेश करना चाहिए। स्वयं भी इन्होंने अपने काल के प्रचलित सिद्धान्तों द्वारा साधित ग्रहों की दृक् सिद्धता के लिए वेध द्वारा बीज व्यवस्थित किया हैं। इनके द्वारा प्राप्त वेध परिणामों ने न केवल भारत अपितु अरबदेशों को भी प्रभावित किया। इनके काल की वेध परम्परा अपेक्षा कृत सुदृढ़ दिखाई देती है। इनके ग्रन्थ ‘खण्डखाद्यकरण’ में अनेक नूतन यन्त्रों का समावेश है। ब्रह्मगप्त के बाद १४४२ शक काल तक वेध परम्परा वद्धि पथ में दिखाई देती है। इस बीच मुञ्जाल, श्रीधराचार्य, श्रीपति, भास्कराचार्य, बल्लालसेन, केशवार्क, महेन्द्रसूरि, मकरन्द, केशव, ज्ञानराज इत्यादि वेध निषुण दैवज्ञों के प्रयास वेध की दिशा में अनन्यतम स्थान रखते हैं। दृसिद्ध ग्रह साधन एवं वेध परम्परा मेकेशवदैवज्ञ तथा उनके पुत्र गणेश दैवज्ञ का भी महत्वपूर्ण स्थान है। केशव दैवज्ञ वेध क्रिया में अतीव दक्ष दिखाई देते है। १४१८ शक के लगभग इन्होंने ग्रह कौतुक नामक करण ग्रन्थ की रचना वेधसिद्ध ग्रहों के आधार पर की। ग्रहकौतुक के स्वकृत मिताक्षरा टीका में अपने द्वारा किए गये वेध का जैसा स्पष्ट वर्णन इन्होंने दिया है वैसा अन्यत्र ग्रन्थों में नहीं दिखाई पड़ता। कलान्तर से इनके ग्रन्थ को भी वेध द्वारा स्थूल देखकर इनके पुत्र गणेश दैवज्ञ ने, वेध द्वारा प्राप्त निष्कर्षों से ‘ग्रहलाघव’ नामक करण ग्रन्थ की रचना की। इसके ग्रह अपने काल में पूर्णतया दृष्ट थे। अपने समय के प्रचलित सिद्धान्तों की समीक्षा करते हुए इन्होंने स्पष्ट लिखा है किस मत के अनुसार कौन ग्रह कितना अन्तरित दिखाई देता है। आज भी घहलानवीय गणित द्वारा अनेक पञ्चाङ्ग प्रकाशित होते हैं परन्तु कालान्तर जन्य प्रभाव से ग्रहलाघवीय ग्रह स्थूल हो चुके हैं। गणेश दैवज्ञ ने कालान्तर में होने वाली अशुद्धि की सम्भानाओं से सावधान करते हुये अपने ग्रन्थ में स्पष्ट आदेश किया है कि कालान्तर जन्य प्रभाव से यदि ग्रहलाधवीय सिद्धान्त भी स्थूल हो जाये तो दैवज्ञों को वेध द्वारा स्पष्ट स्थिति ज्ञान कर इसके सिद्धान्त में परिष्कार कर दृक्सिद्ध ग्रहों का साधन करण चाहिए। इसके बाद लगभग दो शताब्दियों तक ज्योतिष एवं वेध परम्परा का प्रचार प्रसार सामान्य गति से चलता रहा। इसके बीच अनेक विद्धान् हुए जिनमें कमलाकर भट्ट एवं मुनीश्वर आदि प्रमुख हैं। इनके ग्रन्थों में भी वेध सम्बन्धि पूर्वागत परम्परा का ही परिपालन है। इस तरह सूर्यसिद्धान्त या आर्यभट के काल से आरम्भ कर लगभग १५ वीं शताब्दी तक मुख्यतया शकुयन्त्र, घटीयन्त्र, नलिका यन्त्र, यष्टियन्त्र, चापयन्त्र, तुरीययन्त्र, फलक यन्त्र, दिगंशयन्त्र, एवं स्वयंवह यन्त्र का ही प्रयोग दिखाई देता है। इस काल के कुछ स्वतन्त्र वेध ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं, जिनमें यन्त्रों के निर्माण एवं प्रयोग विधि का सुस्पष्ट समावेश है, कुछ गन्थों में तो वर्णित यन्त्रों द्वारा साधित गणितीय तथ्य भी निर्दिष्ट हैं। उनमें से कुछ प्रमुख वेध ग्रन्थों का परिचय निम्न प्रकार हैं यन्त्रराज-१२६२ शक में महेन्द्रसूरी द्वारा विरचित यह ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, इसमें यन्त्रराज नामक यन्त्र के निर्माण एवं प्रयोग विधि का उल्लेख हैं। ग्रन्थारम्भ में वर्णित उद्धरणों द्वारा प्रतीत होता है कि इनके समय में यवनों ने वेध के क्षेत्र में अच्छी उन्नत्ति प्राप्त कर ली थी। यन्त्रशिरोमणि- १५३७ शालिवाहन शक में श्री विश्रामपण्डित द्वारा विरचित इस ग्रन्थ में यन्त्रों का वर्णन एवं क्रान्ति तथा धुज्यापिण्डों के साधनार्थ सारणियां दी गई हैं। इनसे पूर्व के ग्रन्थों में पद्मनाभ विराचित नलिकायन्त्राध्याय एवं ध्रुवभ्रमयन्त्र, चक्रधर दैवज्ञ विरचित यन्त्रचिन्तामणि, ग्रहलाघवकार गणेश दैवज्ञ विरचित प्रतोदयन्त्र, पूर्णानन्दसरस्वती १. तत्तद्गतिवशान्नित्यं यथा दृकतुल्यतां ग्रहाः प्रयान्ति तत् प्रवक्ष्यामि स्फुटी करणमादरात् ।।१४ २. शकुयष्टिधनुश्चक्रैश्छाया यन्त्रैरनेकधा। गुरूपदेशात् विज्ञेयं कालज्ञानमतन्द्रितैःसू० सि० ज्यौ०, २०। ३. संसाध्य स्पष्टतरं बीजं नलिकादि यन्त्रेभ्यः। तत्संस्कृतग्रहेभ्यः कर्त्तव्यौ निर्णयादेशौ ।।३।। १. केतकीग्रहगणितम्, पृष्ट ८ २२४ ज्योतिष-खण्ड वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा २२५ प्रत्यक्षीकरण नहीं होता अर्थात् वेधसिद्ध एवं गणित सिद्ध ग्रहों में अन्तर आता है। अतः इसके निवारण हेतु जयसिंह वेध विधि द्वारा सूक्ष्माति सूक्ष्म नूतन पंचाङ्ग सारणी निर्माण हेतु उद्यत हुए। इस क्रम में सर्व प्रथम इन्होंने पीतलधातु से निर्मित लघु यन्त्रों का निर्माण किया, परन्तु शीघ्र ही अनुभव हुआ कि धातुनिर्मित लघु यन्त्रों से प्राप्त वेध परिणाम त्रुटिपूर्ण हैं। क्यों कि आकार में छोटें होने के कारण उन यन्त्रों में अंकों के सूक्ष्म विभाजन की समस्या, तलपरिवर्तन तथा अनेक बार प्रयोग से यन्त्रों के परस्पर घिस जाने के कारण यन्त्रों द्वारा दीर्घकाल तक सही परिणाम नहीं प्राप्त किए जा सकते। अतः इन समस्याओं के निवारण एवं सूक्ष्म परिणाम प्राप्ति के लिए अरब तथा यूरोप देशीय ज्योतिषियों को आमन्त्रित कर भारतीय दैवज्ञों के समन्वय से भारत में पाँच प्रमुख नगरों दिल्ली, वाराणसी, उज्जैन मथुरा एवं जयपुर में १७२४ ईस्वी से १७३८ ईस्वी के मध्य स्निग्ध श्वेत एवं रक्तवर्णीय पाषाण खण्ड़ों से अनेक वेधशालाओं का निर्माण कर ज्योतिष क्षेत्र को उपकृत किया। रचित नलिकाबन्ध, इत्यादि प्रमुख हैं। यद्यपि इस काल में वेध प्रक्रिया विकासित हो चुकी थी नये यन्त्रों का अविष्कार भी प्रचलन में था परन्तु स्थायी वेध शालाओं की चर्चा कहीं भी प्राप्त नहीं होती। १५ वीं शताब्दी तक यूरोप एवं अरब देशों में वेध प्रक्रिया बहुत विकसित हो चुकी थी। हिपार्कस, टालमी इत्यादि विद्वान अपनी वेध क्षमता से अनेक नूतन तथ्य उपस्थापित कर लिये थे। १३६३ ई० १४३६ ईस्वी के मध्य तैमूरलंग के पौत्र उलूकवेग ने भी वेध के क्षेत्र में सराहनीय प्रयास किया था। उलूकवेग समरकन्द का बादशाह एवं खगोल विद्या का प्रेमी था। अतः इसने अपने राज्य में एक वेधशाला का निर्माण कर वेध द्वारा ग्रह नक्षत्रों की अनेक सारगियां निर्मित की थी। १५ वीं शताब्दी के अनन्तर कालक्रम से वेध विषयक ज्ञान में वृद्धि हुई। पूर्व प्रचलित शङ्कु यष्टि नलिका इत्यादि यन्त्रों के स्थान पर धातु निर्मित लघु यन्त्रों का प्रयोग होने लगा। कालान्तर में लघु यन्त्रों के परिणाम की स्थूलता देखकर ईंट पत्थर एवं चूर्ण इत्यादि से बड़े आकार के यन्त्रों एवं विस्तृत वेधशालाओं का निर्माण एवं प्रयोग होने लगा। सम्प्रति दूरदर्शक आदि अत्याधुनिक वेध यन्त्र आविष्कृत हो चुके हैं, एवं आज-कल प्रायः इन्हीं आधुनिक यन्त्रों की सहायता से वेध कार्य सम्पादित होते हैं। भारतीय वेध परम्परा का स्वर्ण काल महाराज सवाई जय सिंह के काल से प्रारम्भ होता है। यद्यपि जय सिंह के पूर्ववर्ती वेध कुशल दैवज्ञों ने वेधशालाओं का निर्माण कर वेध कार्य सम्पादित किया था, तथापि वेधशालाओं की परम्परा में सवाई जयसिंह की तरह सुव्यवस्थित एवं व्यापक कार्य भारतीय ज्योतिष शास्त्र के इतिहास में नहीं दिखाई देता। इनका जन्म ३ नवम्बर १६८८ ई० को कछवाहा वंशीय आम्बेर नरेश महाराज विशन सिंह तथा महारानी राज कुवँर के घर हुआ था।’ जय सिंह बाल्यावस्था से कुशाग्रबुद्धि एवं प्रतिभा सम्पन्न थे। आठ वर्ष की अवस्था में ही जयसिंह की वाक्पटुता से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने इन्हें ‘सवाई’ की उपाधि प्रदान की थी। १२ वर्ष की अवस्था में ही सवाई जयसिंह को युद्धकला एवं राज्य प्रबन्धन के साथ ही डिंगल संस्कृत फारसी, अरबी, तुरुष्की आदि भाषाओं का सम्यक् ज्ञान हो गया था। यद्यपि जय सिंह ने वेद वेदाङ्गादि अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया परन्तु बाल्यकाल से ही स्वाभाविक रूप में खगोल एवं ज्योतिः शास्त्र में उनकी विशेष अभिरुचि थी। कालान्तर में इन्होंने निज गुरु जगन्नाथ सम्राट द्वारा ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन एवं अभ्यास कर दक्षता प्राप्त की। अध्ययन एवं अभ्यास के क्रम में जय सिंह ने अनुभव किया कि प्रचलित संस्कृत एवं अरबी भाषाओं के पंचाङ्गों में ग्रह-नक्षत्रों की जो स्थितियां अङ्कित की जाती है उनका वेध द्वारा आकाश में दिल्ली वेधशाला १. मिश्रयन्त्र, (यह यन्त्र दक्षिणोत्तरभित्ति, सम्राट, अग्रार्क राशिवलय एवं नियतचक्र यन्त्रों का सम्मिलित रूप हैं) २. सम्राट् यन्त्र। ३. धूप घटिकायन्त्र। ४. षष्ठांश यन्त्र। ५. जयप्रकाश यन्त्र। ६. राम यन्त्र। जयपुर वेधशाला १. लघुसम्राट् यन्त्र। २. सम्राट् यन्त्र। ३. सम्राट् यन्त्र का छत्र। ४. ध्रुवदर्शक यन्त्र। ५. नाड़ीवलय यन्त्र। ६. क्षितिजीय धूपघटिका। ७. क्रान्तिवृत्त यन्त्र। ८. यन्त्र राज। ६. उन्नतांश यन्त्र। १०. दक्षिणोत्तर भित्रि यन्त्र। ११. जयप्रकाश यन्त्र १२. षष्ठांश यन्त्र। १३. राशिवलय यन्त्र। १४. कपाल यन्त्र। १५. चक्र यन्त्र। १६. रामयन्त्र। १७. दिगंश यन्त्र। १८. यन्त्रराज। उज्जैन वेधशाला १. सम्राट् यन्त्र २. दक्षिणोत्तरभित्ति यन्त्र। ३. नाडीवलय यन्त्र। ४. दिगंश यन्त्र। ५. शंकु यन्त्र। ६. दिक्साधक यन्त्र। ७. धूप घटिका यन्त्र। वाराणसी वेधशाला १. सम्राट् यन्त्र। २. लघु सम्राट् यन्त्र। ३. दक्षिणोत्तरभित्ति यन्त्र। ४. नाड़ीवलय यन्त्र। ५. दिगंश यन्त्र। ६. चक्र यन्त्र। १. सवाईजयसिंह, बी० भटनागर, पृष्ट ६. २२६ ज्योतिष-खण्ड सम्प्रति मथुरा वेधशला का अस्तित्व समाप्त हो चुका हैं, परन्तु लिखित प्रमाणों से ज्ञात होता है कि यहाँ विषुववृत्तीय यन्त्र, छादिसमस्थानक यन्त्र, षष्ठांश यन्त्र एवं क्षितिजवृत्त यन्त्रों का निर्माण हुआ था। इन वेधशालाओं में अनवरत वेध सम्पादन पूर्वक जयसिंह ने ग्रह-नक्षत्रों की अनेक सारणियों का निर्माण कराया जिसके द्वारा सधित ग्रह दृक्तुल्य होते थे। सवाई जय सिंह की इच्छा से इनके गुरु जगन्नाथ सम्राट ने दिल्ली-जयपुर आदि वेधशालाओं में वेध सम्पादित कर प्राप्त परिणामों की समीक्षा पूर्वक अरबी भाषा में ‘जिजमुहम्मदशाही" तथा संस्कृत भाषा में ‘सिद्धान्त सम्राट् नामक ग्रन्थों की रचना की। इस ग्रन्थ में उलूगवेग आदि प्राचीन वेध कर्ताओं के सिद्धान्तों से तुलना कर ग्रह-ग्रहगति इत्यादि का आनयन किया गया हैं। इन्होंने जयसिंह द्वारा स्थापित वेधशालाओं में अनेक बार वेधकर ग्रहों की गति स्थिति आदि का निर्धारण किया था। इनके द्वारा किये गये वेधों से प्राप्त परिणामों का उल्लेख ‘सिद्धान्त सम्राट्’ ग्रन्थ में दिखाई देता हैं। वेध एवं वेध शालाओं की परम्परा के सन्दर्भ में गणपतिदेव शास्त्री ने ‘दृक्सिद्धपञ्चाङ्ग निर्माण पद्धति’ की भूमिका में लिखा हैं कि दृग्गाणितैक्य सम्पादन की परम्परा ग्रहलाघवकार गणेश देवज्ञ के काल तक अनवच्छिन्न रूप में दिखाई देती हैं, परन्तु तदनन्तर इस परम्परा में सवाई जयसिंह का ही योगदान प्रशंसनीय हैं। जयसिंह के अनन्तर आधुनिक वेध कर्ताओं में सर्व प्रथम वेंकटेशवापूशास्त्री केतकर महोदय का नाम स्मरणीय है। इन्होंने प्राच्य पाश्चात्य ग्रहगणित के समन्वय से १८१८ शक में सूक्ष्म सिद्धान्त मण्डित ‘केतकी ग्रह गणित’ नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसी क्रम में १८३५ ई० के उड़ीसा प्रान्त के सामन्त चन्द्र शेखर का भी वेध के क्षेत्र में योगदान स्मरणीय हैं। इन्होंने दृग्गणितैवय सम्पादन के लिए प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत यन्त्र वर्णन के अनुसार कुछ यन्त्रों का निर्माण कर वेध द्वारा सिद्धान्त दर्पण नामक ग्रन्थ की रचना की। ज्योतिष शास्त्र के आधुनिक वेध परम्परा में डॉ० मेघनाद साहा, प्रो० एस० चन्द्रशेखर, डॉ० चन्द्रिका प्रसाद, डॉ० हरिकेशव सेन, डॉ० रामसिंह कुशवाहा, श्री गोरख प्रसाद, महामहोपाध्याय डॉ० सुधाकर द्विवेदी, डॉ० सम्पूर्णानन्द, पं० कल्याण दत्त शर्मा इत्यादि दैवज्ञ अभिनन्दनीय तथा स्मरणीय हैं। इन लोगों ने वेध के क्षेत्र में विदेशों में भी ख्याति आर्जित की हैं। - १३ वीं शताब्दी में ‘पोप ग्रिगरी’ द्वारा रचित ‘वांशिगटन’ वेधशाला पाश्चात्य देशीय वेध शालाओं में उपलब्ध सबसे प्रचीनतम वेधशाला हैं। उसमें आज भी वेध कार्य सुचारु रूप से होते हैं।’ ‘ज्योतिर्विनोद’ नामक ग्रन्थ के अनुसार सम्प्रति अमेरिका जैसी विशालतम वेधशालायें अन्य किसी राष्ट्र में नहीं हैं। इनमें तीन वेधशालायें प्रमुख हैं- १. लिंक वेधशाला २. प्रो० लावेल की वेधशाला, ३. हार्वर्ड विश्व विद्यालयस्थ वेधशाला। रामनाथ सहाय के वेध एवं वेधशालाओं की परम्परा २२७ अनुसार अमेरिका के कैलीफोर्निया प्रान्त में ‘फ्लोमर’ पर्वत पर स्थित वेधशाला आधुनिक वेधशालाओं में अग्रणी हैं। आधुनिक भारतीय वेधशालाओं में मद्रास वेधशाला-‘ईस्ट इंडिया’ कंपनी द्वारा निर्मित है। इसका निर्माण जलपोतों के आवागमन हेतु ग्रह क्षत्रों की सहायता से काल एवं दिशा ज्ञान के लिए किया गया था। कोडाईकनाल वेधशाला- तमिलनाडु प्रदेश के कोडाईकनाल नामक स्थान पर लगभग ८००० फुट की ऊचाई पर स्थित यह वेधशाला सौर वेधशाला के रूप में विश्रुत हैं, क्यों कि यहाँ सौर अनुसन्धान की विशेष व्यवस्था हैं। __उटकमण्ड-वेधशाला-नीलगिरि पर्वत पर ‘टाटा मूलभूत अनुसन्धान संस्थान’ के द्वारा स्थापित वेधशाला अद्वितीय है। इसमें एक विशाल रेड़ियों दूरदर्शक यन्त्र स्थापित हैं। उस्मानिया वेधशाला-उस्मानिया विश्वविद्यालय के खम्मल विज्ञान विभाग द्वारा हैदराबाद में स्थापित यह वेधशाला अत्यन्त सुव्यवस्थित हैं। यहाँ अनेक दूरदर्शक यन्त्र हैं। उदयपुर वेधशाला-राजस्थान प्रान्त के उदयपुर नगर में फतेहसागर जलाशय के निकट १६७५ ई० में स्थापित यह वेधशाला उत्तम हैं। नैनीताल वेधशाला- उत्तरांचल प्रदेश के नैनीताल शहर में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा १६५५ ई० में स्थापित यह वेधशाला उत्कृष्ट रूप में खगोल विषय अनुसन्धान में सतत प्रयत्नशील हैं। इन आधुनिक वेधशालाओं के अतिरिक्त राष्ट्र के अनेक भागों में कृत्रिम तारामण्डल भी स्थापित हैं। १. अर्वाचीनं ज्योतिर्विज्ञानम्, पृ० २०० ।